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( ५२ ) विभूति प्रसवं त्वन्ये मन्यन्ते सृष्टिचिन्तकाः
स्वप्नमायासरूपेति सृष्टिरन्यैविकल्पिता ॥७॥ कई सृष्टि-तत्त्व ज्ञानी यह धारणा करते हैं कि यह (सृष्टि) ईश्वर की दैवी शक्ति का 'आरोप' है । दूसरे (विद्वान) इस संसार को स्वप्न-जगत् के समान मिथ्या समझते हैं ।
दर्शन-शास्त्र में वर्णित सृष्टि-सम्बन्धी विविध सिद्धान्तों की समीक्षा करते हुए श्री गौड़पाद ने प्रारम्भ में ही यह संकेत किया था कि 'सृष्टि-सिद्धान्त' में उनका रत्ती भर विश्वास नहीं है। उनके अपने विचार में 'परम-तत्त्व' अजन्मा है और इसके द्वारा जगत् की सृष्टि कभी नहीं हुई । संसार के दृष्टपदार्थ हमारा अपना प्रारोप-मात्र हैं । इसे 'अमातवाद' सिद्धान्त कहा जाता है।
__'माण्डूक्य कारिका' तथा 'योग-वसिष्ठ' जैसे वेदान्त के प्रादि-ग्रन्थों में मुख्यतः 'प्रजातवाद' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है जब कि अाधुनिक वेदान्त के श्री शंकराचार्य सरीखे विद्वानों ने हमारे दृष्टिगोचर होने वाले दष्ट-पदार्थों में भी आंशिक वास्तविकता का निरूपण किया है। इन दो सिद्धान्तों में वस्तुतः कोई मौलिक भेद नहीं है। हमें इनका सहानुभूति-पूर्ण अध्ययन अवश्य करना चाहिए ।
'प्रजातवाद सिद्धान्त' के समर्थक भी संसार को एक दीर्घ-स्वप्न कहते हैं । आगे चलकर हमें पता चलेगा कि 'जाग्रत' एवं 'स्वप्न' अवस्था के अनुभवों का तुलनात्मक विवेचन करते हुए श्री गौड़पाद ने भी अन्त में यह सिद्ध किया है कि किसी तर्क-पूर्ण दृष्टि से भी हम 'जाग्रत' संसार को 'स्वप्न' जगत् से अधिक वास्तविक नहीं कह सकते । जब 'सृष्टि' सिद्धान्त के समर्थक संसार को स्वप्नमात्र कहते हैं तो वे स्वप्न-जगत को एक मानसिक मिथ्यात्व नहीं मानते बल्कि उनके मतानुसार यह स्वप्न प्रादि-अन्त तक वास्तविक होता है।
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