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( ३४ ) क्षेत्र है । इस मन्त्र में स्वप्न-द्रष्टा की विस्तृत व्याख्या की गयी है और उसके क्रिया-क्षेत्र तथा भोग्य पदार्थों पर प्रकाश डाला गया है ।
दो 'चरणों' की व्याख्या कर चुकने के बाद उपनिषद् के अगले मंत्र में (इसके) तीसरे पाद 'सुषुप्त व्यक्ति' को वर्णन किया जाता है ।
यत्र सुप्तो न कंचन कामं कामयते न कंचन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम् । तत्सुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन ऐवाऽऽनन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥४॥
'सुषुप्त' वह अवस्था है जिसमें सोने वाला न तो किसी पदार्थ की कामना करता है और न ही काइ स्वप्न देखता है । तीसरा पाद 'प्राज्ञ' कहा जाता है जिसमें वह घोर निद्रा के वशीभूत हो जाता है, जिसमें सभी अनुभव एकरूप होकर भेद-रहित हो जाते हैं। वास्तव म यह एक समान-जाति पूण-चतना है और इसी अवस्था स यह शक्ति पहली दो अवस्थानों (जाग्रत तथा स्वप्न) में व्यवहत होती है ।
निद्रावस्था के विषय में पश्चिमी संसार को बहुत कम ज्ञान है ! पश्चिमी मनोविज्ञान के द्वारा अभी तक इस मानसिक अनुभव की व्याख्या नहीं की जा सकती है । सुषुप्तावस्था को वर्णन करने में बड़ा कठिनाई यह है कि उस समय हमे संसार के विषय में कोई अनुभव नहीं होता क्योंकि हमारी स्थूल इन्द्रियाँ निष्क्रिय होती हैं । जो कुछ हमें पता चल सका है वह यह है कि इस अवस्था में सब दृष्ट-पदार्थ अदृष्ट हो जाते हैं ।
इस गृह रूपा शरीर के पाँच वातायनों (इन्द्रियों) द्वारा हम जो कुछ अनुभव करते हैं उन्हें सामूहिक रूप में दृष्ट-जगत का ज्ञान कहा जाता है। स्थल संसार का हमें जितना मात्रा में ज्ञान उपलब्ध है वह हमारी पांच इन्द्रियों द्वारा पहुँचाया गया जानकारा के अनुसार होता है । निद्रा वह अवस्था है जिसमें मन तथा बुद्धि विश्राम पाते है अर्थात् ये खिड़कियां बन्द हो जाती हैं।
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