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में उन सभी कारणों का अभाव होता है जो 'जाग्रत' एवं 'स्वप्न' अवस्था में हमें मानसिक क्षोभ देते रहते हैं । इससे यह न समझ लेना चाहिए कि उस समय हम वस्तुतः उस 'परम-सुख' से परिचित होते हैं जो हमारे अनुभव का मूल-कारण है; किन्तु गहरी निद्रा से जागने पर जब हम अपने इन अनुभवों की 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्था के अनुभवों से तुलना करते हैं तब हम सहसा कह उठते हैं कि सुषुप्तावस्था में पूर्ण सुख एवं शान्ति मौजूद रहती है।
इस प्रकार महान् उपनिषदों ने सषप्तावस्था की चेतना को 'प्रज्ञान-घन' कहा है । जब हम यह कहते हैं कि इस अवस्था में किसी अनुभव का कारण नहीं रहता तो इससे यह न समझा जाना चाहिए कि उस समय केवल निश्चित् (Positive) अनुभब विद्यमान नहीं होता । हमारे मन में क्षोभ और अस्थिरता रहने का यह कारण है कि स्थल-जगत की अनेकता तथा विविध पदार्थों की हमारे मन पर गहरी छाप हमें विचलित रखती है। इन्द्रिय-सखों के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ने पर हम उन्हें प्राप्त करने की प्राकाँक्षा रखते हैं और जब हम इस प्रयास में असफल रहते हैं तो हमें चित्त-क्षोभ होता है।
संसार के पदार्थ न तो हमें हर्षित करते हैं और न ही उद्विग्न । बाह्यजगत के साथ सम्पर्क स्थापित करने पर जब हम मिथ्या, स्थल पदार्थों का मूल्य प्राँक लेते हैं तो हमें इनमें प्रसन्नता अथवा दुख देने की शक्ति का संचार होता प्रतीत होता है । सुषुप्तावस्था में, जब हमारा मन गतिहीन हो जाता है और बुद्धि अन्तर्मुखी, तो हम स्थूल जगत से अनभिज्ञ हो जाते हैं। इनका आभास न रहने पर हम इनके मोह-जाल में फंस नहीं पाते, जिससे हमारा मन चलायमान नहीं होता।
इस कारण 'श्रुति' द्वारा इस प्रावरण को 'अानन्दमय' कोष कहा जाता है। परमात्मा का इससे सम्बन्ध होने पर इस सुषुप्तावस्था को 'प्रज्ञा' कहा जाता है । 'जाग्रत' तथा 'स्वप्न' अवस्था के अनुभवों से अलग रह कर 'प्राज्ञ' आनन्द प्राप्त करता है । इसे प्रानन्द कहने का यह कारण है कि इसमें 'शोक' का अभाव रहता है ।
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