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Bজী ফসল।
विधि-दृष्टि
उभयानुभय-होष्ट
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निषेधाऽनुभय-दृष्टि
निषध-दृष्टि
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उभय-दृष्टि
विध्यनभयहार
किमार्पिना)
...अनुभय-दृष्टि
महार्पिना
वर्ष
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सम्पादक-जुगल किशोर मुरदतार
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विषय-सूची
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१ परमात्म-वन्दन-[सम्पादक .... २ श्रा० अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिधिनिश्चय-टीका-न्या० पं० दरबारीलाल कोठिया ३ रादरसे पूर्वका लिम्बी हुई ५३ वर्षकी 'जंत्रीखास'०-[सम्पादक ४ श्री जम्बूजिनाष्टकम---श्री पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया ५ भगवान महावीर और उनका सन्देश-[श्री कस्तग्सा सावजी बी०ए. ६ पात्मानुशासनका एक संदिग्ध पद्य-श्री लक्ष्मीनारायण जैन ..." ७ स्व. बाय सूरजभानजी वकील-[श्री दौलतराम 'मित्र' ... ८. रत्नकराड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं-(प्रो०हीरालाल एम० ए०"" ६ श्रीधवलाका रचनाकाल-श्री प्रफुल्हकुमार मोदी एम० ए० एल-एल.बी. १० माहित्यप्रेमी श्री अगरचन्दजी नाहटा-[श्री हजारीमल बाँठिया ११ महावीर-उपदेशावतार-श्री पं० अजितकुमार जैन, शास्त्री .... १२ जेसलमेर के भंडारों में प्राप्त कल नवीन ताइपत्रीय प्रतियां-[श्री भँवरचन्द्र भंवरलाल नाहटा १३ सचा कर्मयोगी (कविता)-[श्री माधव शुक्ल "" १४ हरिषेण कृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा-श्री प्रो०ए०एन० सपाध्ये, अनु०.राजकुमार शास्त्री १५ वानर-महाद्वीप-(सम्पादकीय नोटसहित) [श्री प्रो. ज्वालाप्रसाद सिंहल एम० ए० १६ जैन मरस्वती-श्री बा ज्योतिप्रसादजी जैन एम०ए०, एल-एल.वी. १७ क्या मथुग जम्यूस्वामीका निर्वाणस्थान है ? -[पं० परमानन्द शास्त्री
- वीरसेवामन्दिरको सहायता । भनेकांतको सहायता 'गत जन-जु नाई मामकी किरण११-१२ में प्रकाशित पिछली किरण ११-१२ में प्रकाशित सहायताके बाद महायता के बाद बार सेवामन्दिर सरसावाको मनस्यकीसके अनेकान्तको जो सहायता प्राप्त हुई है वह कमशः निम्नप्रकार मलाया जा महायता प्रान हुई है वह कमशः निम्न प्रकार है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र है:है और उसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र है- ६००) बा. छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता (पूर्व स्वीकृत ५) श्रीमती भगवती देवी धर्मपत्नी ला. रूडामलजी जैन सहायता)। शामियाने वाले सहारनपुर ।
२) ला. मूलचन्द केसरीप्रमादजी पानीपत जि० करनाल
(पिता ला० मनोहरलालजीके स्वर्गवासके उपलक्ष में | ५) श्रीदिगम्बरजैन पंचायत किशनगढ (जि . जयपुर) ५) ला. कैलाशचन्दजी जैन रईम बूडिया जि० अम्बाला (पर्दूषणपर्व के उपलक्ष में)
(चि० पुत्र गजेन्द्रप्रसाद की शादीके उपलक्षमें)। श्रीदिगम्बर जैन पंचायत, गया (दशलक्षण के उपलक्षमें)
मोशनाशजी जैन बी. ४० वकील बलन्दशहर ५) ला० सुमेर चन्द केदारयाबूजी जैन क्लाथमचेंट,
(बहन शान्निदेवी 'रत्न' के अन्तर्जातीय विवाहके बहराईच।
उपलक्षमें जो बा. ज्ञानेन्द्रकुमार गंगरेवाल जैन. २५०) श्रीसकल दिगम्बर जैन पंचायत कलकत्ता (दशलक्षण
बी.ए. (अलीगढ के साथ हुश्रा)। पर्व के उपलक्ष में)।
१०) ला• गनपतरायजी सेठी जैन, लाडनू जि० मान ४८) बाबू छोटेलालजी जैन नईम कलकत्ता (सफरखर्च की
(चि. हीरालाल के विवाहोपलक्षमें)। सहायतार्थ ३१८) अधिष्ट ता वीरसेनामन्दिर' ६१६)
व्यवस्थापक प्रक
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* ॐ महम् *
ततत्व-सघातक
KARE
तत्त्व-प्रकाशक
१४ सकिरण का मूल्य
हैं इस किरण का मूल्य III)
DhanusMANMaaaaa
JA नीतिविरोषवसीलोकन्यवहारवर्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।
वर्ष ८ किरण १
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ) सरसावा जिला महारनपुर )
माघ, वीरनिर्वाण संवत् २४७२, विक्रम संवत २००२
जनवरी १६४६
33
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परमात्म-वन्दन यो विश्वं वेद वेद्य जनन-जलनिर्भगिनः पारदृश्वा, पौर्वापर्याऽविरुद्धं वचनमनुपर्म निष्कलङ्क यदीयम् । तं वन्दे साधु-वन्यसकल-गुण-निधि ध्वस्त-दोष-विषन्तं, बुद्धं वा बर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ।।
-प्रकलकाष्टक "जिसने दोष-समूह तथा शत्रुसमूह को ध्वस्त किया है-अपने अज्ञान-गग-द्वेष-काम-क्रोधादि विकारों - और उनके कारणीभूत ज्ञानावरण--दर्शनावरण-मोहनीय श्रादि कर्म-शत्रोका विनाश किया है-ज्ञेयस्वरूप विश्व को जाना है--सकल लोक-अलोकका ज्ञान प्राप्त किया है-, तरङ्गाकुलभव-ममुद्रका पार देखा है--संसारसागरके पर-भागमें स्थित मुक्ति-जगतका साक्षात् अवलोकन किया है और जिसका प्रवचन (आगम) पूर्वाऽपरके विरोधसे रहित अनुपम तथा निर्दोष है, उस साधुओंसे वन्दनीय तथा सकल गुणोंकी खानि परमात्मपुरुषकी मैं वन्दना करता हूँ-उसके गुणोंमें अनुरक्त हुश्रा और उन्हें श्रात्मगुण समझ कर अपने अात्मामें उनके विकासको दृढ भावना रखता हुश्रा मैं उसके आगे नतमस्तक होता हूँ--चाहे उसे बुद्ध, वर्द्धमान (वीर-जिन) ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि किसी नामसे भी क्यों न कहा जाय-नामसे कोई प्रयोजन नहीं, उक्त गुण विशिष्ट प्राप्तपुरुष ही वन्दना और अाराधनाके योग्य है, उसीके श्रादर्शको सामने रखकर अात्मविकास सिद्ध किया जा सकेगा।
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आचार्य अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय-टीका
( लेखक--न्यायाचार्य पं० दरवारोलाल जेन, कोठिया )
हत समयसे मेरी अभिलाषा थी कि और उनके वचनोदारचन्द्रिका-प्रमेयकमखमातंयटकी जिन अनन्तवीर्य और उनके वचनों विद्वत्परम्परामें अच्छी प्रतिष्ठा और ख्याति होरही थी, तब की प्राचार्य प्रभाचन्द्र और वादि- प्रमेयरस्नमाला लिखी गई । १२ वीं शताब्दी विद्वान राजसरिने मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की हेमचन्द्रने प्रमाणमीमांसामें अनेक जगह प्रमेयरत्नमालाका उनके सम्बन्ध में कुछ ज्ञान प्राप्त शब्दशः और पर्थश: अनुसरण किया है। अत: प्रमेयरत्नकरूँ। सौभाग्यसे वीरसेवामन्दिरमें मालाकार मनन्तवीर्य हेमचन्द्रसे पहले और प्रभाचन्द्र के
अनन्तवीर्यको सिद्धिविनिश्चय-टीका बाद अथवा उनके प्रायः समकालीन हुए हैं। अर्थात् ये मौजूद है और इसलिये उसके मरमरी तौरसे पन्ने पलटने अनन्तवीर्य ११वीं शताब्दीके विद्वान हैं। का सुचवमर मिखा-इस महाग्रंथको अच्छी तरह समझने
दूसरे अनन्तवीर्य प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयटीकाकार मनके लिये तो काफी समय अपेक्षित है । यह टीका प्रमी स्तवीर्य हैं, जो प्रकलङ्क प्रौढ और सम्भवत: पाच प्रमुद्रित है। इसके सामान्य अध्ययनसे जो मुझे ज्ञातव्य ।
व्याख्याकार एवं उनके गृढ पदोंके मोद्घाटक हैं और जान पड़ा। उसे 'अनेकान्त' के पाठकोंके लिये भी यहाँ
प्रमाचन्द्र तथा वादिराजद्वारा बड़े सम्मान एवं पादरके
साथ अपने 'पथप्रदर्शक' रूपमें स्मरण किये गये है। अनन्तवीर्य नामके दो विद्वान और उनका समय- प्रभाचन्द्र लिखते हैं :--
उपलब्ध जैन साहित्यमें अनन्तवीर्य नामके दो विद्वान् । त्रैलोक्योदरवर्तिवस्तुविषयज्ञानप्रभावोदयो प्राचार्यों का अब तक पता चला है । एक अनन्तवीर्य तो दुष्प्राप्योऽप्यकलङ्कदेवसरणिः प्राप्तोऽत्र पुण्योदयात् । वे हैं जिन्होंने माणिक्यनन्दिके 'परीक्षा-मुख' न्यायसूत्रपर सभ्यस्तश्च विवेचितश्च शतशः सोऽनन्तवीर्योक्तितः 'परीक्ष मुखपञ्जिका' नामक वृत्ति लिखी है जिसे 'परीक्षा- भूयान्मे नयनीतिदत्तमनसस्तबोधसिद्धिप्रदः।। मुस्खानघुवृत्ति' और 'प्रमेयरत्नमाला' भी कहा जाता ।
-न्यायकुमु० द्वि० भा० पृ० ६०५, परि०५ । ये अनन्तवीर्य प्रमेयकमबमासंण्डकार भाचार्य प्रभाचन्द्र के
अर्थात्-'प्रकलङ्ककी संक्षिप्त एवं गहन और दुर्गम उत्तरकालीन हैं। इन्होंने अपनी प्रमेयरत्नमानामें प्रमाचन्द्र और उनके प्रमेयकमलमार्तण्डका निम्न प्रकार उल्लेख किया पद्धतिको अनन्तवीयके व्याख्यानोंपरसे सैंकों बार
अभ्यास करके जान पाया हूं।' इससे यह प्रकट किये प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति।
भनन्तवीर्य प्रभाचन्द्र के पहले हो गये हैं और जिन्हें वे मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः॥३॥ .
अकलकी दुर्गम कथन-शैलीका अच्छा मर्मोद्घाटक मानते इस उल्लेखपरसे यह स्पष्ट है कि प्रभेन्दु-प्रभाचन्द्र थे। मा. प्रमाचन्द्र ईमाकी १०-११वीं शताब्दी लिये १ वैजेयप्रियपुत्रत्त्य होरपस्योपरोधतः ।
से १०६५ ई.) के विद्वान् माने जाते हैं। ...... शान्तिघेणार्थमारब्धा परीक्षामुखपश्चिका ।।
वीर्य इससे पूर्ववर्ती हैं। प्राचार्य वादिराज अपने न्याय'हति प्रमेयरत्नमालापरनामधेया परीक्षामुखलघवृत्तिः
विनिश्चय-विवरण प्रारम्भ होकहते हैं:समाप्ता।'
१ देखो, न्यायकुमु.द्वि. भा० प्र० पृ०५८ ।
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किरण १]
आ० अनन्तवीय और उनकी सिद्धिविनिश्चय-टीका
गूढमर्थमकलङ्कवाङ्मयागाधभूमिनिहितं तदर्थिनाम। प्रकरणों के मर्म और सिद्धविनिश्चटीका तथा प्रमाणसंग्रहव्यब्जयत्यमलमनन्तवीर्यवाकदीवतिरनिशंपदे पदे ॥३ भाष्यके रचयिता प्रस्तुत अनन्ववीर्य ही है।
अर्थात्-'प्रकलदेवके गूढ पदोका प्रर्थ अनन्तवीर्यके विद्यानन्द भी प्रकन व्याख्याकार है और प्रभाबचन-प्रदीपद्वारा ही मैंने अबलोकित किया है। इन्हीं चन्द्र तथा वादिराज-द्वारा स्मृत होमेसे उनके पूर्ववर्ती है। वादिराजने उक्त विवरण के अन्त और पार्श्वनाथचरितमें लेकिन अनन्तवीर्य और विद्यानन्दमें पूर्ववती कौन है? अनन्तवीर्यको बन्दनारूपसे भी स्मृत किया। यथा- इसका पता अभीतक न तो अन्य साधनसे चना और विद्यानन्दमनन्तवीर्यसुखदं श्रीपूज्यपादं दया- इन दोनों विद्वानोंके ग्रन्थोंपरसे ही पता, क्योंकि यालं सन्मतिसागरं कनकसेनामध्यमभ्युद्यमी। एक दूसरेके साहित्यका एक दूसरेपर कोई प्रभाव नहीं जान
शुद्धचन्नीतिनरेन्दसेनमकलहूं वादिराजं सदा पढ़ता । अनन्तबीयंने सिद्धिविनिमयटीकामें अनेक पूर्ववर्ती । श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्रमतुलं वन्दे जिनेन्द्र मुदा। प्राचार्य और विद्वानों एवं ग्रन्थकारोंका नामोल्लेख किया
-न्यायवि०बि०, प्रशस्ति श्लो. २। और जहां तहां उनके प्रन्यवाक्योंको भी उद्धत किया है। वन्दाभ्यनन्तवीर्याब्दं यद्वागमृतवृष्टिभिः ।
स्वामी समन्तभद्र, तत्वार्यसूत्रकार, पूज्यपाद, पाकेशरी जगजिधित्सन्निर्वाणःशून्यवादहताशनः ॥-पा०च०। धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णक (कर्णकगोमि), प्रचंट __वादिराजके इन उल्लेखोंसे भी यही प्रकट है कि शान्तभद्र, कुमारित्र प्रमाकर, गाजकीर्ति, पाणिमि अनन्तवीर्य उनके पूर्ववर्ती विद्वान है। वादिराजने पार्श्वनाथ तत्वोपटलवकार भादिके नामोल्लेखपूर्वक वाक्य उद्धत किये चरितमें अपना समय शक सं० १५. (ई.१.२५) हैं। सिद्धसेनका भी नामोल्लेख है और सनके सम्मतिसन दिया है। अतः अनन्तवीर्य ११ वीं शताब्दीसे पहले के हैं। ग्रन्थकी तीसरे क रगत ५० वीं गाया भी उद्धत हो नकि प्रभाचन्द्र और वादिराज दोनों ही विद्वानोंने उन्हें २ सिद्धिविन्टीकामें निम्नप्रकारसे एक उल्लेख पाया है :-- अकलके वाहमयके पदोंका अर्थस्फोटक बतलाया ।
'इमामेवार्थ समर्थयना प्राद-पाधत्तामित्यादि, और इसलिये इनके द्वारा स्मृत अनन्तवीर्य सिद्धिविनिश्चय
नन्वयमोंऽनन्तर कारिका वृत्तायुक्तो न च पनस्तस्यैवाभिधाने टीका रचयिता अनन्तवीर्य ही हैं। इन्हीं अनन्तवीर्यने
स एव सथितो नामानिप्रसङ्गात् । किन्त्वन्यस्माद्धेतो: अत्यन्त दुरूह प्रकलङ्कके प्रमाणसंग्रहपर भी टीका
सचात्र नोक्तस्तस्मादुक्तार्थोऽनन्तर श्लोकोऽयमित्यनन्तवीयः। (भाष्य) लिखी है और जो सिद्धिविनिश्चयटीकासे पूर्वकी
अस्यायमर्थ श्राधत्तमाद् व्यक्त। क्षणिकैकान्तस्वार्थउनकी रचना है। सिद्धिविनिश्चयटीकामें उसको देखने
संविदिति....'-पृ० ६६ । 'लिये अनेक जगह' प्रेरणा कीबो उनका विद्यानन्दके
इस उल्लेखमें 'इत्यनन्तवीयः' पदका प्रयोग विद्यानन्दमहोदय जैसा ही महत्वका विशिष्ट प्रन्य जान
श्राया है। यदि वह अशुद्ध नहीं है और वह किसी व्यक्तिपड़ता है और जो भाज अनुपलब्ध है तथा उनकी विशेषका बोधक है तो मालूम होता है कि अनन्तवीर्यके + सिद्धविनिश्चयटीकामें ही उसके उल्लेख हैं। प्रतएव पहलेभी कोई अन्य तीसरे अनन्तवार्य होगये हैं और जिनके प्रभाचन्द्र और वादिराजके विवचित अनन्तवीर्य प्रकलंक
मतको टीकामें टीकाकार अनन्तवीयने नामोन्लेख-पूर्चक १ 'इति चर्चितं प्रमाण संग्रहभाष्ये' पृ. १२, 'इत्युक्तं
उद्धत किया है । यह विचारणीय है।
॥ लिलारे' पृ० १६, शेषमत्र प्रमाण संग्रहभायात् ३ 'स्वयूथ्योऽन्याह-सिद्धसेनेन कचित्तस्यासिद्धस्यावचनादप्रत्ययं पृ. ३६२।
युक्तभेतदिति तेन कदाचिदेतत् (?) श्रुतं'प्रपञ्चस्तुवेदोक्तोग्रन्थगौरवान् प्रमाणसंग्रहभाध्याज्ज्ञेयः'पृ. "जे संतवायदोसे सकोलया भणंति संखाणं। १२१, प्रमाणसंग्रहभाये निरस्तम्' पृ० ११०३, 'दोषो संखा य असवाए तेसि सव्वे वि ते सच्चा ॥" रागादिप्ल्याक प्रमाणसंग्रहभाप्ये' पृ० १२२२ ।
-सिद्धिवि.टी.पृ.६३३ ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
है। एक अनन्तकीर्ति नामके विद्वानाचार्य और उनकी उससे प्रतीत होता है कि वे अकसके इतने बाद हुए। 'स्वत: प्रामाण्यम' नामकी कृति के भी उल्लेख हैं।' कि वे प्रकलङ्कके 'स्वामिनः' पदका वास्तविक अर्थ करने में प्राचार्य नहीं कि ये अनन्तकीर्ति वे ही अनन्तकीर्ति हों सन्दिग्ध थे-उसका वे असन्दिग्ध अर्थ नहीं जानते थे जिनका उल्लेख वादिराजने पार्श्वनाथचरितमें किया है और इसखिये 'भाचार्य प्रसिद्धि प्राधारपर उसका अर्थ
और जिन्होंने जीवमिद्धि, लघु और वृहद सर्वज्ञसिद्धियोंकी 'मीमन्धर भट्रारक तीर्थकर' करने के लिये बाध्य हुए । रचना की है । जीवसिद्धिकी तरह उनकी यह सिद्धि- जो प्राचार्य उस पदका अर्थ भाचार्य-प्रसिद्धिके अनुसार विनिश्चयटीका उल्लिखित 'स्वतःप्रामाण्यभङ्ग' कृति मी 'पात्रकेशरी स्वामी' करते थे उसका उन्होंने विरोध अनुपलब्ध जान पाती है। इन सबके उल्लेख होते हुए किया। यदि अनन्तवीर्य कमाके १००.५० वर्ष बाद भी विद्यानन्दका या उनके प्रन्यवाक्यका कोई उल्लेख ही हुए होते तो वे उस ऐतिहासिक पदके अर्थ में इतने नहीं है। उधर विद्यानन्द ने भी इनका कोई उल्लेख किसी भी सन्दिग्ध न होते और जो 'पात्रकेशरीस्वामी' अर्थ किया ! अन्य में नहीं किया। प्रतएव यह सम्मव है कि ये दोनों जाता था उसे वे बिना ननु नच किये अवश्य स्वीकार विद्वान समकालान हो श्रीर भिन्न भिन्न क्षेत्रोंमें अपना करते । अतएव उनकी इस चर्चासे यह जान पड़ता कि प्रकाश कर रहे हो। विद्यानन्दका समय । वीं शताब्दी वे अकलकूके बहुत वाद हुण्हैं जबकि 'स्वामिन' पदके अनुमानित किया जाता है। धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, अर्थमें अनेक किम्बदन्तियां और मतभेद प्रचलित होचुके कागोमी, पर्च, तस्वीपक्लवकार (जयराशि), कुमारिख थे, अतएव यह चिम्तनीय है कि वे वीं शताब्दीके
और प्रभाकर ये सब साकी ७ वीं शताब्दीतकके विद्वान है? राहलसांस्कृत्यायनने ४ अर्चटका समय ८वीं विधान है। प्रकलदेवका समय प्रायः पाठवीं शताब्दी और कर्णकगोमीका वीं सदी दिया है और अनन्तवीर्यने अनमानित और अनन्तवीर्य उनके व्याख्याकार हैं। मर्चट तथा कर्णकगोमी दोनोंका सभालोचन किया। इसलिये इनका समय ।वी और १०वीं शताब्दी मालून' चत: अधिक सम्भव यही है कि ये १०वीं मदीके विद्वान होता है। यदि इन्हें अकलङ्क प्राय व्याख्याकार होनेका हैं। फिर एक प्रश्न यह जरूर बना रहता है कि विद्यानन्द सौभाग्य भी प्राप्तीतो ये वीं श०केही विद्वान् । (हवीं सदी) का उन्होंने कोई उल्लेख क्यों नहीं किया?
जोकि बहुत अधिक सम्मन था। अत: यह विचारणीय है। लेकिन इस समयको मानने में एक विचारणीय बात यह उपस्थित होती कि अनन्तबीयंने सिद्धिविनिश्चयके अकलङ्कके व्याख्याकारोंमें अनन्तवीर्यका स्थान'हेतुलसण-सिद्धि' नामके छठे प्रस्तापके भारम्भमें प्रकल. प्रकलङ्कका वाङ्मय-पदवाक्यादि समूह--कितना, देवके 'स्वामिनः' पदको लेकर जो चर्चा प्रस्तुत की गहन, दुध संक्षिप्त और अर्थबहुल है इसका पता इसके
___.. न्याय-विषयक प्रकरणोंका मध्ययन करनेवालोंको सहजमें १ 'अनन्तकीतिकृते:स्वतःप्रामाण्यभङ्गादवसेयमेत'-४प्र. मालूम होजाता है। प्राचार्य वादिराज पद पदपर इसका २ देखो, पार्श्वना. १-२४ ।
अनुभव करते हैं और अनन्तवीर्यकी सहायता लेकर ही
उन्हें समझ पाते हैं। भाच र्य प्रभाचन्द्र जब सैकडों बार ३ 'कस्य तदित्याह-स्वामिनः पात्रकेशरिण इत्येके । कुत एतत् ? तेन तद्विषयविलक्षणकदर्थनमुत्ताभाष्यं यतः
अभ्यास करते हैं तब उन्हें जान पाते है, सो अनन्तवीर्यरी
प्रकरुप्य सहायतासे ही। बगैर इनकता लिये कृतमिति चेत्, नत्वेवं सीमन्धरभट्टारकस्याशेषार्थसाक्षाकारिणस्तीर्थकरस्य स्यात् । तेन हि प्रथमं 'अन्यथानुप- मवगम्यत इति समानम् । प्राचार्यप्रसिद्धरित्यपि समानपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र मुभयत्र । कथा च महती सुप्रसिद्धा...'-पृ.८६३ । तत्र त्रयेण किम् ॥” इत्येतत्कृतम् । कथमिदमवगम्यते ? ४ भारतीयविद्या वर्ष ३ अंक १ 'प्रज्ञाकरगुप्त और उनका इति चेत् , पात्रकेशरिणा त्रिलक्षगाकदर्थनं कृतमिति कथ- भाष्य' शीर्षक लेख ।
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किरण १]
प्रा० अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय-टीका
अपनेको वे भी असमर्थ पाते हैं। अनन्तवीर्य भी स्वय हैं। किन्तु तथ्य और अस्वलित ममातोचना एवं कुछ अकलक-पदोंके सम्बन्धमें क्या कहते हैं। सी भी सुनिये- अधिक गहन विचारणामें अमजदेव को हम धर्म कीर्तिसे
देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं ब्यक्तुतु सर्वतः। कहीं भागे पाते हैं। प्रकलदेवका प्रमागासंग्रह तो न जानतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥३॥ अतुलनीय है-उसकी गहराई. जाटलता और अति.
अर्थात्-'मैं अनन्तवीर्य होकर भी प्रबल के पदोंको संक्षिप्तता धर्मकीतिक प्राप्त किसी भी निबन्ध देवनको पूर्णत: व्यक्त करना नहीं जानता, यह भाश्चर्य की बात है।' नहीं मिलती। इसीसे अकल कू और धर्मकीर्तिक मास्यिका उस समय ऐसे संक्षिप्त और अर्थबहुत प्रकरणोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेवाले प्रा० अननवार्य हो 'धर्मकीर्ति रचयिता धर्मकीर्तिको ही मुख्यतया माना जाता था। कथं गच्छेदाकलङ्क पदं ननु' यह कहना परा है। और अनन्तवर्य उनकी अकलङ्कके साथ तुलना करते हुए यह अनन्तवीर्यका प्रघोषमात्र या श्रद्धापूर्ण ही कथन नहीं लिखते हैं:
है, किन्तु वह ताविक है । जो भी निष्पक्ष विद्वान् प्रकलङ्क सर्वधर्मस्य नैगम्यं कथ गन्नपि मर्वथा। के साहित्यका - न्याय-विषयक प्रकरणों का धर्म कार्तिके धर्मकीर्तिः कथं च्छेदाकलङ्कः पदं ननु ॥५॥ न्याय-प्रन्थोंके साथ सूक्ष्मता और गहराईसे तुलनामक
अर्थात्-'सर्व धर्मकी निरामकताका कथन करता अध्ययन करेंगे उन्हें यह स्पष्ट हुए बिना न रहेगा और हुआ भी धर्म कीर्ति अकलङ्क-पदको-प्रकलंककी बराबरीको
अनन्तवार्यक उक्त कथनकी स्वाभाविकता भी प्रनीत कैसे पा सकता है ? अर्थात् नहीं।'
होजायगी। वास्तवमें प्रकलदेव भारतीय वाङ्गमयके तेजस्वी,
प्रकलदेवके दो तरहके अन्य है-(१) टीका-ग्रन्थ अप्रत्तिम प्रतिभाशाली विद्वान् हैं। यद्यपि प्रकलदेवको ।
भौर (२) मूल-ग्रन्थ । टीकाग्रन्थ उनके दो हैं-(1) तत्वार्थ'प्रकलदेव' बनाने में प्रधानतया धर्मकीर्तिकी समालोचना
वार्तिक (म्बोपज्ञ भाष्य सहित ) और (२) अशनी। पद्धति और विचार क्रान्ति ही मुख्य कारण है। धर्मकीर्ति
(देवागमभाष्य --देवागमविवृति)। तत्त्वार्थधानिक प्रा. न हुए होते और वे न्यायशास्त्रपर अपने विविध निबन्ध
समास्वातीक तत्त्वार्थमूत्रको विस्तृत व्याम्या है और अष्ट. (ग्रन्थ) न लिखने तो अकल देवकी बहुमुखी विद्वन्मनः
शती स्वामी समन्तभद्र के देगगम (प्राप्तमामांपा) की तोषकारी प्रतिभा जागृत होऔर धर्मकात्ति के निबन्धों
पाठमी श्लोक प्रमाण गढ और मूत्रामा मंक्षिप्त टीका है। को भी मातकर देने वाले न्यायशास्त्रपर अपने जिविध
लघीयमय (तीन प्रकरया), २ पर्यावनिश्चय.३ मिद्धिगहन निबन्ध निखते, इसमें कुछ मन्देही है। इसलिये
विनिश्चय और ४ प्रमाण संग्रह ये चार मौलिक ग्रन्थ है और मौलिकता, संक्षेपमं बहुवक्तव्यता प्रादिकी अपेक्षा उनकी
इन चागेही पर उनकी म्बोपज्ञ वृत्तियां हैं। ये मय ही तुलना धर्मकीर्तिके साथ कर सकते हैं और उनके न्याय.
सूत्ररूप श्रीर अर्थबहुन हैं। अष्टगतीको वेष्टित करके विनश्चय' 'मिद्धिविनिश्चय' तत्वार्थवाति' को धर्मकीर्तिके 'प्रमाणबिनिश्चय' 'प्रमाण वार्तिकसे मिला सकते हैं तथा
विद्य मन्दने 'देवागम' पर अपनी विद्वत्तापूर्ण अष्टमहम्री
(देवागमालङ्कार टीका जिग्बी है। लघीयम्य और उपकी जिस प्रकार धर्मकीतिक प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर पर्चर, कर्णक
म्वोपज वृत्तिपर प्राचार्य प्रभाचन्द्रने 'जघीयनशालङ्कार' गामी शान्तरक्षित आदि पमर्थ टीकाकार हुए हैं। उमी
अपरनाम 'न्यायकुमुद चन्द्र' नामकी विशान व्याख्या रची। प्रकार प्रकल देवके भी अनन्नवीय, विद्यानन्द, प्रभ.चन्द्र वादिराज, अभय चन्द्र प्रादि प्रौढ मर्मोद्धाटक टीकाकार हुए
'न्यायविनिश्चय' पर मात्र उमकी कारिकाओं को लेकर वादिराज
ने न्यायविनिश्चयविवरगा' अथवा 'न्यायविनिश्चयालङ्कार' १ धर्मकीर्ति के निम्न ७ निबन्ध प्रामद्ध हैं
नामक वैदुष्यपूर्ण वृद् व्याख्या लिखी है। उपकी स्वापज्ञ ५ न्यायविन्दु, २ हेतुविन्दु, ३ सम्बन्धपरीक्षा (मवृत्ति), . ४ वादन्याय, ५ मन्तानन्तरसिद्धि, ६ प्रमाणविनिश्चय २ देखो, न्यायविनिश्चय का०६०,६२,६३, १६६३, ३७२, ओर ७ प्रमाण वानिक (तृ. परि सवृत्ति)।
३७३, ३७४, ३७८, ३७६ आदि ।
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
वृत्तको उन्होंने छोड़ दिया है' जोपाज अनुपलब्ध है। वार्तिकभाष्यके जवाब में ही लिखा होगा। दोनोंका नाम'पिद्धिविनिश्चय' और प्रमाण मंग्रह' तथा उनकी स्वोपज्ञ साम्य भी यही प्रकट करता है। कुछ भी हो, यह अवश्य वृत्तयांपर प्रा. अनन्तवीर्यने पानी महान् व्याख्याएँ है कि अनन्तवीयंने सबसे ज्यादा प्रज्ञाकर गुप्तका ही लिखी हैं। अकलक इन सब व्याख्याकारोंमें अनन्तवीर्य खण्डन किया है। जैसे प्रकलङ्कने धर्मकात्र्तिका । अत: का नत स्थान है और मम्भवत: वे ही अकलक प्रथम जैनन्यायसाहित्यमें अकलङ्कके टीकाकारों में अनन्तनीयका व्यायाकार हैं। प्राचार्य विद्यानन्द यद्यपि उनसे पूर्ववर्ती वही गौरवपूर्ण स्थान है जो बौद्धन्यायसाहित्य में धर्मकीर्तिके जान पढ़ते हैं. लेकिन एक तो, उनके वाहित्यका अनन्तवीयके टीकाकारों में प्रधान टीकाकार प्रज्ञाकर गुप्तको प्राप्त है और साहित्यपर कोई प्रभाव मालुप न होना । दूसरे, वे इसलिये इन्हें (अनन्तवीर्यको) जैनन्यायमाहित्यका 'प्रज्ञाकर' अष्टशतीक व्यायाकार न होकर मुग्ख्यत: स्वामी समन्तभद्र के देवागमके व्याख्याकार हैं । अत: अनन्तवीर्य अकरके प्रथम म्याग याकार कहे जाने योग्य है । अनन्तवीर्यने
व्यक्तित्व, गुरुपरम्परा और प्रन्थरचना
जैनसाहित्य में प्रस्तुत टीकाके कर्ता अनन्तवीर्यका जो प्रभाचन्द्र और वादिगजकी तरह प्रायः विस्तृा दानिक और शास्त्रीय चोंको न छेड़ कर अकलङ्क के पदोंके
सम्मान और व्यकिव है वह इमीसे जाना जाता है
कि उनके उत्तरवर्ती प्राचार्य प्रभाचन्द्र, प्राचार्य वादिगज माकांक्ष हार्द को ही पूर्णत: व्यक्त करने का यत्न किया।
जैसे महान ग्रंथकारोंने उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक की है और व इम प्रयत्न में सफल भी हुए हैं । वे प्रकलङ्कके
और अपने मार्गदर्शकके रूपमें मबहुमान, अपने ग्रंथों में प्रत्येक पद, वाक्यादिका ममामादिद्वारा योग्यतापूर्ण
नामांश्लख पूर्वक उनका स्मरण किया तथा अकलकव्य ध्यान करते हैं। कहीं कहीं तो वे दो-दो, तीन-तीन भी
पदोंका उन्हें मर्मज्ञ ग्यारख्याकार बतलाया है। वास्तव में व्याख्यान करते हुए पाये जाते हैं और इन व्याख्यानों द्वारा
उन्होंने जिम योग्यता और बुद्धिमत्तासे अकलङ्कके पदोंके उन्होंने अकलक के गृढ पदोंको बहुत मुगम बना दिया।
मर्मको खोला है वह स्तुल्य है । अकलङ्कके वाहमय में सबसे अनन्तवीर्यको हम प्रज्ञाकरगुप्तकी तरह पर पक्ष निराकरण में
अधिक क्लिष्ट और दुर्गेष उनका प्रमाण संग्रह है। मिद्धिमुख्य पाते हैं। स्वपक्षपाधन तो उनके लिये उतना ही
विनिश्चयटीकाके अध्ययनसे मिद्धिविनिश्चय भी प्रायः जितना मूलसे ध्वनित होता हो। अकलङ्ककी घोट यदि
प्रमागासंग्रह जैमा ही क्लिष्ट और दुर्बोध प्रतीत होता है। धर्मकीतिपर है तो अनन्तवं यकी उनके प्रधान टीकाकार
अनन्तवीर्यने इन्हीं दोनोंपर अपनी व्याख्याय-भार ग्रंथ प्रज्ञाकर गुप्तपर है। अपनी इम टीकामें उन्होंने प्रज्ञाकर
लिग्वे हैं - लघीयस्य और न्यायविनिश्चय यद्यपि उनके गुप्तका वीसियों जगह नामोल्लेख करके उनके मतका कदर्थन
मामने थे और दोनों ही अटीक थे. परन्तु अपेक्ष कृत किया है। उनके प्रमाण वात्तिकालंकारके तो अनेक स्थलों
सुगम जानकर उन्हें उन्होंने छोड़ दिया और उनपर को उन्हत करके उसका पर्वाधिक समालोचन किया
व्याख्या नहीं लिखी। इससे अनन्तवीर्यके बुद्धिवैभव, है। हमारा तो खयाल है कि अनन्तवार्यने सर्वप्रथम
विद्वत्ता, अदम्य साहस और कर्मठताका पता लगाया जा जो प्रमाणसंग्रहालंकार या प्रमाणसंग्रहभाप्य लिखा था
सकता है। अत: उनका जनसाहित्यमें सम्मानपूर्ण वह प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमागावात्तिकालंकार या प्रमाण
व्यक्तित्व है। १ सास उन्होन 'न्यायावानश्चयाववरगा' के सान्धवाक्यों में टीकाकारने अपनी टीकामें विस्तृत गुरुपरम्पग तो कुछ 'कारिकाचण' शब्दका प्रयोग किया है और जिसका नहीं दी, किंतु केवल अपने साक्षात् गुडका टीकाके प्राय: प्रत्येक
प्रस्ताव के अन्त में सन्धिवाक्यों में 'रविभद्र' नाम दिया है। एक नमूना यह है'इत्याचार्यस्याद्वादनिया पतिविरचित न्यायचिनिश्चयकारिका- २ 'इति श्रीर'वभद्रपादोपजीव्यनन्तवीर्यविरचितायां मिद्धिविवरण प्रत्यक्षप्रस्तावः प्रथमः।-वीरसे०प्र०ाल. पृ० ३०६। विनिश्चयटीकाया प्रत्यक्षसिद्धिः प्रथम: प्रस्तावः ।'
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किरण १]
श्रा० अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय-टीका
और अपनेको उनका 'पादोपजीवी-शिष्य बतलाया है। यह टीका अकल देवके उसी महत्वपूर्ण 'स्वोपज्ञइससे इतना ही प्रकट होता है कि प्राचार्य अनन्तवीर्य वृत्तिसहितसिद्धिविनिश्चय' ग्रंथपर लिखी गई है जिसके प्राचार्य रविभद्र के शिष्य थे। ये रविभद्र कौन थे? इसका महात्म्यको जिनदासगणि महत्तरन' निशीथचूणि' परिचय न टीकाकारने कराया और न अन्य साधनमे प्राप्त और श्रीचंद्रसूरिने 'जातफल्पचूगि में प्रकट किया है और होता है। इतना अवश्य मालूम होता है कि ये उस समय उसे दर्शनप्रभावकशास्त्र बतलाया है। हम टीकाकी के अच्छे ख्यातनामा श्राचार्य हैं और अनन्तवीर्य उनके उपनधिका दिलचस्प और दुःखपूर्ण इतिहास--परिचय शिष्य माने और कहे जाते थे । अर्थात् प्रस्तुत अनन्तवीर्य श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने पुरानी बातोंकी 'रविभव-शिप्य अनन्तवीर्य' के नामसे प्रसिद्ध थे। इससे खोज' शीर्षक लेख में दिया है। यह पहले कहा ही एक बात यह भी मालूम होती है कि इन अनन्तवीर्यके जा चुका है कि अकलदेवने अपने सभी न्याय-ग्रंथोंपर पहले या समसमयमें कोई दूसरे अनन्तवीर्य भी होगये या स्वीपज्ञ वृत्तियों लिखी हैं। कुछ विद्वान पहले मिद्धिरहे जिनसे वे अपनेको व्यावृत्त करते हुए 'रविमशिष्य विनिश्चय की बोरजवृत्ति सन्देह करते थे किन्तु अब यह अनन्तवीर्य' बतलाते हैं। पीछे मैं एक फुटनोटमें सिद्धि माना जाने लगा है कि उनकी सिद्धिविनिश्चयपर भी विनिश्चयटीकामें उल्लिखित 'अनन्तवीय' की संभावना कर स्वोपज्ञ वृत्ति है। इसके लिये एक अति स्पष्ट प्रमाण नीचे श्रआया हो सकता है कि वे ही कोई अनन्तवीर्य दिया जाता है:और ग्रंथकार भी माने जाते हों। जो हो, इतना निश्चित है ननु कारिकायां अस्ति प्रधानम' इत्यन्यत्माध्यं कि प्रस्तुत टीकाके कर्ता अनन्तवीर्यके गुरु रविभद्र' थे और निर्दिष्टं वृत्ती तु 'भेदानामेककारगापूर्वकत्वा' अन्यदिति वे उनके शिष्य कहलाते थे।
कथं वृत्तसूत्रयाः मानत्यम, सुत्रानुरूपया च वृत्या प्रा. अनन्तवीर्यने जो ग्रंथ रचे हैं वे व्याख्या ग्रंथ हैं। १ 'नन्दिगि मा इन्हीं जिनदामगागा महमर की रची मानी उन्होंने मौलिक ग्रंथ भी कोई रचा या नहीं, इसका कोई जाती है। और उममें उन्होंने उसका रचनाममय शक पता नहीं। श्रा० प्रभाचन्द्र और प्रा. वादिराजके तो ५६८ ई. ६७६ ) दिया है । श्री. न्यायाचार्य १० महन्द्रव्याख्या और मौलिक दोनों तरहके ग्रंथ पाये जाते हैं। कुमारनी ( अकलंकग्रन्यत्रयम्ना पृ० १५) हमके, एक संभव है उनने भी कोई मौलिक ग्रंथ रचा हो और जो कतृत्वम और मुनि जिनविजय (अकलंकग्र० प्रास्ताविक श्रान प्राप्त नहीं है। व्याख्याग्रन्थ उनके दो हैं-१ प्रमाण- फुटनोट पृ० ४-५) के उल्लेग्वानुमार 'कुछ विद्वान' इम संग्रहमा और २ सिद्धिविनिश्चयटीका । प्रमाणसंग्रहभाष्य चांग के प्रान्तमें पाई जाने वाला रचनाकाल निर्देशक के सिद्धिविनिश्चय टीकामें केवल उल्लेख मिलते हैं। उन पंक्ति' को लेकर इसके रचनाकालमें मन्देद प्रकट करने उल्लखामे इस ग्रंथ की विशालता और महत्वता जानी जाती हैं, किन्तु जिनविजय जी का यह कथन कि हमने जितनी है क्योंकि सिद्धिविनिश्चयटीका जैसे विस्तृत ग्रंथमें भी प्रतियाँ इम (नन्दीचूग्णे) ग्रन्थका जहां कहीं भण्डारी उसको देखने की प्रेरणा कीगई है और यह कहा गया है कि में देखी हैं, उन मन में यह (रचनाकाल निर्देशक) प्रपञ्च प्रमाणसंग्रहभाष्यमे जानना चाहिये । इससे प्रमाण- पक्ति बराबर लिखी हुई मिली है।' उपेक्षा नहीं है संग्रहभाप्यकी महत्वता और अपूर्वता प्रकट होती है। और इम लिये नन्दिचणि के समयको सदमा प्रयुक्त अगवा अन्वेपकोंको इस अपूर्व ग्रंथका अवश्य पता चलाना उम पंक्तिको प्रक्षित' नहीं कहा जा सकता। इसमें एक चाहिये।
महत्व की बात यह निकलती है कि अकलंकका समय सिद्धिविनिश्चयटीका
विक्रमको ७ वी शताब्दी दी माना जाना कई प्रतिहासिक अनन्तवीर्यका दूसरा टीकाप्रन्थ प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चय- उल्लेग्यास युक्त प्रतीत होता है और जो अन्यत्र विचागीय है। टीका है और जिसका कुछ परिचय कराना ही यहां २,३,४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ३, ५ न्यायकुमुद प्रथममुख्यत. इष्ट है।
भागको प्रस्तावना।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
कारहा।
भवितव्यमिति चेदत्र केचित्परिहारमहः-पृ०७०६। की वृत्ति है। किन्तु कारिका और वृत्तिके प्राद्य अक्षरोंके
यहां यह स्पष्टतया बतलाया गया है कि मिद्धि- प्रतीकमात्र दिये गये हैं जिससे यह जानना बड़ा कठिन है विनिश्चयपर स्वयं अकल देवकी स्वोरजवृत्ति है और कि यह मूल भाग है और वह ससम्बद्ध इतना है। टोकासे कारिका तथा तृत्तिका एक प्रसंगतिकी आशंका करके अजग और दूसरी जगहमे मूलभाग उपलब्ध भी अभी 'केचित्' शब्दोंके साथ उसका परिहार भी किया है। तक नहीं हुआ, जिसकी सहायतासे वह मूलभाग टीकापरसे टीकाकारने कितनी ही जगह मूलका रकाओंगे 'मूत्र' और पृथक् किया जा सके और ऐसी हालत में मूलभागको टीका उनके विवरणको 'वृत्ति' कहा है। अत: मिद्धिविनिश्चयकी परसे पृथक उद्धृत कर सकना बहा दुष्कर है। इसमें संदेह स्वोपज्ञ वृप्तिमें अब कोई सन्देह नहीं रहना ।
नहीं कि उसके लिये बड़े परिश्रमकी जरूरत होगी। मुख्तार टीकाके प्रारम्भमें मगलाचरण के बाद अकल के सा०ने बढे परिश्रमके साथ मङ्गलाचरणका निम्न पद्य बचनोंकी इस कलिकाल में दुर्लभता प्रकट करते हुए और उद्धृत किया था :-- उन्हीं में अपनी मति श्रद्धाको स्थिर होनेकी भावना व्यक्त सर्वशं सर्व-तत्त्वार्थ-स्याद्वाद-न्याय-देशनम। करते हुए टीकाकारने बड़े ही महत्वका एक निम्न पद्य
श्रीबर्द्धमानमभ्यच्य वक्ष्ये सिद्धिनिश्चयम् ॥१॥ दिया है:
हमने भी एक कारिकाक उद्धत करनेका प्रयत्न किया अकलवचः काले कलो न कलयाऽपि यत् । है, जो इस प्रकार मालूम होती है:-- नपु लभ्यं क्वचिल्लब्ध्वा तत्रैवास्तु ममम ॥२
समर्थवचनं जल्पं चतुझं विदुर्बुधाः । - इसके आगे एक अन्य पद्य द्वारा प्रकलङ्कक व मयको
पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना ।। सदरत्नाकर-ममुद्र बतलाया है और उसके सूक्तरनोंको भनेकों द्वारा यथेच्छ ग्रहण किये जानेर भी कम न होने का
___ --पृ० ७३५ (५ वाँ प्रस्ताव) कारण उसे सद्रग्नाकर ही प्रकट किया है। वह सुन्दर पद्य
टीकामें मूलका हरुलेख 'कारिकां विवृण्वन्नाह' इस प्रकार है:
'स्वार्थत्यादि - संग्रहवृत्तार्थमुद्धत्य विवृण्वन्नाह । अकलवचोम्भोधेः सूक्तरत्नानि यद्यपि ।
'तदद्वयमाचार्यः स्वयं दुषयन्नाह-युक्तमित्यादि' 'एतद् गृह्यन्ते बभिः स्वैरं सद्रत्ननाकर एव सः॥ दूयितुं सुत्राथेमाह नर्थवेत्यादि' 'कारिकामा
इस ग्रन्थमें बारह प्रस्ताव हैं और ये स्वयं प्रकलदेव 'सूरंगह' श्रादि रूपसे किया गया है । कहीं कहीं तो कृत ही जान पड़ते है. क्योंकि उनके दूसरे प्रन्थों में भी प्राधी और पूरीकी पूरी कारिकाको ही सुगम कहकर छोद उन्होंने इसी प्रकारसे प्रस्ताव-विभाजन किया है। प्रस्ताव
दिया गया है । यथा-'पूर्वार्द्धस्य सुगमत्वाद् व्याख्यानपरिच्छेदको कहते हैं। धर्मकीत्तिने प्रमाण वार्तिको परिच्छेद मकृत्वा परमद्धे व्याचष्टे', 'द्वितीयां विवृण्वन्नाह-- नाम चुना है और अकल देवने परिच्छे दार्थक 'प्रस्ताव'
परस्परेत्यादि, सर्व सुगम' 'कारिकायाः सुगमत्वात' नाम पमन्द किया है। वे बारह प्रस्ताव निम्न प्रकार हैं:
प्रादि । जिन कारिकाओं अथवा वृत्तिको अव्यख्य त छोड़ प्रत्यक्षसिद्धि, २ सविकल्पकमिद्धि, ३ प्रमाणान्तर दिया गया है इनका उद्धार कैसे होगा? यह शोचनीय है। सिद्धि, ४ जीवमिद्धि, ५ जरूपसिद्धि, ६ हेतुल क्षणमिद्धि. रचना शैली और भाषा७ शाबसिद्धि, ८ सर्वज्ञसिद्धि, ६ शब्दसिद्धि, १० अर्थनय- समग्र टीका गद्यमें लिखी गई है। प्रारम्भमें ५ और सिद्धि, " शब्दनयसिद्धि और १२ निक्षेपमिद्धि। इन मध्यमें 'शास्त्रसिद्धि' नामक सातवें तथा 'शब्द सिद्धि' नाम प्रस्तावोंमें विषयका वर्णन उनके नामसे ही मालूम के इवें प्रस्तावमें क्रमश: १६, ७ अनुष्टुप् पथ अवश्य पाये होजाता है।
___ जाते हैं जो खुद टीकाकारके ही रचे हुए होना चाहिएँ। टीकामें मुलभाग उस प्रकारसे अन्तर्निहित नहीं है जिस प्रत्येक प्रस्ताव और टीकाके अन्त में समाप्तिसूचक कोई पद्य प्रकार प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र में लघीयत्रय और उस नहीं है। ग्रंथात में तो उसका न होना खटकता भी है,
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किरण १]
श्रीजम्बूजिनाष्टकम्
क्योंकि प्रारम्भमें भी पच थे और प्रायः ऐसा देखा जाता पद्धति या किमूख प्रन्यके पद-वाक्योंका समास करके है कि जिस प्रत्यके भारम्भमें पद्य होते हैं उसके अन्त में भर्थ बतलाया गया है। तात्पर्य यह कि टीकाकी व्याख्या भी एकाध पच जरूर रहा करता है। जैसे परीक्षामुख, अधिकांश खण्डान्वय शैजीकी है। पथापायदीपिका और न्यायकुमदद मादि । प्रत्येक प्रस्ताव तज्ज्ञानहेतुः कुतः ? इत्याह-शब्दार्थप्रत्ययाङ्गऔर टीकाके अन्तमें सिर्फ निम्न प्रकार पुस्तिकावाक्य हैं:- मिति, शब्दानुकरणादर्थस्य घटादेहिको यः प्रत्ययस्तभादि-'इतिश्रीरविभद्रपादोपजीव्यनन्तवीर्यविरचितायां स्याङ्ग निमित्तम् । एतर कुनः ? इत्याह-विवेच यति सिद्धिविनिश्चयटोकायां प्रत्यक्षसिद्धिः प्रथमः प्रस्तावः।' यतः । के भेदम । कथं यथाशक्ति । केषां वाच्या
ति सिद्धिविनिश्चयटीकायामनन्तवीर्यविरचि. नामभिधेयानाम । क्व वाचकेषु । यत एवं ततः तायां निक्षेपसिद्धिादशमः प्रस्तावः । समाप्तमिति। प्रतिपत्तः पुरुषम्य विषयविकल्पोपलब्धरुपयोगो भाषा सर्वत्र प्रसन्न और प्रायः सरल है। ग्याल्या- निक्षेप इति ।'-पृ०१५४६ ।
श्रीजम्बूजिनाष्टकम् ( रचयिता-श्री पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया )
यदीयबोधे सकलाः पदार्थाः समस्तपर्याययुना विभान्ति । जितारिफर्माष्टकपापपुजो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ।। १ ।। अभूत्कलावन्तिमकेवली यो निरस्तमंमारसा स्तमायः । समुज्वलत्केवल बोधदीपो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ।। २ ।।
विहाय यो बाल्यवयम्यमीमान्भुजङ्गभीगान्करुगान्तरात्मा । प्रपन्ननिर्वेददिगम्वरत्वो जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥ ४ ॥ कृते विवाहेऽपि धृतो न कामो अणोरगीयानपि भोगवगें। निजात्महितभावनया प्रबुद्धो जिनांस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥ ५ ॥ जिनेन्द्रदीक्षां सुग्वदां गृहीत्वा निहत्य य: कर्मचतुष्टयं च ।
यः केवलो भव्याहतोऽन्तिमोसी जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ।। ६ ।। हितोपदेशं कुर्वन हितैषी समानयद्धर्मपथे सुलोकान । समन्ततो यो विजहार लोक जिनोऽस्तु जम्बमम मार्गदर्शी ।।७।। स्वयंवृतो मुक्तिरमाविलासैः मद्यो विमुक्तो मथुगपुरीतः । स विश्वचक्षुर्वियुधेन्द्रवन्धो जिनोस्तु जम्यूमम मार्गदर्शी* ।।८।।
यह जम्बूजिनाष्टक मैंने उस समय रचा था और उसका पं राजकुमारजी माहित्याचार्य द्वाग संशोधन कगया था जब मैं श्रीऋषभब्रह्मवर्याश्रम चौगमी मथुगमें प्रधानाध्यापक था। च कि चौरासी मथुरासे जम्बूस्वामीके निर्वाणलाभ लेने की अनुश्रुनि प्रसिद्ध है। श्रतएव वहाँ उनका गुण कीर्तन करना आवश्यक जानकर स्थानीय ब्रह्मचारियोंके लिये यह प्रार्थना के रूप में रचा गया था।
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ग़दरसे पूर्वकी लिखी हुई ५३ वर्षकी 'जंत्री ख़ास
और उसमें उल्लिखित कुछ पुरानी बातें
.
[सम्पादकीय ]
3==8
x==8
जसे कोई दो वर्ष पहले, जब हुई घटनाके अनुसार ता. २ जून सन् १८४४ को हुमा R R मुदिन जंत्रियों ( उद्-फारसीकी है। भापके स्वर्गारोहयके बादसे यह जंत्री भापके
पंचा-पोथियों) नहीं मिलती थीं- पुत्रों द्वारा लिखी गई है. परन्तु जीवनकाल में भी उनमेंसे
भाजकी तरह उन्हें छपाकर प्रचारित किसीन किसीका यथावश्यकता लिखने में कुछ हाय जरूर रहा x ==x
1 करने और सर्वसाधारणके लिये है, ऐसा घटनामोंके उल्लेखपरसे जाना जाता है। इस जंत्री
सुलभ बनाने के माधन नहीं थे, तब के अन्तमें एक जंत्री १८५४ के मालकी जिक्दके साथ बंधी लोग पत्रों (संस्कृत पञ्चागों) की तरह है जो लैथूकी (मसाले के पत्थरकी) छपी हुई। और इस
उन्हें भी अपने हाथसे लिखा करते अथवा वातको सूचित करती है कि सन् १८५४ में लैथूकी छपी लिखा कर अपने पास रखा करते थे। इन जंत्रियों में मन. जंत्रियों प्रचार में भागई यीं और उन्होंने हायसे लिखमेकी संवतके अलावा प्राय: १ हर महीने के दिन, २ अंग्रेजी जर
है जरूरतको हटा दिया अथवा कम कर दिया था। प्रस्तु । तारीख, ३ हिजरी तारीख, ४ फसली तारीख, ५ हिन्दी
____ यह जंत्री कारसी जबान और फारसी-सद् लिपिमें तिथि-मय घदी-पन, ६ दिनमानके घनी पल, ७ नक्षत्र
लिखी हुई-कहीं कहीं उ'जबानका भी कुछ प्रयोग नाम-मप घडी-पन, . जोगन म मय घी-पन और है, परन्तु वह बहुत ही कम नगण्यसा है। इसके खाने कैफियत इतनी बात रहती थी । कैफियतके खाने में तथा कैफियतमें और कहीं कहीं हाशियेपर भी तत्कार हाशियेपर उस दिन होनेवाली किसी खास घटनाका उल्लेख
घटनाओंका सक्लेख है. जैसे खास ख़ास व्यक्तियोंका जम्मकिया जाता था और इस तरह अपने उपयोगके लिये एक
मरण, विवाह-शादी, तीर्थयात्रा, गमनागमन, पूजा-प्रतिष्ठा, प्रकारकी डायरी के रूपमें प्रधान प्रधान घटनामों का रिकार्ड
मेला-उत्सव, हाकिमों मादिकी तब्दीली तकरी (नियुक्ति) रखा जाता था। यह रिकाड प्रामाणिकता और इतिहास आल हदगी धादि, सरकारीभार्डरों (पर्वानों) तथा कानूनोंग • कीटसे बड़े महत्वकी चीज होता या।।
अवतार, किमी किसी मुकदमेका समाचार, लूटमार, भूकम्प, कुछ हुमा मुझे ऐसी ही एक हस्तलिखित जंत्री वर्षा, बीमारी, युद्ध, त्यौहार, मगुन ( मुहुर्त । और गहने गदर सन् १८५७ से पहलेकी लिखी हुई उपलब्ध हुई थी,
मादिके भाव वगैरह वगैरह । भीर ये घटनाएं अकेले कस्वे जिसका नाम है 'जंत्री स्वाम'। यह जंत्री 1 जनवरी सन्
मरसावेमे ही सम्बन्ध नहीं रखती बल्कि भाम-पासके 1:01 से ३१ दिसम्बर सन् १९५१ तक १३ वर्षकी जंत्री देहातो, चिलकाना, सुखतामपुर, नकुड, रामपुर, अम्बहटा, है, हाथके बने हुए पपछे देशी कागजपर बड़े साइजमें नानाता.हरबार,मसूरा, जवारा,बाडया, जगाधरी, सध प्रतिपृष्ठ एक महीने के हिसाबसे लिखी गई और इसे मेरे कस्बों सहारनपुर, देहरादून मुजफ्फरनगर, मेरठ, अम्बाबा, प्रपितामह (पदबावा) प लहराय । दोराय जी लाहार और कलकत्ता जैसे शहरोसे भी सम्बन्ध रखती हैं। कान गोने लिखना प्रारम्भ किया था, जो बा. जोरावरसिंह १ ला० दूलहरायजीके पाँच पुत्र थे-फतहचंद, धर्मदास, जो रिंगिंग दर कानूगोके पुत्र तथा सा. बालजीमल गोपालराय, नारायणदास और हरध्यानसिंह, जिनमेंसे ला. साहब कानू गोके पौत्र थे और जिनका स्वर्गवास मंत्री में दी धर्मदासजी इन पंक्तियोके लेखकके सगे बाबा थे।
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किरण १]
ग़दरसे पहलेकी लिखी हुई ५३ वर्षकी 'जंत्रीखास'
इस जंत्रीपरमे मालूम होता है कि सहारनपुर जिलेकी देकर भादिमें 'मोट हाशिया' लिख कर व्यक्त किया गया अदायत दीवानी कब मेरठ जिलेसे अलग हुई; का है। और जहां कहीं कुछ स्पष्टीकरण अथवा नोट करनेकी महारनपुर जिले की अकालतसे देहरादूनका इलाका प्रलग जरूरत समझी गई है उस सबो भी कट के भीतर रख हुमा, कब अदालतों और कुछ दफ्तरों में (फ्रारपीकी जगह) दिया है. जिससे तारीख मादिक मनस्तर उम उस दिनको दिन्दी जबान (भाषा) जारी हई। कब रहननामों-बैनामों फारमी भाषामें उल्लिखित घटनाएँ अपने यथार्थ स्वरूपमें वगैरहकी रजिस्टरी लाजिमी की गई। किस तारीखको समझी जा सके । घटना के समयकी तारीबादिको खाक महारनपुर की अदालत दीवानी में वकीनीकी मंचरी अपील टाइपमें दे दिया गया है:-- कोर्ट पहुंची, कब सरसावा तहसीलमें मुन्सफीकी ६ सितम्बर १८००, सोमवार-जनाब बा. बाब. अदाबत जारी हुई तथा कब उठी और कब सरसावासे जीमल कानगो परगना सरमावा इस नश्वर संमारस कूच तहसीब नकुडको चली गई तथा वहां उसकी हमारत करके वैकुण्ठवापी हुए। बननी शुरू हुई और कब सरसावा तहमीनकी इमारत १५ अक्तूवर १८०४, मोमवार-शेरपिंह मकहरने मीबाम तथा उसे किस किमने खरीदा।
कस्बे सुलतानपुरको गारत (लून-मार द्वारा बर्वाद) किया । सायही, यह भी मालूम होता है कि उस समय
१ अगस्त १८१६, गुरुवार - सन् ११ जलूम धकपकाखात एक परकारी श्रोहदा (पद) था, जिसपर सरकार
बरशाह बादशाह शुरू हमा। की तरकसे योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति बजरिये सनदके की
२० मई १८१७ मङ्गलवार-नवाब वजीरपलीखों माती थी और उसमें वकालतका स्थान निर्दिष्ट रहता था
का कलकत्तेके किले में देहाम्म हुआ। माज की तरह इम्तिहान पास करके हर कोई उसे
१ जुलाई १८१८, बुधवार-मदर हुस्ममे निता स्वेरखासे प्रान्त अथवा जिले के चाहे जिस स्थान पर नहीं सहारन
सहारनपुरकी अदालत नीवानी मेरठ के जिले में मलग हुई। करने बगता था। इस जंत्रीके लेखक ला दलहरायजी
२७ नवम्बर १८१८, शुक्रवार-अदालन दीवानी पहले सरसावाके क ।गो थे--कानगोईका भोहदा भापके
जिला महारनपुर के वकीकोंकी मंजूरी पालकोट से पहूँ। वंशमें बादशाही वक्तसे चना भाता था'--बादको मुन्मती
(इस तार खस सहारनपुरकी अदावत दीवानीमें वकालत चिलकानाके वकील मुकर्रर हुए थे, भापके छोटे भाई .
११ अप्रैल १८१६, रविवार--मेषकी संक्रान्तपर ला. बस्तावरसिंहबी देहरादून के वकील थे और मापके
स्नानके वक हजागे भादमी मर गये । (यह घटना हरद्वार पुत्र बा. फतहचंद जी पहले मुन्सफी चिजक ना तथा
की जान पड़ती है) नकुडके (और बादको सहारनपुरके) वकील मियत हुए थे।
२५ सितम्बर १८२१, मंगलवार--भदाखत ये मब घटनाएँ भी इस जंत्रीपरस जानी जाती है।
दीवानी (महारनपुर) की तातील एक माहके लिये २५ अब मैं इस जंत्रीक खाने कैफियत और हाशिये पर
ली । मोट की हई घटनाओं में से कुछ थोडी मी घटनाएँ अनुवादित १अक्तूबर १८२४, शक्रवार-हरमाल ज्वालापुर रूपम, ताराख महाना सन् भार दिनक साथ यहा देदना के जो रुपये सहारनपुर (खजाने में जमा होने की) प्रारहे थे चाहता हूँ, जिपसे पाठकों को इस जंत्रीकी घटना-लेखन. ..
-लखन. उन्हें दूसरे कुछ भादमियोंके महित कल्लू डाकूने लूट लिया। पद्धतिका कुछ विशेष परिचय प्राप्त हो सके और वे कितनी
३ अक्तूबर १८२४, रविवार--मौजा कुंजा ताना. ही पुरानी बातोंको जान सकें। हाशिये वाली घटनाको
का तागज हुप्रा (फौजी हमलेसे लुट गया)। १ पुरानी दस्तावेजों और कागजातमें श्रापकी सान पीढी तक दिसम्बर १८२५, गुरुवार--इस तारीख में कानून के पूर्वजों के जो नाम मिले हैं उन मबको कानूँगो लिम्बा है। (ऐक्ट) नं. १६ सन् १८२४ बमन्सूनी कानून अम्बनमन् आपका वंशभी 'खान्दान कानूंगोयान'के नामसे प्रसिद्ध रहाई 141 मुताक कागजात स्टाम्प जदीद (नया) जारी हुमा ।
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भनेकान्त
[ वर्ष -
३१ जनवरी १८२६, मंगलवार--च्छिी सदरकी १३ फवंरी १८३६, शनिवार--इस तारीखमें प्रोहदा देहरादूनके इबाकेको सहारनपुर जिलकी अदालतसे अलग वकालत मुन्सफी चिलकानाका बनाम दूलहराय मुकरर करने के लिये और शुदनिश (१) के मुनालक काटून (?) हुआ। हुमसे अदालत सहारनपुरमें पहुंचा।
२५ सितम्बर, १८३६, रविवार-मिती भसोजबदी ६ फरी १८२६, सोमवार--अमला रजिष्टरी एकम सन् १२४४ फसलीसे सदरकी चिट्ठीके अनुसार सहारनपुर पहुंचा।
मिजामत व फौजदारी और परमिटके दफ्तरों में हिन्दी ७ अक्तूबर १८२७, रविवार--कस्बा सरसावा
भाषामें लिखनेका काम जारी हुअा।। सासकी पैमाइश होगबाल स्याहानीसके अहतमाम
जुलाई १८३७, रविवार--पटियाखाके महाराजा (प्रवन्ध) में हुई।
करमसिंह बहादुरके पुत्र कुँवरजीकी बारात सरदार गुलाब२० अगस्त १८२८, बुधवार--मेला गुगाहल हमा। सिंह बृदिया वालोंके यहां रौनक पकीर (सुशोभित) हई।
२६ अक्तूबर १८२६, गुरुवार--मीर तालिवली . १ नवम्बर १८३७, बुधवार-हाकिमाने सदरके साहय हवे तहसीबदारी सरसावापर मुकर होकर हुक्ममे वे राजीनामे मंजूर किये जाने स्थिर हुए जिन्हें मुदई तशरीफ़ लाए ।
बोग विना मौजूदगी महमाइलों (प्रतिवादियों के पेश करें। १ नवम्बर १८२६, रविवार--हैदरमसीखां सह- ५ नवम्बर ५८३७, रविवार-सरसावाके भाई सीखदार मौकूफ (पृथक) होकर सहारनपुरको रवाना हुए। मन्दिरजीके साथ वास्ते दर्शन हस्तिनापुरजीके रवाना हुए।
२० मच १८३०, शनिवार--सरावगियोंके मेलेका ८ फर्वरो १८३८, गुरुवार-श्राजकी तारीख में अमाव वास्ते पूजाजीक सहारनपुर में हुमा।
पटनीकी प्राबादीका सगुन (मुहूर्त) मकरर हुमा। २६ मार्च १८३०, शुक्रवार--उक्त मेला सरावगियों ३ मार्च १८३८, शनिवार--ईश्वरीय कृपासे बहुत का बिधुर गया।
वर्षा हुई और वर्षाका प्रतिबन्ध संसारसे एक प्रकार दूर होगया। २५ नवम्बर १८३०, गुरुवार--मिस्टर क्रानोर्ड २६ मई १८३८ शनिवार--पृथ्वीपर भूकम्प हुमा। साहय वास्ते तकमील बन्दोबस्तके सरसावा तशरीफ़ जाए। १ जुलाई १८३८. रविवार-दस्तावेज़पर नाम
२९ अगस्त १८३३, गुरुवार-गुलाममली और बकैद वल्दियत व सकूनतक न लिखनेकी बाबत पर्वाना मनीवश मन्दिरजीकी चोरीके मुकदमेमें दौरा सपुर्द साहब कलक्टरका बनाम पारसदास फोतेदार (खजांची)
कचहरी तहसीली में पाया। २३ सितम्बर १८३३, सोमवार--गुलाममनी व २६ जुलाई १८३८, गुरुवार-कस्बा सुलतानपुर बूमली और हुसैनमसी पाँच पाँच वर्षकी कंदके साथ जैन- और चिलकाने में सलुनो हुई। खाने में कैद हुए।
८ अगस्त १८३८, रविवार-हरएक शहरमें २ जुलाई १८३४, रविवार-मौजा सुवाखेडी और सलूनो हुई। इब्राहमीकी सरहदका तसक्रिया हुभा।
१ जुलाई १८३६, सोमवार-सदरकी चिट्ठी १ जुलाई १८३५, गुरुवार-मिस्टर पोब साहब अनुसार हिन्दी भाषामें भर्जियों वगैरहका लिखा जाना मुम्सफो सहारनपुर के मोहदेपर मुकर्रर हुए।
अदालतों में जारी हुआ। २७ जनवरी १८३६, बुधवार--बेगमसाहवा शिमरू २० जुलाई १८३६, शनिवार--पंजाब देशके वाली साहबका सरना (जि. मेरठ) में देहान्त हुना। (राजा) सरदार रंजीतसिंह बहादुरके फूल बहुत बड़े समा
१२ फर्वरी १८३६, शक्रवार--पर्वाना साहब जज रोहके साथ सहारनपुर में दाखिल हुए हरद्वार जानेके खिये)। बहादुर मवः ४ फर्वरी, बाबत शामिल होने थाना नकुल ४ दिसम्बर १८४०, शुक्रवार--सूबा जाहोरके व रामपुर और गंगोहके मुन्सफ्री चिलकानामें, पाया। बाबी राजा महाराजा बरकसिंह और कुवर नौनिहालसिंह
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किरण १]
ग़दरसे पहलेकी लिखी हुई ५३ वर्षकी 'जंत्रीस्त्रास'
बहादुरकी दग्ध अस्थियां यानी फूल मौजा गदरहेगी में बहुत मंजूर हुमा। बड़े हजूमके साथ दफनाए गये।
११ से १८ दिसम्बर, रविवार से शनिवार--चेक १५ मार्च १८४१, सोमवार-ना. मुहरसिंह (महा- की बीमारी सैंकडोंबई मर गये। हरनपुर) और सरयद मेहरबानमनी (चिलकाना) ने कस्बा २८ जनवरी १८४३, शनिवार--इस तारीख में सरमावाके ५ बिस्वे(चौथाई जमीदारीके) नीलाममें खरीदे। मुन्सिफ साहब चिलकानेका वह फैपना जजम्पाहवकी
२० मार्च १८४१ शनिवार--मुन्शी कालेराय साहब अदालतसे बहाल व बरकरार हा जिसमें सरसावाकी पांच (सुजतानपुर नि०) मुजफ्फरनगरके डिप्टीकलक्टर हुए। विस्वे जमींदारी मिल्कियत सरफ़राज़ली रहमवश और
२५ जून १८४१, शुक्रवार-वर्षाका छाला (प्रथमा- पीलवां वगैरहकी बा. बारूमल व संयद रमजानमाली वतार) मालामाल करने वाला हुआ और तमाम जंगल मुश्तरियान नीलामके नाम की गई थी। मल सिन्धु नज़र आने लगा।
अप्रैल १८४३, रविवार-रुबाई (पा) तारीख १४ दिसम्बर १८४१, मंगल-चच गुलाबसिंह का बाग दूलहराय (लिखी गई)स्वर्गवास हुमा।
बारा नो शुद अजीब ताजा फिजाए, १६ दिसम्बर १८४१, रविवार--नन्वाब दोशमुह- यहरे हर दाम-श्राम जल्वा नुमाए । म्मदखां दुर्रानी मय डेढ़ सौ श्रादमियोंके समूह के कस्बा साल तारीख बा - मुमम्मा शुद, करनालसे चलकर सहारनपुरमें दाखिल हुए।
हातिफे गुफ्त बारा दृलहराय ॥ ५ मार्च १८४२, शनिवार--पृथ्वीपर रातके समय
चैत २४ संवत् १७.. भूकम्प हुमा।
१ मई १८४३, सोमवार--- गजटमें हुक्म है कि २२ जून १८४२ बुध--वर्षाका छाला हुआ और कागज रहननामा - हिबेनामा वगैरह बिना दस्तखतखूब वर्षा हुई, यहां तक कि पांकी बाढ़म सदों घर को रजिष्टीके नाजायज होंगे। व पक्के हर शहर व गांवमें बर्वाद होगये और भादमी १५ जुलाई १८४३, शनिवार- सदरसे जारी हुए तथा जानवर बहुत भर गये।
गजट मवर्यः ११ जुलाई के अनुपार कलक्टर सा. बहादुर २५ जुलाई १८४२, मोमवार-पांच विस्वे जमी का पर्वाना बनाम पारसदाम खजानची बाबत लिखने नाम दारी कस्बा परमावाकी डिग्री डिप्टाशख अहमद मुन्सिफमा० लेने वाले (खरीदार) काग़ज (स्टाम्प) का मय कीमत व.... की तजबीजमे बरूमल (पिपर बा० मुहरसिंह) व सैयद (वल्दियत) वमकूनन वगैरह व तारीख वगैरह प्राप्त हुआ। जामिनश्रजी ( पिसर मेहरबानन मी?) के नामपर (हकमें) २४ जुलाई १८४३, सोमवार-- कस्वा सरसावाके होगई।
५ बिम्बा (जमींदारी) पर जा. बारूमल व मस्यद जामिन २८ अगस्त १८४२, रविवार--मिती सप्तमीको (रमजान ?)अलीका दस्वज तहमीन सरसावा होगया। ला. मुहरसिंहके बागका सगून (मुहूर्त) बारहे मुन्सरिम २० अक्तूबर १८४३, शुक्रवार-लाहौरक वाली (मखदूम ? शाह सरसावा खासमें (हुश्रा)।
सरदार शेरसिंह के फूल मय पुत्र व स्त्री महारनपुर में हजूम १० नवम्बर १८४२, गुरुवार-मन्दिरजीके साथ के साथ भाए (हरद्वार जाने के लिये)। वास्ते जात्रा हस्तिनापुरके गये ।
२२ दिसम्बर ५८४३, शुक्रवार--जनाब हारवे २ दिसम्बर १८४२, शुक्रवार-ओहदा वकालत साहब कलक्टर बहादुर परमावामें रौनक अफरोज हुए और देहरादून बनाम बख्तावरपिंह (पिसर जोरावरसिंह परसावा) मूलचन्द (या बूलचन्द) के पासमे अग़रावा (?) १५) रु. १ श्राप उक्त ला जोगवरसिंहजी कानूं गोके छोटे भाई थे। कीमत में खरीद किया
आपके नीत पुत्र रंजीतमिद, दलपतगय और गोविन्दराय १ जून १८४४, शनिवार--घदी प्राध घड़ी (यकहुए हैं। पिछले दोनों पुत्रों के वंशज मौजूद हैं।
नीमपाश) दिन बाकी रहा था कि पूज्य पिताजी दूलहराय
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भनेकान्त
[वर्ष ८
साहबके पेट में नाभिक नीचे दर्द शुरू हुआ।
स्त्री, दोनों गोते, पुत्र मुंशी और उसकी पुत्री सब इस २ जून १८४४ रविवार--एक घडी दिन बाकी अक्तूबर महीने में मर गये। रहनेपर पूज्य पिताजी दूलहराय माहव अमरलोकमें तश- ३ नवम्बर १८४५, सोमवार--साहबान सदरका रीफ ले गये (उनका स्वर्गवास होगया)।
हुक्म मरसावामें मुन्सफीकी कचहरी नियत करनेका पाया। २० जून १८४४, गुरुवार-श्रोहदा वकालत चिख- ५नवम्बर ५८४५, बुध-अमलामुन्सफ्रीकासरसावा कानाकी मन माहब जज .. 'माहबके हजूरमं फतहचंद भागया। (पुत्र ला. दूनहराय) के नाम होगई।
४ दिसम्बर १६४५, गुरुवार-बमूजिव सरकुलर २० अगस्त १८५४ मंगल--(नोट हाशिया) द्वितीय नं. १८५५ मवर्ख: २५ नवम्बर सन् १९४५ और रोबकार भावन और भादोंके महीनों में जाडेसे बुखारकी बीमारी इम हार्वे पाहब जज मवर्खः ४ दिसम्बर सन १६४५ मन्सफी
टाटा और सैकड़ों के नाजिरोंसे एक हजार रु. की जमानत लेनेका हुक्म हुआ। प्रादमी मर गय ।
३० दिसम्बर १८४५, मंगलवार-आजकी तारीख ३० सितम्बर १८४४, सोमवार-जनाब ला०
के गजट सदरमें हुक्म है कि--"जिस मुकदमेमें मुन्सिफ महामिह माहब (साकिन सहारनपुर ) अमरलोकको कूच चाहें कि सालिस मुकर्रर होकर तसफिया फरीकेनका होजाय कर गये।
और फरीकेन पंचायतसे इनकार करते हो तो मुन्सिफ अक्तूबर १८४४, मंमल--धरके योग ना. साहबको अख्तियार है कि खुद हस्वराय अपने विला मुहरसिंहकी उग्रवाहीमें सहारनपुरको रवाना हुए। दस्तखत फरीकेन ऊपर इकरारनामेके पंचायत मुकर्रर करके
२३ दिसम्बर १८४४, सोमवार--तामीर छत्री तसफिया मुकदमेका करादें।" (म्मारक) जनाब दूलहराय साहब शुरूहुई [मंगसिर २६ (यह हुक्म इसी तरह हिन्दी भाषामें दर्ज जंत्री. (सुदि १४) संवत् ११.१],
और इममे ऐपा मालूम होता है कि अदालतोंमें हिन्दी १८ फवरी १८४४, मंगलवार-ला. बहादुरसिंह जारी हो जानेसे वह गजट सरकारी में भी इसी रूपसे दर्ज मौदागरमल पिसरान बा. दीनदयालने मन्दिरजीमें होकर पाया है।) उच्छाओ (उत्सव) श्रीमहाराजक कराये और करीब दसहजार १५ जनवरी १८४६, गुरुवार--(नोट हाशिया) भादमी विरादरीके जमा हुए।
इस साल अंग्रेजों और राजा दलीपसिंह बाहर वालंके २२ फवेरी १८४५, शनिवार--बा. बहादुरसिंहने दरम्यान भारी संग्राम हुआ, लाखों भादमी दोनों तरफके मन्दिरजीमें श्री भगवानको स्थापन कराया और (पाए हए) मारे गये। अन्त में विजय अंग्रेज साहबान सममी गई विरादरीके भादमी रवाना होगये।
और राजा पटियाला अंग्रेजोंक माथ रहा। सरदार जीतसिंह ३ अक्तूबर १८४५, शुक्रवार-दारोगा धौंकलसिंह लाडवावाला मौजा नसरुल्लापुरमे भागकर बाहौरकी तरफ (महारनपुर ) का देहान्त हुमा-पहारनपुर वाले ला. पहुँचा. उसका देश व सामान अंग्रेजों के अधिकार में पाया। सन्तलालके पिताका देहान्त हुआ।
८ फर्वरी १८४६, रविवार-कौलवी मुहम्मदफजल नाट हाशिया माह सितम्बर १८४५-नस महीने अर्ज म तहसीलदारी सरमावाके पोहदेपर तशरीफ लाये में जे की बीमारीसे सैंकड़ों बादमी सहारनपुर और जगाधरी और तनख्वाह तहसील सहारनपुरकी २१०). पाएँगे। में मर गये और बाडेका बुखार बहुत जोरोंपर है।
१८ मार्च १८४६, बुध--आज तारीखके गजटमें नोट हाशिया माह अक्तूबर १८४५--सरदारमती हुक्म है कि राजीनामा मुहमाइबाह ( प्रतिवादी) के समक्ष (सैयद साकिन सरसावा)के मर जाने के बादसे (जिमकी तसदीक हुए बिना मंजूर न हो। मृत्युका उल्लेख जंत्रीमें ५ अक्तूबर को हुभा है) उसके मई १८४६, शुक्रवार--वैशाख सुदि छठ सं० घरके भादमियों पर प्रास्मानी माफत आन पड़ी-इसकी १९०३ को अजीज धर्मदासके घरमें बह छही रात बाकी
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किरण १]
ग़दरसे पूर्वकी लिखी हुई ५३ वर्षकी 'जंत्रीवास'
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रहे पुत्र उत्पब हुआ, जिसका नाम 'नथामिह' रक्खा गया। बाबा थे, जो बा. दूलहरायजीके छोटे भाई ना। (यह नाम बादको 'नत्थूमल' नामसे व्यवहारमें पाया तथा वातावरसिंहजीके लघुपुत्र और बाबा कन्हैयालालजीके प्रमिद्धिको प्राप्त हुमा और ये ही जा० नत्थूमनजी इन लघुभ्राता थे ।। पंक्तियोंके लेखक (जुगलकिशोर मुख्तार) के पूज्य पिता है') १८ फर्वरी १८४८, शुक्रवार---दिन शादी राजाराम,
२७ मई १८४६, बुध--कचहरी तहसील मरपावा बारात सहारनपुर गई। का नीलाम ४५०) रु. में हुश्रा, मगर मुल्तवी रहा। १६ अप्रैल १८४८ रविवार-(चैत सुदि १३
२६ मई १८४६, शुक्रवार-प्राजकी तारीम्वमें संवन १६०५ को) श्रीमहाराजजीकी पूजाके उच्छाद हए, नीलाम (मकान) कचहरी तहसील सरसावाका ४५०) रु. ।
सैकड़ों भादमी बिरादरीके प्रमा हुए। में बनाम शामवाल के खतम हुआ।
१६ अप्रैल १८४८, बुध-परसावामें श्रीमहाराजजी .। (नोट हाशिया) मकान तहमीन परमावामें चौथाई।
शिखरमन्द मन्दिरमें विराजमान हुए। हिस्सा ना सन्तलाल(महारनपर) चौथामा
१८ जून १८४८, मंगल-फतचन्दन मकरमें मेहरब नली (या रमजान अली), चौथाई हिस्सा दाँधी
प्रोहदे वकालतपर भाकर मुकदमात रजू किये। राम और चौथाई हिस्मा शामलालका मुकर्रर हुश्रा और
१५ जुलाई १८४८ मंगल-साहब कलक्टर बहादुर बैनामा (हर एकका) अलग अलग लिखा गया।
मिस्टर दलूविम (?) माडव मसूरी पहाइमे ग़ार (गड)
में गिरकर मरगये, फतह चंद उस जगह मौजूद था। ___३ सितम्बर १८४६, गुरुवार--कालेराय साहब (जैन) डिप्टी कलक्टर वास्ते इन्तजाम मल्क जदीद जमना
३ दिसम्बर १८४८, रविवार-बरखुर्दार शंगमलाल' पारके सुखतानपुर (जि. महारनपुर) से तशरीफ़ लाये।
की हवेली पूर्वस्वीका मगून (मुहतं) हा और वाया
उत्तरकी तरफस शुरू किया गया। १ नवम्बर १८४६, रविवार--सरकी मजरी में कचहरी तहसील सरसावास बर्खास्त होकर कम्बे नकुड में
२६ जनवरी १८४६, मोमवार-सुलतानपुर गई और वहां कचहरी तहसील की (विल्डिग बनी)।
(जि. सहारनपुर) में पूजाजी हुई और पहले उच्छायो १ जनवरी १८४७ शुक्रवार-(नंट हाशिया)
(उत्पम) में पन्द्रह हजारके करीब प्रादमियों का हजूम हुआ। इस सालमें ऐमा कागज स्टाम्प आया चिममें कि एक
२ फर्वर्ग १८४६, शुक्रवार-सुलतानपुरमें (पिछले) तरफ सुर्घ मुहर और उसमें कीमत लिखी हां।।
उच्छाम्रो होकर महाराजजी मन्दिरमें स्थापित हुए। २६ जनवरी, १८४७, मंगल-नकुड़में ला.
