________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ३७ )
घोर निद्रा में रहने वाले व्यक्ति की स्थिति को वर्णन करत हुए 'श्रुति' कहती है कि 'प्राज्ञ' ज्ञान के द्वार तक जा पहुँचता है । यहाँ उच्चकोटि की कविता द्वारा इस सर्व श्रेष्ठ दर्शन - शास्त्र को समझाया गया है । यही उपनिषदों का विशेष गौरव है । प्राचीन ऋषि न्यायाचार्य होने के साथ भोजस्वी कवि भी थे । निद्रावस्था ( चित्) जो ज्ञान का प्रवेश द्वार है, की विशेषता बताते हुए आचार्य यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि पदार्थ- ज्ञान प्राप्त करने वाली समस्त शक्ति इस स्थिति में संचित होकर घनीभूत हो जाती है ।
सुषुप्तावस्था से बाहर निकल कर यह शक्ति हमारी स्वप्नावस्था को आलोकित करती है और जब यह और आगे बढ़ती और बाह्य जगत में प्रवेश करती है तो हमें स्थूल पदार्थों को जाग्रतावस्था में समझने में सहायता मिलती है । जब हम जाग्रतावस्था के स्थूल क्षेत्र एवं शरीर से सिमिट कर अंतर्मुखी होते हैं तो हमारे मन और बुद्धि युतिमान होते हैं। इसे हम 'स्वप्नावस्था' कहते हैं ।
जब हम स्वप्नावस्था से भी आगे भीतर की ओर बढ़ते हैं तो हमें ऐसी अवस्था अनुभव होती है जिसमें जाग्रति तथा स्वप्न दोनों का प्रभाव होता है । यह 'सुषुप्तावस्था' कहलाती है । इस तरह यह कल्पना करना कि निद्रा वह तोरण द्वार है जिसमें से चेतना की तीव्र रश्मि निकल कर 'स्वप्न' तथा 'जाग्रत' क्षेत्रों को जाज्वल्यमान करती है, सर्वश्रेष्ठ कविता का एक अनुपम उदाहरण है । इसे अति सूक्ष्म दर्शन - शास्त्र के विश्लेषण के लिए उपयोग में लाया जा सकता है |
संसार के अनुभव से समीकरण प्राप्त करने पर आत्मा प्राज्ञ अहंकार कहा जाता है । यह आत्मा का तीसरा चरण है ।
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ||६||
यह सब का ईश्वर है और सब कुछ जानता है । यह भीतर का नियंत्रण करने वाला और सब पदार्थों का स्रोत है । इस
For Private and Personal Use Only