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चेतना की चतुर्थ अवस्था का अनुभव कब होता है ? इस बात को यहाँ समझाया गया है । यहाँ स्वप्न एवं निद्रा का इनके आध्यात्मिक रूप में वर्णन किया गया है, जिसे हम 'भ्रान्ति' तथा 'अज्ञान' कहते हैं । यहाँ जाग्रतावस्था को विशेष रूप से वर्णन नहीं किया गया है क्योंकि 'स्वप्न' म जाग्रतावस्था की भी गणना की गयी है। इसका कारण यह है कि इन दोनों अवस्थाओं में हमें सनातन-तत्त्व के प्रति भ्रान्ति होती है । यदि कोई व्यक्ति रज्जु (रस्सी) में 'सर्प' को देखता है अथवा एक 'छड़ी' को तो दोनों अवस्थाओं में वह भ्रान्ति का शिकार बना रहता है । ऐसे ही 'जाग्रत' एवं 'स्वप्न' से सम्बन्धित हमारे सभी अनुभव मिथ्या होते हैं और हम परम-तत्त्व को जान नहीं पाते।
इस मंत्र में हमें यह बताया जा रहा है कि 'तुरीय' इस मिथ्यात्व से परे है। यहाँ निद्रा का प्रयोग भ्रान्ति को दिखाने के लिए किया गया है । हम पहले यह बता चुके हैं कि 'सत्य' के प्रति ज्ञान का अभाव होने से 'जाग्रत' एवं 'सुप्त' अवस्था में हम दृष्ट तथा सूक्ष्म जगत् में भिन्न-भिन्न अनुभव प्राप्त करते रहते हैं । इसलिए इन दोनों अवस्थाओं में मिथ्या ज्ञान अनुभव करने का मूल-कारण अज्ञान (अविद्या) है ।
जब हम 'कारण' (अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति अज्ञान) को लॉप लेते और साथ ही इसके कार्य (विविध मिथ्या अनभवों वाले संसार) की वास्तविकता को जान जाते हैं तो हमें चतुर्थ अवस्था 'तुरीय' का अनुभव हो जाता है।
'ज्ञान स्वरूप' को जान लेने पर अज्ञान (अविद्या) का नाश हो जाता है । 'कारण' के बिना कार्य' का अस्तित्व नहीं रह सकता । अज्ञान के दूर हो जाने पर सूक्ष्म संसार एवं स्थूल जगत् तथा इनसे प्राप्त होने वाले अनेक अनुभव लुप्त हो जाते हैं।
अनादिमायया सुप्तो यदा जीवः प्रबुध्यते । अजमनिदमस्वप्नमद्वैतं बुध्यते तदा ॥१६॥
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