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श्रात्मा 'नान्तः प्राज्ञ', 'न बहिष्प्रज्ञं', 'न उभयतः प्रज्ञ', 'न प्रज्ञाधनं', 'न प्रज्ञ', और 'न प्रज्ञ" है । इस कारण इसे 'जड़' ही माना जा सकता है । ऋषियों ने इस संभावना का भी खंडन किया है ।
इस मंत्र के पूर्वार्द्ध में नकारात्मक भाषा द्वारा यह बताया गया है कि 'तुरीय' इन तीन विदित अवस्थाओं से परे है । यहाँ इस बात को दृढ़तापूर्वक बताया गया है कि 'असीम' की परिभाषा 'परिमित' शब्दों द्वारा नहीं की जा सकती ।
मन्त्र के उत्तरार्द्ध में तत्व - वेत्ता ने श्रात्मा के कुछ निश्चित् विशेषणों की ओर संकेत किया है । हमें यहाँ भी इस बात को स्मरण रखना चाहिए कि 'नकारात्मक' शब्दों में इस भाव को समझाया गया है। यहाँ दिये गये प्रत्येक शब्द में एक व्यापक रहस्य छिपा है और इसे पूर्ण रूप से समझने के लिए हमें 'तुरीय' का यथार्थ लक्षण जान लेना चाहिए ।
अष्ट- --न देखा जाने वाला । यहाँ कहा गया है कि 'आत्मा' को इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता । श्रदृष्ट का अर्थ केवल यह नहीं कि 'आत्मा' प्रकार-रहित है बल्कि इससे यह भी जान लेना चाहिए कि नकारात्मक शब्दों को प्रयोग में लाकर यह कहा गया है कि यह इन्द्रियों द्वारा अगम्य है । इसे हमारी किसी भी ज्ञानेन्द्रिय द्वारा अनुभव नहीं किया
जा सकता ।
अव्यवहार्य-बिना किसी सम्बन्ध के । इसका अर्थ यह है कि 'आत्मा' सर्व-व्यापक होने के कारण संसार के किसी पदार्थ से सम्बद्ध नहीं है बल्कि संसार के सब जड़ तथा चेतन इस से व्यवहार करते हैं। उदाहरण के तौर पर 'आकाश' को लीजिए। 'आकाश' का किसी पदार्थ से कोई भी पदार्थ इसके बिना नहीं रह सकता । ठीक ऐसे ही 'आत्मा', जो अक्षर एवं प्रमृत है, जगत के सब नाम रूप के व्यवहार का एकमात्र साधन है और इसके कारण जगत् का मिथ्या व्यापार चल रहा है ।
व्यवहार नहीं, यद्यपि
अग्राह्य - जिसे ग्रहण नहीं किया जा सकता । ऊपर दिये गये आत्मा के दो लक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि मन द्वारा 'आत्मा' को अनुभव
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