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( ५८ ) कुछ देखता है परन्तु वह अपने आपको इस उपकरण द्वारा नहीं देख सकता । ठीक इसी प्रकार बुद्धि द्वारा प्रात्मा का दर्शन नहीं किया जा सकता क्योंकि ज्योंही आत्मा से अलग होकर बुद्धि इसे देखने का प्रयास करती है उसी क्षण यह चेतना-रहित हो जाती है । बुद्धि को विवेक-शक्ति प्रदान करने वाली यह दिव्य-ज्योति 'प्रात्मा' है और इसके बिना वह निष्क्रिय हो एक घन-पदार्थ बन कर रह जाती है। ___ऋषि ने बड़े चातुर्य से नकारात्मक भाषा का उपयोग करके साधकों को इस सत्य-सनातन तत्त्व की, जो सब प्राणियों को शक्ति सम्पन्न करता है, एक पूर्ण परिभाषा दी है।
नान्तः प्राज्ञ—यह हमारे भीतरी जगत को नहीं जानता । यहाँ श्रुति हमें यह बताना चाहती है कि 'तुरीय' स्वप्नावस्था नहीं है । जैसा पहले कहा जा चुका है 'तेजस' वह चेतन-शक्ति है जिसे हमारे भीतरी जगत् अर्थात् स्वप्न संसार का ज्ञान रहता है। इसे 'नान्तः प्राज्ञ' कह कर ऋषि ने यह बात स्पष्ट की है कि मनुष्य की जीवन-शक्ति (आत्मा) को स्वप्न-द्रष्टा नहीं कहा जा सकता।
न बहिष्प्रज्ञ--यह बाह्य पदार्थमय संसार का भी ज्ञान नहीं रखता। इसका यह अभिप्राय है कि तुरीयावस्था को 'वैश्वानर' भी नहीं कहा जा सकता । हम यह जानते हैं कि यह 'जागने वाला' प्रत्यक्ष संसार का पूरापरा ज्ञान रखता है।
न उभयतः प्रज्ञ-यह इन दोनों से अनभिज्ञ है । जब हम यह कहते हैं कि बाहर और भीतर के जगत् का इसे ज्ञान नहीं तो शिष्य के मन में स्वतः यह शंका उठ सकती है कि तब यह इन दोनों ( 'जाग्रत' और 'स्वप्न') अवस्थाओं की मध्यवर्ती अवस्था का ज्ञान रखता होगा। उस अवस्था में हमें 'जाग्रत' एवं 'स्वप्न' दोनों अवस्थानों का अल्प ज्ञान रहता है । हम बहुधा उस मध्यवर्ती अवस्था को अनुभव करते रहते हैं । पेट भर कर भोजन करने के बाद हम एक ऐसी अवस्था को अनुभव करते हैं जिसमें हम न तो बाह्य
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