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( २६ ) 'यह' सर्वनाम विशेष अर्थ रखता है । यदि हम इसका विस्तृत विवरण लिखें, तो एक बृहदाकार पुस्तक की आवश्यकता पड़ेगी। यहाँ पर मैं इससे सम्बन्धित मुख्य बातों का ही उल्लेख करूँगा।
सर्वनाम 'यह' का प्रयोग इसके सर्वनाम 'वह' के भेद को स्पष्ट करने के लिए किया गया है। हम कहते हैं-'वह' दीवार और 'यह' पुस्तक । इसका अर्थ यह है कि दीवार की अपेक्षा पुस्तक हमारे निकट है । यदि हम कमीज़ और पुस्तक के अन्तर को व्यक्त करना चाहें तो पुस्तक 'वह' पुस्तक बन जायेगी और कमीज़ 'यह' कमीज़ । इसका कारण यह है कि हमारी पहनी हुई कमीज़ हमारे अधिक समीप है। यदि हम इस तरह विश्लेषण करते जायें तो हमारा स्थूल शरीर भी 'वह' शरीर होगा और हमारा मन 'यह' मन । बाद में क्रम से 'मन' और बुद्धि भी 'वह' सर्वनाम को ग्रहण कर लेंगे।
अतः सर्वनाम 'वह' द्वारा बताये गये सभी धन-पदार्थ संसार की स्थूल वस्तुओं की अोर संकेत करेंगे और अन्त में हमारे भीतर का केन्द्र-विन्दु ही सर्वनाम 'यह' द्वारा व्यक्त होगा । इसी को ऋषि 'अयम्'-यह-कह कर पुकारते हैं। इस सारभूत् 'पूर्ण-तत्व' से सम्बन्ध रखने वाले विषय को सर्वनाम 'वह' से कभी सम्बोधित नहीं किया जाना चाहिए । 'वह' सर्वनाम द्वारा वर्णन किये जाने वाले सभी पदार्थ जिस विन्दु से आगे नहीं जा सकते उसे 'यह' कहा जाता है। इस विन्दु से परे कोई और केन्द्र-विन्दु नहीं है। यही निकटतम विन्दु 'प्रात्मा' अर्थात् 'यह आत्मा' कहलाता है ।
यही पूर्णता हमारे भीतर का प्राध्यात्मिक कन्द्र है। आध्यात्मिक तत्व के शाश्वत एवं सर्व-व्यापक होने के कारण हमारा केन्द्र-विन्दु सब का केन्द्रविन्दु है । इसका यह अर्थ हुअा कि 'व्यक्तिगत' सत्ता 'विश्व' सत्ता हुई । इसलिए माता श्रुति कहती है-'यह' प्रात्मा ब्रह्म है । वेदान्त के अनुयायियों ने इस पुनरुद्धृत उक्ति को 'महा-वाक्य' माना है । 'महा-वाक्य' वह शास्त्रीय उक्ति है जिसमें प्रतिष्ठा अथवा गौरव का अटूट भण्डार निहित हो और
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