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के 'विराट-स्वरूप' का रहस्य भली भांति समझ गये होंगे। पिछले मंत्र के महावाक्य "यह आत्मा 'ब्रह्म' है" में वर्णित अध्यात्म-तत्व के अनुरूप 'सत्ता' का विराट-स्वरूप में यहाँ दिया गया वर्णन है ।
___ यदि कमरे का आकाश वस्तुतः व्यापक-आकाश है तो हम कमरे के आकाश को वह बायु-मण्डल कह सकते हैं जो सीमा-रहित होते हुए सकल भ्रमणशील भूमण्डल को धारण किये रहता है । वास्तव में समस्त विश्व आकाश में घूम रहा है । इस अभिप्राय से प्रारम्भ में यह कहा गया कि उपनिषदों में बताये गये 'अध्यात्म-तत्त्व' के सार को समझने और अनुभव करने के लिए कोरी बुद्धि या विवेक पर आधारित निदिष्ट-सिद्धान्त (Data) तथा पदार्थमय साधन हर प्रकार अपर्याप्त होंगे, चाहे विज्ञान तथा तर्क की दृष्टि में ये प्रतीतिकर भले ही हों।
नीचे दिये गये मंत्र में स्वप्न-द्रष्टा से हमारा परिचय कराया गया है:
स्वप्नस्थानोऽन्तः प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥४॥
(इसका) दूसरा ‘पाद' तैजस है जिसका क्रिया-क्षेत्र स्वप्न है, जो भीतर के पदार्थमय जगत् से अभिज्ञ है, जिसके सात अंग तथा उन्नीस मब हैं और जो मानसिक संसार के पदार्थों का उपभोग करता है।
जब आत्मा स्थूल शरीर से सम्पर्क स्थापित करके निज वास्तविक स्वरूप को भुला देती तथा स्थल पदार्थमय जगत् को इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करती है तो जाग्रतावस्था के मिथ्या ज्ञान से विमढ़ होकर यह एक निश्चित व्यक्तित्व को अपना लेती है, जिसे हम वैश्वानर' कहते हैं।
जब यह जीवन-शक्ति बाह्य-जगत् के विनोदपूर्ण क्षेत्र का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से अपना सम्बन्ध जोड़ती है तो इसका एक नवीन व्यक्तित्व दृष्टिगोचर होता है। इसको हम 'तेजस' कहते हैं जिसका अपना अलग स्वप्न
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