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( ६२ ) एकात्मप्रत्ययसारं-निश्चय से आत्मा का सार । जब हम ऊपर के नकारात्मक शब्दों को समझते हुए इस परिणाम पर पहुंच चुके हैं कि परमात्म-तत्त्व अवणनीय है तो प्रखर बुद्धि वाले विद्यार्थी के लिए यह बात अस्पष्ट एवं निराशा-पूर्ण बन कर रह जाती है और उसकी इस दयनीय अवस्था में उसके मुख को देख कर गुरु इस वास्तविक-तत्त्व की सविस्तार व्याख्या करने का प्रयास करते हैं।
आचार्य ने कहा कि प्रात्मा शुद्ध, चेतन तत्त्व है । हमें संसार का ज्ञान प्राप्त होता है । जगत् के पदार्य अथवा हमारे भाव या विचार ही हमारे सांसारिक ज्ञान के मूल-स्रोत हैं । हम किसी ध्वनि या किसी दूसरी इन्द्रिय के अनुभव से अपने भाव या विचार से पूर्णतः परिचित रहते हैं; किन्तु हमें यह ज्ञान नहीं है कि वह कौन सी शक्ति है जिसके द्वारा हमें पदार्थ, भाव और विचार के क्रिया-क्षेत्रों का पता चल सकता है। यहाँ ऋषि ने कहा है कि यह परम-तत्त्व ही वह ज्ञान-शक्ति है और यह सब पदार्थों से अछूता है । यह एकमात्र शुद्ध ज्ञान है जिस के द्वारा पालोकित हो कर सब इन्द्रियाँ अपने अपने व्यापार करती हई प्रत्येक पदार्थ को प्रकाशमान करती रहती हैं।
ऐसे सभी गुणों तथा विशेषणों का आत्मा में अस्तित्व न मानते हुए, जिन के द्वारा हम पदार्थमय जगत् को सामान्यतः अनुभव करते हैं, महर्षि अब 'आत्मा' के कई निश्चित लक्षण देने का प्रयत्न करते हैं। यहाँ भी हमें यह समझ लेना चाहिए कि यद्यपि ऋषि ने निश्चित शब्दों का प्रयोग किया है तथापि उनका उद्देश्य उनके विपरीत अर्थ को समझाना है ।
प्रपंचोपशमं-सब प्रपंचों से रहित । 'तुरीयावस्था' वह क्षेत्र है जिस में यह नाशमान-संसार और इसके अधूरे अनुभव प्रवेश नहीं कर पाते । इन अनेक अनुभवों का अपूर्ण ज्ञान हमें केवल 'तुरीय' के प्रवेश द्वार तक ही होता है । इस नाशमान पदार्थमय संसार की तीन अवस्थाओं में ही प्रपंच पाया जाता है । ज्योंही हम उनको पार कर लेते हैं त्योंही हम उस
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