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( ३६ ) तथा स्पन्दित करता हो तो हमें इनका रत्ती भर ज्ञान न रहता । इससे इसका 'आत्म-नियन्ता' होना स्वयं-सिद्ध होता है ।
चेतन-शक्ति निश्चय रूप से सब का उत्पत्ति-स्थान (गर्भाशय) है । यदि ऐसा न होता तो सूर्य, चन्द्रमा, तारागण, स्थूल एवं सूक्ष्म जगत का अस्तित्व न होता। ये सब हमें इसलिए दिखायी देते हैं कि हमें इन के अस्तित्व का ज्ञान रहता है । यदि हम यह कहें कि “मनुष्य के दो सींग होते हैं किन्तु हमें इस बात का ज्ञान नहीं” तो इसका यह अर्थ होगा कि मनुष्य दो सींगों वाला प्राणी नहीं है । ऐसे ही यदि हम में यह शक्ति न होती तो हमारे लिए समस्त संसार इस प्रकार अविद्य मान रहता जैसे हमारे शिर पर उगे हुए दो सींग।
यह चेतन-तत्व इन्द्रिय, मन और बुद्धि स्थूल पदार्थ, सूक्ष्म जगत् तथा भावनाओं के द्वारा क्रियमाण होता है। यदि यह दीप्तिमान तत्व किसी शरीर से अलग हो जाय तो उस शरीर के द्वारा बाह्य-जगत के पदार्थ तथा विचार ग्राह्य न हो पाएँगे। इस तरह न केवल शास्त्रीय विचार से, बल्कि वैज्ञानिक तथ्य के प्राधार पर भी, हम यह कह सकते हैं कि इस विशुद्ध चेतन-शक्ति से हमारे बाह्य एवं भोतरी संसार की उत्पनि होती है । इसके पृथक् होते ही ये दोनों जगत् इमो शक्ति में विलीन हो जाते हैं ।
जब रश्मि-रेखा प्रिज्म में से निकाली जाती है तो यह सप्त-वर्ण रश्मियाँ होकर बाहर निकलती हैं। सात रंगों वाली ये किरणें उस ज्योति में से निकलती हैं जो इस में प्रविष्ट होती है । ये सब वर्ण-रश्मियाँ सूर्य की ज्योति में पहले से थीं और अन्त में उसी में लौट जायेंगी। एक किरण को सात रंगों में विभक्त करना उस प्रिज्म का ही काम था क्योंकि इस ने उस रोशनी की वास्तविक दिशा को बदल दिया।
इस तरह जब हमारी चेतन-शक्ति मन तथा बुद्धि-रूपी प्रिज्म में से हो कर आगे बढ़ती है तो हमें अनेक रूप संसार का आभास होता है । यह वेदान्त का सिद्धान्त है। यदि किसी आध्यात्मिक साधन द्वारा हम मन एवं बुद्धि को लाँधने में समर्थ हों तो हमारी बहिर्मुखी चेतना ‘सर्व-व्यापी'
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