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( २६ ) शाश्वत 'सत्य' भी सीमित तथा नाशमान हो जायेगा।
इस प्रकरण में 'श्रुति' चार क्रिया-क्षेत्रों की ओर संकेत करती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रात्मा स्वयं इन चतुर्विध क्रियाओं में गतिमान होता है यद्यपि पहली तीन क्रियाएँ (अवस्थाएँ) चौथी अवस्था में विलीन हो जाती हैं । उपनिषद् के मंत्रों की व्याख्या करते हुए हम इस बात को समझ लेंगे। इस समय तो इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा, जैसा श्री शंकराचार्य ने कहा है कि ये 'पाद' मुद्रा-संसार की रेज़गारी के सिक्कों के समान हैं।
चार पाने एक चवन्नी कहलाते हैं, दो चवनियों से एक अठन्नी बनती है और तीन चवन्नियों से बारह आने । यदि हम इनमें एक और चवन्नी जोड़ दें तो सब मिल कर एक नया रूप धारण कर लेंगे जिसे हम रुपया कहते हैं । इस ( रुपये के ) सिक्के में उन चवन्नियों का व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं रहता।
ठीक एसे ही यदि मनुष्य के अन्तर्जीवन का विश्लेषण किया जाय तो हमें तीन चेतनावस्थाओं का ज्ञान होगा। हम प्रतिदिन इन्हें अनुभव करते रहते हैं । ये हैं-'जाग्रत', 'स्वप्न' और 'सुषुप्त' अवस्थाएँ । जब हम इन तीन अवस्थानों से परे चौथी 'तुरीय' अवस्था की चेतना से इन्हें सम्बद्ध कर देते है तो सब मिलकर एक स्वरूप धारण कर लेती हैं । यही वह अशेष तत्व है । आत्मा में तो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्त अवस्थाओं का अस्तित्व नहीं पाया जाता। मंत्र में इस भाव को सामने रख कर कहा गया है कि प्रात्मा के चार पाद हैं । ये ‘पाद' क्या हैं, कैसे गतिमान होते हैं और इनके क्रिया-क्षेत्र कौन कौन से हैं-इन बातों को आगे समझाया जायेगा।
जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशति मुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥३॥
प्रथम चरण (पाद) को 'वैश्वानर' कहते हैं जिसका क्रियाक्षेत्र जाग्रतावस्था है । यह संसार के बाह्य पदार्थों से अभिन्न
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