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तिरस्कृत समझने लगते हैं । हम उन्हें अनेक मुखों वाले अजगर या नाग कह कर उनका अपमान नहीं करना चाहते । हम तो वर्तमान युग के इन वैज्ञानिकों तथा शिक्षित-वर्ग के साथ सहानुभूति रखते हैं क्योंकि ये खुल्लमखुल्ला उस साहित्य का घोर विरोध करते हैं जो इन्हें भीषण अजगर कहने की धृष्टता करता है । हम किसी प्रकार इनका तिरस्कार न करने की भावना से इस बात को विस्तार से समझायेंगे ।
यहाँ 'मुख' शब्द का व्यापक अर्थ लिया गया है अर्थात् उपभोग का उपकरण । इस अर्थ के अनुसार हम साधारणतः कह सकते हैं कि हम सब पाँच मुखों (पञ्चेन्द्रियों) द्वारा संसार के पदार्थों का उपभोग तथा अनुभवों को प्राप्त करते रहते हैं । इस मन्त्र में कहा गया है कि जाग्रतावस्था का अनुभवी उन्नीस मुख रखता है जो पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पञ्चप्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त के योग से बने हैं।
जाग्रतावस्था के अनुभव प्राप्त करने के लिए हमें अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच प्राण-शक्तियों तथा अपने भीतर के मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक व्यक्तित्व की सहायता लेनी पड़ती है। यदि इनमें से एक कम हो जाय तो उस अनुपात से हमारे अनुभव में न्यूनता पा जायेगी। जब हम इस रहस्य को समझ लेंगे तो वे शब्द, जिनके अर्थ निन्दनीय समझे जाते रहे हैं, अनुपम एवं रहस्यपूर्ण भाव लिये हुए दिखाई देंगे। उपनिषदों के विधिवत् अध्ययन के लिए गुरु का समीप रहना आवश्यक है न कि निर्देशपुस्तकों के बड़े ढेर का।
प्रारम्भ में हमें बताया गया था कि प्रात्मा 'ब्रह्म' है, व्यक्तिगत अहंकार व्यापक अहंकार है और संकुचित आत्मा विश्व-व्यापी आत्मा है । इस धारणा के लिए वेदान्त के द्वारा इस सिद्धान्त को अपनी आधार शिला बनाना पड़ता है कि "व्यष्टि ही समष्टि है।" इसी सिद्धान्त की पुष्टि में उपनिषदों में कहा गया है कि जाग्रतावस्था के अनुभवी (अर्थात् 'वैश्वानर' के स्थूल शरीर में प्रकट होकर आत्मा) के सात अंग भी हैं ।
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