१८ फरवरी १८४६, रविवार-अजाज धर्मदामके शीलचंदजीने पूजाजी कराई, जिममें पांच हजार के करीब
दो घदी रात बाकी रह पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम आदमी जमा हुए।
शङ्करलाल रखा गया। ३० जनवरी १८४७ शनिवार-नकुड में शिखर- २० जनवरी १८५., रविवार--राजा खुशहालसिंह वन्द मन्दिा में महाराजकी स्थापना हुई।
के पुत्र राजा हरबंस सिंह लंदौरे वालेका देहान्त हुआ। १ फवरी १८४७, सोमवार-कचहरी मन्सफी २५ जनवर ५८५०, शक्रवार-राजा दलीपसिंह सरसावाये बर्खास्त होकर नकुडमें (पहलीबार) हुई। बाली लाहौर मय घरके पादमियों के सहारनपुर पाए और
११ अक्तूबर १८४७, सोमवार-कदरू बहलबान लाहौरका स्थान छोड दिया। डेढ़ इ. माहवार तनख्वाह पर नौकर रखा गया।
५ जनवरी १८५१, रविवार--(नोट हाशिया) इस १६ फर्वरी १८४८, बुध-दिन जोनार (वही दावत) माल पर्दीकी मौसममें बहुत बीमरी फैली, सैंकडों प्रादमी शादो अजीज राजाराम ।) यह ना राजाराम भी अपने एक २ य६ बाबा फतहचंदनीक, पत्र थे और इनके दो पुत्र मित्तर१ श्रापके तीन पुत्रों में बड़े चौ. हींगनलाल और छोटे बा० सेन तथा किन्तचंद हुए, जिनकी मन्नति मौजूद है।
रामप्रसाद अोवरसियर थे--दोनोंके पुत्रादिक मौजूद हैं। ३ इन चचा शङ्करलाल के पुत्र चमनलाल थे।
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
मर गये और फसल खरीफका गह्ना बहुत सस्ता होगया- बजरिये लुट-मारके बर्बाद की गई।
३० जुलाई १८५३, शनिवार-डेढ़ घडी दिन चढे २ मन १० सर, बाजरा---३ मा २० सेर, माश उडद)--
• सर, माश उडद)-- भूकम्प हुश्रा (पृथ्वी पर हालन प्राया)।
भकम्प १ मन ३. संर, रोगनतलख (नेज करवा)--२५ सेर,
इसी तरहको और भी सैंकड़ों घटनाएँ-उस उस गुरु- मन १० सेर, शकर - ३६ मेर।
समयके वाक्यातकी याददाश्ते--इस जंत्रीमें दर्ज की गई २६ प्रल १८५१ मंगलवार--( नोट हाशिया)
हैं और उनसे कितनी ही ऐसी पुरानी बातोंका पता चलता निरख (भाव) असल रबी (भाषादी)सन् १२५८ अपनी
है, जिनके जाननेका श्राज दूसरा कोई साधन नहीं है। गेहूं-२ मन २० सर, चना मटर वगैरह---३ मन १० सेर, जी-४ मन २० सेर, अदस (मसूर)--३ मन
मुझे इस जंत्री परसे अपने उस 'वंशवृक्ष' के तय्यार १.मेर गोजना-३ मन ३० मेर।
कराने में--खासकर उसमें पूर्वजोंके उदय-अस्त (जन्मनोट हाशिया जनवरी मन १४:--इम म. मरण) की तारीख दर्ज कराने में बड़ी मदद मिली है । मासमें गल्लेका भाव बहुत ज्यादा महँगा होगया, तमाम इस मय वारसेवामन्दिरमें मौजूद तथा उसके होल में एक तक यही तोर रहा, हजारों मन गन्ना पिछले साल का काम
शीशेके केपमें जदा हुआ सुशोभित है और जिसे मेरे छोटे में पाया और प्रजाके लोग बहुत तंग आगये--
भाई स्वर्गीय बाबू रामप्रसादजी श्रोवरपियरने तय्यार कर(गस्ल का भाव फी रुपया) गेहूं--१ मन २० सेर, कराकर ता० ८ अप्रेल सन् १९२६ को मुकम्मल किया था चना- मन सेर, मकी--२ मन, बाजरा--१ मन
और फिर मुझे भेंट किया था। और इस लिये मैं इस जंत्री ३० सेर, उडद--१ मन ।
तथा इसके लेखक पूर्वजोंका बहुत ऋगी हूँ। बहुत अर्सेमे २७ मई १८५२, गुरुवार--प्राजकी तारीख में हुक्म मेरी इच्छा थी कि मैं इस जंत्रीका कुछ परिचय प्रष्ट करूं, जजमा० बहादुर वास्ते तसदीक मुख्तारनामाके, मुन्सफी परन्तु अनवकाशसे लगातार घिरा रहनेके कारण अवसर मकुड़में पाया।
ही नहीं मिलता था। अब जब कि यह जत्रा दीमकोंका २१ अप्रैल १८५३, गुरुवार--ला. दाधीरामने शिकार बन गई है तब, जैसे तैसे कुछ समय निकाल कर मौजा कादरगद की जमींदारीका एक बिस्वा (बीसवां हिस्सा) यह परिचय लिख पाया हूं, और इसे प्रकट करके मैं अपने ६००) रु. में खरीद किया।
को इस जंत्रीक ऋणम कुछ उऋण हुश्रा समझता हूँ । ८ जुलाई १८५३ शुक्रवार--मेहरबानअली (सैयद)
यहांपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता है और नरायण दास (महाजन) चिलकाने वालोम बहुत बढ़ा है
कि हम जंत्रीमें जंत्रीलेखक ला. दूल हरायजीके पितामह जंग (युद्ध हुश्रा--हवेली नारायण दासकी गारत हुई
जिन ला. लालजामल साहब कानू गोका ता. ६ सितम्बर * पाठक इन महंगे भावाका अाजकलक भावाक माथ तुलना सन १८.२को वैकण्ठ स्वर्गवास होना लिम्बा है और करें और देखें कि जब गल्लेके इन भावोंकी कुछ महीनो जिनके वंशज दो शाखाओं में विभक्त होकर इस समय की मौजूदगीम ही प्रजा-जन बहुत व्याकुल हो उठे थे मौजद वे अग्रवाल संगलगोत्री ला हकमतरायजी !
और तंग श्रागये थे, तब श्राज-कल वर्षों से चलने वाली कानगोके पत्र. ला. किरपागमजी कान गोके पौत्र तथा इस भारी मदंगाई के कारण जनताकी श्राकुलना और
ला. मधुकरदास जी कानूं गो (पुत्र ला. नन्दरूपजी तंगी कितनी बढ़ी चढ़ी होगी। साथ ही, यह भी सोचें कि
गा। साथ ही, यह भी सोच कि कानूँगो) के प्रपौत्र थे। इसे वृटिश-शासन और भारतकी उन्नति समझा जाय या अवनति।
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-१-१६४६
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भगवान महावीर और उनका सन्देश
( लेखक-श्री कस्तूरमा सावजी अग्रवाल जैन, बी० ए०, बी० टी० )
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9F
x र्तमान रणचण्डीका नृत्य यह बीभाम और लिए आज भी समस्त संपार उनके पुनीत चरणों में
अनवरत रक्तपान भौतिक विकामकी श्रद्धाञ्जलि अर्पण कर रहा है तथा करता ही रहेगा। देन है। आज संपारपर युद्धकी भीष
जब कभी भव्य भारतमें आध्यात्मिक पतन हुमा, गाता अपना प्रातक जमाय हुए है। जहवादकी दुहाई दी जाने बगी, कलहाग्नि प्रज्वलित होने अाज निहत्थे नागरिकोपर, श्रमहाय
लगी तथा घार विश्वके चिन्ह दृष्टिगत होने लगे, उसी कोमलानियोंगर तथा कोमन शिशुओंपर
समय संसारके लिए ललामभूत विभूतियोंने अवतीर्ण होकर प्राकाशसे धड़ाधर बम वर्षा हो रही है।
अपने अनुकरणीय कृयोस ऐमी पी महत्वपूर्ण शिक्षाएं एक ओर गरीब मजदूरकी रोटीका प्रश्न किमी प्रकार प्रदान की कि निविल भुवनमें अपने देशका मुग्वोज्वल कर. हल होता न देख व्याकुल हैं तो दूसरी और समृद्धिशाली मुख एवं शान्तिका माम्राज्य स्थापित कर दिया। ऐसा ही पूजीपति अपनी पैशाचिक इच्छाओं की तृप्तिमें ऐसे संलग्न
__ परमादर्श-विभनियमिमे श्री भगवान महावीर थे । लगभग हैं कि उनके कारण न केवल उनकी ही किन्तु समस्त
ढाई हजार वर्ष पूर्व भारतमें चतुर्दिक हिमाका साम्राज्य संमारकी नींद हराम होगई तथा समस्त पृथ्वी मिहर था। निरीह. निरपराध एवं मूक पशुश्रीको होम-कराडोंमें उठी है।
म्वाहा कर, पुण्य मंचय करना ही धर्म समझा जारहा था।
ऊँच नीचताके जन्मजात बन्धनोंके कारगा विशेष ध्यमियों सम्भव है कि वैज्ञानिक-उन्नति-द्वारा अटूट एवं अपीम
तथा वर्णकी तूती बोल रही थी। कुरीतियां और धर्मान्धता ऐश्वर्यकी प्राप्ति हो जाय, विशाल साम्राज्यका प्राधिपाय
भारतीय समाजकी जर खोखली कर रही थीं। हिंसवृत प्राप्त हो जाय, पारामकी ममम्त उत्तमोत्तम वस्तुओं का
के पाथ माथ नैतिक अध:पतन भी होता जा रहा था। उपभोग मिल सके, जल, स्थल एवं वायुपर अपना शासन
से समय भगवान महावीर ने अपने शुभ जम्ममे हम वारचलने लगे और भौतिक यन्त्रों द्वारा अपने सम्पूर्ण कार्य
प्रमघा भारतभूमिका पवित्र किया। सुगमतर हो जाये, तो भी क्या हमारी अतृप्त तृष्णा मिट
"मत महल हमें जानों फिरता तलक बरमों। सकेगी ? कदापि नहीं। वैज्ञानिक उमति जनवादका महारा (Sahara Deser) मरुस्थल है। वहां तृषित-मृगवत
तब खाकके पर्देय इनमान निकलते है।" सुख एवं शान्तिका सरोवर खोजना निगपद नहीं । होश संभालने पर संसारकी विधितिने, मूक पशुश्रांकी शताब्दियों पूर्व आर्यावर्तकी सुजलाम्-सुफलाम् भूमिमें हल्याने तथा सोमारिक भोगोंकी अपारताने श्रापको बद। मुख एवं शान्तिकी तरॉ कल्लोल करती थीं, जीवनकं चोट पहुंचाई । नाम गदेले श्रापको पसन्द न श्राप, राजव्यापार सर्वथा परल थे, आजीविका सम्बन्धी प्रश्न कभी पाटको त्याग कर आपने जङ्गलकी राह ली। तलाशे हकक समस्या न बना था, यहाँके प्राचीन निवासी अपनी मादगी लिये तथा सच्चे सुस्त्र व शान्तिकी खोजमें जी-जानसे लग में मस्त थे तथा श्राध्यात्मिक विकास के कारण वे परमानन्द- गए । स्वारमानुभवकी निधिको पाकर आप मालामाल हो मय जावन-यापन करते थे । उनकी महान सेवानी और गए और इस अनमोल न जानेको लुटानेका बीड़ा उठाया। उस समयकी दिव्य विभूतियोंक कल्याणकारी सन्देशांक भगवान ने अपने जीवनका मनोहर श्रादर्श उपस्थित करते
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भनेकान्त
[ वर्ष ८
हुए बतलाया कि कर्तव्य-परायण मानव दूसरों के लिए कषाय या वैभाविक अवस्थाके वह अधीन नहीं होता। जिया करते है है-और दूसरोंके लिए मरकर अमर हो वह मुपीवास व्याकुल नहीं होता और न सांसा जाते हैं। 'वसधै व कुटुम्बकम' का मंगल एवं दिव्य पाठ सुबोंमें ही लिप्त होता है। उसके विशाल हृदय-सागरमें देकर भगवानने सच्चे और वासना-रहित प्रेमकी गंगा बहा दयाकी नहरें उठती रहती हैं । मारे जीवोंपर प्रेम-दृष्टि दी। हिंसाको दब्बूपन और खुदगर्जीकी निशानी तथा स्थिर रहती है, क्योंकि वह खुद अपनेमे अर्थात प्रारमासे अहिंस.को वीरोंका भूषण बतलाया । अापके नजदीक प्रेम करता है । वह ऐसा व्यवहार जो उसमे किया जावे माहिमा और कायरता परस्पर विरोधी है। कायर कभी भी यदि पसन्द नहीं करता तो दूसरोंके प्रति वैमा व्यवहार अहिंसक नहीं हो सकता । अहिंसक पहले खुदपर विजय करना भी पसन्द नहीं करता, बल्कि दूसरोंके दुखोंको देख पाता है, खुद स्वतंत्र हो जाता है। विकारोंपर फतह पाना कर उसके हृदयके कोमल तार झंकृत हो उठते हैं और वह सहन नहीं है। इसके लिए बन्दे त्याग और हिम्मतकी दयाकी मूर्ति बनकर दूसरोंके दुःखोंको निवारणा करने में श्रावश्यकता होती है, न्याय अन्यायको समझना होता है, एडी चोटीका जोर लगा देता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे प्राणिमात्रके स्वभावका सूचम निरीक्षण करना होता है, अहिंसाके राजमार्गपर लाकर खड़ा कर देती है, उसका उसको न्यायोचित हकों तथा स्वावोंका योग्य रक्षया व अंतग अपने स्वाभाविक रङ्ग में रन जाता है और इसी संवर्धन अवश्यम्भावी है। अपने स्वार्थको तिला ति देनी स्वाभाविक अनुभूतिका नाम अहिंसा है। होती है। विकाकी लहर उसे वहा नहीं ले जा सकती, अहिंसाकी इस मौलिक परिभाषाको एक दम अव्यअहिंसक खुदके प्रति वज्र सा कठोर, परन्तु औरोंके लिये वहार्य कहना या इसे देश या समाजकी अवनतिका कारण नवनीतकी तरह नरम होता है, वह अपने हित में सतर्क बतखाना निरी कल्पना है तथा जैन शास्त्रों के प्रति उनका रहते हुए भी परहिसमें बाधा नहीं डालता, उसे अपनी अज्ञान है। भगवान महावीरने यतियों अर्थात सर्व संगइरछाओं तथा प्रवृत्तिको दबाना होता है।
परित्यागी साधुओं के लिए यदि महाव्रतोंका विधान है तो "जो तोकू कांटे बुवे, वाको बो तू फूल । श्रावकों अर्थात गृहस्थियोंके लिए भी व्यवहार्य सुन्दर तोको फूल के फूल हैं, वाको होत त्रिशून्त ॥" नियमोंका दिग्दर्शन कराया है। गृहस्थ मानव सांसारिक
राग-द्वेषके प्राचीन न होते हुए अपने परिणामोंकी कार्य जलकमलवत् किया करता है, किन्तु उसमें जिप्त नहीं योग्य सँभालको सच्ची अहिंसा कहा गया है । अतएव अहिं होता। गृहस्थको अणुवती कहा है; अतएव वह जान बुझ सक वास्तवमें सत्यका पुजारी और समूची जीव-जातिका कर या कषार्योके वशीभूत होकर न तो जीवोंका घात ही पाशिक रहता है। स्वाभाविक अंतरंग शुद्धिके कारण करे और न अपने परिणामोंकी विराधना ही। परिभाषामें उसके हृदयसे प्रेमका दरिया उमदा चला पाता है। इसे संकल्पी हिंसाके नामसे कहा गया है। वह संकल्पी समृद्ध परिस्थितिमें वह विनयकी मूर्ति बना रहता है और हिंसा नहीं कर सकता । किंबहुना सांसारिक कर्यों में चूल्हा इस तरह अन्य जीवोंक हृदयोंको वह अपनी ओर अनायास सुलगाना, माडू देना आदि प्रारम्भोंमें या वाणिज्य-व्यवही खींच लेता है। यही कारण है कि सो अहिंसामें साय, खेती, सिपाहीगिरी आदि उद्योगों में या स्व-संरक्षणा, कायरताकी गंध भी नहीं पा सकती।
परचक्र-निवारण प्रादि क्रियाओंमें-मजबूरीकी अवस्थामें "जो जन अहिंसा धर्मका पालन करेगा रीतिसे । उससे अवश्य हिंसा होती है। अर्थात् संकल्पी हिंसाका संसार सब गिर जायगा, धसके पगोंर प्रीतिसे। पूर्ण निषेध है-किन्तु भारम्भी, उद्योगी और विरोधी उसके लिये प्रतिकर भो अतिशय सरन हो जायगा, हिंसा अनासक्ति-पूर्वक होती रहती है । संकल्पी हिंसाका उसके लिये मीठी सुधाके सम गरल हो जायगा।" निषेध बुद्धिकी कसौटीपर ठीक उत्तरता है। जब हम जान
अहिंसकको राग द्वेषसे कोई सरोकार नहीं । स्व-स्व बूमकर हिंसाके इरादेसे जीवोंका घात करें या अपने रूपाचरण में मस्त रहना उसका स्वाभाविक कार्य है। प्राराम या कषायोंकी पुष्टि के लिए जीवोंका वध करें या
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किरण १]
भगवान महावीर और उनका सन्देश
जीवोंके कोमल व स्वाभाविक परिणामोंकी विराधना है, बड़ाइयोंको लाकर दुष्टोंको सजा और गरीबों, प्रशक्तों करें तो अवश्यम्भावी हमारी यह क्रिया दुःखों और संमार व असहायोंका रक्षण कर सकता है, तो यह कहना कि का कारण बनेगी। हमें नैतिक दृष्टिसे भी दूसरोंको मताने 'जैनधर्म कायरोंका धर्म है' और इससे प्रभागे भारतवर्षकी का क्या हक है ? यदि भाप सताये जाना पपाद नहीं अवनति हुहै, सरापर ग़लत है । यदि ऐसा होता तो करते तो प्रापको दूसरोंको सतानेका क्या हक पहुंचता है ? सम्राट चन्द्रगुप्त, प्रसिद्ध ग्रीक योद्धा सिल्युकमको अपनी यही कारण है कि भगवान महावीरने पशुवध और नरमेध तलवारका मज़ा न चस्वात, राजा खारवेल, महामण्डलेश्वर
आदिके विरुद्ध जोरदार भावाज़ उठाई, मांसभक्षण आदि अमोघवर्ष प्रभृति वीरपुंगवोंकी वीर-गाया माज जैनशास्त्रों का निषेध किया, जगतको शान्ति के लिए संकलमी हिमाका में पढ़ने को न मिलतीं। छोड़ना अत्यन्त भावश्यक है। जब तक हम हमें और वास्तवमें इस देश और देशवामियोंकी अवनतिका समूची जीव-जातिको न समझे, उसके स्वाभाविक तथा कारण जैनधर्म या स्वाभाविक मानवधर्मका त्याग करना न्याय्य स्वखोंका लिहाज नहीं रखा जा सकता और जगत्में है। ब्राह्मण ऊँचे और सबसे ऊंचे है, इसलिए सारी सत्ता शान्तिका माम्राज्य नहीं फैलाया जा सकता । अतएव का संचालन उन्हींके हाथों होना चाहिए, इस वृथाभिमान प्रत्येक मानवका कर्तव्य है कि वह संकल्पी हिंसाका त्याग ने और कषायोंके वशीभूत होकर एक दूसरे को नीचा करे।
दिखाने के लिए अपने धर्म, देश और सर्वस्वकी बाजी गृहस्थ, दैनिक कार्यों में श्रासक्ति न रखने हुए यदि लगा देने के कारण तथा (Divide and rule) "फूट श्रावश्यकीय क्रियाओं को करता रहे तो बहु-अंशमें उसके का बीज बोश्रो और हकूमत करो" की नीतिका शिकार हो परिणाम स्वाभाविक रहते हैं। इसलिए वह पूर्णरूपसे जाने के कारण तथा हमसे कुछ हो नहीं सकता, होनहार ही दोषों या पापोंका जिम्मेदार नहीं है, कुछ अंशमें अलबत्ता ऐसी है-भगवान ही सब कुछ करने वाला है, आदि ऐसा प्रयत्नशील, सदाचारी और सद्विचारी मानव सांसा- कायरतापूर्ण विचारों के कारण, तथा ऐयाशी, लोभ मादि रिक क्रियाओंके करते रहने के कारण-कुछ बभाविक अव. सैंकडों चीजोंके कारण यह देश रसातजको पहुंचा है। स्थाको प्राप्त होता है । अतएव इसके निवारण के लिये जयचन्द, अमीचन्द, मीर जाफर जैस देशद्रोहियोंकी यहाँ तथा अत्यल्प दोषोंकी मात्रा और भी घटती रहे इसलिए कमी नहीं रही। इकबाल कहते हैं:उसे षट् कार्य नित्य रोज ही करने होते हैं - यानी देवपूजा, जाफर अज़ बंगाल व सादीक आज दकन, गुरुओंकी भक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप श्रादिको पाचरण में नंगे प्रादम नंगे दीन व नंगे वतन । बाना पड़ता है। इन क्रियाओंका यह मतलब नहीं कि वे अतएव जैनधर्मको अवनतिका कारण बतलाना अन्याय अर्थहीन तथा निस्सार क्रियाओंको करे, बल्कि गुणोंकी है तथा सस्यका गला घोंटना है। प्राप्तिके लिये वह गुणियोंका आदर करे, ज्यादासे ज्यादा जो भी हो, इतना श्रापानीसे कहा जा सकता है कि रूपमें अपने परिणामोंको स्वाभाविक बनाए और इन भगवान महावीर के अहिंसा प्रयोगने न सिर्फ उस समय क्रियामा विशेष सावधानी रखे ।
सयको अपनी ओर आकर्षित किया किन्तु अब भी इसी सांसारिक क्रियाओंमें रत न रहना, यह मुख्य बात अमोघशक्ति का हिन्द नेता महात्मा गांधी बड़ी कामयाबी है। प्रासक्ति जीवकी वैभाविक अवस्था है और यह अवस्था से स्वतंत्रता संग्राममें उपयोग कर रहे है । अहिंसा दुःखका मूल और संसारकी जननी है। यदि चक्रवर्तीके प्रारमाका स्वभाव है. इसलिए वह हितकारी है। प्राकृतिक साम्राज्यका भोगी अपनी सम्पदा और भोगोंमें लिप्त नहीं होनेके कारण खुदको और जगतके सारे जीवों के लिए है तो उसकी क्रियाएँ अवश्य ही सराहनीय है । अतएव शान्तिदाई है। अहिंसास ही जगत्का कल्याण हो सकता वीरानुयायी, न्यायमार्गका पालन करते हुए जब चक्रवर्ती है तथा इसे अपनानेसे जगतके सारे व्यवहार सुन्दरतासे तक बन सकता है, धर्म, राष्ट्र और देशकी सेवा कर सकता बन सकते हैं । अहिंसा जगतके लिए महान् सन्देश और
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२०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
वीर भगवानकी देन है। अतएव मारे संसारके प्राणियोंके तथा मुक्तिका भी। अतएव मारमा ही खुद गुरु है-यानी प्रति प्रेम या इश्कका भाव रखना हमारा कर्तव्य है और उसकी उन्नति वा अवनति उसीके हाथ में है। पथप्रदर्शक हमारे रोग का यही इलाज है:
निमित्तमात्र हैं। इसी तत्वक अनुसार जैन धर्म में ईश्वरके "इश्क तबियतमें जीस्तका मज़ा पाया। __हाय कुछ भी सत्ता नहीं है। न तो वह दुःख ही दे सकता बदकी दवा पाई दबे दवा पाया।" है न सुख । संसारकी सृष्टिका न तो वह कारण है और न भगवान महावीरने संसारकी गुन्थियोंको तथा उनके उमे भेट, स्तुति आदिके जरिये रिश्वत देकर खुश ही सुनमानेका वर्णन बड़े ही रोचक और वैज्ञानिक ढंगमे किया जा सकता है। मनुष्य खुद अपने हिन या अनहित किया । जगत मुख्यत: जीव और अजीव, इन दो को समझकर योग्य कार्यका आश्रय कर सकता है। अतएव पदार्थोंका समुदाय है। यह स्वयम्भू अनादि और अनन्त उसके लिए आवश्यक है कि वह सदाचार, सद्विवेक-बुद्धि है-इसी तरह न तो इन पदार्थीका अन्त ही हो सकता है द्वारा अपनी सारी क्रियाको नियंत्रित करे तथा महाऔर न ही नए पदाथ उत्पन्न हो सकते हैं अलबत्ता पर्याय प्रभावी कर्मबन्धनोंको सच्चारित्रद्वारा काटे अन्यथाअपने अच्छे या अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। मिट्टीमे घड़ा, और घड़े -बुरे कम बंधते रहने के कारण वह प्रात्म ल्याणसे कोसों दूर में कोई और वस्तु बनाई जा सकेगी-किन्तु हर हालतमें हो जायगा । मुसीब का पहाड उसपर टूट पड़ेगा। लालसा मिट्टी मिट्टी ही रहेगी। अजीवको परिभाषामें जड़ या कम और अतृप्त तृष्णाक कारण व्यथित रहेगा और इस तरह के नाम भी याद किया जाता है। संपारमें जीवोंका परि- अनन्त काल तक दुःखोंके सागरमें गोते लगाता रहेगा यह भ्रमणा कर्मक संसर्गसे ही होता है। जीवोंकी विवध श्रव-हैन जर काँका प्रभाव । कर्म एक नशा है। इसी स्था ऊँच-नीच होना, दुखी होना, सुपम्पन या दरिद्री नशीली वस्तक सेवनसे उसका यह लोक और परलोक होना, सुन्दर या कुरूप हाना--सारांश जीवों के इन स्वांगों दोनों बिगदते हैं । अताव इस नशेसे बचने के लिए, में कहीका हाथ है। कर्मके संयोगमे जीव अशुद्ध है कीवों आत्मिक प्रदेशोंको सकम्प न होने देना अर्थात राग, द्वेष, काम कम होके कारण या यों कहा जाय कि प्राणी क्रोध आदि विभावोंके आधीन न होना एक ज्ञाना श्रापमा अपने काँका जिम्मेदार है--जैसा करेगा वैमा उसे भरना के लिए श्रेयस्कर है:होगा । 'बोये पेड़ बबूल के तो श्राम कहाँप खाय' इसलिए "अमल मे ज़िन्दगी बनती है, जन्नत भी जहन्नुम भी।" प्राणीको चाहिए कि वह अपने स्वभावानुकूल कार्य करे, इसमें शक नहीं कि संसारी प्रारमाएँ अनादिकालसे अपनी भलाई और बुराई का कारण खुद वह है । उसका जड़ वा कर्म के साथ संलग्न चली पा रही हैं। फिर भी स्वर्ग वही बना सकता है, या अपनी वैभाविक कृतिक
मारमा प्रामा है और कर्म कर्म । दोनों अपने अपने स्व. कारण खुर खुदाको जहममें भी पहुंचा सकता है । मन- भाव में स्थित है। पारमा प्रमूर्तिक, ज्ञाता, अखण्ड और वचन-कायकी हरकतों द्वारा उसके अरम-प्रदेश चचल वा चेतन स्वभाव वाला है, और कर्म मूर्तिक तथा पौद्गालक सकंप हो उठते हैं और कर्म-जोंको श्राकर्पित कर लेते हैं। तथा ज्ञानशून्य है। इसीलिए इस संसारी श्रात्माको कर्म-रजोंका अाकर्षण उसके संसारकी सृष्टि करता है, अतः परमामाकी अवस्था तक पहुंचाना ही हमारा पुरुषार्थ है। एव इन कर्म-पिण्डोस छूटना मोक्ष । नर कुछ करनी यही इसकी स्वाभाविक अवस्थाका लाभ "वस्तु स्वभावो करे तो नरका नारायण होय" इस चीजको जैन धर्म में धर्म:" के अनुसार चलनेसे ही होगा । इसी मान्यताकी विशेष रूपसे स्पष्ट किया है-चुनांचे समाधितन्त्रमें साफ दृष्टिसे सारे जीव परस्पर समान हैं । गुण-स्वभावकी अपेक्षा तौर पर कहा:
अनन्त सुख, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्यमय "नयत्यात्मानमात्मैव जन्म-निर्वाणमेव च । परमशुद्ध बुद्ध हैं । ऐसे शुद्ध एवं सिद्ध जीवोंके अलावा गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थतः।" संसारी जीव भी हैं, जो शक्ति या शुद्ध निश्चय नयकी भावार्थ-भारमा ही खुदके परिभ्रमणका कारण है अपेक्षा उपरोक्त गुणोंके धारी हैं, किन्तु अनादिकाल से कर्म
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किरण 1
भगवान महावीर मौर उनका सन्देश
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रजके चिपके होनेसे विकसित हैं । इनकी यह स्थिति है। अब वह सिद्धिप्राप्त परमात्माकी भक्तिसे अपने प्रारमोवैभाविक अवस्थाकी तीवतापर निर्भर है। इन संसारी वर्षमें लग जाता है। उसकी नैमित्तिक व नित्य क्रियानों में जीवोंमें इनके परिणामोंकी मशुद्धता मादिमें बहुत कुछ मानमी पड़ जाती है। पर वह पूजन, सामायिक, भालोअन्तर पाया जाता है। बहुतसे जीव अत्यन्त रागी, महा. चना व्रत नियम पालन मादिमें बेजान मशीनकी तरह
मादि होते हैं, बहतसे कम मात्रामें होते हैं या नहीं रहता, बल्कि उसे सांसारिक क्रियाएं करते और चन्द उत्तरोत्तर वैभाविक अवस्थाको हटाकर अपनी हुए भी इन शुभ तथा शुद्ध भावोंको प्रदान करनेगळी स्वाभाविक अवस्थाके प्रति पहुँचने में प्रयत्नशील होते हैं। निस्य नैमित्तिक क्रियानों में एक खास मजा भाने लगता है। इसलिये स्पष्ट है कि मुक्त होनेका अर्थ जीवका अपनी भारमगुणोंके विकसित होते रहने के कारण इन चीजों में स्वाभाविक अवस्थाको प्राप्त होना है। इसी शुद्ध, परम प्रवणनीय मानन्दकी प्राप्ति होने सगती है। वह चतुर शान्त, अनन्त सुख, ज्ञान वीर्यमयी पवित्रामाको परमात्मा पुरुष प्रेम समुद्र में इस जाता है-यही उसके जीवनका या ईश्वर माना जा सकता है, और बाकी संमारी जीव एकमात्र लक्ष्य रहता है:'वन्दे तद्गालब्धये' अर्थात् इन गुणोंकी प्राप्तिके डूबै सो बोले नहीं, बोले सो अनजान । उद्देश्यसे स्तुति, उपासना, भारापना, श्रद्धा, पूजन, गहरो प्रेम समुद्र कोऊ, डूबै चतुर सुजान ॥" वन्दना भादिमें रत रहते हैं। जैनियोंकी मूर्तिपूजा, सामा- विरले पुरुष ही भावादिकी तरफ अग्रसर होते है यिक, ध्यान, प्रतिक्रमण मादि क्रियाएँ उसी समय सारभूत और जितनी देर यह भवस्था टिकती है वह जीवन्मुक्त कहलाती हैं जब देवल इसी उद्देश्यको लेकर पूजक, पूना समझे जा सकते हैं। के अमली मैद नमें उतरा हो। इन शुद्धामामोंकी भक्ति- वीर भगवानने जीवों के कल्याणको लयमें रखकर श्राराधकको अपनी स्वाभाविक अवस्थाकी याद दिलाती है। अनेकान्तवादका बड़ा ही मौलिक उपदेश दिया है। वह अपने स्वरूप-चिन्तनमें मग्न होने का यन्त्र करता रहता भनेकान्तवाद जैनधर्मकी मारमा है । जनताको चामिक है, उसकी परिणति शुमसे शुद्धताकी तरफ होने लगती असहिष्णुताकी जसिर्फ भनेकान्तवाद ही काट सकता है। है-अर्थात अपने शुद्ध स्वरूपके पानसे उसे असीम अानंद इस सिद्धान्तके द्वारा दृष्टि में दोष बाकी नहीं रहता । सत्य प्राप्त होने लगता है। अब दूसरी तरफ वह प्राकर्षित नहीं का पता भाखानीस चल जाता है और वस्तु स्वभावके होगा। कहा भी है:
समझने में उसे धोखा नहीं होता। विविध दर्शनोंने संसार "पीत्वा पयः शशिकरचतिदुग्धसिन्धोः
की विविध गति पदार्थको क्षणक्षणमें नाश होना आदि सारं जलं जननिधेरसितुं क इच्छेत् ।”
माना है, तो कहीं द्वैत अद्वैतका झगडा खदा किया है, तो जैसे क्षीरसमुद्रके उज्वल मधुर जलको पीनेवाला कहीं केवल माया और भ्रम मात्र ही जगत् समझा गया भी खारे जखको पीने की इच्छा नही करेगा। है। किन्तु अनेकान्तवादके जरिये वस्तु स्वभावकी काफी ने भी एक जगह इसी प्राशयको बड़ी अच्छी छानबीन होती और परम्परविरोधी दृष्टिकोणोंका साहचर्य
तथा समन्वय होनेसे वास्तविकताका पता चल जाता है। नैनन बसी, पर-छवि कहाँ समाय। अनेकान्तकं द्वारा भासानीसे समझमें आ सकता है कि निखि, आप पथिक फिरि जाय ॥" द्रव्य-दृष्टि द्वारा वस्तु नित्य है, परन्तु पर्याय दृष्टि द्वारा देसने एक बार परमात्माके स्वरूप निस्य भी, इसी तरह प्रतिपल पर्याएँ परिणमनशील गेंको दूसरा रूप किसी तरह भी होती रहती हैं, और मूलवस्तुका स्वभाव जैसाका तपाही यह विवेकशील हो जाता है। बना रहता है । वस्तु परीक्षण के इस उदार शाखको यदि परात्मा बन जाता है। इस अपनाया जाए तो जगत मेंसे अनुदारता एवं संकीर्णता, र विवेकको लिए हुए होती धार्मिक असहिष्णुता श्रादिका मुंह काला हो जावे ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
परस्परा रहिकोणको सममने कारण प्रेमकी अभिवृद्धि होगा। परमात्मा हमारे ही अन्दर विराजते है। इसी तथा एक दूसरोंके प्रति प्रादरभाव पैदा हो जाये । जैन 'भा मानुभूतिको--प्रात्मप्रतीतिको ससा सम्यग्दर्शन कहा शानोंमे इसका विशद वर्णन मानकर इसकी ताविक उप. गया है। वही हमारा स्वभाव है । इसी में सच्चे सुखके योगिता भनी भांति सिद्ध हो सकती है :
भसीम प्रानन्दका अनुभव होगा। "आँधी पाई ज्ञानकी, ईभरमकी मीत । 'मुढा देउलि देउण विण वि सिलि लिप्पड चित्ति । माया टाटीद गई, बगी नामसे प्रीत ॥ दो देउलि देउ जिणु, सो बुज्झति सम चित्ति ॥" को भी हो. भगवानने पनयोंके गवरूपको, संसार
--योगीन्दु देव की भनित्यता तथा व्यवस्थाका पुद्गल पिया और उसके हे मूरख ! देव देवजयमें नहीं, पाषाण शिला, लेप, सामर्य, प्रभाव मादिका बड़ा मच्छ। विश्लेषण किया है। चित्र धादिमें देव नहीं, किंबहुना, जिन भगवान देहरूपी इसी तरह व्यवहार सम्यग दर्शनका और उसके अंगोंमें देवावयमें ही विराजते हैं। हम चीत्रका समचित्त होकर समाजशाम, राजकारण, अर्थशास एवं मानस-विज्ञानके अनुभव करनेकी आवश्यकता मात्र है। अनुभूत तबको बदे सरल तरीकेसे समझाया । सार्व- इसी प्रात्मदर्शन या परमात्म-स्वरूपके अवलोकन या जनिक प्रेमके जरिये संगठनका मन्त्र फूका। सबके प्रति अनुभूतिसे उसे वचन भगोधर सुखकी प्राप्ति हो जाती है। सरव्यवहारकी शिक्षा दी गई । दूसरोंके प्रति दुःख उसके हृदय-बीणाकी तारें मानन्दस निनादित हो उठती सहन करने में भी भात्मिक सुखका अनुभव होना चाहए हैं। प्रेमका पवित्र सोता बहने लगता है और उत्तरोसर ऐसा बतलाकर सेवा-मार्गका सादर्श अपस्थित किया जिससेm गया है। दूसरों दोषोंकी पर्दादारी करना सम्यग्दृष्टिका
___"प्रेम सदा बडियो करै, यों शशिकला सुवेष । कतम्य बन जाता है, इसबिए संसारके भाकुलित प्राणियों
पै पूनो वामें नहीं, ताते कबहुं न सेष ॥ पर एहसानका बोझ कुछ ऐसा हो जाता है कि वह प्राकुजित मानव स्वयं पथभ्रष्ट होनेसे ही नहीं बचना किन्तु
इम प्रेमके अगाध तथा अथाह सागरमें विरले अपने भाइयोंके वारसत्यको देखकर न्यायमार्गका भाचरण
पुरुष ही डूबना जानते हैं। 'पारमा भूतिका आनन्द वह बड़े धैर्य और उत्साहसे करने लगता है। सत्यपर उसकी
ही जाने--जिसने उसे पाया है, 'लुत्फ मय सूने पीही श्रद्धा अमावासहीनोमाती। वह परीक्षाप्रधानी बन नही जाहिद' वाली बात।। या मानन्द गूगेके भाता है। 'मैं' का मिथ्या अभिमान या जाति, कुल,
तरहहै:विद्या, रूप मादिका गर्व और धमगर उसे फिरने महीं
"ज्यों गंगो मीठोफसको रस अन्तरगत ही भाव। पाता और इस तरह अनायास ही पैदा हो जाता। बीर
मन बानीको अगम भगोचर, सो जानै जो पावै॥" भगवानने जैन दर्शनका निचोद सुमधुर तथा अमृतमय इसी सीढीपर पदकर उसे अनुभव होने लगता' प्राध्यात्मको बतलाया।
परमात्मामें और उसमें एकदम साम्य है । इस र "सम्यगदर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः" सम्बन्धको वा परम उपादेय देखने लगता
". प्रात्माको इस सूत्र में बतलाया है कि योग्य अर्थात् जैसी वस्तु इसी मारमप्रतीति वा भारमबोधके पानी है उसे वैसा ही देखना, वैसा ही जानना और उसी अनु- ज्ञान या सम्यग्ज्ञान होता। इसीक सार वर्तन करना ही मोक्षका सचा रास्ता । सम्यग्दर्शन जाता है। इसके होते ही पाप-पर, सीमा वास्तवमें पास्माका स्वभाव है--निजी सम्पत्ति है। इस 1--संशयका यही कार गुआमा-स्वभावकी अपेक्षा
--संशयको यहाँ कोई गुआइश.. खजानेकी कुछजी-सीके पास है । इसे दूलनेकी भाव. चेतनका उत्तर और दक्षिण
। उनका भाव. चतनका उत्तर भार दापण 'ज्ञान, अनन्त वीर्यमय श्यकता नहीं। दुनियाकी खाक भी यदि हम छ.नते फिरें पाताबका सा अन्तर से
दिन तो भी में भामदर्शन या मारमबोध हमारे ही अन्दर अन्तरंग शदिका कारण ...
किन्तु अनादिकानसे कर्म
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किरण १]
भगवान महावीर और उनका सन्देश
श्रीने निम्न सबैयामें ज्ञानके स्वरूप और उपयोगिताको निरुपाची मातम समाधिमें विर जे ताते, अच्छी तरह मतकाया है:
कहिये प्रगट पूरण परमहंस है।" "ज्ञान उदै जिनके घट अन्तर,
कविवर कैमा प्रका वर्णन किया है। शानकी पति, ज्योति जगी मति होत न मैली, भारमदर्शन तथा स्वानुमवके कारण इसकी सारी क्रियाएँ बाहिद रष्टि मिटी जिन्हके हिय,
सामगुद्ध तथा पारमाभिरुचिको लिए हुए होती हैं। वहां प्रातमध्यान कला विधि फैली, राग, द्वेष, संशय, संकल्प-विकल्प भादिको जगह नहीं। जे मद चेतन भेद बखे लो,
वह पूर्णताकी भोर बढ़ा रखा जाता है। अपने बिमब विवेक लिये परखे गुण थैली, और उत्कृष्ट शुक्खध्यान द्वारा वह पारमा परम पवित्र, परम ते अगमें परमारथ जानि ,
शुद्ध होकर अत्यन्त उत्कृष्ट अवस्था अर्थात् मुक्त अवस्थाको गहे रुचि मानि अध्यातम सैनी।" पहुंच जाता। ध्याता ध्यान और ध्येबमें तथा सारांश रादात्मानुभव ही सच्चा सुका। यही उसे सम्यग् दशन, ज्ञान और चारित्ररूपी रत्नत्रयमें अपने विवेक होता है अपनी अद्वितीय व असामान्य असीम शक्ति
भापको मिल पाता है। अब यह हमेशाके लिए कर्म की पहचान होती है। अब वैभाविक या मोह..क्रोध,
मझ से छूटने के कारण अपने स्वाभाविक तथा स्वाधीन कषाय, दुख रोग, क्लेश भादिके वशीभूत नहीं होता।
वीतराग पदमें तन्मय होजाता हैवह भव परमार्थको समझने लगता है। अब ऐन्द्रियक
"जानी मेरे बाबकी जित देखू तित बाब, सुखोंको वह दुःखोंका कारण समझता है। इससे उसकी
बानी देखन मैं गई मैं भी हो गई लाख ॥" तृप्ति नहीं होती। वह तो अखण्ड अविनाशी तथा स्वाधीन
क्या पते की बात कही गई है! कितना मधुर संगीत सुखकोबी अपना पैदायशी-बकि अनादि एक सममता छेदा है !! कैसा सुख और धर्मका वैज्ञानिक रूप है! है। उसकी मांखोंमें दिग्य तेज मनकने बगता । स्वा.
भगवान वीरने अपने मनम उपदेश द्वारा बतला रमानुभवके कारण अनायास ही कोकी निर्जरा होने लगती दिया कि धर्म ददनेसे नहीं मिलता वा मारमगत है। है। उसकी प्रत्येक क्रिया भव उसे उत्तरोत्तर प्रतिक्षण स्वा. भीतरकी भावा । उसी स्वाभाविक अन्तरध्वनिको स्मानुभव और चित्तशुदिकी तरफ अग्रसर करती रहती है। सुनना, उसीके अनुकूल वर्तना, उसीके होलाना, उसीमें अब भारमदर्शन और माम-ज्ञान हो जाता है, तो स्वाभा- अपने आपको मिटा देना, इसी बेखुदीको रत्नत्रय रूप धर्म विक तौरपर ही मारमविकासकी भोर वह सक्रिय हो जाता कहा गया है। यही भगवान महावीरका सन्देश है। है।इसीका नाम सच्चा चारित्र या सम्यगचारित्र है। इसी
इसी सन्देशको विश्वके कोने-कोनेमें पहुंचानेकी भावमार्गपर चमते रहनेसे अनन्त गुणी निर्जरा होने लगती श्यकता । खेद है कि भाज बीरानुयायी उदारताको और वह सिद्धि के सोपानपर द्रुतगतिसे चदना प्रारम्भ कर
छोड़कर संकीर्णताको अपनाये हुए हैं । धर्मको अपनी देता है:--
मीरास समझने लगे हैं और वह भी उसको विकृत करके। "जहाँ शुद्ध जानकी कता उद्योग दीसे,
माज प्रथहीन, खोखली और बारम्बरपूर्ण रीतियोंको तहाँ शुद्धता प्रमाण शुद्धचारित्रको अंश है, अपनाकर-वह अपना भारमकल्याण चाहते हैं । जिस ता कारण ज्ञानी सब जाने ज्ञेव वस्तु मर्म,
धर्मने सारे विश्वको शान्तिका पाठ पढ़ाया-उसके अनुवैराग्यवितास धर्म काको सरवंश है,
यायी कषायोंके वशीभूत होकर शान्तिपर कुठाराघात करने राग, द्वेष मोहकी दशासों मिड रहे पाते,
से मरा भी नहीं हिचकिचाते ! इसके विशाब साहित्यको सर्वथा त्रिकाल कर्मजातसों विध्वंस है,
प्रकाशमें जाकर धमका मचा प्रचार करना भावश्यक है।
(पूर्वार्ध)
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आत्मानुशासनका एक संदिग्ध पद्य
( लेम्बक-श्रीलक्ष्मीनारायण जैन ) .
जल्ला
एक दिन श्रीगुणभद्राचार्य विचित श्रात्मा- अन्तर नही पड़ता और 'ऐगवणके दोनों शब्द भी एक ही नुशासन' को, जिसके भाषाट काकार पं. अथके वाचक है। ऐसी अवस्थामें साधारण पाठान्नगेंके वंशीधरजी शास्त्र और प्रकाशक जेनग्रंथ होते हुये भी यह कहनेका साहस नहीं होता कि ये दोनों रत्नाकर कार्यालय-बंबई" हैं, स्वाध्याय कर श्लोक दोनों महाकवियोंकी पृथक २ रचनायें हैं। अब
रहा था उसमें श्लोक नं. ३२ निम्नप्रकार है- देवना केवल यह है कि इस श्लोकका क्रम स्थान, रचनानेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वन सुराः सैनिकाः, शैली, और पौगणिक मान्यताप्रोको देखते हुये उक्त स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः खलु हरररावणो वारयाः। दोनों महाकवियोमें से यह किसकी कृति होना अधिक संभव इत्यामयबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्नः परैः संगरे, हे । श्रीमतहारके नीतिशतकमें यह श्लोक "देवप्रशंसा" तद् व्यक्तं ननु देवमेव शरणं धिम्पिग वृथा पौरुषम् ॥ शपिक में आया है, और उससे शीर्षककी अक्षरश: वृष्टि
इस श्लोकके पढ़नेपर इसकी मान्यताएँ जैनागमान- होता है, उसकी पौराणिक मान्यतायें भी उन्हींके अनुसार हैं सार प्रतीत नहीं हुई। यद्यपि विदान टोकाकारने दम श्लोकके भार रचना-शेली भी उनकी रचनाशेल के सामान ही है. नीचे एक लम्बा फुटनोट देकर इसे जैन मान्यताशोक श्रतएव यह अधिक संभव है कि इस श्लोकके कर्ता श्री अनुसार ही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु इस फुट
भर्तृहरि ही हों। विरुध 'श्रात्मानुशाशन' म जहां यह श्लोक नोटके पढ़नेसे ऐसा प्रतीत होता है कि शायद स्वयं टीकाकार
अाया है वहां प्रथम तो 'देव' विषयक कोई चर्चा ही नहीं को भी मेरे ह। समान संदेह हुआ हो, और उस समय इम
है, दूसरे बसके श्रागे पीछेके श्लोकोम इसका कोई सम्बन्ध श्लोकको प्रक्षिप्त सिद्ध करनेका कोई साधन न पाकर,
नही बैठता-न इसकी पौराणिक मान्यताएँ दी जैन श्रागम के. पाठकोंके भ्रम निवारणार्थ ही उनको यह फुटनोट देना पड़ा
श्रनुमा है, और यदि उस लोक को वहां से हटा दिया जावे ६।। दुमरे, यह भी स्मरण हुश्रा कि यह श्लोक पहिले भी
त। भी मूल ग्रन्यके विषय-वर्णनमें कोई अन्तर नहीं पाता कहीं एक नहीं अनेक बार पढ़ा जाचुका है। अतएव इस
अन: इस श्लोक के 'श्रात्मानुशासन' के कर्ता की कृति होने में शंका-समाधान के लिये खोज की तो यह श्लोक श्रीभतृहरि -
भारी संदेह है। विशेष करके जबकि 'श्रात्मानुशासन' में कृत शतकत्रय (श्री बैंकटेश्वर प्रेम-बम्बई) के नीतिशतकम
ऐसे ही विषयका प्रतिपादन करनेवाला जैन मान्यताश्रोसे "देवप्रशंसा" शीर्षक के नीचे नं. ८६ पर मिल गया।
श्रोतप्रोत सुन्दर व भावपूर्ण श्लोक नं० ११६ मौजूद है, जिसका पाठ इस प्रकार है
जिसका रू। इस प्रकार हैनेता यस्य बृहस्पति: प्रहरर्ण वज्र सुराः सैनिकाः, पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः फिकर हव , स्वों दुर्गमनुग्रहः किल हरेरावतो वारणः । स्वयं पृष्ठा सृष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः । इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलिभिभग्नः परैः संगरे, शुधित्वा षण्मासान् स किन पुरुरप्याह जगतीतदम्यक्तं वरमेव देवशरणं विग्धिवृथा पौरुषम् ॥ महो केनाप्यस्मिन् विलसितमलंध्यं हतविधेः ।।११६॥
इन दोनों श्लोकोंके मूलपाठकी तुलना करने पर इनमें ऐसी अवस्थामें मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई मौलिक भेद दिखलाई नहीं देता, जो साधारण पाठ किमी लेखक महोदयकी कृगका ही फल है, अन्यथा द नजर अाते है उनसे मूल श्लोकोके श्राशयमें कोई 'अमानुशासन' जैसो पाण्डित्यपूर्ण कृतिमें उक्त श्लोक के
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किरण १]
स्व० बा० सूरजभानजी वकील
प्रक्षिप्त ह'नेमे उसका कोई गौरव नहीं बढ़ सकता !
और पृट नं. १६३ पर फुटनोट में भतार जीके एक श्लोक यहाँ यह निवेदन कर देना भी अनुचित नहीं होगा का दित किया है । इससे यह ना स्पष्ट है कि अनुवादक कि 'श्रात्मानुशासन' के बिदान टीकाकरने अपनी प्रस्तावना मादयने अनुवाद में पूर्व शतकत्रयको भी अवश्य देखा में ये शब्द भी निखे है कि-"श्राज कल के मंहत दंगा, किन्तु श्लोक नं. ३२ की बाबत उन्होंने अपनी विद्वानों में गापि मनहरिकी कविताका यहत श्रादर्श है। प्रस्तावना में कुछ भी लिखनेका कष्ट नह। उटाया, श्राश्चर्य हे ! परन्तु गुणभद्रम्वामीकी इस कवितामें भी कुछ कमी नहीं है, विटुजन इम पद्मपर गहरा विचार कर यथेष्ट प्रकाश बल्कि कितने ही अंशोमें यह उससे भी बढ़ चढ़ कर है।" डालने की कृपा करेंगे। -
स्व० बाव सूरजभानजी वकील! "जिसपर सबकी निगाह थी न रहा। मामलोमें युक्तिप्रमाण की अपेक्षा श्रागम-प्रमाणको अधिक
कौममें एक चिराग था न रहा ।।" श्रमर कारक समझते थे। बाबू मा० का १६.६४-५ के शेज स्वर्गवास दोजाना एक बार अष्टद्रव्यपूजाके बारे में मैंने अपने विचार पटकर अोवाके अागे अँधेगछा गया ।
उन्हें दर्शाए श्रीर श्राग्रह किया कि वे इस विषय पर कुछ बाबू सा० के दर्शन में सिर्फ एक बार कर सका। प्रकाश डालें । मेरे श्राग्रहका जो उन्होंने उत्तर दिया वह मन् १६२५ में स्व. बा. सूरजमल जी जे.के. प्राध्यपत्र पत्र ज्योका त्यो नीचे अंकित करता हूँ -- चि. नेमीचंद के अन्तर्जातीय विवाह के समय विजयगढमें "मैं श्रापम पूरी तरह सदमन है कि श्रद्रव्यमे पृजा हम सब मिले थे। बाबू सा० सूरज जैसे बड़े दी हसमुन्न थ। करना नामद्धान्त अनुकूल नहीं है, इसहीम में स्वयं भी
और मिलनमार तो ऐसे थे कि वे वृद्ध होकर भी हम होटो इमके विमल श्रावामा उठाना चाहता है, परन्तु अभीतक के साथ एकमेक होगये थे।
प्रथम शास्त्रीय प्रमाण न मिलने से इसपर कुछ नही लिख मैंने बाबू मा० के प्राय: सभी लेख पढ़े है, गजबके मका है।.......... साफ २ श्रागमप्रमागगक विना नर्क के लेखक थे। उनकी ममझावट सयुक्तिक और कलापृा यौ। श्राधापर हा ऐसे प्रचलित व्यवदारक विरुद लिखना वडव मे कड़वी बात को ऐसे मधुर शब्दोमें रख देते थे कि बिलकुल ही निष्फल इंगा । मैं स्वयं प्रमाग की तलाशम वह फौरन गले उतर जानी । मैंने तो उनकी रचनाको हैं, मिलने पर जरूर लिगा। श्रापको भी जो प्रमाग "शुगर कोटेड कुनैन" की उपमा दे रखी है । वाकई में जेन मिलते रहे, जरूर मेरे पास भेजने की कृपा करते रहे " समाजका दुराग्रहरूपी मलेरिया ज्वर उतारने में उनकी वीर मेयामन्दिर, मरमावा
श्रापका--- रचनाने काफी सफलता पाई है।
ता०२२३६
गृजभान वकील" बाबू मा. अपने लेखोको म्यूब लंबा कर के भं' उममें श्रास्विर न रहा गया और इस विषय पर हम दोनोने विरसता नही श्राने देते थे। काठनमे कठिन विषयको सरल पकने दूसरे की राहन देखते हए अलग २ कर लिया। से मग्न रूप लिख देना उनके लिये मामूली बात थी। मैंने सूरत के दि. जैन ( ता. १५॥१२॥३६ ) के. मुभाग में अभी जो अनेकान्तके दूसरे तीसरे वर्षम उनके लेग्ब "पृजाम विकार और मुधार" नामक लेबलम्बा और बाबू (भाग्य पुरुषार्थ, हम हमारा संमार, गोत्रकर्म, वीर का वैज्ञानिक मा० ने भी जयपुर के जैनबंधु (ता. २०११॥३६) "दमारी धर्म, जैनधर्मकी विशेषता) श्रादि प्रकट हुए हैं वे इस बात के जानिधि" नामक लेख लिवा।। सबूत है।
इस प्रकार मेग बाबू मा० के माथ परिचय था। बाबू बाबू मा० सत्यकी अपेक्षा तथ्यपर अधिक ध्यान देते मा. के निधन से जैन समाजको जो क्षति हुई है उसकी थे। ऐसे मत्य को प्रकट करने में उन्हें ऐतराज रहता था जो पनि महज नहीं है । तथ्यहीन दो-उचित परिणामप्रद न हो, अर्थात् सुधार के
-दौलतराम मित्र इन्दौर
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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
(लेम्बक-प्रो० हीगलाल जैन, एम० ए० )
१-प्रास्ताविक
"अन्तमें यह लिख देना भी उचित समझता हूँ कि
इनिहाम-विषयके लेखोंको किमी प्रोपेगेन्डेका साधन बनाना रा जो "ग्नकरगर श्रावकाचार और प्राप्तमीमांमाका वर्तृव"
इस क्षेत्रको भी दूषित कर देना होगा । कोई लेख लिखा
और तुरन्त ही उपके नामसे सम्मतियां इकट्ठी करने की शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष ७
वृत्ति शोभन नहीं कही जा सकती । ऐसे लेखोंपर विद्वान् किरण ३-४, ५.६ और ७ ८ में
विशेष ऊहापोह करें यही प्रशस्त मार्ग है, और इसीसे क्रमश: प्रकाशित हुआ था। सम पर पं. दरबारीलालजी न्या.
सत्यके निकट पहुंचा जा सकता है । सम्मतियोंके वलपर
ऐतिहामिक प्रश्नोंके निर्णयकी पद्धति कभी कभी मम्मतियाचार्यका "क्या रखकरण्श्राव
दाताओं को भी श्रममझममें डाल देती है, जैसा कि 'कर्मचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है?" शीर्षक द्वितीय लेख
काण्डकी टिपनि लेखपर सम्मति देनेवाले अनेक सम्मतिअनेकान्त वर्ष किरण 1.10 और 1.१२ में प्रकाशित
दाताओंको स्वयं अनुभव हुश्रा होगा।"
यह चेतावनी पंडितजीको १६४२ के मितम्बरहमा है और इसीपर यहां विचार किया जाता है।
अक्टुबरमें अनेकान्त वर्ष ५ किरण -६ पृ. ३२८ द्वारा (१क) इतिहास और पसंदगी
मिल चुकी है। किन्तु जान पड़ता है पंडितजीने उमसे कुछ लेखके आदि में ही पंडितजओने अपने पूर्वलेखके संबंध
सीखा नहीं। यदि पंडितजी विचार कर देखेंगे तो उन्हें
या नहीं। में पसंदगी और गैरपसंदगीका जिक्र किया है और कहा है स्वयं जान पडेगा कि ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक क्षेत्रमें कि कितने ही विद्वानों को यह पसंद आया, पं० सुमेरचंद सम्मतिसंग्रहद्वारा विजय प्राप्त करनेकी प्रवत्ति श्रेयस्कर जी दिवाकरकी पसंदगीका प्रमाणपत्र भी उद्धृत किया है नहीं है। और फिर यह शिकायत की है-"परन्तु प्रो. सा.को (१ख) मेरे विचारक्षेत्रकी मर्यादायह लेख पसंद नहीं आया।" मेरा पंडितजी सविनय इसके धागे पंडितजीने यह शिकायत की है कि मैंने निवेदन है कि इतिहास क्षेत्र में पसंदगी व नापसंदगीका जो उनके नियुकिकार भद्रबाहु और स्वामी ममन्तभद्रसमायानपयोग कितनी ही बात बता सम्बन्धी लेखका पहले उत्तर न देकर स्नकरण्डके कर्तृत्वको पसंपाती है किन्तु वे असत्य सिहोती है। और संबंधी लेखपर लिखनेका यह कारण दिया था कि "यह अनेक ऐसी घटनाएं हुश्रा करती हैं जो स्वयं इतिहासकार विषय हमारी चिन्तनधारा में अधिक निकटवर्ती ।" उसका को अप्रिय होते हुए भी सत्य और तथ्यके नाते उसे बहुत सोचने पर भी वे रहस्य नहीं समझ सके । किन्तु स्वीकार करनी पड़ती हैं। पंडितजीकी इस ऐतिहासिक रहस्य उसमें कुछ भी नहीं है । ऐतिहासिक चच में भी लेखोंपर सम्मतिसंग्रह और वह भी किसीकी पसंदगी और साम्प्रदायिक विक्षोभ उत्पन्न होते देख मैंने स्वयं अपने किसीकी नापसंदगी विषयक प्रवृत्तिको देखकर मुझे पं. ऊपर या नियंत्रण लगा लिया है कि फिलहाल मैं जो महेन्द्र कुमारजी न्यायाचायके वे शब्द याद भाते हैं जो कुछ जैनपत्रोंके लिये लिखूगा वह विषय व प्रमाण की उन्होंने कोठियाजीके ही उनके एक लेख का उत्तर लिखते दृष्टिसे दिगम्बर जैन इतिहास, साहित्य और सिद्धान्त के हुए कह थे और जो इस प्रकार हैं:
मीता ही रहेगा । बस, इसी प्रारमनियंत्रण के कारण
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किरण १]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
नियुक्तिकार भद्रबाहु सम्बन्धी चिन्तन दूर पर जाता है समझा जा सकेगा कि प्रासंगिक और अप्रयानक प्रश्न या
और प्रस्तुत विषय पूर्णत: हक्त सीमाके भीतर प्राजाता है। प्रसंग और गौण बात कोन प्रस्तुत करता है और कौन स्पष्ट इसीलिये पंडितजीने जो अपने लेख में नियुक्तिकार और मास- तथ्यको झमेले में डालता है। मीर्मोमाकारके मतैक्यके सम्बन्ध में उल्लेख दिये हैं (घ) मान्यताका ग्रहण और परित्याग कर कहा जाता है ?उनपर भी फिलहाल मैं कुछ नहीं लिखूगा । किन्तु पडित जीने मागे चलकर पुन: उसी बातपर जोर यदि वात विवेचन में पंडितमी लेखक्रमके ही पक्षपाती हैं दिया कि चकि मैंने एक जगह स्वामी ममन्तभद्रकृत तो उन्हें यह स्वयं अपने लेखों में चरिताथ करना उचित
रत्नकरगर श्रावकाचारका उल्लेख किया। अतएव पहले था। मैं पंडितजीकी ही न्यायसरायके अनुसार उनस।
मेरी मान्यता थी कि प्राप्तमीमांसाकार और सनक रगडकार पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने मेरे जिस 'जैन इतिहासका एक व्यकिथे और अब मैंने वह मान्यता छोर दी है, एक विलुप्त अध्याय' शीर्षक लेखके आधारसे लिम्वना इत्यादि किन्तु मैं न्यायाचार्य जीसे पुनः कहना चाहता है प्रारम्भ किया है उसीके क्रमसे क्यों वे स्वयं नहीं चलते कि किमी ग्रंथ और उसके कर्ताका उमक प्रचलित नामांस और जो बातें प्रमाण युक्त एवं ठीक हैं उन्हें स्वीकार करके उल्लसमान करना लेखककी उस ग्रंथके कतृत्वसम्बन्धी आगे क्यों नहीं बढ़ते ? म्वयं तो कहीं इधर कहीं न धरकी किमी मान्यताका द्योतक नहीं है । यदि में आज भी रान बास ले लेकर लेख लिखना और फिर दमरोंपे क्रमभगकी
कर राहश्रावकाचारका उल्लेख करूं तो मुझे वह स्वामी शिकायत करना किसी तरह भी उचित नहीं है।
समन्तभद्रकृत ही कहना पडेगा, क्योंकि वही नाम प्रकाशित (ग) अप्रयोजक प्रश्न कौन उठाता है?
प्रतियोर छपा है। यदि मैं उसे योगीन्द्र-कृत कहकर
उद्धत करतो कितने पाठक उसे मममेंगे? हम प्रतिदिन तीमरी शिकायत पंरितजीने मेरी रीति-नीतिक विषय
बीसों ग्रंथोंका उल्लेख उनके प्रकाशित नामों व कांकि में यह की है कि "वे मुग्य विषयको टालने के लिये कुछ
निदेशपूर्वक करते हैं। उनमें से यदि कभी किमी ग्रंथ और अप्रोजक प्रश्न या प्रसंग अथवा गौण बातें प्रस्नुन कर देते
उसक कापर विशेष अध्ययन करके किमी खास निर्णय हैं और स्पष्ट तथ्यको झमेले में डाल देते हैं।" इस बातको
पर पहुंचे तो किसी विवेकी समालोचकका यह कर्तत्य नहीं पुष्ट एवं सत्य सिद्ध करनेके लिये उन्होंने मेरी कलकत्साकी
है कि वह उसपर अपनी पूर्व मान्यता छौबनेका नौछन मौखिक चर्चाका उल्लेख किया है और तसंसंबंधी मेरे लिये
जगाव । मान्यता तो सभी होती है जब किसी बातको गये विवरणको प्राश्चर्यजनक वक्तव्य' कहा है, तथा मेरी
मनन पूर्वक प्रहण और स्थापित किया जावे । किन्तु जहां 'वीतरागकथामें अन्यथा प्रवृत्ति' को स्थान देने व सत्यता
पूर्वमें ऐसी मान्यता प्रकट ही नहीं की गई वहां उसे को उदारतापूर्वक नहीं अपनाने के श्राक्षेप किये हैं। इस
छोडने प्रादिका जान्छन लगाना नो निमूल और निराधार प्रकार जितनी कुत्सित वृत्तियों एक माहियिक में हो सकती
श्राक्षेप ही कहलायगा, जिसका प्रमाण क्षेत्रमें कोई मूल्य हैं उन सबका मुझपर विना प्रमाण दिये ही भारोपण कर
नहीं। के यदि पंडितजीमें कुछ भी न्यायशीलता शेष है तो उनका यह कर्तव्य हो जाता है कि वे प्रस्तुत विषय तथा कलकत्ता
(१ ) केवल के मोह जन्य वृत्तियों का प्रभावकी तत्त्वचर्चा-सम्बन्धी उन बातोंको मेरे भौर संपार के
न्यायाचार्य जीने जो विना किमी विधायक केवलीमें सम्मुख विगतवार पेश करें जिनके आधारपर उन्होंने मुझ राग द्वेष श्रादि मोहजन्य प्रवृत्तियोंका भी अभाव सिद्ध करने के पर ये घोर अपराध पारोपित किये हैं। यदि उन्होंने उन लिये अनावश्यक उल्लेख प्रस्तुत किये थे उसपर मैंने अपने सब बातोंको स्पष्टतासे प्रस्तुत नहीं किया तो समझा जायगा पूर्व लेख में लिखा था कि उनकी बिल्कुल श्रावश्यकता नहीं कि वे केवल झठे अपराध लगा कर मुझे पाठकोंकी नजरोंमें थी, क्योंकि केवबीमें चार घातिया कर्माका नाश होचुका है. गिराना चाहते हैं। किन्तु उन बातोंके सामने मानेसे स्पष्टत: अतएव उन कर्मोंमें उत्पन्न दोषोंका केवल्ली में प्रभाव
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
मानने में कहीं कोई मतभेद नहीं है। रनकर रहके छठवें इस प्रकार के कथन में क्या रहस्य है ?” किन्तु मेरे उपर्युक्त लोकमें उल्लिखित दोषों में इस प्रकार के पांच दोष है- कथनमें ऐसी कौनमी अस्पष्ट बात है जिसमें उन्हें रहस्यका भय, रूपय, राग, द्वेष और मोह। अतएव इन दोषोंक सन्देह हो गया ? तथापि मैं अपनी बातको और भी विशकंवली में प्रभावके सम्बन्धक उल्लेख प्रस्तुत करना अना. दतामे रख दनका प्रयग्न करता हूँ। जो ग्रन्थ कार अपने वश्यक है।" इस पर पंडितजीने जिम्बा है- मैंने स्वामी एक ग्रंथ में प्राप्तके कुछ सुम्पष्ट लक्षण स्थापित करे और ममन्तभद्र की ही प्रमिद्ध रचना म्वयंभूमीवपरमं तृधादि फिर श्राप्तमीमांसा पर ही एक पूरा स्वतंत्र ग्रंथ लिख उस दोषों और उनके केवली में प्रभावको सिद्ध करन वाले से सभावत: यह अपेक्षा की जाती है कि वह उस ग्रंथमें अनेक उन्लेम्बोंको उपस्थित किया था। प्रसन्नताकी बात है नहीं लक्षणोंकी व्यवस्थित मीमामा करेगा। किन्नु यदि कि उनमें राग, द्वेष, मोहक माय भय और ममय (म्मय) वह पाने उम ग्रंथमें उन लक्ष गांका विचार तो दूर के अभावको भी कंवली में प्रो० मा० ने मान लिया है और रहा, किन्तु नाम भी न लेवे और अन्य ही प्रकारमे प्राप्तका इस तरह उन्होंने नारगड में एक 15 दोपॉमम पाँच मरूप निर्णय करे तो उसके सम्बन्ध में निम्न तीन विकल्प दापोंके अभावको तो स्पष्टतः स्वीकार कर लिया है।" उत्पन्न होंगेआगे चल कर पंडित जीन फिर कहा है कि उनकरगढमें (1) या तो उस मनको वह इतना करचा सममता कह गये उन १E दायाममें श्राप्तमें राग-द्वेषादि १२ दोषा था कि स्वयं उमे अपनी ही 'मीमांसा' की कमोटी पर का प्रभाव स्वीकार करने में श्रापको कोई श्रापत्ति नहीं करने का साहस नहीं कर सकता था। अतएव वह उसे ही" म प्रकार बार बार लिम्व कर पंडित जी यह घोपित वहां जानवझ कर अंधरेमें डाले रहा। करना चाहते हैं कि मानो उन. दापोंका कनजीमें श्रभाव
(२) अथवा, उसका अपने पूर्व प्रथम स्थापित वह में पहले नहीं मानता था, किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत किये
मत परिवर्तित हो गया था। गये उल्लेखों परम मुझे मानना पड़ा है। मैं पंडितजाम
(३) अथवा वह मत मीमांया ग्रन्थकारका है ही नहीं पूछताएं कि उन बारह दापोंका केवलाम श्रभाव मानने में
माननम और फलतः दोनों ग्रंथ दोभिन्न भिन्न लेखकाकी कृतियां हैं। मुझे भापति थी कब? मेरे ऊपर उद्धत लेखांशम मुस्पट
अब यदि कहीं कोई रहस्य है तो वह मेरे कथनमें है कि मैंने तो उसमन्बन्धमे गिडतजीके उल्लेख में अवि.
