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( २५ )
किसी भी अवस्था में 'व्यापक' आकाश से पृथक् नहीं है । प्रत्यक्ष आकाश कभी सीमाबद्ध नहीं होगा । इसे ईंट चूने की दीवारों द्वारा परिवेष्ठित नहीं किया जा सकता है क्योंकि चाहे कमरे अलग-अलग दिखायी देते हैं, उनकी चार दीवारें आकाश में ही खड़ी हुई हैं । इस अवस्था में हम इतना ही कह सकते हैं कि श्राकाश को आकाश ही घेरे हुए है और आकाश को संसार का कोई पदार्थ सीमाबद्ध नहीं कर सकता । इस पर भी कमरे के भीतर वाले आकाश ने उसके फ़र्श, छत और दीवारों से समीकरण करके अपने आपको संकुचित समझ लिया और "बैठक का आकाश", " शयन कक्ष का आकाश" आदि कई नाम धर लिये । वास्तव में इस भवन के कमरे बनने से पहले 'आकाश' अविच्छिन्न था और इसके गिर जाने पर वह फिर इसी प्रकार निर्लिप्त एवं व्यापक हो जायेगा । इसलिए 'कमरे का श्राकाश केवल कूट एवं श्राभास-मात्र स्वप्न है जिसकी उत्पत्ति उस समय होती है जब 'व्यापक' आकाश अपने आपको छत, फर्श और दीवारों द्वारा सीमित मान बैटता है। कमरे का आकाश वस्तुतः 'व्यापक' प्रकाश है ।
ऐसे ही सर्व व्यापक, सनातन, अजर, अमर और असीम 'सत्य' शरीर, मन और बुद्धि की स्वरचित मायावी दीवारों से घिरा रहने के कारण यह अनुभव करने लगता है कि वह एक पृथक् व्यक्तित्व रखता है । माया के स्थूल आवरणों से सम्बद्ध होकर वह मृत्यु अहंकार और मूर्खता से भरे हुए विचारों में उलझ जाता है । इस अवस्था में साधक का एक मात्र उद्देश्य यह है कि वह इस मिथ्या अज्ञान को त्याग कर 'विशुद्ध - शान' के ध्येय की ओर अग्रसर हो । इस दिशा में 'गुरु' अपने 'शिष्य' के सामने उपनिषदों के स्पष्ट एवं वास्तविक तथ्य रखता है ।
अविभक्त तथा प्रविभाजनीय आत्म-सत्ता साफ़ तौर पर हमारे शरीर का विन्दु-पथ माना गया है । हमारा निर्दिष्ट ध्येय 'ब्रह्म' है जो सर्वव्यापक तथा स्वतन्त्र होने के कारण निर्लिप्त एवं जन्म• रहित है । उपनिषद् के कथनानुसार “यह आत्मा ब्रह्म है" ग्रर्थात् प्राणी मात्र का व्यक्तिगत 'अहम्' विश्व व्यापी 'अहम्' के अनुरूप है ।
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