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किरण १]
हरिपेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा
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से अध्ययन किया गया है । मिरोनोने इसके विषयोंका चरित्र चित्रण अस्वाभाविक और अमंगल है और इस सविस्तर विश्लेषण किया है। इसके अतिरिक्त इसकी तरह वह मनोवेगक विश्वासमें पूर्ण रीति परिवर्तन भाषा और छन्दोंके सम्बन्धमें मालोचनात्मक रिमार्क भी होजाता है। किए हैं। कहानीकी कथावस्तु किसी भी तरह जटिल नी प्रन्धका विषय या तीन भागोंमें विभक्त है। है । मनोवेग, जी जैनधर्मका रद श्रद्धानी है। अपने मित्र जहां कहीं अवसर पाया, प्रामानिने जैन सिद्धान्तों और पचनवेगको अपने अभीष्ट धर्ममें परावर्तित करना चाहता है परिभापात्रों की प्रचुरता उपयोग करते हुए लम्बे लम्बे
और उसे पाटलिपुत्र ब्राह्मणोंकी सभामें लेजाता है। उसे उपदेश इसमें दिये हैं। दूसरे, इसमें लोकप्रिय तथा इस बातका पक्का विश्वास कर लेना कि ब्राह्मणा वादी मनोरंजक कहानियां भी है जो न केवल शिक्षा द है बल्कि मूर्ख मनुष्योंकी उन दस श्रेणियों में से किसी में नहीं हैं। निमें उच्चकोटि का हाम्य भी है और जो बड़ी ही जिनके बारेमें दस कहानियां सुनाई जाती हैं और जिनकी बुद्धिमत्ता के माथ ग्रन्धक मांग में गुम्फित हैं। अथ च अन्त अन्तिम कथामें चार धोंकी वे अद्भन कहानियां सम्मिलित में ग्रन्थका एक बड़ा भाग पुगीन कहानिया भरा हैं। जिनमें असत्य या अतिशयोक्तिम खूब ह। काम जिया हया है जिनको अविश्वसनीय बतलाते हुए प्रतिवाद गया है। मनोवेग ब्राह्मण वादियोंकी भिन्न-भिन्न सभाओंमें करना है तथा कहीं-कहीं सुप्रसिद्ध कथाओंके जैन रूपान्तर जाकर अपने सम्बन्ध में अविश्वसनीय कथाएं तथा मूर्खता- भा दिए हए हैं, जिनमें यह प्रताणित होता है कि वे कहाँ पूर्ण घटनाएं सुनाता है। जब वे इनपर श्राश्चर्य प्रकट करते तक तर्कसंगत है। हैं और मनोवेगका विश्वास करने के लिए तैयार नहीं होते जहांतक अमितगतिकी अन्य रचनात्रों और उनकी हैं तो वह महाभारत, रामायण तथा अना पुराया तामम धर्मपरीक्षाका उपदेश णं गहराई का सम्बन्ध है, यह स्पष्ट कहानियों का हवाला देकर अपने व्याख्यानोंका पुष्टिक लिए है कि वे बहत विशुद्ध संस्कृत लिम्व बते हैं। लेकिन प्रयत्न करता है। इन समस्त सभाओं में सम्मिलित हनिमे धर्मपरीक्षा और विशेषत सुप्रसिद्ध उपाख्यानोंकी गहराई पवनवेगको विश्वास होता है कि पौराणिक कथाओंका में हमें बहुत बड़े अनुपात में प्राकृतपन देखने को मिलता १ एन. मिरीनो : डी धर्मपरीक्षा देस अतिगति, है। इसमें संदेह होता है कि अमित गति किमी प्राकृत ली० १६०३, साथ दो विन्टर निज; ए हिस्ट्री अफ रचनांक ऋणी रहे हैं। पौराणिक कहानियोंकी असंगतिका इन्टियन लिटरेचर भाग २ पृ. ५६१। पन्नालालजी प्रकाश में लानेका ढंग इससे पहले हरिभद्रने अपने व कलीवालने में मंस्कृत-धर्मपरीक्षा, हिन्दी अनुवादके, धूनाख्यान में अपनाया है । ये लोकप्रिय अख्यान, साथ बम्बईसे १६०१ में प्रकाशित की थी। इसके बाद धार्मिक पृष्ठभूमिम विभक्त करनेपर भारतीय लोकदूमग मंस्करण मराठी अनुगद और अपेन्डिक्समें मल साहित्य के विशुद्ध अंश है और म.नवीय मनोविज्ञान के संस्कृत के साथ १६३१
म ह ल शमाने मांगलो सम्बन्ध में एक बहुत सूक्ष्म अन्तष्टिका निर्देश करते हैं । से प्रकाशित किया था। इसमें कहा गया है कि यह ३-वृत्तविलायकी धर्मपरीक्षा', जो बगभग मन् अनुवाद मुख्यतया वृत्तविलामकी कन्नड धर्म परीक्षा २ दे०, इस निबन्धमा नामदारात्मक भाग. के अाधार पर किया गया है और कहीं कहीं इसमें अमित- ३ अार. नमिदाचार्य: कनाटकक वचरित, बेन्गलोर गांतको रचनाका भी उपयोग किया गया है। लेकिन १६०४ पृ. १६६ । अनेक वप एन प्राकव्यमालका मिलान करने पर यह आरोप ठीक नहीं निकला। प्रस्तुत नामक काव्य-पद्यावलीम प्रस्तृन धर्मगिक्षा के मंर्ग अनुवादम वृनावलामका रचनाका कोई चिह्न नहा है। संग्रह प्रकाशित हुए थे । मेरे पाम जो श्रन नाचाकी इसमें बाकली पाल जीके हिन्दी अनुवाद का बहुत कुछ प्रति है, उमका मुखपृष्ठ आदि फट चुका है। इसलिए श्राशय लिया गया है और यह ग्रंथ भी किमी पूर्ववर्ती इनके प्रकाशनका स्थान और तिथि नदी बतलाई जा संस्करणसे ही पुन: प्रकाशित किया गया है।
सकती। मुद्रणकलाम प्रतीत होता है कि यह मंगलौर