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( ७४ )
जब प्राणी अनादि माया-रूपी निद्रा का त्याग कर देता है तो यह निद्रा-स्वप्न से रहित अपने नित्य तथा अद्वैत स्वरूप को जान लेता है । ___ 'स्वप्न' तथा 'सुषुप्ति' का अभिप्राय वास्तविक तत्त्व का मिथ्या ज्ञान और अविद्या है, यह बता चुकने के बाद टीकाकार हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि ऐसा समय आता है जब हम महान् सत्य को, जो चेतना की चतुर्थी अवस्था है, अनुभव कर सकते हैं और वेदान्त-साधना तथा ध्यान द्वारा इस दिव्य चेतना के प्रति जागरूक हो जाते हैं । यहाँ आचार्य ने इस तथ्य पर प्राग्रहपूर्ण बल दिया है कि उपनिषदों में निहित सत्य मिथ्या नहीं बल्कि ये ऐसे अनुभव हैं जिनको प्रत्येक साधक अपने जीवन में ढाल सकता है। __मनुष्य प्रात्म-प्रवंचना के कारण सुषुप्तावस्था को अनुभव करता रहता है । इसका यह अर्थ है कि उसे यह ज्ञात नहीं होता कि वह स्वयं सर्व-व्यापक चेतना है । सृष्टि के निर्माण से ही मनुष्य के भाग्य में यह क्रम घटित हो रहा है । सृष्टि का सृजन होने के बाद ही समय का प्रादुर्भाव हुआ । इस कारण सृष्टि को 'अनादि' कहा गया है । सृष्टि के आदि से इस क्षण पर्यन्त हम 'सुषुप्ति' का अनुभव करते आये हैं अर्थात् हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं रहा । जब यह मिथ्याभिमानी जीव इस घोर निद्रा का त्याग करके निज वास्तविक स्वरूप को जान लेगा तब यह इस अद्वैत, अनादि तथा स्वप्न-रहित तत्त्व के प्रति जागरूक हो जायेगा।
स्वप्न-रहित का अर्थ यह है कि 'सत्य' का अनुभव होने पर अज्ञान (अविद्या) की समाप्ति हो जाती है । दूसरे उपनिषदों, विशेषतः ऋषियों की "उत्तिष्ठत, जाग्रत" की शास्त्रीय चेतावनी में इसी भाव की पुनरावृत्ति की गयी है । जब हम स्वप्नयुक्त होते हैं तब हमारे भ्रान्ति-पूर्ण स्वप्न-जगत् का अन्त हो जाता है । इस प्रकार अपने सहज स्वरूप से साक्षात्कार कर लेने पर नश्वरता, अल्पज्ञता, मृत्यु आदि से सम्बन्धित हमारी सभी धारणाएँ लुप्त हो जायेंगी।
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