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मनुष्यनीके 'संजद' पदके सम्बन्धमें विचारणीय शेष प्रश्न
(ले०-डा. हीरालाल जैन, एम० ए० )
षट्खंडागम जीवट्ठाणकी सत्प्ररूपणाके सूत्र ६३ 'क्या षट्खंडागमसूत्रकार और उनके । टीकाकार में 'संजद' पदकी संदिग्ध अवस्थाको लेकर एक विवाद वीरसेनाचायका अभिप्राय एक ही हे?' श षेक लेख खड़ा हो गया था। किन्तु मूविद्रीकी मूल ताडपत्रीय में प्रकट कर चुका है। वहाँ बतलाई गई कठिनाइयों प्रतियों में 'संजद' पद मिल जाने, स्वयं सूत्रों में अन्य का अभी तक कोई उचित समाधान नहीं किया गया। सवत्र मनुष्यनीके 'संजद' पद ग्रहण किये जाने, उसी मिद्धान्तकागेका ठीक अभिप्राय समझने के लिये सूत्रकी धवला टीकापर समुचित विचार करने एवं यहां हमें दो चार प्रमुख बातोंपर ध्यान देना आयश्यक आलापाधिकारपर दृष्टि डालने, गोम्मटसारमें भी प्रतीत होता है। पहली बात विचारणीय यह है कि उसी परम्पराके पाये जाने एवं बम्बईके तत्संबंधी गुणस्थानादि प्रतिपादनके लिये मनुष्य जातिका किम शास्त्र र्थ और पत्रों में की गई ऊहापोह तथा फरवरी प्रकार वर्गीकरण किया गया है । षटूखंडागम सुत्रपाठ, १६४६ के अनेकान्त में प्रकाशित 'संजद पदके संबंधमें धवला टीका, गजवार्तिक व गोम्मटसारके प्रतिपादन अकलंकदेवका महत्वपूर्ण अभिमत' शीर्षक लेखमें से सम्पष्ट है कि गणस्थानादि व्यवस्थाओं के लिये बतलाये गये राजवातिकके उल्लेखसे यह बात अब तिर्यंच जातिका पांच व मनुष्य जातिका चार प्रकार से भलीभांति प्रमाणित हो चुकी है कि उस सूत्रमें 'संजद' वर्गीकरण किया गया है जिमकी व्यवस्था गोम्मटयार पाठ अनिवार्य है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सिद्धान्त जीवकांड गाथा १४६ में इस प्रकार पाई जाती हैमें सर्वत्रमनुष्यनीके भी चौदों गणस्थान माने गये हैं। सामण्णा पंचिदी पजना जोणिणी अपजत्ता। . अव प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या मनुष्यनीके तिरिया णरा तहा वि य पंचिंदयभंगदो हीणा ।। चौदहों गुणस्थानोंका विधान होनेपर भी उसके छठे अर्थात-सामान्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, योनिनी
आदि गुणस्थानोंका निषेध माना जा सकता है ? उक्त और अपर्याप्त, यह निर्यांका वर्गीकरण है । एवं सूत्रके सम्बन्धमें धवला टीका और राजबार्तिकमें यह इनमें से पंचेन्द्रियको छोड़कर शेष चार अर्थात् प्रतिपादन पाया जाता है कि मनुष्यनीके चौदह गण- सामान्य, पर्याप्त, योनिनी और अपर्याप्त, यह मनुष्य स्थान भाववेदको अपेक्षा ही होते हैं, किन्तु द्रव्य वेद जातिका वर्गीकरण है । ये ही विभाग षट्खंडागम की अपेक्षा उनके केवल पाँच ही गुणस्थान हो सकते सूत्रों, धवला टीका आदिमें निर्यच व मनुष्य जातिका है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस मनुष्यके स्त्री- भेद स्पष्ट निर्दिष्ट करने के लिये प्रकरणानुमार कुछ वेदका उदय होते हए भी शरीर पुरुषाकार हो, वही नामोंके हेरफेरसे सर्वत्र स्वीकार किये गये हैं। उदाचौदहों गुणस्थानोंकी योग्यता रख सकता है । किन्तु हरणार्थ, तिर्यच योनिनीके लिये मत्प्ररूपरणा स्त्र ८७ जिसका शरीर त्रा-आकार हो उसके चौदह नहीं, में 'पंचेंदिय-तिरिक्ख-जाणिगी' गजवातिक पृष्ठ ३३१ केवल पांच गुणस्थानों की योग्यता हो सकती है, इस पर तिरश्वी' धवला टीका मत्प्ररूपणा पृ० २०८ में से ऊपरके गुणस्थानों की नहीं। इस संबन्धमें धवला- पंचेन्द्रियपर्याप्रतिरश्च्यः ' व जीवकाण्ड गाथा १५५ में कारने जो स धान किया है उसपर मैं अपने विचार केवल 'जोगिणी' तथा गाथा २७६ में 'जोरिणगी 'जैनमिद्धान्त भास्कर' (जुन १९४४) में प्रकाशित तिरिक्ख' शब्दका प्रयोग किया गया है। उसी प्रकार