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( ४६ ) है, किन्तु इससे यह नहीं समझा जा सकता कि आपने जीवन की सभी स्थितियों में सन्तुलन प्राप्त कर लिया है । इसके लिए आपको असाधारण प्रयत्न करके 'ध्यान-क्रिया' द्वारा इस सजीव अनुभव को अंगीभूत करना होगा । पाक-विज्ञान की पुस्तक को पढ़ लेने से हमारी क्षुधा कभी शान्त नहीं होगी।
इस तरह हमने त्रिविध अहंकार की गति को भली भाँति समझ लिया है । जब हमें यह तत्त्व-ज्ञान हो जायेगा कि विशुद्ध चेतना (अात्मा) के बिना इन तीन अवस्थाओं का कोई अस्तित्व नहीं और समाधिस्थ होने पर हम अपने सहज-गुण प्रात्मा' से साक्षात्कार करते हैं तो इन अवस्थाओं से प्राप्त किये गये अनुभव हमें हर्ष-विषाद में नहीं फंसा सकेंगे।
असीम को सीमित उदाहरणों द्वार समझाना एक निष्फल एवं निराशाजनक प्रयत्न है । तो भी यदि हम अपने मन की उस स्थिति को समझाना चाहें जिससे अनुभव करते हुए भी हम अछूते रहते हैं तो हमारे लिए ऐसी स्वप्नावस्था को जानना होगा जिससे हमें अपने 'जाग्रत' अहंकार का पूर्ण ज्ञान रहता है । कल्पना कीजिए कि अपनी जाग्रतावस्था के अनुभवों का शान रखता हुअा में स्वप्न-जगत् में भी भ्रमण कर सकता हूँ; उस अवस्था में स्वप्न-जनित अनुभव मुझे स्पर्श तक नहीं करेंगे । स्वप्न में राजा बनने पर भी मैं उससे कोई प्रसन्नता न प्राप्त कर पाऊँगा । ऐसे ही यदि स्वप्न में कोई सिंह मेरे पीछे भाग रहा हो तो मैं अपनी प्राण-रक्षा के लिए निज वास्तविक स्थान से एक इंच भी इधर-उधर नहीं कूद सकता; कारण यह है कि मुझे यह ज्ञान है कि वह सिंह मिथ्या एवं मेरे स्वप्न-जाल का एक तन्तमात्र है।
सिनेमा घर में देखे जाने वाले चलचित्र का यहाँ उदाहरण देना भी यक्तिपूर्ण होगा । किसी चित्र के सुखान्त एवं दुखान्त दृश्यों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । यदि किसी विशेष दृश्य में हम किसी हत्याकाण्ड को देख रहे हों तो उसका हमें वह भावुकता-पूर्ण प्राघात नहीं पहुँचेगा जो मार्ग
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