________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ३२ )
'सात अंग' से सम्बन्धित यह उक्ति हमें 'छान्दोग्य उपनिषद्' में उल्लिखित प्रसिद्ध व्याख्या का स्मरण दिलाती है । शास्त्रीय परम्परा में कुशल विद्वानों को यह उक्ति 'विराट' को जगत्-सम्बन्धी रचना का पर्याप्त रूप में स्मरण दिला देगी । यदि व्यक्तिगत अहंकार एक व्यक्ति के सीमित क्षेत्र (वैश्वानर) में रह सकता है तो व्यापक अहंकार (विराट्) समस्त जगत में निश्चय रूप से रमण करता होगा। 'विराट' की व्याख्या करते हुए शास्त्र अपनी पारिभाषिक शैली में यह कहते हैं-"उस वैश्वानर का देदीप्यमान अंग उसका शिर है, सूर्य चक्षु है; वायु प्राण है; आकाश कटिभाग है; जल मूत्राशय (गुर्दा) है, पृथ्वी पाँव है और 'अह्वनीय' अग्नि उसका मुख है" -- छान्दोग्य उप० V १८ (ii)।
'आर्य' स्वभाव से ही 'कवि' थे और इस सुन्दर देश के रमणीय तथा उपजाऊ गंगा के मैदानों में रहने से सम्भवतः उनमें इस कला का विशेष विकास हुआ । अपने शरीर, मन, बुद्धि और सब पदार्थों से अछूता रहने पर भी आर्य निज महत्वपूर्ण अनुभवों को प्रकट करते हुए हृदय-स्थित कवित्वशक्ति को गुप्त न रख सके और यह धारारूप में प्रवाहित होने लगी। इसी कारण हमारे धर्म-ग्रन्थों में उक्तियों को पदावली द्वारा लाक्षणिक ढंग से व्यक्त किया गया है । संस्कृत भाषा में इस शैली को अपनाना कोई कठिन काम नहीं है; अत: ऋषियों ने इस का पूरा पूरा उपयोग किया। जब तत्कालीन शिष्य अपने गुरु के चरणों में बैठ कर 'पूर्ण-तत्त्व' की व्याख्या सुमधुर कविता में सुनते तो वे मुक्तकंठ से इसकी प्रशंसा करने लगते । प्रस्तुत मंत्र में दार्शनिक अभिव्यक्ति के साथ साथ कविता का पर्याप्त उपयोग किया गया है यद्यपि 'माण्डूक्य' के शब्द 'सप्ताङ्गः' (सात अंगों वाले) द्वारा इसे संक्षेप में कहा गया है ।
'माण्डूक्योपनिषद्' में ऐहिक पुरुष, व्यापक वैश्वानर, विश्व-व्यापी अहंकार की एक एक शब्द द्वारा व्याख्या 'छान्दोग्योपनिषद्' में दी गयी विस्तृत व्याख्या के आधार पर की गयी है । 'वैश्वानर' के ऐहिक स्वरूप को 'विराट' नाम दिया जाता है । अब आप 'श्रीमद्भगवद्गीता' में दिये गये भगवान
For Private and Personal Use Only