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ऋषि दया-पूर्ण शब्दों में कहते हैं- "इसका स्पष्टीकरण में बाद में करूँगा।"
इस मुख्य उक्ति से शिष्य सहसा यह समझ सकता है कि हिमालय की सुरम्य घाटी के उस पाश्रम और पवित्र गंगा में ही ॐ की सत्ता व्याप्त है क्योंकि वह इन स्थानों को श्रद्धा-पूर्ण दष्टि से देखता है । उसके इस भ्रम को निवारण करने के उद्देश्य से प्राचार्य ने ''यह सब", "भूत, वर्तमान और भविष्य में केवल ॐ ही सत्तारूढ़ रहता है” आदि शब्दों द्वारा इस रहस्य को सुलझाने पर बल दिया । भूत, वर्तमान और भविष्य से अभिप्राय इस पदार्थमय संसार से है जिसे हमारे पूर्वजों ने अनुभव किया, जिसका हम स्वयं प्रास्वादन ले रहे हैं और जिसका हमारी सन्तान उपभोग करेगी । समस्त जगत का एकमात्र आधार वही है जो तीन-काल में विकार-रहित स्वरूप में रहता है । इसे हम 'ॐ' का नाम देते हैं ।
सम्भव है कि यहां शिष्य एक और भ्रम का शिकार हो जाय कि यह संसार 'तीन-काल' में ही ॐ पर आधारित है और 'काल', 'अन्तर' तथा 'कारण' से परे रहने वाला 'अनुभव-जगत' इस से पृथक् है और उसका अस्तित्व इस परम-तत्त्व पर आधारित नहीं है । इस शंका का समाधान करने के उद्देश्य से प्राचार्य ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि 'काल' की परिधि में आने वाले अथवा इससे परे पाये जाने वाले सब पदार्थों का एक मात्र आधार 'ॐ' है अर्थात् इसकी सत्ता तीन-काल से भी परे अनुभव में आती है।
काल (समय) की धारणा केवल हमारे मन के कारण होती है । मन के बिना इस प्रकार की धारणा कभी नहीं हो सकती । म यह भी जानते हैं कि मन स्वत: एक निश्चेष्ठ वस्तु है ! चेतना के सम्पर्क में आने पर यह समान रूप से क्रियाशील एवं स्पन्दित हो जाता है । अतः कालातीत सत्ता भी वही अलौकिक जीवन-स्फुलिंग है जो शरीर, मन और बुद्धि को एक स्थान में ले पाता है । मानो यही एकमात्र स्पन्दन-शक्ति है ।
इस प्रकार ॐ का चिह्न और इसकी मात्राएँ न केवल अनेकता वाले
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