नहीं, किन्तु इस उपयुक्त परिस्थिति में है और न्यायाचार्य बैंक और अनावश्यकता ही सूचना की थी। जिस कर्म- जीको स्वयं उस रहस्यका विधिवत् उद्घाटन करना चाहिये। सिद्धान्तकी वर्णमालाका भी ज्ञान है वह भी तराग.
धादि वंदनाभोंके कारणकी शोध केवलीमें राग-द्वेषादि प्रवृत्तियों की श्रभावविद्धि के लिये किमी स्तोत्रमैप तामम्बन्धी विशेषणों का संग्रह करना कमी (२क) क्षुधादि वेदनायें मोहनीय जन्य नहीं मानी गईश्रावश्यक नहीं समझेगा।
पंडितजीने लिखा है कि प्राप्तमीमांसा श्राप्तके राग.
देवादि दोष और प्रावरणका प्रभाव बनला देनेपे ही (११) आनमीमांसा और रत्नकर गडके बीच का रहस्य
तजन्य क्षुधादि प्रवृत्तियोंका-लोकमाधारण दोषोंका. मैंने अपने पूर्व लेखमें कहा था कि "यथार्थत: यदि अभाव सुतरां सिद्ध हो जाता है।" आगे चल कर उन्होंने प्राप्तमीमांसाकारको प्राप्तमें उन प्रवृत्तियोंका प्रभाव मानना फिर लिखा है-'तुषादि तुच्छ प्रवृत्तियोंके प्रभावकी अभीष्ट था तो उसके प्रतिपादन के लिये सबसे उपयोगी मिद्धि तो श्राप्तमें मोहका अभाव हो जानेसे अस्पष्टता एवं स्थल वही ग्रंथ था जहां उन्होंने श्राप्तके ही म्वरूपकी श्रानुषंगिक रूपमें स्वत: हो जाती है।" इन कथनों परसे मीमांसा की है। उन्हें वहां ही इसकी मार्थकता भी सिद्ध पंडितजीका यह मत प्रकट होता है कि क्षुधादि वेदनायें करना भी। किन्तु यह बात नहीं पाई जाती।" परन्तु सर्वथा मोहनीय कर्मोपन्न है। किन्तु जहाँ तक मैं कर्मः न्यायाचार्यजीको समझमें नहीं पाता कि प्रो. सा. के सिद्धान्तका अध्ययन कर पाया हूँ वहां तक आधादि वेद
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किरण १
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांमाका एक कतत्व अभी तक सिद्ध नहीं
नात्रों को मोहनीय कर्म जन्य कहीं भी नहीं माना गया। यहां पदित जीने नधादि प्रवृत्तियों का जनक कारण तो तत्वार्थमृत्रकारने परीघहाकी व्यवस्था करते हुए दर्शनमाह वंदनीय स्वीकार कर लिया, किन्तु यह विशेषता रवली कि से श्रदर्शन, चारित्रमाहम नाम्न्यादि मात तथा वदनीये इस कार्य मोहनीय उसका सहायक होता है और वह भी शपाः' मत्रके द्वारा पिापामादि ग्यारह परीपदाकी उत्पत्ति ऐमा महायक कि उसके बिना वंदनीय उन प्रवृनियाको वदनीयकर्मम बतलाई है। उन सूत्र पर टीका करते हुए पैदा करनमें बंधा असमर्थ है। मन जो प्रमाग ऊपर सर्वार्थ सिन्ति कार लिखते हैं
प्रस्तुत किये हैं उनमें कहीं भी क्षपिपामादि वेदनाश्री व उत्ताः एकादश परीपदाः। तेभ्योन्ये शेपा वेद- सब-वके अनुभवों के लिये मानाय कर्मकी यह अनिवार्य नीये मान भवन्तानि वामशेषः। के पुनम्त? नाम- सहायकता स्वीकार नहीं की गई। और की मी नहीं जा
पामा-शीनोप्या - दंशमशक-च या शय्या-वध-गग-तगा- सकती क्या कि यदि वदनीय कर्म अपनी फलदायिनी , पश-मलपरीपहाः।
(त० म०६, १६) शनिमें स्वतंत्र नहाकर मोहनीय कर्मक अधीन होता तो धवनाकार वारपेन स्वामीने कहा
उस एक सनत्र कर्म न मान कर नापायांक समान जोवम्म मह दक्वारहवांगायधगो पोग्ग- मोहनीयक ही एक उपभेद माना जाता । मोहमीयक मबंधा लावधी मिच्छन दिपन यनगण कम्मजयपग्गिादो
वशीभून होने पर तो एमका स्वतंत्र मना अधिकार होने जीवनमवेदी वेदगाायमिद नगगग दे । नम्मत्थिनं कुदो
मेअभावरूप हो जाती है। अथवा, यदि मोर नायक माय व गम्मद ? मुम्ब-दु:खक जगगाहारगुववनीदी।
उमका निरन्तर पाचयं अपचन होता ना ज्ञान और (पद खं०१,६-१, ७)
दर्शन पावर गाय काँक ममान उनके उदय और क्षयको अमादकख, तं वेदावेद भजावदिनि असादा व्यवस्था एक साथ की गई । किन्तु धवलकारने ना बंदगोय। . . . "जं कि पि दवावं गाम त आमादा
•ा है कि सुख-दुख अनुभवन कराने की शकि
बदनीयको छोर और किम कर्मम ही नहीं। इस विषय बंदगायादोहोदि, तम्म जीवनम्वनाभावा ।...
का बहुत कुछ ताधिक विवेचन मैं अपने खाम कर गग च महन्दबह उदवसंपादयमग कम्मत्यि नि अणुवलंभादो। जस्मोदएगा जीवो मुहं व दुग्वं व
चुका है। पूर्व लेम्बमें मैंने पंरिनजीमे अपने क्या तम्बार्थ दविहमगाभवइ । तम्साद यक्वण्गा द मह-दुकम्व
मृत्रकार और उनके टीकाकाका अभिप्राय एक ही??
शीर्षक लेखको देखने की प्रेरणा भी की थी । परन्तु जान विञ्जिओ होइ। (पट खं०१, ६-१, ५८) हन प्रमाणोमि सुस्प है कि सभा तृषा भादि वेदनामी
पसतारे रिनाने सम और कोई ध्यान देने की कृपा
मदी की नहींनी व अपना उन प्रकार मन प्रकट न करने, एवं समस्त सुग्व-दुग्य रूप अनुभवोंका उत्पादक चंदनीय
या मेरी दी हुई नककि निगकरया पूर्वक करने । किन्तु कम है, अन्य कोई काम नहीं। यह कहीं मेरे देखने में नहीं
उन्होंने चैमा नहीं किया। अनाव पाने में यह अपने सम श्राया कि धादि वेदनीय मोहनीयकर्मजन्य है।
पर्वलम्ब कवनम्न विषयोपयोगी शहन करना - (• ग्व। अधादि वंदनाय मोहनीय महकन वेदनीय जन्य भी नहीं मिद होनी--
यदि हम कमसिद्धान्तानुमार मोहन और वनय शायद अपने कथनकी यह चाईम न्यायालायजी कमांक पर विचार करे ना जाना कि वनी। की दपमें आगई थी. इमाम उन्होंने फिर भागे एल कर,
कमंकी स्थिति और अनुभाग बाहनीय कनियक किन्न बिना अपने पूर्व कथनाम कोई सुधार पेश किय,
श्राधीन है। जब मोहनीय कमका उदय मन्द मन्नान कहा है
लगता है, न य उम्मीक अनुसार वेदनीय का यतिबध नधादि प्रवृनियां बम्न न: मोहनीय महकृत वेदनीय भी उनगता कम होना जाना र जमरामापराय जन्य है. अतएव मोहन यक बिना वली में बदनीय उन गगग ग्यान के अन्त में मोहक नया मया प्रभाव हो जाना प्रवृनियोंका पैदा करने में सवथा असमर्थ है।"
नब वेदनीयका म्यनिबन्धी समाप्त हो जाता है।
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३०
अनेकान्त
यहाँ तक तो वेदनीय कर्म मोहनीयके अधीन है । किन्तु बँधे हुए कर्मकी सत्ता और उसके उदयमें वंदनीय कर्म मोहनीयसे सर्वधा स्वतंत्र है। मोहनीयका उदद्यामार ही नहीं, उसकी मत्त मात्र के क्षय होजानेपर भी वेदनीयक बंधे हुए कमी सत्ता जीवन बनी ही रहती है और वह बराबर उदयमें श्राती रहती है एवं उसकी तीन व मन्दता उसीके अपने अनुभागदियपर अवलंबित रहती है। अब मोहनीय कर्मका रहता है, तब उसके योगम वेदनांयोदय साथ राग द्वेष परिणतिका मिश्रय दिखाई देगा मोहोदवर्क अभावमें राग-द्वेष परिया निकामी प्रभाव हो जायगा। पर उससे वेदनीयोदयजन्य शुद्ध वेदना कम नहीं होती वो बहुत की बात है द कर्मका उदय जितनी मात्रामें मन्द होगा उतनी ही मात्रा में
दिवेदनायें मन्द होती जायेंगी किन्तु वेदनाका सर्वथा प्रभाव तो तभी माना जा सकता है जब उस कर्मक उदयका सवधा प्रभाव हो जाय ।"
मेरे इस लेखको थर स्पष्ट निर्देश किये जानेपर भी न्यायाचार्यजीने उसपर कोई ध्यान न देकर अपने मतको पुष्टिम गोम्मटमार वर्मा की गाथा पेश की है जिसमें वंदनीय मदन पूर्व पाकिमोंके बीच नामीकिये जाने यहाका बतलाई गई है कि 'मोहनीयक बलसे वेदनीय भी घातिकर्मके समान जीवका घात करता है उसका पाठ मोहनीयमेवं धानिया इसमें कमोंमें रखा गया है। इस पर भी में अपने विचार अपने 'केवल भगवान के खप्यामादि वेदना' शीर्षक ले में प्रकट कर चुका है और वहीं प्रसंगोपयोगी अंश यहां भ्रंश उदन कर देता है
[ वर्ष =
ज्ञानादि गुणोंका घात नहीं करता। यह बात एक उदाहरण से और भी स्पष्ट हो जायगी। जब वैद्य कहता है कि यदि वरके साथ कफ और पीकी पीड़ा भी हुई वह अवर त्रिदोषात्मक होनेसे घातक हो सकता है, तो इसका क्या यह अभिप्राय होगा कि यदि कफ और पसल्नीकी पीड़ा नहीं है तो ज्वर अपना वेदनाकारी किन्तु श्रघातक तापरूप फल देना भी छोड़ देता है ? बचाव वेदनीय कर्म अपनी फलदादिनी शनि में अन्य अघातिया कर्मोंके समान सर्वा स्वतंत्र है। यदि उसकी फलदायिनी शक्ति मोहनीयके अधीन होती तो या तो वह मोहनीयकी ही उत्तर प्रकृतियों में गिनाया जाता जैसे रति-अरति आदि नोकषाय । या स्वतंत्र कर्म मानकर भी मोहनीयके साथ उसके उदय और
होनेकी व्यवस्था करदी जाती जैसी ज्ञानावरणीय के साथ दर्शनावरणीयकी पाई जाती है परन्तु कर्मान्त के शास्त्रजको पैसा दृष्ट नहीं है, और वे मोहनीयको वेदनीयका सहचारी न मानकर उसका विशेषी ही बतलाते है। उदाहरणार्थ, सासूत्र कीटकामे कमक नामनिर्देश कमको साता बताते हुए राजयातिककार सार्थकता ज्ञानावरण और दर्शनावरणका साहचर्य प्रकट करके कहते है
"कर्मकाण्डकी गाथा १६ में जो यह कहा गया है कि विनीय कर्म मोहनी के बल धानिकर्मके समान जीवका धान करता है, वह बिलकुल ठीक है कि वेदमीयजस्य वेदना साथ जब तक मोड राग द्वेषरूपी परिणाम भी रहते हैं तब तक जानादि गुणोंका पूर्ण विकास नहीं हो सकता। पर मोहनीयके अभाव में वेदनीय अपनी शुद्ध श्रघातिया प्रकृतिपर भा जाता है जिससे अपने उदयानुसार दुख-दुखरूप वेदना उत्पन्न करते हुए वह जीवक केवल
* तदनन्तरं वेदनावचनं, तदव्यभिचारात ||२०|| तदनन्तरं वेदना कुतः ? सदव्यभिचारान ज्ञान दर्शनाव्यभिचारिणी हि वेदना पटादिष्वप्रवृत्तेः । ततो मोहाऽभिधानं द्विरोधान ||२१|| तत्पश्चान सोही सिधीयते कुतः तद्विगंधा तेषां ज्ञान-दर्शनसुख-दुःखानां विरोधात मूढी हिन जानासि न । पति, न च सुख-दुःखं वेदयते ।"
,
यहां राजवार्तिककारने बतला दिया है कि ज्ञानावर और दर्शनावरण कर्मके पश्चन जो वेदनांचा उल्लेख किया गया है वह इस कारण कि वेदना ज्ञान और दर्शन की व्यभिचारिणी है जो ज्ञान और दर्शन पाया जायगा वहीं वंदना भी हो सकती है और जहां उन दोनों का अभाव है, जैसे घटादिमें, वहां वेदनाका भी श्रभाव पाया जायगा | वेदनीयके पश्चात जो मोहनीयका निर्देश किया गया है उसकी सार्थकता यह है कि ज्ञान, दर्शन,
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किरण १ ]
रत्नकरण्ड और आप्रमीमांमाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
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सुख और दुःखकी वेदनास मोहका विरोध । मुढ जीव कागकी प्राप्त में धादिक अभावकी मान्यता मिद्ध करनेके न जानता है, न देखताभीरन सुख-दु:ग्वका वंदन करता। लिये पंडितजीने प्राप्तमामांसाकी प्रथम कारिका उद्धन की।
इसी प्रकार श्लोकवातिककार स्वयं विद्यानन्द जीने और लिखा है किभा स्वीकार किया है कि
तदनन्तरं वदनीयवचनं. तमव्यभिचारान। नतो (घ) क्या सुधादिका अभाव मरगी देवों में भी माहाभिधानं, तद्विगंधाना'
माना जा मकना है? राजवानिक और श्लोकवानिक इस विशद स्पष्टीकरण "मूल कारिका और उसके व्यायामप यह स्पष्ट जान के प्रकाश में यह कहना व्यर्थ है कि वेदनीयका मोहनीयके पहना है कि यहां नहीं प्रागमोक विभूतियों-कतिपय माथ माहचर्य है और ज्ञान-दर्शनमे विरोध है । यथार्थतः अतिशीक प्रतिपादन किया गया है जो अरहनक ३४ प्रति तो व्यवस्था हमसे सर्वथा विपरीत सिद्ध होता है।" शयोंम प्रतिपादित हैं और जिनका प्राप्त भगवान में अस्तित्व (१ ग) क्या क्षुधादि वेदनामाका अभाव घाति कर्म- म्वीकार किया गया है । इसके भाग भाप्तमीमांमाकी यजन्य अतिशय भी माना जा सकता है ?
दूसरी कारिका व उसकी टीका उद्धत करके उस परमे
उन्होंने यह निक निकाला है कि "उन भागमान. अति. यद्यपि पंडितजीन इस सब प्रमाणा-कलाप पर निदेश
शयों को बनाया जान पता है जो कंवली में कुछ तो पूर्वक कोई विचार नहीं किया, तो भा जान पड़ना है उम
जन्ममे श्रीर कछ कवलज्ञान होनम ( धातकर्म चाय ) की ओर उनकी राष्ट रही अवश्य है, इपी लिये भाग
नया कुछ दवा मिमित प्रकट हान है। -शरीरम चन कर उक वेदनाओंको 'मोहनीय जन्य' या 'मोहनीय
क.मी नान प्राना, कनाडारका न होना, बुढ़ाया नहीं महकृत वेदनीय जन्य कहना छारकर उन्होंने एक तामग
होना, गन्माद की वर्षा हाना श्रादि प्रादि । य अतिशय ही मन यह स्थापित किया है कि -
पुरणाकश्यप श्रादि मनप्रवतको मायावियाँम न होनपर "अमल में बात यह है कि न धादि प्रवृनियों का प्रभाव
भा अक्षाकपाया स्वर्गवामी दवाम विद्यमान है। लकिन धानिकर्मजन्य अतिशय है जो कंवलज्ञानादि के अतिशयों में
दव प्राप्त नहीं है। अत: इन अतिशयाम भी प्राप्तनाका है। अन: वीतरागता सर्वज्ञता और हितोपदेशिता पनि
निर्णय नहीं किया जा सकता है।" पादन करनेमें उन लोकोत्तर अतिशयोंका-तधादिक श्रभावका-प्रतिपादन भी अनुषगत: ही जाना है। इस
इन कथनीय पंडित जीका यह अभिवाय पन. हमा लिये प्राप्तमीमांसाकार प्राप्तमीमांमागे ही धादि प्रवृनियोंक
कि नधादि वदनाभावम्प अतिशय सकपाथी देवोंक भी केवनी में प्रभावकी कगटन: बतलाने के लिये बाध्य नहीं है।"
माने गये हैं। और कि उनके धानिमा कर्माका प्रभाव
माना नही जा सकता प्रतएव अन्नय-व्यनिरकम्प अनु. __ अन, अतिशय घातिकम जन्य नो हो नहीं सकता।
पंग न होनम ॥ श्रार धादि वेदनाश्री और दमी और संभवत: पंडितजीका अभिप्राय घातिकमनय जन्यम है।
मौनीय या वेदनीयमे कोई कार्य का सम्बन्ध नहीं किन्तु यदि यही बात है तो फिर तधादि वेदनाय मोहनीय या वेदनीय, प्रधा जनक महयोग जन्य न रह कर ममम्त
सिद्ध हुश्रा। यहां स्वयं न्यायाचार्य जीन है। अपनी यकियों
से यह निपं निकाला कि..... घातिया कक समूहकी उत्पगि कहीं जाना चाहिये, और चूंकि उनका प्रभाव केवलज्ञान होने पर ही होता है, हम उपर्युन. मम्पूगां विवेचनकापर्यमिता यह श्रा मोहनीयके प्रभाव नही, अनाव के विशेष रुपम ज्ञाना कि प्राप्तमामांमाकार और उनके टीकाकागने प्राप्त कारिका वरीय और दर्शनावरीय न्य सिद्ध हुई।
२ में प्राप्त नधादिक अभावका वीकार किया है, परन्तु किन्तु यहां भी धादि वेदनाश्रीको कारण कल्पनाका बाना नहीं खाना, पानी नहीं पीना, पसीना नही पाना अन्त नहीं हश्रा क्योंकि भाग श्रप्तमीमांसाकार और टीका. श्रादि ये प्राप्त की कोई ग्वाम विशेषताएं नहीं है, क्योंकि
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अनेकान्त
[वर्ष ८
वे रागादिमान देवों में भी है।"
नहीं किया किन्तु उसको अलक्षण मानकर उसके ग्रहणका
प्रबलतासे निषेध किया है। न्यायाचार्य जीकी इस तर्कपरम्पराके अनुमार क्षुधादि ३ रस्नकरंडसम्मत प्राप्तके लक्षणोंपर विचार वेदनाय वास्तव में मोहनीय जन्य' 'वस्तुत-मोहनीय महकृत वेदनीयजन्य' और 'अमल में घातिकर्मजन्य' होती होती (३ क) लक्षण और उपलक्षण में विवेकहोती अन्नतः उनका अभाव सिद्ध हुआ एक और केवल- यहां तककी अपनी ही उत्तरोत्तर असंगत तर्क-परंपरा ज्ञानके अतिशयम और दूसरी ओर सरागी देवोंके महोदय के उक्त परिणामसे भयभीत होकर न्यायाचार्यजीने रत्नसे | और इसी कारण उनका श्रभाव प्राप्त की कोई ख़ास करण्डो उस तपिपासादि वाले प्राप्तके लक्षणकी यह विशेषता ही नहीं रही और उसके लिये किसी घातिया व वकालत की है कि "रत्नकरण्ड (श्लोक ५) में प्राप्तका अधातिया कर्मके क्षयकी भी कोई आवश्यकता नहीं रही। स्वरूप तो सामान्यत. प्राप्तमीमांसाकी ही तरह प्राप्तेनोअव यदि क्षधादि मोहनीय या मोहनीय सहकृत वेदनीय च्छिन्नदोषेण' इत्यादि किया है। हो, प्राप्तके उक्त स्वरूप जन्य है तो उनका सद्भाव प्रथमसे लेकर दशवें में श्राय उरिछन्नदोष' के स्पष्टीकरणार्थ जो वहां 'क्षषिगुणस्थान होना चाहिये, ऊपर नहीं । किन्तु इमका तत्वार्थ- पामा' आदि पद्य दिया है उसमें लक्षण राग-द्वेपादिके सूत्रके 'सूक्ष्मसाम्पराय-छाम्यवीतरागयोश्चतुर्दश' सूत्र प्रभाव और उपलक्षण क्षुधादिके अभाव दोनोंको 'उच्छिन्न (E, १०) स विरोध प्राता है क्योंकि इस मूत्रके अनुसार दोषके स्वरूपकोटिम प्रनिष्ट किया है।" बारहवं गुणस्थान तक उनका मदाव पाया जाता है। यदि यहां जो क्षुत्पिपामादि श्लोकको उच्छिन्नदोष के स्पष्टी. वे घातिकमजन्य हैं व उनका अभाव केवलज्ञान जन्य करणार्य कहा गया, उसक लिये उस पद्यमें कोई प्राधार अतिशय तो उनका सद्भाव बारहवं गुणस्थान तक और दिखाई नहीं देता, बल्कि श्लोकक अन्त में जो 'आप्तः स उपर प्रभाव होना चाहिये । किन्तु इसका 'एकादश जिन' प्रकीत्यते' इस प्रकारका वाक्यांश है वह स्पष्टतः बतला (६. ११) और 'वेदनीय शेषाः' (१,१६) सूत्रोंसे विरोध रहा है कि उस पद्यमें कर्ताने अपनी रटिसे प्राप्तका पूरा भाता है जिनके अनुसार तेरहवें और चौदहवें गुयास्थानमें लक्षण देनेका प्रयत्न किया है, न कि दोषका स्पष्टीकरण । वे वेदनाय पाई जाती हैं। श्रीर यदि उनका प्रभाव सरागी
दूसरे श्लोकमें जो एक ही श्रेणीसे सुपिपासादि मोहपयंत देवोंक महोदयसे भी हो सकता है, तो देवकि संभव प्रयम प्रवृत्तियां गिनाई गई है उनमें से कुछको लक्षण और कुछ चार गुणस्थानोंमें भी उनका प्रभाव संभव मानना चाहिये, को उपलक्षण माननेके लिये भी कोई आधार नहीं है। किन्तु उसका विरोध 'बादरमाम्बराये सर्वे' (8, १२) खासकर जबकि पंडितजीके मतानुसार ही वे गुण रागियों सूत्रप पाता है जिसके अनुसार आदिम नौवें गुणस्थान में भी पाये जाते हैं और इसीलिये प्राप्त की कोई खाप तक सभी परीषह होते हैं । अब कृपया न्यायाचार्यजी विशेषतायें नहीं हैं. तब उन्हें भाप्तके प्रकीर्तनमें शामिल विचार तो करें कि उनक युक्ति, और तर्क उन्हें कहां लिये करने के लिये तो कोई भी हेतु दिखाई नहीं देता । पंडित जारहे हैं, उनमें कर्मसिद्धान्तकी व्यवस्थाओं की कितन। जीने लक्षण और उपलक्षण में भेद यह दिखलाया है कि दुर्दशा होरही है, और मारा विषय कैम झमेले में पड़ता "लक्षणतो नामें व्याप्त होता हा अलक्ष्यका पूर्णत: गया है। पाठक जरा सिर खुजला खुजला कर सोचे कि व्यावर्तक होता है। परन्तु उपजण लक्ष्यके अलावा न्यायाचार्यजीक तर्कोमे उन्हें नधापिपासादि वंदनामों को तत्महश दूसरी वस्तुओं का भी बोध कराता है ।" न्या. उपम करनेवाला कौनमा कर्म समझ पाया ? और फिर याचार्य जीक इस विवेकानुमार श्लोक गत लक्ष्य प्राप्त भी अन्नतः परिणाम वही निकला कि क्षपादि वेदनाओंका रागादिमान देके महश ही हुमा और प्राप्त द्वारा इनका अभाव अप्तका कोई लक्षण नहीं माना जा सकता, अतएव भी ग्रहण करना स्नकरण्डकारको अभीष्ट सिद्ध हुमा, प्राप्त मीमांसाकारने जय प्राप्त के लक्षण में न केवल प्राण ही तभी तो उन्होंने उन उपलक्षयोंको ग्रहण किया । शब्द
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किरण १
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमामाक एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
३३
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स्तोममहानिधि में उपलक्षणका स्वरूप निम्न प्रकार कभी नहीं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो समन ल में नहीं समझाया गया है
रहने, और कुछ ऐसे होते हैं जो तीनों कान में, ममग्र लक्ष्य "ममी स्थस्य स्वसम्बन्धिनश्च लक्षणं ज्ञानं में रहते हैं।.. ....... .." उपलक्षण और लक्षण का स्तर यस्मात । सस्य म्वान्यस्य च अजहन-स्वार्थया लक्ष- यह है कि जो प्रत्येक लपमें सर्वाग्मभावम तीनों हाल में एणया बोधक शब्द यथा 'काभ्यो दवि राताम' पाया जाय-अग्निमें उष्णत्व-बह लक्षगा, और जो किमी इत्यत्र काकादं स्वस्य स्वान्यादः श्वादेश्वबोधकम ।" लपमें हो किपीम न हो; कभी हो कभी न हो, और
इसके अनुसार जिस शब्दके ग्रहणसे उके वाच्य स्वभावाबद्ध न हो वह उपलक्षण जैसे अग्निके लिये धूम । अर्थका भी ग्रहण हो और उसी समान अन्य पदार्थों का भी जीव को छोड़ कर प्रारमा बावन भेद आत्माक ग्रहण हो, उसे उपलक्षण कहते हैं । जैसे किसी ने कहा पलक्षण ही है।" 'काग्रॉप दहीकी रक्षा करी तो यहां कोनों पदस दहावा इस मत अनुसार उपलक्षण भी लपका प्राधानुकसान पहुंचाने वाले कुत्ते-बिल्ली ग्रादि जानवको भी रण धर्म ही होता है परन्तु वह द्रव्य श्रीर काल दोनोंकी ग्रहण करना चाहिये । अतएव यहां कीश्रा शब्द अपेक्षा प्रानयत है, लक्षगाके समान नियत नहीं। अब उपलक्षण है। मैं न्यायाचार्य जीस पूछता हूं कि क्या इसी न्यायाचार्यजी स्पष्ट करें कि उनके मनानुपार क्षधादि उपजक्षण शक्तिके इनु गर नकरण्डके कर्ताको श्राप्तके बदन श्रीको अभाव प्राप्त का किस प्रकारका उपलक्षण है सदृश रागादिमान जीवोंका भी ग्रहण करना अभए है, और स्नकराहकार उसके द्वारा प्राप्तकी क्या विशेषता क्योंकि उपलक्षण प्रकृतका ही बोध कराता है, अप्रकृतका बताना चाहता है ? उसके द्वारा प्राप्तको मरागी देयोंकि नहीं?
सदृश बतलाना उन्हें श्रभाष्ट है या उनम पृथक ? उपजक्षण का एक और प्रकारमे अर्थ मुझ पचाध्यायी (३ ख) रताकरगड में दो विचारधाराओंका ममावेशमें देखने को मिला, जिसके अनुसार
मैं जब ग्नकरण्डक क्षपामादि नोकको उम्मे अस्त्युरल नणं वनक्षा प लक्षणम् ।
पूर्ववर्ती प्राप्तनामिछानपिण' श्रादि पद्यक साथ पढ़ता है तत्तथाऽन्यादिलक्षम्य लक्षणं चोत्तरस्य तन ।।
तो मुझे यही मालूम पता है कि यहां रायनाने प्राप्तक यथा मम्यक्वभावस्य वेगा लक्षणं गुगमः।
सबमें प्रचलिन अपने ममयको दानी परिभाप.श्रीका म चापलक्ष्यते भक्त्या वात्मल्ये नायवाहताम।।। अलग अलग रख दिया है-- पहले पद्यम ममन्तभद्रमामा
(उत्तराध, ४६८-४६६) का प्राप्तमामाया-मम्मत लक्षगा है और दृ रमे कुन्न अर्थात् --जो लक्षणका भी लक्षण होता है वह उप. चाय प्रतिपादित लक्षगा । दानी पद्योंकी अपन अपन रूप लक्षण कहलाता है, जैस सम्यक्त्र भावका मवेग गुण ।
में पूर्ण बनाने के उददेश्यमे ही रयिताने एके अन्तम लक्षण है, और अद्भिक्ति तथा वाल्मल्य संवेगके लक्षणा नान्यथ ह्याता भवन' श्रीर दूसंरक अन्त में 'यस्यात होनेम सम्यक्च उपलक्षण कहलाये। उपलक्षणकी हम म प्रकीर्यने रखकर उनमें परम्पर किसी मे व परिभाषाके अनुसार भी उपलक्षण लचयको छोड़कर बक्षगा-उपलक्षण श्रादिकी कपना के लिये कोई गाइश अन्यत्र नही पाया जा सकता।
नहीं रहने दी है। ये वे ही दा विचारधारय हैं जिन। उपलक्षण और लक्षणका एक तीसरे प्रकार स्वरूप
उल्लेख मैं अपने पूर्व लंग्व में विद्यानन्दक सम्बन्ध कर मुझे प० मुख लालजीके तरवार्थमूत्र विवेचनमें (पृ. ८४.
पाया है। ८५) देखनेको मिला जहाँ कहा गया है कि
४-कंवलामें जन्म-मरणादिका मद्भाव "अमाधारण धर्म सब एकमे नहीं होते । कुछ तो (क) जन्म मा मोहनीय नहीं. किन आय कम जन्य हैंऐसे होते हैं जो लयमें होते हैं सही, पर कभी होते हैं, केवलीम जन्म, ज्वर. जरा और मरगा के अभावक
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
सम्बन्ध में मैंने अपने पूर्वलेख में कहा था कि यदि इस है, विरताविरत प्रयत् श्रावक बा पंडित मरण करते हैं, मान्य नाक। यह तात्पर्य हो कि कंवनी हो जाने पर सिद्ध पंडतमरण यथोक चारित्र साधुका, बालमरण अविरतअवस्थामें फिर उन्हें कभी जन्म, घर, जरा और मरणकी सम्पदृष्टिका, तथा बाल बाल मरण मिथ्यादृष्टि जीवका बाधाएं नहीं होगी तब तो इससे कहीं विरोध उत्पन्न नहीं होता है । यथा-- होता, क्योंकि केवजीने कोई नया भायुबन्ध किया ही नहीं पंड परिदमरणे वीणकसाया मरति केवलिणा। है. इसलिये पिद्धगतिको छोड़ किमी संसार गति में उन्हें विरदाविरदा जीवा मरंति तदिएण माणेण ॥२८॥ जाना ही नहीं है।" हर्ष है कि पडित जीने अपने लेखमें पयोपगमणमरण भत्तप्पण्णा य इंगिणी चेव । यही व्यवस्था स्वीकार करली है। किन्तु उसे रम्बनेका तिविहं पंडिदमरणं साहुस्स जहुत्त चरियस्स ॥२६॥ उन्होंने ऐसा प्रयत्न किया है जिससे जान पड़े कि वह अविरदसम्मानिठ्ठी मरंति बाजमरणे च उत्थाम्म । उनकी कोई नई सूझ है और उन्होंने स्वयं एक रहस्यका मिच्छादिछी य पुणो पचमए बाल बाल रिम ॥३०॥ उद्घाटन कर मेरा समाधान किया हो । मेरे ऊपर उद्धत मूलाचार में मरण के तीन भेद बतलाये हैं - बालमरण, वाक्य अनन्तर वाक्य था किन्तु जिस शरीरसे केवली बालपंढतमरण और पडितमरण, तथा केवतियोंके मरण अवस्था उत्पन्न हुई है उसका मनुष्य योनिमें जन्म हुश्रा को 'पंडितमरणा' कहा है। यथा-- ही है........" इत्यादि । पडितजीने इमाक्यका भी 'किंतु तिविह भणं त मरणं बालाणं बाल पंडियाणं च । छोड़कर शेष प्रश्नात्मक वाक्य ही उद्धृत किया है और
तइयं पंडियमरणं जं केलियो अरामरंत ।।५।। फिर कहा है-"उपका रहस्य यह है कि केवलीके मोह.
श्रय कृपाकर पंडितजी बतला कि यदि केवली होने नीयका नाश होजानेस अब पुनर्जन्म न होगा" इत्यादि ।
पर मरण का प्रभाव होजाता है तो ये पंडिसपंडित या यह रहस्य मेरे ऊपर उद्धन वाक्यमें मुव्यवस्थित रूपसे
पं.डनमरणसे मरनेवाले कवली कौनसे है ? भा चुका है। पंडितजीन उममें जो मौलिकता लानेका प्रयत्न किया है उममें उन्होंने सैद्धान्तिक भूल पर डाली,
पंडितजीने 'अन्तकः कन्दको नृणां' श्रादि पद्यको और वह यह कि जन्म-मरण में कारणीभूत होनेवाला कर्म
पुन: उद्धत किया है और उसका मेरे द्वारा दिया गया मोहनीय नहीं, किन्तु श्रायुकर्म है, जिसके क्षीण होनेसे ही भावाथ प्रस्तुत करते हुए उसपर 'श्राश्चयं' प्रकट किया है मरण और उदयमें श्राने से जन्म होता है। मोहनीय कर्मके
तथा उसे 'अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये इच्छानुकूल तो सर्वथा क्षोण होजानेपर भी मरण नहीं होता और न
भावार्थ' कहा है। किन्तु उन्होंने यह बतलाने की कृपा नहीं
की कि उम अर्थ में दोप क्या है व उनके प्राश्चर्य का श्राधार मरण व पुनर्जन्म होने में मोहनीयको शृंखलामें कोई भेद पढ़ता। प्रतएव जन्म-मरण का साया सम्बन्ध मोहनीयसे
क्या है, सिवाय इसके कि वह उनकी इच्छाके अनुकूल
नहा। उनके या मेरे अर्थ के ठीक होने का निणय उन्होंने न होकर आयुकर्मसे है। (४ ख) शास्त्रक.रोंने केवलीका भी मरण माना है
मर्मज्ञ विद्वानों पर छोड़ा है, अतएव मैं भी उसे उसी केवलीको कोई दूसरा संसार जन्म धरण नहीं करना
प्रकार छोड़ता हूं। है, इस अपेक्षामे उनमें जन्मका प्रभाव मान लेनेपर भी (४ग) केवलीमें जन्म-मरणादिके अभावकी अपेक्षाकेवजीके मरण का प्रभाव किस प्रकार स्वीकार किया जा श्रागे पंडितजीने स्वयंभूस्तोत्रके चार और अवतरण सकता है, यह न्यायाचार्यजीने बतलाने की कृपा नहीं की। प्रस्तुत किये हैं जिनमें भगवान्के 'अज' और 'अजर' भायु के क्षय होनेपर केवलीका मरण तो अवश्यम्भावी है विशेषण पाये जाते हैं। इन उल्लेखोंके ही प्रकाशमें
और उस मरणका प्रकार भी शास्त्रकारोंने बतलाया है। पंडितजीने अपने पूर्वोल्लिखित 'जन्म-जराजिहासया' और उदाहरणार्थ, भगवती माराधनामें मरणके अनेक प्रकार 'जन्म-जरा-मरणोपशान्त्यै' वाक्यांशोंको भी देखनेकी बतलाये हैं जिनमेंसे पंडित पंडित मरण केवलीका होता प्रेरणा की है। किन्तु इन उल्लेखों वाले पूरे पोंको उद्धत
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किरण १ ]
रत्नerre और आप्तमीमांसाका एक कर्तृव अभी तक सिद्ध नहीं
कर मैंने उनका जो अर्थ समझाया है उसमें पंडितजीको कोई दोष दिखानेको नहीं मिल सका तो भी पंजीक प्रेरणाकी मैं अवहेलना नहीं कर सकत। वे लिखते हैं-"जब मेने जन्मजराजदासया इस ४६ पथक धागे का 'वमुत्तमज्योतिरजः क्व निर्वृतः यह १० व पथ देखा तो वह मेरी विद्या मित्र गई जहाँ स्पष्टतः केवली अवस्था प्राप्त करने (स्वज्योति के साथ ही 'अन' पदका प्रयोग करके ग्रंथकारने उनके जन्मका प्रभाव प्रतिपादित किया है।" किन्तु पडितजी अपनी विवक्षा मिल जाने के हर्ष के आवेग 'अज:' पर हो रुक गये, उन्होंने आगे दृष्टि डालकर नहीं देखा जहां निर्वृतः विशेषण लगा हुआ है और अर्थको उनकी विवक्षासे परे ले जाता है, क्योंकि उसमें स्पष्ट है कि यह वर्णन भगवान्को सिद्ध श्रवस्थाका है। इससे यह भी पता चल जाता है कि उक्त दोपोंका केवलजिनमें अभाव मानने की आन्ति किस प्रकार उत्पन्न हुई जो विशेषण स्वामी समन्तभद्र जैसे मर्मज्ञोंने सिद्ध अवस्थाका ध्यान रखकर प्रयुक्त किये, उन्हें ही इतर लेखक भरत अवस्था ही प्रयुक्त करके उन्हें असके लक्षण मानना प्रारम्भ कर दिया । किन्तु जैसा में बतला चुका है, वह बात कर्मसमा असम्भव सिद्ध होती है। इस प्रकार स्वामी समन्तभद्रकी विवाि करनेके लिये न्यायाचार्यजीने जो उल्लेख प्रस्तुत किया उसीमे प्रमाणित हो जाता है कि जन्मजरामरणादिका अभवसिद्ध अवस्थामें ही घटित होता है, न कि अरहंत अवस्थामै ।
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पसीना नहीं आना आदि ये आसकी कोई व्यास विशेषताएँ नहीं है, क्योंकि वे रागादिमान् देवोंमें भी हैं इन विशेषता भी सबसे बड़ी सर्वोच्च एवं श्रसाधारण विशेपता रागादिरहितता है। वह जिय पाई जाती है वही इत्यादि । स्वयं इस विवेककं तु फिर भी उसी पद्यको केवली में सुधातृषाकं श्रभावकी सिद्धिके लिये, पेश करना कहां तक संगत है यह मर्मज्ञ पाठक स्वयं विचार कर देखें
'क्षुधादिदुःख रतिकारतः स्थितिः' वाले पथके अर्थका मैंने अपने पूर्व लेख में विस्तारसे विवेचन किया है जिसमें पंडिजी कोई जरा सा भी स्खलन नहीं दिखा सके । फिर भावे उसी को अपने पक्ष बिना कोई नई बात करें. प्रस्तुत किये ही जाते हैं। इस पद्धति में युक्ति, तर्क व प्रमाण नहीं, केवल दुराग्रह मात्रमा प्रदशन पाया जाता है। जिसका मेरे पास कोई इलाज नहीं। हां, अपनी तरफसे मैं बार बार भी विचार करने की तैयार | प्रथम तो उक्त पद्य में केवल के जुवादि दोपोंके अभावका प्रसंग ही नहीं बैला क्योंकि यहां भगवान् इस उपदेशका प्रतिपादन मात्र किया गया है कि न तो क्षुधा श्रादिक दुःखांके प्रति कारमात्रसे और न इन्द्रख शरीर व जवकी स्थिति व एक मी रखी जाती इन्हें शरीर या जीवकं स्वधर्म नहीं मानना चाहिये। यहां केवल उनके अभाव का तो कई प्रसंग हो नहीं बनता। दूसरे यदि क्षुधा तृषा जरा, ज्वर, जन्म मरण, भय, स्मय व रागद्वेषादिकं प्रतिकारसे शरीर व जीवका स्थिति नहीं रखी जा सकती इसलिये प्रतिकार जीव का गुण नहीं है किन्तु वस्तुस्थिति विपरीत है। रागद्वेष तथा जन्म मरण आदिका प्रतिकारही आम धर्म है और वही शाश्वतपद प्राप्तिका उपाय है । श्रतएव उसके विरुद्ध भगवान कैसे उपदेश दे रुकते हँ ? इन्ही जन्म-जरा श्रादिके निराकरण के लिये
तो मयोगिजिन अपने तीनों योगोंका निरोध करके प्रयोग होते हैं और फिर निवृत अर्थात् भिद्ध होकर
केवलीके क्षुधा तृपाका सद्भाव (५) स्वयंभू स्तोत्र में केवल के क्षुधा तृपाका अभाव नहीं केवली था और तृपाका अभाव सिद्ध करनेके ये क्षुधा पंडितजी फिर भी उन्ही 'श्रुधादिदुःखप्रतिकारतः स्थितिः' श्रादि तथा 'मानुपीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् ' आदि दो पचकी दुहाई दी है। मैं अपने पूर्वी पद्योंकी बतला ही चुका हूं कि इन दोनों पद्योंमें केवलीके सुधतृषाकं प्रभावका लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है । 'मानुषीं प्रकृतिम्' आदि पथको प्रस्तुत करते हुए तो स्वयं पंडितजी जे ही कहा है कि 'खाना नहीं खाना, पानी नहीं पीना,
हो जाते हैं। कृपा कर पंडित स्वयं स्तोत्रके ४८, ४६ और १० पद्योंपर पथ ७४ को दृष्टिमें लेकर ध्यान ४८ पद्य भगवानके असं उल्लेख है दें । वें संयमका ।
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अनकान्त
[ वर्ष
उपके पश्चात ४६ व पद्यमें उनके प्रयोग अवस्था प्रयोग (ख) पातंजल योगशास्त्र और जैन कर्मशास्त्रकी बनने का प्रयत्न वणित है। और ५. व पद्य में प्रयोगसे व्यवस्था में भेद-- कार निवृत अवस्थामै उत्तमज्यानि' और अज' गुणांका पंडितजीने पातंजल योगदर्शनका 'कण्टकृपेनुत निरूपण पाया जाता है। इसी ज्योनिक प्रक शमे यदि पानिर्वात्तः सत्र भी पश किया है. यह सिद्द करनक पंक्तिी उन मब उसलेम्बाको दबंगे जिन्हें वे प्राप्तम जन्म लिये कि जीवन्मक अवस्थामै भृग्व-प्यापकी बाधा नही अरादिपक अभावक पक्षमें पेश करते हैं तो नका रहती। किन उन्होंने उस सिद्धान्तकी और जैनम्पिद्धान्तकी समस्त अंधकार और धुपलापन दूर हो जायगा और
कार्य कारण परम्परापर विचार नहीं किया जिसकी प्रकृ में उन्हें विश्वास हो जायगा कि स्वयंभूम्तीत्रकार कवली में
अत्यन्त आवश्यकता थी। उक्त. पातंजल सूत्रकी वृत्ति हैजन्म, जर। और मरणका प्रभाव नहीं मानते किन्तु उनके
जिह्वानन्ताग्धस्तान कण्ठया कृपाकार: प्रदेशोनिगकरणका प्रयानमात्र स्वीकार यरते हैं तथा जि क्षधाद
स्ति यत्र प्रागादेः संघपणाक्षुतापास भवतः । तत्र - दुःखप्रतिकारत: स्थिति: श्रादि पद्यमें वे अष्टादश दापोंकी
संयत्तनिवृत्तिभवतीत्यर्थः।" कल्पना करते हैं वहीं यथार्थतः तुधादि वाइस परीषहीका संकत है जिनकी पहन करना प्रत्येक साधुका धर्म है। और
अर्थात्-जिह्वा और तन्तुक नाचे कगठ।। कृपाकार प्रदेश यही भगवान ।। उपदेश है।
है। इस प्रदेशमें प्राणवायु आदि के संघर्ष में आधा और
तृषा पन्न होता हैं। श्रतएव जब योगी उन सघर्षण। इसके पश्चात पायाचार्य जीको पात्रकेशरी अादके
संयम कर लेता है तब उ उक बाधा नही होती। अवतरण दनका लाम' उत्पन्न हश्रा है, जिस वे सवरण महीं कर सके। किन्तु उनके उस लोभक प्रदर्शन मिळू.
इम व्याख्यानमें मुम्पष्ट है कि पानंजल योगशास्त्र में श्रमिद्ध कुछ नहीं हश्रा क्यों प्रस्तुन विषय तो केवा
जोक्षधा और तृपाकी वेदना उत्पन्न होने का कारगा दिया
गया है वह जैन सिद्धान्तम पलभ्य उक्त वेदनाांक यह है कि क्या प्राप्तमीमांपाकारको नगद श्रावकाचारा.
कारण सर्वथा भिन्न है। योगशास्त्र अपनी व्यवस्थाम न्तर्गत त्पिपामादि पप वाले प्राप्तका लक्षण मान्य है ? प्राप्तमीमामाको प्रथम कारिका परसे न्यायाचार्यजी जमक
मुसंगत है, क्यों कि वहीं बंधा-नृपाका जो कारण स्वीकार काका यह अभिप्राय प्रकट करते हैं कि- "हम युकिवादी
किया गया है उसके अभाव होन पर तजन्य कार्यका भी परीक्षाप्रधानी मात्र देवागमादिका हेतु नहीं बना सकते हैं
प्रभाव माना जाना स्वाभाविक है किन्तु जैनसिद्धान्तमै तो क्योंकि देशागमादि विभूतियां मायावियाम पायी जान
सुधा तृपादि वदनाय वेदनीय कर्मक उदयम् उत्पन्न होने व्यभिचारी हैं।" और पंडिनजीके मतानुपार इन्हीं विभू
वाला मानी गई है, और इस कर्मका उदय मांगी और तियोंक भीतर रहन्तक ३४ अतिशय भा गभित हैं । तब
अयोगी केवलीम भी स्वीकार किया गया है । तब फिर फिर यह कैसे माना जा सकता है कि उन व्यभिचारी
कारण रहते कार्यका प्रभाव कम माना जा सकता है? विभूतियों को प्राप्तमिद्धिमें अहेतु और अलक्षण टहराने वाले
न्यायाचार्यजीक इस अप्रकृत व अनपेक्षित परिभ्रमणम प्राप्तमीमायाकार ही अन्यत्र उन्हीं अतिशयों को प्राप्तका
उनका गृहीत पक्ष कैप सिद्ध होगा यह वे ही जने । हां. लक्षण बना कर प्रकट करेंगे और कहेंगे कि जिन ये है वे
यदि न्यायाचार्यजी यह कहें कि रनकरण कारको जुधा. ही प्राप्त कहलाते हैं-यस्यानः स प्रकीत्यन ? इस
तृषाका वही कारण स्वीकृत है जो पातंजल योगशास्त्र में सम्बन्ध में जितना हतुवाद न्यायाचायजाने प्रस्तुत किया है
माना गया है, और उनके प्राप्त भी वे ही हैं जो उसी वह सब इसी बातकी परिपुष्टि करता है कि प्राप्तमीमांसाकार
'कण्ठ कृप संयम' का अभ्यास किया करते हैं, तो बात सुपिपासादिक अभावको प्राप्तका लक्षण नहीं स्वीकार करते दूसरा है। किन्तु उसका प्रबलतासे निषेध करते हैं।
(अगले अङ्कम समाप्त)
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श्रीधवलका रचनाकाल (लेखक-श्री प्रफुलकुमार मोदी, एम० ए०, एल-एल• बी० )
XXX खंडागम पुस्तक की प्रस्तावनामें मेरे कृष्ण के पुत्र श्रीवलमका राज्य था । र ष्टकूटनरेश कृष्णप्रथम
पिताजी प्रो. डाक्टर हीरावाखजीने विशेष के ज्येष्ठपुत्र गोविन्द द्वितीयकी उपाधि श्रीवल्लभ पाई जाती
खोजबीन पूर्वक पवसा टीकाकी अन्तिम और अपने पिताके पश्चात राज्यारोहणकाल शक सं. XXX
प्रशस्तिका पाठ संशोधन करके यह निर्णय ६६४केबगभग बिद्ध होता है। सर भंडारकरने अपने मन्दा किया है कि उस प्रशस्तिमें कार्तिक शुक्ल दक्षिणके इतिहास में जिनसेनका उक्त उपख इन्हींक
१ शक संवत् ७३८ का उल्लेख है। सम्बन्ध में स्वीकार किया है, और विश्वेश्वरनाथ रेउने
किन्तु अनेकान्तकी वर्ष ७ किरण ११-१२ अपने भारत के प्राचीन राजवंशमें यही मत स्वीकार किया (जून-जुखाई, ४) अंकमें बा. ज्योतिप्रसाद जैनका इस प्रकार विक्रम सं०८३८ शक सं०.०३ में तो 'श्रीधवन का समय' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। अगत्तैग ही नहीं, किन्तु उसके पिता घबरानका भी राज्य जिसमें उक्त प्रशस्तिके पाठमें कुछ दूसरे प्रकारसे संशोधन नहीं पाया जाता। बा. ज्योतिप्रमादजीका यह कथन सर्वथा करके या प्रतिपादित किया गया है कि उस प्रशस्तिमें असत्य है कि पुखियाके ताम्रपटमे "इसमें तो सन्देह नहीं विक्रम संवत् ३८ कार्तिक शुक्ल १३ का उल्लेख है। किगोबिन्द द्वितीयकी मृत्यु ०७१-८० में हो चुको था इस लेख में प्रस्तुत अनेक बात ऐतिहासिक राष्टिसे विशेष ... ---- चिम्तनीय हैं । किन्तु उनकी चिन्ता करना तब तक निष्फल २ देखा पठनका ताम्रपत्र (ए. इ. ३ पृ. १०५) है जब तक कि यह सिद्ध न होजाय कि विक्रर सं०८३८ ३. “Krishna I was succeeded by his भी धवखाकी समाप्तिके लिये संभव माना जा सकता। eldest son Govinda Prabhutavarsha
Vikramavaloka soon after 772 उक्त प्रशस्तिके उपजम्य अशुद्ध पाठके कारण संवत्
A. D." प्रादि सम्बन्ध में भले ही मतभेद और संशय हो, किन्तु
(Altekar: The Rashtrakutas and इस बातमें कोई संशय व मतभेद नहीं है कि उसमें राजा
their t mes; P. 45.) जगत्तंगदेबका खेल कूट वंश जगतंग उपाधि
8. "Govinda II, therefore, must be the भारी अनेक राजामों में सबसे प्रथम गोविन्द तृतीय पाये
prince alluded to, and he appears जाते हैं जिनके शक संवत् १६ से लगाकर ०३५ तक
thus to have been on the throne in ताम्रपट मिले हैं। इनके पिता ध्र वराजका राज्यकाल शक
Saka year 705 or A. D. 783." ७१ तक पाया जाता है, और ध्र वसे पूर्ववर्ती राजा
(Bhand: The Earby History of the Deccan. P. 89। गोविन्द द्वितीयका अन्तिम उल्लेख शक ७.1 का मिलता ....
मलता ५ "इसमे प्रतीत होता है कि श०सं० ७०५ (व० सं० है। किन्तु इस बातका अमीतक निर्णय नहीं हो सका कि
८४०) तक भी गोविन्दराज द्वितीय हो गज्यका गोविन्द द्वितीयका राज्यकाल का समाप्त हुश्रा और ध्रुव
स्वामी था क्योंकि कावी और पैठनक ताम्रपत्रों में का का प्रारंभ हुा । जिनसेनकृत हरिवंशपुरावकी
पता चलता है कि गोविन्द द्वितीयकी उपाधि वल्लभ' प्रशस्ति में सक्लेख है कि शक संवत् ७०१ में दक्षिण में
और इसके छोटे भाई ध्र वराजको उपाधि १ शाकेष्वन्दशतेषु समसु दिशं पंचोत्तरेषुत्तरां । 'कलिवल्लभ' थी।" पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्ण नृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् ।।
(रेऊ : भा. प्रा. रा भा. ३ पृ० ३३-३४)
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३८
अनेकान्त
और राष्ट्रकूट राज्यका एकछत्र अधिपति श्रीवल्लभ कलिबलमधारावर्ष भद उपाधिभारी प्रवराज निरुपम था । " यथार्थत धूलियाके ताम्रपटोंमें तो यह स्पष्ट उल्लेख है कि उस समय अर्थात शक सं० ७०१ में गोविन्द द्वितीयका अनेकरने यह अवश्य बतलाया है कि श्रीवल्लभ उपाधि ध.वराजकी भी पाई जाती है और वह भी कृष्णका पुत्र था जिनमेन द्वारा उत श्रीभगोविन्द भी हो सकते हैं और ध्रुव भी" जन का निजी माल यह भी है कि इस समय ध्रुवको राजा मानना ठीक होगा । किन्तु इसके लिये हेतु सिवाय इसके और कुछ नहीं दिया जामका कि यदि ध्रुवका राज्यारोहया ७८३ ई० के भी पश्चात् माना जाय तो उनके राज्यके लिये केवल लगभग आठ वर्ष ही शेष रह जाते हैं, जब कि उनकी अनेक विजयोंसे 'जान पड़ता है कि उनका राज्य कुछ अधिक रहा होगा। इस हेतुमें न तो कोई बल है और न इस बातका कोई भी प्रमाण उपलब्ध है कि गोविन्द द्वितीयका रज्य शक ७०५ मे पूर्व समाप्त होचुका था । यदि ध्रुवका राज्यारोहण राग ७०५ व ७०६ में भी माना जावे तो भी उनके राज्यकं दश वर्ष प्राप्त होते हैं क्योंकि उनका उल्लेख शक ७१५-१६ तक पाया जाता है और उनके पुत्र जगत्सँगका प्रथम ताम्रपत्र शक ७१६ का प्राप्त होता है।
६. “In the Dhulia plates of 779 A. D.
We find that Govinda II is men* tioned as the ruling Emperor". (Altekar The Rashtrakutas and their times, P.501.n.) ७. “Since srivallabha was thus the
epithet of both Govinda II and his immediate successor Dhruva, Srivallabha mentioned by Jinasena as ruling in 783 A. D. can be either. Govinda or Dhruva".
(Alterbar: The R. T., P. 53,) . "Dhruva was living when the Daultabad plates were issued in April 793 and dead when the Paithan plates were issued by his son. in may 794 A. D."
(Altekar R. T. P.59)
[ वर्ष म
किन्तु यदि यह मान भी लिया जाय कि हरिवंश पुरायका वह उल्लेख भुवराजका ही सूचक है तो इससे केवल इतना ही अनुमान होसकता है कि शक संवत् ७०५ के लगभग ध्रुवराज सिंहासनारूढ हुए थे । किन्तु इससे दो वर्ष पूर्व ही शक संवत् ००३ में उनके पुत्र जगचुँगदेवके राज्य होनेकी तो कोई संभावना ही नहीं पाई जाती। यह बात सच है कि प्रवराजने अपने जीवनकाल में ही अपने ज्येष्ठ पुत्रोंको छोड़ कनिष्ठ पुत्र गोविन्दराजको युवराज बनाया था और उसका अभिषेक भी अपने जीते जी कर देनेका प्रयत्न किया था । किन्तु जैसा कि डा० श्रस्तेकरने इस विषयका खूब ऊहापोह करके कहा है? एक तो अभी तके उपलब्ध प्रमाणोंपर से यह निर्णय करना ही कठिन है कि क्या सचमुच बने अपने जीते जी अपने पुत्रका राज्याभिषेक कर दिया था और दूसरे यदि यह ठीक भी हो तो यह बात उसके राज्यके अन्तिम कालमें अर्थात् शक सं० ०१२ के लगभग ही घटित हो सकती है न कि राज्यके प्रारम्भमें व उससे भी पूर्व शक ७०३ में ही ।
•
जगसंग गोविन्द तृतीयका कोई उल्लेख राजाके रूप में शक सं० ७१६ से पूर्वका न किसी ताम्रपटमें पाया जाता है और न किसी अन्य में इससे ११-१२ वर्ष पूर्व शक [सं० ७०५में उनके पिता ध्रुवराज के भी सिंहासनारूड होनेका निश्चय नहीं है। तब शक संवत् ७०३ (वि० सं० ८३८) में वीरसेनद्वारा जगत्तुंगदेव के राज्यका उल्लेख किया जाना सर्वथा असंभव प्रतीत होता है जब तक इस एक प्रधान बात के प्रबल ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत न किये जायँ तब तक बा० ज्योतिप्रसादजीकी शेष कल्पनाओंके विचार में समय व शक्ति लगाना निष्फल है।
1
2. "In the present state of knowledge,
therefore, it is difficult to decide whether Dhruva had actually abdicated towards the end of his career it may, however, be safely assumed. that Govinda was the defacto ruler in full charge of the administration when his father died."
(Altekar: R. T., P. 61.)
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साहित्यप्रेमी श्री अगरचन्दजी नाहटा
(ले०-श्री हजारीमल वाँठिया)
श्री अगरचन्द नाहटा-हिन्दी साहित्य संसारमें सर्वत्र जन्म-श्रीमान् नाहटा नीका जन्म वि० सं० १९६७ प्रसिद्ध हैं। बीकानेर के प्रमुग्व माहित्यकारोंमें स्वामी नरोत्तमः चैत्रबदी ४ को बकानेर के लभ प्रतिष्ठित श्रोसवाल कुल में दासजी और दशरथ जी शर्मा के बाद श्राप ही का नाम लिया श्री शंकरदानजी नादटाके घर में हुआ। श्रार अपनी माता जाता है। आपने हिन्दी माहित्य के इतिहासमें जो सेवा की पिताकी कटि संतान है । आपके ज्येष्ठ भ्राता श्री है, वह अभिनन्दनीय है। हिन्दी साहित्यके प्राय: सभी भैरोदानजी. सभयराजजी और मेघराजजी बीकानेर के कर्मठ साहित्यकारोंका यह मन्तव्य रहा है कि जैनोंने हिन्दी में कोई समाजसेवी एवं मिलनसार व्यक्ति हैं। महत्वपूर्ण रचना नहीं की है, जो की भी है वह साम्प्रदायिक बाल्यजीवन और शिक्षा-जैसा कि ऊपर लिखा जा है। पर आपने अपने लेग्यो द्वारा हिन्दी साहित्यकारोंको यह चुका है, अापने साधारण शिक्षा ही प्राप्त की है। इसका भ्रमात्मक सिद्ध करके प्रमाणित कर दिया है कि प्राचीन- कारण यह है कि आपके ज्येषु भ्राता स्व. श्री अभयगमजी काल में भारतीय संस्कृति और हिन्दी साहित्यके निर्माणमें नाहटाका, जो अच्छे, विद्वान् एवं एफ. ए. प्रीवियस थे, जैनविद्वानोंका पूरा पूरा हाथ रहा है अतः वे हिन्दी-साहित्य २२ वर्षकी अवस्था में अकाल देहान्त हो जानेके कारण के इतिहासमें गौरवपूर्ण स्थान पाने के अधिकारी है। अतः आपके पिताश्रीने प्रारको ज्यादा शिक्षा नहीं दिलवाई। अापके इस कार्य के लिये हिन्दी-साहित्य हमेशा ऋणी रहेगा। श्रापको शिक्षा केवल ६ कक्षा तक स्थानीय श्रीजैनपाठशाला श्राश्ने उच्च शिक्षा प्राप्त न करके भी साहित्य क्षेत्रमें अपने में हुई। श्रापकी साहित्यमाधनाके विषयको लेकर "तरुणअध्यवसाय लगन कर्मठता द्वारा जो उन्नति की है वह जैन" के संपादक श्री भंवरमल जी सिंधी, बी०ए. साहित्यअनुकरणीय है। श्राप अभी नवयुवक हैं, फिर भी आपकी रत्म' ने लिखा हैप्रतिभाकी प्रशंसा वयोवृद्ध श्रद्धेय श्रीभाजी, मुनि जिनविजय
'यह श्राश्चर्य और उल्लामकी बात है कि एक कुशल जो श्रादिने मुक्तकंठसे की है।
और व्यस्त अध्यवसाय होने के साथ-साथ श्रीनाहटाजीको इन पंक्तियाँका लेखक अापके अान्तरिक एवं बाह्यसे साहित्यके अध्ययन और खोजका हनना शोक हे कि कालेज सुचारु परिचित है । यह श्राप ही की कृपा एवं सत्संगका और यूनिवर्सिटीकी शिक्षा न प्राप्त होने पर भी आपने अपने फल है कि इस लेखके लेखकको भी सरस्वतीकी उपासना अध्यवसाय द्वारा भाषा और माहित्यमें अच्छी प्रगति की।" करनेका सुअवसर प्राप्त हुया और उसने अपनी कुछ तुच्छ
नवजीवनका अभ्युदय-पाठशालासे विदा लेकर रचनाएं हिन्दुस्तानी', 'अनेकान्त'. 'समाज-सेवक' चाल. श्री नाहटाजी व्यापारिक क्षेत्रकी श्रार अग्रमर हप। इसके
लिये श्रापने सर्व प्रथम १४ वर्षकी अल्पायुमें वि० सखा', 'भुनभुना', 'जैनसत्यप्रकाश', 'जैनध्वत्र', 'वीरपत्र' और 'जैन' श्रादि कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाई।
सं० १९८१ मिति प्राषाढ़ मुदी ६ को सिलहट कलकत्ता श्रत: अधिक जानकारी रखनेके कारण संक्षिप्त परिचय
श्रादिकी यात्रा व्यापारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये की।
डेढ वर्षकी लंबी यात्रा कर श्राप वापिम बीकानेर वि. प्रकाशित कर रहा हूँ।
सं० १८८३ में आये सौभाग्यवश वि० सं० १९८४ माघ १ हिन्दीसाहित्यका प्रारंभिक-वीरगाथाकालके सम्बन्धमें सुदि ५ को प्रात:स्मरणीय स्व. श्री कृपाचन्द्र सूरिजी व उन
अापने गहरी छानबीन कर नवीन प्रकाश डाला हे इस के शिष्य उपा० सुग्वसागरजी महाराज बीकानेर पधारे और सम्बन्धमें श्रापके नाम प्रवर राजस्थानीमें प्रकाशित श्राप हीके बाबा-श्रीदानमलजी नाहटेको कोटड़ी में विराजे ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
पूज्य महाराजश्रीके सत्संगसे आपके हृदयमें जैन- जनिक क्षेत्र अभी इतना विशाल नहीं है। भिर भी श्र. साहित्यके मनन एवं पुनरुद्धारकी उत्कट अभिलाषा उत्पन्न भा० मारवादी सम्मेलनकी सिलहटशाखाने श्रापके कार्योसे हुई। और उन्हींकी सत्संगतिसे श्रापका हृदय साहित्य, धर्म प्रभावित होकर आपको अपना मंत्री चुना था। और साथ तथा अध्यात्म जैसे गूढ़ विषयोंकी ओर आकृष्ट हुश्रा।
ही सम्मेलनकी कलकत्ता वर्किङ्ग कमेटी तथा नागरी प्रचायहींसे आपकी प्रतिभाके प्रस्फुटन के लिये क्षेत्र मिलता है
रिणी सभाकी प्रबन्धकारिणी कमेटी (सं० १९६८-१९६६) और वे अपने उद्देश्यकी प्राप्ति के लिये बद्ध-परिकर हो
क लिये श्राप सदस्य निर्वाचित हुए हैं। इसके अतिरिक्त जाते हैं।
प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूपसे बार बीकानेरके साहित्यिक और श्रापका धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन भी विशेष
जैनसामाजिक कार्योंमें निरन्तर भाग लेते ही रहते हैं।
बीकानेर राज्यके सात्यि-सम्मेलनके अन्तर्गत राजस्थानी महत्वपूर्ण है। श्राप वर्षभर में कभी रात्रिमें भोजन करना तो
साहित्यपरिषदके श्राप सभापति भी रह चुके हैं। दूर रहा पानी भी नहीं पाते । श्राप प्रातदिन सामायिक एवं
साहित्य क्षेत्रमें आपने विशेष रूपसे प्रगति की है। स्वाध्याय करते हैं। जैनग्रन्थोंका अापने गहन अध्ययन एव
श्राप हिन्दी एवं राजस्थानी भाषाओंके उत्कृष्ट लेखक अनुशीलन किया है। जिसके परिणाम स्वरूप आपने
संकलन कर्ता एवं संपादक है। आपकी भाषा सरल, सार, 'सम्यक्त्व' नामक एक पुस्तक लिखी है जो अभी अप्रकाशित
गर्भित व नवीन विचारोंसे अोतप्रोत रहती है। जो कुछ भी है। आध्यात्मिक विचारणा श्रापका अत्यन्तप्रिय विषय रही
श्राप लिखते हैं, उसे प्रमाणोंकी तराजूमें तौलकर लिखते अापने भारतके प्राय: सभी जैन-तीयों और ऐतिहासिक
है। आप गंभीर विचारक एवं अन्वेषक है। राजस्थानी स्थानोका पर्यटन किया है।
साहित्य और जैनसाहित्यके सबन्धमें आपने अनेक बहुत महव्यापारिक क्षेत्र--अापने व्यापारिक क्षेत्रमें भो
त्वपूर्ण खोजें की हैं। जैनसाहित्यमें तो श्राप विशेष पारंगत है। आश्चर्य-जनक उन्नति की है । आपका व्यापार कल- आप कई वर्ष पूर्व कविता भी करते थे आपकी कविकत्ता, बोलपुर, चापड़, सिलहट, मलपाडा ओर बाबूरहाट तानोंकी संख्या करीब १०० है, जिनमेंसे बहुत सी अप्रकाश्रादि प्रासाम-बंगाल प्रान्ताम पाट, चावल, गला कपड़ा और शित है। बाद में आपने कविता करना इस विचारसे छोड श्राढतका होता है। सिलहट व बाबूरहाटकी दुकानोंका दिया कि हमारी प्राजकलको कविताएं दुनियाँका इतना काम आप ही देखते हैं। बाबूरदाटमें तो जनता 'अगरचंद या नही कर सकती. जितना कि प्राचीन कवियोंकी नाहटा' फर्मको 'राजा बाबू' का फर्म कह कर पुकारती है।
उत्कृष्ट रचनाएँ। वे नष्ट होती रहे और हम नवीन रचनामें आपने अभी सिलहटमें 'नाहटा होजियरी' नामक एक लगे रहें उनकी कदर न करें यह अनुचित है ,इसी हेतु श्राप फैक्टरी स्थापित की थी।
प्राचीन कवियोंकी कविताओंका संकलन कर उन्हें प्रकाशित व्यक्तित्व-श्राप सरलता और सादगीकी साक्षात्
का पक्षात् कर रहे हैं जिनका एक संग्रह 'ऐ. जैनकाव्य संग्रह' के मति है । आपके जीवनकी यह एक विशेष महत्तकी नामसे प्रकट हो चुका है। बात है कि इतने प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं घनी आप निरन्तर कुछ न कुछ लिखते ही रहते हैं । आप होकर भी श्राप पाश्चात्य फैशनके गुलाम नहीं है, जो कि दिन किसी क्षणको श्रालस्यमें न गंवाकर साहित्यसेवामें आजकलके नवयुवकोंमें अधिकांश रूपमें दृष्टिगोचर होती लगाते हैं। आप कशल व्यापारी हैं फिर भी व्यापार करते है। अभिमान तो आपको छू तक नहीं गया है। जो भी
भा हुये जो समय बच रहता है वह साहित्य सेवा ही में व्यतीत
हो प्रापसे एक बार मिल पाता है वह आपके व्यक्तित्वसे अव
इ अापक व्याक्तत्वसे अव करते हैं। मेंने इन्हें कभी व्यर्थकी गर्षे हाँकते नहीं देखा । प्रय प्रभावित हो जाता है। श्राप होनहार उत्साही एवं नवीन जब देखता है तभी इनकी लेखनी अविभान्त गतिसे चलती विचारोके युवक है। इस समय श्रापके धर्मचंद नामक एक ही रहती है। आप जब बीकानेग्में निवास करते हैं तब श्राप पुत्र व दो पुत्रियां हैं।
दिनरातमें १२ घंटे साहित्यके पठन, संग्रह एवं लेखन में साहित्यिक और सार्वजनिक क्षेत्र-आपका सार्व- व्यय करते हैं। सच है परिश्रमका फल मीठा है। आप
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किरण १]
महावीर-उपदेशावतार
"Simple living and high thinking" के. की अप्रतिम्प संग्राइक-निके साक्षात् उदाइ गए हैं । श्रीमान् ज्वलन्त उदाहरगा हैं।
रायबहादुर डा० गौरीशङ्कर जी श्राझा अपने बीकानेर गायक अापक लेख जैन तथा जैनेतर सामयिक पत्र-पत्रिकाओं, इतिहास ग्वण्उ २ पृ. ७१५ में लिखते हैं कि -"यह यथा हिन्दुस्तानी', 'राजस्थानी', 'भारतीयविद्या', 'जैन- प्रमन्नताका विषय है कि बीकानेर के उत्साहा जैन युधकासिद्धान्त', नागरी प्र० पत्रिका',जैनसस्य प्रकाश', 'अनेकान', अगरचंद भंवरलाल नाइटा (ोसवाल) ने अब इस प्रा नान श्रादिमें निरन्तर प्रकाशित होते रहते हैं। श्रापक प्रत्येक जैनमाहित्यके उद्धारका भार अपने हायम लेकर वदाम लेखमें अापकी सूक्तगवेषणाशक्ति नवोन्मेषशाल प्रतिमा प्राप्त मामग्री के श्राधार पर अालोचनालक ढगस कुछ सुंदर एवं मर्वतामुखी मेधाका विलक्षण साम्मश्रण दाता है। अब ग्रन्थोकी रचना की है, जो इन दासक लिये महत्वपूर्ण है। तक अापक २०० से ऊपर लेग्व सामयिक पत्र-पत्रिका में नाहटा बन्धुश्रीने नष्ट होने वाले जेनसाहित्यक ग्रंथोमा परिप्रकाशित हो चुके हैं। आपको कई वर्ष पूर्व जिनदत्त सूरि' श्रम पूर्वक निजी व्ययम बगद कर अपने संग्रह में सुरक्षित नामक लेखके लिये फलौधी जैन संबकी ओरमे एक रजत कर लिया है । बीकानेर यात्रा के समय मुझे कई बार उनके पदक भी मिला था।
मंग्रह को देखने का अवसर मिला था।" आप लेग्वक मंग्राहक के अतिरिक्त उच्च कोटि के ममा
श्रापके साथ यापक भ्रातपत्र श्री भंवरलाल जी नाहटा लोनक एवं समादक भी है। श्राप कलकत्तेसे प्रकाशन
भी माहित्यिक क्षेत्रम नलगन है। आपने अभी तक ७ ग्रंथो "राजम्याना" के सह-संपादक भी रह चुके और अभी 'राज
का प्रयापन किया है। जिनमम 'युग प्र. श्रीजिनचंद्रमार', स्थान भारती' के संपादकीम भी आपका शुभ नाम है।
'दादा कुशल सरि', 'मांगधारी श्री जिनचंद्रमार' तथा तआपने अपने यहाँ ‘अभय जैनपुस्तकालय', 'अन्य जैनग्रन्थमाला' तथा 'नाइटा कलाभवन' की स्थापना की है।
हासिक जैनक व्यसंग्रह मुग्न्य है । ये ग्रन्थ दामिक हासे
अत्यन्त महत्व के हैं। ये मात्र ग्रन्थ आपके अनेक वर्षांके श्रापके संग्रह में १००० के लगभग हस्तलिखित प्रतिये
गद अन्वेषण और परिश्रमके फल है। भारत के प्राय: ५००० के लगभग मुद्रित ग्रंथ हैं तथा अन्य प्राचीन सामग्री।
मभी हिन्दी माहित्यिको ऐतिहानिकाच पगनत्याचाोंने श्राप यथा 'चत्रों, सिक्कों आदि का भी अच्छा संग्रह है। ये श्राप
के ग्रन्यांकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। १ प्राचीन पंचाग, गजामहाराजाओंके, ग्वाम रुका ओसवाल वंशावलिये ग्राद महत्वपूर्ण सामग्री ।
महावीर-उपदेशावतार (लेखक--पं० अजितकुमार जैन शास्त्री )
स भारत व गुन्धराको जो प्रगणित विश्ववंद्य मानवजीवनको उन्मन बना देनेवाली यौवन दशाने * महान चारमाएँ उत्पन्न करने का सौभाग्य प्राप्त राजपुत्र महावीरक हृदय प्रापन पर रनमात्र भी अधिकार
है वह अन्य किसी देशको नहीं मिल सका। न जमा पाया । जगतकी विश्वमोहिनी विभूतियोंने उनके । जगतको पवित्र अहिंमाका दिग्य सन्देश देने प्रचलचित्तको लेशमात्र भी प्रभावित न किया । अतएव
वाले भगवान महावीर भी इसी भारतभूमि अन्य प्राणधारियोंको बन्धनसे छहाने वाले महावीर प्रभु पर मगध देशमें अवतरित हुए थे । कुंडनपुरक सजा म्वयं विवाह बन्धनमें न बँधे श्रीर ३० वर्ष यौवन काल में सिद्धार्थकी रानी त्रिशलाकी कुक्षिमे इस अनुग्म ज्योतिधारक ही राजविभूतिको ठुकर। कर गृह जन्जाल मे अलग होगये. रस्नका प्रादुर्भाव हुश्रा था।
इस आदर्शस्यागने भगवान महावीरकी ओर संसारका
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अनेकान्त
। वर्ष
दृष्टि-पाकर्षण किया।
पशु वर्ग के लिये पृथक् पृथक बैठनेके सुन्दर स्थान थे, तदन्तर मांमारक वातावरणमे दूर रहते हुए, वन- दिव्य प्रकारास समवशरण रात-दिन जगमगाता था। असंख्य पर्वतोंका निर्जनभूमिमें भगवान महावीर ने दुद्धर्ष तपस्या प्रणधारी भगवान महामोरके दर्शनार्थ तथा दिव्य उपदेश की। सी. गर्मी. वर्षा अपने 'गे शरीपर बिताते हुए सुननेके लिय वहां एकत्र हुए । सब में उत्साह था, भानंद एकान्त स्थानोंगर १२ वर्ष तक पूर्ण मौन रहकर काटन था और तीव्र इच्छा इस बात के सुननेकी कि 'देखें भगवान तपश्चर्या करते रहे। इस विकट, अमाधारण तपश्चरणने हमारे उद्धारके लिये क्या कुछ अमोघ उपाय बतलाते हैं।" महामा महावीरको भगवान महावीर बना दिया ।
किन्तु महान अश्चर्य हुश्रा सब किसीको यह देखकर मात्माको मांसारिक कारागारमें बलात् रोक रखने ली घातक कर्मबेड़ी महावीरकी महती तपस्यापे टूट कर अलग
कि "भगवानका मौन दूर नहीं होता । साधु अवस्थाका जा पही जिममे कि उनक' श्रामीय अनन्त, अनुपम प्रकश
१२ वर्षका मौन अब भी बना हुआ है । यह बात तो ठीक
है कि भगवान निरीह, नि:स्पृह है। उन्हें कोई भी किमी इस प्रकार प्रादुर्भून हुपा जिम प्रकार सूर्यपरमे याद नीका
भी प्रकार का राग या इच्छाभाव नहीं, जनताको उन्होंने पटल हट जानेमे उपकी ज्योति निकल पाती है। मुयकी
अपने निकट बुलाया नहीं और न उन्हें यह लालसा ही है ज्योति सीमित होती है किन्तु भगवान महावारको पूर्ण,
कि जनसमुह उनके पास भाकर बैठे, जनता उनके पास निर्मल ज्ञानज्योति प्रीमित थी उस ज्योनिमें समस्त
श्रावे नो क्या और न श्रावे नो क्या. उनके लिये दोनों (निलोक, अलीक, विश्व इस प्रकार प्रतिबिम्बत होना था
बात समान है, वे समस्त अभिलाष ओम प्रतीत होचुके हैं, जिस प्रकार निर्मल दर्पण में मनुष्यका मुख।
यह सब कुछ ठीक है किन्तु यह भी तो ठीक है कि अभी इम मिवाय मोह, राग, द्वेष, मद श्रादि श्राध्या
वे शरीरधारी है, वाचनिक माधन उनके निकट हैं, तीर्थ कर स्मिक दुषित मल पूर्णतया महावीरक महान श्रा'मा जिमम
कर्मप्रकृति अभी समाप्त नहीं हुई. मौन ( मूक ) केवली वे सर्वथा हट गये थे इस कारण भगवान महावीर प्रकार
हैं नहीं उन्हें तो इच्छ। विना भी तं यंकर प्रकृति अवश्य पूर्ण ज्ञानी थे उसी तरह पूणनिरजजन-स्वच्छ भी थे। एवं श्रामिक अनन्त शनि, उनके श्रामाम प्रगट हो
बुलवावेगी, उनके पापारिक निरावरण परिपूर्ण ज्ञानका
श्रांशिक ला जन-धारणा को अवश्य पहुंचावेगी, उनकी चकी थी और प्रारमासे विकलता पर्वथा दूर होजानके
मान्यता और विश्वपूज्य भावका भी प्रधान कारण यही कागा भगवान महावीर निविन निराबाध, परिपूर्ण सुख
दिव्य उपदेश है फिर वह अब सब धन मिलने पर भीक्यों भी प्राप्त कर चुके थे । इस प्रकार व शरीरधारी किन्तु
नहीं हो रहा, क्या कमी शेष रह गई है ?" बन्धनविमुक्त जीवन्मुक्न थे। भगवान महावीर के सर्वज्ञता दृष्टा होने का वह शुभ दिवस सामान
इत्यादि विनारधार ये आगन्तुक श्रोताओंके हृदयमें बह जीवन के ४३ व वर्ष वैशाख शुक्ल पक्ष का दशवां दिन था। रही थीं। "शायद थान नहीं तो कल भगवानका तीन
नाकलोकनामी देवोंको तथा उनके अधिपति सौधर्म भंग अवश्य होगा। इस प्रतीक्षामें जनता निराश न हाँ। इन्द्रको जब भगवान महावीरके कैवल्य प्राप्त होने का शुभ किन्तु यह क्या २-४-१०-२० दिन ही क्या, पहला और ममाचार ज्ञात हश्रा नब वे इस पृथ्वीतलकी सबसे बड़ी दूपरा माप ममाप्त होगया और दो मामके पीछे भी विभूतिको अपने नेत्रांप देखने ममाह पाये। जीवन्मुकका भगवान मुखमरसे उपदेशधारा प्रवाहित न हुई । जनता दर्शनकर बहुत हए और सन्तुष्ट हए । इन्द्रने भगवानके
में अदभुत हैरानी थी। यह तो श्रोताओंको निश्चय था कि दिव्य उपदेश प्राप्त करने के लिये अद्भुत सुन्दर, विशाल
उपदेश तो अवश्य होगा किन्तु यह अनिश्चय सबको दिव्य सभा मंडपका निर्माण कराया जिसका नाम बिकल कर रहा था कि वह होगा कौनसे शुभ समय ! 'समवसरण' था । समवशम्याके मध्य में उच्च स्थानपर भगवानका प्रधान भक्त इन्द्र सबसे अधिक विस्मित भगवान विराजमान थे । उनके चागों ओर देव, मानव, था क्योंकि भगवान के कैवल्यसे लाभ उठानेका सारा प्रबंध
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महावीर-उपदेशावतार
तो उमीने किया था उसीकी बनवाई समवशरण मभामें समस्त तस्वोंका मुचम विवेचन कैसे होगया यह बात तो असंख्य जनराशि एकत्र हुई थी। श्रागन्तुक जनताको लाभ जान बूझकर संकल्प के कारण ही हो सकती है, कोई भी पहुँचवानका प्रधान उत्तरदायित्व तो उपीका था किन्तु बान वक्ता निरिच्छुक रूपमे ठीक बाख्यान नहीं दे सकता" ? उपके वशकीन थी वह विवश (लाचार) था।
यह श का स्वयं हल हो जाती है जब.क हम यह उसने अपनी अवधि-ज्ञानशक्ति भगवानके मीन- देखते हैं । बाणीका ज्ञानसे गहरा सकी । जिस अवलम्बनका कारण जानना चाहा कि भाखर कौन सी ज्ञानश्रेणीका व्यक्ति होता है उसको आकस्मिक वायी भी कमी रह गई है जिससे मेरा प्रयत्न मन नहीं हो रहा? उमी ढंगकी निकलती है । विद्वान स्वादश में भी यद तब उसे ज्ञात हश्रा कि यहां और ना सब कुछ- बड़बड़ावेगा तो उसके मुख से निकले हुए शब्द मुर्व मनुष्य कन्तु कुछ भी नहीं है। उपदेश सुनने वाले असख्य
के शब्दोंसे भिन्न तरह के होंगे उनमें भी विद्वत्ताकी झलक प्रागी भी यहां एकत्र है किन्तु प्रधान श्रोता यहां एक भी होगी। यदि कोई डाक्टर (विशेषज) शराबके नशे में बढ़नहीं है। प्रचंड वाग्धाराको महन करने वाली प्रयत्न ज्ञान- बदावे तो उसे अनुद्दिष्ट इच्छाक अभावमें निकली हई धारिणी चट्टान यहां पर नहीं। अत: दिव्य उपदेशको पूर्ण
वचनावली में भी विशेषज्ञता या उक्टरीकी गंध पाई धारण कर आगे उसे फैलाने वाला महान व्यक्ति जब तक जायगी। यही बात भगवानकी दिव्यध्वनिक विषयमें यहां न हो तब तक भगवानका मौन-भंग भी कपोंकर हो। समाधान कर देती है। सिंहनीक दृषके लिये स्वर्णपात्र चाहिये। अत: गणधर चूकि वे भर्वज्ञ थे इतना ही नहीं किन्तु अनंन शकि(अहन्तके दिव्य, महान ग न उपदेशको सुनकर अपने सम्पन्न, पूर्ण निरजन, पूर्ण निराकुल भी थे जनसाधारण हृदय पटल पर लिव लेने वाला अनुपम विद्वान की कमी की अपेक्षा उनमें अनुपम विशेषाएं विद्यमान थीं-वे ही इस मौनका प्रधान कारखा है।
लोकोत्तर हो चुके थे। अत: इच्छा न रहते हुए भी उनकी तब इन्द्र उस समय सबसे बड़े विद्वान इन्द्रभति वाग्धारामें सर्वजनाकी झलक थी जैसा वे निरावरण, गौतमको एक युक्तिये समवशरणमें लाया। भगवानका पूर्ण ज्ञानम जानत थ उनक वन
पूर्ण ज्ञानम जानते थे उनके वनन भी वैमा हा प्रांतपाइन दर्शन कर इन्द्रभूति गौतम निरभिमानी होकर भगवानका
करते थे। यदि एक वैद्य अपनी स्वमदशा बोलता भक्त बन गया। उपदेशको श्रवण कर, उप धारण कर
हा वना इराकी वाणी में भी किसी गगका ठीक निदान लेने वाला प्रधानपान श्रागया, भगवानका मौन स्वयं भंग और चिकिया बतला देता है तो सदा जाप्रत सर्वज्ञानाकी हुश्रा, उपदेशधारा भगवानके मुम्खये बह चली। जिम निरिच्छ वाणी सर्वज्ञताकी छाप कैग नावेगी ? प्रकार बुद्धिमान भव्य शिष्यके प्राजानेपर विद्धन गुरुके
जगतमें बहुत अधकचरे मनुष्य विना यथेष्ट जान हरयमसे विद्याका स्रोत मुखद्वारमे स्वयं निकल पड़ता
किये उपदेशकका चोगा पहन लेते हैं और अपने अधूर, या वत्मक निकट भाजानेपर गायका दृध स्वयं टपकने
अपक्व ज्ञानस जनताको तथा अपने पापको पथभ्रष्ट करते लगता। तीर्थकर प्रकृतिको भी बाहरी साधन उपलब्ध
है । परन्तु श्रीवीर प्रभुने जब नक स्वय पूर्ण ज्ञान और हा और भगवानकी दिव्य ध्यान बिना किसी इच्छाके
प्रारिमक पूर्ण शुद्धिको प्राप्त न कर लिया तब तक माधु भी उपदेश होने लगा।
अवस्थामें १२ वर्ष तक किमीको कुछ उपदेश न दया । ___ भगवान के दिव्य उपदेश प्रारंभ होने का वह प्रथम अपना सुधार किये विना दुसरेके लिये लम्बे लेक्चर झाड़ने शुभ दिवस श्रावण वदी प्रतिपदा था। इस प्रकार अन्त वाले व्याख्यानदाताओंको भगवान महावीरके इस श्रादशम होजाने पर भी ६६ दिन तक गणधरके असद्भावमें भगवान उपयोगी शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है। महावीरकान रहा।
__'योहा बोलो अधिक काम करो' यह बात तो भगवान "इच्छाके अभाव में भी भगवान महावीरके उपदेशमें जकी जीवनचर्यामे पद पदपर टपकती है।
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जैसलमेर के भंडारोमें प्राप्त कुछ नवीन तापीय प्रतियां
ताड़पत्रीय
(लेखक श्री अगरचंद-नाइटा, भंवरला नाहटा बीकानेर)
|| श्वे
X
8
Xx3 ताम्बर जैन हस्तलिखित ज्ञानभण्डारोक लिए जेपलमेर बहुत ही प्रसिद्ध स्थान है। यहां की तापीय प्रतियोंका पूरा विवरया गायकवाद श्ररिन्टयल सिरीजद्वारा सन् १९२३ में एक सूचीपत्र स्वर्गीय चिमनलाल डाह्याभाई दलाल और श्री पं० लालचंद भ० गांधी द्वारा सम्पा दिन प्रकाशित हुआ था जिसमें बड़े भंडारी ३४० ताश्वाय प्रति उपागच्छीय भंडारकी सा०प्रतियोंका परिचय प्रकाशित हुआ है । स्वर्गीय दलाल महोदय ने बहा भंडार, तपागच्छ भंडार, इगरजी यतिभंडार और मेट थाहरुपाहका भंडार इन चार ज्ञान भंडारोंका दर्शन, अवलोकन किया और प्रतियं के अतिरिक्त थोडेसे कागज पर लिखे महत्व पूर्ण ग्रंथोंका परिचय भी उप सूची में दिया है । उस सूचीके अवलोकनके बाद यदि पंचमीचंदजीकी बनाई हुई बड़े भंडार के कागजके प्रथोंकी विस्तृत सूची में उन्हीं पवित्री द्वारा प्राप्त हुई थी। उनके अवलोकनके अनन्तर कई वर्षो हमारी प्रबल उत्कण्ठा थी कि जेसलमेर के समस्त ज्ञान भंडारोंको भली भांति अवलोकन किया जाय । सौभाग्य वंश अभी वह उत्कण्ठा पूर्ण हुई, श्रीजिनहरिसागरसूरी जी महाराज वहां विराजनंसे हमारे इस कार्यमें बहुत कुछ के साहाय्य मिला सं० १६६४ के श्रवण कृष्णा १४ के दिन संध्याकी गाडी बीकानेरसे रवाना होकर अमावस्याकी रात्रिमें पाहड़मेर पहुंचे, प्रतिपदा के दिन वहांके मन्दिरों के दर्शन-पूजन, लेखों का संग्रह और यतिवर्य श्री नेमीचंद्र जीके कुछ हस्तलिखित ग्रंथोंका अवलोकन कर संध्या समय मोटर द्वारा जेसलमेरको रवाना हुए। प्रातः काल जेसलमेर पहुंचकर वहां के दुर्गास्थित भव्य अजिनालयों का दर्शन पूजन किया तदनंतरमी के दर्शन कर उसी दिन दुपहर में यतिवर्य उ० श्री वृद्धिचंद्रजीके संग्रहका
निरीक्षण किया। द्वितीयाको यह कार्य समाप्त कर दो दिन में यति श्रीङ्गरसीजीके भंडार के समस्त ग्रंथोंका अवलोकन किया इन दोनों भंडावलोकनमें श्रीयुत लक्ष्मं चंदजी यतिका सहाय्य उल्लेखनीय था, इसके बाद दो दिन तपागच्छीय भंडार के समस्त ग्रंथ देखने लगे। इसके पश्चात् खरतर आचार्य शाखा के भंडार वानेके प्रयत्न में कुछ विश्राम करना पड़ा इसी बीच उसी उपाश्रय के यति के संग्रहको देख कर दो दिनमें प्राचार्य शाखा के भंडारकं थंडेम ग्रंथोंको देखने में लगे फिर दुर्गस्थित श्रीजिनमद्रसूरी ज्ञान भंडार (बदा भंडार के आवश्यक प्रयोका निरीक्षण कार्य प्रारम्भ किया गया। इसी बीच दो दिन बौद्रवाकी यात्रामें लगे, श्राते समय अमरसागर के मन्दिरोंका भी दर्शन किया । तदनंतर चाहरु साह भंडारका प्वलोकन करके बड़े उपायके पंचायती भंडार शादी में अवलोकन किया। समय समय पर दुर्गास्थित मन्दिरोंके लेखोंका मिलान * एवं अप्रकाशित लेखोंका संग्रह और बड़े भंडारके ग्रंथों के अवलोकनका कार्य चलता रहा, इस प्रकार २२ दिन जेसलमेरकी साहित्य यात्रा करके वाहड़मेर भाकर स्वर्गीय यति इंद्रचंदजीके ग्रंथोंका निरीक्षण किया, वहांसे श्रा समय फलौदी तीर्थ की यात्रा कर २६ दिनोंसे भादवा बदी १० को रात्रि में बीकानेर पहुंचे।
जेमनमेर में कुल 8 ज्ञान भंडार हैं जिनमेंमें चारके ग्रंथों कुछ परिचय प्रकाशित हो जाने प्रसिद्ध है हमने उनके अतिरिक्त हमने उनके अतिरित १४० वृद्धिचंदजीका संग्रह २ बढ़ा उपासरा पंचायती भंडार, ३ स्वतराचार्य शाखा भंडार, ४ यति चुन्नीलालजीस संग्रह, इन चारों भंडारों का नया अवलोकन किया इनके अतिरिक्त लुवगच्छके • नादरजीके जैन लेखसंग्रह ३ रे भाग (जैसलमेर) से ।
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जेसलमेर के भंडार में प्राप्त कुछ नवीन ताड़पत्रीय प्रतियाँ
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उपाश्रयमें भी थोड़ा संग्रह है पर कई अनिवार्य कारण वश ११८ आश्विन वदि । अणहिल पत्तनमें जयसिंह देवके प्रयत्न करने पर भी उसे न देख सके। जिन नये चार राज्य में लिखित । भंडारोंको हमने देखा उनमें से खरतर पंचायती भंडारमें ५४ भनेमिनाय चरित्र-का-हेमचंद्रसूरि पत्र १६१। और खरतराचार्य शाखा भंडारमें ६ कुल २० ताडपत्रीय रवीरचरित्र-कर्ता हेमचंद्रसूरि, पत्र १७२ । प्रतिये नवीन मिली उनका परिचय इस लंख में कराया . अजीतकल्पर्णि:-कर्ता-चन्द्रसूरि जा रहा है।
श्रावकप्रतिक्रमणवृत्ति कर्ता-तिलकाचार्य पंचायतीभंडार'(बका उपाश्रय)की ताडपत्रीय प्रत्रिय-- " स्याद्वादरस्नाकर-कर्ता वादिदेवमूरि, पत्र २७३।
जीतकल्पचूर्णि-पत्र १०६ अंतमें प्रायश्चित सिद्धपेन १२ स्कंदपुराण-पत्र १८५। कृत समाचारी पत्रांक ११७ से जीतकरूप बृहरचर्णि-धनेश्वर
१३ श्रावकप्रज्ञप्ति, सूक्ष्मार्थ विचारसार जिनवल्लभ सरि शिष्य श्रीचंद्रसूरि कृत पत्रांक १८७ में पूर्ण हुई है।
सूरिकृत) बड़ी संग्रहणी, भवभावनाप्रकरण (हेमचन्द्र इस चूर्णिका श्रादि भ ग त्रुटित प्रतीत होती है।
सूग्कृित), सत्तरी, कुन पत्र १६२, सं० १२०६ कार्तिक २ योगशास्त्रमवृत्ति-कर्ता हेमचंद्रसूरि, पत्र ३१८ शु १३ रवि०लि. इसका पुष्पिका लेख यह: - सुतेन साधु गुण चद्र मा.
