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( २० ) हरिः ओ३म् । प्रोमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यस्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥१॥
हरि : ओ३म् । ॐ अक्षर ही सब कुछ है। इसकी स्पष्ट व्याख्या प्रागे की जाती है । भूत, वर्तमान और भविष्य में जो कुछ भी है सभी ॐ है। तीन-काल से परे जो कुछ है वह वास्तव में ॐ ही है ।
उन व्यक्तियों को, जिन्हें दीक्षा नहीं दी गयी और जो पढ़ने के शौकीन हैं, दृष्टि में उपनिषद् के ये प्रारम्भिक शब्द प्रायः अपवाद एवं विवेकशून्यता से भरे हुए होंगे क्योंकि इनमें अकस्मात् यह घोषणा कर दी गयी है । वास्तव में यह कथन बहुत क्रान्तिकारी है और अद्भुत एवं भयावना भी मालम देता है क्योंकि यहाँ इस सत्य का सहसा विस्फोटन कर दिया गया है । जैसा मैं पहले कह चुका हूँ, हमें सदा इस बात को स्मरण रखना चाहिए कि हर श्रुति में शाश्वत् रूप से गुरु और शिष्य के बीच सजीव वार्तालाप को लेखनी-बद्ध किया गया है । उपनिषदों के शब्दों द्वारा हमें हिमालय की घाटी, जिस में कलरव-विरत, कलोलिनी 'गंगा' प्रवाहित है, के मनोरम दृश्य की कल्पना करनी चाहिए जहाँ एक छोटी सी पर्ण-कुटी में शान्त-चित्त, दिव्य-स्वरूप तथा उज्ज्वल प्राकृति वाला एक व्यक्ति बैठा है । यह मनुष्य, जो ईश्वर-ज्ञान से पुलकायमान है, निज हृदय-स्थित अनुभव अपने सामने बैठे हुए उत्सुक शिष्य को व्यक्त कर रहा है । यह शिष्य दिव्य-शक्ति में अपना मन लगाये हुए है।
एक साधारण साधक निराशा और खिन्नता वाले जीवन से ऊब कर गुरु के चरणों में उपस्थित होता है क्योंकि वह अपने आप को असफलताओं तथा कष्टों से कातर पाता है । निराशा तथा असफलता के कीचड़ में फंसा हुआ कोई विद्यार्थी क्या अध्यात्मवाद में परिपक्व हो सकता है ? जीवन से भयभीत होकर भाग जाने वाला मनुष्य एक संभावित साधक नहीं बन सकता ।
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