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( ७७ ) यहाँ एक 'तर्क' उठता है । इस मंत्र के पूर्वार्द्ध में तर्क से सम्बन्धित एक उदाहरण मिलता है । दर्शन-शास्त्र में पाये जाने वाले अनेक सिद्धान्तों में इस 'तर्क' का प्रायः प्रयोग किया जाता है। युक्ति इस प्रकार दी जाती है-“यदि यह विश्व मिथ्या होता तो यह सहसा लुप्त हो जाता; किन्तु यह बात घटित नहीं होती। इस कारण इसे मिथ्या कहना अनुचित है ।" इस युक्ति से यह सिद्ध किया जाता है कि 'विश्व' सत्तामय है । इस विचार से अद्वैतवादी सहमत नहीं हैं। वास्तव में श्री गौड़पाद की कारिका द्वारा रचित वेदान्त-दुर्ग की दुर्भेद्य प्राचीरों (दीवारों) में छेद करने (दोष ढूढने) के उद्देश्य से कुछ पालोचक यह युक्ति प्रस्तुत किया करते हैं।
इस मंत्र के यथार्थ रहस्य को ये पालोचक समझ नहीं पाते । यहाँ इस का यह अर्थ किया जायेगा कि "यदि किसी ने पदार्थमय संसार की धारणा की हो तो वह जाती रहेगी । वस्तुतः इसकी केवल प्रतीति होती है। इसकी वास्तविकता नहीं है । जब हम 'ध्यान' द्वारा परम-तत्त्व को अनुभव कर लेंगे तो 'वैत' की प्रतीति भी न रह पायेगी।" इस मंत्र के अन्तिम भाग में यह बात पूर्ण रूप से सिद्ध होती है कि इस 'सत्य' का अनुभव कर लेने पर पदार्थमय संसार सर्वथा लुप्त हो जाता है।
सोऽयमात्माऽध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा
मात्राश्च पादा प्रकार उकारो मकार इति ॥८॥ मात्रा के विचार से यह प्रात्मा ही ॐ है । मात्राओं के अनुसार इसके पाद किये जाते हैं । इसके पाद मात्राएं हैं और मात्राएँ पाद । यहाँ अक्षर 'अ', 'उ' और 'म्' हैं । __इस मंत्र में सनातन-ध्वनि 'ॐ' की फिर व्याक्या की गबी है। प्रात्मा की व्याख्या करते हुए पिछले मंत्रों में ॐ का पूरा वर्णन किया गया था । यहाँ ॐ की तीन मात्रामों (अ, उ पौर म) का अर्थ स्पष्ट रूप से समझाया जा रहा है।
इससे पहले हममे ॐ की तीन मात्राओं (अ, उ और म्) में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थानों का आरोप किया था । इस प्रकार
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