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दक्षिणा भारतके राजवंशोंमें जैनधर्मका प्रभाक
(ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, बी० ए० एल एल० बी० )
क्या उन जैनोंने जो अहिंसाके सच्चे और संस्कृतिकी दृष्टिसे आरविदुवंशके समय तक विशुद्ध
" कट्टर अनुयायी एवं प्रचारक रहे हैं कर्णाटकी ही रहा, अन्तर्गत जैनधर्मके इतिहासका भारतवर्षकी मांस्कृतिक एवं राजनैतिक उन्नतिकी भी अध्ययन करते हुए उक्त धर्मके अनुयायियों द्वारा किये अभिवृद्धि की है ? प्रस्तुत लेखमें इस प्रश्नका आंशिक गये उस योगदानपर भी समुचित ध्यान देना उत्तर तथा उन तथ्योंका संक्षिप्त वर्णन है जो आवश्यक है जो उसने विजयनगर राज्यकी स्थापना कर्णाटक, तेलेगु और तामिल देशोंके अनगिनत के पूर्व दक्षिणी और पश्चिमी भारत के भाग्य निर्माणमें शिलालेखों तथा साहित्यमें उपलब्ध हैं और जिनसे किया । वास्तवमें, प्राचीनकालमें, दक्षिण तथा पश्चिम हमें जैनधर्म द्वारा प्रदत्त उस अपूर्व योगदानका स्पष्ट भारतमें हुए जैनधर्मके अभ्युत्थान और प्रचारको ज्ञान होजाता है जोकि उसने अनेक विभिन्न राज्यों- पूर्वपीठिका बनाते हुए जैनधर्मने विजयनगरकी की और विशेषकर मध्यकालीन हिन्दू राजनीतिकी संस्कृतिके निर्माण और स्थितिमें जो ठोस भाग सर्वश्रेष्ठ महाकृति विजयनगर साम्राज्यकी सफलता लिया उसके उपयुक्त विस्तृत विवेचनसं पाठकोंको और स्थायित्वके हित किया। विवक्षित इतिवृत्त एक यह भली प्रकार अनुभव होजाता है कि जैनोंने भी उस सम्प्रदायका रोचक एवं उत्साह-वर्द्धक इतिहास अन्ततः देशके इतिहास में अपना सुनिश्चित गौरवपूर्ण है जिसने अपनी जन्मभूमि, उत्तरापथसे एक महान स्थान रक्खा है। जैनधर्मकी कतिपय विशेषताओंको दैवी विपत्ति (बारह वर्षका भीषण दुष्काल)के कारण, यदि लौकिक दृष्टिकोणसे देखा जाय तो यह स्पष्ट स्वेच्छा-पूर्वक निष्कासित होकर, कर्णाटक देशमें होजाता है कि यह धर्म गूढ़ तात्त्विक विश्वासोंका श्राश्रय लिया और जो अपने इस अपनाये हुए समूहमात्र नहीं है वरन यह एक ऐसा धार्मिक विश्वास प्रदेश मात्र साहित्य, कला और धमेम ही नहीं, रहा है जिसने एक बड़े अंशम देशकी भौतिक राजनैतिक क्षेत्र में भी अपर्व तेज एवं उत्कर्षको प्राप्त समृद्धिकी अभिवृद्धि की। हुआ। यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि दक्षिण-भारतके दक्षिण भारतमें जैन-धर्म-प्रचारकी सर्वप्रथम कुछ भागोंमें जैनधर्मके कुछ चिन्ह अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक घटना, तीसरी चौथी शताब्दी ईम्वी कालसे दृष्टिगोचर होते हैं और वहाँ पर्याप्त काल तक पूर्वमें, अपने राजर्षि शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य सहित इसने प्रत्यक्ष उन्नति भी की है, किन्तु कर्णाटकको अन्तिम श्रुतकेाल भद्रबाहुका आगमन था। इस इसने सदेव अपना घर समझा है । उक्त प्रान्तीम यह घटनाके पश्चात् उक्त प्रदेशम इस धमेन जीवन धर्म अपने सर्वोच्च उत्कर्ष एवं समृद्धिके दिनोंमें भी संबन्धी प्रायः सर्व ही उपयोगी क्षेत्रोंमें सर्वतोमुखी और अपेक्षाकृत गौणताके युगों में भी जनतासे उन्नति की है। और यदि इसने राजकीय उदारता अत्यन्त प्रेमपूर्ण आदर-सत्कार तथा परम विशुद्ध एवं सम्मानका भी अतिशय उपभोग किया तो निष्ठा प्राप्त करने में कभी भी असफल नहीं रहा है। इसका कारण यह था कि तत्कालीन जैन नेतागण अतः दक्षिण भारतीय जैनधर्मका इतिहास मुख्यतया अपने समयकी गम्भीर राजनैतिक समस्याओं एवं कर्णाटकस्थ जैनधर्मका ही इतिहास है । इसी कारण, आवश्यकताओंके प्रति लेशमात्र भी उदासीन नहीं विजयनगर राज्यके, जोकि अपनी उत्पत्ति और थे । प्रसिद्ध गंगवंशकी स्थापना जैनधर्मके ही