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निष्पक्ष भाव से जीवन का मूल्यांकन करना चाहे तो उसे समूचे जीवन के सब अंग-प्रत्यंगों का अध्ययन करना होगा । उसके लिए उन सभी अनुभवक्षेत्रों तथा चेतनावस्थाओं को ध्यान में रखना होगा जिनसे मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में साक्षात्कार करता है ।
सम्भवतः संसार के साहित्य में सबसे प्रथम धर्म-ग्रन्थ 'माण्डूक्योपनिषद्' है जिसमें जीवन के सभी पक्षों पर विचार किया गया और जिससे प्राप्त किये गये विस्तृत ज्ञान से ऋषियों ने अपने तत्वों का निरूपण किया ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में हमने विविध प्रकार के ममत्व की पूरी व्याख्या की है । जाग्रतावस्था के हमारे ग्रहंभाव की क्रिया दूसरी दो अवस्थानों के ममत्व से भिन्न है । हममें जागने वाली चेतना स्वप्न तथा सुषुप्तावस्थानों की शक्ति से स्पष्टत: अलग है । इस मंत्र में टीकाकार तत्त्वों के महत्व का निरूपण करने का प्रयास कर रहा है जिसे हमारे महर्षियों ने इतने घोर परिश्रम के बाद हमारे लिए एकत्रित किया है । इस मन्त्र के अन्तिम भाग में बलपूर्वक कहा गया है कि इन तीन अवस्थाओं में क्रियमाण होने वालो महान् शक्ति एक ही है ।"
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इसका यह अभिप्राय है कि हममें एक ही जीवन-तत्त्व अथवा विशुद्ध चेतन-शक्ति व्याप्त है । स्थूल शरीर से सम्बन्ध जोड़ लेने से यह शक्ति बाह्य पदार्थों का दिग्दर्शन करती है । जिस अवस्था में यह बाह्य जगत का ज्ञान रखती है उसे 'जाग्रत' अवस्था कहते हैं । यही चेतन शक्ति हमारे शरीर से सिमिट कर मन एवं बुद्धि से सम्पर्क स्थापित कर लेती है । इसे तब 'स्वप्नद्रष्टा' कहा जाता है क्योंकि यह शक्ति स्थूल जगत से भिन्न मानसिक संसार की छाप से सम्बन्धित दृश्य ( स्वप्न ) देखता है । स्थूल और सूक्ष्म शरीर से अलग होकर जब हमारी 'चेतना' कारण- शरीर के अनुरूप होती तथा घोर निद्रा में प्रवेश करती है तो इस तत्त्व-ज्ञान सम्बन्धी चेतना को 'सुषुप्तावस्था' कहते हैं ।
इस तरह अपने विविध सम्पर्कों द्वारा हम यह अनुभव प्राप्त करते दिखायी देते हैं कि इन तीन अवस्थाओं में हमारा अलग-अलग व्यक्तित्व क्रियमाण होता है । वैसे यह तथ्य सभी बुद्धिमानों द्वारा मान्य है कि इन
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