१४ पाक्षिक सत्र वृत्ति-यशोदेवसू रिकृत, सं० ११८० भुवनचंद्र सकल दिग्वलय विख्याता वा. वातकीर्ति कोमुदी
पाटण में रचित प० २४.। विनर्जितामचन्द्र साधु भी हेमचंद्र महिपाल मा रत्नभ्राता
खरतराचार्यशाखा उपाश्रयकी ताडपत्रीय प्रतियसकल गु........."न सा. महण श्रावण श्री ......."
तिलकमअरी-धनपालकृत, पत्र १६४, सं. नप्रबोधसूरिशिष्यावतंशाना श्रीजिनचंद्रसूरिसुगु णां व्याख्यानाय प्रदत्तं ।
१२५५ श्रीमाल गोत्रीय लक्ष्मण के वंशज यशोधवन की पुत्री
कक्मिणीने सुमलिसिंह मुरिको समर्पित की. इस प्राशयकी ३ अंग विजा--पत्र २६६
है श्लोकोंकी प्रशस्ति है। दपरी प्रशस्तिमें लिखा है कि ४ अरविजय-महाकाव्य सर्ग २, स्नाकर कवि
सं० १४३१ पत्तनमें श्री जिमोदयसूरि राज्ये ज्ञानकवश कृत, पत्र १०७, सं०१२२८ वैशाख सुदि अणहिल पत्न में विविध लिपिज्ञ पं० सूपट लिखित ।
मुनि पश्चात इह मुनिमेरूनंदनः । व वसुदेव हिण्डी प्रथम खण्ड, पत्र १५८ ।
२ सर्वज्ञारीक्षा-पत्र ४, गा० ४।।
ब दुषम गंडिया गा० १०० ५ नन्दीर्णि:-शक संवत् ५६८ में रचित, पत्र
म वोच्छेय गंडिका गा १७५ १८५ से २२३ पूर्ण।
दमामुद्रिक श्लोक १६ ६ अ दशबैकालि कर्णि-पत्र १८४ ।
ई पार्श्वनाथाष्टक फ बृहत शान्ति व अनुयोगद्वारणिः
ज कालचक्र गा० २४ आदि स ताडपत्रीय पुस्तक काष्ट फलकोपर बरही
३ तिलक मंजरी पत्र अपूर्ण सुन्दर और चमकीले रंगके चित्र चित्रित हैं जो देखने में
४ छ अजितशान्तिवृत्ति-मूल-जिन वल्लभ टीकाप्राचीन होते हुए भी बिलकुल नएमे प्रतीत होते हैं।
धर्मतिलक, सं० १३२२ फा. सु. ६ लिखित पत्र । पंचकल्पचूर्णि-पत्र २०१, ग्रंधान ० ३१२५, देवा
व महादेव लक्षण-हेमचंद्र मूरि चार्य कृत ।
स प्रतिष्ठाविवाद मोहोन्मूलन, पत्र ३५ । मनिसवतचरित्र-पत्र ३७४, श्रीचंद्रमूरि कृत, सं.
जिनजामनिया श्रीलादेशान्तो। १इसकी सूची यतिचर्य श्रीलचमीचंद्रजी महाराजने बनाई। ख्याते मुटुकेश्वरे मुरुवरे कस्यापि सूरे पुरः॥
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अनेकान्त
[वर्ष ८
प्रावीगयातिशयस्य सूचकमिदं मोहनदं चेतसो । १० प्रस्तावोंमें ग्रंथयुग्म समाप्त होते हैं। वादस्थानकमाशु दुर्जनजना हंकार हचक्रिरे । ३--प्रति नं. ६ पंचमीकथाका लेखन समय
५ भ पंचाशक (हरिभद्रसूरिकृत), व दशनविशुद्धि सं० ११०६ भी मूल प्रतिके अक्षरोस भिन्न है अतः वह गा० १३०, स पचलिङ्गी (जिनेश्वर सूर), द श्रावकवत. ता भा पीछेसे किसीने लिखा प्रतीत होता है। (जिनेश्वरसूर), ई आगमिकवस्तुविच रमार ( जिनवल्लभ) ४--बड़ा भंडारकी की तादपत्रीय प्रतियों में चित्र फ पौषविधि (जिनवल्लभ)। ज प्रतिक्रमणसमाचार गा. देखने में भये पर सूची में उसका कोई उल्लेख नहीं । ४. (जिनवल्लभ); च सूचमविचारसार, गा० १५३ प्रति नं. ३२, ४१, १२, ११०, १६८, १६६, को केवल (जिनवल्लभ) छ लोकनान गा० १ (जिनवल्लभ), त्रुटित लिख कर छोड़ दिया गया है पर इनमेंसे कई त्रुटि ज श्रागमोद्धार । क लघुक्षेत्र समास गा० १०३, पत्रसंख्या बंडलोंको देखनेपर ग्रंथोंके नाम भी पाये जाते हैं जिसका २०२।
विवरण इस प्रकार है६ जयपाहुड सटीक अपर नाम प्रश्नव्याकरण, पत्र प्रति नं. ४६ अ प्रत्येक बुद्धचरित्र--जिनल सयांक २२८. सं. १३३६ चै० मु. १ लिखित ।
पत्रांक ३ से २८२ बीचमें भी ० ब भागमविचार संबंधी श्रादि-करकमल कजितमौक्तिकफलमिव कालत्रयस्यावज्ञानं । पत्र ४५ से ८०, ६ व्याकरण पत्र ११६ से २६३ र क्षेत्र___ यो वत्ति लीलयव हित सर्वज्ञं जिनं नयतः ॥ १॥ विचारादि पत्र १४ स १७२ एवं पत्र १३४ से १८५ में
ग्रंथकृत प्रभाग्य्यस्य जयपाहुरस्य निमित्त शास्त्रम्यारंभेxx जिनवल्लपमूरि एवं भीमकुमारका नाम कई जगह आता है अंत-जिन ग्रहण परिज्ञानार्थ कृतयोयनामाक्षरक्षरै लाभा- ग्रन्थका मादि अंत न होने से नाम एवं कर्ताका निश्चय नहीं लामादि सर्व वक्तव्य।
हो सका पर ग्रंथ प्रसिद्ध प्रतीत होता है। अब जेसलमेर भाण्डागारीय ग्रन्थानां सूचीमें उल्लि. प्रति न. ११० न्यायमंजरी, प्रतिक्रमण-नियुक्ति, खित कतिपय तायपत्रीय कृतियों के सम्बन्धमें नया प्रकाश इत्यादि। डाला जाता है:
प्रति न० १६८ श्र मल्लिनाथचरित्र---पत्र ११७ से -तपागच्छ भंडार ताइपत्रीय प्रति नं. ४ का २२४, इसका अंत इस प्रकार हैलेखन संवत् १११५ मूल प्रतिकी सिपिसे भिन्नाक्षरों में नायाधम्मकहाश्रो उद्धरियं मल्लिनाहजिण चरिश्रं । लिखा हुआ है अत: संवत्का उल्लेख पीछेस किसीने लिख सिरि भुवणतुग ठाणं देह सुणंताण मन्वाणं ॥३४॥ दिया प्रतीत होता है।
ब प्रदेशीचरित्र गा० २८० पत्रांक २२५ से २५७ । २--प्रति नं०५ युगादिदेव चरित्र, महावीर चरित्रके प्रति नं. १६६ प्रसिद्धंत जुत्ती गा० ७२ सिद्धसेन. को सूचीमें हेमचंद्र बतलाये गये हैं पर यह एक महस्व सूरि, व गौतमपृच्छा गा० ६४, स पच्चक्खाणा सरूव गा०३२६ की भूल है। सूचीमें प्रकाशित प्रशस्तिसे भी स्पष्ट है कि जसएवमूरि सं० १९८२ विरचित उ प्रायश्चित, कर्ता-देवभद्र उक्त ग्रंथ जयसिंह सूरि विरचित है, फिर न मालूम ऐसी मूरि शिष्य सिद्धमूरि शि. जयानंदसूरि, इ गा० १६ मम्मभूल कैसे हुई। हमने अच्छी तरहसे इसका निरीक्षण सूरि शि. नेमिचंद्रसूरि कृत (अंत---छायालसयं जीवाणं किया तो दोनों ही चरित्रके कर्ता जयसिंह सूरि ही हैं। इस चिरह भव निवासीणं)। प्रतिके प्रारंभके १० पत्र नहीं है। पत्रांक २०३ अ में एक प्रति नं.३२ व १२ में--टित फुटकर पत्रोंका संग्रह प्राचार्यका चित्र और पाक २०३ ब में पुरुपचित्र और इनमें से नं. ३२ में भवभावना वृत्तिका १२६ वां अंत्य. स्त्रीचित्र है। पत्रांक १०१ अ में ऋषभ चरित्रका द्वितीय पत्रकी प्रशस्ति इस प्रकार है--संवत् १२६० वर्षे श्रावण प्रस्ताव (प्रथम प्रस्तावमें १००१ श्लोक पत्र ६६, द्वि० सुदि १४ गुरावयेह श्रीमदणहिलपाटके महाराजाधिराज.... प्रस्ताव श्लो. ४८४) समाप्त हुमा कुल ६ प्रस्ताव हैं। श्रीभीमदेवकल्याणविजयराज्ये तपारपद्धोपजीविनि इसके बाद महावीरचरित्रसे ७ वां प्रस्ताव प्रारंभ होकर महामात्य राग. श्री चाचाक: श्रीश्रीकरणादिसमस्तमुद्रा
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किरण १]
जेसलमेरके भंडार में प्राप्त कुछ नवीन ताडपत्रीय प्रतियां
व्यापारानादि पंथयतीत्येवं काले प्रवर्तमाने रुद्रपल्जीय जांच होनी चाहिए जिससे कोई महत्वपूर्ण ज्ञातव्य मिजे श्री............. ....... देव सचोपदेशेन भवभावनावृत्ति और नवीन ग्रंथोंका पता चले । कागज परके ग्रंथों की सूची पुस्तकं विषय पथके कांसाग्राम वास्त. लेखक सोहह उन में भी सैकड़ों ग्रंथोंको टित लिख छोड़ा है म रम ग्रन्थों महिलणे भन्नावर शुद्धाक्षरैश्च लिखितमिति । छ शुभं भवतु का नाम है न पत्र संख्या, हमने उन्हें देख कर भी कई
प्रति नं. १५. में सूची में दिये हुए प्राध्यात्मगीता नये २ अन्धोका पता लगाया है। जिनदत्तसूरि कृतका उल्लेख है (सं० १९९५ लि.) पर जेसलमेरके संघ और विशेषत: ज्ञानमंडारके ट्रस्टियोंका वह ग्रन्थ उसमें नहीं मिला, सुगुरु पारतंत्र्यके अंतमें ध्य न भी हम इस भावश्यक कार्यकी और भाकर्षित करते मिनारों में पीछे किसीका लिखा हश्रा सं. १११५ अवश्य हैं कि वे इस साहित्य संपत्तिकी भलीभांति सुरक्षा करें एवं पाया जाता है। पता नहीं श्री दलाल महोदयने इसीको योग्य साहित्य वेसामोके जाने पर कुछ उदारतापे काम प्राध्यात्म गीता नहीं लिख दिया हो।
लेकर उन प्रतियोंका भलीभांति निरीक्षण करवाके सूचीको प्रति नं. १० (१) प्रश्नोत्तर रत्नमाला वृत्तिकी प्रति प्रमाणिक बनवावें । हमने अपूर्ण खंतह से निकाली पर उसकी प्रशस्ति वाले के कागज पर लिखित ग्रन्थोम हमारे खोजसे करब २०० अंतिम पत्रका भाषा हिस्सा खोजने पर भी न मिला प्रतएव ऐसे ग्रन्योका पता चला हे अद्यावधि साहित्यसंसार में उस महत्वकी प्रशस्तिकी अधूरी ही नकल हो सकी।
अज्ञात हैं ऐसे अन्यत्र अप्राप्य ग्रन्याको सूच। अन्य सूचीके अतिरिक्त कागज व ताड़पत्रके कई बंडल स्वतंत्र लेख में दी गई है जो कि जैनमत्यप्रकाशक बाहरकी पेटीमें अस्तव्यस्त डाले हुए हैं उनमेंस १ बंडनमें अगले अङ्क में प्रकट होगी। तादपत्रीय बहत सी प्रतियोंके फुटकर पत्र हैं जिनमें प्राचीन दरिमागर सूरिजीमे ज्ञात हुया कि कागच्छ के जिपियोंके कई पत्र लिपिकी दृष्टिसे महत्वके हैं हमारे भंडार में भी ताडपत्रीय ५ प्रतिय मिली है जिनमें भगवना खयालसे समस्त ताडपत्रीय ग्रंथोंकी दुवारा भलीभांति ज्ञाता विपक. उपासक. अंतगडादिमत्र ग्रंथ है।
रे प्राण ! नीचतर ! कायर ! कर्म-हीन !
जो जन्मते नहि ग्रहो कर तव्यवान । निःस्वाभिमान ! बल-वीर्य-प्रभा-विहीन ।।
होता न भारत कभी जग फीतिमान॥ कर्तव्य हेतु यदि कुण्ठित शक्ति तेरी।
कोई विशेष प्रतिभा न यहाँ दिखानी । तो दूर भाग तज नश्वर देह मेरी ॥४॥
ये देश-भक्ति, महिमा, मष नष्ट जाती॥५॥ तू त्याग दे यदि मुझे नहि है विषाद ।
जौलों स्वधर्मरन सजन थे प्रसिद्ध । पै कर्म त्याग नहि सह्य जनाऽम्वाद ॥ सच्चा था देशपूर्ण मुग्व सम्पद में समृद्ध ।। है मृत्यु श्रेय विन कर्तब सज्जनोंको ।
होते विहीन इममे जन श्री नरेन्द्र । होता बिनिन्द्य 'प्रय जीवन दर्जनोंको ।।
सच्चि भारत बना अतिदःख-केन्द्र ॥६॥ था पुण्य-भूमि यह भारत कम-क्षेत्र ।
पौरुष्य-हीन नर भी बन कर्म-वीर । देखें तिसे हम विनष्ट सजीव-नेत्र ।।
है सिहनी पकड़के दुह लत क्षीर ।।
श्रीमाधवशुफ्त है दुःख और इसमे जग क्या महान ।
जो वो करै नहि असम्भव बात कोई । तो भी नहीं समझता भयभीत प्रान ॥३॥
लेता निकाल घुस सागर वस्तु खोई ।।७।। जैसे शरीर विच तू सर्वस्त्र प्रान !
कत्तव्य ही मनुजमें गुगा है प्रधान । त्यों देश-बीच रहते जन कर्मवान ।।
कतव्य से निपट दीन बने महान ।। तेरे बिना यह शरीर मरा कहाता।
कत्तव्य की जगत में महिमा अशेष । त्यों कर्म-हीन जन देश नहीं सुहाता ॥४॥
कर्तव्य पालन हि कृष्ण महोपदेश ॥८॥
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हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा'
लग्बक-प्रो० ए० एन० उपाध्ये अनुवादक-साहित्याचार्य पं० राजकुमार शास्त्री
स्तलिखितोंकी संकलित सूची देखते समय ३-तीसरी धर्मपरीक्षा वृन्तविलासकी है। यह XXX धर्मपरीक्षा नामक जैन ग्रन्थोंकी एक बहुत कन्नब भाषामें है और ११६.के जगमग इसका निर्माण
बड़ी संख्या हमें दृष्टिगोचर होती है। इस हाहै। XXX
लेख में हम विशेषतया उन्हीं धर्मपरीक्षाओं ४-चौथी संस्कृत धर्मपरीक्षा सौभाग्यसागरकी है। का उल्लेख कर रहे हैं, जिनकी रचनाओं इसकी रचना सं० १५७१ (सन् १९१५)की है। में अमाधारण अन्तर है।
1-पांचवीं संस्कृत धर्मपरीक्षा पद्मसागरकी है। यह -हरिषेण कृत धर्मपरीक्षा। यह तपागच्छीय धर्मसागर गणीके शिष्य थे। इस ग्रंथकी अपभ्रंश भाषामें है और हरिषेणने सं० १०४४ (-४.६ रचना सं. १६४५ (सन् १९८९) में हुई। सन् १८८) में इसकी रचना की।
६-छटवी संस्कृत धर्मपरीक्षा जयविजयके शिष्य २-दूपरी धर्मपरीक्षा मितगतिकी है। यह माधव- मानविजय गणीकी है, जिसे उन्होंने अपने शिष्य देव सेनके शिष्य थे। ग्रन्थ संस्कृतमें है और सं० १०७० विजयके लिए विक्रमकी अठारहवीं शताब्दीके मध्य में (मन् १०१४) में यह पूर्ण हुश्रा।
बनाया था।
७-सातवीं धर्मपरीक्षा तपागच्छीय नय विजयके १ बम्बई यूनिवमिटीके स्विजर रिसर्च स्कालरकी
शिष्य यशोविजयकी है। यह सं. १६८०में उत्पन्न हुए थे हैमियतमे जब मैं पूनाकी भण्डारकर रिमर्च इन्स्टिट्य र
और ५३३ वर्षकी अवस्थामें परखोकबासी होगए थे। यह में कुछ कृतको हस्तलिम्वितको देख रहा था, मुझे
ग्रंथ संस्कृतमें है और वृत्तिमाहित है। हरिषेणकी यह अपभ्रश-धर्मपरीक्षा देखनेको मिली। मैंने
८-पाठवीं धर्मपरीक्षा तपागच्छीय सोमसुन्दरके यह रचना पं. नाथूगमजी प्रेमी तथा प्रो० हीरालालजीको
शिष्य जिनमण्डनकी है। दिखलाई और उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि यह ग्रन्य। जहाँतक होमके जल्दी ही प्रकाशित होजाना चाहिए।
--नवमीं धर्मपरीक्षा पार्श्वकीर्तिकी है। २-इम दिशामें प्रो. एच. डी. वेलन्कर का
१०--दसवीं धर्मपरीक्षा पूज्यपादकी परंपरा-गत पद्म
नन्दिके शिष्य रामचन्द्र की है जो देवचन्द्रकी प्रार्थनापर 'जिनरत्नकोष' बहुत ही सर्वाङ्ग सुन्दर कोश है। यह ग्रन्य। प्रेममें हैं और इसका प्रकाशन भ० श्रो० रि० इ. पूनाकी
बनाई गई।
यद्यपि ये हस्तलिखित प्राप्य हैं और इनमेंसे कुछ ओरसे दोरहा है । हम प्रो. वेलन्कर के इस एकाकी श्रमके
अभी प्रकाशित भी होचुकी हैं। लेकिन जबतक इनके लिए धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं कि यह कोश
अन्तर्गत विषयोंका अन्य ग्रन्थोंके साथ सम्पूर्ण पालोचनात्मक प्रकाशन के पश्चात् निश्चय ही एक अत्यन्त महत-पूर्ण मूलग्रन्य प्रमाणित होगा। यह इस कोषके रचयिता और ।
तथा तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया है तब तक प्रकाशककी ही कृपा है कि उन्होंने मुझे इस ग्रन्थके
इनमेंसे अधिकांश हमारे लिए नाम मात्र ही हैं। प्रकाशित होने के पहिले ही उन फर्मोका उपयोग करने दिया
२--यह अमितगतिकी धर्मपरीक्षा है, जिसका पूर्णरूप मुख्यतः जिनके अाधारपर ही धर्मपरीक्षाओंकी यह सूची ३-दे० एम० डी० देसाईकृत (बम्बई १९३३) तैयार की गई है।
'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास ।'
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किरण १]
हरिपेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा
४६
से अध्ययन किया गया है । मिरोनोने इसके विषयोंका चरित्र चित्रण अस्वाभाविक और अमंगल है और इस सविस्तर विश्लेषण किया है। इसके अतिरिक्त इसकी तरह वह मनोवेगक विश्वासमें पूर्ण रीति परिवर्तन भाषा और छन्दोंके सम्बन्धमें मालोचनात्मक रिमार्क भी होजाता है। किए हैं। कहानीकी कथावस्तु किसी भी तरह जटिल नी प्रन्धका विषय या तीन भागोंमें विभक्त है। है । मनोवेग, जी जैनधर्मका रद श्रद्धानी है। अपने मित्र जहां कहीं अवसर पाया, प्रामानिने जैन सिद्धान्तों और पचनवेगको अपने अभीष्ट धर्ममें परावर्तित करना चाहता है परिभापात्रों की प्रचुरता उपयोग करते हुए लम्बे लम्बे
और उसे पाटलिपुत्र ब्राह्मणोंकी सभामें लेजाता है। उसे उपदेश इसमें दिये हैं। दूसरे, इसमें लोकप्रिय तथा इस बातका पक्का विश्वास कर लेना कि ब्राह्मणा वादी मनोरंजक कहानियां भी है जो न केवल शिक्षा द है बल्कि मूर्ख मनुष्योंकी उन दस श्रेणियों में से किसी में नहीं हैं। निमें उच्चकोटि का हाम्य भी है और जो बड़ी ही जिनके बारेमें दस कहानियां सुनाई जाती हैं और जिनकी बुद्धिमत्ता के माथ ग्रन्धक मांग में गुम्फित हैं। अथ च अन्त अन्तिम कथामें चार धोंकी वे अद्भन कहानियां सम्मिलित में ग्रन्थका एक बड़ा भाग पुगीन कहानिया भरा हैं। जिनमें असत्य या अतिशयोक्तिम खूब ह। काम जिया हया है जिनको अविश्वसनीय बतलाते हुए प्रतिवाद गया है। मनोवेग ब्राह्मण वादियोंकी भिन्न-भिन्न सभाओंमें करना है तथा कहीं-कहीं सुप्रसिद्ध कथाओंके जैन रूपान्तर जाकर अपने सम्बन्ध में अविश्वसनीय कथाएं तथा मूर्खता- भा दिए हए हैं, जिनमें यह प्रताणित होता है कि वे कहाँ पूर्ण घटनाएं सुनाता है। जब वे इनपर श्राश्चर्य प्रकट करते तक तर्कसंगत है। हैं और मनोवेगका विश्वास करने के लिए तैयार नहीं होते जहांतक अमितगतिकी अन्य रचनात्रों और उनकी हैं तो वह महाभारत, रामायण तथा अना पुराया तामम धर्मपरीक्षाका उपदेश णं गहराई का सम्बन्ध है, यह स्पष्ट कहानियों का हवाला देकर अपने व्याख्यानोंका पुष्टिक लिए है कि वे बहत विशुद्ध संस्कृत लिम्व बते हैं। लेकिन प्रयत्न करता है। इन समस्त सभाओं में सम्मिलित हनिमे धर्मपरीक्षा और विशेषत सुप्रसिद्ध उपाख्यानोंकी गहराई पवनवेगको विश्वास होता है कि पौराणिक कथाओंका में हमें बहुत बड़े अनुपात में प्राकृतपन देखने को मिलता १ एन. मिरीनो : डी धर्मपरीक्षा देस अतिगति, है। इसमें संदेह होता है कि अमित गति किमी प्राकृत ली० १६०३, साथ दो विन्टर निज; ए हिस्ट्री अफ रचनांक ऋणी रहे हैं। पौराणिक कहानियोंकी असंगतिका इन्टियन लिटरेचर भाग २ पृ. ५६१। पन्नालालजी प्रकाश में लानेका ढंग इससे पहले हरिभद्रने अपने व कलीवालने में मंस्कृत-धर्मपरीक्षा, हिन्दी अनुवादके, धूनाख्यान में अपनाया है । ये लोकप्रिय अख्यान, साथ बम्बईसे १६०१ में प्रकाशित की थी। इसके बाद धार्मिक पृष्ठभूमिम विभक्त करनेपर भारतीय लोकदूमग मंस्करण मराठी अनुगद और अपेन्डिक्समें मल साहित्य के विशुद्ध अंश है और म.नवीय मनोविज्ञान के संस्कृत के साथ १६३१
म ह ल शमाने मांगलो सम्बन्ध में एक बहुत सूक्ष्म अन्तष्टिका निर्देश करते हैं । से प्रकाशित किया था। इसमें कहा गया है कि यह ३-वृत्तविलायकी धर्मपरीक्षा', जो बगभग मन् अनुवाद मुख्यतया वृत्तविलामकी कन्नड धर्म परीक्षा २ दे०, इस निबन्धमा नामदारात्मक भाग. के अाधार पर किया गया है और कहीं कहीं इसमें अमित- ३ अार. नमिदाचार्य: कनाटकक वचरित, बेन्गलोर गांतको रचनाका भी उपयोग किया गया है। लेकिन १६०४ पृ. १६६ । अनेक वप एन प्राकव्यमालका मिलान करने पर यह आरोप ठीक नहीं निकला। प्रस्तुत नामक काव्य-पद्यावलीम प्रस्तृन धर्मगिक्षा के मंर्ग अनुवादम वृनावलामका रचनाका कोई चिह्न नहा है। संग्रह प्रकाशित हुए थे । मेरे पाम जो श्रन नाचाकी इसमें बाकली पाल जीके हिन्दी अनुवाद का बहुत कुछ प्रति है, उमका मुखपृष्ठ आदि फट चुका है। इसलिए श्राशय लिया गया है और यह ग्रंथ भी किमी पूर्ववर्ती इनके प्रकाशनका स्थान और तिथि नदी बतलाई जा संस्करणसे ही पुन: प्रकाशित किया गया है।
सकती। मुद्रणकलाम प्रतीत होता है कि यह मंगलौर
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अनेकान्त
[वर्ष ८
पोस
१६.की रचना, कमर भाषाका एक चम्पू प्रन्थ है। नहीबर रहे हैं, जिनकी हस्तलिखित प्रति या संस्करण या दस अध्यायों में विभक्त है। ग्रन्धकारका कहना है कि हमें अबतक प्राप्त नहीं हो सके है। यहां हम केवल इम ग्रन्थकी रचना इससे पूर्ववर्ती संस्कृत रचना प्राधार- हरिषेणकी धर्मपरीक्षाके सम्बन्ध में प्रकाश डालना चाहते हैं। पा कीगई है और तुलना करने पर हमें मालूम होता है कि इस प्रन्थ की मुख्य विशेषता यह है कि यह ग्रन्थ अपभ्रंश इन्होंने अमितिका अनुसरण किया है। यद्यपि वणनकी भाषामें है और अमितगतिकी संस्कृत धर्मपरीक्षाके २६ रष्टिस दोमोमें अन्तर है, लेकिन कथावस्तु दोनोंकी एक वर्ष पहले इसकी रचना हुई है। वस्तुत: उपलब्ध धर्म
परीक्षा ग्रन्थोंमें यह सर्वप्रथम रचना है। इसके अतिरिक्त यह कन्नद धर्मपरीक्षा अब भी हस्तलिखित रूपमें ही इस ग्रन्थमें जयरामकी एक प्राकृत धर्मपरीक्षाका उल्लेख विद्यमान है। और प्राकाव्य मालिकामें प्रकाशित ग्रन्थोंपे पाता है जो इसके पहलेकी है और जो अब तक प्रकाशमें मालूम होता है कि वृत्तपिलाम गद्य और पद्य दोनों ही में नहीं प्रासकी है। बहुन ।दर कन्नड़ शैलीमें लिखते हैं।
(ए) पूनाकी भण्डारकर प्रोरियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्य ट ___-पनमागरकी धर्मपरीक्षा जो सन् १६४५ ई. की।
में हरिषेण कृत धर्मपरीक्षाकी दो हलि०प्रतियाँ(नं. ६१७, रचना है, पं० जुगलकिशोरजीके खोजपूर्ण अध्ययनका
१८७५-७६ की और १००१, १८८७-११ की) विद्यमान हैं। विषय रही है। वे इसके सम्बन्धमें निम्नलिखित निष्कर्ष
यद्यपि १००६ की प्रतिपर तिथि नहीं है, किन्तु कागज और पर पहुँचे है:--पद्यमागरने अमितगतिकी धर्मपरीक्षा
लिखावटकी दृष्टि से यह दूसरीकी अपेक्षा अाधुनिक प्रतीत १२६. पच ज्योंक स्यों उठा लिए हैं। अन्य पद्य भी
होता है। यह प्रति खूब सुरक्षित है, किन्तु इसके ५६५०, इधर-उधर साधारण-से हेर-फेरके साथ ले लिए गए हैं।
५७, ६६, ६६ए. पन्नों में कुछ नहीं लिखा है और पुस्तक कुछ पद्य अपने भी जोड़ दिये हैं। इन्होंने सोंका कोई
की मूल मामग्री में से कुछ स्थल घट गया है। नं. ६१७ विभाग नहीं रखा। अमितगतिक नामके समस्त प्रत्यक्ष
वाली प्रति श्राकार-प्रकारमें इसका अपेक्षा पुरानी है। और परोक्ष उल्लेख बड़ी चतुराई के साथ उदा दिये गये
इपकी कोरें फटी हैं, कागज पुराना । और कहीं-कहीं हैं। इस तरह पद्म पागरने अपनी रचनामें अमितगति
पदिमात्राओंका उपयोग किया गया है। इसमें स. का कहीं नाम-निर्देश तक नहीं किया। इनकी यह साहिस्थिक
१५६५ विखा है और किसी दूसरेके हाथका अपूण रिमार्क चोरी साम्प्रदायिक दृष्टिविन्दुको ध्यान में रखते हुए सफल
भी है जो इस बातको सूचित करता कि यह प्रति सन् रूपसे नहीं हुई है और यही कारण है कि इस प्रन्यमें
१५३८ से भी प्राचीन है। इसका १३७ वां पृष्ठ कुछ कुछ इस प्रकारके भी वर्णन हैं जो श्वेताम्बर सिद्धान्तोंके
अटित है और चौथा पृष्ठ गायब है। दोनों प्रतियों के सर्वथा अनुरूप नहीं हैं। इस तरह पमपागरने अमितगति
मिलानसे संपूर्ण ग्रन्थ तैयार होजाता है और प्रथम संधि का पूर्णतया अनुपरण हो नहीं किया है, बल्कि उनकी
की सूचम तुलनासे प्रतीत होता है दोनों ही प्रतियां सर्वथा धर्मपरीक्षाकी नकल तक कर डाली है।
स्वतंत्र है-एक दुसरीकी प्रतिलिपि नहीं। ५-इस निबन्धमें हम उन धर्मपरीक्षाओंकी चर्चा
(बी) यह ग्रन्थ ११ संधियों में विभक्त और प्रत्येक से प्रकाशित हुई है। मेरे पाम इस ग्रन्थकी एक ताडात्रकी संधिौ १७ से लेकर २७ कडावक हैं। इस तरह भिन्नहस्तलिखित है। यह शक सं० १३४२(+७८ सन् १४२०) भिन्न मों में कहावकोंकी संख्या निम्न प्रकार है:की लिखी है। इसकी दालन अच्छी नहीं है। फिर भी १२०, २-२४, ३२२, २४, ५-३० ६११, कोई कन्नडके स्कालर इसका श्रालोचनात्मक संपादन ७-१८,८२२. १२५, १०:१७. ११२७ । इस तरह
करना चाहें तो इसे मैं उन्हें सहर्ष उधार दे सकता हूँ। कुल मिलाकर २३८ कावक हैं। इनकी रचना भिन्न-भिन्न १ जैनहितैषी १३-७, पृ० ३१४-३२४ ।
अपभ्रंश छन्दोंमें है, जिनमेंसे कुछ तो खास तौरसे इस
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किरण १]
ग्रन्थ में रक्खे गए हैं। कुल पच= संख्या, कुल पद्मसंस्था, जैसीकि हस्त लिखित प्रतिमें लिखी है, २०७० होती है। संधियोंके उपसंहार या पुष्पिकामें लिखा है कि यह धर्मपरीक्षा-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष स्वरूप चार पुरुषार्थोंके निरूपया के लिए सुख हरिषेणने बनाई है। उदाहरण के लिए प्रत्यकी समाप्ति समयकी संधि-पुचिका इस प्रकार है:
हरिपेत अपभ्रंश-धर्म-परीक्षा
इय धम्मपरिक्खाए चटवग्गाहिट्टियाए इ-हरिषेण कथाए एयारसमो संधि सम्मती
(सी) हरिषेणने अन्य अपभ्रंश कवियोंकी तरह ● कदावकोंके आदि और अन्तमें अपने सम्बन्धमें बहुतसी बातोंका निर्देश किया है। उन्होंने लिखा है कि मेवाद देश में विविधकलाओं में पारंगत एक हरि नामके महानुभाव थे। यह सिरि-जर (सिरि-ओोजपुर के चक्के वंशज थे । इनके एक धर्मात्मा पुत्र था, जिसका नाम गोवा गोवर्धन था। उसकी पत्नीका नाम गुणवती था, जो जैनधर्ममें प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थी। उनके हरिषेण नामका एक पुत्र हुआ विद्वान् कविके रूपमें विश्व हुआ उसने किसी अपने कार्यवश (कर्ज) चित्तर (चित्रकूट) छोड़ दिया और वह अचलपुर चला श्राया । वहां उसने इन्द्र और अलंकार शास्त्रका अध्ययन किया और प्रस्तुत धर्मपचाकी रचना की। प्रासादिक पक्रियां नीचे उद्धृत की जाती है
संधि ११, कडावक २६:--
इय मेवाड- देसि जया - संकुलि सिरिउन उर गिराय- धक्कड कुलि । पात्र करिंदम-दा-हरि आठ काहिं कुम या हरि । सामु पुत्त पर मारि-महोब
गुथ गया हि कुत्र गण दिवाय ।
१ 'बुध' कलकी पंडित सम्मानसूचक उपाधि मालूम होती है।
२ क्या 'सिरि' उस नगरके नामका अंश है? यह ध्यान देनेकी बात है कि अपभ्रंश 'भविसत्तका' के कर्त्ता धनपाल भी धक्कड वंश हीके थे ।
मिलती जुलती एक
गोवऋणु या उप्पण्य
में
जो सम्मन्तं रयण-संपुण्यात | हो गोवगुणासु
पिय गुणव
जा जियावर पथ चिचिव' ताप आणि हरिसेरा-खाम सुड जो संजाब विबुद्द कइ - विस्सुर । सिरि-चित्तन व अचल उन्हो गठ गिय-कग्जें जिया-हर-पडर हो । सहि छदालंकार पसाहिय धम्मपरिक् एड में माहि
जे मज्मथ-मब श्रायाहिं से मच्छ अवयाहिं से सम्मत जेा मलु खिज्जह केवलगालु ता उप्पज्जइ । घातहो पुग्गु केला हो
य- पमाण हो जीव-परसहिं सुइडिङ | बादा-दिड अवत मोक्ख सुक्म्ब-भलु पयडियउ ।
संधि ११, कडाव २७ :-- विक्रम-वि परिवसिय कार बनगयए वरिम-महम-ताए । इय उष्पणु भावय-जसा मुहयरु डंभ-हिय - धम्मासव-सरयरु |
1
बुध हरिषेणने इस ग्रन्थकी रचनाका कारण इस प्रकार बतलाया है। उन्होंने लिखा है कि एक बार मेरे मन में खाया कि यदि कोई श्राकर्षक पय-रचना नहीं की जाती है तो इस मानवीय बुद्धिका प्राप्त होना बेकार है और यह भी संभव है कि इस दिशामें एक मध्यम बुद्धिका आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जैसाकि संग्राम-भूमिसे भागा हुआ कापुरुष होता है। फिर भी अपनी छन्द और अलंकार शास्त्र सम्बन्धी कमजोरी जानते हुए भी उन्होंने
१ जागा
४ प्रति १ ५. प्रति १ ६ प्रति
एवि श्रवल उदो, सय उ पस्थिपतिकालए,
१
।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
जिनेन्द्रधर्मके अनुराग और सिद्धसेनके प्रसादसे प्रस्तुत
तो वि जिगिंद-धम्म-अणुराएं अन्य जिव ही डाला। इस बातकी झिझक न रक्खी .क
बुड-सिरि-मिदसण-सुम्साएं । हमारी रचना किस दृष्टिसे देखी जायगी।।
करमि सयं जि णलिणि-दल-थिउजलु (डी) हरेषेण ने अपने पूर्ववतियोंमें चतुर्मुख, स्वयंभू अणुहरेइ णिरुवमु मुत्ताहलु । और पुष्पदन्तका स्मरण किया है। वे लिखते हैं- पत्ता-जा जयगमें श्रामि विरइय गाह-पबंधि । चतुर्मुम्बका मुख सरस्वतीका प्रावास-मन्दिर था। स्वयंभू
माहमि धम्मपरिक्व सा पद्धडिया-बंधि लोक और अलोकके जानने वाले महान् देवता थे और मालूम होता है सिद्धसेन, हरिषेणके गुरु रहे हैं और पुष्पदन्त वह भालौकिक पुरुष थे जिनका माथ सरस्वती इसीलिए सिद्धसेन अन्तिम सर्गमें भी इस प्रकार स्मरण कभी छोड़ता ही नहीं थी। हरिषेण कहते हैं कि इनकी किए गए हैं:-संधि ११, कडावक २५:सुमनाम मैं अन्यन्त मन्दमतिका मनुष्य हैं। पुष्पदन्तने घत्ता-सद्धमण-पय वंदहिं दुक्कि उणि दहिजिण रिसेण णवंता अपना महापुराण सन् १६१में पूर्ण किया है और उन्होंने तहि थिय ते खग-सहयर कय-धम्मायर विविह सुहइंपावंता स्वयंभू तथा चतुर्मुखका भी उल्लेख किया है। स्वयंभूकी (मी) इन तथ्योंको ध्यानमें रखते हुए, कि हरिषेण अपेक्षा चतुमुख पूर्ववर्ती हैं।
और अमितगतिके ग्रन्थों का नाम एक ही है और एक धर्मपरीक्षा, पहले जयरामने गाथा-छन्दमें जिग्नी थी रचना दूसरी केवल २६ वर्ष पहले की है, यह अस्वाभाविक और हरिपेणने उमीको पद्धडिया छन्दमें लिखा है। न होगा कि हम दोनों रचनाओं की विस्तारके साथ तुलना
उपरिलिखित बातें प्रारंभक कहावकमें पाई जाती है, करनेके लिए सिद्ध हों। दोनों ग्रन्थों में उल्लेखनीय जो इस प्रकार है:
समानता है और जहांतक घटना-चक्रके क्रमका सम्बन्ध है संधि १, कडावक-१:--
अमितगतिकी धर्मपरीक्षाके विभिन्न सर्ग हरिषेण कृत मिद्धि-पुरं धिहि कंतु सुढे तणु-मण-वयणे । धर्मपरीक्षा विभिन्न संधियोंकी तुलनामें स्थूल रूपसे भत्तिए जिगु पणवेवि चिंतिउ बुह-हरिमण ।। विभक किये जा सकते हैं:-हरि १= अमित १, १७मणुय-जम्मि बुद्धप किं किग्जद
३. ४३, हरि. २-अमित, ३, ४४-७, १८, हरि० ३% मणहरु जाइ कवु ण रइज्जइ ।
अमित. ७. ११-१०, ५१ हरि० ४-अमित०, १५,५२-- तं करंत अविया गाय धारिम
१२ २६, हरि०, १ अस्ति० २१. २७ - १३; हरि०६% हासु लहडिभड रणि-गरपोरिम।
हरिषेणानं लोकस्वरूपका जो विस्तृत वर्णन किया है वह उम च उमुहं कविरणि संयम व
कोटिका अमितगतिकी रचनामें एक जगह नहीं है। हरि० ७% पुष्फयंतु अण्णणु यिमुभिवि ।
अमित० १४.१-१५ १७, हरि: ८-अमित. १५, १८ तिगिण वि जोग्ग जेगा तं पीपइ
प्रादि, हरि० -अमित १६, २१ इत्यादि, हरि० १०= चउमुह-मुहे थिय ताव सरामद ।
कल्पवृक्षोंके वर्णनके लिए अमितगतिकी धर्मपरीक्षाका जो सयंभु सो देउ पहाण उ
१८वों मर्ग देखिए और हरि० 11 अमित. २०, कुछ अह कह लोया जोय-वियाणउ ।
प्रारम्भिक पद्य । पुष्फयंतु णवि माणुसु वुच्चाइ
कुछ स्थानोंमें ठीक ठीक समानता इस कारण नहीं जो सरसहए कयावि ण मुबह ।
मालूम की जा सकती है कि दोनों रचनाओं में एक ही ते एवंविह हउं जहु माण उ
स्थानपर शिक्षाप्रद और सैद्धातिक चर्चाय समानकोटिकी तह छंदालंकार-विहण उ
नहीं पाई जाती। लोकस्थितिक जो विवरण हरिषेणने कन्यु करंतु केम णवि लज्जमि
सातवीं संधिमें दिए हैं उन्हें अमितगतिने उन्हीं के समानान्तर तह विसेस पिय-जणु किह रंमि ।
स्थानपर सम्मिलित नहीं किया है और न नहोंने अपनी
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किरण १]
हरिषेण कृत अपभ्रंश-धर्म-परीक्षा
रचनामें कहीं भी उतने विस्तारके साथ उन्हें दिया है। सालंकार कविताके नमूने हैं, जबकि हरिषेणके वही वर्णन हरिषेणने पाठवें मगके कतिपय करावकोंमें रामचरितके पुष्पदन्त सरीखे अपभ्रंश कवियों के प्रभावसे प्रभावित हैं। सम्बन्धमें कुछ जैनशास्त्रानुसारी कथाएं लिखी हैं। लेकिन इसलिए नगर प्रादिक चित्रण में हमें कोई भी सरश भाव. पमितगति इन कथाओं को बिलकुल उदा गए हैं इसी पूर्ण विचार और शब्द दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। प्रकार हरिषेणाने ११ वें सर्गमें अपने सिद्धांताप अनुरंजित यद्यपि मधविन्द-दृष्टान्तके वर्णनमें कुछ विभिन्न रानि-भोजन-विरमणके सम्बन्धमें जो एक विशेष कथा प्रकार अंगीकार किया गया है। फिर भी उसके विवरण दी थी वह भी उन्होंने कुछ सद्धान्तिक निरूपणक साथ मिलते जलते विलकुल उड़ा दी है, किन्तु प्राचारशास्त्र के अन्य नियमों यदि उनका परंपरागत सिद्धान्तोंमे समन्वय न किया पर उन्हीं प्रकरणों में सबसे अधिक उपदेशपूर्ण विवेचन जाय तो यह संभव है कि कुछ प्रकरणोंमेसे एक-सी किया है। लेकिन इधर-उधरके कुछ इस प्रकार के प्रकरणों उक्तियां खोज निकाली जाय:को छोड़कर अमितगतिकी रचनासे कुछ ऐसे पद्योंका निर्देश
(१) हरिषेण १, १६:किया जा सकता है जो हरिषेणके कडाव को बहुत कुछ
त अवराह खम दरह। मिजते जुलते हैं। हरिषेणने अपने ग्रन्धका जो ग्यारह
तो हपिउणं महवेएणं । संधियों में विभाजन किया है इसकी अपेक्षा अमितगतिका
भणियो मित्तो तं परधुत्तो । अपनी रचनाको २२ सों में विभक्त करना अधिक
माया-णेहिय अप्पाणं हिय । अम्वामाविक है। जहांतक कथानककी घटनाबों और उनक
(1) अमितगति ३, ३६-७कमका सम्बन्ध है। दोनों की रचनाओं में बहुत समानता है।
यस्यां धर्ममिव त्यक्त्वा तत्र भद्र चिरं स्थितः । विचार एकसे हैं और उन्हें उपस्थित करनेके तरीके में भी
चमतम्यं ममाशेष दुविनीतस्य तया ॥ प्रायः अन्तर नहीं है । नैतिक नियमों, लोकबुद्धि से पूर्ण
उक्तं पवनवेगेन हसिवा शुद्धचेतमा। हिनकर उपदेशों तथा सारगर्मित विवेचनों निरूपण में
को धूतॊ भुयने धृतवन्च्यते न वशंवदैः ॥ अमितगति विशेषरूपमे मिळूहम्त हैं। भोग-विलास तथा सांसारिक प्रलोभनोंकी निंदा करने में वे अधिक वाक्पटु हैं।
(२) हरिषेण २, ५ग्रहस्थ और मनियों के लिए जैन आचारशास्त्रके नियमा
इय दुण्णि वि दुग्गय-तणाय-तणां
गिरहेविगु लक्कर-भागमणं । नुमार जीवन के प्रधान लक्ष्यको प्रतिपादन करने का कोई भी अवसर वे हाथमे नहीं जाने देते। यहांतक कि नीरस,
भाइय गुरु पर विवि मए सैद्धांतिक विवेचनों को भी वे धारावाहिक शैली में सजा
व यउ ण उ जायए वायमए। देते हैं। इस प्रकारके प्रकरणों के प्रसङ्गमें हरिषेणकी धर्म
(२) अमितगति ३.८५परीक्षाकी अपेक्षा अमितगतिकी रचनामें हमें अधिक विस्तार
तं जगाद खचराङ्गजस्ततो देखने को मिलता है। यद्यपि दोनोंका कथानक एक-सा है
भद्र निधनशीरभूरहम् । फिर भी सैद्धान्तिक और धार्मिक विवेचनोंक विस्तारमें
भागतोऽस्मि तृण काष्टविक्रय
कर्तुमत्र नगरे गरीयसिअन्तर है। अमितगतिके वर्णन उच्चकोटिक संस्कृत-कलाकारों की
[क्रमश:]
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वानर-महाद्वीप
(लेम्बक-प्रो० बानापपाद सिंह न, एम० ए०, एल-एल० बी०, एफ० आर० ई० एस०)
X
X गवान रामचन्द्र के जीवनका सर्वोपरि महत्व परन्तु वह क्यों और कब हमा, इसका कोई उत्तर नहीं
उनके शील स्वभाव व पाचरणका अद्वितीय मिलता। होना, उनका मर्यादापुरुषोत्तम होना, राम- (३) संपार-व्यापी एक सभ्यता है जिसको "हीलियो राज्यका मादर्श उपस्थित करना तो है ही. लिथिक कल चर" कहते हैं। इसके विशेष तत्व तीन है-सूर्य
परन्तु उनके जीवनकी विशेष घटना, जिसके की रुपापना, बड़े बड़े पत्थरोंके प्रासाद व मन्दिर बनाना, लिये वे श्रार्य सभ्यता के प्रतीक चिरस्मरणीय हैं. यह थी
तथा मनुष्यकी बलि देना । यह सभ्यता संसारमें कहां उत्पन्न कि उन्होंने पहले पहल आर्य-मभ्यताका प्रकाश वानर- हु
हुई और किम कारणसे कब और किन रास्तोंसे संसारमें महादीपमें पंगा दिया। उनके समयमे पूर्व भार्य ऋषिगया
फैली, इसका कोई संकेत इतिहा-ज्ञ प्राप्त नहीं कर सके। बनवाममें घोर तपस्या करते हुए दण्डक वन तक पहुंच (४)संसारकी सर्वप्रथम सभ्यता सुमेरियन सभ्यता कही चुके थे । उपके भागेके प्रदेशोंमें कोई कोई विशिष्ट व्यक्ति जाती है, जिसके चिन्ह मेपोटामियाक महेन्जोदारों में मिले आर्य-पभ्यता व साहित्यमे कदाचित् उसी प्रकार परिचित थे हैं। परन्तु इसका मूलस्थान कहां है, इन भारतीय और जिस प्रकार अाज भारतवर्षका कोई मजन तिब्बत या चीन मेमोपुटामियाके अंशोंमें क्या सम्बन्ध था, फिर इसका कब की भाषा व साहित्यके पण्डित हो । विश्वविजयी रावण और क्यों अंत हुश्रा, इसका कोई जवाब नहीं। तथा उनके भाई विभीषण के वेदोंके ज्ञाता होनेमें कोई (१) अमरीकामें माया लोगोंकी सभ्यता वहीं की। माश्चर्य नहीं परन्तु उस समय तक उन दक्षिणी देशोंकी अर्थात् बाहर नहीं पाई और यदि बाहरसे आई तो कहाँ जनतामें भार्य-सभ्यताका प्रकाश नहीं फैला था । भगवान् से, कब और किस रास्तेसे ? इसका कोई निश्चित उत्तर रामचन्द्र के दण्डक वनसे निकल किष्किन्धा तक पहुंचने महीं मिलता।। और फिर लंका विजयने पार्य-सभ्यताको फैलाकर आर्य
(६) भूतत्त्ववेत्ताओंका विचार है कि किसी समय एक पादों को सर्वव्यापी बना दिया।
महाद्वीप था जिसका नाम "गौडवाना" अथवा नीयरिया" यह बानर महाद्वीप कहां था ? यह प्रश्न बड़ा महत्त्व- था जो अफ्रीका और अमरीकाको मिजाता था और अब पूर्ण है। इसके यथावत् उत्तरसे संमारके इतिहासको वे समुद्र के गर्भ में है। भारतका दक्षिण प्रदेश, प्रास्ट्रेलिया व समस्याएं हल हो जाती हैं जिन्होंने बड़े बड़े इतिहासज्ञोंको निकटवर्ती द्वीपसमूह, लङ्का मेडेगास्कर इत्यादि इसके चक्कर में डाल रखा है। उदाहरण के लिये नीजिये--- अवशेष समझ जाते हैं। परन्तु इस महाद्वीपके लोगोंकी
(१) प्रार्यों का मूल निवास स्थान दुनिया भरमें चक्कर क्या सभ्यता थी और उसका क्या हुआ ? इसका पता लगाता फिरता है और फिर भी निश्चित तर नहीं मिलता। नहीं। अमरीकामें एक "लीवृरियन" समाज बनी है जिसतिब्बत, माइवेरिया, तुर्किस्तान, मध्य एशिया, उत्तरध्रव का कहना है कि सन् १९५३ के बाद फिर एक महान मध्य यूर, नोरवे-स्वीडन, फारम, मेमोपुटामिया, विश्व-युद्ध होगा। उसमें "जीयूरियन" सम्यताका प्रारम्भ भर्मीनिया, काकेशस, इत्यादि सभी प्रदेशोंमें भार्योंके जन्म- होगा और उस सभ्यताकी शिक्षा देनेका दावा वह सभा स्थानका भ्रम हो चुका है।
करती है, परन्तु इन बीयूरियनोका ऐतिहासिक प्रमाण (२) फारस और भारत भायोंमें विरोध हुआ था, प्राप्त नहीं।
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किरण १]
वानर-महाद्वीप
पुराणोंकी विशेषता
नहीं। क्योंकि उनकी बड़ी ऊंची सभ्यता थी बड़े इन सभी समस्यायोंका बना सन्दर समाधान हमारे बह राज्य थे, उन राज्योकी अच्छी व्यवस्था थी (बानरराज पुराणों में दिये हए इतिहाससे प्राप्त होता है, जो संमारकी बानीका मंत्रिमण्डन था जो राज्यका प्रवन्ध करता धा). किसी और पुस्तकसे नहीं मिलता। पुराणोंको बोगोंने
को बई-बडे इंजिनियर थे (बाल्मीकि रामायण में स्पष्ट उल्लेख गप्प समझ रखा है। परन्तु यह बड़ी भूल है। पुराण में
है कि नल और नीलने यन्त्रोंकी सहायता समुद्र पर पुन
कि वे कथाएँ हैं जो उनके लिखे जाने समय भारतीय इति- बनाया), और उनमें भगवान हनुमानसे योगी ज्ञानी थे हासके सम्बन्ध में प्रचलित थीं। उनके वर्णनमें अतिशयोक्ति (जो ऐसे सिद्ध थे कि श्राकाशमें उदमक, शरीरको भारी तथा क्रम-परिवर्तन होना स्वाभाविक है। परन्तु उनमें कल व हलका बना सके इत्यादि)। प्रस्तु, ये 'वानर" बनमें तत्व नहीं ऐसा ममममा निता यावापिका रहने वाले असभ्य मनुष्य कदापि नहीं थे। फिर उनको जिन बातोंका समर्थन यूनानी, पारमी इत्यादि विदेशी इति- '
बानर क्यों कहा जाता था! हासज्ञों द्वारा हो, जिनसे इन कठिन समस्याओंका संतोष
र भारतवर्षका दक्षिण प्रदेश पहले 'लीयूरिया' महाजनक उत्तर मिले उनका निरादर करना तो मायसे मांखें द्वापका भाग था। बान का देश भी दक्षिणा प्रदेश में था. बन्द करना है। पुराणों की एक विशेषताहिक मन्त्रों जहां रामजीकी उनमे भेंट हुई थी। इस महादीपको के तो विभिन्न विद्वान अनेक अर्थ करते हैं परन्तु पुरायांक 'लीयूरिया' इस लिये कहते हैं कि इसके निवामी सम्बनवमें भाषाकी ऐसी कठिनाई नहीं होती। अतएव जीयूर' के स्वरूप होते थे। 'लीयर' एक प्रकारका जहां इस विषयमें भिन्न मत हो सकते हैं कि वेदोंमें हति
बन्दर होता है। इसके निवासी बन्दरक समान मुख वाले हासका वर्णन है अथवा अध्यात्मका, वहां पुराणों में दिये
होते थे । संसारकी मुख्य धार जातियों में 'नमो' (हब्शी) हुए इतिहासमें ऐसी शङ्का नहीं की जा सकती।
जातिका मुख कुछ भागेको निकला हुआ होता है और पौराणिक इतिहास में हमको दो बाते बड़ी अद्भ। मिजतो कदाचत उ
कदाचित उसी जातिके किमी वंशभेदको 'लीय रयन' हैं। एक तो यह कि जब कभी मनुष्योंका वर्णन भाता है
कहते होंगे। नीग्रो अभी तक अफ्रीका अमरीका व प्रशांत तो उनके समकालीन देस्य दानव, देवता, गन्धर्व, गरुद,
महासागरके अन्य द्वीपोंमें पाये जाते हैं। परन्तु वे जायसर्प, किन्नर श्रादिका भी वर्णन है। अतएव यदि हम यह
रियन प्रमभ्य नहीं थे। ममय के चक्र में पड़कर नाम्रो मानि पता लगा सके कि देवता व देय कहाँ रहते थे तो उनके
अपनी सभ्यता व राज्य स्खो चुकी है परन्तु वह सदवसे सम्पर्कमें पाने वाले मनुष्यों अथवा बार्यों का मूल स्थान
असभ्य नहीं थी। अब भी भमरीकामें हम जा तक बड़े निश्चयपूर्वक बना सकेंगे।
बढ़े विद्वान व कार्य-कुशल बोग उपस्थित है। इससे यह दूसरी बात यह है कि वानर और राषपका उल्लेख
भी महजमें ही समझमें प्राता है कि इस जातिको हमारे पहले पहल श्रेतायुग में ही पाता है। भगवान रामही इतिहाममें बानर जानि क्यों कहा गया है। प्रस्न यह पहले सम्राट हैं, जिनको बानरों ऐसा गहरा सम्पर्क प्राप्त
'वानर महाद्वीप' वही 'जीयरिया महाद्वीप है जिसका हा हो। इसमे पार्योंके दक्षिणा में विस्तार व समयका अधिकांश भाग अब ममुद्र के भीतर है। निश्चय होता है तथा उपीके सहारे उमपे पूर्व के इतिहास जिम समय यह बानर महाद्वीप समुद्र से ऊपर था का भी समर्थन होता है।
उस समय दक्षिण-प्रदेश भारतके उतरी भाग पृथक यानर कोन थे?
