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हैं; किन्तु 'प्राज्ञ' का स्रोत केवल कारण है। 'तुरीय' में इन दोनों (कारण तथा कार्य) का अस्तित्व नहीं होता।
कारण वह स्थिति है जिसके अन्तनिहित उसका कार्य होता है । जब कारण से 'कार्य' की उत्पत्ति होती है तो वह कारण स्वतः कार्य में परिणत हो जाता है । 'विश्व' (जाग्रतावस्था) में कारण और कार्य दोनों का अस्तित्व रहता है । आध्यात्मिक जगत् में हमारे वास्तविक स्वरूप का अज्ञान (अविद्या) ही कारण होता है । हम इस तथ्य को नहीं जानते कि हम सनातन, शाश्वत, सर्वव्यापक, शुद्धचैतन्य स्वरूप हैं और हम अपनी इच्छा से पदार्थ जगत् को अनुभव करते रहते हैं। ऐसा करते हुए हम इन पदार्थों के जाल में फँस कर राग और द्वेष के शिकार हो जाते हैं । इस राग-द्वेष से पूर्ण 'जाग्रत' अवस्था में हम सुख तथा दुःख के बीच भटकते हुए व्याकुल एवं संतप्त रहते हैं ।
इस तरह 'विश्व' अहंकार में कारण (अविद्या) तथा कार्य (पदार्थमय जगत्) दोनों विद्यमान रहते हैं । इस पदार्थमय जगत् में स्थूल संसार की जड़ वस्तुओं तथा चेतन प्राणियों के साथ साथ हमारे मन, बुद्धि और अविद्या की भी गणना की जाती है । यह 'जागने' वाला न केवल बाह्य पदार्थों एवं परिस्थितियों द्वारा प्रभावित होता है बल्कि हमारे मानसिक तथा विज्ञानमय व्यक्तित्व के प्राघात भी सहन करता रहता है ।
प्रस्तुत मंत्र में दिया गया यह भाव केवल उम विद्यार्थी की भली भाँति समझ में आयेगा जिसमें स्वयं अति-सूक्ष्म मनन शक्ति हो । श्री गौड़पाद कहते हैं कि यहाँ उपनिषद की इस उक्ति का यह अभिप्राय है कि 'तुरीय' अवस्था में बाह्य एवं प्रान्तरिक पदार्थों का किञ्चिदपि ज्ञान नहीं रहता। दूसरे शब्दों में इसका यह अर्थ है कि 'तुरीय' न तो 'विश्व' है और न ही "तेजस" । टोकाकार यह समझाना चाहते हैं कि जब यह ‘परम-तत्त्व' विश्व नहीं तो और क्या हो सकता है । जाग्रतावस्था में हम अविद्या से घिरे रहते हैं । इस अविद्या से हम में स्वाभिमान की उत्पत्ति होती है जो हमारे मन, बुद्धि और मायामय बाह्य संसार को दूषित कर देता है ।
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