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वास्तविक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जहाँ (तुरीयावस्था में) इस नश्वर संसार के विकार, दुःख, अपूर्णता, छल-कपट, यातनानों आदि के लिए कोई स्थान नहीं ।
शन्तम ---जो शान्त है । पहले यह कहा जा चुका है कि अशान्ति तथा मनोवेग केवल हमारे रागद्वेष आदि भावों के कारण हमें अस्त-व्यस्त रखते हैं । जब हम इस द्वैत संसार से निकल कर 'आत्मा' के साम्राज्य में प्रवेश करते हैं, हमें शाश्वत एवं पूर्ण शान्ति का अनुभव होने लगता है ।
शिवम-जो सर्व कल्याणकारी है । शान्ति में सुख और कल्याण पाया जाता है । सुख वास्तव में बह सन्तुलन-स्थिति है जो हमें शान्त रखने के साथ पूर्ण कल्याण प्रदान करता है । अकल्याण अथवा अप्रिय स्थिति केवल वास्तविक संसार में रह सकती है । इस कारण हम 'तुरीयावस्था' को 'कल्याण' का अधिष्ठान कहते हैं।
अद्वतं---बिना द्वैत भाव के । जब हमें खम्भे के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तो उसमें से वह 'भूत' बाहिर निकल भागता है जिसका हमने उस खम्भे में ग्रारोप किया हुआ था। उस समय हमें एकमात्र खम्भे के दर्शन होते हैं । 'जाप्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्था में ही जगत के द्वैतभाव का हमें ज्ञान है । सुषुप्तावस्था में एकरूपता का अस्तित्व होता है यद्यपि हम इसे उस समय अनुभव नहीं कर पाते । 'तुरीयावस्था' में प्रवेश करने के बाद समस्त जगत् अदृश्य हो जाता है और हम इस सत्य-सनातन 'अद्वैत' तत्त्व को अनुभव करने लगते हैं।
___तुरीय' अवस्था की नकारात्मकता की इसके विशेष लक्षणों द्वारा परिभाषा करने के बाद ऋषि ने अन्त में कहा कि यही 'तुरीय' अवस्था है। इस मंत्र में यद्यपि इस वास्तविक तत्त्व के सुन्दर विशेषण दिये गये हैं तो भी इसकी पूर्ण परिभाषा नहीं की जा सकी। इसे तो नकारात्मक भाषा में वर्णन करने का प्रयासमात्र किया गया है। इन सांसारिक पदार्थों का आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है-इस बात को समझाने के बाद प्राचार्य 'जाग्रत',
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