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दूसरे यह समझते हैं कि इस सृष्टि की रचना परमात्मा के मनोरंजन के लिए की गयी है; एक और विचार-धारा वाले इसे भगवान की क्रीड़ा से सम्बन्धित क्रिया का ही फल कहते हैं; किन्तु यह तो उस दिव्य-शक्ति के स्वभाव के कारण ही अस्तित्व में आयी । जिस की कामना एवं इच्छा पहले से ही फलीभूत् हो चुकी है भला उस परमात्मा को किस प्रकार की इच्छा हो सकता है ? __कई विद्वान यह विश्वास रखते हैं कि इस सृष्टि की रचना किसी विशेष उद्देश्य से हुई और वह थी भगवान् की तुष्टि अथवा उसका मनोरंजन । इन छ: विविध सिद्धान्तों की अोर संकेत करने के बाद श्री गौड़पाद ने इस मन्त्र के उत्तरार्द्ध में अपना विचार प्रकट करके हमें यह बताया है कि वेदान्त द्वारा सृष्टि की रचना होने के विचार में भी विश्वास नहीं किया
जाता।
इस ऋषि के विचार में सृष्टि की एक ही तर्क-पूर्ण व्याख्या की जा सकती है और वह है 'परम-तत्त्व' के सहज स्वभाव की प्रतिक्रिया । कोई वस्तु अपने मूल-स्वभाव से पृथक् नहीं रह सकती । असोम का स्वभाव सीमित से कोड़ा करना है।
___इसे एक उदाहरण द्वारा अधिक समझा जा सकेगा। समुद्र अपनी लहरो की स्वयं रचना नहीं करता किन्तु लहरों का होना ही उसकी प्रकृति है । केवल लहरों से समुद्र का समूचा ज्ञान नहीं होता। समुद्र की कई मोल को गहराई में जो गम्भीरता एवं स्थिरता पायी जाती है वही उसका वास्तविक स्वभाव अथवा धर्म है । इस प्रकार ताप (गर्मी) अग्नि का धम है और उसके बिना अग्नि का कोई अस्तित्व नहीं रह पाता । ठीक इस तरह 'दिव्य-तत्त्व' का यह स्वभाव है कि वह 'गति' तथा 'चेतन' में अपने आपको प्रकट करे । इसके फलस्वरूप क्रियमाण पदार्थ तथा 'चेतन' प्राणी दृष्टिगोचर होते हैं ।
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