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( ७१ ) अात्म-साक्षात्कार के सौभाग्यशाली क्षणों में अबाध रूप से इम दिव्यतत्त्व का पूर्ण ज्ञान रहता है और यहाँ तिमिर के लिए कोई स्थान नहीं । यह शाश्वत, सर्व-व्यापक, अनन्त और सनातन विशुद्ध ज्ञान है । अतः तुरीयावस्था में कारण-स्थिति के लिए कोई स्थान नहीं । तुरीय' सम्पूर्ण ज्ञान है जहाँ प्रज्ञान का अस्तित्व नहीं रहता।
स्वप्ननिद्रायुतावाद्यौ प्राशस्त्वस्वप्ननिद्रया ।
न निद्रां चैव च स्वप्नं तुर्ये पश्यन्ति निश्चिताः ॥१४॥ पहली दो अवस्थानों 'विश्व' तथा 'तेजस' का स्वप्न तथा निद्रा से सम्बन्ध रहता है । 'प्राज्ञ' में स्वप्न-रहित निद्रा का अनुभव होता है । जिन व्यक्तियों ने सनातन-तत्त्व को अनुभव किया है उन्हें 'तुरीय' अवस्था में निद्रा तथा स्वप्न की अनुभूति नहीं होती।
हम जानते हैं कि जब वास्तविक तत्व 'आत्मा' स्थूल शरीर म से बाह्य संसार की ओर अभिमुख होता है तो इसे 'जाग्रतावस्था' के अनेक अनुभव प्राप्त होते हैं। यही जाग्रत व्यक्ति का जीवन है । जब यह स्थूल शरीर का त्याग करता है तो पदार्थमय संसार भी लुप्त हो जाता है । तब यह सूक्ष्म शरीर से संपर्क स्थापित करता है जहाँ मन तथा बुद्धि का साम्राज्य है । इसे 'स्वप्नावस्था' कहते हैं, जिसके अपने अनुभव अलग दृष्टिगोचर होते हैं।
टीकाकार के यह कहने का, कि 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्थाओं को अनुभव करने वाला प्राणी स्वप्न एवं निद्रा की अनुभूति करता है, यह अभिप्राय है कि इन दोनों अवस्थाओं में 'कारण' तथा 'कार्य' दोनों बने रहते हैं । इसे भ्रान्ति और अज्ञान कहा जाता है । सुषुप्तावस्था में मनुष्य स्वप्न-रहित निद्रा को अनुभव करता है । इसका यह अर्थ है कि यह स्थिति भ्रान्ति के बिना केवल अज्ञान (अविद्या) के कारण अनुभव की जाती है । दूसरे शब्दों में सुषुप्तावस्था में केवल अविद्या विद्यमान रहती है और इस पर
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