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( २२ ) इस मन्त्र के पहले दो शब्दों द्वारा प्राचार्य प्रार्थना करते हैं जिसका प्रतिदिन उच्चारण करके शिष्य भगवान का वरदान प्राप्त करने की कामना करता है ताकि प्रकरण में दिये गये वास्तविक ज्ञाम से सुशोभित हो कर वह वेदाध्ययन का सफलतापूर्वक सम्पादन कर सके । ___ श्री शंकराचार्य ने प्रस्तावना में कहा है-"नाम और नामी एक होने पर भी यहाँ अभिदान या नाम की महिमा की व्याख्या की गयी है।" इस उपनिषद् में पहले ॐ की मात्राओं के प्रबन्ध को समझाया गया है और बाद में इनके महत्व पर प्रकाश डाला गया है । "इसकी विशेषताओं को फिर समझाया जायेगा।" अभी तो गुम अपने शिष्य की समस्या को एक कथन द्वारा ही वर्णन करने का प्रयत्न कर रहे हैं और यह है-'ॐ' अक्षर ही सब कुछ है।
शिष्य ने गुरु से यह पूछा था कि क्या इस नश्वर अनेकता के पीछे कोई मूल एवं विशुद्ध सत्य निहित है जिसे हम अपने अनुभव द्वारा जान सकते हैं ? उस विद्यार्थी को अनेकता के परोक्ष व्याप्त, सारभूत् सत्य को समझाने के उद्देश्य से प्राचार्य ने कहा कि यह अधिष्ठातृ देव एक सर्वोच्च तत्व है जो बाह्य जगत में अनुभूत अनेकता का प्राध्यात्मिक सम-भाजक है ।
जिस तरह मिट्टी के लाखों बर्तन मूलतः मिट्टी ही है, वैसे एक ही सत्यसनातन अधिष्ठाता है जिससे इस अनेकता-पूर्ण संसार की उत्पत्ति हुई । बर्तन 'मिट्टी से बनकर 'मिट्टो' में ठहरते और अन्त में नष्ट होकर इसी रूप में समा जाते हैं। ऐसे ही विविध रूप वाला यह प्रत्यक्ष संसार सदा एक ही सत्य पर आधारित रहता है । यह इस 'सत्य' में स्थित' रहने के बाद इसी में लीन हो जाता है । इस मौलिक, शाश्वत, व्याप्त 'चेतना-शक्ति' को "ॐ" द्वारा बताया गया है।
गुरु के कथन को सुनकर वह विस्मित शिष्य इस कौतुक-पूर्ण सत्य को समझ नहीं पाता । तब वह सहसा शंकापूर्ण दृष्टि से गुरु की ओर देखने लगता है । इस अव्यक्त प्रश्न को विद्यार्थी के मुख पर अंकित देख कर
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