था। हिमालय और विंध्याचल के बीच बड़े समुद्र थे। इस बानको लोग बन्दर कहा काते हैं। पूज्यपाद तुजसी. का प्रमाण भूतप्व-विज्ञानस भी मिलता है और पौराणिक दासजीने उनकी पूछों और नखों वर्णन किया है। इतिहास तथा ऋग्वेद' सेमी भूताव शासके अनुसार माधुनिक विचारके लोग बानरका अर्थ "बनमें रहने वाले लगभग २५ म १० हजार वर्ष पूर्व राजपूनाना और 'गङ्गा मनुष्य" करते हैं। तोक्या वे भोलोंके समान मनुष्य थे? जमुनी मैदान में दो बड़े 'भू-मध्यसागर' थे। कदाचित
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अनेकान्त
दोनों जुड़े हुए थे। इसका नाम "टे यांज मी' था। हिमालय के उत्थान के कारण इनका जल नीचे की ओर घरबसागर और बंगाल की खाड़ी में मिल गया और इनके स्थान पर सूखी जमीन निकल आई। कदाचित मी जायके उसी समय 'यूरियन महाद्वीप" के अनेक श्रंश जलमें ब गये और ऊंचे भाग द्वीप स्वरूपमें रह गये तथा प्रदेशका सम्बन्ध उत्तर भारतसे हो गया ।
पुराणों की कथा है कि वर्तमान 'वैवस्वतः' मन्वन्तर के काम पहले 6 चाक्षुष' मन्वन्तरके अंत पर 'मत्स्य अवतार' हुआ, जिसने सरस्वती नदीके तीर पर संध्या करते हुए राजा सस्यवयको श्रानेवाले जलप्रलयकी की सूचना दी और राजाको प्राविर्तकी धन्य वस्तुओंके "बीज" सहित नौका पर चढ़ा कर जे गये। उस समय कदाचित श्रार्याविर्त सरस्वती तक सीमित था। जब प्रलय के उपरान्त वैवस्वत मन्वन्तरके आरम्भ में वैवस्वत मनु भार्यावर्तको लौटे और अयोध्याका नया सूर्यवंशी राज्य स्थापित किया । यह अयोध्या उस प्रदेश में है जो जल प्रलय पूर्व समुद्र था और जल प्रलय के पश्चात् जहाँ सूखी जमन निकल आई । श्रस्तु वैवस्वत मन्वन्तरमे ही आर्य लोग पूर्वी और दक्षिण भारतका ओर अग्रसर हुए और इसीलिए वानर महाद्वीप के अवशिष्टोंके साथ श्रार्य सभ्यताका सम्बन्ध इसी समय हुआ । इससे पहले अर्थात् चाक्षुप मन्वन्तर तक भार्य लोग पंजाब प्रान्त तक ही रहे, क्योंकि इसके पूर्व और दक्षिक में समुद्र थे ।
[ वर्ष ८
ही गिरती थी और वहां जमीन निकल आने पर कदाचित् वह पहाड़ोंमें गुप्त होजाती थी अर्थात पृथ्वी में विलीन होजाती थी। फिर राजा भगीरथने उसके प्रवाहको दिशा देकर व्यवस्थित कर दिया। इसके अतिरिक्त एक विशेष बात यह है कि ऋग्वेद में पूर्वी प्रदेश मिथिखा और मगध का कोई उल्लेख नहीं है। अर्थात् इन प्रदेशोंके प्रकट होनेसे पूर्व ही ऋग्वेद बन चुका था ।
उपर्युक्त विवेचनसे दो बातें सिद्ध होती हैं। पाश्चात्यों का 'लीयूरियन' महाद्वीप ही हमारा 'वानर' महाद्वीप है । दूसरी यह कि जिस समय वानर महाद्वीप के अंश जल-,
समुद्र गर्भ नहीं गये थे जिस समय राजपूताना और गंजमुनी मैदानमै टेज सी लहरे मार रहा था, जो समय भूतस्व-विज्ञानके अनुसार लगभग २५ से ५० हजार वर्ष पूर्व रुक था, जो समय वैवस्वत मन्वन्तरसे पहले चानृप मन्वन्तरका था, उस समय ऋग्वेद उपस्थित था और उस समय श्रार्यावर्तकी प्रधान नदी कदाचित् 'सरस्वती' यी जो श्रम विलीन होगई और उस समयका श्रार्यावर्त मुख्यतः पंजाब प्रदेश में था । कदाचित् ये विचार इन्हिममें क्रान्तिकारी प्रतीत होंगे परन्तु ये मनगढन्त तो नहीं हैं । समयकी गणना हम अपने विचारसे निश्चित न करकेपासूनचाओंके ऊपर छोड़ते हैं। यदि राजपूताना व गंगा-भुनी समुद्र २५ हजार वयं पूर्व थे तो ऋ वेद २५ हजार वर्ष पुराना है और यदि एक लाख वर्ष पूर्व थे तो वह एक लाख वर्ष पुगना है ।
ऋग्वेद २५००० वर्ष पुराना
इस विचारका समर्थन मे भी होता है। ऋग्वेदमें गंगा और यमुना दोनों नदियां 'पूर्वीय समुद्र' में गिरती हुई कही गई हैं। इससे स्पष्ट है कि वेद निर्माण के समय उनका संगम 'प्रयागस्थान' उपस्थित न था। उसके पश्चिम तक समुद्र रहा होगा जिससे यमुना भो समुद्र गिरती हुई कही गई है।
1
इस विचारकी पुष्टि उस कथा भी होती है जिसके अनुसार गंगा को सूर्यवंशी राजा भगीरथ ही पृथ्वी पर खाये थे । अर्थात् उससे पहले गंगा हिमालयके अंचल में
भारतीय इतिहासज्ञ
प्रायः पाय इन्होंके पदचिन्होंपर ने लोग प्रामाणिकता समझते हैं और विद्वान के इति हामको 'बाइबिल" के समय से ही गढ़ना चाहते हैं । अनेक प्रमाणों अब कहीं ये ५ या ६ हजार वर्ष ई-पूर्व तक पहुँचे हैं। परन्तु हमारे लिये यह अकाट्य प्रमाण नहीं कहा जा सकता। हम अपनी गणना किमी कल्पनाके श्राधारपर नहीं करते, वरन् पाश्चात्य भूतत्व-विज्ञान के अनुसार ही करते हैं। यदि हमें पाश्चात्य इतिहासकी हमें हां मिलानेका मोह छोड़कर अपने अमुल्य पौराणिक इतिहासका श्रादर करने लगें तो हम और भी अद्भुत
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किरण १]
वानर-माद्वीप
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रहस्योंका उद्घाटन कर सकते हैं।
कहा गया है और अफगानिस्तानके रहनेवाले होते भी ऐस पार्योका मूलस्थान
ही हैं । अफगानिस्तानसे ऊपर तुर्किस्तान है और उसके
सामनेका मैदान 'गिरडेशिया' मैदान कहा जाता है। इस प्रकार यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि पार्यों का
श्रीयुत नन्दलाल डेने अपनी पुस्तक पसातल' में सिद्ध मूल स्थान पंजाब प्रांत व उत्तरी हिमालयका अंचज हैं।
किया है कि तुर्क लोग डी पुरानी नाग जाति हैं। तुकोंकी था। यह भी ज्ञात होता है कि भगवान रामचन्द्रका वंश
उपजातियां जैसे 'मम' 'बासक' इत्यादि भी सोक सूर्यवंश क्यों कहलाता है। हम ऊपर कह चुके हैं कि
राजााके नाम हैं। तक्षक, शेष, वासुकी प्रसिद्ध नागराज पौराणिक इतिहासके अनुसार मनुष्य अथवा श्रायं लोग
हैं। और इनका निवास गिरडेशियामें रहने वाले 'गरुडी' व देवता, दैत्य इत्यादि समकालीन जातियां कीं। यद
से मिला रहने के कारण दोनों में लगाई होते रहना हम यह पता लगाले कि देवता और दैन्य कहाँ रहते थे
स्वाभाविक है। तो पार्योंका भी मूलस्थान मालूम हो जायगा।
घड़ी विचित्र यात यूनानी इतिहासज्ञोंके अनुसार 'एशया माइनर' में पहले कोई कसपीआई' जाति रहती थी । इस
___ एक और बड़ी विचित्र बात है। ये नागराज, शेष 'कसपीअाई' जातिक पूर्वजका नाम 'केपीअोम' था।
और गाड लोग जिम प्रदेशमें रहते थे वह तिब्बतके इमी 'केस्पीभाई' जातके नाम पर 'काकशस' पहाड
समीपवर्ती हे पश्चिमकी ओर । भौर 'केस्पीन पागर' के नाम पड़े । यह कथा बिलकुल निब्बतका अर्थ कदाचित किसी दूसरी भाषामें नहीं पुराणोंके 'कश्यप ऋषिकी मी मानम होती है। यह मिलता परन्तु संस्कृत में इसका नाम 'त्रिविष्टप' है जिसके समानता प्रामाणिकताको पहंच जाती है जब यह मालूम अर्थ वैकुण्ठ' होते हैं। वैकुगट विष्णुका निवास स्थान होता है कि इस केम्पीमाई जातिकी राजधानी और गरुड व शेषनाग दोनों ही विष्णक वाहन है। जिस 'हिरकेनिया' थी जो केस्पीअन सागरके किनारे थी। तथा समयकी बात कर रहे हैं-जबकि राजपूताना और गंगापारसी पैगम्बर जरदश्त' का जन्म दैन्य' नदीके जमुनी समुद्र तथा 'लीयरियन' महाद्वीप विद्यमान थेकिनारे हा था और दैत्य' नदी केम्पीअन मागरमें उस समय तिब्बतका अधिकांश भाग बर्फम ढका हुश्रा गिरती थी। कश्यप पिके वंशज हिरण्यकश्यप' ने था। कदाचित् वही चैकुण्ठ' का निर्माण हा होगा। ही हिरणयपुर नामक नगर वसाया था। दैत्य नदीके अस्तु, विष्याका क्षीरमागरमें निवास भी कहा जा सकता किनारे निवास करनेसे 'केस्पीआई जातिका 'दैत्य' है। इपी प्रदेशके पास श्राज भी 'समरकन्द' एक प्रसिद्ध कहा जाना भी समझमें पाता है। दैत्य जाति यदि पास नगर है और उसी प्रदेशमें घाज भी 'मेरु नामक पर्पत है। में कस्पीअन सागरके किनारे रहती थी तो अन्य जातियां भगवान विष्ण का निवास भी मेरु या सुमेरु पर्वतपर कहा जो सब कश्यपकी अन्य स्त्रियोंस उत्पन्न कही जाती हैं जाता है और उसके पामका प्रदेश 'सुमेरु खण्ड' कहा ही कहां रहती थीं?
__ जायगा । तिब्बतके राजाको श्राज तक भगवानका अवतार ___कंधारका पुराना संस्कृत नाम गांधार प्रसिद्ध है जहां समझा जाता है। की राजकुमारी गांधारी महाभारतके धनराधकी रानी थी। वैकुण्ठके निर्माण सम्बन्धी एक कथा प्रसिद्ध है। जब कदाचित् यही देश गंधर्व लोगों का था और उसके पास 'वामन' का अवतार हुअा तो इन्द्रने विश्वकर्माको आज्ञा का कावुल प्रदेश किसर लोगोंका रहा होगा। गंधर्व और दी कि वह स्वर्गके समीप ही उसके छोटे भाई वामन' के किनर दोनों ही बड़े बलवान और टीबडोक वाले समझे लिये एक नया स्वर्ग बनावे । उमी नये स्वर्गका नाम जाते थे । द्रौपदीने जब विराटके यहां नौकर की थी वैकुण्ठ रखा गया। यदि तिम्बत वैकुण्ठ था तो इन्द्रका तब पाँचों पांडवोंको उसके रक्षक पाँच गंधर्वो के रूप में ही स्वर्ग उसका समीपवर्ती देश चीन समझा जाना चाहिए ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
चीनको अब तक सेलेशियम एम्पायर या स्वर्गीय महाराज्य विश्वकर्मा नये जोक बनानेकी समता रखता था तो दैत्योंका कहते थे। जिस प्रकार इन्द्र किसीकी तपस्यासे झट घबरा मयदानव महान शिल्पज्ञ था। दैश्य बोग सूर्यके उपासक उठता था कि कहीं उसका इन्द्रासन न चना जाय, उसो भी थे । दैत्योंकी सभ्यताही'हीलियोलिथिक कलचर' प्रकार चीनी लोग भी बाहर के लोगोंका अपने देशमें आना थी जो अमरीकामें 'माया' लोगोंके स्वरूप, अच्छा नहीं समझते । देवताओंके दिव्य अस्त्र प्रसिद्ध है। मिसमें मेपोपुटानिया और बेवेलोनमें असुरके रूप में चीन वालोंके भी प्राचीन प्रस्त्र प्रसिद्ध हैं । बारूद भी फैल गयी। मिस्रो भाषामें सूर्यका नाम है। मिश्री चीनका ही प्राविकार समझा जाता है। चीनी कथाके 'इसफिक्स' सूर्यके देवताका ही प्रतीक सममा जाता है। अनुमार चीनकी मभ्यता दक्षियामे चीनमें पाई थी। चीन कदाचित् 'मरस्य भगवान्' मेमोपुटामिया या मत्स्य देशके के दक्षिणमें 'ब्रह्म' देश है। पुराणोंके अनुसार देवता बोग अधीश्व। थे जिनको देवताओंने अपने मित्र आर्य सम्राट ब्रह्माके पुत्र हैं। देवताओंका निवास हिमालयके उस पार सत्यव्रतको होनेवाले जल-प्रलयसे बचाने के लिये भेजा था। ही कहा गया है । रावण देवताओंप नबने हिमालयको जिम प्रदेशमें राजा सत्यवतने पार्योंके बीज सहित जाकर पार करके गया था। प्रार्य राजा दुष्यन्त व दशरथ आश्रय प्रण किया उमीका नाम 'चार्योंका बीज अथवा हिमालयको पार करके हीन्द्रकी महायता करने गये थे। 'आर्यनम बीजी' (पारसी भाषामें) अथवा 'पाजर बीजान' अर्जुनने दिव्य अस्त्रों को प्राप्त करने के लिये हिमालयपर अथवा प्राधुनिक 'श्रारमोनिया है। यहीं प्रार्योंके बीजकी ही तपस्या की थी। धनके देवताका स्थान कैलाश रक्षा हुई और इस ममयमें सूर्य उपासक दैत्योंके घनिष्ट हिमालयका ही भू-भाग है। देवताकि स्नान करनेकी सम्पर्कमें रहनेके पीछे जब आर्य लो। फिर जलप्रलय झील 'मानसरोवर' हिमालय के सम पार है। पण्डवोंने समाप्त होने पर भारतवर्ष या आर्यावर्तकी ओर लौटे तो जब स्वर्गको यात्रा की तो वे हिमालयपर ही गये। देवता वैवस्वत मनुने सूर्यवंशकी स्थापना की जिसमें दैत्योंका तेज लांग विमानों में चढ़कर श्राकाश मार्गस हिमालयको पार और पार्योंकी आध्यात्मिकता दोनोंका ही समावेश था। करके ही आर्यावर्त पा पाने थे। प्रस्तु, यह स्पष्ट है कि दैयोंकी 'हीलियोलिथिक करूचर' के संसार-व्यापी चीन ही देवताओं का निवास स्थान था और वहांके गौर होनेका कारण भी पुराण स्पष्ट बताते हैं। देवता, दैत्य वर्ण के सुन्दर स्त्रीपुरुप ही दिव्यास्त्रवाले देवता थे । और नागाने मिलकर समुद्र मंथन किया। उससे प्राप्त
अस्तु, उस समय पार्यावतक पश्चिम, उत्तरमें बड़ी रनोंके बटवारेपर झगड़ा हुआ। देवासुर संग्राम हुधा। बलवान मभ्य जातियों-दैत्य, किसा, गन्धर्व नग, गरुड
उसमें दैत्यराज राजा बलि हारकर भागे। उनके चार देवता रहती थी। उनके और आर्यावर्तक पीच हिमालय सरदार हारकर पातालको भागे । एक मयदानव ती सीमा स्थित था। आर्यावर्तके दक्षिण में और पूर्व में राजपूताना व पातालको गया। तीन भाई माली, सुमाजी और माल्यवान पूर्वी समुद थे। फिर अयों का बाहरसे श्राना कै कहा पहले लंकाको गये । परन्तु कुबेरने वहांसे मी उन्हें निकाल जा सकता है? पुराणों में कहीं ऐमा उल्लेख नहीं है कि दिया और लंकामें यक्षोंका राज्य स्थापित किया। माली. प्राय श्रथवा मनुष्य बोग उत्तर पश्चिमसे दैत्यों या सुमाजी व माल्पवान लंकासे पातालको भागे। प्रस्तु देवताओं को मारकर या जीतकर उनके देश में होते हुए पाताल कदाचित वह प्रदेश या जो वानर महाद्वीप या भारतवर्ष पाए । देवता और दैश्य मनुष्योंप किमी प्रकार बीयूरियन कहलाता था। मयदानव उसके पूर्वी भाग भी कम बलवान नहीं थे। जल-प्रलयमे पहले संसारकी अमरीकाकी भोर सीधा भागा। और ये तीनों माई लंका जातियोंक निवासका भौगालिक मानचित्र ऐसा व्यवस्थित होकर उसके किसी अन्य भागको गये। जल प्रलय तक और संपूर्ण संसारके किसी और इतिहास में नहीं मिलता। कदाचित माली नष्ट होगया, परन्तु जलप्रलयके पश्चात
दैत्य लोग केवल मनुष्यकी बलि ही नहीं देते थे सुमानी और माल्यवान पाताल से निकलकर फिर मनुष्यवरन् वे शिल्पशास्त्रक बड़े मर्मज्ञ थे । देवताओं का शिल्पी जोकमें पाये । यहां सुमालीने अपनी पुत्रीका विवाह
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किरण १]
विश्वपुर्वा मुनिसे किया। इनकी संतानमें राषण पैदा हुमा देकर इतिहासका एक नया युग प्रारम्भ करेंगे। इससे जिसने लंकाको यक्षों से जीत लिया। रावण महापण्डिन भौर भी अनेक विचित्र वात प्राप्त होंगी। जो कुछ लिग्वा
और राजनीतिज्ञ था। उसने यतोंका संहार नहीं किया है वह इसके लिये पर्याप्त है कि भारतीय विद्वान सममें व वरन् यक्ष और 'रा' के उपासक दैत्योंकी सभ्यताका मिश्रण देखें कि हमारे पुराणों में कैसा बजाना भरा पड़ा। कर 'राक्षस' (रा-यक्ष) सम्यता स्थापित की । इन राक्षसोंसे सम्पादकीय नोटपूर्व उद्दण्ड स्वभावके लोग दय व दानव कहलाते थे। प्रो. ज्वालाप्रसादजी सिंहल एम० ए०का यह लेख परन्तु रातभोंका प्रादुर्भाव रावण के साथ ही होता है। 'छाया हिन्दुस्तान' नामक पत्रके ४ नवम्बर मन् १९४५ के ये राक्षस लोग फिर दक्षिण प्रदेशके किनारे किनारे
अङ्कमें मुदित हुआ है और 'भनेकान्त' को श्रीमाई बड़े । एक किनारे मारीचने राज्य जमाया और दूसरे
दौलतरामजी 'मित्र' इन्दौरके सौजन्यसे प्राप्त हुना है, किनारेके अधीश्वर स्वरदूषण थे। यही सुमालीकी संतान
जिमके लिये मैं उनका आभारी है। लेख में लेखक महोदय महेन्द्रजोदारो होती हुई फिर मेसोपुटामिया पहुंची, जहां
ने अपनी खोजके प्राचारपर जो कल्पनाएँ की हैं और जिन उन्होंने सुमाली अथवा सुमेरियन सभ्यताकी स्थापना की।
के वर्णनको लेखके अन्त में स्वयं ही 'संकेतमात्र बतला कर वहांपर पूर्व स्थित दैत्य-सभ्यता थी ही। दोनों में समानता
यह सूचना की है, कि उनके विषय में स्वाज करनेके लिये भी थी। प्रस्तु, दोनोंका एकत्व होकर पीछेकी सभ्यताएं
बहुमुल्य अवसर है,वे निस्सन्देह विचारणीय हैं और खोजियों बन गई।
के लिये खोजकी एक अच्छी दिशा प्रदान करती हैं। उनकी
जरूर गहरी तथा गंभीर खोज होनी चाहिये, उससे भार. राजा बलि जब देवासुर-संग्राममें हार गये तब
तीय इतिहास ही नहीं किन्तु संमार भरके इतिहास में उन्होंने इन्द्रासन जीतनेको यज्ञ प्रारम्भ किये भर्थात्
बहुत कुछ कान्तिका होना संभव है। लबाई की तैयारी की, इन्द्र वामन पिकी शरण गये।
यपि सभी भारतीय पुराणोंक विषय में जोगांकी एक उन्होंने रामा बलिको माध्यात्मक उपदेश देकर इस
सी धारणा नहीं है और न मब हिन्द्र तथा हिन्द पुराण प्रयानस निवृस किया। और भागेको मगहेकी शंका न रहे
पूर्णत: अथवा अंशत: गप्प समझे जाते हैं, फिर भी जो इसलिये राजा बलिको पातालका राज्य दिया तथा दैत्य
लोग पुराणों को सर्वथा गप्प समझते हैं और यह मान बैठे लोकका त्याग करा दिया। इसपर पारसमें प्रसाद के समयके
हैं कि उनमें वणित कथाओं में कुछ भी तय नहीं । वे गय हुये पार्योंका तथा उनके अगुवा शुक्राचायका वामन
गनतीर अवश्य है और लेखकके शब्दों में यह उनकी से घोर विरोध हुआ। इसी कारण भारतीय प्रार्य (वामन
'बड़ी भूल' तथा पुरायोंके प्रति 'अन्याय' जरूर है। जिनके प्रतिनिधि थे) और पारसी भार्यों में विरोध होगया।
प्रोफेसर माहवका यह लिखना प्रायः टीक है कि "पुगगों में उपरका वर्णन सकेतमात्र है। यह वह विषय है जिसमें
वे कथाएँ हैं जो उनके लिखे जानक समय भारतीय इतिहास
जो खोज करने के लिये बहुमूल्य अवसर है। यह खोज संपारके के सम्बन्ध में प्रचलित थीं। उनके वर्णनमें अतिशयोक्ति इतिहास और विशेषकर भारतीय इतिहाममें क्रांति पैदा
तथा क्रम परिनर्तन होना स्वाभाविक है ।" परन्तु उनमें । कर देगी। क्या भारतीय विद्वान् पश्चिमी इतिहामज्ञोंके
भूलीका होना तथा कल्पित बातीका शामित होजाना भी अनुसरण करने मात्रके बदले इम प्रायः अस्ते विषयकी कुछ अस्वाभाविक नहीं है- खासकर उन पुराणों में जो खोज करके आर्य देशके सिरको ऊँचा नहीं करेंगे ! भारत- मर्वज्ञके ज्ञानकी परम्परा संस्कारित नहीं है अथवा राग वर्षका नया इतिहास बन रहा है। परन्तु उसमें भी क्या द्वेषादिमे अभिभूत व्यक्तियों के द्वारा लिखे गये हैं। क्योंकि हमारे पश्चिमी स्वामियों की कही हुई बातोंका प्रचार होगा? अबकारों, रूपको तथा द्वयर्थकादि-शब्दोंके पर्दे में छिपे हए मुझे विश्वास है कि इस जातीय उत्थानके युग; इन अभिमत अर्थको समझने में बहुनाने भूलं की है और उन विचारोंके प्रचारमें सभी प्रार्याभिमानी प्रियजन सहयोग परसे पुराणों में अनेक विचित्र देवी-देवताओंकी कल्पना
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अनेकान्त
[वर्ष ८
भी होगई हैं। हनुमानजी जैसे महान् पराक्रमी राजा, चेत्तस्स पढमदिवसे सिरिकंठो निग्गो सपरिवारो। विद्याधर एवं योगी पुरुषको बन्दर बनना देना और उनके रहनाय-तुरय-समग्गो दीवाभिमुहो समुप्पइओ ॥३६।। पूछ तक लगा देना ऐसी ही भूलों तथा कल्पनाओंका
+ + + परिणाम है। अत: खोजमें प्रवृत्त होनेवालोंको इन अल- "इक्खण य इक्खागो जाओ विज्जाहराण विज्जाए। कारों तथा रूपको प्रादिक पदको फारकर उसके भीतर- तह वाणराण वंसो वाणरचिन्धेण निव्वडियो ll स्थित प्रकृत अर्थको सूचमदृष्टि से खोज निकालना चाहिये वाणरचिन्ऽण इमे छत्ताइ-निवेसिया कई जेण । और विकृत अथक विकारका पता लगाना चाहिये. तभी विजाहरा जणणं वच्चंत्ति ह वाणरा तेणं ॥८९ll सच्ची खोज बन सकेगी। इसके लिये जैनपुराणों, चरितग्रंथों सेयंसस्म भयवओ जिणंतरे तह य वासुपुज्जस्स । तथा दावढीय रामायणादिको जरूर देखना चाहिये-उनसे अमरप्पभेण एवं वाणरचिन्धं परिवियं ॥९॥ वस्तुस्थितिको समझने में कितनी ही मदद मिल सकेगी।
__ --पउमचरिथ, उद्देस ६ ___ यहाँ गर मैं यह भी बतला देना चाहता हूँ कि जैन इतो वगेत्तरे भागे समुद्र-परिवेष्टिते। ममान और उसके पुराणों में हजारों वर्ष पहलेसे ही हनु- शतत्रयमतिक्रम्य योजनानामलं पृथः ॥७१॥ मानादिको बन्दर नहीं माना जाता और न उन्हें असभ्य अस्ति शाखामृग-द्वीपःप्रसिद्धो भूवनत्रये । जंगली मनुष्य ही बतलाया जाता है, बलिक विद्याधरों द्वारा यस्मिन्नवान्तरद्वीगाः सन्ति रम्याः सहस्रशः ॥७॥ प्रतिष्टित उम सुमभ्य वानरवंशके प्रतिष्ठित व्यकि. माना ततश्चैत्रस्य दिवसे प्रथमे मंगलाचिंते । जाता है। जिनमें बड़े बड़े राजा, योद्धा, विद्याधर, योगी, ययौ सपरिवारोऽसौ(श्रीकण्ठः)द्वीपं वानर लाँछितम्॥८६ त्यागी और तपस्वी मुनि तक हो गये हैं और जो छत्र, तथा वानरचिन्हेन छत्रादिविनिवेशिना। धगा तथा सिंहासनादिमें सर्वत्र वानर चिन्ह धारण करनेसे विद्याधरा गता ख्याति वानरा इति विष्टपे ॥२१॥ वानर वंश कहलाता था । वानरवंशको उत्पत्ति-विषयक श्रेयसो देवदेवस्य वासुपूज्यस्य चान्तरे । अच्छी रोप था भी जैनपुगणोंमें दी है। इसके लिये अमरप्रभसंज्ञेन कृतं वानरलक्षणम् ॥२६॥ विमलमूरिका 'पउमचरिय' और रविषेणाचार्यका 'पद्म
--पद्मचरित, पर्व ६ चरित' खास तौरस देखनेके योग्य हैं । पद्म चरित वीर- अब मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि निर्वाणसे १२०३ वर्ष ६ महीने बाद (वि० सं० ७३४ में) उपरके वाक्यों में जिस 'श्रीकण्ठ' राजाका चैत्र मासके प्रथम बनकर समाप्त हुआ है और पउमचरियमें उसका रचना- दिन (वदि १ को) वानरद्वीपको सपरिवार प्रस्थान करनेका काज वीरनिर्वाण से ५३० वर्ष बाद (वि० सं० ६०) दिया उल्लेख है वही भारतीय प्रथम विद्याधर राजा था जो हुआ है। इन दोनों प्राचीन पुराणग्रन्थों में उस 'वानर- विजयाधं (वैताट्य) पर्वत परसे उक्त वानरद्वीपमें जाकर महाद्वीप' का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है जिसकी प्र० बसा था और जिसने वहीं चौदह योजन (२६ कोस) के सिंहलमीने अपने इस लेख में कल्पना की है। साथ ही, यह विस्तारका किकुपुर अथवा कि किंधापुर नामसे एक महान् भी बतलाया है कि वह समुद्र में तीनसौ योजनके फासलेपर समृद्धिशाली नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया उत्तरकी भोर स्थित है। रविषेणाचार्यने इस वानर-द्वीपमें था । इस राजाकी ७वीं पीढीमें होनेवाले 'अमरप्रम' बहुतसे अन्तर द्वीपोंका भी उल्लेख किया है और इसे 'मलं' नामके विद्याधर राजास वानरवंशकी उत्पत्ति हुई है, तथा 'पृथु' विशेषण भी दिये हैं, जिससे इस वानरद्वोप जिसका उत्पत्तिसमय ११ वें श्रेयांस और १२ वे वासुका महाद्वीप होना और भी स्पष्ट हो जाता है। इस संबंध पूज्य तीर्थकरके मध्यमें पड़ने वाले अन्तरालका कोई समय में दोनों प्रन्योपरसे कुछ वाक्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं- है, जबकि श्री भ० रामका अवतार उससे हजारों वर्ष बाद
"अवरुत्तराए एत्तो तिषणेव जोयणसयाई। २० वें तीर्थ कर श्री मुनिसुव्रत जिनेद्रके समयमें हुमा है। लवणजलमझयारे वाणरदीवो त्ति नामेणं |३४| और इसलिये प्रो. साहबने जो यह कल्पना की कि म.
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किरण १
जैन सरस्वती
रामने ही पहले पहल इस वानर-महाद्वीपमें प्रार्य प्रगति प्रदान की हो, परन्तु उनके द्वारा द्वीप में उसका मभ्यताका प्रकाश फैलाया है और यही उनके जीवनकी सब भाद्य प्रवेश नहीं बनता। से अधिक महत्वशाली घटना है, वह जैन पुराणों की दृष्टि से कुछ सगत मालूम नहीं होगी। जन पुराणों के अनुसार
भाशा है प्रो० मिहल जी तथा दूसरे खोजी विद्वान भी वानर महाद्वीपमें आर्य-सभ्यताका प्रवेश श्रीकण्ठ राजाके जैनपुराणों की इन बातों को ध्यानमें रखते हुए खोके द्वारा हुआ है, जिसे उसके उत्तरवर्ती राजाओंने वृद्धिंगत कार्य में अग्रसर होंगे । जैनपुराणोपरम उन्हें रानणादि की किया है। और यह वहाँकी बदी हई अनेकमुखी प्रायं- विद्वत्ता, नीतिमत्ता, धार्मिकता, सभ्यता और कार्यकुशलता सभ्यताका ही प्रताप था जो श्रीरामको हनुमानजी जैसे भादिके कितने ही नये हालात भी मालूम होसकगे। पुद्धिमान, बलवान, कार्यकुशज एवं सयोग्य साथियोंकी माय ही, राक्षमवंश क्या था, कैप उसकी उत्पत्ति हो और सम्प्राप्ति होपकी थी। हो सकता है कि कालके प्रभावसे माली, सुमाली, माल्यवान कथा नल-नीलादि व्यक्ति किम
हार्यमापनाको भी मचाने वाली स्थितिमें थे. इन बातोंका भी कितना ही पता चल सकेगा।
जैन सरस्वती (लेग्वक-वा. ज्योतिप्रसाद जैन 'विशारद' एम० ए०, एल-एल० बी० )
जै
| न देवी-देवनामि ज्ञानकी अधिष्ठात्री सरस्वती तामें लीन, स्व-पर कल्याणम तर, निस्पृह, निन्य
देवीका एक विशिष्ट स्थान है। अन्तिदेव के माधुअोंके रूप में मच्चे गुरू, इन तीनों की अाराधना-सामना अतिरिक्त जैन धर्म में मान्य जितनी श्रन्य देवी- है। इनके अानाका अन्य जितने देवी-देवता है वे गगीदेवता है, अर्थात् शासन देवता, यक्ष, यक्षिणी मोही अल्पज्ञ दानेसे अपृज्य हैं। उनकी पृजा-उपासना-द्वारा क्षेत्राल, दिकपाल, नवग्रह, योगिनी, अष्ट- परमार्थका सिद्धि नहीं हो सकती, अत: यद्याप जैन मन्दिरीम
मात्रिका, प्रासाद, देनयाँ सम्प्रदाय-देवियाँ, कहीं कहीं अहन प्रानभायांक माय माय अन्य देवी-देवकुल-देवियों इत्यादि, उन सबमें वाग्देवी सरस्वती ही सर्व- ताश्रीको मृनिया भी प्रनिनि देखा जानी है तथापि उनकी प्रधान है। इनकी पूजा-प्रतिष्ठा भी उक्त सर्व देवी-देवताओं पूना-उपासना का कोई प्रात्मादन नही दिया जाता, उम से पहिले की जानी है।
प्रायः य ६। माना जाना है। वास्तव में तो जैनधर्म आत्म-प्रधान है इसका लक्ष्य
किन्तु वाग्देवी सरस्वती के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। मोक्षप्राप्ति हे जा कि मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र- इस देवीको पृना-उपासनाका फल श्राचायान सम्पदर्शनरूप रत्नत्रयको मापना-दाग दी संभव है, और इस साधना ज्ञान-चारित्र श्रादि अात्मीक गुगका उपलभिवृद्धि-विशुद्धि में सर्वप्रधान सहायक निमिन मर्वज्ञ-वीनगग-दितापदेशी प्रतिपादन किया है' । दरअसल यह कदना क टन है कि अन्न के रूपमें सच्चे देव, उक्त अन्ति-द्वारा उपदेशित क्या प्रारंभ जैन श्रतज्ञानको दी अलमारक भाषामं श्रुतअहिमा प्रधान, मोक्षमार्ग-निदर्शक पूर्वापर-अविरुद्ध सम्य- देवीका नाम देदिया गया और कलाकारने मूर्तिक में शान के प्रतिपादन करने वाले कंचे शास्त्र, तथा अन्तिदेव १ विद्याप्रिया: पोडश विशुद्धि पंगगमान्त्यिकदर्थगगाः । के पदानुसरण कर्ता, संसार-देह-भोगास विरक्त, ज्ञान ध्यान- इत्यादि -अाशाधर-प्रानष्ठामाराद्वार ३-३२
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अनेकान्त
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से ही इस धर्म के देवसमूहमें अपना स्थान बनाये हुए हैं'। मथुरा ककाली टीलेसे प्राप्त सरस्वती प्रतिमा इस बातका उदार है और प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व के मध्य में जब श्राचार्य घरसेन स्वामीने अपने पास अध्ययन के लिये जाने वाले शिष्यद्वयके खानेका पूर्वाभास स्वप्नमे पाया तो उनके मुख से यह शब्द निकले थे कि "श्रुतदेवता अपवस्त हो" (जय सुपदेवदा)। देवता समस्त अंग पूर्वरूप द्वादशांग का समावेश है, जैसा कि श्राचार्य वीरसेन के निम्न वाक्यसे भी प्रकट है-बारह अंगग्गिज्मा विर्यालय मल-मूड दंसतिलया । विविध वर चरणभूमा पसियड सुयदेवया सुइरे ॥ (घवला )
श्रस्तु सरस्वती देवीकी मान्यताको प्राचीनतामें तो कोई सन्देद है दी नहीं इस देवकी विष्ट वार्षिक पूजा दिग
।
म्बर सम्प्रदाय में श्रुतावतारकी वर्षगांठ के उपलक्ष में ज्येष्ठ शुक्ला ५ ( श्रुतपंचमी) के दिन होती है और रक्ताम्बर सम्प्रदाय कार्तिक शुक्ला ५ ( ज्ञानपंचमी के दिन इस अवसर पर धार्मिक ग्रन्थोंकी जचिपड़ताल, झाड़-पछि सफाई उत्पाद तथा नवीन वेष्टन वेष्टित कर सन्दली पर सजा कर सामूहिक पूजन की जाती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जैनाचार्याने सरस्वती मूर्ति के निर्माण और पूजा-प्रतिष्ठाका विशेष प्रोत्सादन नहीं दिया, उसकी मूनके स्थान भात (खर्गात्मक) तथा व्यभूत (शब्दात्मक तथा रचनावद) ज्ञान अर्थात् नीर देव द्वारा प्रतिपादित और गण द्वारा द्वादशाङ्गवन्ति शान के आधार पर चतुरानुयोगान्तर्गत चन जैन शास्त्रसमुदायको ही उन्होंने सरस्वती अथवा श्रुतदेव के रूप में प्रतिष्ठित किया। बहुत संभव है उन्होंने ऐसा इसका किया हो कि कहीं जनता पाषाणादिकी सरस्वती प्रतिमाके पूजा-पाठ संबंधी क्रियाकांड में उलझ कर ज्ञान-विमुख नहो जाय, ज्ञानाभ्यास न छोड़दे । श्रतः सरस्वतीको आराधनाका स्वरूप यही बताया जाता रहा है कि शास्त्रोपदेश, शास्त्रश्रवण, स्वाध्याय और शाम्बान्यास दोनदेवताको वास्तविक ३ V. S. Agarwal - Guide to the Arch. Sec, of the Lucknow Prov, Museum. ४पागम १ १ १ ० ६८
उसकी साकार श्रभिव्यञ्जना करदी, श्रथवा वह यक्षिणी, योगिनी श्रादिदेवियांकी भाँति भवन वासी, व्यन्तरादि देव जातिय कमी देवी है।
जनग्रन्थ मोदविद्यादेवियांका वर्णन मिलता है जिनके नाम है शांकुशा, अम्बुदा पनिका पुरुषदना, काली, महाकाली, मोरी, गांधारी, मदाज्याला या आनमानिनी, मानवी वेंगटी, अना, मानमी और महामानमी इन सालों विद्यादेवियोंकी अधीश्वरी सरस्वती देवी है। श्री, भारती, तदेवी वाग्देवी माझा वा बाद इस देवी अन्य अनेक नाम हैं ।
सरस्वती-मदिन ये सब विद्यादेवियां यूनानी 'म्यून' (Muse) नामक देनिक मित्र कलाओं भाँति भिन्न और विज्ञानका पृथक पृथक नहीं करती बल्कि सामु दिवरूपसे जेनतकी अर्थात् समस्त जनसाहित्यका पात्र एवं राज्ञा है और वर्तमान में उलब्ध नसल्य जैनसहित्य बहुत विशाल दोन हुए भी पूर्ण अपां मात्र ही है।
1
श्वेताम्बर ग्रंथ 'श्राचारदिनकर' (ध) के अनुसार देवियां तीन प्रकारको होती है-- प्रासाददेवी कुलदेवी, और साम्प्रदाय देवी सरस्वती तथा विद्यादेवियाँ तीसरे भेद अन्तर्गत आती है।
सम्बन्धित साथ रूप और ये देविय
योग अनेक २४ शामनदनिय (पक्षियों से कई एक ) नामादिका अद्भुत सम्पती है। उक्त यक्षियोंग सर्वथा भिन्न ही हैं। और यदि साहित्य यज्ञियाका उल्लेख अत्यन्त प्राचीनकाल से ही मिलता है तो साहित्य तथा कला दोनों ही सरस्वती भक्ति भी उसी समय से मिलती है। डा० वासुदेवशरण जी अग्रवालकी राय है कि देवी जैन धार्मिक कला के प्रारम्भ काल
१] प्रतिष्ठासामेद्वार |
२ "वावासी भारती गौणी भाषा सरस्वती । श्रुतदेवी वचनं तु व्यावभषितं वचः ॥१-२४१ -- श्रभिधानचिन्तामणि, हेमचन्द्राचार्य
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जैन सरस्वती
उपासना है। सम्भवतया इसी कारण सरस्वतीकी प्रतिमाएँ (१) देवगढ (कामी जिला) में १२ची १३वीं शताब्दी भी बहुत अस संख्यामें उपलब्ध है।
की, बैठी हुई। इस देवीके सम्बंधमें साहित्य तो पर्याप्त है-कई एक पूजा- पल्लू (बीकानेर गज्य) में--मध्यकालीन, खड्गासन, पाठ, स्तोत्र, कल्प, विनती, प्रतिष्ठाविधि इत्यादि दोनों ही चतुभुजा, तीन हायाम--चीगा, पुस्तक, माला, चौथा सम्प्रदायोंमें मिलती है। इस के रूप प्राकृति आदिका जो अभयमुद्रामें । वर्णन उक्त साहित्यमें मिलता है उसमें भी भिन्न २ श्राचार्यो (३) महागिरि (मैसूर) की मल्लिनाथ बस्लीमें, मध्यमें थोड़ा थोड़ा मतभेद है। इसकी जो भी पांच छः मूर्तियों कालीन । अब तक उपलब्ध हुई हैं उनमेंसे कोई भी किसी भी एक (४) मिरोही राज्य के अजारी नामक स्थान में, महावीर प्राचार्य के बर्णनसे पूर्णतया नहीं मिलती।
स्वामी मन्दिरमे । निमाके श्रासन पर 'विक्रम संवत् दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुसार इसका वाइन मयूर १२ १२६६' खदा हुआ है। और श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार हंस । कुछ प्राचार्या (५) मामानेर और जयप के बीच चन्द्रवती नामक के अनुसार यह चतुभुजा है, कुछ के अनुसार द्विभुजा । एक म्यानम १२ वी शताब्दीकी टीई, एक हायमें 'कच्छी हाथ में पुस्तक अवश्य है, दूसरा अभयज्ञान-मुद्रामें या कमल बगा' स्पष्ट है । पुष्प लिये हुए । चार हाय हानेमे, शेष एक हाथ में बोगा
(६) लग्बनऊ प्रान्तीय अद्भनालय (म्यूजियम) में-- है, दूसरेमें अक्षमाला। इसकी वीणा कच्छपके आकार की
मथुग-कंकाली टोले की खुदाई में प्राचीन पोन मंदिरके भग्नाहोती है और कच्छपी बीगा कहलाती है। एक प्राचार्य के
वशेष के समीस प्राप्त (सन् १८८६ ई० में'। अनुसार यह त्रिनेत्रा, बालेन्दु और जटामण्डिता भी होता है।
यह मति रतीले लाल पत्थरकी, आदमकद, उकडू इसके वर्ण और बसनके श्वेत होने में सब एक मत है। अब तक सरस्वती देवीकी कबल ६ प्राचीन मूर्तियों
बैटी हुई है। मूनि वंदित है। गर्दनमे ऊपरका भाग गायब हमारे जानने-सुनने में आया है, और वे इम प्रकार है
है, दाहिना हाथ भी पहूँचेक कारसे टुटा हुआ है। देवी
किमी एक दी वस्त्रसे अच्छी तरह वेरित है। दाहिना हाथ १. अरिष्टनेमिकृत श्रीदेवता-कल्पः मल्लिपण-सूरि कृत
ऊपर उठा हुअा 'अभय-ज्ञानमुद्रा' में प्रतीत होता है. बॉय भारतीकल्प; जिनप्रभाचार्यकृत वाग्देवता-स्तोत्र; पद्मनन्दि
हाथ में डोर में बंधी ताडपत्रीय पम्तक हैं। पादमूलमें एक प्राचायकृत सरस्वतीस्तोत्र इत्यादि। २ .ॐ ह्रीं मयूग्वादिन्यै नमः इति वागधिदेवता स्थापयेत्” ।
तक्त शक जानिकी पोशाक ( स्य निक ) पदने हुए तथा
दोनो हाथाम एक बन्द पात्र लिये हुए खड़ा है। पाई और
-प्रतिष्ठामारोद्धार ३ "श्वेतवणे श्वेतवस्त्रधारिणी हंसवादना श्वेतमिदासनासीना ६ B. C. Bhattacharya-Jaina Icono....चतुभुजा ।" तथा "श्वताब्ज-बीणालंकृत-वामकग graphy page 165 F. N. पुस्तक-मुद्राक्षमालालंकृत-दक्षिण करा ।"-श्रा.दि.प्रतिष्ठा० ७ Ibid. तथा-ॐ ह्रीं भगवति ब्रह्माणि चीणा-पुस्तक-पद्माक्षसूत्र- ८ Annual Report of Arch Survey of हंसवाहने श्वेतवर्ण इह षष्ठीपूजने श्रागच्छ।"श्रा. दि. प्र. Mysore 1918, Benglore 1919. p.6
"नानावृत्त-पदन्यास - वर्णालंकाररदारणी, सन्मार्गाङ्गी ६ Sita Ram's History of Sirohi Raj. सिता जैनी प्रसन्ना न: सरस्वती ।"-श्रीदेवताकल्प ने. अ. १. श्री अशोककुमार भट्टाचार्य के चित्रसंग्रह में । "अभयज्ञानमुद्राऽक्षमाला-पुस्तक-धारिणी।
११V. Smith-Jain stupas and other त्रिनेत्रा पातु मां वाणी जटा-बालेन्दु-मण्डिता ।।
Antiquities of Mathura p. 56, plate -सरस्वती (भारती) कल्प-मल्लिपणसरि XCIX. In the Lucknow Museum the ४ जिनप्रभाचार्यकृत वाग्देवता-स्तुति ।
number of the statue is 8-9/507.
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अनेकान्त
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एक अन्य व्यक्त मारत य शाक ( उत्तरीय ) में हाथ जोड़े ३०-४० वर्षके भीतर ही निर्मित हुई होनी चाहिये । श्रतः बड़ा है। नं.चे अामन पर एक मात कितों का अभिनेवि स्पष्ट है कि मथुगमें श्राकर बमने के साथ ही उन्होंने वहाके शुङ्ग-कुशन कालकी ब्राह्मी लिपि और प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित सर्वाधिक प्रचलित धर्मको श्रङ्गीकार कर लिया था। भाषामें खुदा हुआ है। अन्तिम पंक्ति बस्ति है।
(३) अर्हन्त प्रतिमानों के पश्चात् जो अन्य देवी-देवताओं बुल्दा साहियक अनुवाद के अनुसार मूर्तिके लेखका की मूर्तिया बननी प्रारंभ हुई उनमें सरस्वती देवीकी मूर्ति भाव निम्न प्रकार है
प्रथम अथवा प्राथमिक देवमूर्तिगोंमें रही। मिद्धि मं० ५४ (४४ स्पष्ट है) हेमन्नके ४ थे, १० वें (४) इतनी शीघ्र और इस प्रकार सरस्वती देवीकी दिन (११ या ३२ भी हो मकता है) कोय (कोल्लम) गण, प्रतिस्थापना प्रारम्भसे ही जैनधर्मकी ज्ञान-प्रधान-प्रकृतिको स्थानीय कुल, बदर शाग्वा श्रीगृहमंभोगतो वाचकाचार्य चरितार्थ करती है। हस्तदस्तिके शिष्य गण अार्य नागस्तिक श्रद्धानागे वाचक (५) प्रतिमाके केवल दो हाथ होना-एकमें पुस्तक, श्रार्यदे के उपदेशसे मिहक पुत्र लादकार नावाने मयं सत्वा दूसरा अभयज्ञानमुद्रामें तथ वीणा, माला वादन श्रादि अन्य के हित मुम्बके लिये एक सरस्वती प्रात स्थापित की।" सर्व चिन्हों का अभाव मूल सरस्वतीकी श्राडम्बर-विहीन
लेखम दिया हश्रा सं० कुशन संवत् अनुमान किया जाना सादगी तथा उसे श्रुतका सच्चा उपयुक्त प्रतीक व्यक्त करता है। अत: इस प्रतिमाको मिर्माण तिथि सन् १३२ ई० (वा १२२ हे और उपामक पान द्वारा देवीकी अभयज्ञानमुद्रा और ई.) हुई। किन्तु यदि यह संवत् वह हो जिसमें मथुराके जानकी वास्तविक दात्री पुस्तक में अाकर्षित एवं केन्द्रित उसी स्थान प्राप्त कितने ही अन्य अमिलेग्व है और साथ होता है। में सौदास श्रादि शक क्षत्रपाका नामाल्लेग्व भी है तो यह (६) अभिलेख, जहां एक ओर तत्कालीन जैनसंघके मृति प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्वक उत्तरार्धमें निर्मित हुई गण, गच्छ, कुल, शाखा श्रादिरूप संगठन पर अच्छा दानी चाहिये। श्रर्थात् हम मूनिकी निर्माण-तिथि या तो प्रकाश डालना है, वहाँ यह भी सूचित करता है कि उस ई० पूर्व २५ के लगभग है अथवा मन ईसी १२२ (या १३२)। समय बड़े २ वाचकानार्य इस देवीकी प्रतिमाओको प्रतिष्ठा
ऐतिहामिक हापसे यह मूनि बड़े महत्वका हे और करा रहे थे। कई बातों पर अनोखा प्रकाश डालती है--
(७) उस समय भी जैन-जनता पुस्तकोंसे अपरिचित (१) प्रथम तो यह मूर्ति जन सरस्वतीकी ही सर्व नहीं थी, जेनों के यहाँ प्रथमण्यन उसके पर्यात पूर्व प्रारंभ प्राचीन प्रतिमा नहीं है वरन सरस्वती-मात्रकी सर्व प्राचीन हो चुका था, तभी तो कलामं भी उसकी ऐमी सष्ट अभिमाना है। जैनधर्मको भौति हिन्द और बौद्ध धर्माम भी व्यजना हो सकी । अतः यह धारणा भ्रमपूर्ण दी प्रतीन सरस्वती देवीकी मान्यता है, किन्तु हिन्द मरस्वतीकी मतियां होती है कि प्राचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि-द्वारा पटखंडागम गुमकालके बादमे ही उपलब्ध दोती है । ५ वीं ६टी श्रादि सिद्धान्त ग्रन्थोंक रूपमें कथित श्रुतावतारसे पूर्व जैनों शताब्दीसे पूर्व की हिन्द सरस्वती की कोई मन नहीं मिलता। में धार्मिक ग्रन्थरचना होती ही नहीं था। श्रुतावतारकी बौद्ध मूर्तियों उमसे भा पीछेकी मिलती है।
कथानोंका तालार्य तो परम्परागत द्वादशाङ्क सम्बन्धी मूल (२) शकलोग भी, जैनदेवी-देवताओके उपासक- श्रुतागमके लिपिबद्ध करने की घटनासे ही प्रतीत होता है। जनधर्मावलम्बी थे। कलाम उनका अभिव्यक्ति इस बातको (८) वस्तुतः जिस कालमें प्रस्तुत मूर्तिका निर्माण सूचित करती है कि उस काल में कमसे कम मथुरा निवासी हुअा उस समय जैनजगतमं ज्ञानजागृति (Jaina Renशक तो प्राय: जैन थे। यदि यह मूर्ति प्रथम शताब्दी ई. aissance) का प्रथमत: एक बड़ा प्रबल अान्दोलन पूर्व की है, जैसा कि संभव है, तो शकोंके मथुग-प्रवेश के चल रहा था, जिसका पूर्वाभास हमें कलिङ्गसम्राट खारवेल १ Dr. V. S. Agarwal Guide to Arch. के हाथी गुफा वाले अभिलेखमें मिलता है । और जिसके Sec. of Lucknow Museum.
फलस्वरूप ई. सन् ८० के लगभग दिगम्बर श्वेताम्बर
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किरण १]
क्या मथुरा जंधू स्वामीका निर्वाणस्थान है ?
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मतभेद पृष्ट हुआ। इस अान्दोलनका कारण यह था कि के पश्चात् ही एक अोर प्रात: स्मरणीत धरसेन, पुष्पदन्त, अब शान-ध्यान-तपमें लीन निर्गन्य जैन साधुओं को यह भूतबलि, गुणधर, आर्यमंबु, नागहस्ति, यतिवृषभ श्रादि प्रतीति होने लगी थी कि धर्म और जिनवाणीको रक्षा प्राचार्योने मूल नागम ग्रन्थों की रचना द्वाग, दूसरी ओर केवल म्मरणशक्ति के बल पर नहीं हो सकती। शक्ति और शिवार्य, कुन्दकुन्द, उमास्वाति, विमलसून, ममन्तभद्रादि संहननकी उत्तरोत्तर होती हीनता, चारित्र्य-शेथल्य, श्रद्धानकी उद्भट अाचाोंने अपनी विद्वात्तपूर्ण श्राध्यागिक, दार्शनिक, विकृति, सम्प्रदायभेद संघभेद अादिका होना, इन मब नैतिक, पौराणिक रचनायोमे जैन वाग्देवी का भरार कुछ कारणोंसे यह श्रावश्यक होगया कि भगवान महावीर के ही ममममें श्राश्चर्यजनक रूपमें समृद्ध कर दिया। हम अान्दो
भात धारणाद्वारसे परम्परागत चले श्राय श्रतज्ञानका जो लनको पापकता तथा उसके उपक नेताओं की सफलता कुछ अवशिष्टांश विद्यमान है, अर्थात कतिपय विद्वान उम समब रचे गये जेनसापिका जो अवशष श्राज भी प्राचार्योकी धारणामें सुरक्षित है उसे लिपिबद्ध कर डाला उपलब्ध है उमामे भनी प्रकार विदित हो जाती है। जाय, तथा उसके अाधारपर और भगवान के अन्य उप
मथुगकी यह दो हजार वर्ष पगनी सरस्वना-प्रतिमा देशों और धार्मिक अनुश्रतियोंके श्राधार पर स्वकीय मौलिक
उस महान शान जागतिका सर्वप्रकार उपयुक्त एवं मचा रचनाश्रो तथा टीका-भाष्य प्रादि प्रगौस जैनभारतीका
प्रतीक है। श्रतकी अधिष्ठात्री सरस्वती पुस्तक हाथमे लिये भंडार भर दिया जाय, ग्रन्थ-प्रणयनका कार्य जारीक माग
धर्मभकोस यह प्रेरणा करती प्रतीत होती है कि उसकी प्रारम्भ कर दिया जाय। निम प्रकार अन्य मर्च नबीन
मची उपासना ग्रन्थ-प्रायन तथा मादित्यक प्रचार एवं अान्दोलनका विरोध होता एम अान्दोलन के भी अनेक
प्रमारमै दोहै। वास्तव में मनुष्य अपनी भावनाना और प्रबल विरोधी होंगे। मैकड़ों वर्ष प्रयत्न करने के पश्चात्
अपने प्रादशों को मूर्तरूप देने का सदैव प्रयत्न करता है। श्रान्दोलन मफल हुमागा। शक, यवन-श्रादि नवागत
और इसमें सन्देह नदी कि ग्रन्थ-नगपनका अान्दोलन पामान्य जातियोने, जिन्होंने जैनधर्म अपना लिया था. हम
करने वाली श्रुतभक्त जेन जनताको कामना । कुशल कस्नाअान्दोलनको प्रर्याप्त प्रोत्साहन दिया होगा, क्यों कि भारतीयों
कारने सरस्वतीकी इम पापग-प्रतिमाम बरे सुन्दर और की अपेक्षा उस समय भी थे लोग लेखन कलाकं अधिक
प्रभावक रूपमें अभिव्यक्त किया। प्रादी रहे प्रतीत होते हैं । इस अान्दोलनके परिणामस्वरूप भद्रबाहु स्वामी दिनीय ( प्रथम शताब्दी ई० पूर्वका मध्य ) जमऊ, ''
क्या मथुरा जंबुस्वामीका निर्वाणस्थान है ?
(लेखक--५० परमानन्द जैन, शास्त्री)
महुराए हिलित्ते वीरं पासं तहेव चंद मि। किया गया है। परन्तु अंबूयन किम धेशका धन है या जंबुमणिदो बंदे णिचुइ पत्तो वि जंबुवण ग णे ।। पद्म परमे कुछ भी फालत नहीं होता । मालूम होना।
मुद्रित दशभक्त यादि संग्रह में प्राकृत निर्याणा भक्त के जंबू स्वामाने जिस बन में ध्यानाग्नि द्वारा प्रवशिष्ट श्रघानि. अनन्नर कुछ पद्य और भी दिये हुए हैं। उनमें से हम कमेको स्मकर कृत्यता प्राम की. भवत: उमी बनको तृतीय पद्यमें मथुरा और अहिक्षेत्र में भगवान महावीर और वन नाम उल्लेग्विन करना विवक्षित है । अब प्रश्न पार्श्वनाथकी वंदना करने के पश्चात् जंबु नाम के गहन बन रह जा- हे क उक्त जंबूचन किम देश, प्रम अथवा अन्तिमकवली जंबूस्वामीके निर्वाण प्राम होनेका उल्लेख नगरके समीपका स्थान है और मधुग के साथ उसका क्या
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अनेकान्त
[वर्ष
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सम्बन्ध है।
निर्वाणस्थान कहना प्रारम्भ कर दिया हो। और बहुत मथुगके समीप ही चौरासी नामका स्थान है जहायर सम्भव है कि उक्त कल्पना या इसी तरहकी कोई अन्य बात एक विशाल जैन मन्दिर बना हुआ है। इसी स्थानको मथुरा या चौरासीकी निर्वाणभूमि-प्रसिद्धिका कारण बन जंबू स्यामीका निर्वाणस्थान कहा जाता है, परन्तु अन्वेषण गई हो; पं० राजमल के जंबूस्वामिचरित्रसे इतना तो निश्चित करने पर भी जंबूस्वामी के चौरासीपर निर्वाण प्राप्त करनेका है कि जम्बूस्वामीने मगधादि नगरियोमें विहार करते हुए कोई प्रामाणिक उल्लेख अभी तक मेरे देखने में नहीं धर्मोपदेश दिया था जैसाकि निम्न पद्योंसे प्रकट है:घाया। मालूम नहीं इस कल्पनाका क्या श्राधार है। प्रो० हागलाल जी एम० ए० ने अपनी जैन इतिहासकी
विजहर्ष ततो भूमौ श्रतो गंधकुटी जिनः । पूर्वपीठिका और हमारा अभ्युत्थान' नामकी पुस्तकक
___मगधादि-महादेश-मथुरादि-पुरींस्तथा ॥११॥ पृष्ठ ८० में संयुक्तपानका परिची कराते हए जंबूस्वामीकी
कुर्वन्धर्मापदेशं स केवलज्ञानलोचनः ।
घर्षाष्टदशपर्यन्तं स्थितस्तत्र जिनाधिपः ॥१२०॥ निर्वाणभूमि उक्त चोगसी स्थान घर यतलाई हैं। उनकी इस मान्यताका कारण भी प्रचलित मान्यता आन परन्तु जम्बूस्थामीका निर्वाण विपुलाचल या विपुल. पड़ती है । क्योंकि लेग्यमें किसी प्रमाणविशेषका उल्लेख्य गिरिसे ही बतलाया है. जो वर्तमान राजगिर के, जिसे पंचनहीं है।
शैलपर भी कहते हैं, पंच पहाडोमें से प्रथम है । जैमाकि यद्यपि मथुग जैनियोंका पमिद्ध ऐतिहासिक स्थान है।
निम्न पासे प्रकट है:यहाँके कंकाली टोलेमे प्राप्त मूर्तियाँ अाज मी जैनियों के सतो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचल्लात् । प्राचीन गौरवको उहीम कर रही है और जैनियोकी अतीत कर्माष्टका श्वतानंतसौख्यभाक् ॥१२॥ स्मृति के गौरवका प्रतीक हैं। उनकी वास्तुकला और महाकवि वीरने भी अपने अम्ब-स्वामी-चरितमें, मूर्तियोंकी प्रशान्तमद्रा भक्तिमार्गका निदर्शन कर रही जिसका रचनाकाल वि० सं० १०७६ है, जम्बूस्थामीका है। पंडित गजमल जीके जंबूस्वामिचरिन में, निसका रचना- निर्याणस्थान विपलाचल ही बतलाया है, जैसाकि उसकी काल १६३२ है, मथुग ५१४ दिगम्बर स्तूरों के होनेका १०वीं साधिके २४वें कडवकके निम्न अंशसे प्रकट :-- उल्लेख है और उनका जीणोद्धार अागरा निवासी साहू Hamar
ह श्रार उनका जागणद्धार आगरा निवासा सा भव्वयण-चित्त-यरिय-कुतक्कू, अट्ठारह वरिसह जामथक्कु टोडरने कगया था। इन सब बातोसे जैनियोंके लिये मधुगकी nिs,
"का विउल इरिसिहरि कम्यदृचंत, सिद्धालय-सासय-सोव्यव-पत्त महना गौरवकी वस्तु है । परन्तु वह निर्वाणभूमि यह मान्यता ठीक नहीं है। क्योंकि इसका समर्थन किसी प्राचीन ऊपर के जम्बूस्वामि-चरित ग्रन्थोके उल्लेखोपर से यही उपलब्ध प्रमाणसे नहीं होता। और या भी प्रायः निमित स्पष्ट जाना जाता है कि जम्बूस्वामीकी निर्वाणभूमि मथुरा है कि हम मान्यता के प्रचलित होनेका प्राधार या .. या चौरासी नहीं है किन्तु विपन गिरि है। यदि मधुगकी कब और किमने से जन्म दिया है। हाँ, यह हो सकता। निशेणभूमिकी मान्यता विक्रमकी ११वीं शताब्दी से कि जब अन्तिम केवली जम्बूस्वामी गंधकटी-सहित विहार १७वीं शताब्दी तक प्रचलित होती तो उसका उल्लेख करते हए मथुराके उद्यान में पधारे हो और वह अपने उक्त दोनों ग्रन्थकार अवश्य करते । किन्तु यह प्रचलित धर्मापदेश द्वारा जनताका कल्यागा किया हो और उनकी मान्यता १७वीं शताब्दीके बहुत बाद की है, इसीलिए पं. उम पवित्र यादगारमें कोई मन्दिर या स्तुप मनवा राजमलज ने उसका निर्देश तक नहीं किया। श्रतः मधुरा दिया गया हो और बादको उमी स्थानपर या उसके या चौगसीको निर्वाणभूमि कहना या मानना ठंक मालूम पास के स्थानमें; यह विशाल मन्दिर बनवाया गया नहीं होता। हो । तथा बाद में भ्रमसे जनताने से ही अंबूस्वाभीका ता. ११-१-४॥
बीरधामन्दिर सरसावा
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बीरसेवामंदिरमें पंतजी का आगमन
ता० २५ जनवरी सन् १६४६ को प्रान्तीय सिलसिले में युक्तप्रान्त के भूतपूर्व प्रधान मंत्री बं० गोबिन्द बल्लभ पन्तजी का सरसावा (सहारनपुर) में श्रागमन हुआ। वीरसेवामन्दिरके भव्य प्राङ्गण में स्थानीय कांग्रेसमंडलद्वारा प्रायोजित सभामे आपने एक संक्षिप्त वक्तव्य में कांग्रेस के उसूलोंपर और अनुशासन में चलनेका प्रेरणा करते हुए कहा कि 'काय जनता और किसानोंका राज्य होगा और वे मालिक बनकर रहेंगे। पुलिस उनकी सेवक बनकर रहेगी। हिन्दू और मुसलमान
चुनावों के माननीय
केवल पुस्तकालयोंके लिये
हिन्दी के मशहूर लेखकों के कहानी, उपन्यास कविता, नाटक, काव्य आदि की पुस्तकोंपर हम केवल पुस्तकालयोंको ६ प्रतिशत से २५ प्रतिशत तक कमोशन देते हैं। आज ही नियम और सूचीपत्र मंगाईये ।
दुकानदार और आम जनता इन नियमों से लाभ नहीं उठा सकेगी ।
कौशलप्रसाद जैन कोर्ट रोड
सहारनपुर यू० पी०
उ
सुगन्धित तैजोका व्यापार साबुन विज्ञान
पेटेन्ट औषधियें बनाना
व्यापारिक विद्याप्रकाश
रोशनाई बनाना सुगन्धित शन बनाना सुगन्धित बनाना
दोनों भाई-भाई हैं। कांग्रेस देशकी आजादी के लिये है। मुस्लिम लीग केवल नवायों और राजाधोंकी है इसलिये वह जनता अथवा किसान राज्य कैसे चाह सकती है ? अतएव आागेके प्रान्तीय चुनावों में कांग्रेस उम्मीदवारको ही अपनी बोट दें। सभाम जनताकी उपस्थिति अच्छी थी। आपको १६०) रु. की थैली भेंट की गई। इसके बाद पन्तजी करनाल के लिये खाना हो गये ।
26
अद्भुत पुस्तकें राजपुतानेके जैन वीर हमारा उत्थान और पतन कथा, कहानी और संस्मरण भारतका आदि सम्राट कर्म फल कैसे देते हैं सम्यग्दर्शनकी नई खोज भविष्यदत्त चरित्र
धन्यकुमार चरित्र
DKG
लाखों बेकारोंको रोजगार पर लगाने वाली व्यापारिक पुस्तकें /
-12
111)
१)
५!)
- दरबारीलाल जैन कोटिया 36
१) मावुन मनाना
२) मशहूर यूनानी नुमखे
३) घरेलु विज्ञान
9)
अकंलक नाटक खतीमनोरमा उर्फ धर्मकी देवी दर्शन कथा, दर्शपालन, दर्शप्रतिज्ञा शील महिमा, जैन ऋषि हरेक =) पोस्टेज अलग -- कौशलप्रसाद जैन, कोर्ट रोड, महारनपुर
२||
अनुभूत मुलम्मा सानी
काला गोरा खूबसूरत बनने के उपाय)
विश्वव्यापार भंडार
१)
पोस्टेज अलग
कोश नप्रसाद जैन, कोर्ट रोड सहारनपुर यू० पी०
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Regd. No. A-736.
वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
१-आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-नया प्राप्त ४-उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा--मुख्तारश्रीजुगल संक्षिप्त सूत्र, मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी सानुवाद किशोरजीको ग्रंथपरीक्षाओं का प्रथम अंश, ग्रंथव्याख्या सहित । मूल्य।)
परीक्षाओंके इतिहासको लिए हए १४ पेजकी नई २-सत्साधु-स्मरण-मङ्गलपाठ-मुख्तारश्री जुगल- प्रस्तावना सहित । म किशोरकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना,
५-न्याय-दीपिका--(महत्वका नया संस्करण)-- सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि महित । इसमें श्रीवीर
न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी कोठिया द्वारा सम्पादित वर्तमान और उसके बादके जिनसेनाचार्य पर्यन्त. २१ महान आचार्यों के अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों
और अनुवादित न्याय-दीपिकाका यह विशिष्टसंस्करण
अपनी खास विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित द्वारा किये गये महत्वके १३६ पुण्य-स्मरणोंका संग्रह है और शुरू में १ लोकमङ्गल-कामना, २ नित्यकी
संस्करणों में जो अशुद्धियां चली आरही थीं उनके
प्राचीन प्रतियोंपरसे संशोधनको लिये हुए यह संस्करण आत्मप्रार्थना, ३ साधुवेर्षानदशक जिनस्तुति ४ परम
मूलग्रंथ और उसक हिंदी अनुवाद के साथ प्राकथन, साधुमुग्वमुद्रा और ५ सत्माधुवन्दन नामके पांच
सम्पादकीय, विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई प्रकरण हैं। पुस्तक पढ़ते समय बड़े ही सुन्दर पवित्र
८ परिशिष्टोंग संकलित है, जिनमें से एक बड़ा परिशिष्ट विचार उत्पन्न होते हैं और माथ ही आचार्योका कितना ही इतिहास मामने आ जाता है, नित्य पाठ
तुलनात्मक टिप्पणका भी है, साथ सम्पादक द्वारा
नवनिर्मित 'प्रकाशाख्य' नामका भी एक संस्कृतटिप्पण करने योग्य है । मू०॥) ३-अध्यात्म-कमल-मानगढ--यह पंचाध्यायी तथा
लगा हुआ है, जो ग्रंथगत कठिन शब्दों तथा विषयोंका लाटीसंहिता आदि ग्रंथों के कर्ता कविवर-गजमलकी
खुलामा करता हुआ विद्याथियों तथा कितने हो
विद्वानों के कामकी चीज है। लगभग ४०० पृष्ठांक अपूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कूजे में बंद किया गया है। माथमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल
इस बृहत्संस्करण का लागत मू०५)रु० है । कागजकी
कमीक कारण थोड़ी ही प्रतियाँ छपी हैं। अतः कोठिया और पं० परमानन्द शास्त्रीका सुंदर अनुवाद,
इन्छकों को शीघ्र ही मंगा लेना चाहिये । विस्तृत विपयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है । बड़ा ही
प्रकाशनविभाग उपयोगी ग्रन्थ है । मू० शा)
षीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग (३) नत्सव-विवाहादि दानके अवसरों पर अने(१) २५), ५०), १००) या इससे अधिक रकम
कान्तका बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी देकर सहायकोंकी चार श्रेणियोंमेंसे किमीमें अपना
सहायता भेजना तथा भिजवाना, जिससे अनेकान्त नाम लिखाना।
अपने अच्छे विशेशाङ्क निकाल सके, उपहार ग्रंथोंकी (२) अपनी ओरस असमर्थोंको तथा अजैन
योजना कर सके और उत्तम लेखोंपर पुरस्कार भी दे संस्थाओंको भनेकान्त फ्री (बिना मूल्य) या अर्धमूल्य
मक । स्वतः अपनी ओरसे उपहार ग्रंथों का योजना में भिजवाना और इस तरह दमरोंका अनेकान्तके भी इस मद में शामिल होगी। पढ़ने की विशेष प्रेरणा करना । (इम मद में सहायता
(४) अनेकान्त के ग्राहक बनना, दुमरोंको बनाना देने वालोंकी ओरसे प्रत्येक चौदह रुपये की सहायता
और अनेकान्त के लिये अच्छे अच्छे लेख लिखकर के पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा आठको अधे- भेजना, लेखों की सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकामूल्यमें भेजा जा सकेगा।
शित होने के लिये उपयोगी चित्रोंकी योजना करना
और कराना । -व्यवस्थापक अनेकान्त' ro -o -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -.मटक काशक पं. परमानन्द शाम्रवीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसन्दरलाल द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपरमें मद्रित ।
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अनेक
वर्ष
किरण २
सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार
विषय-सूची
न्त
६ भगवत शरण में कार | सम्पादक
73 ६५ ६५ ६६ ७४
हृदय दें बना हुआ फुटबाल (कविता) --- ['युगवीर' ३ खजुहा के मन्दिरोंसे (कविता) (श्री इकबालबहादुर ४दी और दिल्ली राजाजी- [पंपरमानन्द जैन शास्त्री * जनसंस्कृति-संशोधन-मण्डलपर अभिप्राया०० दरबारीबाल SE ६ जैनियोंपर घोर अत्याचार -- [प्रा० हेमुल्य लाजेनाव अनुवादक परमेोदाम जैन
....
WATC
७ 'मंजद' पदके सम्बन्ध में कल देवका महत्वपूर्ण अभिमत -- [न्यायाचार्य पं० दरबागेलाल जैन, कोटिया क्या खाक बसन्त मनाऊं मैं (कविता) [प काशीरामशमा प्रद Teasers और maमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं --प्रो० डीगलान जैन, एम००६ १० हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा -- [ डा० ए० एन० उपाध्ये अनुवादक पं० राजकुमार साहित्याचार्य ० ११ जलाप्रशस्तिके राष्ट्रकूटन रेश-- [बा० ज्योतिप्रसाद एम० ए० १२ बीरोपदेश - [पं० लोकमणि जैन
१३ साहित्य-परिचय और समालोचन
७
१०२
グッと
फरवरी
१६४६
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अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंसे आवश्यक निवेदन
अनेकान्त' के प्रेमी पाठकोंस यह बात छिपी हुई यह सब मह लयत सिर्फ प्रचारकी दृष्टि की गई है। नहीं है कि अनकान्न' ने जैनसाहित्य और जैन- खेद है कि अबकी बार कुछ श्रीमान ग्राहकोंने बीपियाँ ममाजकी क्या क्या मेवाण की हैं ओर कर रहा वापिम की हैं। इसका कारण शायद यही मालूम होता है। कार्यालय में इस विषय के अनेक पत्र आरहे हैं। है कि वर्ष ८ की १ ली किरण लगभग ४ माह बाद अभी भारतके प्रसिद्ध विद्वान् सर यदुनाथ सरकार प्रकट होसकी है पर वापिसी में यह कारण नहीं होना कलकत्ताने अनेकान्तकी प्रशंमा करते हए लिखा है- चाहिये, क्योंकि इस किरणके जनवरी में निकालने की
म शोध-खोजक महत्वपूर्ण पत्रका विदेशों में सूचना अनेकान्त' सम्पादक पहले ही कर चुके थे। प्रचार होना चाहिए और उसका अंग्रेजी संस्करण भी और फिर भी इसमें ग्राहकों को कोई नुकसान नहीं निकालना चाहिए, इमस हजारों पाठकों के लिए ज.धर्म क्यों क उन्हें पूरी किरणें दी जायेंगी और वें वर्ष
और जैनमाहित्यका ठीक ठीक परिचय मिल सकेगा।' का प्रारम्भ भी इसी जनवरी मामसे किया गया है। ___कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय राष्ट्र में हिन्दी अतः यदि उन श्रीमान ग्राहकोंने वी० पी० भूलसे के जो कुछ महत्वपूर्ण-साहित्यिक पत्र निकल रहे हैं वापिस की हों या मुनीम आदि द्वारा की गई हों तो उनमें 'अनेकान्त' का अपना ग्बाम स्थान है। फिर भी वे पत्रकी उपयोगिता और महत्वको समझकर पुनः यह खटकने योग्य है कि इसके पाठक, मर यदुनाथमर- मंगालें । पत्र कितना उपयोगी और महत्वका है यह कारक शब्दों में हजारो' नहीं हो पाये हैं। आज तो वह दर न जाकर इमी आठवें वपंकी पहली किरणसे ही. समय है जब लोग एक दृमरे के नजदीक आना चाहते जिसे उन्होंने वापिस कर दिया है, मालूम हो जाता हैं-एक दुसरेक धर्म दर्शन, सिद्धान्त, साहित्य, इति- है। हम अन्य लेखांका. जो मब ही खोजपूर्ण और हाम, पुरातत्व और कलाका जानने के लिये उत्सुक हैं। महत्वके हैं, यहाँ उल्लेख नहीं करते। केवल प्रोफेसर ऐन ममय भगवान महावीर के अपरिग्रह, अहिमा और बालाप्रसाद सिंहल एम० ए०, एल-ल० बी० के अनेकांत आदि गौरवपूर्ण लोकहितंकर सिद्धांतों को प्रचा- 'वानर-महाद्वीप' शीर्षक खोजपूर्ण लेख और उसपर रित करने तथा जैनमाहित्य, जैनइतिहास, जैनपुरातत्व सम्पादक द्वारा लिखे गये महत्वपूर्ण नोटका जिक
और जैनकलाका लोकको परिचय करानेका बड़ा सुन्दर करते हैं जो जैन पुराणों में वर्णित विषयों की प्रामाअवसर प्राप्त है। मतलब यह कि मांस्कृतिक उन्नतिके, गिगकता और उनकी सचाई की कितनी ही घोषणा लिये आजका समय बड़ा अनुकूल और वणिल है। करते हैं और इसलिये ऐस लेखों का मूल्य कुछ भी
और अनेकान्त इन बातों की कितने ही अंशों में पूर्ति नहीं आंका जा सकता । इसी प्रकारका ‘रादा से पूवकी करता है।
५३ वर्षकी जंत्री' वाला लेख है। अतः अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंस अनुरोध है कि यहां पर पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि वे इसके बहमंख्या में ग्राहक बनावें । जैनेतर विद्वानों, कितने ही अनेकान्त प्रेमा सजनोंने अपनी ओरस लायरियों, पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों, म्युजियमों विद्वानों, छात्रों और संस्थाओंको अनकान्त अद्ध कीऔर मन्दिर-उपाश्रयों में इस पत्रको अपनी ओरस मतमें भिजवाने की स्वीकृति प्रदान की है, इसके लिये अथवा दुमरोंमे प्रेरणा का के भिजवावें। अनेकान्तका वे धन्यवाद के पात्र हैं। अतः जिन विद्वानों छात्रों मूल्य मिर्फ ४) है। पर चार स्थान को फ्री भिजवाने और संस्थाओंको अनेकान्त अद्धं मूल्यमें मंगाना हो चालोस मात्र १४) और आठ स्थानोंको फ्री भिजवाने वे शीघ्र ही २) मनीआडरमे भेजकर उसे मंगालें। वालोंस २८) ही लिये जाते हैं। दशसे अधिक हो फ्री अन्यथा बादक मंगाने पर भेजने में लाचारी होगी। भिजवाने वालोंसे प्रतिव्यक्ति मूल्य ३) लिया जाता है।
-दरबारीलाल जैन, कोठिया
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वार्षिक मूल्य ४)
""" →
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वर्ष किरण २
* ॐ अर्हम् *
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नीतिविरोधयंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
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सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार
वीरमेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ) सरसावा जिला सहारनपुर फाल्गुन, वीरनिर्वाणा संवत् २४७२, विक्रम संवत् २००२
भगवत्-शरणमें कारण
न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन् ! पादद्वयं ते प्रजाः हेतुस्तत्र विचित्र दुःख निश्चयः संसार-घोराणैवः । अत्यन्त - स्फुरदुग्र-रश्मि- निकर - व्याकीर्ण - भूमण्डलो
ग्रैष्मः कारयती दुपाद - सलिल च्छायाऽनुरागं रविः ॥ १ ॥
वस्तु तत्त्व-संपातक
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फी १६४६
एक किरणका मूल्य (7)
- शान्तिभक्ती, श्री पूज्यपादः
'हे भगवन् ! — श्रीशान्तिजिनेन्द्र ! - आपके प्रजाजन - उपासकगण - स्नेह से – विशुद्ध प्रेम के वश - आपके चरण-शरण में प्राप्त नहीं होते हैं, बल्कि उस शरणागति में दूसरा ही (प्रधान) कारण है, और वह है विचित्र प्रकार के दुःख- समूह से परिपूर्ण घार संसार-समुद्रं जिसमें उन्हें रहना पड़ रहा है और जिसकी घोर यातनाश्री एवं कष्ट-परम्पराको सहते सहते वे बहुत ही ऊब गये तथा बेचैन हो उठे हैं, अब उनसे और अधिक वे दुःख कष्ट महे नहीं जाते, वे उनसे भयभीत हैं और इस लिये उन सब संसार-क्लेशांसे छुटकारा पानेके हेतु ही आपकी शरण में श्रा रहे हैं। सो ठोक ही है, अपनी अत्यन्त स्फुरायमान उम्र किरणोंके समूहसे भूमण्डलको व्याप्त और संतप्त करने वाला ज्येष्ठाका सूर्य चन्द्रकिरणों (चांदनी), जल और छाया के प्रति संतप्त प्राणियोंका अनुराग कराता ही है । - श्रर्थात् जिस प्रकार प्रचण्ड-सूर्य-धामके श्रातापसे संतप्त हुए प्राणी उस श्रातापसे बचने तथा प्रविष्ट हुए श्रतापको मिटानेके लिये जल, छाया और चन्द्रकिरणोंका श्राश्रय लेते हैं, उसी प्रकार घोर संसार-समुद्र के असह्य
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Regd. No. A-730.
