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स्थूल संसार तथा सूक्ष्म जगत् का कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि इन दोनों का उद्गम वही अज्ञान (अविद्या) है ।
इस कारिका में श्री गौड़पाद हमारे लिए उन अवस्थानों, जिन्हें हम अपने साधारण जीवन में अनुभव करते रहते हैं, और उपनिषदों में वर्णित वास्तविक तत्त्व की अज्ञात एवं विचित्र अनुभूति (तुरीय) के भेद को स्पष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं । इसी कारण यहाँ पर कहा गया है कि तुरीयावस्था में निद्रा अथवा स्वप्न के लिए कोई स्थान नहीं है ।
इस बात को सिद्ध करने के लिए कि यह धारणा कोई विज्ञानमय स्वयंसिद्ध विचार अथवा नैयायिक सिद्धान्त नहीं, बल्कि हर सच्चे साधक के लिए अनुभव करने का विषय है, तत्त्वदर्शी ऋषियों ने यह घोषणा की है कि 'तुरीय' अवस्था में न तो स्वप्न (भ्रान्ति) पाया जाता है और न ही निद्रा (अज्ञान)। अत: इस मंत्र से हमें यह समझ लेना चाहिए कि 'तुरीय' की परिपूर्ण अवस्था को उपनिषदों ने पहली दो अनुभूत अवस्थात्रों से भिन्न बताया है ।
इस महान् 'सत्य' को अनुभव करने के लिए ऐसे उपकरण से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती जो ज्ञातव्य पदार्थ को अपने सम्मुख देखता रहता है । 'तुरीय' वह स्थिति है जिसमें कर्ता (द्रष्टा) और कर्म (दृष्ट) परस्पर मिल कर एकरूप शुद्ध ज्ञान में घनीभूत हो जाते हैं । यही परम-ज्ञान (आत्मा) है।
आगे आने वाले विविध मंत्रों में यह बताया जायेगा कि यह बात किस प्रकार संभव है।
अन्यथा गृह्णतः स्वप्नो निद्रा तत्वमजानतः । विपर्यासे तयोः क्षीणे तुरीयं पदमश्नुते ॥१५॥
स्वप्न का कारण वास्तविक ज्ञान का मिथ्या आभास होना है । निद्रा वह स्थिति है जिसमें इस 'तत्त्व' का ज्ञान ही नहीं होता । जब दो प्रकार की यह भ्रान्ति दूर हो जाती है तो 'तुरीय' की अनुभूति होती है।
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