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( २४ ) इस व्यक्त संसार को प्रकट करती हैं वरन् ये अव्यक्त, अद्वैत यथार्थता का भी मूल आधार हैं । भीतरी जगत में भी 'ॐ' हमारे स्थूल आवरणों में व्याप्त है और साथ ही इनके परे अाधात्मिक केन्द्र में वही सत्तारूढ़ है। यह कैसे है-इस बात को प्रस्तुत उपनिषद् के सभी बारह पवित्र मंत्रों द्वारा स्पष्ट किया गया है।
सर्वं ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥२॥
यह सब 'ब्रह्म' ही है; यह आत्मा 'ब्रह्म' है; इस आत्मा के चार पद हैं।
___ पिछले मंत्र में प्रखर-बुद्धि महान् ऋषि ने संक्षेप में यह कहा था"यह सब 'ॐ' ही है ।" इस भाव की व्याख्या करते हुए ऋषि ने शिष्य को सम्बोधित करके कहा-“यह सब 'ब्रह्म' है ।'' स्वभावतः महर्षि अपने छात्र को यह समझाना चाहते हैं कि 'यह सब ब्रह्म' है ।" 'ॐ' केवल हमारे आध्यात्मिक केन्द्र की ओर संकेत नहीं करता बल्कि यह अनेकता वाले मायामय संसार के परे स्थित रह कर आध्यात्मिक यथार्थता का भी सूचक है । "संसार के नाम और रूप सर्वव्यापक चेतन-शक्ति में प्रारप-मात्र ही हैं।" इस तथ्य की सभी उपनिषदों में पुनरावृत्ति की गयी है ।
वेदान्त के तत्वान्वेषण में यद्यपि शिष्य से यह अनुरोध किया गया है कि वह अपने शरीर, मन और बुद्धि को लांघ कर अपने आपको खोजे, तो भी इस गुह्य आध्यात्मिक केन्द्र को प्राप्त करने के लिए शिष्य का पथ-प्रदर्शन किया जाता है। इससे यह न समझ लेना चाहिए कि हमारे चारों ओर पायी जाने वाली दानव-प्रवृत्तियों से अलग किसी व्यक्तिगत ईश्वरीय-शक्ति को ढूंढने का प्रयास किया जा रहा है । अात्मानभति अर्थात् प्रात्मा की फिर से खोज करने की क्रिया में सर्व-व्यापक देवत्व को पूर्ण रूप से अनुभव करने का भी समावेश है।
इस बात को वेदान्त में 'घटाकाश' और 'व्यापक-आकाश' के उदाहरण द्वारा अच्छे ढंग से समझाया गया है। एक कमरे के भीतर का आकाश
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