६८
अनेकान्त
[वर्ष ८
दु:खोंमे उत्पीडित विवेकीजन उन दुःखोसे बचने तथा अपनेको शान्तिलाम कराने के लिये आपकी शरण में प्राप्त होते हैं; पोकि श्राप स्वामी समन्तभद्र के शब्दों में-"स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्तेविंधाता शरणं गतानाम्" हम वाक्य के अनुसार अशान्ति के कारणभूत अशान, गग, द्वष, मोह और काम-क्रोधादि सकल विकार-भावोंको दूर करके अपने श्रात्मामें शान्तिकी पूर्णप्रतिष्ठा किये हुए हैं और इसीसे शरणागत भव्य जनकि लिये शान्निके विधाता है।
हृदय है बना हुआ फुटबाल ! ..... विविध विचारों की ठोकर खा, होता है बे-हाल ! | कभी खूब डरता-घबराता, श्राता लख निज-काल ! कभी लुढ़कता इधर-उधर तो, लेता कभी उछाल !! | काम अधूरे लग्वकर अपने, पड़ता चिन्ता-जाल !! हृदय है बना हुआ फुटबाल ! १
हृदय है बना हुआ फुटबाल ! १० आति-भेदके गड्ढे में पड़, भूल गया सब चाल ! J इष्ट-वियोग अनिष्ट-योगकी चिन्ता उधर कराल ! मानवताकी सुन पुकार भी, कर देता है टाल !! | फिकर फिकर में मुरझाया तन, सुकड़ गई सब खाल !! हृदय है बना हुश्रा फुटबाल ! २
हृदय है बना हुआ फुटबाल ! ११ मसारीक-प्रपञ्च-जालमें फंसा हुआ हर हाल ! पर-चिन्तामें पड़कर, अपना भूल गया सब हाल ! नहीं निकलनेकी सुधि करता, ऐसा हुआ निढाल !!
मकडी जाला-सा रच-रचकर, फँसा जगत-जम्बाल !! हृदय है बना हुआ फुटबाल ! ३
हृदय हे बना हुआ फुटबाल ! १२ कभी विषय-सम्पर्क सोचकर, होता है खुशहाल ! कभी प्राप्त सुन्दर विषयों को भी लखता निज-काल !!
अपनी भूल-मोहपरिणतिसे सहता दुख विकराल !
राग-द्वेषके वशीभूत हो, होता है पामाल !! हृदय है बना हुआ फुटबाल ! ४ प्रेम-मग्न सश्चित द्रव्योंकी करता कभी सँभाल !
हृदय है बना हुआ फुटबाल ! १३ उदायीन हो कभी समझता उनको जान-बबाल !!
| हो करके 'युगवीर' भटकता फिरता क्यों बेहाल ! हृदय है बना हुआ फुटबाल ! ५
जीवन शेष रहा है कितना ? अपनी सुरत सँभाल !! कभी धनिक बननेकी इच्छा, कभी रुचिर-कंगाल ! | हृदय है बना हुआ फुटबाल ! १४ ध्यान-मग्न हो गिरि-गहरमें बसने का बस ख्याल !! | वहत किया अन्वेषण परका, लिखे भनेकों हाल ! हृदय है बना हुआ फुटवाल ! ६
| अब निजरूप सँभाल खोजकर, छोड़ सकल जंजाल !! देश-सेवकोंकी गाथा सुन, लख वीरोंकी पाल !
हृदय है बना हुआ फुटबाल ! १५ उन ही जैसा हो रहनेको, उमड़त है तत्काल !!
विपुलाचल चल वीर-ज्योति लख, शांति-प्रद सुविशाल! हृदय है बना हुआ फुटबाल ! ७
अपनो ज्योति जगा ले, उसके चरणों में रख भाल !! कभी सोचता-'सबम पहले अपने दोष निकाल ! तभी बनेगी सची सेवा, होगा देश निहाल' !!
हृदय है बना हुआ फुटबाल ! १६ हृदय हे बना हुश्रा फुटवाल ! ८
यों निज-आत्म-विकास सिद्ध कर, करले प्राप्त कमाल! कभी आपसे बातें करता, फैंस उत्प्रेक्षा-जाल । भ्रम-बाधा-चिन्तासे टकर, होजा चित्त ! निहाल !! कभी हवाई किले बनाता, शेखचिलीकी ढाल । हृदय है बना हुआ फुटबाल ! १७ हृदय है बना हुआ फुटबाल !
वीरसेवामन्दिर, ता०३-२-१९४६
'युगबीर'
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खजुराहाके मन्दिरोंसे
( रचयिता श्री इकबाल बहादुर श्रीवास्तव ) [खजुराहा बुन्देलखण्ड प्रान्तकी छत्रपुर रियासत में राजनगर तहसीलका एक गांव है, जो किसी समय राजवैभवको बिये हए गजनी था, जन-धनसे परिपूर्ण समृद्धिशाली नगर था और जैनियोंका में रहा है। इस स्थान पर जैनियों के प्रधान कलापूर्ण मन्दिरोंक मवावा, जिनकी संख्या २५ से कम नहीं, बौद्धों वैष्णवों
और शवोंके भी कुछ सुंदर मन्दिर हैं। परन्तु ममी मन्दिर, दर्शनीय होते हुए भी, वर्तमानमें दुर्दशा-प्रस्त हैं और अपने अभ्युदयकी कहानी को दर्शकोंपर रो रो कर प्रकट कर रहे हैं! कोई भी सहृदय दर्शक ऐसा नहीं हो सकता जिन्हें इन मन्दिरोंकी वर्तमान दशाको देख कर गेनान प्राजाय। भाजसे कोई १६ वर्ष पहले, भक्तूबर सन् १९२६ को, मैं इन मन्दिरों के दर्शनों को गया था। उस समय इनकी भंग-भंगादिको लिये हुए अम्यवस्थापूर्ण अनाथदशाको देखकर और इनके प्रतीत गौरव का स्मरण कर मेरे हृदय में हर्ष और विषादके कितने ही भावोंका उदय हुमा था। अाज उन भावोंको कवि इकबाल बहादुरजी श्रीवास्तवकी इस कवितामें मूर्तिमान देखकर मुझे बड़ी प्रसनता हुई और यह नान पड़ा कि जो कोई भी मावुक व्यक्ति इन मन्दिरोंको देखता है उसके हृदयमें वैसे भाव उत्पन्न हुए बिना नहीं रहते । श्रीवास्तवजाने इन मन्दिरोंकी दशाका अच्छा भावपूर्ण चित्र खींचा है, और इसके लिये वे धन्य. वादके पात्र हैं। उनकी यह सुन्दर कविता हालके 'जैनसन्देश' (अंक ३५) में प्रकाशित हुई है। वहींसे इसे 'भनेकान्त' पाठकों के लिये उद्धत किया जाता है।
-सम्पादक ओ अनुपम देवालय-ममूह ! (१
(६) निशदिन ही जहाँ लगा रहता, कुछ अपनी गाथा गाओ तो ?
जगकी विभूतियोंका ताँता, अपने जीवनके विविध रूप
उस भाँगनमें किसलिये आज, की झांकी तनिक दिखाओ तो?
करुणाका सागर लहराता? (२) युग बीत गए उन्मन तुमको, | अभिशाप कौन किसका आकर, (७)
बोलो-बोलो, निन-वामी! हे तेजस्वी, तव शीश चढ़ा ? किस विरह-व्यथाने बना दिया- किस महा पापका घोर दण्ड
है आज तुन्हें यह संन्यासी! यह आज तुम्हें भोगना पड़ा कबसे इस ध्यानावस्थामें , (३)
(८) किन किन आशाओंको लेकर, चुपचाप खड़े हो मौन गहे ?
किन-किन अरमानोंको लेकर ? किस इष्ट-सिद्धिके लिये कहो,
भाये थे तुम अवनी-तल पर, यह दुसह ताप हो ताप रहे?
किन-किन वरदानोंको लेकर ? किस शान्ति-प्राप्ति के साधनने किस शुभ मुहूर्त में दिव्य तेज, (6)
जजेर शरीर यह बना दिया ? इस भू-प्रदेशमें आया था ? ...वह मंत्र-मुग्ध करने वाला. यह 'सत्यं शिवं सुन्दरम का
हा, गवित यौवन लूट लिया! अनुपम स्वरूप कर पाया था ? जिस दिव्य ज्योतिसे पालोकित, (५)
(१०) कैसे थे वे सोनेके दिन, दिकविदिक हुआ करते प्रतिक्षण !
कैसी चाँदी की रातें थीं? क्यों मन्द पड़ गई वह भाभा,
सुख स्वप्न होगई जो तुमको, छाया तम चारों ओर गहन ?
वे किस वैभवकी बातें थी ?
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अनेकान्त
[वर्ष ८
प्रति अंग-अंगकी दिव्य-ज्योति, (११)
(२०) गत, दिवसोंमें क्या-क्या देवा, जब हृदयोंका तम खोती थी !
उनका भी गौरव गान करो ? अमिताभासे जगमग-जगमग,
भंकृत हो उठे हृदय-तंत्री जब अन्तरात्मा होती थी !
वह भूला स्वर सन्धान करो ? (१२) कितनी श्रद्धाएँ बढ़ती थीं, क्या यही धर्माण थी, यही व्योम, (२१)
लख चरणोंका उज्ज्वल प्रताप ? क्या तब भी था मंभार यही ? कितने हृदयोंमें मान लिये क्या थे रवि-शशि-नक्षत्र यहो,
नत हो जाते थे भाल आप ? था ऋतुओंका व्यौहार यही? उस मधु-जीवनकी मधुर कथा, (१३)
(२२) क्या ऐसे ही थे नर-नारी, कह श्राज सुधा-रस बरसाओ ?
थीं यही धारणाएँ उनकी ? फिर आज उसी यौवन-लयमें,
क्या इसी तरह की थीं तब भी, वह मधुर रागनी दुहरायो ?
प्रतिकार- भावनाएँ उनकी ? (१४) हे मौन-व्रती, बोलो, तुमको | क्या इमी तरहका आडम्बर, (२३)
किसने है साँचे में ढाला? | धोखा दुराव था आपसमें ? किसने सम्मोहन रूप दिया, क्या इसी तरहकी स्वार्थ-सिद्धि
किसने पहनाई जयमाला ? | ईर्षा छाई थी घर-घरमें ? यह किन हाथोंका कौशल है, (१५)
(२४) यह छूत-छात, यह वर्ग-दोष, यह किन अस्त्रोंकी माया है?
यह वर्ण-भेद, यह तिरस्कार ! यह यत्न कौन-सा है जिसने,
दुर्दम्य घृणा, कल्मष, पशुता, प्रस्तरको मोम बनाया है ?
क्या तब भी था लिप्सा-प्रसार ? (१६) वे कौन कलाविद् थे महान, | बोलो-बोलो, कुछ तो बोलो, (२५)
जो रचकर नैसर्गिक रचना, हे युग-युगके प्रहरी महान् ? स्वर्गीय -- कला -- कौतूहलसे इस महाघोर परिवर्तनका
कर गये अमर जीवन अपना ? | क्या कारण है, हे भाग्यवान ? अब तक. इन भग्न-शिलाओंमें, (१७)
(२६) वे स्वर्ण-युगी संगी-साथी, है निहित भावनाएँ जिनकी ।
क्यों तुमसे नाता तोड़ गये ? प्रति मूर्ति-मूर्ति से बोल रहीं
इस निर्जन सूनेपनमें क्यों वे पुन्य आत्माएँ जिनकी।
वे तुम्हें बिलखता छोड़ गये ? (१८) प्रस्तर की ये प्रतिमाएँ हैं, | धंस गये कहाँ चन्देलोंके (२७)
या कलाविदों की तपोलीक । । वे सिंह-द्वार, वे राज-भवन ? या आर्य संस्कृति का स्वरूप, विर्गालत होगये कहाँ किसमें
स्वर्गीय-भावनाका प्रतीक ? | बहु-रत्न जटित वे सिंहासन ? युग-युगी सभ्यता का सुपाठ (१६)
(२८) वह यशोवर्म, वे धंग, गंड, शत-मुखसे जगको पढ़ा रहीं।
वैभवशाली सोगये कहाँ ? प्राचीन शिल्पके विधि-विधान
वे दो खजूरके स्वर्णवृक्ष की गौरव-गाथा सुना रहीं।
जीवन-सहचर खोगये कहाँ ?
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किरण २]
जिन वृक्षोंने ही प्रांगनको (२६) 'खर्जूरवाह' - सा नाम दिया । किस काल - प्रभंजनने तुम से उन बाल-सखों को छीन लिया ?
दिल्ली और दिल्लीकी राजावली
(३०) क्या उप वैभवके साथ-साथ हो गई प्रतिष्ठा भी विलीन ?
(३१)
या इस युगका मानव-समाज होगया आज हे हृदय-हीन ? शत-शत शङ्खों का तुमुल घोष अब नहीं सुनाई पड़ना क्यों ? शत-शत पुजारियों का समूह अब नहीं दिखाई पड़ता क्यों ?
(३२) सदियाँ हैं बीत गई
तुमको
युग की गति में ढहते बहते । इन निर्म। दुनिया वालों की क्षण-क्षण भीषण कटुता सहते !
(३३) तुमको स एक बराबर है तम रहे कहीं, आलोक कहीं ! सुख-दुख का कैसा अनुभव है, होता कुछ हर्ष-विषाद नहीं ? अश्रु दर्शकों के (३४) अ नहीं रुला सकते तुमको | पथिकों के ये परिहास -हास अब नहीं हँसा सकते तुमको !
ये
बहते
(३५) हे देवालय !
दिल्लीकी गणना भारतवर्ष के प्रधान शहरों में है, वह वर्तमान में बृटिश साम्राज्य की राजधानी है और पिछले समय में भी मुगल साम्राज्य तथा उससे पूर्व तोमर या तंवर वंशियोंके शासनकाल में राजधानी रही है। दिल्लीके नामकरण और उसके बसाने के सम्बन्ध में अभीतक मतभेद पाया जाता है। कोई कहता है कि लोहे की कीलीके ढीली होजानेके कारण उसका नाम 'ढोली' पड़ा है। दूसरा (फरिश्ता) लिखता है कि यहांकी मिट्टी नरम है उसमें कठिनाई से मेख (कील) दृढ, गढ़ सकती है, इसीसे इसका नाम 'ढोली' रक्खा गया है। कुछ भी हो, वर्तमान दिल्लीका प्राचीन नाम 'इन्द्रप्रस्थ' था और बादको दिल्ली, डिलिका, योगिनीपुर, जोहणिपुर, दिल्ली तथा देहली आदि नामोंसे उल्लेखित किया गया है। जैन साहित्य में दिल्ली, जोहणिपुर
७१
उत्तुङ्गकाय
हे गर्वोन्नत- गिरि भूतल के ! हे आये शिल्प स्वर्णिम स्व-कीर्ति ! हे दर्पण भारत - कौशल के ! (३६)
तुम जीएं.-शीर्ण ही बने रहो इतना ही गौरव क्या कम है ? तुम उस अतीत की संस्मृति हो जो अनुपम है, सर्वोत्तम है ।
दिल्लो और दिल्ली की राजावली
( लेखक -- पं० परमानन्द जैन, शास्त्री )
दिल्लीका नामकरणादिविषयक इतिहास- योगिनीपुर और दिल्ली नामों का खूब उपयोग हुआ है,
परन्तु अपभ्रंश भाषा के जैन साहित्य में केवल दिल्ली और जोइणिपुर इन दो नामोंका ही प्रयोग हुआ मिलता है।
दिल्लीको कब और किसने बसाया, यह एक प्रश्न है । देहली म्यूजियम में सं० १३८४ का एक शिलालेख है उसके निम्न वाक्य में तोमर या तंवर वंशियों द्वारा दिल्ली के निर्माण करनेका स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है:--
देशोस्ति ढिला
हरियानाख्यो पृथिव्यां स्वर्गमं नभः । पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता ॥
तोमर या तंबर शब्द एक प्रसिद्ध क्षत्रिय वंशका
१ देखी, राजस्थान इतिहास भाग २ पृ० ६८४ टि०, पं० ज्वालाप्रसाद मिश्रद्वारा अनुवादित ।
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Regd. No. A-7*.
भनेकान्त
[वर्ष ८
सुचक है जो तोमरवंशके नामसे प्रसिद्ध हुआ। दिल्ली की नामावली देकर द्वितीय अनंगपाखका खेल १६वें को तोमरवंश द्वारा बसाये जाने में कोई मतभेद नहीं, नम्बर पर करते हैं। परन्तु इस वंशके किस राजाने और कब बसाया, इसपर पं. समीधर बाजपेयी भी तोमरवंशक अनंगपाख ऐतिहासकोंका एक मत नहीं है। प्रबुजफजल सं० ४२४ (प्रथम) को दिल्लीका मूखसंस्थापक प्रकट करते हैं जिनका में और फरिश्ता सन् १२० में दिल्लीका बसाना मानता राज्याभिषेक सन् ७१६ में हुमा था, उसने सबसे प्रथम १२ पंडित जयचन्द्र विद्यालंकार सन् १०५० में अनंग- दिल्ली में राज किया और उसके बाद उसके वंशज कन्नौजमें पाल नामक एक तोमर परदार द्वारा दिल्जीके स्थापित चले गये वहाँस उन्हें चन्द्रदेव गाठौबने भगा दिया था। होनेका क्लेख करते हैं । और प्रसिद्ध पुरात्ववेत्ता प्रोमा इसके बाद दुमग अनंगपाल दिल्ली में पाया और वहां जी भी वितीय अनंगपालको उसका बसानेवाला मानते हैं। उसने अपनी राजधानी बनाई। पुनः नूतन शहर वसाया
कनिंघम साहब सन् ७३६में अनंगपाल (प्रथम) द्वारा और उसकी सुरक्षाके लिये कोट भी बनवाया था । कुतुब दिखीके बसाये जामेका उल्लेख करते हैं और अनेक हस्त- मीनारके पास पास प्राचीन इमारतोंके जो अवशेष एवं लिखित पुस्तकों एवं ख्यातोंके आधारसे दिल्लीके तोमरवंश चिद देखे जाते हैं वे सब अनंगपाल द्वितीयकी राजधानीके
चिन्ह माने जाते हैं। इसके राज्यममयका एक शिलालेख १ यद्यपि इस वंशके नामकरण और विकास श्रादिका कोई
भी मिला है जिसमें लिखा है कि--"संवत् ११०१ अनंग. प्रामाणिक इति वृत्त उपलब्ध नहीं है । सुना जाता है कि
पाल वही।" साथ ही उक्त कुतुब मीनारके पास अनंगपाल दिल्लीके दक्षिण पश्चिममें 'तुयारवती या तोमगवती'
के मनिरके एक स्तम्भपर उसका नाम भी उस्कीय हुमा नाम का एक जिला है, उममें आज भी एक तोमरवंशी
मिना । सरदार रहता है। बहुत संभव है कि इस वंशका निकास
इससे मालूम हो उक्त तुमारवती या तोमरावतीसे हुश्रा हो; क्योंकि प्राय:
कि अनंगपाल द्वितीयने दिल्ली अनेक गोत्र, जाति एवं वंशोंके नामोंका निर्माण गांव
का पुनरुद्धार किया था और उसे सुन्दर महलों मकाऔर नगरोंके नामोसे हुआ है। और यह हो सकता है
नातों तथा धनधान्यादि समृद्ध भी बनाया था। संभवतः कि उक्त नगरीके नामपर ही तोमरवंशकी कल्पना हुई हो। इसी कारण उसके सम्बन्धमें दिल्लीके बसाए जानेको श्राइनेअकबरीमें 'तुयार' नामसे ही इसका उल्लेख है।
कल्पनाका प्रचार हुया जान पड़ता है। अनंगपाल द्वितीय और अपभ्रंशभाषाके कवि पधूने अपने ग्रन्थों में तुबर या
को दिल्लीका संस्थापक या वसानेवाला माननेपर मिसराती तंबर शब्दसे ही इस वंशका सूचन किया है। इस वंशके मसऊदीक इस कथनको गलत ठहराना पड़गा। कि साबार वंशधर श्राज भी राजपूताने और प्रारा प्रान्त में पाए जाते
मसऊदने सन् १०२७ से सन् १०३.के मध्यमें दिल्ली है। गमपूतानेमें यह 'तुमार' नामसे ही प्रसिद्ध है। इस
पर चढ़ाई की थी, उस समय वहांका राजा महीगल था, वंशमें अनेक वीर क्षत्रिय राजा हुए हैं जिन्होने इस भारत
जिसके पास उस समय भारी सैन्य थी और बहुत से हाथी से
भी थे और जिसका पुत्र गोपाल लड़ाई में मारा गया था। वसुन्धरापर या इसके कुछ प्रदेशोपर शासन किया है। भा दिल्ली के बसानेका श्रेय भी इसी वंशको प्राप्त है। इस वंश
द्वितीय अनंगपाल के राज्याभिषेकका समय कनिंघम
और के कई वीर राजाभोंने दोसौ या ढाईसो वर्ष के करीब साहबने सन् १०४१ (वि० सं० १९०८) दिया ग्वालियरपर शासन किया है और उसे धन धान्यादिसे ५ दी आर्कियोलाजिकल सर्वे श्राफ इण्डिया By जनरल खूब समृद्ध किया था। इसका विशेष परिचय नागेन्द्रनाथ कनिषम साहब पृ० १४६ । वसुकृत विश्वकोष भाग ६ में देखना चाहिये। ६ देखो, दिल्ली अथवा इन्द्रप्रस्थ पृ० ६। २ देखो, टाडराजस्थान हिन्दी पृ. २२७ अोझा. सं. ७ देखो, टाडराजस्थान पृ० २२७ तथा महामना श्रोझाजी ३ देखो इतिहास प्रवेश प्रथम भाग पृ० २२० ।
द्वारा सम्पादित राजपूतानेकाइतिहास प्रथमजिल्दपृ०२३४॥ ४ टाडराजस्थान हिन्दी पृ० २३० ।
८ टाडराजस्थान पृ० २२० ।
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किरण २]
दिल्ली और दिल्लीको राजबली
राज्यका २५ वर्ष वा महोना, अठारह दिन बतलाया है। राजा जान परता। पंडित स्वचमीधर बाजपेयी भी सन् अतएव इसका राज्यसमय सन् १०७ (वि.सं. १७०८) १०२ वाले अनंगपाल (द्वितीय) से सौ वर्ष बाद तृतीय से सन् १०८, (वि. स. १३८) के करीब पाया अनंगपाखको तुम्बर घरानेका अन्तिम राजा होना स्वीकार जाता है। यदि इसका यह राज्यममय ठीक है तो उसके करते हैं। साथ ही उसके शासनकाल में अजमेरके राजा पश्चात् दिल्लीपर अन्य किसने शासन किया यह कुछ वीसलदेव चौहान द्वारा दिल्ली जीते जानेका भी उल्लेख मालूम नहीं होता।
करते हैं। ह, बुध श्रीधरके अपभ्रंशभाषाके पार्श्वनाथ-चरितसे
तोमरवंशियोंसे मिली चौहामवंशी राजा माना जिसका नाम
के पुत्र विग्रहराज (वीसलदेव चतुर्थ) ने वि० सं० १२०० अष्टमी रविवार १२ । उसमें दिल्ली और उसके राजा अनंग
के लगभग प्राप्त की थी और उसी समयसे ससे अजमेरका पाजका उल्लेख किया है और उसे तलवार द्वारा शत्र.
सूबा बनाया गया था। कपालोंको तोड़ने वाला बतलाया है। जैसा कि उसके
देहलीकी प्रसिद्ध फीरोजशाहकी पाटपर प्रशोककी निम्न वाक्यसे स्पष्ट है--
धर्माज्ञाओंके नीचे शिवालिक स्तम्भपर उत्कीर्ण हुए सन् हरियाणए देसे असंखगाम,
१३६३ (वि० सं० १२२०) के वैशाख शुक्ला १५ के गामिय जणिय प्रशवरय काम ।
शिला वाक्य में यह लिखा है कि हानवंशी राजा बीसबघत्ता-परचक विहट्टणु सिरि संघट्टणु जो सुरवणा परिगणिर्ड।
देव (चतुर्थ) ने तीर्थयात्रा प्रसंगको लेकर विन्ध्याचलसे रिउ-रुहिरावदृणु विउल पवट्टणु दिल्लीणामेण जिणि उं|| "
हिमालयतकके प्रदेशोंको जीतकर कर वसूज किया और भार्यावर्तसे म्लेच्छोंको निकालकर पुनः भार्यभूमि बनाया।
और वि० सं० १२२६ में उत्कीर्ण हुए विजोखियाके जहिं मसिवरतोडिय रिउ-कवाल
शिलालेख में यहांतक लिखा है कि दिल्ली लेनेसे श्रान्त णरणाहु पषिद्ध अणंगवालु । (थके हुए) और प्राशिका (झांसी) के नामसं वाभान्वित इससे मालूम हो कि उस समय वि०सं०११८६ हुए विग्रहराजने अपने यशको प्रताली और बलभीमें में अनंगपालका राज्य था। यह अनंगपाल उक्त दोनों विश्रान्त दा-वहानम स्थिर किया। अनंगपालॉप जिनका समय सन् ७३६ (वि. सं. १३) ३ देखो, दिल्ली या इन्द्रप्रस्थ पृ०६।
और सन् १०५१ (वि. सं. ११०८) दिया हुमा है? ४ नागरीप्रचारिणीपत्रिका भाग १पृ० ४०५ टिपण ४४ । मिन ही प्रतीत होता है। क्योंकि उनके समय के साथ/५ श्राविध्याद्रा दिमाद्रविरचितविजयस्तीर्थयात्राप्रसंगाग्द्रीवेषु इसका कोई सामजस्य नहीं बैठता । प्रन्थमें इसके वंशका प्रदर्षान्न प्रतिषु विनमत्कन्धरेषु प्रपन्न: । कोई परिचय या उल्लेख नहीं मिलता, फिर भी यह आर्यावर्त यथार्थ पुनगी कृतवान्म्लेच्छ विच्छेदनामिमालूम होता है कि इसका वंश भी संभवत: तोमर ही देवः शाकंभरीन्द्रो जगति विजयते वीसलः क्षोणिपालः ।। होगा और यह तृतीय अनंगपाल तोमर वंशका अन्तिम बने सम्पनि चाहवाणतिलक: शाकंभरी भूपतिः ?
भामान विग्रहराज एष विजयी सन्तान जानात्मनः । १ दी आर्कियोलाजिकल सर्वे श्राफ इण्डिया By जनरल
अस्माभिः करदं पधायि हिमवद्विन्ध्यान्तगलं भुवः, कनिघम ।
शेष स्वीकारणाय मास्तु भवता मुद्योगशून्यं मनः ॥ २ विक्कमणरिद सुप्रसिद्ध कालि, दिल्ली पट्टण घणकणविसालि
-इंडियन एण्टी क्वेरी जिल्द १६ पृ०२१८ स-णवासी एयारह सएहि, पारिवाडिए वरिस परिगति । ६ प्रतोल्यां च बलभ्यां च येन विश्रामितं यशः। कसणहमीहि श्रागहणमासि, रविवार समारण उसिंसिरभासि ढिल्लिका ग्रहणश्रान्तमाशिका लाभलंभितः (तं) ॥ २२॥ पार्श्वनाथ चरित, भामेर प्रति ।
-नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १पृ०४०५टि.४
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७४
भनेकान्त
[बष
-
उपरके सक्स से इतना तो स्पष्ट है कि संवत् १२०. कर दिये गए, इसीसे इनका कोई पता नहीं चलता और के पास-पास दिल्लीपर चौहानोंका अधिकार हुमा, परन्तु इन्हीं नहलसाहकी प्रेरणासे बुध श्रीधरने अपने उक्त पाचइस बातका अभीतक कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिला नायरितकी रचनाकी थी। जिसमें यह बतलाया गया हो कि उक्त पार्श्वनाथ चरितमें
प्रतुत नया मन्दिर वि० सं० १८५७ से १८६४ तक अखिखित अनंगपाखसे ही वीसलदेव या विग्रहराने
सात वर्ष में बनकर तय्यार हुना था और सं. १८६४ की दिल्ली हस्तगती थी। यद्यपि पं. बचमीधर वाजपेयीने
वैशाख शुक्ला तृतीयाको इसकी प्रतिष्ठा हुई थी। उस तृतीय अनंगपासके शासनकाल में दिल्लीका वीसलदेव द्वारा
__ समय इस मन्दिरकी लागत सात लाख रुपया थी। इस विजित करनेका उल्लेख तो किया है, परन्तु उसकी पुष्टि में
मन्दिरमें समोसाणक वेदीमें जो कमल बना हुआ है वह कोई प्रामाणिक उल्लेख उप स्थत नहीं किया।
अत्यन्त दर्शनीय है और उसकी लागत दस हजार रुपया देहलीके ऐतिहासिक दि. जैन मन्दिर
बतलाई जाती है। इस मन्दिरके निर्माणकर्ता ना. हर. दिल्ली या देहबीमें जहां मुगलकालीन इम रतें दर्शनीय सखरायजी थे. जो बादशाहके खजाँची थे और जिन्हें हैं और ऐतिहासिकताके साथ साथ मुस्लिम कालीन बादशाहकी भोरसे 'राजा' का खिताब मिला हुआ था। संस्कृति एवं कलाका प्रदर्शन करती हैं वहां देहलीके यह धर्मात्मा पुरुष थे और उस समय देहलीके जैनियों में दिगम्बर जैनियोंके मन्दिर भी अपनी सानी नहीं रखते। प्रमुख थे। उनमें धर्मपुराका मन्दिर, जिसे नयामन्दिर' के नाममे
पं. लक्ष्मीधर वाजपेयीने 3 इस मन्दिरके सम्बन्ध में पुकारते हैं। इसकी सुवर्णखचित चित्रकारी तो दर्श के
उसका परिचय देते हुए लिखा है कि-'इस मान्दरमें चित्तको मोह खेती । यद्यपि यह मन्दिर विशेष प्राचीन
बुद्धकी मूर्ति हाथीदांतक सिंहासनमें बैठाई गई।" और नहीं है इससे भी पुराने वहीं दूसरे मन्दिर मौजूद हैं।
इसमें उन्होंने उस समय दिल्ली में बौद्धधर्मके प्रचलित उदाहरणस्वरूप खासमन्दिरको ही ले लीजिये जिसे उर्दू .
होने की कल्पना की है जो सर्वया निराधार और भ्रममूलक मन्दिरके नामसे पुकारा जाता है। यह जैन मन्दिर लाल
है, क्योंकि प्रथम इस मन्दिरमें हाथीदांतका कोई किनके पास है। कहा जाता है कि इस मन्दिरका निर्माण
सिंहासन नहीं है । जनियोंके मन्दिरों में हाथीदांत से बनी शाहजहांकी सेना जैन सैनिकोंके लिये किया गया था।
हुई किसी भी चीजका उपयोग भी नहीं होता-वह एक यह मन्दिर जिस स्थानपर बना। वहाँपर पहले शाही
एक प्रकार की हड्डो समझी जाती है। दूसरे इसमें कोई बुद्धछावनी थी और वहां एक जैनी सैनिकको छोलदारी लगी
मूर्ति भी नहीं है. मोंकि बुद्यमूर्ति सवन होती है जबकि हुई थी, उसीमें उसने एक ओर एक मूर्ति अपने दर्शन
दि. जैनियोंकी मूर्तियां नग्न होती हैं जो यथा जात मुद्रांक करने के लिये रखी हुई थी। यह मन्दिर उसी स्थानपर
समान वीतराग, सौम्य तथा शान्तिका मुजस्सिम पिंड बना है । यद्यपि इस बालमन्दिरसे मी पूर्व देहलामें जैन
और जीवनमुक्तरूप अहन्त अवस्थाका प्रतीक होती हैं। मन्दिर थे और वहां मनंगपाल तृतीयके शासनकाल में वि०
मालूम नहीं इस तरहकी ग़लत करूपन। उन्होंने कैसे करती सं.११Eसे पूर्व वहांके प्रसिद्ध अग्रवाल कुलावतंश साहू
है? साथ ही उनकी यह कल्पना तो और भी विचित्र महलने एक चैत्यालय बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठाभी
'- जाम परती है कि देहलीमें उस समय (वि० सं० १८५७ की थी। ये सब मन्दिर बादशाही शासनकाल में कट-भ्रष्ट
5 से १८६४ में) बौद्धधर्म मौजूद था। इस बातको इतिहास १ येनाराध्य विशुद्ध धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं
का एक विद्यार्थी भी अच्छी तरहसे जानता है कि भारतमें सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुण: संतोषिता बान्धवाः । जैन चैत्यमकारि सुंदरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा, २ इस ग्रंथ और कर्ता दके सम्बन्धमें किसी स्वतंत्र लेख द्वारा स श्रीगान् विदितः सदेव जयतात् पृथ्वीतले नट्टलः॥१॥ प्रकाश डालने का विचार है।
-पाश्वनाथचरित संधी ५ ३ देखो, दिल्ली अथवा इन्द्रप्रस्थ पृ. ५५
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किरण २]
दिल्ली और दिल्जीकी राजावली
७५
कई शताब्दियों बौद्ध धर्म नहीं था - उसका बहुत समय २० राजाओंके नाम दिये हैं। इसके बाद सं० १२४६ तक पहले ही भारतसे निष्कासन होचुका था। भाशा है इसमें सात चौहान वंशी राजाभोंक नाम अंकित हैं, जिनमें अन्तिम बामपेयी जी अपनी गलत धारणा को दुरुस्त कर लेंगे और दो नामोंका कोई उल्लेख मेरे देखने में न, माया । उसक पुस्तकके द्वितीय एडीशन में उस निकाल कर पुनः यथार्थरूप में बाद लिखा है कि-"सं. १२४६ वर्षे चैत्र सुदी १३ लिखनेकी कृपा करेंगे
सुलतान शहाबुदीन (तुकवंश) गनीतहिं मायाँ १४ वरिस इस मन्दिर में एक परछ। शास्त्र भंडार भी है, जिसमें राज्य कियो।" इसके अनन्तर दिल्ली की गद्दीपर बैठने वाले हस्तलिखित और मुद्रित ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह है। इसके बादशाहोंक नाम तथा राज्य करनेका समय मय तिथिक प्रबन्धक ला० रतनलाल जी हैं जो प्रकृतित. भद्र है और उल्लेखित किया गया है । गुटके में दियेहुए प्रयः मुसलमान अपना पमय रोनाना शास्त्रों की सम्हाल एवं व्यवस्था बारशाहों नाम और समय श्रीमन् गौरीशंकर हाराचदजी लगाते हैं।
प्रोमा अजमेर द्वारा सम्पादित राजपूनिक इतिहापकी दूपरा पंचायती मन्दिर है जो मस्जिद खजाके पास प्रथम जिरूट के पृष्ठ ५३४-३६ पर प्रकाशित 'दिल के है और कुछ वर्ष पूर्व नये सिरे पुनः बना है। यह मंदिर सुलतान' नामक छठे परिशष्टमे प्रायः मिलने जुलते हैं पहले बहुत छोटे रूपमें था और भट्टारकीय मन्दिर कहलाता कहीं २ कुछ थोबा मा फर्क दृष्टिगोचर होता है । मायही था यहां भट्टारक जी भी रहते थे। इस मन्दिरमें भा एक उपके छ नाम प्रस्तुत गुटक में नहीं हैं, जिनका होना विशाल हस्तलिखित प्राचीन प्रन्योंका सग्रहहै। इसके प्रावश्यक जान पड़ता है। प्रबन्धक ला० बबूगमजी हैं जो बड़े ही मज्जन हैं और
गुटकेकी इस राजावलीको यहां ज्योंकी स्यों नीचे दिया भाग तुक विद्वानों को ग्रंथ पठन-पाठनादि को देते रहते हैं।
जाता है। परन्तु उसमें ब्रेकट वाला पाठ अपनी योगसे
रखम्वा गया। इसके सिवाय उममें जहां कहीं कुछ विशेष प्राचीन गुटका और राजावली
कहने योग्य अथवा अनुकूल प्रतिकूल जान पसरा उR नीचे इस पंचायती मन्दिरके शाख भंडार को देखते हुए फुटनोट में दे दिया गया है। मेरी दृष्टि एक पुगने गुटकेपर पड़ी जिपका नं. ६१ है अथ ढीली स्थानकी राजावनी लिख्य)ने । और जिममें फुटकर विषयों के साथ साथ ढीली स्थानकी तामरवंश संवत् ३६ भादराया। जाजू १ वाज २
नावती' लिखा हुश्रा है। यह गुटका बहुत ही जीर्ण राज ३ मीहा ४ जवाल ५ श्रादरू ६ जेहरू ७ वच्छ १२ ८ मालूम होता है परन्तु ग्रन्थों की मरम्मत कराते समय उपी पीपलु है गवलुपिहयापाल .. गालु ताल्लसपालु " माइक किसी दूपरे वंडित गुटकेका अंश इसके साथ जोड़ रावल गोपाल १२ रावल मलक्षगु १३ रावल जयपाल दिया गया है जिमम महमा उसकी अपूर्णनाका प्रतिभाम १४ रावल कम्बरू (कुर) पालु' १५ रावल अनंगपालु" नहीं होता। इस गुटके में सं. ८३६ मे सं० १५०२ तक , कनियम माहियकी श्राकियालाजिकलम अाफ़ इराद्या होने वाले राजाओं के नाम दिये हुए है। और लिखा है।
नामक पुस्तककी जिल्द प्रथम पृष्ठ २४६ मे १५-१२ कि-"सं० १५८३ वर्षे बैशाग्व सुदी ८ पानि साहि बम्वरु
नम्बर पर गोपाल' नाम गाया जाता है। मुग़लु काबुल तहिं श्राया, राज्यं करोति इदानीं।" इसमें
। इसम २ उक्त पुस्तकम १३ वे नम्बर पर 'मन क्षणाल' दिया है। स्पष्ट है कि यहांतक वंशावलि उक्त सं० १५८१ से पहले।
पहल ३ उक्त पुस्तक म १४ व २० पर 'जयाल' नाम दिया है। लिखी गई। इसके अनन्तर बाबर राज्यके ६ वर्ष दिये ।
दय । उक्त पुस्तक में १५ वें नंबर पर कुंवरपाल, यह नाम गुटके हैं और १५८८ मे १६१२ तककी वंशावनी दी गई। म कछ अशुद्धरू में लिया गया है। किन्तु बादको किमी दूसरी कलमये दो मुपवमान बादशाहों ५ उक्त पुस्तक में १६ व नम्बरपर अनंगपाल का नाम दिया का राज्यकाल और पीछे लिख दिया गया है।
है और इमका गज्यकाल १६ वर्ष ६ महीना और १८ सं० ८३६ सं० १२११ तक तोमर या तंबर वंशक दिन बतलाया है। गुटक में भी यह नाम १६ नम्बग्पर है।
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
१६रालु ते जपान' गवलु मदन गालु १८ रावल कृत- (वर्ष) राजु कया । पलु १रावल लखपालु २० राणा पृथ्वीपाल
संवत् १२६३ वर्षे सुखितानु कुतुबहीन ऐवक''गुलाती राजावनी ॥छ।
मवंश) राजुवर्ष ३ । संवत १२६६वर्षे सुलितानु समसुन'२ ततः संवत् १२१ वर्षे तोमर रजानुपमत चौहाण (शमसुद्दीन मतमश) वर्ष २६ राज ( ज्यं कृत । बंमि रावल बोयनराजुलियो १ प्रमागंगेय २ प.थई" संवत् १२१२ वर्षे गजा पेगेशाहि (फिरोजशाह) (पृथ्वीराज द्वनीय) ३ मोमेमस रावलु पीथरु' (पृथ्वीराज राज्यं कृतं माप ६ वर्ष ३ । संवत १२१७ सुलि तानु मृतीय) गवलु बाहलु नागद्यो ( नागदेवः ) . राबलु मौजुदीन (मुइजुद्दीन बहरामशाह) वर्ष ३ राज्यं कृतं । पृथ्वीराज ८ इतने चौहाण हुए।
संवत ११ वर्षे सुलितानु अलावदी (मलाउद्दीन संवत् १२४६ वर्षे चत्रवदि २ तेजपाल ढीली लाई, मसूदशाह) राज्यं कृत"वरष (र्ष) २। पृथ्वीराजको सबकु वरवायजपाजकीपुत्र दिवाकर बांधलियो संवत १३.१ सुलितानु नपारदी (नामिदीन मह
संवत् १२४६ वर्षे चैत्रसुदी २ सुखितान महाबुद्दीन मूदशाह) वर्ष २१ गज्यं कृतं'६ । सं. १३२३ चैत्रदि २ ( शहाबुद्दीन तुकवंश ) गजनीतहिं पायो। १४ बरस १०महाम० गौरीशंकर हीगचन्दजी श्रीझ कृत राजपूतानेका १ यह नाम ग्वालियर की ख्यातम पाया जाता है।
इतिहाम प्रथमजिल्दके परिशिष्ट नं.६ में दिल्ली के सुल२२० व नम्बर पर 'पृथ्वीराज' नाम दिया है और उसका तानोंकी वंशावलीम शहाबुद्दीनगोगका राज्यकाल वि.
राज्यकाल २२ वर्ष २ मदाने १६ दिन बतलाया है दवा मं० १२४६ मे १२६२ नक १४ वर्ष बतलाया है। अत: नागरी प्र. पत्रिका भाग १ पृ. ४०५ ।
दानीका ममय परस्पर मिल जाता है । अागेके नोट इसी ३ श्रीमान श्रामा जान तोमर वशियास चौहानों द्वारा दिल्ली वंशावलीके श्राधार से दिये गए है।
लेने का समय वि० सं० १२०७ क लगभग बतलाया है। ११अाझा जीकी उक्त वंशावलीमें कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद वि. ४ यह अणोराजका पत्र और जगदेवका छोटा भाई था । वार सं० १२६३ से १२६७ तक पारामशाद के राज्य कैग्नेका
तथा पगकामा गा और अपने ज्येष्ट भातास गज्य छीनकर उल्लेग्व किया गया है । यह उल्लेग्व गुटककी सावली उसका अधिकारी बना था।
में नहीं है। -देवी, भारतके प्रा० राज. भा. १ पृ. २४५ १२वंशावलीमें वि० सं० १२४७ से १२६३ तक शमसुईन ५ यह विग्रहगज (वासलदेव चतुथ) का पुत्र या और अपने अल्तमशके राज्यका उल्लेख किया गया है। पिताक बाद राज्य का उत्तराधिकाग था। प्रबन्धकोषक १३उपर्युक्त वंशावलीमें रुस्नुद्दीन फीरोजशाहका वि० मं० अन्तका वंशावलाम इस वासलदेव क. बाद अमरगंगेयका १२६३ वें में राज्य करना बतलाया है और उसी सं. श्राधकारा हाना लिखा है।
१२६३ में रजियाबेगमके गज्य करनेका उल्लेग्व भी ६ प्रबंधकोशका वंशावलीम श्रमगंगेयके बाद पेथड देवको किया गया है । परन्तु गुट में पेगन या फीगेजशाहका ही
अधिकारी होना लिम्बा है। यह जगदेवका पुत्र श्रार ३ वर्ष ६ महीना गज्य करना लिखा है, जो चिन्तनीय है। वामल देवका भतीजा था। इसने श्रमगंगेयसे राज्य छीना १४वंशावलीमें मुइजुद्दीन बहरामशाद का गज्यकाल वि० सं० था और यह पृथ्वीराज द्वितीय कहलाता है।
१२६७ से १२६ तक दो वर्ष बतलाया है, परन्तु गुटके , यह अागजका तृतीय पुत्र था और पृथ्वीराज द्वितीयका की गजावलं में ३ वर्ष लिखा है।
चाचा। और पृथ्वीराज द्वितीयके बाद उसके मात्रया द्वारा १५इसका राज्य वि० सं० १२६६ मे १३०३ तक ४ वर्ष राज्यका उत्तराधिकारी घोषित किया गया था।
रहा। -देवी, राजपू० का इतिहास भाग १ परि नं.६ ८ इन तीन राजाका अन्यत्र कोई उल्लेख नहीं मिलता। १६अोझाजीकी उक्त वंशावलीमें इसका नाम नासिरुद्दीन ६ संवत् १२४६ में किस तंजलने दिल्ली ली और दिवाकर मुदम्मदशाह दिया है और राज्यकाल वि० सं० १३०३
ने उस कब बौधा, यह कुछ मालूम नहीं हो सका। से १३२२ तक १६ वर्ष बतलाया है।
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किरण २)
दिल्ली और दिल्लीकी गजावली
सोमदिने सुलिनानु पापदी बलिवर (गयासुद्दीन बलव) पखुसरोखानु राज्यं कृतं नाम नमारदी वर्ष ४ । संवत् वर्ष २ गज्यं कृत' । सं० १३४३ वर्षे फागुन १३७७ वर्षे भश्वनि सुदी। सु (२) क दिने सुखितानु वदी ६ शुक्रदिने सुलगानु मोजदी (मुहजुदीन कैकवाद) ग्यासदी वर्ष ४ राज्यं कृतं सुगमकु अंतरं मास ८ वर्ष ३ राज्यं कृतं । २
राज्यं कृतं । सं० १३.६ वर्षे फगुण सुदी ६ शुक्रदिने सुजितानु सात १३८२ वर्षे ज्येष्ठ सुदी ३ गुरौ दिनं सुजितानु समसदी(शम्सूहान)वर्ष राज्यं कृतं । संवत १३४८. ज्येष्ट महमदु वयं २७ राज्यं कृन' । संवत् १४.६ वर्षे श्रावण सदी मोमदिने सालतान जलालदी (जलालहीन खिलजी सुदी ८ शनि दिने मुहरम तेरीक २१ कातिक बदी ४ स वंश)वर्ष ६ मा ३ राज्यं कृतं ।सं. १३१६ वर्षे कार्तिक शु) क दिने सुलिनानु पेरोमाहि राज्यं कृतं वर्ष ३७ सुदी ११ भीमदिन मुलितानु इकनुदी (रुपनुदान) मास माम ३ दिन राज्य कृतं । संवत् १४४६ कातिग वही तीन गज्यं कृतं" । संवत् १३५४ वर्षे पौष सुदी , भौम ४ सुक दिने सुजितानु तुगलमाहि राज्यं कृत'२ माप । दिने सुजितानु अलावदी (प्रसादहीन मुहम्मदशाह) वर्य संवत् १४४६ वर्षे चैत्र सुदी - सुनितानु अबकपाहि १६ मास ३ दिन १४ राज्यं कृतं । संवत १३७३ वर्षे महमूदसाहि राज्यं कृतं' । संवत १४४७ वर्षे अश्विन सदी माघसुदी। मौम दिने सुलितानु पुत्र ल्होत्री राणी छीतमदे
८ इमका शुद्ध नाम नासिरुद्दीन खुशराशाह था । गजपूताने को पुत्र महावदी ( शहाबुद्दीन उमरशाह ) मास ३
के. इतिहास वाली वंशावलीम इससे पहले कुतुबुद्दीन मुबाराज्यं कृतं ।
रिकशाहका नाम और दिया हुआ है और उसका राज्यसंवत् १३७३ वर्षे फाल्गुन वदी २ नि दिने मुलतानु
काल वि० सं० १३७२ से १३७७ तक बतलाया है।
गुटकोको राजावलीमें यह नाम नहीं है किन्तु नासिरुदीन १ उक्त वंशावलीमें इसका नाम गयासुद्दान बलवन है और राज्यकाल वि. मं० १३२२ मे १३४४ तक २२ वर्ष
शाहका गज्यकाल ४ वर्ष बतलाया है। जब कि वंशावली बतलाया है।
में वि० सं० १३७७ में ही कुछ समय रहा है, क्या कि २ उक्त वंशावली में इसका नाम भइ जुद्दीन कैकवाद है और
सं० १३७७ में तुगलक वंशका राज्य हो गया था। राज्य समय वि. म. १३४१ से १३४६ तक दिया ६ उक्न वंशावलीमें इसका नाम गयासुद्दीन तुगलक और हुअा है।
राज्यकाल वि. सं० १३७७ से १३८१ सक लिखा है। ३ इसका नाम उक्त वंशावलीमें नहीं है।
१०इसे मुहम्मद तुगलक कहते है। और इसका राज्य समय ४ हमका वंश विल जी' है और नाम जलालुद्दीन फीरोजशाह
उक्त वंशावलीम वि. सं. १३८१ से १४०० तक २७ पाया जाता है। हमने वि० सं० १३४६ से १३५३ तक
वर्ष पाया जाता है, जो गुट केके उक्त समयसे मिल राज्य किया था।
जाता है। ५ रुक्नुद्दीनका दूसरा नाम इब्राहीम शाह है। और राज्यकाल ११ इसे फीरोजशाह कहते हैं। वंशावलीम इमका वि० सं० उक्त वंशावलीम वि० सं० १३५३ में दिया है, जिससे भी १४०८ से १४४५ तक ३७ वर्ष गज्यकाल पाया जाता मालूम होता है कि इसने कुछ महीनो ही गज्य किया था। हे। गुटके में उल्लिम्वित समय भी मिल जाता है। और ६ उक्त वंशावलीके अनुसार इमका नाम अलाउद्दीन मुह- वह प्रमाणिक मालूम होता है। म्मदशाह था। इसने वि. मं. १३५३ से १३७२ तक १२उक्त वंशावलीके अनुसार यह तुगलकशाह द्वितीय है। १६ वर्ष राज्य किया है। गुटके में १६ वर्ष मे ३|मास इसका राज्यकाल वि. सं. १४४५ में ही कुछ समय तक अधिक बतलाया है।
रहना बतलाया है। ७ उक्त वंशावली में इमका वंश 'खिलजी' हे और नाम शहा- १३उक्त वंशावली में अबूशाह मुहम्मदशाह नाम दिये हैं, जो बुद्दीन उमरशाद दिया हुआ है।
गुट केके नामंसि मिल जाते हैं।
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अनेकान्त
[वर्ष ४
११ वरष (वर्ष) १ मास ७ दिन ७ राज्यं कृतं' । तत: काबुल तहिं पाया राज्यं करोति इदानीं ॥ छ । राज्य कतं मल्लू राज्यं कृतं । पश्चात् दौलतिषां स्वां)राज्यं कृतं । संवत् वर्षे ६ दिन । संवत ११८८ वर्षे पोह वदि. - हुमाऊं १४७२ खदिरखान राज्यं कृतं वर्ष । संवत् १४७६ पारिवाहि"गज्य कगति वर्ष मास"रज्यं क्रियते । संवत् वर्षे वैशाख......"मुमारष पान राज्यं कृतं वरष (वर्य) ११। १५६७ वर्षे ज्येष्टमध्ये हसनसूरका पुत्र पाहि पालमु' संवत १४६० वर्षे फाल्गुण सुदी ११ सुक दिने मह
राज्यं करोति । संनत १५६६ सलेममाहि गज्यं कृतं१२ मूद माहि जम्बकसु ?) वर्ष १२ राज्यं कृतं" । संवत्
वर्ष । संवत् १६०८ वर्षे पेरोमाहि राज्यं वत१३ दिन १० । १५०२ वर्षे अल वदी मास ३६ । अमानतखो वर्ष ६ राज्य
संवत् १६०८ अदनी र.ज्यं कृतं वर्ष ४ । संवत् १६१२ कृतं । संवत् १५०८ वर्षे वैशाख सुदी ३ सुनितानु बह
असौज बदि २ हमा१" राव संत राज्य हिंदू (?) संवत् बोलमाहि' पठाणु लोदी राज्यं कतं वर्ष ३-मास दिन १६१२ फाल्गुण वदि २ अकबर१६ र ज्यं करोति । संवत् ८ राज्यं कृतं । संवत् १५४६ वर्षे मार्ग'सर मासे सुलितानु
१६६२ कार्तिक सुदी १४ अकबरको पुत्र माह सलेम" वराहिमु राज्यं कृतं वर्ष ८ मास ५ राज्यं कृतं । संवत्
राज्य करोति । संवत १६८५ साहसलेमको पुत्र शेरशाह १८ १५८२ वर्षे वैशाल मुदी ८ पातिशाहि बब्बर ९ मुगल
सुलतान राज्यं करोति । १ वंशावलीमें मिकन्दरशाह, महभृदशाह, नसरतशाह, मद
उपसंहार मुदशाह (द्वितीय) के नाम और पाए जाते हैं । और इन ऊपरके हम सब विवेचन परसे दिल्लीकी प्राचीनता मन्बका राज्यकाल वि.सं. १४४५ से १४५६ तक ११ एवं महत्ता प्रादिका कितना ही परिचय मिल जाता है। वर्ष दिया है। गुट के में ये नाम नहीं हैं। इसमें मालूम साथ ही, यह भी मालूम हो जाता है कि उसे कब और होता है कि उममें कोई भूल अथवा त्रुटि जरूर हुई है।
(शेषांश पृष्ट ८२ पर) २ उक्त वंशावलीम दौलनम्बा लोदीका राज्यकाल वि.सं. २ वंशावलीम हमका रज्यकाल वि० में० १५८३ में १४६६ मे १४७१ तक दिया है।
१५८७ तक ४ वर्ष दिया है। ३ इसका नाम ग्विजरवां और वंश सैयद या, और गज्य ११इसका नाम हुमायूं था और वंश 'सूर' कहलाता था। समय ७ बर्ष मं० १४७१ से १४७८ तक रहा है, ऐमा उक्त वंशावली के अनुमार इमका गज्य वि. मं. १५८७ उक्त वंशावलीसे जाना जाता है।
से १५६६ तक रहा है। , यह मुइ जुद्दीन मुबारकशाह कहलाता था। उक्त शावली १२वंशावलीम हुमायूंक बाद इमलाशाहका राज्य वि० सं०
में इसका राज्य समय वि० सं०१४७८ से १४६० तक १६०२ से १६०६ तक करना लिया है। पाया जाता है।
१३वंशावलीमें मुहम्मद आदिलशाह नाम दिया है और गज्य ५ इसे मोहम्मयशाह कहते थे, उक्त वंशावलीमें इसका राज्य अमल वि० सं० १६०६ से १६१० तक बतलाया है।
१० वर्ष वि० सं० १४६० से १५०० तक दिया है। १४-१५ये दोनो नाम वंशावली में नहीं पाये जाते किन्तु उसमें ६ यह श्रालमशाह कहलाता था। उक्त वंशावलीमें इसका इब्राहीम सूर और मिकन्दरशाह सूरके नाम दिये हैं। वि० सं० १५०० से १५०८ तक अाठ वर्ष बसलाया है हमायूं दमरी बार गद्दी पर बैठा था इमका वंश मुगल जब कि गुटके में ३ माम, पश्चात् श्रमानतखाका राज्य कहा जाता है। ६ वर्ष करना लिया है। श्रोझा नीकी वंशावली में इसका १६यह अकबरशाह कहलाता था, बड़ा राजनीतिश और कई उल्लेख नहीं है।
योग्य शामक रहा है। ७-८इन दोनोंका गज्यकाल उक्त वंशावलीसे मिल जाता है। १७इसे जहांगीर कहते हैं। ६ इसका नाम इब्राहीम लोदी था, और उक्त वंशावलीम १८यह शाहजहाके नामसे मशहूर था। वंशावलीके अनुमार
राज्यकाल वि० सं० १५७४ से १५८३ तक दिया है। इसका गच्य वि० सं० १६८५ से १७१५ तक रहा है।
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जैनसंस्कृति-संशोधन-मण्डलपर अभिप्राय
एक वर्ष के लगभग हा. बनारस में 'जैन संस्कृति संशोधनका तात्पर्य ही यही होना चाहिये कि जैन संस्कृति संशोधन-मण्डल' के नाम से एक नई संस्था स्थापित की प्रामाणिकता , माग विशुद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाय । हुई है। और अपने उद्देश्य तथा कार्यप्रवातक प्रदर्शनार्थ स्तुत: मी भागा और कार्यप्रवृत्तिको हम बड़ी जरूरत एक पत्रिका का प्रकाशन भी इसके द्वारा शुरू किया गया है। यदि प्रारम्ममें से व्यक्ति कम भी होंगे तो बाद एक है। पत्रिकाक नं. ३, ४, ५ र ६ ये चार अङ्क मुहदर मंधक रूपमे व अादरणीय स्थान पर दिग्बाई दंगे। प्रो० दलमुख मालपाणयाने हमें अभिप्रायार्थ भेजे हैं । इन श्रना हम उपयुक्त मंशोधन-मण्डलका स्थापनाका अंकोंमे मंशोधन-मण्डलको श्रा-श्यकता, उमके उद्देश्य अभिनन्दन और स्वागत करते हैं | मायमें इसके प्रवर्नको और कार्यप्रवृतिका योजना मालूम दानाती है।
में यह भी कहना चाहते है कि मंशाधन-मण्डल द्वारा जो इममें मन्देह नहीं कि जैनधर्म, जैनमादित्य, जैन इति- माहित्य मंशोधित और मम्पादन किया जाय उमक मंशाहास, जैनदर्शन और जैन कला आदि का विश्वको परिचय धको और मम्माद काम दीनी परम्पराओके नियक्ष विद्वानीको कराना आज बड़ा आवश्यक है । प्रायः प्रत्येक ममदार मामालन करना चाहिये । वर्तमान में जो मादकमामान व्यक्ति श्राज एक-दमरकी संस्कृनमे परिचित होना चाहता बनी है उसमें एक हैं। परम्पराक बिहानीको मामालन किया है । अत: यह ममयोचिन और अत्यन्त श्रावश्यक है कि गया है --- दुमरी परम्पराकेएक भी विद्वानका न होना चटकने जैन संस्कृति को उसके संशोधित-श्रावक्रनम्बम हा लोकको यग्य है । यह बात नहीं है कि मग पर गर्म असाम्प्र. परिचय कगया जाय और वर्तमान दोनी जेंन परमगोके दाय विद्वान नदी है-3ममें भी बनमान मपादक मध्यवर्ती छोटे-मोटे गड्ढोको पाटत हए एक अवराद्ध जैन मामति के विद्वानी जम निदान मौजूद हैं। अतएव हम परम्पगके विशुद्ध तत्वोंको प्रकाशमनाया जाय।
मंशाधन मण्डलका ध्यान हम खटकने योग्य चीजको श्रीर बनारमके इस नव-स्थापित जैनमस्कात मंशोधन- अाकर्षित करते हैं और निम्न बिद्धानको उचाखत मण्डलसे श्राशा की जाती है कि वह इस कार्य को करनेम सम्पादक-माम्मतिमं मामालन करने के लिये अपनी गाय समर्थ होगा। जैमा कि उनके निम्न उद्देश्योम प्रतीत होता है- प्रस्तुत करन हैं:
(१) जैन तत्वज्ञान, इतिहास और मांस्कृतिक मादित्य १ डा. ए. ए. आध्ये पाच • दी, कोल्हाप का अन्वेषण।
२ पं. जुगलकिशोर जी महनार, मरमावा । (२) जैन मम्प्रदायांक तिहास तथा मौलिक एकताके ३ डा. इंगलाल जी एम • U, -Jल० बी०, नागपुर। माधारोका अन्वेषण ।
/४ ५० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, बनारम। (३) संशोधनात्मक मादित्य का प्रकाशन ।
५५. महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य, बनारम । (४) उक्त अन्वेषणको प्रगतिशील बनाने के लिये प्रयत्न
श्राशा हे इन विद्वानोको उक्त मम्यादक ममितिम इन उद्देश्यों में जो भावना निहित हे उमम दा मन मम्मिलित करके मगदुल दरांशताका परिचय देगा और नहीं हो सकत-प्राय: प्रत्येक निष्पक्ष समझदार व्यक्ति इम उमका गौरव एवं शक्ति बढायगा । हम मण्डल की हर तरह भावनाका हृदयमे अनुमोदन और अभिनन्दन करेगा और प्रगति चाहते है । पत्रिका उक्त ग्रंकीको दबकर हमें यदि इन उद्देश्यों के अनुसार ही कार्यप्रवृत्ति होती है तो बड़ी प्रसन्नता हई। जिन कतिपय व्यक्तियोंको इन उद्दश्याम मन्देह होगा वीर सेवा मन्दिर, सरमाया। दरबागलाल जैन, कोटिया उनका वह मन्देह भी नहीं रह सकेगा । जैन मंस्कृति- २७-२-१६४६ . ।
(न्यायाचार्य)
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जैनियोंपर घोर अत्याचार !!
(ले०-प्रो० हेमुल्ट ग्लाजेनाप ) अनुवादक-५० परमेष्ठीदाम जैन, न्यायतीर्थ ]
जिमन जैन विद्वान प्रोफेसर हेमुल्ट ग्लाजेनाप ( बलिन ) द्वारा Jainism नामक एक विद्वत्ता एवं खोज पुर्ण ग्रंथ लिखा गया है । उमका जैनधम प्रमारक सभा भावनगरने गजरानी भाषांतर छपाया है। इस ग्रंथमं जैनधम सम्बन्धी भिन्न-भिन्न विषयों पर करोच ५०० पृष्ठों में विवेचन किया गया है । उममें 'अवननि' नामक प्रकरणाका हिन्दी अनुवाद पाठकों के समक्ष उर्गस्थत किया जाना है। इस प्रकरणका पढ़ कर आपके हृदयकी दीवालें हिल जायेगी।
-अनुवादक] महावीर स्वामीक समयमं ही जैनधर्मको प्रतिस्पर्धी किया। इस प्रकार यह अपनी जन्म-भूमिमे अस्त हो शक्तियोसामने यन्द्र करना पड़ा है। वैदिक ब्राह्मण धर्मके गया। वैदिक यज्ञ काण्डके पुनरुद्धारक कुमारिलने और विरुद्ध और बौद्ध धर्मके विरुद्ध । वद के सिद्धांतोंके सामने मायावाद ब्रह्मवादक स्थापक महान शंकरने वेदधर्म विरोधी पशु बलि के कारण और ममान में
जैनधर्मके विरुद्व अपने तमाम ब्राह्मण दूसरे वर्गों के उच्च स्थान
शास्त्रंय शस्त्रांक द्वारा युद्ध दबा बैठे थे. इस परिस्थितिक
किया। और यह युद्ध धीर कारगा जैनधर्मका बाह्मण धर्मक
धार मा बलवान हुश्रा कि माथ युद्ध चलता था।
जैनधर्मका नम्रीभृत होजाना पड़ा। बौद्ध धर्मने थोड़े समय तक
हालांकि इसने पूर्ण बल से अपने तो जैनधर्म पर एमा प्रचंड दबाव
रक्षण का प्रयत्न किया था फिर डाला कि उनको अपने अनेक
भी अनेक कारणोंमे यह कमजोर प्रदेश ग्वाली करने पड़े थे । इन
हो गया और डिग गया। की मातृभूमि बीदों का ही प्रदेश
ब्राह्मण धर्मके पुनरुत्थानके हो गया और वहां इतने अधिक
कारण वैष्णव और शैव संप्रदाय विहार बंधवाये गये कि जिससे
भी नये रूपमे बलवान बनाये। इम प्रदेश का नाम ही विहार हो
ये दोनों सम्प्रदाय जैनधर्मक गया। परन्तु ममय बीतने पर
भयंकर शत्र बन गए और दक्षिण वहांसे उनका खिमकना पड़ा।
भारतमें इन्होंने जैनधर्म पर दक्षिण और पश्चिममें तो यह
भयंकर प्रहार किया। जैनधर्मकी बराबरी कर ही न
नानसंवर और अप्पर (७ मका था।
-वीं सदी), सुंदर मूर्ति और इसके अतिरिक कुमारिलने (करीब ई. सन् ७००) माणिकवाचकर (१०० के करीब) तथा ऐसे ही अन्य शैव और शंकरने (ई. सन ७८-२०) फिरस ब्राह्मण धर्म भक्तोंने अपने भजनोंस अनेकोंको जैनधर्मसे खींचकर शैव. की स्थापना की ! और समस्त भारतमेंस बौद्ध धर्मको विदा धममें ले लिया। अप्परने इसी प्रकार पल्लव राजा महेन्द्र
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वर्ष
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जैनियोंपर घोर अत्याचार
बर्माको शैव धर्म में ले लिया। उसके बाद इस राजाने कड- जैनों को अपने मन्दिर में शैव क्रियाकांड के अनुसार पहले जोरका जैन मंदिर तोड़कर शिव मंदिर बनवाया ! चोल भस्म और ताम्बूल जाना चाहिये और इसके बाद अपने वंशके राजाओंके दरबार में तो शवोंको खाम मम्मान प्राप्त हुअा। इनके प्रभावका खास कारण तो यह था कि मदुरा जब दक्षिण भारतमें शैवधर्म इस तरहम नये रूपये के पांड्य राजा भी जो अन्त तक जैन थे, शैव बन महत्वशाली बन रहा था उमी ममय वैष्णव धर्ममें भी गए । पांढ्य राना सुंदरने (११ वीं सदी ?) चोल कन्या प्रचंड विकास हो रहा था। राजा राजेन्द्रकी बहिनके साथ विवाह किया और रानीक प्रसिद्ध श्राचार्य रामानुज (१०५०-५५३७) त्रिचिना प्रभावसे सुंदरने शैवधर्म स्वीकार कर लिया। पीछ सुंदर पलीके पास धीरंग वेण्याब धर्मक विशिष्टाद्वैत मतका इतना दुराग्रही शैव हुअा कि जिनने शवधर्म स्वीकार नहीं प्रचार करने थे और लोगांगे अपना शिष्य बनाते थे। किया उन पर अनेक जुल्म किये। जिन लोगोंने जैनधर्म चील गजाने रामानुजाचार्यसे विष्णुम शैव बड़े है" नहीं छोड़ा एमे करीब पाठ हजार लोगोंको इसने फांसी इम मतक प्रचार करने को कहा, मगर अापने यह स्वीकार पर चढ़ानेका हुक्म किया !!! कहा जाता है कि इन भाग्य- नहीं किया और वहांम अन्यत्र चले गये। तब होयमत हीन धर्मवीरों की प्रतिमाय उत्तर श्राकाटमें विद्यमान तिवतूर गजा विद्धिदवने उन्हें अश्रय दिया और वह उनका शिष्य के देवालयोंकी भीतों पर अङ्कित हैं।
होगया । तया पहले के जिन महधर्मी जनाने इस नए धर्म जैनधर्मके दमरे प्रचण्ड शत्र शवधर्मक लिंगायत में श्रान इनकार किया उन्हें पानी में डालकर पिल वाहाला" सम्प्रदायी निकले बसव नामक ब्राह्मणने लिंगायत धर्मकी सन १३६८ के एक शिलाले ग्बम मालूम होता है कि म्थापना का अथवा उपका पुनरुद्धार किया। बसव, कलचुरि
इसके बाद भी वैष्णवोंने जैनियोंपर बहुत जुल्म किये थे । राजा विजलका (११२६-११६७ ) अमान्य था। जैनांका
इम शिलालेखमें बताया गया है कि -- जैनाने विजय नगर कहना है कि 'बमवने विवेकशून्य बनकर अपने महा प्रचंड
के गजा बुक्कगयक पाम फरियाद की थी कि हमें वैष्णव बलम अनेक लोगोंको अपने एकेश्वर संप्रदायका शिष्य
लोग मनाते हैं। उसपरम राजाने श्राज्ञा दी कि "हमारे बनाया।' लिंगायतोंने जैनों पर असह्य अत्याचार किये।
राज्य में सभी धर्मके लोगोंको समान भावमे रहने और उनके जन मालका नाश किया. उनके मन्दिर तोड़ डाले
अपने धर्म पालन करनेकी संपूर्ण स्वतंत्रता है।" इम और उन्हें स्वधर्मी बना लिया। इस नवीन सम्प्रदायके
शिलालेखमें यह भी बताया गया है कि श्रवण बेलगोल में प्रचार में प्राचार्य एकांतद रामैयका नाम विशेष उल्लेखनीय है।
गोम्मट (गोम्मटस्वामी-बाहुबलि) की प्रतिमाको कोई भ्रष्ट न लिंगायत अपनेको वीर-शैव कहते हैं। इन्होंने थोडं कर, इमोल
कर, इसी लिए वहां २० श्रादमियोंका पहरा रखा गया था। समय में ही कनड़ी और तेलगु प्रदेशों में उत्तम स्थान प्राप्त
वंडित किए गए देवालयोंक पुनरद्वारकी श्राज्ञा दी गई थी। कर किया। इन लोगों का धर्म मैमूर, उम्मतूर, वोडेयर
रामानुजके मौ वर्ष बाद कानद्दा प्रदेश में एक दूसरे (१३६१-१६१०) तथा केलडीके नायक राजाभोंका (१५५०
वैया वाचार्य हुए। उनका नाम मध्य अथवा श्रानंदतीर्थ १७६३) राजधर्म था। अभी तक दक्षिण भारत के पश्चिम (११६१-१२७८) था। इनने हुँतमतका प्रचार किया। किनारेक प्रदेशामें बहुसंख्यक लोग यह धर्म पालने है। पश्चिम किनारेपर इनके अनेक अनुयायी होगए। जैन लोगोंक साथ इन लोगोंका सम्बन्ध हमेशास द्वेषभाव
इम संप्रदायने भी जैन धर्मपर बड़ा धक्का लगाया। पूर्ण रहा मालूम होता है।
इसके बाद ब्राह्मण कुलोत्पन्न निम्बकाचार्यने (१३वीं सदी एक शिलालेखसे मालूम होता कि १६३८ में एक में !) भेदाभेद वादका प्रचार खाम करके उत्तर भारत में मतांध लिंगायतने हलेवीरके जैनों के एक मुख्य हस्तिस्तम्भ मथुरामें किया । परन्तु इनके द्वारा जैनोंकी हानि हुई पर शिवलिंग चिह्नित कराया। जैनोंने इसका घोर विरोध मालूम नहीं होती है। एक लेखस तो मालूम होता है कि किया । अन्त में सुना हो गई। सुलहकी शर्त यह हुई कि जैनौने उनके सम्प्रदायको उखाड़ दिया था, फिर पीछेस
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अनेकान्त
| वर्ष
श्रीनिवासन उसका पुनरुद्धार किया था।
गजनवीने (ई. सन् १००१) अमेकबार भारतपर भाक्रमण पश्चात जनोंके जबरदस्त विरोधी तेलग प्रदेशमें किया । महमूदगौरीने (ई. ११७५) मी इस देशपर सवारी शुद्धावत सम्प्रदायके स्थापक वल्लभ (वल्लभाचार्य) की । इस नई सत्ताके बल पर जैन तथा हिंदू धर्मपर प्रत्यानामक ब्राह्मण हुए (१४७१-१५३१) मथुरा, राजपूताना चार होने लगे। सुलतान अलाउद्दीन महमृदशाह खिलजीने
और गुजरात प्रांतमें इस सम्प्रदायका खूब प्रचार हश्रा। (ई. १२६७-१८) गुजरात प्रान्त जीत लिया और वहांपर विशेषत: तो अनेक धनिक व्यापारी जैन इम सम्प्रदायमें जो जुल्म किये गए उन्हें वहांके लोग अभी भी याद करते चले गये । इसके अतिरिक बंगाली प्राचार्य चैतन्यने हैं। मूर्तियां स्खण्डित की गई, मंदिर तोड़े गए, उनकी (१४८२-११३३) कृष्ण भक्तिके भजन गाये। उनके जगह मस्जिद बनाई गई, ग्रन्ध जनाए गए, खजाने लूटे आध्यात्मिक उपदेशका प्रभाव समस्त भारतमें फैल गया गए, और अनेक जैन मार डाले गए !! और उसमें अनेक जैन बह गए।
मतांध मुसलमानोंने जब द्राविड राज्योंको नष्ट किया हिंदूधर्मकी विशिष्ट कलाके कारण जैन धर्मके अनेक तब दक्षिण में भी उन्होंने ऐस ही भयंकर अत्याचार किए। शिष्य उस धर्ममें चले गये हैं। इतना ही नहीं, मगर यह समय जैनांके लिए घोर संकटका था। शैव और अभी इसके जो शिष्य हैं उनमें भी हिंदू धर्मक अनेक वैष्णव धर्ममें चले जानेसे जैनोंकी संख्या कम तो हो ही भाचार विचार प्रवेश कर गये हैं। इसी प्रकारसे गई थी, उसमें भी इन मुसलमानोंने विनाश करना शुरू हिंदू धर्मके जिन देवी देवताओंको जैनों में किंचितमान भी कर दिया। इस सकटों से बचनेका उपाय मात्र भाग स्थान नहीं था उनमें उन देवी देवताओंका प्रवेश होगया है। जानेके सिवाय और कोई नहीं था। जैनोंने अपने ग्रंथ
वेदांतके प्रभावमे अनेक पारिभाषिक शब्द भी जैन भण्डार भोयरात्रों में भर दिए और वहांपर कुछ साधनों साहित्यमें घुस गए हैं। भावनामों और सामाजिक जीवन के अतिरिक्र कोई प्रवेश न कर सके ऐसी व्यवस्था कर दी। में भी जैन लोग हिंदू भाव स्वीकार करते जारहे हैं।
तथा अपने (जैन) मन्दिरोंको मुसलमानी राजाओंको कुछ
घाट (!) देकर मतान्धोंके प्रत्यचारोंमे बचा लिया । मुस्लिम गज्यके नीचे जैन
अनेक मुसलमान राजाओंने जैनोंका विनाश अग्नि मुसलमानोंने भारतपर अाक्रमण किया और ई. मन् तथा तलवारोंस किया, उन्हें बलात्कारसे भ्रष्ट किया, और ७१२ में सिधमें मुसलमान राज्यकी स्थापना हुई। महमूद अनेक अत्याचार किए ।
(पृ.७८ का शेषांष)
किसने बाया तथा समृद्ध किया और किस वंशके कितने अंकित पाषाण दिल्लीके जैनमंदिरोंके ही अवशेष हैं या राजाभोंने कब तथा कितने समय तक वहां राज्य किया। अन्यत्रसे लाए हुए मन्दिरोंके हैं ? उनमें उत्कीर्ण दिगम्बर तोमर वंशके राजाओंके जो नाम राजावलीमें उल्लिखित हैं जैनमूर्तियां आज भी जैन-संस्कृतिक महत्वको ख्यापित उनकी अन्य प्रमाणोंसे जांच कर यह निर्णय करना भाव करती हैं। जैनियोंके पुरातत्वकी महत्वपूर्ण विशाल मामग्री श्यक है कि उन्होंने कब और कितने समय तक विसीमें यत्र तत्र अव्यवस्थित रूपसे बिखरी हुई पड़ी है, जिसका तथा अन्यत्र शासन किया। तथा ऐतिहामिक रष्टिसे यह एकत्र संकलन होना बहुत जरूरी है। भी अन्वेषण करना भावश्यक है कि दिशीमें संवत् ११८६ में पूर्व तथा उस समय कितने जैनमन्दिर थे और वे कहां
वीरसेवान्दिर, सरसावा गए- उन्हें किसने कब नष्ट किया ! और कुतुबमीनारमें
ता.२०-१०-४५
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'संजद' पदके सम्बन्धमें अकलङ्कदेवका महत्वपूर्ण अभिमत
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
षट्खयहागमके १३ वें सूत्र में 'संजद' पद होना चाहिये है तो उन सूत्रमें 'संजद' पदकी स्थिति या प्रस्थितिका या नहीं, इस विषयमें काफी समयसे चर्चा चल रही है। पता चल जावेगा और फिर विद्वानों के सामने एक निर्णय कुछ विद्वानोंका मत है कि यहां द्रव्यत्रीका प्रकरण और भा जायगा। ग्रन्थके पूर्वापर सम्बन्धको लेकर बराबर विचार किया जाता प्रकलदेवका तस्वार्थ राजवात्तिक वस्तुत: एक महान् है तो उसकी ('संजद' पदकी) यहाँ स्थिति नहीं ठहरती।' सदनाकर है। जैनदर्शन और जैनागम'वषयका बहुविध अत: षटखण्डागमके १३ वें सूत्रमें 'संजद' पद नहीं होना और प्रामाणिक अभ्यास करने के लिये केवल उसीका अध्यचाहिये । इसके विपरीत दूसरे कुछ विद्वानोंका कहना है कि यन पर्याप्त है। अभी मैं एक विशेष :श्नका उत्तर 'यहां (सूत्रमें) सामान्यस्त्रीका ग्रहण है और प्रन्थके पूर्वापर ढूढने के लिये उसे देख रहा था। देखते हुए मुझे वहां सन्दर्भ तथा वीरसेनस्वामीकी टीकाका सूक्ष्म समीक्षण संजद' पदके सम्बन्धमें बहुत ही स्पष्ट और महत्वपूर्ण किया जाता तो उक्त सूत्रमें 'संजद' पदकी स्थिति भाव- खुलासा मिला है। अकलकूदेवने पर खण्डागमके इस श्यक प्रतीत होती है। अत: यहां भाववेदकी अपेक्षसे प्रकरण-सम्बन्धी समग्र सूत्रोंका वहाँ प्रायः अविकल नु'संजद' पदका ग्रहण समझना चाहिये। प्रथम पक्षके वाद ही दिया है। इसे देख बनेपा किसी भी पाठकको समर्थक पं. मक्खनलाल जी मोरेना, पं. रामप्रसादजी पटखराबागमके इस प्रकरण के सूत्रोंके अर्थ में जरा भी सन्देह शास्त्री बम्बई, श्री १०५ क्षल्लक सूरिसिंहजी, और पं. नहीं रह सकता। यह सर्वविदित है कि अकदेव वीरसेन तनसुखलालजी काला प्रादि विद्वान हैं। दूसरे पक्षके सम- स्वामीसे पूर्ववर्ती हैं और उन्होंने अपनी धवला तथा जयथंक पं. बंशीधरजी इन्दौर, ५. खूबचन्दजी शास्त्री बम्बई, धवला दोनों टीकामों में प्रकलंकदेव राजवार्तिक पं० कैजाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री प्रमाणोल्लेखोंसे अपने वणित विषयोंको कई जगह प्रमाणित बनारस और पं. पन्नालालजी सोनी ज्यावर भादि विद्वान् किया। भतः राजवात्तिकमें पटवण्डागमके इस प्रकरणाहैं। ये सभी विद्वान् जैनसमाजके प्रतिनिधि विद्वान् हैं। संबंधी सूत्रोंका जो खुनामा किया गया है वह मवंके द्वारा प्रतएव उक्त पद निर्णयार्थ अभी हालमें बम्बई पंचायत मान्य होगा ही। वह खुलासा निम्न प्रकार हैकी ओरसे इन विद्वानोंको निमंत्रित किया गया था। परन्तु "मनुष्यगती मनुष्येषु पर्याप्तकपु चतुर्दशापि गुणअभी तक कोई एक निर्णयात्मक नतीजा सामने नहीं पाया। स्थानानि भवन्ति, अपर्याप्त पु त्रीणि गुणस्थानानि दोनों ही पोंके विद्वान् युक्तिबल, ग्रन्थसन्दर्भ और मिथ्याष्टि-मासादनसम्यग्दृष्टयमयतसम्यग्दृष्टयाण्यानि । बीरसेनस्वामीकी टीकाको ही अपने अपने पक्ष के समर्थनार्थ मानुषीपर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति प्रस्तुत करते हैं। पर जहाँ तक मुझे मालूम है षट्खण्डागम भावलिङ्गापेक्षया, द्रव्यालङ्गापेक्षेण तु पंचाद्यानि । के इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोंके भावको बतलाने वाला अपर्याप्तिकास द्वे प्रायो, सम्यक्त्वेन मह स्त्रीजननावीरसेनस्वामीसे पूर्ववर्ती कोई शास्त्रीय प्रमाणोक्लेख किसीकी भावात्।'-तत्त्वाथराजवात्तिक पृ०३३१.अ.ह-म.। भोरसे भी प्रस्तुत नहीं किया गया है। यदि वीरसेनस्वामीसे पाठकगण इसे पट खण्डागमके निम्न सूत्रोंके साथ पदंपहले षट् खण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोंका स्पष्ट मणुस्सा मिच्छाइटि-सामणसम्माइट्टि प्रसंजदसम्मा. अर्थ बतलानेवाला कोई शास्त्रीय प्रमाणोल्लेख मिल जाता इद्वि-हाणे सिया पजत्ता सिया पजला ॥
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भनेकान्त
[वर्ष
सम्मामिछाइहि-संजदासजद-संजब-हाणे शियमा है। अपितु उक्त सूत्रकालके पूर्वसे ही सी भारही। पजसा ॥१०॥
दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि अपर्याप्त अवस्थामें एवं मणुस्स-पजत्ता ॥१॥
बियों के मादिके दो गुणस्थान और पुरुषोंके पहला, दूसरा
और चौथा ये तीन गुणस्थान हीसंभव होते हैं और इसलिये पज्जत्तियानी मिया अपज्जत्तियामो ||१२||
इन गुणस्थानोंको छोड़कर अपर्याप्त अवस्था में भाववेद या सम्मामिछाइटि-प्रसंजदसम्माइटि-संजदासंजद-संजद- भावलिङ्ग नहीं होता, जिससे पर्याप्त मनुष्यणियोंकी तरह ठाणे णियमा पातियानो ॥३॥
अपर्याप्त मनुष्यनियोंके १४ भी गुणस्थान कहे जाते और षटगडागम और राजवार्तिक इन दोनों उद्धरणों- इस लिये वहां भाववेद या भावलिङ्गकी विवक्षा-अविवक्षा पामे पाठक यह सहजमें समझ जावंगे कि राजवार्तिकों का प्रश्न नहीं ठता। हां, पर्याप्त अवस्थामें भाववेद होता षटम्बरबागमका ही भावानुवाद दिया हुआ और सूत्रों में इस लिये उसकी विवक्षा-प्रविवक्षाका प्रश्न जरूर उठेगा। जहां कुछ भ्रान्ति हो सकती थी उसे दूर करते हुए सूत्रोंके अत: वही भावलिङ्गकी विवक्षासे १४और द्रव्यविकी हार्दका सुस्पष्ट शब्दों द्वारा खुलासा कर दिया गया है। अपेक्षा से प्रथमके पांच ही गुणस्थान बतलाये गये। रानवात्तिक उपर्युक्त उल्लेखमें यह स्पातया पतला दिया इन दो निष्कर्षोंपरसे बीमुक्ति-निषेधकी मान्यतापर भी गया है कि पर्याप्त मनणियोंके १४ गणस्थान होते महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है और यह मालूम हो जाता हैं किन्तु वे भावलिंगकी अपेक्षास है, द्रव्यालङकी कि स्त्रीमुक्ति-निषेधकी मान्यता कुंदकुंदकी अपनी चीज अपेक्षाम तो उनके आदिके पांच ही गणस्थान होते नहीं। किन्तु वह भ. महावीरकी ही परम्पराकी चीज
इससे प्रकट कि वीरसेनस्वामीने नो मावस्तीकी और को उन्हें उक्त सूत्रों-भूतबलि और पुष्पदन्तके य. अपेक्षा १४ गुणस्थान और दम्यस्त्रीकी अपेक्षा ५ गुणस्थान चोंके पूर्वसे नसी भाती हुई प्राप्त हुई। षट् खण्डागमके १३ वे सूत्रको टीकामें व्याख्यात किये है तीसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि यहाँ सामान्य मनुऔर जिन्हें ऊपर प्रकलंकदेवने भी बतलाये है वह बहत प्यणीका प्रहण है-द्रव्यमनष्यणी या द्रव्यस्त्रीका नहीं। प्राचीन मान्यता है और वह सूत्रकार के लिये भी है। क्योंकि प्रकलदेव भी पर्याप्त मनुष्यमियोंके गुण. प्रतएव सूत्र १२ में उन्होंने अपर्याप्त सियों में सिर्फ दो स्थानोंका उपपादन भावनिकी अपेक्षासे करते हैं और ही गुणस्थानका प्रतिपादन किया है और जिसका सपपावन दम्यलिङ्गकी अपेक्षासे पांच ही गुणस्थान बतलाते हैं। 'अपर्याप्तिकास द्वे श्रदो, सम्यक्त्वेन सह सीजनना- यदि मूत्रमें द्रव्यमनुष्यणी या द्रव्यस्त्रीमात्रका ग्रहण होता
क लदेवने किया प्रकला तो वे सिर्फ पांच ही गुणस्थानोंका उपपादन करते भावस्फुट प्रकाशमें सूत्र और १२ से महत्वपूर्ण तीन निष्कर्ष
लिङ्गकी अपेक्षासे १४ का नहीं। इस लिये जिन विद्वानोंका और निकलते हुए हम देखते हैं। एक तो यह कि सम्य- यह कहना है कि 'सूत्र' में पर्याप्त शब्द पड़ा है वह अच्छी ग्दृष्टि स्त्रियों में पदानहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्था तरह सिद्ध करता है कि द्रव्यस्त्रीका ही यहां प्रहण है क्यों में बियोंके प्रथमके दोही गुणस्थान कहे गये हैं जबकि कि पर्याप्तियां सब पुद्गल द्रव्य ही है... 'पर्याप्तमं का पुरुषों में इन दो गुणस्थानोंके प्रक्षावा चौथा भसंयत-सम्य- ही द्रव्यस्त्री अर्थ. वह संगत प्रतीत नहीं होता। क्योंकि ग्दष्टि गुणस्थान भी बतलाया गया है और इस तरह उनके अकलकदेवके विवेचनसे प्रकट है कि यहां पर्याप्त स्त्री' का पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान कहे गये। अर्थ दम्यस्त्री नहीं है और न द्रव्यस्त्रीका प्रकरण है किन्तु इसी प्राचीन मान्यताका अनुसरण और समर्थन स्वामी सामान्यस्त्री उसका अर्थ है और उसीका प्रकरण है और समन्तभदने रस्नकरगहश्रावकाचार (श्लोक ३५) में किया भावनिजकी अपेक्षा उनके १४ गुणस्थान है। दसरे. है। इससे यह प्रकट हो जाता है कि यह मान्यता कुन्दकुन्द १ देखो, पं० रामप्रस दजीशास्त्रीके विभिन्न लेख और 'दि. या स्वामी समन्तभद्र भादि द्वारा पीछेसे नहीं गढ़ी गई नसिद्धान्तदर्पण' द्वितीयभाग पृ.८और पृ. ४५ ।
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किरण २]
क्या खाक बसन्त मनामैं!
