Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 470
________________ ३२४ अनेकान्त [ वर्ष ८ "क्या ?" शायद हो कुछ मेरी गोमतीके बारे में ..............।" हीरा कुछ हिचकिचाया । फिर साहस कर यही सोचती २ वह मुंशीजीके घरको चलदी। उधर बोला-"तुम्हारी और मेरी शादी हो तो इसी वर्ष मुंशीजी पहलेसे ही जान बूझकर खिसक गये थे। जाती पर ... ", कहता कहता हीरा रुक गया। जाते समय वह अपने एक पुराने मित्र चौधरीको, गोमतीके अरुण कपोलोंपर लालिमाकी एक जिसको उन्होंने पहलेसे ही मन्त्रदान दे रखा था, च गई और साथ-ही-साथ उसे सन्देह भी बिठा गए थे। जब वह पहँची तो चौधरीजीने हुआ। उसने पूछा- “पर क्या ?" उसको बड़े आदरसे बिठाया और फिर सहानुभूति ___ "कुछ नहीं, पिताजीका विचार है कि बहूके सो प्रगट करते हुए बोले-"क्या बात है गोमतीकी घरमें श्रानेसे पहले उसकी सास घरमें आ जानी माँ, इतनी पतली क्यों हो गई हो।" चाहिए । इसलिये उन्होंने मेरा विवाह एक सालके "क्या बताऊँ चौधरीजी, भला आपसे क्या छिपा लिए स्थगित कर दिया है।" गोमती पहिले तो है ? आप मेरे घरकी सब हालत जानते हैं। बस समझ न सकी कि इसमें क्या रहस्य है, किन्तु काफी मुझे तो गोमतीको चिन्ता खाए डालती है।" देर पश्चात् उसकी समझमें आया कि मुंशीजी "गोमती की क्या चिन्ता ?" विवाह करना चाहते हैं। बोली-“इममें मुझे क्या "बस यही कि, दहेज कहाँसे लाऊँ ?" आपत्ति हो सकती है । अच्छा ही है, मुझे सासकी "ओह ! यह भी कोई चिन्ताकी बात है, तूने मेरेसेवा करनेका अवसर प्राप्त होगा।" से पहले क्यों नहीं कहा ? आज-कल तो उलटा "मुझे तुमसे यही आशा थी, मेरी रानी!" दहेज मिलता है, उलटा ! कहे तो रिश्ता आज ही "अगर सालभरमें तुम्हारी शादी अापके पिताजी पक्का करा दूं।" बुढ़िया समझी, चौधरी जी मजाक ने कहीं और निश्चित कर दी तो ....... "" कर रहे हैं। वह अँझलाती हुई-सी बोली-"अजी ___ "नहीं-नहीं गोमती, ऐसा मैं न होने दूंगा। हाँ, मुझे तो यह भी नहीं कि वर अच्छा ही हो। चाहे एक बात अवश्य है, मेरे पिताजी मेरे विवाहमें दहेज पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ हो, चाहे खूबसूरत हो या लेगें और थोडा-बहत नहीं, काफी।" हीरा इतना बदसूरत हो, मुझे तो इस लडकीके हाथ पीले कहकर मोचनेमें लग गया और फिर तुरन्त ही करने हैं।" बोला-"नहीं २ गोमती, तुम इसकी चिन्ता न करो। "तब तो तू मेरी बात मान", वह उसे समझाते मैं स्वयं अपने विवाह के लिये दहेजका इन्तजाम कर हुए बोले । बुढ़ियाने कोई उत्तर न दिया, वह केवल लूंगा। मैं पिताजीसे छिपाकर रुपये तुम्हारी माँको उनके मुँहकी ओर ताकने लगी। फिर उन्होंने कहना दे दूंगा", उसके स्वरमें दृढ़ता थी । इतना कह उसने प्रारम्भ किया-"कल मेरी मुंशीजीसे बात हो रही अपनी प्यारी गोमतीको अपने बाहुपाशमें ले लिया। थी, उन्होंने इसी जाड़ेमें अभी २ शादी करनेकी सोची गोमतीकी माँको इसकी झलक भी न थी कि है, और अगर तू कहे तो में उन्हें मना लूँ ।" उसकी बेटी और हीरा आपसमें प्रेम करते हैं। आखिर वह उनकी बातोंमें आ गई और तभी उसे तो किसीसे यह ही पता चला था कि मुंशीजीने पण्डितजीको बुलाकर विवाहकी तिथी निश्चित हीराके ब्याहम दस हजारका दहेज लेनेकी सोच कर दी गई । बुढ़ियाको आज ऐसा लग रहा था जैसे रक्खी है, उस ओर तो आस उठाना ही व्यर्थ है। उसके सिर परसे कई मनका बोझ उत आज जब मुंशीजीने उसे बुलाया तो उसके परन्तु फिर भी उसकी आत्मा कह रही थी कि उसने आश्चर्यकी सीमा न रही। वह सोचने लगी-"मुझ अपनी गोमतीके प्रति अन्याय किया है। वह बाध्य बुढ़ियासे मुंशीजीको कौनसा काम निकल पाया। थी, विवश थी, वैसा करने के लिये ।

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