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( ४७ ) जिस प्रखर-बुद्धि व्यक्ति में इन हृदय-प्रधान लक्षणों का अभाव हो उसे संसार भर में समाज का एक अनुपयोगी, अनिष्ट कर तथा घातक अंग समझा जाता है । ऐसा मनुष्य कोरी बुद्धि की सहायता से केवल सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता रहता है । असंस्कृत एवं नकारात्मक बुद्धि तो एक मात्मघाती विष के समान है।
सर्प का अपना विष उसे समाप्त नहीं करता, इसका कारण यह है कि यह विष उसके फनों में सुरक्षित रहता है। यह विष वहाँ से उस क्षण बाहर निकलता है जब साँप के दाँत किसी को काट रहे हों। यदि यह बात न होती तो उस विष से वह स्वयं मर जाता । ठीक ऐसे ही जिस मनुष्य के हृदय-कोष में ये विशेष गुण नहीं पाये जाते वह तर्क एवं विवेक-पूर्ण विशेषता रखता हुमा भी विनाश के गड्ढे में जा गिरता है।
संसार की वर्तमान बुराइयों में से एक बुराई यह भी है। हमारे 'मस्तिष्क' ने 'हृदय' की अपेक्षा बहुत अधिक उन्नति कर ली है और हम केवल बुद्धि के बल पर अपनी गृह-सम्बन्धी, सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राथिक समस्याओं का पुनर्समंजन करने निकल खड़े हैं जब कि हममें हृदय से सम्बन्ध रखने वाले विशेष गुणों का अभाव रहता है । यही कारण है कि भरसक प्रयत्न करने पर भी हम उस अनुपम अादर्श की प्राप्ति नहीं कर पाये हैं जो हमें वास्तविक सुख देकर शान्ति तथा ज्ञान के वायु-मण्डल की स्थापना कर सके जिससे हम अधिक से अधिक आध्यात्मिक उन्नति करने में समर्थ हों।
इस स्थल में श्री गौड़पाद विशद्ध चेतना अथवा चेतन-तत्त्व के लिए हृदय-स्थान की ओर संकेत करते हैं। इससे उनका यह अभिप्राय है कि इस विवेक-बुद्धि की हृदयस्तल में स्थापना की जानी चाहिए।
इस त्रिविध-अहंकार के तीन स्थानों को 'ध्यान' के प्रसंग में यहाँ व्याख्या की गयी है । प्रत्यक दीक्षित साधक ध्यान-मग्न होने के लिए किसी न किसी निश्चित स्थान को जाना चाहेगा।
विश्वो हि स्थूलभुङ नित्यं तेजसः प्रविविक्तभक । प्रानन्दभुक्तथा प्राशस्त्रिया भोगं निबोधत ।।३।।
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