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( ५५ ) यह परमात्म-तत्त्व स्वयं कोई इच्छा अथवा कामना नहीं रखता। हम में किसी पदार्थ के लिए कामना उसी समय होगी जब उसके लिए हमारे मन में लालसा पायी जाय : यदि मैं पेट भर कर स्वादिष्ट भोजन खा कर फल आदि भी सेवन कर लूं तो कोई व्यक्ति चाहे कितने ही स्वादु व्यंजन मेरे सामने रख दे, मैं यही कहूँगा, 'बस, बस । मुझे कुछ नहीं चाहिए । इने ले जाइए।" उस समय भोजन के लिए मुझे रत्ती भर लालसा न रहेगी क्योंकि मुझमें उसका प्रभाव नहीं है । इस प्रकार जब परमात्मा स्वयं परिपूर्ण' है तो उसे कोई इच्छा कैसे हो सकती है ?
उपनिषद्-प्राचार्यों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि इच्छा-रहित होना 'पूर्णावस्था' का द्योतक है। इस कारण यहाँ श्री गौड़पाद ने सष्टि-रचना के मिथ्या विचार का खंडन करते हुए यह प्रश्न किया है- भला उसे कोई इच्छा कैसे हो सकती है जो स्वयं परिपूर्ण है ?" .. यहाँ यह टीकाकार इस धारणा की पुष्टि करना चाहते हैं कि 'परिपूर्ण' म कोई कामना नहीं रह सकती; इस कारण यह किसी की रचना नहीं कर सकता । यदि कोई व्यक्ति श्री गौड़पाद के इस सिद्धान्त का खण्डन करने का साहस करता है तो उसे पहले इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार रहना होगा कि "भगवान् ने किस प्रयोजन से इसकी रचना की ?" यदि हम यह उत्तर दें कि परमात्मा ने किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिए यह कार्य किया तो हम इसके साथ साथ यह बात नहीं कह सकते कि परम-तत्त्व 'परिपूर्ण' है।
इस मतभेद को प्रकट करने के बाद श्री गौड़पाद ने इस उपनिषद् के पहले छः मन्त्रों से सम्बन्धित अपनी टीका समाप्त कर दी। अब हम ‘माण्डूक्योपनिषद्' के सातवें मन्त्र में चेतना की 'तुरीयावस्था' की प्रोजस्वी व्याख्या को समझायेंगे।
नान्तः प्रशं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रशं नाप्रज्ञं । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्म
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