________________
किरण ८-९]
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
२९९
'यदि पदाथको प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक माना जाय---यह कहा जाय कि जिस प्रकार बौद्ध-मान्यतानुमार बिना किमी दूसरे कारणके ही प्रलय (विनाश) आकस्मिक होता है, पदार्थ प्रलयम्वभावरूप है, उसी प्रकार कार्यका उत्पाद भी बिना कारणके ही आकस्मिक होता है तो इससे कृत-कर्मके भोगका प्रणाश ठहरेगा--पूर्व चित्तने जो शुभ अथवा अशुभ कम किया उसके फलका भागी वह न रहेगा और इसमे किये हुए कर्मको करने वाले के लिये निष्फल कहना होगा--और अकृन-कमके फलको भोगनेका प्रमंग आएगा-जिम उत्तरभावी चित्तने कम किया ही नहीं उसे अपने पूर्वाचत्त-द्वारा किये हुए कर्मका फल भोगना पड़ेगा-; क्योंकि क्षणिकात्मवाद में कोई भी कर्मका कर्ता चित्त उत्तर-धारणमें अवस्थित नहीं रहता किन्तु फल की परम्परा चलती है । साथ ही, कम भी अमंचेनित-अविचारित ठहरेगा--क्योंकि जिम चिलन कम करनेका विचार किया उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जानम
और विचार न करने वाले उत्तरवर्ती चित्तके द्वारा उमक सम्पन्न होनेसे उसे उत्तरवर्ती चित्तका विचारित काय ही कहना होगा।'
___(इसी तरह) पदार्थक प्रलय-स्वभावरूप क्षणिक होने पर कोई मार्ग भी युक्त नहीं रहेगासकल आम्रव-निरोधप मोक्षका अथवा चित्त-सन्ततिक नाशरूप शान्त-निर्वाणका मार्ग (हेतु) जो नैगम्य-भावनाझप बतलाया जाता है वह भी नहीं बन सकेगा; क्योंकि नाशके निर्हेतुक होनसे साम्रवचित्त-मन्ततिका नाश करने के लिये किमी नाशकका होना विरुद्ध पड़ता है--स्वभावमे ही नाश मानने पर कोई नाशक नहीं बनता । और वधक भी कोई नहीं रहता---; क्योंकि वह भी प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक है, जिम चित्तने वधका----हिमाका----विचार किया वह उसी क्षण नष्ट हो जाता है और जिसका वध हुअा वह उसके प्रलयम्वभावसे आकस्मिक हुआ, उसके लिये वधका विचार न रखने वाले किसी भी दृमर चित्तको अपराधी नहीं ठहराया जा सकता।'
न बन्ध-मोक्षी क्षणिकैक-संस्थो न मंतिः साऽपि मृपा-स्वभावा ।
मुख्याते गोण-विधिन दृष्टो विभ्रान्त-दृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥१५।।
(पदाथक प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक होने पर) क्षणिक-एक-चित्तमें मंस्थित बन्ध और मोक्ष भी नहीं बनत-क्योंकि जिस चित्तका बन्ध है उसका निरन्वविनाश हो जानेस उत्तर-चित्त जो अबद्ध है उसीके मोक्षका प्रसङ्ग आएगा, और एकचित्त-संस्थित बन्ध-मोक्ष उसे कहते हैं कि जिम चित्तका बन्ध हो उमीका मोक्ष होवे।'
(यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्तर-चित्ताम एकत्वक श्रागेपका विकल्प करने वाली 'संवृति' से क्षारणक-एकचित्त-मंस्थित बन्ध और मोक्ष बनते हैं, तो प्रश्न पैदा होता है कि वह मंवृति मृपाम्बभावा है या गौग्ग-विधिरूपा है ?) मृपाम्रभावा मंति क्षणिक, एक चित्तस बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था करनमें ममर्थ नहीं हे.- उममे बन्ध और मोक्ष भं मिथ्या ठहरते हैं। और गौणविधि मुख्यक विना देखी नहीं जानी (पुरुपमिहकी तरह)--जिस प्रकार किमी ,रुपको मुख्य मिहके अभाव में 'पुरुपमिह' कहना नहीं बनता उमी प्रकार किमी चित्तम मुख्यरूपमे बन्ध-मोक्षको मन्तिष्टमान बतलाये बिना बाध-मोक्षका गोगविधि नहीं बनती,
और इमसे गुम्यविधिक अभावम गौरविधिरूप संवृति भी किमा एक क्षणिक चित्तम बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था करनेमें श्रममथ है । (अत: है वीर जिन !) आपकी (स्याद्वादपिणी अनकान्त) दृष्टिम भिन्न जो दूमरी (क्षणिकात्मवादियोंकी सर्वथा एकान्त) दृष्टि है वह विभ्रान्तहांष्ट है..-मब ओरसे दोपहप होने के कारण वस्तुतत्त्वको यथार्थम्पस प्रतिपादन करनेम समर्थ नहीं है।'