दर
-...
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यद्यपि पर्याप्तियां पुद्गल है लेकिन पर्यातकर्म तो बीव- द्वारा प्रदर्शित इसी मार्ग पर चले है। अतः यह निर्विविपाकी है, जिसके पदय होनेपर ही पर्याप्तक' कहा जाता वादा कि उक्त सूत्रमें 'संजद' पदहै। और इस लिये है। अत: पर्याप्त शम्मका अर्थ केवल दम्य नहीं -भाव ताम्रपत्रोपर उत्कीर्ण सूत्रोंमें भी इस पदको रसमा गहिये भी है।
तथा भ्रान्तिनिवारण एवं स्पष्टीकरण के लिये उक्त सूत्र अतः राजवात्तिकके इस उल्लेख स्पष्ट है कि षटखंडा- फुटनोटमें तत्वार्थराजवार्तिकका उपर्युक्तउरण देदेना चाहिये। गमके ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदकी स्थिति आवश्यक हमारा उन विद्वानोंसे, जो उक्त सूत्र में 'संजद' पदकी एवं अनिवार्य है। यदि 'संज' पद सूत्र में न हो तो स्थिति बतलाते हैं. नम्र अनुरोध है कि राजवार्तिकके पर्याप्त मनुष्यनियों में १४ गुणस्थानोंका अकलंकदेवका इस दिनकर-प्रकाशकी तरह स्फुट प्रमाणोल्लेखके उक्त प्रतिपादन सर्वथा असंगत ठहरेगा और जो उन्होंने प्रकाशमें उस पदको देखें । यदि उन्होंने ऐसा किया तो भावलिंगकी अपेक्षा उसकी उपपत्ति बैठाई है तथा मुझे भाशा है कि वे भी भावलिङ्गकी अपेक्षा उक्त सत्र में द्रव्यलिङ्गकी अपेवा ५ गुणस्थान हो वर्णित किये हैं वह संजद' पदका होना मान लेंगे। श्री १०८ प्राचार्य शान्तिसब अनावश्यक और प्रयुक्त ठहरेगा। अतएव प्रकलादेव मागरजी महाराजसे भी प्रार्थना है कि के ताम्रपत्रमें रक्तउक्त सूत्रमें 'संजद' पदका होना मानते हैं और उसका सूत्रमें 'संजद' पद अवश्य रखे-उसे हटाये नहीं। सयुक्तिक समर्थन करते हैं। वीरसेनस्वामी भी प्रकलंकदेव वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता. २१-१-४६।
क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं!
(२०-- श्री० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' ) यह घोर गुलाम का कलंक,
हम धो न सके पहले अपने , साम्राज्यवादका भार-भूत ;
होलीके गीले रक्त दारा । अपनी आँखों सिंधते देग्वे ,
आजादीका रण-ढोल पीट , माँ ने, अपने कितने सपूत !
गोलीसे खेले, वीर फाग! उन अमर-शहीदोंका तर्पण करनेको रक्त बहाऊँ मैं ! शोणितसे लिखे धरे उनके पहले इतिहास दिखाऊँ मैं ! क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं !
। क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं! कैसा बसन्त, किमका वसन्त, है अन्त यहाँ भरमानोंका ! आगत - स्वागतके साज कहाँ, हो गज जहाँ शैतानोंका !
अभिशापोंका, चिर पापोंका, पहले अपमान मिटाऊँ मैं ! हम क्षुब्ध हुए, अतिक्रद्ध हुए ,
अब रोम-रोम हुङ्कार उठी, हैं उग्र हमारे भाव, आज ।
बन्धन-कड़ियाँ झङ्कार उठी! कण-कणसे पीड़ा सिहर उठी,
प्रलयकारी युगवीरोंकीरग रगमें गहरे घाव आज !
फुकारें नम गुञ्जार उठीं! पाकुल प्राणों में आग लगी मर-जीकर इसे बुझाऊँ मैं! इस शोषणकारी शासनकी, सत्ताकी राख बनाऊँ मैं ! क्या खाक बसन्त मनाऊँ मैं !
क्या स्वाक बसन्त मनाऊँ मैं !
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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
(ले० प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए० )
। गत किरणसे आगे] (६ क) कारिकामें अपेक्षित हेतु और उसका स्थान- कि बन्धका कारण केवल सुन-दुख नहीं होता ? यदि कोई
न्यायाचार्यजीमे अपने पूर्वलेख में कहा था कि गीली लकडीको जलती देखकर कहता है कि अग्नि ही "माप्तमा. काल में जो वातराग मुनिमें सख दःख धूमकी उत्पत्तिका कारण है, तब उसे सूखी बकरी निधूम स्वीकार किया गया है वह छठे भादि गुणस्थानवी वीत. जली हुई दिखाकर ही तो यह विश्वास कराया जा सकता राग मुनियों के ही बतलाया, न कि तेरहवें चौदहवें है कि शुद्ध अग्नि धूमका कारण नहीं किन्तु लकडीके गुणस्थानवी वीतराग मुनि--केवलियोंके।" इसपर मैंने गीलेपन महित भग्नि ही उसका कारण है। केवल गीजी अपने पूर्व लेख में लिखा था कि यदि उक्त कारिकामें छठे लकडी ही मधूम जलती हुई दिखा दिखाकर उसकी भ्रांति भादि गुणस्थानवर्ती मुनिका प्रहण किया जाय तो फिर का निवारण नहीं किया जा सकता। ठीक इसी प्रकार प्रतिपाच विषयकी युक्ति ही बिगड़ जाती है और विपरीत प्राप्तमीमांसाकी उस कारिकामें पूर्वपक्षीकी जो शंका है कि होनेसे जो बात प्रसिद्ध करना चाहते हैं वही सिद्ध होती अपने दुखसे पुण्य और सुध पापका बंध होता है, उसके है, क्योंकि छठे गुणस्थान में सुख-दुःखकी वेदनाके साथ निराकरण के लिये भाचार्य उसे एक ऐमा व्यक्त दिखलाते प्रमाद और कषाय हमदो बन्धके कारणोंस कर्मबन्ध हैं जिप्तके दुख-सुख तो, किन्तु फिर भी पुण्य-पापका अवश्य होगा। यहाँ ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों की पाप पन्ध नहीं है। ऐसा व्यक्ति, वेदनीयोदयसे युक्त किन्तु प्रकृतियोंका एवं वेदनीयादि प्रघातिया कर्मोकी पुण्य प्रबन्धक जीव ही हो सकता है। छठे भादि गुणस्थानवर्ती प्रकृतियोंका परिणामानुसार बन्ध होना अनिवार्य है। बंधक जीवोंके उदाहरण पेश करनेसे पूर्वपक्षीकी प.तका सातवें गुणस्थानमें प्रमादका प्रभाव हो जानेपर भी कषायो. खंडन कदापि नहीं हो सकता, बकिन उससे तो उसकी दयसे कर्मबन्ध होगा ही, और यही बात सचम साम्पराय शंकाकी ही पुष्टि होगा, क्यों कि उन साधुओंके सुख दुख गुणस्थान तक भी उत्तरोत्तर हीनक्रमसे पाई जावेगी । कषाययुक्त होनेसे कर्मबन्धक हैं ही। अतएव पंडितजाके भतएव छठेसे दश गुणस्थान तक तो भाप्तमीमांसाकारको समाधानमे उनके पक्षका समर्थन नहीं होता, बल्कि उससे युक्ति किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होती।"
और भी सुस्पष्ट हो जाता है कि भाप्तमीमांसाकी १३ वीं पायाचार्य जीके मतानुसार "इस शंकाका समाधान कारिकामें छठे गुणस्थानवर्ती मुनिका नहीं, किन्तु प्रबन्धक यह है कि पूर्वपत्ती प्रमाद और कषायको बन्धका कारण
गुणस्थानव संयमीका ग्रहण किया गया है और यदि नहीं मानना चाहता, वह तो केवल एकान्ततः दावोत्पत्ति विद्वान् विशेषण वहां कोई सार्थकता रखता है तो उससे को ही बन्धकारया कहना चाहता है, और उसके इस कथन केवलीका ही बोध होता है जैसा कि भागे दिखाया जायगा। में ही उपयुक्त दोष दिये गये हैं। जब उसने अपने एकान्त (६ख) स्वयं प्राप्तमीमांसा और उसकी टीकाओं पक्षको छोड़कर यह कहा कि 'भनिसन्धि' (प्रमाद और में अज्ञानको मल ही कहा हैकषाय) भी उसमें कारण हैं तब उससे कहा गया कि यह इस सिलसिले में पंडितजीने मेरे सिर एक सैद्धान्तिक तो अनेकान्त सिद्धि भा गई।"
भूल जबर्दस्ती मद दी है कि मैने "अज्ञानको भी बन्धका यहाँ प्रश्न यह है कि प्राचार्यने पूर्वपक्षीका वह एकान्त कारण" बतलाया है और फिर मापने उस पर एक बम्बा पक्ष छुदाया कैसे, और उसे यह कैसे विश्वास कराया कि व्याख्यान भी मादा है। मुझे मार्य है कि पंडितजीने मेरे
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किरण १]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
लेखमें उक्त बात कही ली। उन्होंने अपने दोषारोपड चार्यजीने उसकी भूल बतलानेका सुयश सूटने के लिये जान की पुष्टिमें जो मेरा वाक्यांश उद्धत किया। वह अपनी बम कर स्वयं कल्पित कर लिया है। ऐसी हीनप्रवृत्त कारखापरंपराको निये हुए पूर्णत: इस प्रकार - एक म्यायाचार्य योग्य नहीं। ___ कारिकामें जो विद्वान् विशेषण भी बगाग गया (६ ग) वीतराग और विद्वान् पद दो अलग अलग है, और जिसपर न्यायाचार्यजीने सर्वथा ही कोई ध्यान नहीं मुनियोंके वाचक नहींदिया है, सप्लसे स्पष्ट है कि प्राचार्य ग्यारहवें और बारहवें यपि पूर्वोक्त विवेचनसे पूर्णत: मिद हो जाता है कि गुणस्थानोंके भी पार बार केवनीके दो स्थानों की भोर भातमीमांसाकी ३ वीं कारिकामें बठे भादि गुणस्थानवता ही यहाँ दृष्टि रखते हैं। उनके ऐसा करनेका कारण यह साधुका ग्रहला कदापि नहीं बन सकता और इस लिये प्रतीत होता है कि ग्यारहवें और बारहवें गणस्थानों में पंडितजीकी तत्संबंधी अन्य करूपनामोंकी कोई मार्थकता वीतरागता होते हुए मी अज्ञानके सद्भावसे कुछ मनोत्पत्ति नहीं रह जाती। तथापि उन्होंने अपने निष्फल प्रया में की आशंका हो सकती है। किन्तु अन्तिम दो गणस्थान ऐसी भूलें की है जिनपे साधारण पाठकों को प्रान्तियां ऐसे हैं जहाँ साता व अमाता वेदनीय आदि अघातिया उत्पन्न हो सकती हैं। अतएव उनका निवाया कर देना भी कोंके उदयसे सुख और दुखका वेदन तो संभव है, किन्तु उचित जान पड़ता है। पंडितजी बिखते हैं कि"३ वीं कषाय व अज्ञानक अमावसे पुण्यपाप बन्ध या किसी भी कारिकामें जो वीतरागो मुनिविद्वान् शनका प्रयोग है वह प्रकार के अन्तरंग मनकी संभावना नहीं रहती। अतएव एक पद नहीं है और न एक मकि उसका वाच्य। उन्होंने इनी दो गुहस्थानोंका ग्रहण किया है।" किन्नु १२ वीं कारिकामें भाये हुए 'प्रचेतनाकषायो' की
कृपाकर पाठक देखें कि मैंने यहां कहां प्रज्ञानको बन्ध तरह इसका प्रयोग है और उसके द्वारा कीतराग मुन' का कारण कहा ! मैंने तो उससे मलोत्पत्तिकी बात कही तथा विद्वान मुनि' इन दोका बोध कराया है " किन्तु है और वह ठीक भी है क्यों कि स्वयं प्राप्तमीमांसाकारने उक्त दोनों कारिकामोंमें जो बदा भारी भेद उस पर उसे दोष कहा और उसे मनकी उपमा दी और पंडितजीकी दृष्टि नहीं गई जान पड़ती। प्रथम कारिकामें अकलंक तथा विजानन्दि जैसे टीकाकारोंने भी उसे मारमा प्राच.यने परमें सुख-दुख उत्पन्न करने वाले दो भिन्न प्रकार का मन ही कहा है। यथा
के उदाहरण दिये हैं-एक चेतनका और दपा सचेतन दोषावरणयोहीनिनिश्शेषारस्य तिशायनात । का और इसी लिये जन्होंने उनके साथ द्विवचनका प्रयोग कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तमलक्षयः । किया है और उनकी क्रिया मी द्विवचनमें रखी गई है। वचनसामर्थ्यादज्ञानादिदोषः।...."प्रतिपक्ष एवात्मना- किन्तु दूसरी कारिकामें स्वत: दुख सुख संवेदन करने वाला भागन्तुको मलः परिक्षयी स्वनिहर्हामनि मत्तविवर्द्धनवशात। उदाहरण केवल एक सचेतनका ही दिया जा सकता, द्विविधो यात्मनः परिणामः स्वाभाविक भागन्तुकश्च । तत्र अचेतनका नहीं। वीतराग और विद्वान् गुण परस्पर विरोधी स्वाभाविकोऽनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात् । मनः पुनर- मीनहीं जो एक ही व्यक्ति में न पाये जाते हो। यथार्थत: तो ज्ञानादिरागन्तुकः कमोदय मिमित्तकत्वात् ।
वे परस्पर सापेत हैं। यह बात भी नहीं कि वीतराग मुनि अवसाकारने ज्ञान और दर्शन पावरखोंको रज के दुखसेतो पुण्यबंधन होता हो किन्तु सुखसे पाप बन्ध कहा है। यथा
होने लगता हो और न विद्वान् मुनिके सुखसं पापका ज्ञान-हगावरणानि रजांसीव बहिरंगान्तरंगाशेष- प्रभाव होते हुए दुखसे पुश्य बंध हो जाता हो। इस त्रिकालगोचरानन्तार्यव्यंजनपरिणामकवस्तुविषयबोधानुभ- कारिका किया मी एक वचन है। तब फिर यहां वीतराग वप्रतिबन्धकत्वाद् रजांसि। (षट् ख.प्र.१ पृ.१३) और विद्वान् दोनोंके विशेष्य दो अलग अलग मुनि मानने
मैं पंडितजीसे जानना चाहता कि इसमें मेरी कौनसी कीच्या सार्थकता और रसके लिये कारिकामे क्या सैदान्तिक भून! प्रज्ञानको बन्धका कारण तो म्याया- प्राधार! यदि टीकाकारने 'वीतरागो विद्वांस मुनिः' मी
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अनेकान्त
[ वर्ष
कर दिया तो उनका जोरा हुमा 'च' दोनो विशेषणोंको (६५) किसी गुणस्थानमें किसी कर्मका बन्ध न होने मोदकर उन्हें एक मुनिके हो तो विशेषण बनाता है। उस से वहाँ उम. उदयाभाव नहीं सिद्ध होतासे दो मुनि कहाँप खड़े होगये जिनमें से एक वीतराग! पंडितजीन सिद्धान्त में एक नया शोष यह किया है पर विद्वान् नहीं और दूपरा विद्वान् है किन्तु वीतगग कि "यथार्थत: संसारी जीवों में स्थितिबन्ध और अनुभागनहीं? पंडिनजाने इन्हें अलग अलग तपम्वी साधु और बन्धपूर्वक ही सुख दुम्बकी वेदना देखी जाती है। केवली उपाध्याय परमेष्ठी पर घटाया है। परन्तु क्या जो तपस्वी में यह दोनों प्रकार के बन्ध नहीं होते तब उनके वेदना कैसे साधु होतावह वीतराग होकर विद्वान् नहीं होता या हो सकती है?" न्यायाचार्य जीकी इतनी स्थूव सैद्धान्तिक उपाध्याय परमेष्ट' विद्वान् होकर वीतराग नहीं होते? प्रान्तिये एक साधारण कर्मसिद्धान्तज्ञको भी माश्चर्य हुए न्यायालायजीने इस सम्बन्ध में लिखा है-"जान पड़ता बिना नहीं रहेगा। यदि जिम गुणस्थानमें जिस कर्मकाबन्ध प्रो० मा को कुछ भ्रान्ति हहै और उनकी दृष्टि 'च' नहीं होता उसका वेदन अर्थात उदय भी न होना हो तो शब्द पर नहीं गई। इसीसे उन्होंने बहुत बड़ी गलती में पंडितजीमे पूछता हूँ कि जब नपुंसक वेदका बन्ध प्रथम खाई है और वे 'वीनगग विद न मुनि' जैमा एक ही पद गुणस्थामें व सीवेदका द्वितीय गुणस्थानमें ही न्युच्छित मान कर उसका कनली अयं करने में प्रवृत्त हुए हैं।" मैं
काली प्रकार प्रयत्न "मैं होजाता है तब उनका वेदन नौवे गुणस्थान तक किस प्रकार पंडितजीप पूछना हूँ कि च' शब्द पर मेरी ही रष्टि नहीं होता होगा? नरक गतिका बन्ध प्रथम गुणस्थान में ही गई या स्वयं प्रातमीमांसाकारकी मी नहीं गई. क्यों कि ममाप्त होजाने पर भी ये गुणस्थान तक उसका उदय उनी कारिकामें भी 'च' कहीं दिखाई नहीं देना बड़ी
कैप होता है ? तिर्य नगति व मनुष्यगतिका बंध क्रमश: का होगी यदि पंडित जी यह बतला देंगे कि प्रमत्तसंयत
द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थानमें ही टूट जाने पर भी उनका
उदय क्रमश: पां-वे और चौदहवें गुणस्थान तक कैसे गुणस्थानमें कौनमा तप करके माधु वीतराग' संज्ञा प्राप्त
माना गया होगा? ज्ञानावरया, दशनावरण और अन्तराय कर लेता है जिससे उसके दुबमे पुण्यबंध नहीं होता और
कर्मों का बंध दशवें गुगास्थानके आगे नहीं होता, फिर कौन मी विद्या पदकर वह ऐसा विद्वान्' हो जाता है जिम
बारहवेंके अन्त तक उनकी वेदना कैप होती होगी? स्वयं से उपके सुख पापबन्ध नहीं होता उनके इम स्पष्टी
तीर्थकर प्रकृति पाठवें गुणस्थानसे धागे नहीं बंधती, तब करणमे मेगही नहीं, किन्तु समस्त जनपिन्दान्तकी 'भ्रांनि'
फिर उसका वेदन तेरहवे गुसस्थानमें के संभव होता है? और 'बहुत बड़ी गलती' सुधर जावेगी, क्योंकि अभी
यथार्थतः मयोंकिवलीके बन्ध तो केवल सातावेदनीय. तक उप पिद्धान्नानुसार छठे गुणस्थानमें प्रबन्धक भाव
मात्रका होता है और वह भी स्थिति और अनुभाग-रहित किमी प्रवम्यामें भी नहीं पाया जाता । हम गुणस्थानवाया
केवल र्यापथिक । किन्तु उदयानुपार वेदना उनके ४२ साधु नो जो भी दुख-सुख अनुभव करता या कराता। कर्म प्रकृतियोंकी पाई जाती है और प्रयोगिकेवलीक भी उममे पुण्य-पापबन्ध होना अनिवार्य है, क्यों कि उसको १३ की। इनका वहां स्थिति व अनुभाग बन्ध न होने पर कोई भी प्रवृत्ति कषायसे सर्वथा मुक्त हो ही नहीं सकती। मी वेदन कहां भाता है। वीतरागता और विद्वत्ता बबस मन, वचन और काय की पंडितजी! कर्ममिद्धान्तकी व्यवस्था तो यह है कि ऐसी प्रवृत्तियां जिनके द्वारा पुण्य-पाप बन्ध न हो, तो सब प्रकृतियोंकी बन्ध और उदयम्युच्छिति एक ही माय स्वामा समन्तभद्र ने केवल सयोगिकेवली ही मानी है व एक ही गुणस्थानमें नहीं होती। बांधे हुए कर्मों का क्यों कि मैंने स्वयंभूस्तोत्रमें स्पष्ट कहा है कि
तत्काल उदय भी नहीं होता। उनके स्थितिबन्यानुपार
जब उनका भावापाकाल समाप्त हो जाता है तभी वे काय-बाय-मनसा प्रवृत्तयो नामवंस्तव मुनेशिकीर्षगा। उदयमें पा सकते हैं, और फिर वे अपने उदयम्युच्छिति नासमीच्य भवत: प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्यमोहितम् । स्थान तक अपना वेदन कराते रहते हैं, चाहे वहां उनका
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किरण १]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक मिद्ध नहीं
नवक बनध होता हो और चाहे न होता हो। अनुषंगिनी है। अतएव पयोगि भयोगि कवलियोका ज्ञान वेदनीय कर्मकी बनध व उश्य व्यवस्था यह है कि उमा भौर सुख अन्य अघानिया को अतिरिक्त वेदनीय जन्य तीम कोडाकोडी मागरका उकृष्ट स्थितिबंध कम होते- वेपनाश्रोस विशिष्टता रहता ही है, और यही एक विशेहोते सूचममाम्पराय गुण स्थानके अन्तिम समय में उसका पता नएघातिक केवलियों और विनकर्म मिद्धोंके अनुजघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहतका होता है। जब जीव इस भवन में पाई जाती है। मिद्वीको कोई माता-माता रूप गुणस्थानम ऊपर जाकर प्रबन्धक हो जाता हैं उस समय कर्मफन भोगना शेष नहीं रहा, इससे उनका सुख अव्याउसके वेदनीय कर्मका पूर्व मंचित स्थिनिमय अपने बाध कहा जाता है परन्तु पयोगि-अयोगि केवलियों को अपने भविनाभावी योग्य अनुभाग माहित असंख्यात वणं प्रमाण माता-श्रमाता कमो का फल भोगना ही परना है और इमी का रहता है जो क्षीण कषाय और मयोगी गुस्थानों में भी में उनका सुग्व सिदोंक समान अव्याचाध नहीं है। बराबर अपना माता व अमानारूप वंदन कराया करता धवनाकार (4gों और अन्नाम भेद बतलाते हुए कहते हैंहै । पयोगी गुणस्थानमें श्रायुके अन्तमुंहतं शेष रहने पर सिद्धानामहतां चको भेद इति चेन, नशष्टकर्माणः यदि उपका स्थितिमत्व प्रायुप्रमाणाम अधिक शेष रह पिद्धाः, नष्टधानिकर्माण हन्त: नि नयाभेदः । नष्टषु गया तो केवल। समुद्धात द्वारा उसकी स्थिति भायुप्रमाण घातिकमम्नाविभू नाशेषामगुगावान गुणा कृतम्तयो द इति कर ली जाती है। इसम कम उमका मिति पत्र दारि चेन्न अधानिकर्मोदय सत्वोपलम्भात । तानि शुक्लध्य ना. नहीं हो सकता और इमामे अयोगी गुणस्थानमें भी प्रायु निनाधंदग्धावामन्यपि न स्वकार्यकर्तृणानि चेन, पिण्डके अन्तिम समय तक उपका माता व अमावारूप उदय निपातान्यथानुपप ततः श्रायुयादिशेषकर्मोदय मवास्तित्वकंवलीको भोगना ही पड़ता है। अतएव न्यायाचार्यजीका मिते: । ताक यम्य अनुरशीतितक्षयान्यामकम्य जाति जरा यह कथन कि "केवलीमें विना थिनिबध और अनुभाग- मरणाप जक्षितम्प समारम्यापरवानेपामामगुणघातन माम. बन्धक सुख और दुख की वेदना किसी भी प्रकार संभव ाभावाच न तयोर्ग गाकृतभेद इति चन अायुष्य वेदनीयो नहीं है" पर्वथा कामद्धा के प्रतिकृत है और कंवलीमें दययोनीवावंगमन सुम्पप्रतिबन्धकयोः मत्त्वात । माता व अपाता कर्मजन्य सुग्व दुग्वकी वेदनाय सिद्धान्त
(पट ख. भा. १ पृ. ४६-४७) मन्मत हैं।
अर्थात-- (६२) कवली में सुग्व-दुग्बकी वेदन ये निद्धान्त मम्मन हैं! प्रश्न - मिद्धों और अन्तीम क्या भेद है ?
पंडितजीकी आशंका है कि "केवलोके सुख दुखकी उत्तर - मिन्दीक श्राठों कम नष्ट हो गये है, परन्तु वदना मानने पर उनके अनन्तमुग्व नहीं बन सकता" अन्नोंके केवल चार धानिया कम ही नए हुए है. यह किन्तु यदि ऐसा होता तो फिर कमसिद्धान्तमें कंवलीक दोनाम भेद है। माता और धपाता वेदनीय कर्मका उदय माना ही क्यों २ प्रश्न-घानिया कमों के नाश हो जानम तो मारमा जाता? और य द सुख दुख की वेदनामात्र किमी जीवके के समस्त गुण प्रकट हो आते हैं. इस लिये गुणों की अपेक्षा गुण का घान होता तो वेदनीय कर्म अधातिया क्यों माना तो दोनों में कोई भेद नहीं रहता ? जाता? हम ऊपर देख ही चुके हैं कि वेदनीय जीयक गुणों उत्तर-- ऐमा नहीं है, क्योंकि अहन्ताम अधातिया का घात तो तभी तक करता है जब तक वह मोहनी से कर्मों का उदय और माव दोनों पाये जाते हैं। अनुलिप्त रहता है। किन्तु अपने अघातिया रूप उदपमें ३ प्रश्न ये अघातिया कर्म तो शुक्नध्यावरूपी तो वह प्रायु. नाम व गोत्र कर्मों के समान फल देते हुए अग्निपे अधजले हो जाने के कारण होते हुए भी अपना भी जीवके गुणोंका घात नहीं करता। हम ऊपर राजवानिक कोई कार्य नहीं कर पाने ? कारिका मत उद्धन कर चुके हैं जिनके अनुसार घेदनीय उत्तर-ऐसा भी नहीं है, क्यों कि शरीरके पतनका जन्य वेदना ज्ञान दर्शनको विरोधिनी नहीं किन्तु उनकी प्रभाव अन्यथा सिद्ध ही नहीं होता, अतएव प्रायु मादि
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अनेकान्त
{वर्ष ८
शेष कर्मोंके उदय और सत्व दोनोंका अस्तित्व सिद्ध स्वभावका प्रतिबन्धक श्रायुकर्मका उदय और सुग्वका प्रतिहो जाता है।
बन्धक वेदनीयकमका उदय भहन्तोंमें पाया जाता है। १४ प्रश्न-कमोंका कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप अतएव प्रहन्तों और सिद्धों में गुणा कृत भेद मानना ही पड़ेना। जन्म, जरा और मरणसे युक्त संचार है जो अन्तोंके नहीं वीरसेन स्वामीके इन प्रश्नोत्तरोंमे सूर्य प्रकाशवत् पाया जाता, तथा अधातियाकर्म प्रारमाके गुणोंका घात सुस्पष्ट हो जाता है कि महन्तावस्थामें भी वंदनीय कर्म करनेमें असमर्थ भा है, अतएव मिद्धों और अइन्नों में गुण- अपने उदयानुसार सुखमें बाधा उत्पन्न करता ही है, कृत कोई भेद नहीं पाया जाता ?
जिसमे प्रहन्त केवली भगवानका सुख मिद्धोंके ममान उत्तर- यह बात नहीं है, क्योंकि जीवके ऊर्ध्वगमन- अव्यावाध नहीं।। (शेष अगनी किरण में)
हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा
(लेखक-डा० ए० एन० उणध्ये, एम० ए० ) ( अनुवादक-साहित्याचार्य प० गज कुमार शास्त्र )
[ गत किरणसे भागे]
(३)
(३) इरिषण २.११-----
रण द्धण जागविणु जारादि तप्पिय-श्रागमणास किएदि । मुक्की झड ति भाडे विकेम परिपक्क पंषि थिय बोरि जेम । णिय-पय-अागमणु मुगतियाए किउ पामय-पिय-तिय-वेसु ताए । अमितगति, ४.८४-८५पत्युरागममवेत्य विटौषैः सा विलुएट्य सकलानि धनानि । मुच्यते स्म बदरीदर युक्तस्तस्कवि फलानि पविस्था । सा विबुध्य दयितागमकालं कलितोत्तममस्वीजनवेषा। तिष्ठति स्म भवने अपमारणा वचना दि सहजा वनितानाम् ।। हरिषेण २, १५-- भणि उ तेण भो णिसुणहि गहवह, छाया इन दुगेझ महिला-मइ ।
(४) अमितगनि ५,५६
चंपाव स्वार्थतान्नष्ठा वाहनाले तापिका। छायेव दुग्रदा योपा
मन्ध्येव क्षणांगणी॥ (५) इग्गिंग २,१६--
भांग उ ताय संमार असारए कोविण कामु वि दुइगरुपारए। मुय-मणु महु अत्थु गा गच्छद मयणु ममाणु मारम अणुगच्छइ । घम्मादम्म ग्वरु श्रगुलगाउ गच्छद जीव हु सुह-दुइ-संगउ । इय जाणेवि ताय दाणुल्ल 3 चिनिजइ सुपत्ते अइभल्लउ । इट-देउ गणय-मणि झाइ जह सुह-गइ-गमणु जेण पाविजह । अमितगनि ५, ८२-५तं निजगाद तदीयतनूजस्तान विधेहि विशुद्धमनास्त्वम् ।
(५)
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किरण २]
हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्म-परीक्षा
कंचन धर्ममपाकृतदोपं
गोचर होते हैं। सादा एक और वास्तविक स्थिति यह है यो विदधाति पत्र सुरवानि ॥
कि श्रीमतगतिने अनायाम। जिन पाकृत शब्दाका उपयोग पुत्रकलत्रघनादिपु मध्ये
किया है उनके स्थान पर संस्कृत शब्दार को वह श्रामानासे काऽग्नि याति समं परलोके ।
कामम ले मकने थे । मिरानो नो इम कार्य पर पहुंचे है कि कर्म विहाय कृतं स्वयमेकं
प्रस्तुत रचना के कुछ अध्याय किमी प्राकृत मृत अन्य के कत्तुंमलं सुखदुःखशतानि ।।
प्राधा ने पार किए गए हैं। छोहाग (७-६३) और कोऽपि परोन निजोऽस्त दुरन्ते
मंकारतमठ (७-१०) जें में उपयुक्त नाम इस बात की पुष्ट जन्मवने भ्रमता बहुमागें।
करते है कि कुछ कथा श्रवणही कि.मी मूल पाकन इत्यमवेत्य विमुच्य कुबुद्धि
रचनासे ली गई है। एक स्थान पर इन्होंने संस्कृत योषा ___तात हिनं कुरु किचन कार्यम् ॥ शब्दकी शाब्दिक व्युत्पात बनाई है और उनक, हम उल्लेख मोहमपास्य सुहृत्तनुजादी
में । मालूम होता है। वे किमी मूल प्राकृत रचनाको देहि धनं विजमाधुजनेभ्यः ।
इं। फिर से लिख रहे हैं। अन्यथा मम्कनके योषा शब्दको संस्मर कंचन देवमभीष्ट
जप जीष जैसा कि पासे निपन्न करना श्रीमतगान के लिए येन गति लभसे सुग्वदात्रीम् ।।
कहां तक उचित हे ? व पद्य निम्न प्रकार है--
यता जापयति क्षिप्रं विश्वं योपा नती मता। (एफ) आमतगति अपनी निरूपण-कलामें पूर्ण कुशल
विदधानि यतः क्रोधं भामिनी भरायते ततः ।। हैं और उनका सुभाषितमन्दोह' सालंकार कविता और
यतश्लादयते दोषस्ततः स्त्री कथ्यते बुधैः । अत्यन्त विशुद्ध शेलाका सुन्दर उदाहरण है। 'वद संस्कृत
चिलीयो यश्चित्त मेनम्या विलया ततः ॥ भाषा के व्याकरण और कोष पर अपना पूर्णाधिकार समझते
उपालिग्नित संकन हम निगा यपर पहुँचने के लिए हैं और क्रियाश्रम भिन्न भिन्न शब्दोकी निष्पत्ति में उन्हें
पर्याप्त है कि अमित गनिने कि.मी मूल प्राकृत रचनाके सहारे कोई कठिनाई नहीं मालूम होती।' इनकी धर्मपरीक्षाम अनु
अपनी रचना तैयार की है। इममें मन्देह नदी का उपदेशसन्धान करनेपर बहुत कुछ प्राकृतपन मिलता है। लेकिन
पूर्ण विवेचनोंम उन्दाने स्वयं ही स्वतंत्ररूम लिया है। अपेक्षाकृत वह बहुत कम है और सुभाषितसन्दाहम तो
हमें ही नहीं, बल्कि अमितगतिको भी इस बातका विश्वास उसकी ओर ध्यान ही नहीं जाता। धर्मपरीक्षामं जो प्राकृत
था कि उनका मंम्कत भाषापर अधिकार है । उन्नीने लिखा का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है वह केवल कुछ उधारू शब्दो
है कि मैंने धर्मपरक्षा दो महीने के भीतर और अपनी संस्कन तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह अधिकाशमं धातु-सद्ध
अाराधना चार महीने के भीतर लिख कर ममाम की। शब्दांके उपयोग तक पहुँच गया हे जमा कि हम कुछ
यदि हम प्रकारका कोई प्राशुकवि प्राकृत के ढांचका अनुउदाहरणासे देव मकते हैं । 'जो धातु-रू । भूत कर्म-कृदन्त
मरण करता हुआ मंस्कृत में उन रचनाओको तैयार करता के रूप उपयुक्त किया गया है वही बादका प्राकृतमें करीब
है तो इसमें श्राश्चर्य की कोई बात नहीं है । इसके साथ ही कगब क रूपमें व्यवहृत हुअा है। और यह ध्यान देनेकी
श्रभितगति मुन और मोजके समकालीन थे, जिन्होंने अपने बात है कि द्विवचन और बहुवचन में प्राशासूचक लकार के
ममयकी संस्कृत विद्याको बड़ा अवलम्ब या प्रोत्मादन दिया स्थान में स्वार्थ-सूचक लकारका उपयोग किया गया है। था। उनकी प्रागधना इतनी अच्छी हे जसे कि वह शिवाये उत्तरवर्ती प्राकृत में भी इस प्रकारके कुछ नत्मम प्रयोग दृष्ट. ---
...२ डी धमपरीक्षा देम अमिनगनि पृ० ७-६ १ काव्यमाला नं.८२ में संगदिन, और स्मिटके जर्मन ३ देखी पं० नाथरामजी प्रेमीका 'अमितगतिका ममय और
अनुवाद के साथ लीजिग १६०८ और सिद्धनाथ प्रचारिणी उनकी रचनाएँ' शीर्षक निबन्ध । ( 'जैनसिद्धान्तभास्कर' सभा कलकत्ताके द्वारा हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित । ८-१०२६-३८)।
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अनेकान्त
[ वर्ष
की प्राकत पागधना का निकटतम अनुबाद दो और उनकी श्राधार पर की हो, जैसे कि उन्होंने अपने पंचसंग्रह और पंचसंग्रह प्रधानतः प्राकृत पंचमंग्रह के आधार पर ही तैयार अाराधनाकी रचना प्राकृत के पूर्ववर्ती उन उन ग्रन्थोंके किया गया है जो एक हस्तलिग्विन में उपलब्ध हुअा हे ओर अाधार पर की है। संस्कृत रचनाके लिए अपभ्रंश मूलजिमे कुछ दिन हुए पं० परमानन्दजीने' प्रकाशमं लाया ग्रन्थ के उपयोग करने की अपेक्षा प्राकृत मूल (महाराष्ट्री या है। इस प्रकार अमितगतिने अपनी संस्कृत धर्मपरीक्षाकी शौरसेनी) का उपयोग करना सुलभ है। रचना किमी पूर्ववर्ती मूलप कृत रचनाके श्राधारपर की है, (एच) उपर्युक्त प्रश्नके उत्तरके प्रसंगमें मैं प्रस्तुत इसमें हरतरहकी संभावना है।
समस्या पर कुछ और प्रकाश डालना चाहता हूँ । अमितहरिषेण की अपभ्रंश धर्मपरीक्षा-जो अमितगतिकी धर्म- गतिकी धमपरीक्षामें इस प्रकारके अनेक वाक्यममूह हैं, परीक्षासे २६ पर्ष पहले लिम्ब। गई है और विवरण तथा जिनमें हम प्रत्यक्ष प्राकृतपन देख सकते हैं। यदि यह कथावस्तुकी घटनाअकि क्रमका दृष्टि से जिसके साथ अमित- प्राकृतपन हरिणकी धर्मपरीक्षामें भी पाया जाता तो कोई गति पूर्ण रूपमे एकमन है--का प्रकाशमें लानेके माथ ही ठीक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, क्योकि उस स्थिति इस प्रश्नपर विचार करना श्रावश्यक है कि क्या अमितगति में हरिषेण और अमित गति--दोना ही की रचनाएं जयगम अपने कथानकके लिये दरिपेण ऋणी हैं ? इस संबंधों की रचनानुमाग दाती। लेकिन यदि यह चीज प्रसंगानुसार हरिपणने जा एक महत्वपूर्ण बात बनलाई है वह हमें नहीं हरिपंणको रचनामें नहीं है तो हम कह सकते है कि भूल जानी चाहिए। उन्दाने लिखा है कि जो रचना जय- अमितगति किसी अन्य पूर्ववता प्राकृत रचना के ऋणी है रामको पहले से गाथा-बन्द में लिखी थी उसीको मैंने पद्धग्यिा और संभवतः वह जयगमकी है । यहाँ पर इस तरह के दोनों छन्द में लिखा है। इसका अर्थ है कि हरिपेणक सामन भी रचनाअंकि कछ प्रसंग माय साथ दिए जाते हैएक धर्मपरीक्षा थी, जिसे जयरामने गायामि लिग्वा था (१) अमितगतिने ३, ६ में 'इट्ट' शब्द का उपयोग किया है।
और जिसकी भाषा महाराष्ट्र या शौरसेनी रही होगी। जहाँ (१) स्थानों की तुलनात्मक गिनती करते हुए हरिपेगाने इस तक मेरी जानकारी है, इस प्राकृत धर्मपरीक्षाकी कोई भी शब्दका उपयोग नहीं किया है। देखिए, १, १७ प्रति प्रकाशमं नहीं आई है और न ही यह कहना संभव है (२) अमितगतिने ५, ३६ और ७,५ में जेम् धातुका कि यह जयगम उस नामक अन्य ग्रन्थकारोमसे थे, जिन्हें उपयोग किया है। जो इस प्रकार हैहम जानते है। जब तक यह रचना उपलब्ध नहीं होती ततोऽवादन्नृपो नास्य दीयते यदि भूपणम् । है और इसकी हरिण और अमितगनिकी उत्तरवा रच- न जेमति तदा साधो सर्वथा किं करोम्यहम् ॥ नानासे तुलना नहीं की जाती है, इस प्रश्नका कोई भी (२) तुलनात्मक उद्धरणको देखते हुए हरिपणने कडवक रीक्षणीय ही (tentative) बना रहेगा। हारपणने जिस
११-१४ में इस क्रियाका उपयोग नहीं किया है। ढंगसे पूर्ववर्ती धर्मरक्षाका निर्देश किया है उसमे मालूम
तथा दूसरे उद्धरण (११-२४) में उन्होंने इस प्रकार होता है कि उनकी प्राय: समस्त सामग्री जयरामकी रचनामें भुजक्रियाका व्यवहार किया हैमौजूद थी। इससे हम स्वभावत: इस निर्णय पर पहुंचते हैं ता दुद्धरु पभणइ उ भुजइ, कि धर्मपरीक्ष की संपूर्ण कथावस्तु जयरामसे ली हुई होनी जइ तहोण उ अाहरणउ दिजह । चाहिए और इस तरद अमितगति रिपेणके ऋणी है यह (३) अमितगतिने ( ४,१६ में ) योषा शब्दका इस प्रकार प्रश्न दी नहीं उठता। यह अधिक संभव हे अमितगतिने शाब्दिक विश्लेषण किया हैअपनी धर्मपरीक्षाकी रचना जयरामकी मूल प्राकृत रचनाके यतो जोषयति क्षिप्रं विश्वं योषा ततो मता। १ 'अनेकान्न' ३,३ पृ० २५८।
विदधाति यतः क्रोधं भामिनी भण्यते ततः ।। २ देखो, एम० कृष्णामाचारियर कृत 'हिस्ट्री आफ क्लासि- (३) इसमें सन्देह नहीं है कि अमितगतिकी यह शाब्दिक कल लिटरेचर' का इन्डेक्स (१६३७) ।
व्युत्पत्ति प्राकृतके मूल ग्रन्थके आधारपर की गई है,
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किरण २]
हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा
लेकिन हरिषेणने तुलनात्मक प्रसङ्गमें इस प्रकारको उपरिनिखित तकों को ध्यान में रखते हुए यह
कोई शाब्दिक व्युत्पत्ति नहीं की है। देखो २, १८ युक्तिसंगत होगा कि हरिपेण और अमितगात-दोनों ही (४) अमितगतिने 'अहिल' शब्दका प्रयोग किया है। ने अपने सामने की किमी उपलब्ध मूल प्राकृत रचना के देग्यो १३, २३
सहारे ही अपनी रचनाका निर्माण किया है और जहां तक (४) हरिषेणने तुलनात्मक उद्धरणा में 'दिल' शब्दका उपलब्ध तथ्योका सम्बन्ध हे यह रचना जयरामकी प्राकन प्रयोग नहीं किया है।
धर्मक्षा रही होगी। जहां हरिपेणने अपनी रचनाके मूल (५) अमितगतिने (१५, २३ में ; 'कचग' कब्दका प्रयोग स्रोतका स्पष्ट संकेत किया है, वहां अमितगति उस सम्बन्ध किया है।
में बिलकुल मौन है। यदि कुछ साधारण उद्धरण, जैसे (५) तुलनात्मक कडवक (८, १) में हरिषेणने इस शब्द का पैराग्राफ नं० सीमें नोट किए गए हैं ग्वोज निकाले जाय तो प्रयोग नहीं किया है।
इसका यह। अर्थ होगा कि वे किसी साधारण मूल खातसे उल्लिखित परीक्षणमे इस संभावनाका पर्यात निरमन ज्योक त्यों ले लिए गए है। कि अमितगति अपने मूल होजाता है कि अमितगतिने अकेली अपभ्रंश रचनाके अाधार स्रोत के बार में बिलकुल मौन है इसलिए हम सिद्धान्तरूप पर ही अपनी रचनाका निर्माण किया है। इसके सिवाय से नहीं कह सकते कि श्रीमतगातने अपनी पूर्ववती मूल यत्र-नत्र हमें कुछ विभिन्ननाएँ हीमालूम होती है । हरिप्रेगने प्राकत रचनाके मिवाय प्रस्तुन अपभ्रश रचनाका भी (१-८ में) विजयपुरी (अपभ्रंश, विजयउरी) नगरीका नाम उपयोग किया है। दिया है, लेकिन अमितगतिने उमी वाक्य-समहमें उसका (श्राइ) धर्मपरीक्षाका प्रधानभाग पौगांणक कथाअंकि नाम प्रियपुरी' रखा है। दसरे प्रकरणमें हरिपेणने (२.७में) अविश्वसनीय और श्रमबद्ध चरित्र-चित्रण भग पड़ा है। मंगलउ ग्रामका नाम दिया है, जब कि अमितगातने और यह युत. हे कि पुगण। और स्मृतियोक व पद्य पूर्वपक्षके रूप (४,८ में) उसे संगालो पहा है । मैं नीचे उन उद्धरणीको में उक्त कार, जाले । उदाहरण के लिए जिस तरह हरिभद्रने दे रहा हूँ। मुझे तो मालूम होता है कि अमिनगनि और अपने प्राकृत धूनाख्यानमें संस्कृत पद्योंको उद्धत किया है हरिपे एके द्वारा मूल प्राकृत के उद्धरण गौड़म हेरफेरन साथ और इस बानको पूर्ण संभावना है कि जयरामने भी अपनी समझ लिए गए हैं।
धर्मपरीक्षामें यही किया होगा। इरिगंगा की धर्मपरीक्षा में भी
एक दर्जनमें अधिक संस्कृत के उद्धरण हैं और ये तुलनामें हरिपेणकृत धर्मपरीक्षा २, ७--
अमित गनिकी धर्मपरीक्षाके उद्धरगग की अपेक्षा अधिक तो मावेउ भणइ मुक्ग्वाल उ
मूल्यवान है, क्योंकि अमितगतिने इन पद्योंका मनचाही अत्यि गामु मलए मंगाल उ ।
स्वतंत्रता के साथ उपयोग किया है। एक प्राकृन और अपभमरु णामि तहि शिवसइ गिहवइ
भ्रंशका लेखक उन्हें उमी नरद सम्यता. जैसे कि वे परंपरागसे तासु पुन णामें महुयरगइ ।
चले श्रारहे थे, लेकिन जो व्यक्ति अपनी रचना संस्कृत में अमितगति-धर्मपरीक्षा ४,७ बी-८
कर रहा है वह उन्हें अपनी रचनाका दी एक श्रङ्ग बनाने उवाचेति मनोवेगः श्रूयता कथयामि वः ।
की दृष्टि मे उनमें यत्र-तत्र परिवर्तन कर सकता है। अमितदेशो मलयदेशोऽस्ति संगालो गलितामुग्वः ।
गतिने इन पद्याको 'उक्तं च' आदि के साथ नहीं लिखा है। तत्र गृहयते: पुत्रो नाम्ना मधुकगभवत् ।।
दम नीचे दरिषणके द्वारा उद्धत किए गए यह पद्य दे रहे १ प्राकृत नाम वियाउरी रहा होगा।
है और साथ में अमितगतिक पाठान्तर भी। इससे मूलका २ यह भेद स और म-जो प्राकृत (हस्तलिम्वित) में करीब पता लगाना मुलभ होगा। यह ध्यान देनेकी बात है कि इनमें
करीब एकसे मालूम होते हैं-के वर्ण-विन्यास सम्बन्धी के कुछ पद्य सामदेवकी यशस्तिलक-चम्पू(ई. स.६५६) संदेहसे उत्पन्न हुश्रा प्रतीत होता है।
में भी उद्धरण के रूप में विद्यमान हैं।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
(१) हरिषेणकृत धर्मपरीक्षा ४, १ पृ० २२ (नं. स्वामिन् सत्यमिदं न हिमियतमे सत्यं कुत: कामिनां १००६ वाली हस्तलिखितका तथा चोक्तम्
इत्येवं हरजाहागिरिसुतासंजल्पनं पातु वः ।। मत्स्य: कुर्मो वराहश्च नारमिहोऽय वामनः ।
अमितगतिकी रचनामें इस पद्यकी तुलनाका कोई पद्य गमो गमश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्कीच ते दश ।। नहीं मिला। अक्षराक्षरनिमुक्तं जन्ममृत्युविवर्जितम् । (५) हरिषेणकी घ०प०, ४, १२, पृ० २५ ए-- अव्ययं सत्यसंकल्यं विष्णुध्यायीन सीदति' ।।
अङ्गल्या कः कार्ट प्रदर्गत कुटले माधवः किं वसंतो इन दो पद्यों को अमितगनिने निम्नलिखित रूपमेंदिया है
नो चको कि कुलालोन हि धर्गणधर: द्विजिह्वः फणीन्द्रः । व्यापिनं निष्फलं ध्येयं जरामरणसूदनम् ।
नाई घोगदिमा कि.माम खगपति! हरि: कि कपीश: अच्छेद्यमव्ययं देवं विष्णुं ध्यायन्न सीदति ॥
इत्येवं गोपवध्या चतुरमभिहित: पातु वश्चक्रपाण: ।। मीनः कुर्म: पृथुः पात्री नारमिहोऽथ वामनः ।
अमितगति इस कोटिका कोई पद्य प्राप्त नहीं कर मकै । गमोगमश्च कृष्णाश्च बुद्ध: कल्की दशस्मृताः ॥१०,५८-६
(६) हरिषेण ध० ५० ५६, पृ० ३१ ए-तथा चोक्तं तेन(२) हरिषेण की धर्मगंज्ञा, ४, ७, पृ० २४
अश्रद्धयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि यद्भवेत् । श्रपत्रस्य गतिर्गस्ति स्वगों नैव च नैव च ।
यथा वानरसंगीत तथा सा प्लवते शिला ॥ तस्मात् पत्रमुग्वं दृष्ट्वा पश्चाद्भवनि भिक्षक:२॥
अमितगतिके इन दो पद्यासे भी यही अर्थ निकलता हैअमितगतिका पद्य निम्न प्रकार है
यथा वानरसंगीतं त्वयादर्शि बने विभो । जपुत्रस्य गतिनास्ति स्वर्गो न तपसो यतः।
तरन्ती सलिले दृष्टा मा शिलापि मया तथा ॥ तत: मुत्रमुग्वं दृष्ट्वा श्रेयसे क्रियते तपः ॥ ११,८
अश्रद्धयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि वीक्षितम् । (३) दरिषणकृत घ० १०,४,७ पृ. २४
जानानैः पण्डितेन नं वृत्तान्तं नृपमन्त्रिणों: ।।१२,७२-३ नष्टे मृत प्रबजिते क्लीवे च पतित पतौ।
(७) हरिपेण--धा) प०, ५, १७ पृ० ३४-- पञ्चस्वापत्सु नागण। पतिरन्यो विधीयते ॥
भी भी भगत पल्लवलोनित उल्लिवित पासे श्रमितमतिके दम पद्यके साथ तुलना
बन्धूकपुष्पदलमन्निभनोहिताक्षे। की जा सकती है-- पत्यो प्रवृजित क्लीबे प्रनष्ट पतिते मृते ।
पृच्छामि ते पवनभोजनकोमलाङ्गी पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्या विधीयते ॥ ११, १२
काचित्त्वया शरदचन्द्रमुग्वी न दृष्टा (४) हरिवणकृत घ० १०, ४, ६, पृ० २४ ए.
अमित गतिकी रचनामें इसकी तुलनाका कई पद्य नहीं है। का त्वं सुन्दरि जाहवा किमिह ते भागेनन्वयं
(८) हरिषेणकृत ध० १०.७, ५, पृ० ४३अम्भस्त्वं किल वेनि मन्मथरस जानात्ययं ते पतिः। अद्भिर्याचारि दत्ता या यदि पूर्ववरो मृतः । १ इन उद्धरणाम हमने केवल इधर-उधर की घसीटकी अशु
सा दक्षतयोनि: स्यात्पुनः संस्कारमई ति" ॥ दियों को ही शुद्ध किया है।
यद्यात अर्थ में थोड़ा सा अन्तर है फिर भी उपगिलिखित २ यह पद्य यशस्तिलकचम्पू ( बम्बई १६०३ ) के उत्तरार्ध पद्यकी अगितगति के अधोलिखित पद्यसे तुलना की जा
सकती है-- पृ. २८६ में है। ३ यह पद्य पाराशरस्मृति १,२८ से मिलता-जुलता है अर ४ यह पद्य कुछ पाठ-भेद के साथ सुभाषितरत्नभाण्डागारममें इसे मिरोनोने अपनी दी धर्मपरीक्षा में पृ. ३१ पर संगृहीत है। प्रकरण है दशावतार, पृ० सं० ३८, पद्य उद्धत किया है। इसका मनुसे भी सम्बन्ध मालूम होता है और सं० १६६ (बम्बई १८६१)। यह स्मृतिचन्द्रिकामें भी है। देखिए, मनुस्मृतिका साप्ली- ५ प्रकरणानुमार वाशिष्टस्मृतिका १७,६४ पद्य भी इससे मैपट, गुजराती प्रेस संपा० बम्बई १६१३ पृ.६ पद्य १२६ मिलता-जुलता है।
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किरण २]
हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा
एकदा परिणी नापि विन्ने दैवयोगतः।
यह पद्य मतदरि के नीतिशतकसे लिया गया है। नं ५४) भर्तयक्षतयोनिः स्त्री पुनः संस्कारमईति || १४, ३८ अमितगतिने इन प्रकार के । चार विभिन्न प्रकरणों में (६) हरिप्रेण-०५०, पृ० ४३
व्यक्त किए हैं। ले कन इम प्रसंग में हम कोई तुलनात्मक अष्टी वर्षाण्युदीक्षेत ब्राह्मणी पतितं पतिम् ।
पद्य इस कोटिका नहीं मिला है। अप्रसूता च चत्वारि परतोऽन्यं समाचरेत् ।। (१४) हरिपेण---ध०प०, १०, ६ पृ० ६४--
अमितगतिका पद्य(१४, ३६) निन्नप्रकार है- (ए) स्वयमेवागतां नरी योन कामयने नमः। प्रतीक्षेताष्टवर्षाणि प्रसूता वनिता सती ।
ब्रह्म हत्या भवेनस्य पूर्व ब्रह्मान गीदि दम ।। अप्रसूतात्र चत्वारि प्रोषिते सति भर्तरि ॥ (बी) मातरमोद माग्मगद पत्र यीन कामा। (१०) हरिषण-ध०१०,७,८, पृ० ४३ ए
अमितगतिका रचनाम उल्लिखित कोटि के कोई उल्लेख पुगणं मानवो धर्मः साङ्गो वेद चिकित्सकम् ।। नहीं है। श्राज्ञामिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः॥
(जारिभद्रमूरिका। मन लगभग ७००-७७०का) प्राकृत अमितगतिकी धर्मरक्षा (१४. ४६ ) में यह पद्य का धूख्यिान' पाकत और मंकनक धर्मपरक्षा ग्रन्याम एकसा है।
उपस्थित साहित्य के अग्रवती रूका मुन्दर उदाहरगा हे। (११) हरिपंण-~-३०प०, पृ०४३ ए.--
इन रचनाश्रोका लक्ष्य पागणक कथाप्राक, अविश्वमनीय मानवं व्यासवासिष्ठं वचनं वेदसंयुतम् ।
चरित्र-चित्रणका भण्डाफोड़ करना है। दरभद्र अपने उद्देश्य अप्रमाणं तु यो यात्स भवेद्ब्रह्मधानकः ।।
में अत्यन्त बुद्धिपूर्ण ढंग पर मफल हुए हैं। कथानक बिल. अमितगतिका तुलनात्मक पद्य ( १४, ५०) इस कुल मीधा-मादा है। पोच धूत इकट होते हैं और वे प्रकार है
निश्चय करते है कि प्रत्येक अपना अपना अनुमा सुनावे। मनुव्यासवशिष्ठाना वचनं वेदमंयुतम् ।
जो उनका अमाप कहेगा उसे मन को दावत देनी पड़ेगी अप्रमाण यतः पुसो ब्रह्म हत्या दुरुत्तरा ॥
और जो पगरगामे नत्मम घटनाग्राको सुनाता हुअा उमे (१२) पेण-ध० ५०, ८, ६, पृ० ४६--
सोनम मंभव तरीकेपर निदोष प्रमाणित करेगा वह धूनगतानुगतिको लोको न लोक: पारमार्थिकः ।। रान ममझा जायगा । प्रत्येक घृत मनोरंजक और कटपटांग पश्य लोकस्य मूर्खत्वं हारतं ताम्रभा जनम् ।। अनुभव सुनाता है जिनकी पुष्टि उनका कोई माथी परागामि आमतगतिका पद्य प्रथम-पुरुप्पम है
नत्मम घटनाग्रांका उल्लेख करता हुअा करता है । दृष्टवानुसारिभिर्लोक: परमार्थविचारिभिः ।
स्थानपर प्रदेयम, सत्व नुकम्माको नगद भूनानुकम्पा, तथा स्वंदायत कार्य यथा मे ताम्रभाजनम ।। ६५, ६४ मतिः के स्थानपर विधिः पन्थाः के म्यानम मागेः। (१३) हरिपेण-ध० ५०,६,२५, पृ०६१--
दो नामाङ्कित विभिन्न पाटान्तर्गक माय यह पय सुभाषितप्रागाघातानिवृत्तिः परधनदरगणे मंयम: सत्यवाक्यं ।
रत्नभाण्डागारम (०२८२ पद्य मं० १.५६) में भी काले शक्त्या प्रदानं युवति जनकथामूकभावः परपाम् ॥ है--विनतिः के स्थानपर विनयः और सत्वानुकम्पा ताणासोतीविभङ्गा गुरुपु च विनतिः सर्वसत्वानुकम्ग की जगद भूतानुकम्ग।
सामान्यं सर्वशास्त्रवनुपदतमान : श्रेयमामेष पन्या:२ ॥ ३ धर्म परीक्षा अध्ययनकं प्रमंगम मिगेनीन धनाख्यान का १ यह और निम्नलिम्वित पद्य यशस्तिलकचम्पू उत्तराई पहलेम ही निर्देश किया है । मैं प्रो जिन व नया गारनीय पृ० ११६ में है। पद्य नं०१० मनुस्मृतिक १२, ११०-१ विद्याभवन का अनुगृहत हूँ, जिन्होंने कराकर अप्रकाशित की कोटिका है।
धूताख्यानके-जिमका कि वे मंदन कर रहे है२ यह पद्य यशस्तिलकचम्पू उत्तगई पृ०६६ में कुछ एडवांसफार्मोको, मुझसे यह ज्ञात कर भेज दिया कि मैं विभिन्न पाठान्नरोंके साथ पाया जाता है-प्रदानम् के ने हाल ही में एक नई अपभ्रंश धर्मपरीक्षा उब्ध की है।
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अनेतान्त
[वषे
श्राख्यान केवल गेचक हो नहीं है, बल्कि विविध पुराणोके धूर्ताख्यान जैसे अन्य ग्रन्थोंका जरूर उपयोग किया गया विश्वसनीय चरित्र-चित्रण के विरुद्ध एक निश्चित पक्ष भी है। अमितगतिकी धर्मपरीक्षा में भी कुछ अप्रामाणिक कथाएं जगृत करता है। हरिभद्र ने जैनधर्म के पक्षका अभिनय जान है जो प्रस्तुत धर्मपर क्षाकी कथायोसे मिलती-जुलती है। बझ कर नहीं किया है, यद्यपि उन्होंने ग्रन्यके अंत तक उदाहरण के लिए हाथीकमण्डलु (अमि० ध० १-१७ पहंचते पहंचते हम बात का संकेत कर दिया है (१२०-२१)। श्रादि और ध० ५० १२-७७ श्रादि) की उपकथा तथा पगगोंके विरुद्ध हरिभद्रका अाक्रमण विवाद-हित और उस विच्छन्न शिरकी उपकथा जो वृक्षपर फल खा रहा है सझाव-पूर्ण है, जब कि धर्मपरीक्षाके रचनाकारों-हरिषेण (१० ध० ३, १७ श्रादि और ध० १० १६-३४ श्रादि)
और अमितगतिने इसे अत्यन्त स्पष्ट और तीव्र कर दिया इत्यादि । यत्र-तत्र वही एकसी पौराणिक कथाएं दृष्टिगोचर है। दोनोंने अाक्रमण के साथ ही जैन श्राध्यात्मिक, धार्मिक होती है। जैसे कि इन्द्र-अहल्या की, अग्निको भक्षण
और श्राचारसम्बन्धी बातोका प्रतिपादन बहुत जोर के साथ करती हुई यम-पत्नीकी और ब्रह्मा-तिलोत्तमाकी उपकथा किया है। हारभद्रने पारणांकी काल्पत कथाओंके भवनको आदि । लेकिन उपरि नर्दिष्ट पौराणिक विवरण जो साधारण बडे ही विनोद के माय छिन्न-भिन्न किया है, लेकिन हरिपेण अप्रामाणिक कथाओकी पुष्टि में उपस्थिन किए गए हैं, दोनों
और मितगति नो इससे कुछ कदम इतने अागे और बढ़ धर्मपरीक्षाओंमें एकसे नहीं पाए जाते हैं। इसका यह गए हैं कि उन्दीने उनके स्थान पर जेन उपदेशोंके गगन- श्राशय है कि जयराम और उनके अनुयायी-हरिषेण चम्बी महल ही बड़े कर देने चाहे हैं। जयगमकी रचनाके और अमितगति--ने ऊटपटांग कथाओं और अविश्वसविशुद्ध जनवर्गनोंका टीक परिमाण हमें मालूम नहीं है, नीय विवरणों के लिए पुराणोंकी स्वतंत्रताके साथ खूब छानलेकिन हरिगणने उन्हें ग्वब रकवा है और अमितगतिने तो बीन की है। जो हो, अमिनगतिकी धर्मपरीक्षा और हरिषेण हद ही कर दी है।
की धर्मपरीक्षा-दोनों ही रुचिकर और शिक्षाप्रद भारतीय इममें सन्देह नहीं कि धर्मपरीक्षा के प्रथम कलाकार
साहित्यके सुन्दर नमूने हैं। पुराणपंथके उत्साही अनुयायियों
को एक तीग्वा ताना इन रचनाअोसे मिल सकता है। किन्तु जो मंग ममझमे जयराम है-को धूर्तख्यान या इसके
भारतीय साहित्यके निष्पक्ष विद्यार्थीपर उसका अधिक असर अन्य किमी मूल-ग्रन्थ की जानकारी अवश्य रही होगी।
नहीं पड़ेगा; क्योंकि उसके लिए कल्पनाको प्रत्येक दृष्टि उद्देश्य और लक्ष्य एक है। लेकिन रचनाएं भिन्न भिन्न तरीके
अतीतकी उस महान् साहित्यिक निधिको और अधिक पर मंपादित की गई है, कथानक के मुख्यकथाके पात्र,
समृद्ध करती है जो उसे विरासतमें मिली है।। स्थितियों, सम्बन्ध और कथावस्तुका ढाचा-सब कुछ धतख्यान में उपलब्ध इन वस्तुओंमे विभिन्न है। दस १ यह निबंध अखिल भारतीय प्राच्यसम्मेलन-हैदराबाद के अन्नचाए और चार मुखों की कथाएं, जो धर्मपरीक्षामें ग्यारहवें अधिवेशनमें भी उपस्थित किया गया था। ग्रथित हैं, इस बातको निश्चितरूपसे बताती है कि इसमें
__भूख-सुधार 'अनेकान्त' की गत १ली किरणमें (पृ० ६ पर) जो 'श्रीजम्बूजिनाष्टकम्' मुद्रित हुआ है उसके दो वाक्य--तीसरे पक्षका उत्तरार्द्ध और चौथे पद्यका पूर्वार्द्ध-छपनेसे छूट गये हैं । पाठक उन्हें यथास्थान निम्न प्रकारसे संयोजित करलें :
विहाय यो बाल्यवयस्यसीमान्भजभोगान्करुणान्तरात्मा। निमित्तमासाद्य गृहीतदीक्षो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ॥३॥ विजित्य विद्याधररत्नचूलं महावलं दुजेय-विक्रमं यः। प्रपन्ननिर्वेददिगम्बरत्वो जिनोऽस्तु जम्बर्मम मार्गदर्शी ॥४॥
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धवला-प्रशस्तिके राष्टकूट नरेश (ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०, एल-एल० बी०)
हुआ है।
'अनेकान्त' वर्ष ७ किरण ११-१२ में मेग एक लेख है कि क्या धवलाकी समाप्ति विक्रम संवत् ३८ में होने 'श्रीधवलाका समय, शीर्षक प्रकाशित हुआ था। उस लेख कोई बाधा भी है ? और क्या मोदीजी द्वारा प्रस्तुत की में मैने षटखंडागम पुस्तक १ की प्रस्तावनामें प्रो.हीरा- गई प्रधान बाधामें भी कोई पार? प्रशस्तिका 'जगतुंगलालजी द्वारा निर्णीत धवलाके रचनाकाल पर प्रबल देव-रज्जे' पद ही इस समय विचारणीय है। जैसा कि ऐतिहासिक एवं ज्योतिष-संबंधी बाधा उपस्थित करने मोदीजीने प्रतिपादन किया है, और मेरी स्वयं भी हुए मप्रमाण यह सिद्ध किया था कि धवला-प्रशस्तिमें पहिले जैसी धारणा थी. कि "गष्टकूट वंशक जगतुंग उल्लिखित समय शक संवत् ७३८ न होकर विक्रम संवत उपाधिधारी अनेक राजाओंमें सबसे प्रथम गोविन्द तृतीय ८३८ है। मेरे उस लेखके उत्तर में प्रो.हीरालालजीक पाये जाते हैं" मो बात भ्रमपूर्ण है जैसा कि मुझे इस बीच सुपुत्र श्रीप्रफुल्ल कुमार मोदीका एक लेग्य श्रीधवलका रचना- में उन वंश और कालके विशेष अध्ययनसे मालूम हुना काल' शीर्षक अनेकान्तकी गत किरण , में प्रकाशित है। गोविन्द द्वितीयका अपने ममयका कोई ताम्रपत्र
इत्यादि अभिलेख न होनेमे तथा वाणी-हिंडोरी, राधनपुर, अपने लेख में मोदीजीने मेरे लेखमें प्रस्तुत भनेक बातों
बाद। श्रादिके दानपत्रों में उसका कोई उल्लेख न होने से को ऐतिहामिक दृष्टि से चिन्तनीय बतलाते हुए भी उनकी
डा. जीटका यही विश्वास या कि गोविन्द द्वितीयमे चिन्ता करना तब तक निष्फल ही बताया है जब तक यह
कभी राम ही नहीं किया । डा. भंडारकर, रेऊ तथा सिद्ध न हो जाय कि विक्रम संवत ८३८ मा धवलाकी
अन्य विद्वान् भी इस सबंध में संदिग्ध ही रहे। बौदा समाप्तिके लिये संभव माना जा सकता है। सबसे ज्यादा
ताम्रपत्र (८८१ ई.) कपडवंज दानपत्र (११०ई०) तया जबादम्त बाधा जो आपने उपस्थित की है वह 'शक
वेगुमारा दानपत्र (१४ ई.) में दी हुई राष्ट्रकूट वंशावसंवत् ७०३ (वि० सं०८३८) में नोरमेन द्वारा जगतुंगदेव
लियों में भी उसका नाम नहीं है। किन्तु बादको दी एक के राज्यके उल्लेख के किये जाने का मर्वथा असंभव होना
ऐसे प्रमाण उपलब्ध हो गये कि जिनके माधारपर उसके हैं। अत: यह लिख कर आपने अपने इस लेखका अन्त
रामा हाने में मन्देह नहीं रहा। इन प्रमाणों में सबसे प्रबल कर दिया कि 'जब तक हम एक प्रधान बातके प्रबल ऐति- वह स्तम्भ लेख है जो मि० राइस माहिबने खोज निकाला हासिक प्रमाण प्रस्तुन न किये जाये तब तक बा. ज्योति था और जिसमें गोविन्द वि. का उल्लेख 'अकाल वर्ष प्रमारजीकी शेष कल्पन'ओंके विचारमें समय व शक्ति (कृष्ण) के पुत्र जगतुङ्ग प्रभूतवर्ष प्रतापावलोक" के रूपमें लगाना निष्फल है।"
१E. I.X 1909-10p.84. यह तो विद्वान लोग ही निर्णय कर सकेंगे कि क्या २ Bhandarkar: Early History of the मेरा उपर्युक्त लेख मोदीजीके अनुसार मात्र कल्पनाओंकी Dekkan p.49. & Vani-Dindori and नींव पर ही खा और इसना उपेक्षणीय है, तथा मोदी and Radhanpur gratns-I. A. XI. जाके ही शब्दों में उनके "पिताजी प्रो. डाक्टर हीगलालजी P. 157. ने अपना विवक्षित समय-निर्णय कैसी विशेष स्वोज-बीन ३ रेक : भारत के प्राचीन गजबंश, भाग ३, पृ० ३२-३३ पूर्वक' किया? वास्तवमें मोदीजी द्वारा किये गये वैय- ४ Alteka: Rashtra kutas & their timies तिक भाक्षेपोंका उत्तर देना तो व्यर्थ है। देखना तो यही p48&n.1.
