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की क्रिया-शक्ति का मुख्य केन्द्र है। इस विचार से माण्डूक्य कारिका में 'विश्व' का निवास-स्थान दाई आँख बताया गया है।
'तेजस' स्वप्न-द्रष्टा है । स्वप्नावस्था में 'अहंकार' मानसिक-क्षेत्र में प्रवेश करके स्वप्न-जगत को देखता है । इसलिए मन को 'तेजस' का प्रधानस्थान कहना उपयुक्त है ।
जब हम 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्था से सिमिट कर सुषप्तावस्था में प्रवेश करते हैं तो हमारी समूची चेतन-शक्ति एकरूपता (प्राज्ञ) में घनीभूत् हो जाती है । यही कारण है कि हृदय को 'प्राज्ञ' का निवास-स्थान कहा गया है।
आजकल के जीव-विद्या-विशारदों को हमारे ऋषियों की इन उक्तियों से, जो उन्हें निरर्थक दिखायी देती हैं, आघात पहुँचता है । उन्हें यह बात याद रखनी चाहिए कि प्राचीन ऋषि इतने ज्ञान रहित न थे। वे मनुष्य के शरीर विज्ञान से अपरिचित न थे और प्रायः सब पश्चिमोय-विज्ञान उन्हें भली भाँति ज्ञात था । महान् उपनिषद्-ग्रन्थों से तो यह भी पता चलता है कि वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण और बहुत से ऐसे अनेक विज्ञान-सम्बन्धी विषयों से परिचित थे जो पश्चिमो-जगत के वैज्ञानिकों के हाल के अन्वेषण कहे जाते हैं । इस पर भी हृदय-स्थान की ओर संकेत किया गया है । इससे यह न समझ लिया जाय कि वे इस तत्व से अनभिज्ञ थे कि मनुष्य के हृदय में किसी वस्तु का प्रवेश नहीं हो सकता । वायु के एक बुलबुले के हृदय में प्रविष्ट होते ही मनुष्य को तुरन्त मृत्यु हो जाती है । अतः 'हृदय-स्थान' से उनका अभिप्राय इसके शाब्दिक अर्थ से नहीं है।
___ 'हृदय' मनुष्य के दयालु-स्वभाव तथा अन्य दैवी गुणों का अधिष्ठान है । यह हमारे भाव, · पावेग और दयालता, प्रेम तथा दया सरीखी कोमल भावनाओं का निवास-स्थान है। हमारे शिर में तर्क तथा विवेकपूर्ण बुद्धि की सत्ता पायी जाती है। प्राचीन महर्षियों की यह धारणा थी कि वास्तविक बुद्धि का अधिकरण 'हृदय' है । इसका यह अर्थ था कि अनन्य प्रेम, सहज सहनशीलता और दया-पूर्ण सन्तोष वाले वायु-मण्डल की उसी समय रचना हो सकती है जब मनुष्य का हृदय तर्क-शक्ति से ओतप्रोत हो।
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