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( ४० ) चेतना में विलीन हो जायेगी और इसके परिणाम स्वरूप हमें सभी नाम-रूप पदार्थों में सर्व-व्यापक 'तत्व' का दर्शन होगा। इस मंत्र में यह भाव स्पष्ट तौर पर समझाया गया है।
( यहाँ श्री गौड़पाद की कारिका प्रारंभ होती है । ) बहिष्प्रज्ञो विभुविश्वोह्यन्तः प्रज्ञस्तुतैजसः, । घनप्रजस्तथा प्राज्ञ एक एव त्रिधा स्मृतः ॥१॥
प्रथम चरण 'विश्व' वह शक्ति है जो सर्वव्यापक होते हुए बाह्य स्थूल पदार्थों को अनुभव करती है ('जागने वाला'); 'तेजस' वह द्वितीय पाद है जो भीतर के सूक्ष्म पदार्थों को पहचानता है (स्वप्न-द्रष्टा); 'प्राज्ञ' चेतना का घनीभूत पुज है । यह 'शक्ति' ही तीन चेतनावस्थानों में तीन विविध नाम तथा रूपों से जानी जाती है।
श्री गौड़पाद की कारिका से यह मन्त्र सम्बन्ध रखता है। इसमें सर्वप्रथम हम इस टीकाकार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करते हैं। हमें इसके द्वारा यह भी पता चला है कि किस प्रकार शास्त्र के गंभीर तथा गहन विषय को बड़ी अच्छी तरह समझाया गया है । अभी तक हम इस बारह मंत्रों वाले महान् एवं पवित्र ग्रन्थ के पहले छः मन्त्रों की व्याख्या करते आ रहे हैं। छठा मंत्र वर्णन करने के बाद यह टीकाकार मंत्रों में संकेत की हुई महत्वपूर्ण मुख्य बातों की संक्षेप से व्याख्या करना प्रारम्भ करता है ।
उपनिषद् अत्यन्त संक्षिप्त ग्रन्थ हैं और हमने अपनी भूमिका में पहल ही बता दिया था कि हिन्दु शास्त्रों में ऋषियों ने एक निश्चित शैली को अपनाया है । इस संक्षिप्त विवरण के कारण यह आवश्यक हो गया है कि साधारण व्यक्तियों के लिए बहुत व्याख्या की जानी चाहिए क्योंकि इसके बिना ये ग्रन्थ निरर्थक, वरन् हास्यास्पद, जान पड़ेंगे।
कारिका के व्यापार तथा निर्माण की व्याख्या करते हुए हम इसके और भाष्य के भेद को समझा चुके हैं। भाष्यकार का उद्देश्य ग्रन्थ अथवा
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