Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 501
________________ वीतराग-स्तोत्र (द्वितीय) पिछली किरणमें एक 'वीतरागस्तोत्र' कल्याणकीर्ति आचार्यका प्रकट किया गया था, जो पाठकोंको अच्छा रुचिकर मालूम हुआ । आज उसी नामका एक दूसरा स्तोत्र प्रकाशित किया जाता है, जो हालमें मुझे कानपुरके बड़े मन्दिरसे प्राप्त हुआ है। यह श्रीपद्मनन्दि आचार्यकी सुन्दर कृति है, जिनके और भी कई अप्रकाशित स्तोत्र अपने पास हैं । इसमें वीतरागदेवके स्वरूपका निर्देश करते हुए बार बार यह घोषित किया गया है कि 'जो पुण्यवान हैं वे ही इस धरातलपर ऐसे वीतरागदेवका दर्शन कर पाते हैं ।' दोनों स्तोत्रोंका छंद, पद्यसंख्या और लिखनेका ढंग समान हैं, और इससे ऐसा मालम होता है कि एकके सामने दूसरा रहा है और दोनोंके रचयिता समकालीन भी हो सकते हैं। -सम्पादका (वसन्ततिलका) स्वात्मावबोध - विशदं परमं पवित्रं, ज्ञानैकमूर्तमनवद्य-गुणैक-पात्रम् । आस्वादिताऽक्षय-सुखोज्वल-सत्परागं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥१॥ उद्यत्तपस्नपन - शोषित - पाप - पहूं, चैतन्याचह्नमचलं विमल विशंकम । देवेन्द्र-वृन्द-महितं करुणालला(या)ङ्ग, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम् ॥॥ जाग्रद्विशुद्ध-महिमाऽवधिमस्त-शोकं, धर्मोपदेश-विधि-बोधित-भव्यलोकम । आचार - बन्धुर - मति जनतासुरागं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥शा कन्दर्प - सर्प - विष - नाशन - वैनतेयं, पापोपहारि जगदुत्तमनामधेयम । संसार-सिन्धु-परिमन्थन-मन्दराऽगं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥क्षा निर्वाण-कम्र-कमला-रसिकं विदम्भ, द्धिप्रणु-मदत-नयाऽमृत-पूर्ण - कुम्भम् । वल्गद्विमोह-तरु-खण्डन-चण्डरागं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भूवि वीतरागम ||५| आनन्द - कन्दमुररीकृत - धर्मपक्षं, ध्यानाऽग्नि-दग्ध-निखिलोद्धत-कम-कक्षम । ध्वम्ताऽपवादिगण ध्वान्त-विधोपरागं', पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥६।। स्वेच्छोच्छलध्वनि - विनिजित - मेघनाद, म्याद्वादवादिनमपाकृदसद्विवादम । . नि:सीम - संयम - सुधारस - मत्तडागं, पश्यन्ति पुण्य - सहिता भुवि वीतरागम ।।।। सम्यक् -प्रमाण - कुमुदाकर - पूर्णचन्द्रं, मांगल्य - कारणमनन्तगुणं वितन्द्रम । इष्ट-प्रधान-विधि-पोषित-भूमिभाग, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ।।८।। श्रीपद्मनन्दि - रचितं किल वीतराग, स्तोत्रं पवित्रमनवद्यमनाद्यमाद्यम । यः कोमलेन - वचसा विनयादधीते, स्वर्गाऽपवर्ग - कमलाममला वृणीते ॥९॥ इति श्रीवीतरागस्तोत्रं समाप्तम् । MMMMMMMMMMMMMMM __*कानपरकी प्रतिमें यह पाठ 'ध्वस्तायवाजिगणध्वान्तविधायजागं रूपसे उपलब्ध है, जो अर्थसंगतिके sो ठीक न बैठनेसे अशुद्ध जान पड़ता है । -सम्पादक

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