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( ५६ ) संसार से पूरा सम्बन्ध रखते हैं और न ही भीतरी जगत् से पूर्णतः पृथक् होते हैं । यहाँ इस यवस्था को भी नकारात्मक भाषा द्वारा बताया गया है।
न ज्ञानघनं-यह चेतना का घन नहीं है। जब यह 'वैश्वानर', 'तेजस' और इन दोनों की मध्यवर्ती अवस्था नहीं तो स्वभावतः यह 'प्राज्ञ' (सुषुप्तावस्था वाला) होगा--ऐसी धारणा साधक में हो सकती है । इससे पहले हम 'प्राज्ञ' से सम्बिन्धत मन्त्र में यह बता चुके हैं कि इस (प्राज्ञ) अवस्था में हमारी समूची चेतन-शक्ति स्थूल अोर सूक्ष्म शरीरों से सिमिट कर घनीभूत् हो जाती है । इस बात को ध्यान में रखते हुए ऋषि ने कहा है कि 'तुरीय' अवस्था 'प्राज्ञ' से भी अछ ती है ।
न प्रज्ञ-यह ('तुरीय') साधारण चेतना भी नहीं रखता । इस नकारात्मक शब्द-शृंखला से विद्यार्थी एक ही सम्भावना कर सकता है । वह यह है कि आत्मा एक साधारण चेतना है । हिन्दु दर्शन-शास्त्र के महान विचार निर्भयता से अपने प्राप्त किये हुए ज्ञान के मंच पर दृढ़ता पूर्वक स्थिर रहे हैं। युक्ति एवं तर्क के अमाप अस्त्र से सुसज्जित रह कर उन्होंने यह घोषणा की है कि हमारी आत्मा के लिए चेतना' जैसे शब्द का भा प्रयोग करना अयुक्त है । यह इसलिए कहा गया हे अपरिमित तत्त्व का किसी सीमित 'गुण' द्वारा वर्णन करना उसे सामित करने का हो प्रयास होगा।
'चेतना' शब्द का प्रयोग केवल उसक विपरोतार्थक शब्द के प्रसंग में किया जाता है । 'सूर्य' के साथ 'ज्योति' शब्द को जोड़ना एक व्यर्थ क्रिया होगो क्योंकि सूर्य स्वतः तेज-ज है; इसलिए ज्योतिर्मान् सूय्यं कहना निरर्थक है। इस तरह 'चेतन' प्राणी का तो संसार में कुछ न कुछ महत्व समझा जाता है क्योंकि यहाँ जड़-पदार्थों का भी अस्तित्व रहता है । 'तुरीय' तो जड़ और चेतन दोनों को प्रकाशित करता है ।
न अप्रज्ञ-यह जड़ भी नहीं। अब इस तत्व को केवज जड़ माना जा मकता है, यहाँ यह भाव भी अमान्य है। हम यह पहले जान चुके हैं कि
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