Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 506
________________ ३६० अनेकान्त [वर्ष ८ इतने अनुदार सिद्ध हुए कि उन्होंने वैरसाधन और आगामी कई शताब्दियों तक अपना सर्वोपयोगी बदला लेनेका ऐसा प्रतिहिंसात्मक ढङ्ग अपनाया जो अस्तित्व बनाये रखनका अवसर प्रदान किया । कि हिन्दू जातिके लोकप्रसिद्ध सत्कारशील स्वभावके पूर्वकालमें, जैनधर्मने अनेकबार राजनैतिक जीवनका नितान्त विरुद्ध था। परिणामस्वरूप, जैनधर्मके प्रति पुनरुत्थान किया था और इस प्रकार हिन्दुधर्मको राजनैतिक संरक्षण और आश्रयमें कमी होती गई, अपनी स्थिति सुसंमत बनाये रखने और सङ्गठित वैष्णवमतका बल बढ़ता गया, कितने ही जैनसामन्त करनेकी सुविधायें प्रदान की थीं। अब जैनधर्मकी ने भी मतपरिवर्तन कर लिया और अन्तम वैसी स्थिति थी, अतः सामान्यतः हिन्दुधमानुयायी कितने ही प्रधान जैन व्यापारी भी वैष्णव होगये। विजयनगर नरेशोंने उसके उक्त व्यवहारका परिशोध इस प्रकार विजयनगर साम्राज्य स्थापनाकी संधि- किया । जैनधर्म और वैष्णव धर्मके अनुयायियोंके वेलामें दक्षिणदेशस्थ जैनधर्मको यह भारी धक्का बीच एक विकट धर्मार्थिक विवाद ा उपस्थित लग चुका था। हुआ था। उस अन्तःसाम्प्रादायिक द्वन्दमें महाराज विजयनगर राज्यकी स्थापनाके समय (सन् १३४६ हरिहररायन जो निणय दिया वह निष्पक्ष एवं ई०) जैनधमकी अतिविषम स्थिति थी वह भग्नाशा न्याययुक्त होनेके साथ ही साथ आदर्श और और भग्नोद्यम होगया था, किन्तु अभी भी पराभूत उदाहरणीय है। उक्त निर्णयने यह स्पष्ट कर दिया नहीं हुआ था। अपने प्रधान एवं सर्वोच्च आसनसे, कि नवीन साम्राज्य के इन नवीन नरेशोंके हाथों में जिनपर कि तामिल, तेलेगु और कर्णाटक प्रान्तोंमें जैनधर्मका भविष्य सुरक्षित रहेगा । हलबेयडु वह स्थित रहता आया था, दृढ़तापूर्वक शनैःशनैः उसे नामक स्थानमें एक दूसरा वैसा ही विवाद उत्पन्न च्युत कर दिया गया और बलात् द्वितीय अर्थात हो गया था, राज्य द्वारा उसका भी निर्णय दोनों ही गौणस्तरपर रहनेके लिये बाध्य कर दिया गया; पक्षोंके लिये सन्तोपकर सिद्ध हुआ। विजयनगरकी विशेषकर कर्णाटकमें जहाँसे निष्कासित होनेका एक साम्राज्ञी, महाराज देवरायकी पट्टरानी भीमादेवी उसके लिये कोई उपाय ही नहीं था। उस प्रदेशमें स्वयं जैन थीं, राज्यवंशकं अन्य कितने ही व्यक्ति उसकी जड़ें गहरी जमी हुई थीं, वह उसका घर ही भी जिनधर्म भक्त थे । उस युगका सर्वाधिक जो था । किन्तु यदि स्याद्वादमतकं अनुयायियोंके विख्यात योद्धा सेनापति इरुगप्प, जो जैन धर्मालिये यह काल पर्याप्त भयहेतुक था तो देशक इति- नुयायी था, अपने स्वामीका अनन्य भक्त एवं परम हासमें, राजनैतिक दृष्टिसे भी अत्यन्त विषम था। कत्तव्यशील व्यक्ति था । उसका कार्यकाल एक गणराज्य संस्थापक आचार्य सिनन्दि अथवा विश्वासी वीर सेनापति, कुशल इजीनियर, एवं होयसल राज्यस्थापक श्राचार्य सुगतवर्धमानदेव जैसे सफल राजप्रतिनिधि (वायसराय) के रूपमें ५९ वर्ष उपयुक्त कुशल नेताओंके अभावमें इस समय देशकी पर्यन्त चला । इरुगप्पके बड़े भाई सेनानी वीर अति जटिल समस्याओंको समझने और सुलझाने बैचप्प भी कट्टर जैन थे। इस युगमें जैनधर्म, स्वयं वाला कोई व्यक्ति न था। प्राचीन गङ्ग तथा अन्य विजयनगरकी अपेक्षा साम्राज्यके प्रान्तीय केन्द्रोंमें शासकोंके सन्मुख जो समस्याएँ थीं उनसे भी अधिक प्रधान रहा। और प्रान्तीय अधिकारियोंमें अधिक दुस्साध्य कठिनाइयोंसे अभिभूत जनताके इस दृष्टि से, सर्वाधिक उल्लेखनीय व्यक्ति चंगल्व लिये इस समय जैनधर्मके लिये कोई उपयुक्त सन्देश नरेश वीर मंगरस था। उस युगके सर्वप्रधान न था । जैनगुरुवादी विद्यानन्द थे । जैनधर्मने अब यह ऐसी स्थितिमें, विजयनगर राज्य जैनधर्मके १ देखिये हमारा लेख-'एक ऐतिहासिक अन्तःसंरक्षकके रूपमें आ उपस्थित हश्रा और उसे साम्प्रदायिक निर्णय। -अने. वर्ष ८ कि. ४-५ पृ. १६६

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