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( ५७ ) हम बाह्य-संसार को अपनी ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से अनुभव करते हैं। मन तथा बुद्धि हमारे भाव एवं विचार-जगत् से हमारा परिचय कराते हैं।
इस स्थूल संसार को हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभव करते हैं और मन तथा बुद्धि हमारे विचार एवं भाव-क्षेत्र में प्रवेश करते रहते हैं । समस्त प्रत्यक्ष संसार तथा वे सभी साधन, जिनकी सहायता से हम अपने दैनिक जीवन के अनुभव प्राप्त करते हैं, पदार्थमय जगत् के वर्ग में आते हैं। 'कर्ता' (अनुभवी) एक नित्य-तत्त्व है जो हमें जीवन-प्राण प्रदान करता है। यह शुद्ध-चेतन तथा ज्ञान-स्वरूप है जिसे अनुभव करने के लिए हमें अनुभव-क्षेत्र के सभी पदार्थों का अतिक्रमण करना चाहिए ।
__ अन्धेरे में पड़ा हुआ एक रस्सी का टुकड़ा साँप, छड़ी, पानी की धारा या भूमि में पड़ी हुई दराड़ समझी जा सकती है । इस तरह के भ्रम में पड़े हुए व्यक्तियों को उस रज्ज (रस्सी) का स्वरूप समझाने का एक मात्र उपाय यह है कि उनके मन से इस प्रकार की भ्रान्ति का निवारण कर दिया जाय । प्रायः सभी धर्म-ग्रन्थों में सत्य-सनातन की परिभाषा करने के लिए इस विधि को अधिकतर अपनाया जाता है ।
मनुष्य के अनुभवों की व्याख्या करते हुए उपनिषदों ने आत्मा के चार 'पाद' माने हैं जिनमें से पहले तीन की व्याख्या की जा चुकी हैं । ये हैं 'जाग्रत' 'स्वप्न' और 'सुषुप्त' अवस्था । प्रस्तुत मंत्र में चतुर्थ पाद (तुरीयावस्था) को विस्तार से वर्णन किया गया है ।
पिछले मन्त्र में उक्त तीन अवस्थाओं के व्यक्त गुण, अनुभव-क्षेत्र, भोग, तृप्ति आदि की व्याख्या की गयी है; किन्तु चतुर्थ अवस्था को समझाने के लिए ऋषि ने एक विचित्र शैली को अपनाया है । यह है नकारात्मक भाषा का प्रयोग । ऐसा करने का विशेष कारण है। अनुभवी (कर्ता) इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि का ज्ञान-विषय नहीं है । इस रहस्य को हम दूरबीन के उदाहरण द्वारा पहले समझा चुके हैं । दूरबीन में देखने वाला व्यक्ति उसके द्वारा सब
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