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किरण ८-९ ]
करे यह उसके अधीन है-उसका काम है । श्रतएव यदि वह ही नहीं है तो अपने एकान्त पक्षको छोड़कर अनेकान्त पक्षको मान लेगा और यदि यही है तो समझकर भी कुतर्क करता रहेगा । सिर्फ जानना यह है कि मात्र दुःखोत्पत्ति और सुखोत्पत्तिसे पुण्य पाप बन्ध होता है क्या ? एक निर्मम तपस्वी साधु घोर तपस्या द्वारा शरीरमें कष्ट और दुःख पहुँचाता हैं, पर यदि उसका यह कष्ट अथवा दुःख तद्विषयक संक्लेश (कपाय) युक्त नहीं है तो उससे उसके बन्ध कदापि नहीं होगा - अन्य कारणोंस भले ही होता रहे। और यदि वह संक्लेश युक्त है तो नियमसं कर्मबन्ध होगा । इसका मतलब यह हुआ कि बिना संक्लेश परिणामके केवल दुःखत्पत्ति कर्मबन्धका कारण नहीं है किन्तु संक्लेश रूप कपायमिश्रित दुःखोत्पत्ति कर्मबन्धका कारण है । वास्तव में यदि ऐसा न हो तो अन्तःकृत केवली हो ही नहीं सकते ।
रत्नकरण्ड और प्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है।
यथार्थतः यहाँ उस सांस्कृतिक समस्याको हल किया गया है जो बौद्ध साधुओं की ओरसे जैन साधुओं के ऊपर आक्षेपके रूपमें उपस्थित की जाती थी। जैन साधु केशोत्पाटन आदि कठोर तपों द्वारा शरीरको कष्ट पहुँचाते थे, इसपर बौद्ध साधु जैन साधुओंपर यह आक्षेप करते थे कि जैन लोग केात्पाटन आदिको पुण्यबन्धका कारण मानते हैं और अपने शरीरको आराम पहुँचानमें पापबन्ध मानते हैं । उनको कहा गया है कि केवल दुःखसे पुण्य और सुखसं पापका बन्ध नहीं होता, अन्यथा बीतराग एवं विद्वान मुनि भी पुण्य-पापसे युक्त मान जायेंगे, पर ऐसा नहीं है। जैनसिद्धान्तमें मक्लेशादि युक्त दुख-सुख को ही पुण्य-पापबन्धका कारण स्वीकार किया गया है और इसलिये कंशोत्पाटनादिमं वे क्लेशादिका अनुभव नहीं करते हैं। जैसा कि स्वयं आप्तमीमांसाकारकी निम्न ९५वीं कारिकासं स्पष्ट है ।
विशुद्धि-संक्लेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सुखासुखम् । पुण्य-पापास्त युक्तो न चेद्व्यर्थस्तवार्हतः ॥
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आप्तमीमांसाकारके अनुसर्ता आचार्य पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिगत महत्वपूर्ण प्रतिपादनसे भी हमारे उक्त कथनका समर्थन होजाता है, जो उन्होंने श्रसद्वेद्यकर्मास्रव वर्णनके प्रसङ्गमें किया है और जो निम्न प्रकार है:
" अत्र चोयते - यदि दुःखादीन्यात्म - परोभय-स्थान्यसद्वे द्यास्रवनिमित्तानि, किमर्थमाह्तैः केशलुश्चनानशनातपस्थानादीनि दुःखनिमित्तान्यास्थीयन्ते परेषु च प्रतिपाद्यन्ते इति; नैव दोषः : अन्तरङ्गक्रोधाद्यावेशपूर्वकारिण दुःखादीन्यमद्वेद्यास्रवनिमित्तानि इति विशिष्यांक्तत्वात् । यथा कस्यचिद्भिषजः परमकरुणाशयस्य निःशल्यस्य संयतस्योपरि गराडं पाटयतो दुःख हेतुत्वे सत्यपि न पापबन्धी बाह्यनिमित्तमात्रादेव भवति । एवं संसारविषयमहादुःखादुद्विग्नस्य भिक्षस्तन्निवृत्युपायं प्रति समाहितमनस्कस्य शास्त्रविहिते कर्मणि प्रवर्त्तमानस्य संक्लेशपरिणामाभावान दुख:निमित्तत्वं सत्यपि न पापबन्धः । उक्तञ्च न दुःखं न सुखं यद्वद्धं तु पृश्चिकित्सितं ।
चिकित्सायां तु युक्तस्य स्यात् दुःखमथवा सुखम् ॥ न दुःखं न सुखं तद्वद्ध तुमक्षस्य साधने । मोक्षोपाये तु युक्तम्य स्यात् दुःखमथवा सुखम् ||२||” अतः आप्तमीमांसाकारको आप्तमीमांसा की उक्त कारिकामं केवल दुख-सुखसं पुण्य-पापका बन्ध नहीं होता, यह दिखाना है और उसे दिखाकर पूर्वपक्षीक एकान्त पक्षको छुड़ाना है तथा छुड़ाया भी गया है। जिस आपत्ति ( बन्धकत्व ) के कारण प्रा. सा. 'वीतरागां मुनिविद्वान' से हटे श्रादि गुणस्थानवत मुनिका ग्रहण नहीं कर रहे उसके ग्रहण करने में हिचकिचा रहे है वही आपत्ति (बन्धकत्व) उसका केवली अर्थ करने में भी मौजूद है। इसलिये पहले जो हम कह आये हैं कि पूर्वपक्षी प्रमाद और कषाय ( अथवा योग ) को बन्धका कारण मानकर केवल एकान्ततः दुःखात्पत्ति और सुखोत्पत्तिको ही कर्मबन्धका कारण कहना चाहता है और उसके इस कथनमें ही उक्त दोष दिये गये हैं, वही युक्त हैउसमें कोई भी बाधा नहीं है। अतः कारिकागत 'वीतरागां मुनिविद्वान' पदोंसे छठे गुणस्थानवर्ती