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यही है । इसे 'तुरीय' कहा जाता है जो दिव्य तथा सर्व
व्यापक है ।
इस ' कारिका' में जिन शब्दों तथा विशेषणों का उल्लेख किया गया है वे गत मन्त्र में वर्णित भाव की दृष्टि में स्वतः सिद्ध हैं । उपनिषद् में 'आत्मा' की जो परिभाषा की गयी है उसके मुख्य अंगों की टीकाकार (श्री गौड़पाद) ने व्याख्या करने का प्रयत्न किया है ।
पिछले मन्त्र में उपनिषद् ने जिन अनुपम शब्दों द्वारा 'आत्मा' की परिभाषा की है उसने एक असंभव बात को भी प्रायः संभव बना दिया है । इसे हम यथार्थ रूप से परिभाषा नहीं कह सकते क्योंकि किसी वस्तु या रूप की परिभाषा करना उसे पूर्ण रूप से शब्द बद्ध करना है । हम यह भी जानते हैं कि पिछले मन्त्र में 'तुरीय' को स्पष्ट रूप से निश्चित विशेषणों द्वारा इतनी सफलता से समझाया नहीं जा सका जितना नकारात्मक शब्दों के प्रयोग द्वारा |
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स्वाभाविक है कि एक ऐसा विद्यार्थी, जिसे अभी दीक्षा नहीं दी गयी है, इस गुह्य ज्ञान को इतनी सुगमता से प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसे अवसर पर 'गुरु' अनुग्रह की आवश्यकता है जिससे विचार तथा तर्क द्वारा यथार्थ मार्ग का प्रदर्शन किया जा सके क्योंकि ऐसा होने पर ही इन शब्दों के गूढ़ रहस्य को जाना जा सकता है । एक टीकाकार के नाते श्री गौड़पाद अपना कर्तव्य समझते हैं कि वह हमारा उचित पथ प्रदर्शन करें। नीचे दिये गये मन्त्रों ने हमें वह मार्ग दिखाया है जिस पर निष्ठापूर्वक चलते रहने से हम उपनिषदों के इन संकेतमात्र शब्दों को ठीक तरह समझ कर अपने निश्चित् ध्येय की ओर अग्रसर हो सकें।
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कार्यकारणबद्धौ ताविष्येते विश्वतैजसौ । प्राज्ञः कारणबद्धस्तु द्वौ तौ तुर्ये न सिध्यतः ॥ ११॥ 'विश्व' तथा 'तेजस' दोनों कारण और कार्य द्वारा बँधे हुए
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