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इस तरह निद्रावस्था में हमें अज्ञान अथवा पूर्ण अभाव का अनुभव होता है । सोये हुए हम जो कुछ अनुभव करते हैं उसमें शब्द, रूप, गन्ध और स्पर्श का अस्तित्व नहीं होता । संक्षेप में सुषुप्तावस्था में हमें केवल यह ज्ञान रहता है कि 'हम कुछ भी नहीं जानते ।"
वर्त्तमान युग के विज्ञान - विशारद, जो अनात्मवादी हैं, बहुत समय के बाद ही उस उपयुक्त भाषा की खोज कर सकेंगे जिसके द्वारा इस सुषुप्तावस्था को (जब इन्द्रियाँ निष्क्रिय रहती हैं) वर्णन करना सम्भव हो ।
ऊपर वाले मंत्र में सुषुप्तावस्था की प्रत्युत्तम परिभाषा की गयी है; परन्तु यहाँ भी नकारात्मक भाषा का प्रयोग करके इसे वर्णन करने का प्रयास किया गया है । इस मंत्र के अनुसार यह अवस्था ऐसी है जिसमें सोने वाला न तो स्थूल जगत ( जाग्रतावस्था) औौर न ही स्वप्न - जगत ( स्वप्नावस्था ) का अनुभव करता है । इस अवस्था को, जहाँ हम 'जाग्रत' अथवा 'स्वप्न' अवस्थाको अनुभव नहीं कर पाते, 'सुषुप्तावस्था' कहा जाता है ।
यदि हम पहली दो अवस्थाओं से इसकी तुलना करें तो हमें पता चलेगा कि सुषुप्तावस्था में मनुष्य की समूची चेतना शक्ति संचित होकर सुरक्षित रहती है । जाग्रतावस्था में इस शक्ति का बाह्य जगत में मन तथा इन्द्रियों द्वारा ह्रास होता रहता है, जिससे हमें पदार्थ-जगत का आभास होता है | स्वप्नावस्था में यह चेतना मानसिक जगत के विचारों को आलोकित करती रहती है । इसे हम 'स्वप्न' का नाम देते हैं ।
जब हम इन दो पहली अवस्थाओं को लाँघ कर सुषुप्तावस्था में प्रवेश करते हैं तब हमारी चेतना शक्ति न तो बाह्य पदार्थों को ज्योतिर्मान करती है और न ही मानसिक क्षेत्र के सूक्ष्म जगत को । सुषुप्तावस्था में समस्त शक्ति घनीभूत होकर चेतना -पुंज की स्फटिक मणि के रूप में व्यवहृत हुई प्रतीत होती है । इस अवस्था में हमें जो अनुभव होता है वह चेतना के अखण्ड रूप में एकत्रित हो जाता है । इसे हम 'प्रज्ञानघन' कहते हैं ।
इस एकरूप चेतना को 'परम सुख' समझा जाता है क्योंकि इस अवस्था
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