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नहीं किया जा सकता क्योंकि मन तो उन्ही पदार्थों की पहचान कर सकता है जो इन्द्रियों द्वारा उस तक पहुँच पाते हों । यदि 'प्रात्मा' इन्द्रिय-विषय बने तभी इसे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। नेत्र, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा---पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, केवल अपने विषय-धर्म को अनुभव करने में समर्थ हैं जो क्रमशः रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श हैं। 'आत्मा' न तो इन्द्रिय-विषय है और न ही इन्द्रियों से सम्बन्धित; अत: यह मन द्वारा गम्य नहीं।
__ अलक्षणं-बिना लक्षण के । यदि हम किसी पदार्थ को अपने सामान्य इन्द्रिय-साधन द्वारा नहीं जान सकते तो उसे जानने के लिए हमें केवल अनुमान का ही सहारा लेना होता है । रसोई में जल रही अग्नि के साथ धूमाँ भी ऊपर उठता रहता है। इससे हमने इस तथ्य का निरूपण किया है कि जहाँ धूआँ है वहाँ अग्नि का होना अनिवार्य है । जब हम धूआँ ऊपर उठता देखते हैं तो हम सहसा कह देते हैं कि उस स्थान पर अग्नि जल रही है, चाहे वह (अग्नि) दूर उठ रहे धूए से ढकी हुई क्यों न हो।
यहाँ अग्नि के होने का अनुमान इसके प्रभाव 'धूएँ' से हुआ जिसे हमने एक दूर के स्थान पर ऊपर उठते हुए देखा । इसे संस्कृत में 'लक्षण' कहते हैं । आत्मा का ऐसा कोई प्रभाव नहीं जिस के द्वारा इसके अस्तित्व का पता चल सके । अतः उपनिषदों के महानाचार्यों ने प्रात्मा को 'अलक्षणम्' कहा है।
अचिन्त्य–बिना सोचे जाने के। ऊपर दी गयी व्याख्या से यह बात स्वतः सिद्ध हो गयी कि जो तत्त्व अदृष्ट, अग्राह्य और अलक्ष ण हैं वह स्वभावतः अचिन्त्य भी होगा।
अव्यपदेश्य-अवर्णनीय । यह बात तर्क द्वारा पुष्ट है कि इन परिस्थितियों में 'आत्मा' की व्याख्या नहीं की जा सकती क्योंकि हम केवल उस अनुभव को वर्णन कर सकते हैं जो हमारी इन्द्रियों या मन अथवा बुद्धि के क्रियाक्षेत्र में आता हो।
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