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
दिया है। इससे स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि गोविन्द अमल नहीं वरन बीमयों वर्ष पीछे असल परसे द्वितीयकी एक उपाधि जगतुंग भी थी और इस प्रकार की गई नकलमात्र मानते है । और जैसा भी है राष्ट्रकूट वंशका जगतुग उपाधिधारी सर्व प्रथम राजा वही धूलियाका यह ताम्रपत्र ही गोविन्द द्वि. के समयका था न कि गोविन्द तृतीय।
अन्तिम उपलब्ध उल्लेख है। इस साहिबवाले जो साथ ही, गोविन्द दिल के राज्यकाल के संबंध में प्रायः सब
स्तम्भ लेख हैं उनमें कोई तिथि नी दी हुई है। उपर्युक्त ही विद्वान अनिश्चित है। उसके पिता क्रष्णाराज समयके के अतिरिक्त इस गना के संबंध में अन्य कोई समकालीन मन् ७७० ई. के अभिलेखमें उसका उल्लेख गोविंदराजके उल्लख न ना साहित्यमे मिलता है और न पुरातत्वम् । नामसे मात्र एक राजकुमारके रूप में २ । मन ७७२ ई०के सेकड़ों वर्ष पीछे के अन्य राष्टकूट नरेशोंके अभिलेखोंमें अभिलेखमें वह 'युवराज' के रूपमें मिलता है। उसका
प्रसंगवश इसके जो उल्लेख मिलते हैं उनपरसे इना अपना कोई समकालीन अभिलेख है नहीं। सन् ७७५१. के.
ही जाना जाता है कि यह व्यक्ति यद्यपि अच्छा योद्धा और पिंपरीके ताम्रपत्र में उसका कोई उल्लेख नहीं, उसके स्थानमें
वीर था किन्तु बड़ा दुश्चरित्र था, अत: माग राज्यकार्य उसके भाई ध्रुवराजका 'परमभट्टारक महाराजा घराज परमे
उसके भाई ध्र के ही हार्थो में था। ध्र वकी श्राधीनतापे श्वर पृथ्वीवल्लभ पारावर्ष श्रीध्र वराजदेव' के रूप में उल्लेख
छुटकारा पाने के लिये उसने कुछ सामन्तोंकी सहायतास मिलता है। इस ताम्रपत्रकी सत्यतामें किसीको कोई संदेह ध्रुवको पदच्युत करना भी चाहा, किन्तु उसकी यह चेष्टा नहीं और हमसे उस समय राष्टकूट माम्राज्यका एकाधिपति सफल नहीं हुई, ध्र वने उसे तथा उपके सहायकोंको ध्र वराज ही सूचित होता है। अलबत्ता सन् ७७६ ई. के
पराजित करके सम्पूर्ण राज्यसत्ता अपने प्राधीन करनी।। धूलियाके ताम्रपत्र में, जो ध्र वराजकोटे पुत्र कर्कराज
यह राज्य क्रान्ति कब हुई और परिणामस्वरूप गोविन्द द्वि. द्वारा लिखाया गया कहा जाता है उसके राज्यका उल्लेख
का ज्या अन्न हुआ इसे कोई नहीं जानता। ऐयो स्थिति 'श्रीप्रभूतवर्षस्य "प्रवर्धमानराज्ये' शब्दों में मिलता है,
में इन प्रमाणोंपर भिन्न २ विद्वानोंने अपने २ अनुमानों साप ही उसमें ध्र वराजका उल्लेख 'श्रीध्रवराजनाम्ना द्वारा उपके गज्यका वर्णन किया है। उपर्युक्त वर्णनप यह (मा) महानुभावो विहितप्रतापः प्रमाधिताशेषनरेन्द्र
भी स्पष्ट है कि राज्य क्रान्ति सन् ७७५ ई. बगभग, चक्रचूडामणिः' इत्यादिरूप में किया गया है, और कहा
पिम्परी ताम्रपत्रके पूर्व भी हो सकती है और धूलिया ताम्रगया है कि उनके (ध्रुवके) पुत्र कर्कराजने उनकी (६ वकी)
पत्रके पश्चात् (७१६ ई०के पश्चात् भी। डा० अल्ते करने भाज्ञास समस्त प्राधान राजामों-सामन्तोंको श्राज्ञा दी....
गोविन्द दि०की राज्यसमाप्ति और ध्र वकी राज्याप्ति ई.सन् इत्यादि"। प्रथम तो प्राय: सब ही विद्वानोंको धूलियाके
७८० के लगभग अनुमान की है। सो भी केवल धूलिया इस ताम्रपत्रकी सत्यतामें ही सन्देह, अनेक कारणोंसे
के (प्रायः सन्दिग्ध समझे जाने वाले) ताम्रपत्रको निभानेक कई विद्वान इसे जाली ही समझते हैं । डा. प्रतेकर ।
लिये। इत्यादि इसे बिल्कुल जाली नहीं तो कमसे कम ७ Altekar: R. T. p. 51, & n. 2. १E.C.XI challakereno.34.
८ Karhad plate of Krishna III of 959 २ Talegaon plate of 770-Altekar: R.
T A. D.-E. I. IV. p. 278, Kharda plate ___p.49 & n. 2
of karka Il of 972 A. D.-E. I. XII Ibid
p. 263.; Doultabad plates-E. I. p. 193 ४ E. I. X. 1909-10 p. 81-9.
H., and Altekar : R. T. p. 51. ५ Ibid p. 81.
E Altekar : R. T. p. 51. & Ibid p. 81, 82 also foot note.
१. Ibid f. n. 12.
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किरण २]
धवला-प्रशस्ति के राष्ट्रकूट नरेश
ह
ऐसी परिस्थिति में यदि मैंने भी यह निष्कर्ष निकाला यह कृष्ण प्रथम, गोविन्द दि०, ध्र वराज, गोविन्द तृतीय कि गोविन्द द्वि० की मृत्यु पन ७७६-८० में होचुकी थी आदि कई राजाओं के नामके साथ मिलती है। मादाजीने और उसके पश्चात् घ वरान ही राष्ट्रकूट राज्यका एक जोडा. भंडारकरके मतको अधूग उद्धत करके तथा रेऊ अधिपति हुआ तो इसमें प्रारत्तिकी कौनसी बात है? महाशयके मतका हवाला देकर गोविन्द द्वि० के जिनमन मोदीजीने मेरे वाक्यको कोष्ट में उद्धत करके और उससे कथित 'श्रीबल्लभ' होनेका प्रमाण उपस्थित किया है वह पहिले अपनी ओरम ही 'धनपाक ताम्रपटस' इन शब्दों भी भापका युक्तिचातुर्य ही चरितार्थ करता है । डा. को जोडकर मेरे कथन को अयुक्तिपूर्ण सिद्ध करने तथा उसे भंडारकरने जिस समय अपना ग्रन्थ लिखा था उन्हें यह सर्वथा प्रसत्य कहने का व्यर्थ कष्ट उठाया है। यह मैं भी मालूम ही न था कि श्रीवल्लभ उपाधि किया और राष्ट्रकूट जानता हूँ कि धूलियाके ताम्रपत्रमें इस राज्य-क्रान्तिका राजाकी भी है, उन्होंने वल्लभ और श्रीवल्लभमें भी कोई कोई उल्लेख नहीं है. न मेरे शब्दोंसे ही यह प्राशय अन्तर नहीं किया। उनका मत ज्यांका त्यों पूरा पढ़ लेने निकलता है। मेरा अभिप्राय तो मात्र इतना ही है कि से स्पष्ट होजाता है कि उसमें कितना बस है। ऊ गोविन्द द्वि. सम्बन्धी समस्त प्रमाणों और उपलब्ध महाशयके जिस मनका धापने उल्लेग्व किया है वह रा. जानकारीके अाधारपर उपका अन्त सन् ०७१-० के भंडारकरके वाक्योंका अक्षरश: हिन्दी अनुवाद है किन्तु लगभग ही हत्या होना प्रतीत होता। ऐसी बातों में भागे चलकर स्वयं रेऊ महाशयने यह स्वीकार किया है कि शाब्दिक वेचतानम कुछ नहीं बनता। सत्यको खोजके ध्रुवकी उपाधि भी श्रीवल्लभ थी । डा० अल्तेकरने मात्र लिये परिस्थिति और प्रमाणों का गंभीर अध्ययन तथा यह कथन ही नहीं किया कि यह उपाधि धवगनकी भी लेखकके वास्तविक अभिप्रायको समझने का ही प्रयत्न पाई जाती है, वरन् ध्र वराजके समकालीन प्रामाणिक करना उचित है।
भभिजेशोंमें उसके लिये यह टपाधि म्पटन या प्रयुन. हई जहां तक जिनमेनके हरिवंशकी प्रशस्तिमें उल्लिखित २ "At the end of puran entitled Hariकृष्ण के पुत्र श्रीवल्लभका प्रश्न है उस सम्बन्धमें भी मांदी
vamsa of the Digambara Jainas, it is जीकी युक्तियां भ्रमपूर्ण हैं। आपने जो यह लिखा है कि
stated that the work was composed गोविन्द द्वि० की सपाधि श्रीवल्लभ पाई जाती है और यह
by Jinsena in the Saka year 705 while कि 'हां डा. अल्ते करने यह अवश्य बतलाया है कि
Vallabha the son of Krishna was श्रीवल्लभ उपाधि धरानकी भी पाई जाती है" वह इस
ruling over the south. Govind Il. 19 ढंगसे लिम्बा कि जिपमे यह प्रकट होता है कि यह
in the Kavi grant called Vallabha, उपाधि गोविन्द द्वि० की ही थी और डा. अल्तकर का
while one of the names of Dhruvi अनुमान है कि वकी भी थी। वास्तव में जैमा कि रेऊ
the second son of Krishna I. was महाशयने अग्न भारत के प्राचीन राजवंशमें, कथन किया
Kallivallabha Govind II., therefore है. पश्चिमके सोकियों की मुख्य उपाधि 'बस्लमराज' थी
must be the prince alluded t, and he और उन्हीं को जीतकर राष्ट्रकूटोंने भी इसे धारण कर लिया
appears thus to have been on the था। अतः दन्तिवर्माके ममयसे ही गए कूट राजाओं के
throe in the Saka year 705.01 A. D. नामक माथ यह उपाथि जगी मिलती है। हां उनमेंसे कई
783."-Bhandarpur E. H. D.. suppliएकने इम (बल्लभ) के माय श्री, पृथ्वी, लचमी, कनिment Section XI p. 1. प्रादि विशेषगा और जोद लिये थे। श्रीवल्लभ रूपमें मी
३ऊ: भा०पारा, भाग ३, प्र. ३३-३४ १ऊः भा. प्रा. ग., भाग ३, पृ०२८।
४ उपयुक-पृ. ३५
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१००
भनेकान्त
वर्ष ८
मिलती है।
क्योंकि दोनोंकी ही यह उपाधि यो और दोनों ही कृष्ण जिनमेनके हरिवंशकी प्रशस्तिका विवेचन सर्वप्रथम प्रथमके पुत्र थे। के. बी. पाठकने इंडियन एंटीक्वेरीर में किया था। उस
उपर्युक विवेचनसे यह स्पष्ट होजाताजकिश. सं. पर टिप्पणी देते हए दा. फ्लीटके विक्षित श्रीवल्लभ ७.५ में जिनसेनद्वारा प्रयुक्त 'श्रीवल्लभ' शब्दमे अभिप्राय को गोविन्द द्वि० माना था । किन्तु कुछ वर्ष बाद ही यद्यपि गोविंद द्वि० वराज तथा गोविंद तृतीय-तीनोमेसे उन्होंने अपने मतको संशोधित किया। उन्होंने बताया किसी भी एकसे हो सकता है तथापि प्रमाण-बाहुल्य तथा कि श्लोक 'कृष्णनपजे' पदका सम्बन्ध, भाषाविज्ञानकी युक्ति-बाहुल्यको देखते हुए एक उल्लेखका अभिप्राय धुवराज दृष्टिमे, 'इन्द्रायुध' में होता न कि 'श्रीवल्लभ' से। और सेहो होनकी सर्वाधिक संभावना और गोविन्द द्वितीय यह श्रीवल्लभ गोविन्द द्वितीय नहीं हो सकता, गोविन्द के होने की सबसे कम । ननीय ही हो सकता है। रेऊ महाशयके अनुसार भी
प्रब रह जाता प्रश्न ध्र वराज के जीवनकाल में ही कुछ विद्वान् "शक संवत् ७०५ में गोविन द्वि. के बदले
भगतुग गोविन्द तृतीयक राज्याभिषेकका। धूलिया ताम्रगोविन्द तृतीयका होना अनुमान करते हैं। उनका
पत्रके समय सन् ७७६ में ध्र वकी आयु ५० वर्षसे ऊपर स्वयंका विश्वास भी ऐसा ही था यह उनके अन्यके पृ.
अनुमान की जाती है । उस समय उपके कमसे कम चार ६७ पर दिये हुए "मान्यखेट के राष्ट्रकूटों" के नकशेसे प्रगट
पूर्णवयस्क सुयोग्य और समर्थ पुत्र थे-स्तम्भ, कच,गोविन्द होता है, जिसमें उन्होंने हरिवंश-प्रशस्तिमें सम्मिलित
और इन्द्र । इस समयके पूर्व ही स्तम्भ रणावलोक गंगनरेशीको गोविन्द तृतीय का समकालीन सूचित किया,
वादी प्रान्तका शासक था और कर्क सुवर्णवर्ष खानदेशका। न कि गोविंद द्वितीयका । कुछ समनात दाफ्जीट
किन्तु ध्रव अपने पुत्रोंमें पर्वाधिक मुयोग्य गोविन्दको ने एक तीमरा सुझाव भी पेश किया था कि यह उल्लेख
समझता था, अपने पीछे कोई गड़बड़ या राज्यके लिये ध्र वराजका होना चाहिये। उसमें उन्होंने यह हेतु दिया
गृहयुद्ध न हो, इसलिये उसने अपने जीवनकाल में गोविन्द था कि "श्रीवल्लभ ध्रुवकी प्रमुख एवं विशिष्ट
का युवराज्याभिषेक कर दिया था। किन्तु वह इतनेसे ही उपाधि थी जबकि गोविंद द्वितीयकी वल्लभ थी, श्रीवल्लभ
सन्तुष्ट नहीं था और गोविन्दका राज्याभिषेक करके इसे, नहीं, जोकि एक बिल्कुल दूसरी बात है।"
चाहे नामके लिये ही हो, गष्टकूट साम्राज्यका अधीश्वर बना अपने उपयुक्त इतिहास ग्रंथके बहुत पीछे लिखे गये
देना चाहता था। गोविन्द इसमें महमत नहीं था, किन्तु अपने अन्य लेख में डा. भंडारकरने भी यह स्वीकार किया
पिताकी भाज्ञा उसे मान्य करनी ही पड़ी । पैठनका ताम्रहै कि “किन्तु हम बातका निर्णय सरबतासे किसी भी
पत्र स्परतया सूचित करता है कि गोविन्द के पिताने स्वयं प्रकार नहीं किया जा सकता कि (जिनसेनके) श्रीवल्लभ
उमका राज्याभिषेक करके उसे राज्य मौंप दिया था। का प्राशय गोविंद द्वितीयसे है या उसके भाई ध वम?
जैमाकि मैंने अपने पहले लेखमें सूचित किया था इस १ Altekar: R. T. p. 53, & Sravanbelgo
बातका अभीतक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हुमा है कि la Insticripon no. 14-E.C.I: Matpari record-E. C. IV p. 93; also E. 1. X
__ यह अभिषेककी रस्म कब हुई। विद्वानोंने अपनी-अपनी 1919-10 p. 84.
अटाली जगाई। मन् ७७१-८० में भी ध्रव अपने २ I. A. vol. XVp. 142. ३ Ibid-note on the paper.
७ Altekar: R.T. p. 53. Y Bombay Gazeteer vol. I part II p. 395. Ibid p. 59-61. f. n. 1.
Ibid p. 60, and the Paithan plates oi ५ रेऊ: भा० प्रा० ग०, भाग ३, पृ० ३८-३६ ।
Govind III of 794 A. D. and th ६ E. I. vol. VIp.197.
Kadha plates of 814 A. D.
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किरण २]
धवना-प्रशस्तिके राष्ट्रकूटनरेश
१०१
जीवनके मध्यान्हको तो पार कर हो चुका था। मृत्युका है। और यह वल्लभराज उपाधि दन्तिदुर्गके समयसे ही किस भरोसा है कब प्राजाय । अपने जीवनमें उसने गृह- राष्ट्रकूट नरेशोंके नामके साथ लगी चली पाती है। ध्र वराज युद्ध और रासक्रान्तियों देखी ही थीं, राज्यक्रान्ति द्वारा ही की भी यह उपाधि थी। मत: उसके ध्र वराजके लिये उसने बड़े भाईको राज्यच्युत करके स्वय राज्य प्राप्त किया प्रयुक्त होने में कोई बाधा नहीं पाती। ध्र वराजके लिये था । राजनैतिक कारणोंसे उसने उपयुक्त प्रबन्ध किया था। पिम्परी और धूलियाकेताम्रपत्रोंमें नरेन्द्र, नरेन्द्र चक्रचूडामणि कब उपके ऐपे विचार हुए और कब उपने वा राज्याभिषेक मद्रपचूडामणि जैसे शब्द-प्रयोग वीरसेनके बोहणरायणरिंदे किया कौन कह सकता है ? डा. अल्तेकरका अनुमान है णरिंदचूड़ामणिम्मि' लेखसे भी अक्षरश: मिल जाता है। कि अपने अन्तिम दिनों में उसने वैपा किया होगा किन्तु इस प्रकार उसके ध्र वराज होनेकीही सर्वाधिक संभावना है। यह भी तो संभव है कि अपने राज्यकाल के प्रारम्भमें ही
सारांश यह कि पवनाप्रशस्तिका उल्लिखित जगतुंग कर दिया हो । कावीके दानपानसे यही बोध होता है कि
देव चाहे गोविन्द द्वितीय हो, अथवा गोविन्द तृतीय, उपके कुटुम्बके ४ च्छेदमें तत्पर शोंके दमनके लिये ही
अपने कथित राज्याभिषेकके पूर्व, चाहे पश्चात् सम्राटके रूपमें उसने गोविन्दको सिंहामनासीन किया था और यही कार्य
अथवा प्रान्तीय शासकके रूपमें उस उल्लेख विक्रम सं. उपके धिपुर्द किया था । उसके कुटुम्बके उच्छेद में तत्पर
८३८ में होने में तो कोई बाधा ही नहीं पाती। जिनसेनका शत्र उसी समय अधिक थे जबकि उसने अपने भाई के
श्रीवल्लभ भी चाहे गोविन्द द्वितीय ध्र व. अथवा गोविन्द राज्यका अपहरण किया। ये शत्र उपके भाई गोविन्दति के
तृतीयमेंसे कोई भी हो शक ७०५ में उसके राष्ट्रकूटनरेश महायक राजा और सामन्त थे । उनके विरुद्ध लड़ने और
हानेकी एकसी संभावना है और इस कारणसे भीषवनाकी सनका दमन करने में ही उसका शेष मारा जीवन व्यतीत हुआ।
समाप्ति वि०सं० ८३८ में होनेमें कोई आपत्ति नहीं पाती। मैंने तो अपने लेग्वमें या सुझाव भी उपस्थित किया
प्रयत इसके, शक संवत् ७३८ में तो किसी भी जगतुगडे था कि यदि उमका राज्याभिषेक भी वि. सं. ८३८
होने की कोई सम्भावना ही नहीं। जगतुंग गोविन्द का (मन् ७८३) में नहीं होचुका था तो कमसेकम अपने अन्य
अस्तित्व भी शक सं० ७३५के पूर्व ही समाप्त होजाता। भाईयों-स्तम्भ कर्क इत्यादिकी भौत वह इस प्रान्तका जिसमें रहकर वीरसेनने धवलाकी समाप्ति की, तत्कालीन
प्रोफेसर हीरालालजीके विवक्षित समय-निर्णयके प्राननीय शासक तो हो ही सकता है। राजकुलके अन्य ।
विषयमें जो मैंने अपने मूल लेख में अन्य अनेक ज्योतिष, प्रान्तीय शासकों और रामपुरुषों के लिये भी राजा और इतिहास, अनावश्यक पाठ-संशोधनादि विषयक प्रबल दोष उनके शासन के लिये राज्य शब्द प्रयुक्त होता ही था। स्वयं निर्दिष्ट किये हैं चौर जिन प्रबल प्रमाणों और यक्तियोंसे स्वामी वीरसेनने वलाटीकाके प्रारम्भिक विवेचनमें कुछ यह सिद्ध किया है कि भवलाप्रशान्तिमें उल्लिखित उक्र एक गांवों के अधिपति तक को राना कहा है।
प्रन्धकी समाप्तिका ममय वि.सं. ८३८ (श. सं७०३, इसके अतिरिक्त पवना प्रशस्तिके अशुद्ध पाठों और सन् ७८०९.)ही हो सकता है, प्रोफेपर माहिब द्वारा वर्ण विपर्ययोंको देखते हुए लिपि-प्रतिलिपिकाकी निर्मात शक संवत् ७३८ (सन्१६ई.) नहीं, सो यह तो असावधानीसे 'ध्र पराज' नामके प्राकृत रूप 'धुबराय' का विषयविशेषज्ञ ही निर्णय करेंगे कि वह सब तथा इस लेखमें 'बाहणराय' रूपमें उपलब्ध होना भी कोई प्राश्चर्यकी बात प्रस्तुत विवेचन भी क्या केवल मेरी थोथी करूपनाएँ ही नहीं। अथवा यह शम्द 'बल्लहराय' का भी भ्रट रूप हो- और उनके पीछे अपलो शक्ति और समयका दुरुपयोग सकता .भंडारकरके अनुमर (पृ. ५७) 'वल्लभराज' करना निष्फन या सफल । मैंने तोइतिहासविषयके एक का प्राकृत रूप बल्हाराय या 'बलराय' होगा। तमामीन विद्यार्थी और सत्यान्वेषकको मियत से प्रस्तुत विषयपर अरब लेखकोंका 'बलोरा' शब्द इसी नामको सूचित करता प्रकाश डालने की चेष्टा की है। १ Kavigrant-Ind. Ant. vol. Vp.147,v.27,
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वीरोपदेश (लेखक-श्री पं० लोकमगिण जैन )
प्राजमे करीब २५०० वर्ष पहिले वीर प्रभुने जन्म उन्होंने साफ शब्दों में बतलाया कि कोई जाति-विशेष लिया था, उस समय भारतवर्ष में ब्राह्मणाका प्रमुख था अवध्य न होकर जमके गुण-परोपकारी भावनाएं ही उनकी सर्वत्र गति थी। वेदोंमे, रामायण से उन्होंने इस बात अवध्य होती हैं। वेदमहिला कानेका श्रादश न है वे तो के प्रमाण पत्र ले रखे थे कि 'गो, ब्राह्मण सदा अवध्य हैं.'
प्रात्मवत् पर्वभूतेषु' की पुकार जगा रहे हैं. वे कभी नहीं इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणवर्गमें एक विकृति कहते कि मक पशुओं की बलिसे ईश्वर तुष्ट होकर उन्हें हो-विद्वान तो थे ही वेदोंसे वाक्य लेकर उनका इच्छा- परमधाम में स्थान देता। जगह जगह वीरने सभाएं की मुकुल अर्थ करके हिंसक प्रवृत्तिमें लीन हो गए यज्ञमें जानना
उनमें अहिंसा तत्वका दिग्दर्शन कराया-हर एक प्राणी
, हवन किए हप पश स्वर्ग जाते हैं और यज्ञ करने वाले अपनी जिन्दगी कायम रखना चाहता है और जिन्दीवाना तो स्वर्ग जाते ही हैं-उन्हें परमधाम प्राप्त होता है । के साथ रहना पसंद करता है. अतएव जियो और जीने दो कहने लगे तथा हिंसक यज्ञको वेदपि विहित बताकर अश्व- -यह उपदेश दिया। मेधादि यज्ञ कराने लगे, और उसके श्रमस्वरूप असंख्य
जिस तरह हिंसकयज्ञांक विषय में वीरने आवाज उठाई द्रव्य भेंटमें प्राप्त करने लगे इस तरह हिंसक यज्ञोंको धर्मकी
उसी तरह ईश्वरतत्वक विषयमें भी। जो लोगोंकी अमत पोशाक पहना कर असंख्य पशुओंको अग्निके हाथों स्वर्ग
धारणाएँ थी उन्हें दूर करने में अनथक परिश्रम किया. जिस भेजनेमें तल्लीन होगए। समाजका उपयोगी पशुवर्ग जय
समय ईश्वर-तत्वपर वारोपदेश हुश्रा सारी दुनिया एकदम स्वर्ग वसाने लगा तो यहां इसकी कमीसे मनुष्योंको भारी
सन्न रह गई । वीरने बतलाया कि ईश्वर ज्ञानतत्व नुकसान उठाकर तकलीफोंका सामना करना पड़ा और
से जुदा नहीं है, ज्ञानपुंजका नाम ही ईश्वर है, वह सत्यके हिंसक प्रवृत्तिमे सारा भारतवर्ष लोहूलुहान होगया, और
सहारे स्थिर है, दुनियाके निर्माण में, रक्षा करने में और वह सब हुमा धर्म नामसे, वेदोंकी भाज्ञासे, ब्राह्मणों के
उसके संहार करने में वह अपनी शक्तिका कोई उपयोग नहीं कर-कमलों द्वारा ! इस लिए महान संकटोंका सामना करने
करता, सारी दुनियाका कार्य प्रकृति के महारे चलता रहता पर भी जनता ब्राह्मणोंके भयसे उफ़ न कर सकती थी।
है । ईश्वरको भी प्रकृतिके नियमोंका पालन करना भीतर ही भीतर इसे हिंसा-कापडोस मनुष्य-समाज म्या
पड़ता है, न वह किसी तरह रुष्ट किया जा सकता है न कुल हो उठा था, जरूरत थी ऐपी महान विभूतिकी, जो
उसे खुश ही किया जा सकता है। खुशी और नाराज होने इनके विरुद्ध प्रावाज उठाकर प्राणों की बाजी लगा देवे ।
के समस्त कारण उमसे दूर होगए हैं, उपे किमी चीनकी प्रकृतिने ऐसे संकटकाल में वीर प्रभुका प्रमव किया, वयस्क
जरूरत नहीं रह गई है वह प्रारमतत्व परमानन्द अवस्थामें होते ही उसने जनताकी दर्दभरी माहको पहचाना, घर
जीन और समदर्शी हो चुका है, वह हमारी प्रसन्न -प्रद्वार, राज-पाटका मोह छोद जंगल की ओर चल पड़ा।
प्रसन्नताकी कोई अपेक्षा नहीं करत: । इस वैज्ञाकि विवे१२ वर्ष की घोर तपस्याके बाद उसने जो मननके द्वारा ज्ञान
चनसे मुमुक्षु लोग वीरके झंडे के नीचे श्राने लगे, इस तरह शक्ति प्राप्त की थी उससे दुनियाको धर्मका उपदेश देना शुरू
ईश्वराज्ञाकीनोट में किये जारहे हिंसक यज्ञोंका अन्त होगया। किया। उन्होंने जीवन्मुक्त अवस्थामें ही हिंसाके विरुद्ध बलन्द आवाज उठाई. जिसे मेघध्वनि कहा जाता है। वह वीर भगवानने धर्मकी व्याख्या प्राणीमत्रको सुख निरक्षरी नहीं थी वह बहुत ही स्पष्ट शब्दोवाली और पहुंचानेवाली की और बतलाया कि मनुष्य सामाजिक प्रत्येक प्राणीके अन्तस्तनको स्पर्श करनेवाली होती थी। प्राणी है, समाज विकाशको भोर संलग्न है । निरन्तर सुख
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किरा १
वीगेप देश
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साधनोंमें परिवर्तन होता जा रहा है. हजार वर्ष पहिले अनुसार परिमाण-समाजमें विलामना नहीं बनने देतासमाजको सुख पहुंचाने वाले जो साथन थे श्राज उनमें यागवृत्तिका श्रोर समाजको आमंत्रिन करता रहता है, घोर परिवर्तन हो गया है। मनुष्य-समाजको अपनी जिंदगी अतिसंग्रहम जो सामाजिक हानि होती है उसका ममूल कायम रखने के लिए प्राचार-विचारों में भारी परिवर्तन करना नाश करता है। इसके अलावा वीरने बतलाया कि :यक पड़ा है। इस लिए युग-धर्मने भी अपना स्वरूप जन-सुख मनुष्य यदि वह सेवा-भावसे प्रेरित हो निवृत्तिके पथ पर की सीमा में निहित कर दिया। पहिलं जब 'युगल' (लडका- चले तो नरम-नारायया हो सकता है। इसमें जानि-भेट लडकी) एक माथ पैदा होते थे वे वहिन भाई न होकर बाधक नहीं हो सकता, मनुष्य जाति सिर्फ पेशे की वजह से नर मादाक रूपमें रहते थे. वही दोनों मिलकर मन्तान चार भागोंमें विभाजित है पर वह एक मानवजाति के पैदा करते थे जिनके कि वंशज अाज हम सब है, पर अज अतिमि और कुछ नहीं है। श्रार्य और ग्लच्छ यह भेद वह नियम समाजने अपनाया नहीं, इस लिए धर्म भी उसे भी भौगोलिक हैं तथा मदाचार और कदाचार सूचक है। पाप कहता है। यदि वैसा व्यवहार आज कोई करे तो इसके अतिरिक्त, भगवानन नावंपदेशमें बतलाया कि समाज मे अपनसे अलग कर दंगा और धर्मशास्त्र भी जगन चलने वाली चीज़ है, वह स्वयं चलनी है, जगतका उमे अनुमति न दवंगे, पर उस युगमें न तो समाज में प्रत्येक परमाणु गतिशी हे स्वत: पहिली अवस्थाका व्याग, बुग समझता था न धर्मने ही उपको बुग कहा, इसलिए अगली अवस्थाकी संप्राप्ति करता हया भी नाश नहीं होता-- जिम युगमें जिन पदाचारों समाज सुग्ख पाना है वही मदा- जगतका कण कण पाद व्यय, धीच्यामक है, जगतका चार उस युगका धर्म बन जाता है। धर्म धारण करने की वस्तु न कोई निर्माता न रक्षक न महारक है. वह गमनशील है.न कि दिखावकी, अथवा मिर्फ शाम्रोंमें लिम्बे रहने की। हान र हातन बदबता रहता है-श्रागे भी यही क्रम जारी
सदाचारके जो नियम वीरभगवानने बतलाए वे मनप रहगा- इममें न ना किसी चीजकी नई पैदायश होता। में पांच हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य श्रीर अपरि- न इसमेग किमी वस्तु का नाश हो हश्रा है। इंश्वरको भी ग्रह । जो इनका पूर्णरूपेण पाजन करता है वह ऋपि और जगतकी गतिशील नाके नियमांको बदलनेकी शाम प्राप्त जो एक देश पालन करता है वह गृहस्थ श्रावक कहलाता नहीं है, ईश्वर सिर्फ शुद्धा मनावका नाम है, न कि है। इन नियमोम समाज सुखी होता है, इस लिये इस किमी का धनांका। अनन्त विश्व बी। मनुष्य एक युगने इस धर्म टहराया, इन पोन नियमोंक पालन करनेम छटा पा जानवान प्राणी है, हमने अपने बुद्धि बम मनुष्य समाज परम्परौ किमीका घान नहीं कर सकना- प्रकृति के बहनसे रहस्यों को जान लिया है, और अभी अनन्न एक दूसरे में बंधुभाव पैदा होता है । भृट बोलका समाजका रहस्य विश्वक इसके जानने के लिए बाकी है और वह मुसमान और अपना पतन नहीं कर पाना .... समाजकी व्यः उत्तरोत्तर क्रमिक विकामके माथ चरम विकामावस्या उन वस्था पत्यके महार घडीकी तरह नियमपूर्वक होती रहती सब रहस्यों की जान लेना है और तब वह स्वयं भी सर्वज्ञ है. समाजके सुम्ब में वृद्धि होती है। चारीकी इच्छा नष्ट करने परमात्मा ईश्वर बन जाना है। से मनुष्य कर्मठ बनकर किमीको संपत्तिपर कधि नहीं वार भगवान की इस महत्वपूर्ण दशनाने ही । नुष्य करता न भालपी हो । समाजका भारम्प बनना है। समाजको अपना और ग्वींचा, प्रेमका पाट सिम्बाया, वस्तुतः देश ब्रह्मचर्य अच्छी मन्नान समाजको देता है. एकपनं व्रत धर्म सबके पालन करने की चीज है इस लिए जैनधर्म म. मनुष्य का प्रेम एक नारीक रग-रगमें व्याप्त कर स्त्रीममाजको धर्म है । हमे बिना किसी भेदभावक मय प्राणी पाजन कर सुख पहंचाकर पुरुषको बलवान बनाना है-पूर्णब्रह्मचारी सकते हैं, यह मंतापहा प्राकृतिक नियमांग बना म्वारकमेंट बनकर समाजकी निरपन मेवा करता है-माज लबी धमरे, जिम भी अपना मनाप दर का मनन शान्तिकी सुखी होता है। अपरिग्रहका व्रत--परिग्रह का श्रावश्यकताक जरूरत हो वह इस पान कर शान्ति लाम कर सकता है।
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साहित्य-परिचय और समालोचन
१ जेन-सिद्धान्त-भास्कर-भाग १२ किरण २ संपादक मामायिकगट--प्राचाय मितगति, सम्पादक प्रो. हीरालाल एम० ए०, प्रो. ए. एन उपाध्ये एम. ए. और गुजराती अनुवादक श्री रावजी नेमचन्द शहा वकील, री० लिट, बा. कामताप्रमाद एम० श्रार. एम., पं. के. सोलापुर, प्रकाशक श्री वीरग्रन्थमाला, सांगली : भुजबली शास्त्री, और पं. नेमीचन्द्र जैन पाहिल्यान । प्रस्तुत पुस्तक प्राचार्य कुन्धुमागरजीकी पवित्र प्रकाशक जैन सिद्धान्तभवन पारा, मूल्य 11) रुपया। स्मृतिम सम्पादकद्वारा अर्पित की गई है। प्राचार्य अमित
प्रस्तुत किरण जैन सिद्धान्तभवन श्राराकी पागमायिक गतिक दोनों बडे और छोटे सामायिक पाठों के अलावा पत्रिकाका दृमरा हिम्मा है। इसक दो विभाग हैं हिन्दी पण्डित महाचन्द्रकृत हिन्दी सामायिक पाठ भी दिया गया और अंग्रेजी। दोनों ही विभागों में १५-१६ विषयों पर है और इन सबका गुजराती में अनुवाद है। पुस्तक पामायिक अच्छे एवं ग्बोजपूर्ण निबन्ध लिखे गए हैं और उनमें प्रेमियों के लिये भरछी उपयोगी है। पुस्तकपर कोई मूल्य विद्वान लेखकाने विचारकी कितनी ही सामग्री प्रसत की नहीं दिया हुआ है इसम मालूम होता है कि स्वाध्याय है। केवलोजिन कवलाहार नहीं लेने पाठवीं शताब्दी में प्रेमियोंक हिनार्थ निःशुल्क प्रकट की गई है। भारतके प्रधान गत्य, तस्वार्थसूत्रकी परम्परा, प्रक्रियावनार
३ वीर तपम्वी--सम्पादक मुनि छोगालाल म. यादि म्य त्ति उपायक संस्कार और श्रथ व्यंजन श्रामार्थी. प्रकाशक मेघराज बबरमल जी धाकर बड़ीसादड़ी पर्याय निरूपणा श्रादि सभी लेग्य पठनीय है। जैनाचार्य
(मेवाड), मूल्य अात्मसुधार । ऋषिपुनका ममय श्रीर उनका ज्योतिषनान सम्बन्धी
हममें स्थानकवामी मुनि घब्बालाल जी म. लख पं. नेमीचन्द्रजीन बड़े परिश्रम और ग्वाजक माथ
का जीवन-परिचय दिया गया और यह बताया गया है लिसा और उसमें विक्रमकी छठी शता.दीक वराहमिहर कि किस प्रकार उन्होंने अपने श्रारको प्रामांमतिक मार्ग थादि दसरे विद्वानोंक ज्योतिष सम्बन्धीग्रन्थीक तुलनात्मक पर जगाया है। पुस्तक पठनीय है। वापयों द्वारा उसपर पर्याप्त प्रकाश दाता है।
अनेकान्तमें समालोचनार्थ पुस्तक भेजने वालोंके लिये प्रन्यमाला बिभागका 'ध्यानम्तव' भी अच्छा ग्रंथ
जानकर खुशी होगी कि अब कागज़ श्रादिकी दिक्कत है इसके कता भास्करनन्दी हैं जो तत्वार्थ वृत्तक का है।
दूर होजाने में अनेक न्तमें पहले की तरह माहिग्यासमालोचना यह किरण अपनी पिछली किरणसे बहुत सुन्दर है,
की जाया करेगी। अत: समालोचनार्थ पुस्तक भने पाई सफाई भी अच्छा है। विद्वानों, पुस्तकाध्यक्षों,
वाले सम्पादक 'अनेक' के पनेपर ही पुस्तकं भेजते रहें। मिर्च कालगें, वाचनालयोंक लिये ग्रंथ संग्रहाय है।
और इनकी दो दो प्रतियां पानी चाहिए । कई ग्रन्थ समालोचनार्थ प्रत हुए हैं जिनमें षट खण्डागमके भाग ७ भादि कुछ ग्रन्थों की समालोचना
--दरबारीलाल जैन, कोठिया अगली किरया मेंदी आवेगी।-परमानन्द जैन, शास्त्री
(न्यायाचार्य)
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अनेकान्तके इस वर्षके सहायक अाठवें वर्षके अनेकान्तको संस्थाओं, विद्वानो और १७१) बा. नेमीचन्दजी पाटनी, मदनगंज (किशनगढ़) लायरियोंके लिये भिजवाने के जिन मजनाने अार्थिक (इन पाच संस्थाश्राका की भिजवाने के लिये-१ सेक्रेटरी सहायताके वचन दिये हैं अथवा सहायता में न नेकी कृप भण्डारकर औरयन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट पूना नं. २, की हे उनके नाम मधन्यवाद मय सहायनाकी रकमवे. २ माटगदी याचिकोलाजिकल डिपार्टमेंट ग्राफ मसूर, नीचे दिये जाते है:
बंगलौर, ३ लायरिबन बम्बई यूनिवभिटी, ५ मैनेजर २०) प्रकाशचन्द्रजी जैन रईभ, नानौता निला
नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस ।
३५) मशीर बहादुर मंट गुलाबचन्दनी गपा, दादार महाग्नपर (दश संस्थानो या विद्वानीको अनेकान्ल अह.
EिA स्थानीको अपनी ओर से की गिनवाने क. लिये-- मूल्यम देने के लिये।
१ मंना मावजनिक वाचनालय, गोगकगट, इन्दौर २०) जैन मंगटन सभा, बदाइंधीरज, देहली (दश
२ लायरियन दी गवर्नमेन्ट कालेज, अजमेर संस्थाश्रा या दश विद्वानोको अर्द्ध मूल्यम देने के लिये)
३ लापारयन बनारसीदास कालेज लायग्रेग अम्बाला केन्द्र २१) ला. रूडामलजी शामियाने वाले, महारनपुर ४ मी० एस० मल्लिनाथ जैन ६ स्थानीको फ्री भिजवाने के लिये, जो इस प्रकार है:-- ३७, बलम्बाल स्ट्रीट पी० अमीनी कागय मद्राम १ पं० हमित्यभट्टाचार्य कलकत्ता, २ मर यदुनाथ सरकार मैनेजर दिन्दम्मान पकडेमी: इलाहाबाद कल कना, ३ पं. वासुदेवशरण अग्रवाल नयूरेटर, देहली ६ लायरियन कनकना यूनिसिटी कलकाना भ्यूज़ियम, ४ चा गुलाबगय एम० ए० मम्पादक मादित्य मंत्री मंशवाचनालय बटा मगफा, इन्दौर सन्देश आगरा, ५ पं० एम० गोविन्द पै. मंजेश्वरम , मा उथ ८ लायसन, किंग दिवई कालेन, अमरावती कनाग, ६ मुपरिन्टेन्डेन्ट, म्यादा दमहाविद्यालय, भदनी हलाप ग्यन श्रीरयन्टल कालेज, लाहौर घाट बनारमा
१० लायन ग्रिन विक्टोरिया कालेन, ग्वालियर
केवल पम्तकालयोंके लिये हमारा उत्थान और पतन
कथा कहानी और संस्मरगा हिन्दी के मशहूर लेखकों के कहानी, उपन्याम, भारत का आदि सम्राट कविता, नाटक, काव्य आदि की पुस्तकों पर हम केवल कर्म फल कैम देते हैं पुस्तकालयों को ६ प्रति त म २५ प्रतिशत तक सम्यग्दर्शन की नई खोज कमीशन देते हैं। आज ही नियम और सूचीपत्र भविष्यदत्त चरित्र मंगाईये।
धन्यकुमार चरित्र दुकानदार और आम जनता इन नियमों में लाभ अकंलक नाटक नहीं उठा सकेगी।
मतीमनोरमा उर्फ धर्म की देवी अद्भुत पुस्तके
दर्शन क या, दर्शपालन, दर्शतिज्ञाशील महिमा,
जैन ऋपि हरेक) पोस्टेज अलग गजपूतान के जैन वार
२) -कौशलप्रमाद जैन, कोर्ट रोड, सहारनपुर
विलम्बका कारण इस किरणका मैटर ३१ जनवरीको प्रेसमें उसी ममय देदिया गया था जब पहली किरण रवाना कीगई थी, परन्तु उसने समयपर छापकर नहीं दी, इस कारण इसके प्रकाशनमें विलम्ब होगया । इस मजबूरी के लिये पाठक क्षमा करेंगे । हम मुद्रण की उचित व्यवस्था कर रहे हैं जो शीघ्र ही हो जानवाली है। -प्रकाशक
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Regd. No. A-736.
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वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
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१-आचार्य प्रभाचन्द्रका तन्वार्थसूत्र-नया प्राप्त लगभ० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। बड़ा ही सक्षिप्त सूत्रप्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी सानुवाद उपयोगी ग्रंथ है । मू० १॥) व्याख्या सहित । मूल्य।)
४-उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा-मुख्तार श्री जुगल-ट्र २-सत्माधु-स्मरण-मङ्गलपाट-मुख्तार श्री जुगल- किशोरजीकी ग्रंथपरीक्षाओंका प्रथम अंश, ग्रंथकिशोरकी अनेक प्राचीन पयों को लेकर नई योजना परीक्षाओं के इतिहासको लिए हए १४ पेजकी नई सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि महित। इसमें श्रीवीर प्रस्तावना सहित । मू०) वर्द्धमान और उसके बादके जिनसेनाचार्य पर्यन्त,
५-न्याय-दीपिका-(महत्वका नया संस्करण)२१ महान अचार्यों के अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों
न्यायाचाय पं० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित द्वारा किये गये महत्वके १३६ पुण्य-स्मरणोंका संग्रह
और अनुवादिन न्याय-दीपिकाका यह विशिष्टसंस्करण है और शुरूमें १ लोकमङ्गल-कामना, २ नित्यकी
अपनी खास विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित प्रात्मप्रार्थना, ३ साधुवेषनिदर्शक जिनस्तुति ४ परम- संस्करणों में जो अद्धियां चली रही थीं उनके। साधुमुग्बमुद्रा और ५ सत्साधुवन्दन नामके पाँच
प्राचीन प्रतियोंपरम संशोधनको लिए हुए यह संस्करण प्रकरण हैं । पुस्तक पढ़ते समय बड़े ही सुन्दर पवित्र
मुलग्रंथ और उसके हिंदी अनुवाद के साथ प्राकथन, विचार उत्पन्न होते हैं और साथ ही प्राचार्योंका
सम्पादकीय. १०१ पृ० की विस्तृत प्रस्तावना, विषय-1 कितना ही इतिहास मामने आजाता है, नित्य पाठ
सूची और कोई परिशिष्टोंसे संकलित है, साथ में र करने योग्य है । मू० ।।)
मम्पादक द्वारा नवनिर्मित 'प्रकाशाख्य' नामका ३-अध्यात्म-कमल-मातण्ड-यह पंचाध्यायी तथा एक संस्कृटिप्पा लगा हआ है, जो ग्रंथगत कठिन लाटीसंहिता आदि ग्रंथों के कर्ता कविवर-गजमल्लकी शब्दों तथा विषयोंका खुलासा करता हुआ विद्याथियों अपूर्व रचना है । इसमें अध्यात्मममुद्रको कूजेमें बंद तथा कितने ही विद्वानों के काम की चीज है। लगभग किया गया है। माथमें न्यायाचाय पं० दरबारीलाल ४०० पोंके इम बृहत्मंस्करणका लागन मू०५) रु०ब कोठिया और पं०परमानन्द शास्त्रीका संदर अनुवाद, है। कागजकी कमी के कारगा थोड़ी ही प्रतियाँ छपी
विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी हैं। अतः इच्छुकोंको शीघ्र ही मंगा लेना चाहिये। 5६-विवाह-समुददेश्य-लेखक पं० जुगलकिशोर मुख्तार, हाल में प्रकाशित चतुर्थ संस्करण व
यह पुस्तक हिन्दी माहित्यमें अपने ढंगकी एक ही चीज है । इसमें विवाह-जैसे महत्वपूर्ण विषयका | बड़ा ही मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है-अनेक विरोधी विधि-विद्वानों एवं विचार-प्रवृत्तियों C से उत्पन्न हई विवाहकी कटिन और जटिल समस्याको बड़ी युक्तिके साथ दृष्टिक स्पष्टीकरण द्वारा सुलभाया गया है और इस तरह उनके दृष्ट विरोधका परिहार किया गया है। विवाह क्यों किया जाता है ? उसकी असली गरज (मौलिक दृष्टि) और सैद्धान्तिक स्थिति क्या है ? धर्मसे, समाजसे और गृहस्थाश्रमसे उसका CG क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना चाहिये ? उसके लिये वर्ग भौर जातिका क्या नियम हो सकता है ? विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है ? विवाहके पश्चात किन नियमों अथवा कर्त्तव्योंका पालन करनेसे स्त्री पुरुष दोनों अपने जीवनको सुखमय बना सकते हैं ? और किस प्रकार अपनी लौकिक तथा धार्मिक उन्नति करते हुए वे समाज और देशके लिये उपयोगी बनकर उनका हित साधन करने में समर्थ हो सकते हैं ? इन सब बातोंका इस पुस्तकमें संक्षेपमें बड़ा युक्ति पुरस्सर एवं हृदयग्राही वर्णन दिया है। मू०॥)।
प्रकाशनविभाग-धीरसेवामन्दिर सरसावा, (सहारनपुर) KsDGISTERSGGK मुद्रक, प्रकाशक पं० परमानन्द शास्त्री वीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दग्लाल द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपग्में मुद्रित ।
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सम्पादक-पं० जुगलकिशोर मुख्नार
...--विषय-सूची
वर्ष ८
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किरण ३
१ पापभार-बहनकी मर्यादा
पृष्ठ १०५ २ बौद्धाचार्य बुद्धघोष और महावीर-कालीन जैन-[बा० ज्योतिप्रसाद जैन
एम० ए० एल एल० बी० १०६ ३ भविष्यवाणी (कविता)-[पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' १०८ ४ हमारी यह दुर्दशा क्यों ?-[सम्पादकीय
५०६ ५ कौनसा कुंडलगिरि सिद्धक्षेत्र है ? [न्या. पं० दरबारीलाल कोठिया ११५ ६ भगवान महावीर-[पं० परमानन्द जैन शास्त्री
और शामी
११७ ७ आधनिक जैन साहित्य में प्रगति क्योंकर हो ?-[मुनि कांतिसागर १२१ - वीरवाणीकी विशेषताएँ भौर संसारको उनकी अलौकिक देन
-[बा० दशरथलाल कौशल १२२ । ६ रत्नकरण्ड और भाप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं ॥१६.४५
-प्रो०हीरालाल जैन एम० ए० ५४ १० आध्यात्मिक पद-[कविवर द्यानतराय ... ११ देहली धर्मपुरेका दि० जैनमन्दिर-[घा० पन्नालाल अग्रवाल १३३ १२ बच्चोंकी दर्दनाक दशा और प्राकृतिक चिकित्सा
-पं० श्रेयांमकुमार जैन शास्त्री १३५ १३ आत्मविश्वास ही स० मूल है-[श्री अखिलानंद रूपराम शास्त्री १३८ १४ चित्तौड़के जैनकी तिस्तंभका निर्माणकाल और निर्माता
___ -बा० अगरचन्द नाहटा १३६ | १५ वीरसेनस्वा०के स्व०समयपर एक दृष्ट-[पं०दरबारीलाल कोठिया १४४
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प्रो० दलसुखजी मालवणियाका पत्र
[ 'अनेकान्त' वर्ष किरण २ में जो 'जैनसंस्कृति-संशोधन-मण्डल' पर अभिप्राय प्रकट किया था, उसके सम्बन्धमें कुछ स्पष्टीकरण को लेकर उक्त संशोधन-मण्डलकी सम्पादकसमिति के मंत्री प्रो० दलसुखजी मालवणिया, बनारसका एक पत्र प्राप्त हुआ है जिसे उन्होंने 'अनेकान्त' में प्रकाशित करने की प्रेरणा की है। अत: उसे हम यहाँ ज्योंका त्यों दे रहे हैं
-दरबारीलाल जैन, कोठिया।
आपने भनेकान्तके फरवरी १९४६ के अंकमें जैन- को लिखा गया था। किसी कारणवश उनकी स्वीकृति संस्कृति-संशोधन-मंडल का परिचय दिया एतदर्थ धन्यवाद। अभी तक मिली नहीं अतएव उनका नाम छापा नहीं है।
आपने सम्पादकसमितिके विषयमें अपना जो सुझाव स्वीकृति पानेपर उनका नाम सम्पादक-समितिमें सम्मिलित रखा है उसके विषयमें थोदा स्पष्टीकरण श्रावश्यक है। हो जायगा। इस प्रकार मात सदस्य हो जानेपर उस मंडलका ध्येय असांप्रदायिक कार्य करनेका है किन्तु मंडल समितिमें अन्य नामकी गंजाइश नहीं। ने अपने बंधारण में ऐसा कोई नियम नहीं रखा है जिससे रहा यह कि सभी संप्रदायके लोग संपादक समितिमें यह आवश्यक हो जाय कि मंडलकी उपममितियोंमें तीनों न होंगे तो लोग मंडल के कार्यको शंकाको दृष्टिम देखेंगे, सम्प्रदायके व्यक्ति अवश्य हों। मंडल की कार्यकारिणी यह जो आपकी शंका है उसका उत्तर न हम दे सकते हैं जिस व्यक्तिको अपने किसी खास कार्य में सहायक हो सके न कोई दे सकता है। हमारा कार्य यदि समाजको पसंद ऐसी ममजती है उसे वह अपनी उपसमितियोंमें स्थान पायगा तो वह उसे मंजूर करेगा। सभीके नाम करके भी देती है । इसका मतलब यह कदापि नहीं कि जो सजन यह दावा नहीं किया जा सकता कि जो भी कार्य होगा वह उपसमितिमें नहीं वे मंडलकी रष्टिमें विद्वान नहीं या समूचे समाजको ग्राह्य होगा ही। समाजको इतनी दृष्टि असांप्रदायिक भी नहीं। किसी भी एक उपसमितिमें होती तो फिर इतने झगडे होते ही क्यों? समाजके सभी विद्वानोंका समावेश तो असंभव है। मंडल मण्डल के कार्यमें न सिर्फ जैन ही अपितु जैनेतरका के नियमानुसार सात सदस्यों की सम्पादकममिति है। उन भी महकार है। मंडल समाजकी उपासना करने नहीं सदस्योंका चुनाव मंडल अपने सुभीतेकी दृष्टिसे, कार्यकी
चला है वह तो सत्यकी उपासना करना चाहता। समाज सरलताकीसे दृष्टि करता।चनावके समय यह स्वाभाविक तो अपने पाप उसमें तथ्य देखेगी तो अपना सहकार है कि मंडल के अन्तरंग लोग ही उसमें प्रधान रहे जिसमे देगी यह दावा तो किया ही नहीं जा सकता कि हम जो कार्यवेग और एकरूपता बनी रहे। चनावके समय किसीके कुछ कहेंगे वह सत्य ही होगा। अपना प्रयत्न सत्यको उपरका उनके सम्प्रदायका लेबल नहीं, किन्तु मण्डलको पानेका है, इतना ही कहा जा सकता है। वह व्यक्ति अपनी दृष्टिमे कितना उपयोगी होगा-यह देख श्राशा उपयुक्त स्पष्टीकरण आप भनेकान्त के अगले कर ही पसंदगी की जाय यह स्वाभाविक है।हमी दृष्टिसे अंक में छापेंगे। माजसे चार महीने पहले प्रो. उपाध्येका नाम सम्पादक
भवदीयसमितिमें सम्मिलित करनेका प्रस्ताव पास हुना था। उन
दलसुख (मंत्री सम्पादकसमिति)
आवश्यक सूचना सेठ शान्तिप्रसाद जैनको एक ऐसे सहकारी, असिस्टेंटकी आवश्यकता है जो भाचार्य ग शास्त्री इंगलिशके ग्रेजुएट हों, हिन्दी और अंग्रेजीके अच्छे लेखक तथा व्यापक साहित्यिक रुचिके हों, वेतन योग्यतानुसार, आवेदनपत्र डालमियानगर, बिहार के पते पर शीघ्र भेजना चाहिए। लक्ष्मीचंद जैन, एम० ए०
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* ॐ महम् *
स्तत्त्व-सचातक
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विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ४) -dar VIIT
Farmerammarwari
एक करणका मूल्य /-)' DainmAAAAMuna
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MAY
HAIRS
29999
PORE
JA नीतिविरोधष्यसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् ।
परमागमस्य पीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः।
वर्षे ८ किरण ३
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार । वीरमेवान्दिर ( समन्तभद्राश्रम ) सरमावा जिला महारनपुर )
चैत्रशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २४७२. विक्रम संवत २००३
मार्च १६४६
AND
पापभार-वहनकी मर्यादा पावनोदयते प्रभापरिकरः श्रीभास्करो भासयंस्तावद्धारयतीह पङ्कजवनं निद्राऽतिभारश्रमम् । यावत्यञ्चरणबयस्य भगवन् !न स्यात्प्रसादोदयस्तावबोध-निकाय एष वहति प्रायेण पापं महत् ॥
-शान्तिभक्ती, श्रीपूज्यपादः 'जिम प्रकार पजवन-कमलोंक समूह --निद्रा अत्यन्त भारी श्रमको- अविकामके श्रनिगाद क्लेश को-उसी वक्त तक वहन करता है जब तक कि उद्योतन एवं विकास करता हुआ प्रभापुञ्ज श्रीसुर्यदेव उदय को प्राप्त नहीं होता है, उसी प्रकार हे भगवन - श्रीशान्ति जिनेन्द्र ! यह संमारी जीवोंका समूह प्रायः उमी समय तक गुरुतर पाभारको वहन करता है-भारी पापोका बोझा ढोता है-जब तक कि आपके चरणयुगलका प्रसाद उदयको प्राप्त नहीं होता है-प्रसन्नतापूर्वक श्रापके पदोका सम्यक् अाराधन अथवा आपकी । बाकिरणोंका भलेप्रकार सेवन उससे नहीं बनता है । क्योंकि आप निष्पापात्मा होकर पापाऽन्धकारके विनाशक हैं, श्रापकी चरण-शरणमें यथाविधि प्राप्त होने वाला प्राणिवर्ग सहजमें ही अपने संपूर्ण पापसे छुटकारा पानेमें समर्थ होजाता है।
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"बौद्धाचार्य बुद्धघोष और महावीर कालीन जैन”
(ले०--ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए० एल एल० बी० लखनऊ)
भाचार्य बुद्धघोष और बौद्धधर्मके एक सुप्रसिद्ध महान् उन्हें अच्छा ज्ञान था। वह भाजीवों और निग्रंथोंके प्राचीन भाचार्य थे। वह थेरवाद सम्प्रदायके सबसे बड़े ताविक विचारोंसे भी सुपरिचित थे। मृत्युके उपरान्त टीकाकार माने जाते हैं और उनका समय ईसाकी ५ वीं मारमाका क्या परिणाम होता है, इस विवेचनमें उन्होंने शताब्दी अनुमान किया जाता है। उन्होंने अधिकांश उक्त सम्प्रदायोंके तत्सम्बंधी विचारोंका भी उल्लेख किया गौद्ध भागम ग्रंथोंपर अपने विद्वत्तापूर्ण भाष्य रचे और इस है। 'विनय' और 'निकाय' ग्रन्थों में उल्लिखित विभिन्न प्रकार उक्त बाम्नायमें उनकी स्थिति प्राय: वही है जो जैन धर्मोपदेष्टानोंके जीवन वृत्तों पर भी उन्होंने थोड़ा थोड़ा दिगम्बर सम्प्रदाय में स्वामी वीरसेनकी तथा श्वेताम्बर प्रकाश डाला। सम्प्रदायमें प्राचार्य हरिभद्रसरिकी । डा. विमवचरण
बुद्धघोषके अनुसार, महावीर कालीन एक अन्य धर्म लाने अंगरेजी भाषामें आचार्य बुद्धघोषकी जीवनी तथा
प्रवर्तक, पूरणकस्मप भी नग्न ही रहते थे, और भाजीवक कामोंपर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है । इस ग्रंथके
सम्प्रदायके प्रवर्तक मक्खलिगोशाल भी। पकुध कात्यावन छठे अध्यायमें बुद्धघोषकी बहुविज्ञता प्रदर्शित करते हुए
शीतल जल का उपयोग नहीं करते थे, केवल गरम जल या लो महाशयने उनकी बुद्धकालीन बौद्धतर धमों और चावलोंके गरम मांडका ही उपयोग करते थे। जातियों आदि सम्बन्धी जानकारीपर भी प्रकाश डाला है
बद्धघोषके कथनानुसार, श्रावस्ती नगरी में महारानी जिससे विदित होता है कि बुद्धघोषने अपने ग्रन्थों में, प्रसंग
मल्लिनाके स्थानमें एक भवन बनाया गया था (संभवतः वश महात्मा बुद्ध के समय में प्रचलित जैन, श्राजीवक श्रादि
महारमा बुद्धकी व्याख्यान शाला)। इस भवनके पास पास धर्मों शाक्य कोलिय, लिछवि आदि जातियों, राजगृह,
दि जातिया, राजगृह, अन्य धर्मोके प्राचार्योंके लिये भी कितने ही भवन बन गये वैशाली. श्रावस्ती आदि नगरियों के विषयमें उपयोगी और थे. किन्तु यह सब भवनसमह 'व्याख्यान भवन' के नामसे दिलचस्प जानकारी प्रदान की है। इसमें मन्देह नहीं कि ही प्रसिद्ध था। इस स्थानमें ब्राह्मण, निर्ग्रन्थ, अचेलक इनके तत्वबन्धी ज्ञान कायापार प्राचीन बौद्ध अनुश्रुति और परिव्राजक आदि विभिन्न प्राचार्य मिलते थे, अपना अपना साहिग्य था, वह स्वयं भी अबसे लगभग १५०० वर्ष पूर्व मत प्रतिपादन करते थे और वाद विवाद होता था। होचके हैं और उत्तर पूर्वीय भारतक ही निवासी थे। 'समंगलविलासनी' नामक ग्रंथों (पृ. १३८-१३६) प्रस्तु, उनका उक्त कथन अधिकांशत: प्रमाणीक ही होना
बुद्धघोष लिखते हैं कि म० बुद्ध के प्रमुख शिष्य देवदत्तने चाहिये, और विशेष कर जबकि वह प्रतिपक्षी वर्ग वा वर्गों
उनमे यह प्रार्थना की थी कि वे संघके नियम बहुत कडे के सम्बन्धमें है।
करदें और यह श्राज्ञा प्रचारित करदे कि भितु लोग मांस 1. ना के शब्दोंमें २ ' भाष्यकार (बुद्धघोष) वैशाली मच्छीको बिल्कुल न छुएँ, केवल तीन वन अपने पास नगरसे भजी भौति परिचित थे, और वे उसके शापकों- रक्खें, खुले मैदान में रहें (विहार आदि किसी मकाकमें नहीं), लिच्छवियोंके विषयमें बहुत सी उपयोगी जानकारी प्रस्तुत ३ Dialogues of the Budha, करते हैं। तपस्यिोंके विविध सम्प्रदायोंके इतिहासका भी।
pt. I, P. 44 F. N. , The life & work of Budhaghosa ४ सुमंगल विलासनी, भा० १, पृ० १४८
-by B. C. Law. ५ सुमंगल विलासनी, भा० १, पृ० १४४ २ Ibid, P. 107. .
६ बुद्धवार्ता-पृ० २४४ फु० नो.
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किरण ३]
"बौद्धाचार्य बुद्धघोष और महावीर कालीन जैन"
१०७
मदैव भिक्षाये अपना निहि करें। किन्तु बुद्धने उपकी विरोधी थे, जो कुछ थोडेसे पुराने राज्यकर चले पाते थे यह बातें नहीं मानी और फलत: देवदत्त संघसे अलग उन्हींसे सन्तुष्ट थे । ये वजी गण राजनीति में भी निपुण थे होगया और अपने मतका स्वतन्त्र प्रचार करने लगा। देव- और अपने वयोवृद्ध अनुभवी देशवासियोंके पास राज्यदत्त के बहकानेमे ही कुणीक ( अजातशत्र) ने अपने पिता कार्यों व राजनीतिकी शिक्षा लेते थे। जब तब उनकी मार्व. श्रेणिक पर अत्याचार किये बताये जाते हैं।
जनीन समायें होती रहती थी जिनमें देशके विविध प्रदेशों बुद्धघोष कहते हैं कि मल्ल लोग (महावीर काबीन एक्क तथा अन्य राज्यकी विषयोंके सम्बंध में वादविवाद होते अस्य जाति) क्षत्रिय थे और उनकी राज्यव्यवाया राजानों और जनताको उनसे अवगत कराया जाता था। ढोल पीट की गणतंत्र शैलीकी थी।
कर सभाके होनेकी घोषण की जाती थी। प्रत्येक व्यक्ति 'खहकपाठ' की अपनी टीका 'परमस्थजोतिका' में वह उपस्थित होने का प्रयत्न करता और सभा समाप्त होते ही कहते हैं कि लिच्छवियाँक देहकी चर्म इतनी सुंदर थी कि सब नरन्त अपने अपने स्थानको चले जाते । जिच्छवियोंकी इसमें शरीरके भातरकी वस्तुएं झलकती थीं। एक दूसरे इन सभाओं में राजकीय विषयों के अतिरिक्त, जनताकी चिके ग्रंथ धम्मपद प्रस्थ कथा' (भा०३ पृ. ४६०) में वह अनुमार अन्य बौकिक विषयों तथा धार्मिक प्रश्नोंपर भी बतलाते है लिच्छवियोंके यहां एक बड़ा त्यौहार होता वाद-विवाद होते थे। एक समय बुद्धके सिंह नामक एक या जो सब्बतिवार' या सब्बरत्तिचार' कहलाता था। शिष्यने जब लिच्छवियोंकी इस महती सभाको देखा तो इस अवसर पर गीत गाये जाते थे, दुन्दुभी मृदंग प्रादि उसने कहा कि 'यदि तथागतको इस सभामें धर्मप्रचार भनेक वादिन बजाये जाते थे, पताकार्य फहराई जाती थीं। करने का अवसर मिल जाय तो वह अत्यन्त प्रमक होंगे।' राजागण, राजकुमार, मनापति सभी इस मार्वजनिक उत्सव धर्मप्रचारक लिये यह सभा एक आदर्श सभा समझी जाती में भाग लेते थे और रातभर श्रानन्द मनाते थे। स्त्रियं भी थी। अपने ग्रंथ 'समस्तपासादिका (पृ. ३३८) में बुद्धघोष इपमें सम्मिलित होती थी। धम्मपदमत्थ था प्रथमें यह । ने इस सभाको तातिश देवोंको सभा ( इन्द्रमभा) से भी उल्लेख है कि बिछवि लोग प्राय: उद्यान और वाटि· उपमा दी है। 'सुमंगल विलासनी' में महाली नामक एक काओं में "नगर शोभनियों" को साथ लेकर जाते थे।
सामान्य लिच्छविके एक कयनका उल्लेख जिममें उप सुमंगल बिजासनी ग्रंथमें (पृ.१०३.१०५) इन्हींलिच्छ
वीरभक्तने कहा था कि “मैं एक क्षत्रिय हूं। बुद्ध भी एक वियोंके विषय में लिखा है कि जब कोई लिच्छवि बीमार पड़
क्षत्रिय ही हैं। यदि उसका ज्ञान बढ़ते २ सर्वज्ञताकी सीमा जाता तो उसे देखने जाते थे, वेशीजसंयमका बहुत ध्यान
को पहुंच सकता है तो मैं भी क्यों नहीं मर्वज्ञ होमकता ?" रखते थे, बलात्कार आदि अपराध सुननेमें भी नहीं पाते
इसी ग्रंथमें लिच्छवियोंके न्यायशासन पर भी प्रकाश थे। वे अपनी परम्परागत प्राचीन धार्मिक क्रियाओंको
हाला गया है । जब कोई चोर पकड़ा जाता तो नह न्यायाकरते थे। किसी जिच्छविक यहां यदि कोई मंगल कार्य
धीश सामने लाया जाता । यदि वह निरपराध सिद्ध होता होता तो सारी जाति, विना किसी भेदभावके उसमें मम्मि तो छट जाता और यदि अपराध सिद्ध हुआ तो तुरन्त लित होती। जब कोई विदेशी राजपुरूप इनके देश में प्राता दण्ड न देकर उसे व्यौहारिक नामक राजकर्मचारीके सन्मुख तो पब लिच्छवि मिलकर उसका स्वागत करने नगरमे उपस्थित किया जाता। वह भी उसे दण्डका पात्र समझता बाहर जाते और बड़े भादर सम्मानके साथ उसे लिवा कर तो 'अन्तःकारिक' के पास भेजता, वहांसे वह सेनापति के नाते । अतिथिमत्कार के लिये वे प्रसिद्ध थे । किन्तु यदि सन्मुख पेश किया जाता, यहाँ भी यदि अपराध प्रमाणित कोई विदेशी शत्र इनके देश पर आक्रमण करता तो ये होता तो वह उपराजाके सामने पेश किया जाता और अन्त उपका बट कर बही वीरताके साथ मुकाबला करते। में राजाके मन्मुख उसकी सुनवाई होती। इस अन्तिम लिच्छिवियोंका संगठन भादर्श था। नवीन राजकरोंके वे अदालतमें भी यदि वह अपराधी ही सिद्ध होता तब उसे ७ बुद्धवार्ताभाग २, पृ० १४१८ बुद्धवात भाग ३, पृ० २०१ 'पवेनियोत्थक' (नजीरोंका संग्रह) नामक ग्रंथ प्रापारपर
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१०८
अनेकान्त
[वर्ष ८
दण्डित किया जाना । इस प्रकार अपराधी भखे ही छट उपकी टीका बुद्धघोष लिखते हैं कि बुद्ध और प्रसनदीकी जाय किन्तु निरपराधी कभी भी दरिदत नहीं किया जा प्रथम भेंट जेतवनमें हुई. उसने म. बुद्ध बुद्धस प्रश्न सकता था। वैशबी नगराके निकट ही गंगाके किनारे एक किया कि जब निगंथनातपुत्त (महावीर) मक्खलि गोशाल, पर्वतपर हीरे जवाहरातको एक भारी खान थी। मगधनरेश परण कम्पप प्रादि वयोवृद्ध महात्मागण जीवित हैं तब अजातशत्रका उसपर दान था, किन्तु लिच्छावियों बद्ध अपने पापको 'सम्मासंबुद्ध' क्यों कहते हैं। इसके अद्भुत संगठन और साहस सम्मुख उसकी एक न चली उत्तरमे बुद्धने कहा कि क्षत्रिय, उ(ग, अग्नि और बहन अन्तमें उसने कूट नीतिसे काम लिया और लिच्छावियों में वयमें छोटे होने पर भी उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । फूटके बीज बोने शुरू किये फलस्वरूप वह इस अनुपम राजाने प्रश्न किया क्या पृथ्वीपर कोई ऐसा भी प्राणी है वजिदेश, भगवान महावीरकी जन्मभूमिपर भाक्रमण करने जिसे बुढापा या मृत्यु नहीं प्राप्त होगी?” बुद्धने इसका का साहस कर सका और उसपर विजय पा सका। शुछ उचित समाधान कर दिया। तदनन्तर इन दोनोंके
बुद्धघोषके कथनानुसार युद्ध के समय मगधदे का बच इस विषयपर वाद विवाद हुआ कि 'प्राणी' को प्राये राजा बिम्बसार था और उसके इस नामका कारण उसके का महादसे ज्यादा है।' बुद्धघोष कहते हैं कि बौद्धधर्म शरीरका सुनहरी रंग था (बिम्ब-सुनहरी), एक बड़ी सेना में दीक्षित होने के पश्चात मी प्रसेनजितने अन्य धर्माचार्यों का अधिपति होने के कारण वह 'सेनिय' (श्रेणिक) भी से यथा निगंथ, जटिल, अचेलक, परियामक एक शतक कहलाता था। उसके पुत्र अजात शत्रकी माता कौशल नरेश प्रादिकोंसे उपेक्षा नहीं की वरन पूर्ववत भादरभाव रक्खा महकौशलकी कन्या वैदेही थी। इस महाकौशलका पुत्र उसने एक वार बुदमे प्रश्न किया कि "महतोंमें सबसे पसेनदी (प्रसेनजित) या । मज्झिमनिकायकी टीकामें बुद्ध- प्रमुख कौन है ?" तो बुद्धने उत्तर दिया-"तुम गृहस्थी घोष लिखते हैं कि पसनहीने जब बुद्धकी ख्याति सुनी तो हो तुम्हें विषयभोगों में प्रानन्द प्राता है। तुम इस विषय उसे ईर्ष्या हुई। वह उस समय वृद्धके विरोधी अन्य मतों को नहीं समझ सकोगे." राजा बेचारा चुप होनया । बुद्धने के पक्ष में था। उसकी वय बुद्धके समान ही थी। बुरने राजाको धनकी उपयोगिता भी बताई। उसका मत परिवर्तन करने के लिये अपने प्रधान शिष्य
त पारवतन करने के लिये अपने प्रधान शिष्य इस प्रकार बौद्धाचार्य बदघोषके ग्रन्थोंसे महावीर सारिपुत्रको उसके पास भेजा किन्तु राजाने उससे मिलनेसे कालीन इतिहास विषयक अनेक दिलचस्प बातोंपर प्रकाश इन्कार कर दिया। अन्त में वह बौद्धधर्ममें दीक्षित होगया पडता है। प्रस्तुत लेख में हमने केवल उन्हीं कथनांशीको
और उसने संघकी बड़ी सेवायें की। उसके अन्तःपुरकी लिया है जो भगवान महावी, उनके धर्म, उनके अनुखियां बुद्धकी सेवामें लगी रहती थीं।
यायियों, उनके पितृवंश, उनकी जन्मभूमि और उनके संयुत्त निकायका एक अध्याय 'कौशनसंयुत्त'। जिसमें शिष्य राजागण श्रादिसे सम्बंधित है। बुद्ध और प्रसेनजितके धार्मिक प्रश्नोत्तर दिये हुए हैं। भविष्य वाणी
( श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित') होने वाला है रामराज्य, भारत वालो मङ्गल गावो ! पश्चिम में सुरज छिपा शाम,
अब रात नहीं, दिन पहिचानो, अब पूरब में उजियाली है ।
नेता सुभाष जिन्दा जानो ! चिर पराधीनता-तिमिर चीर;
धनवानो! दो धन-निधि बखेर, पल में पौ. फटने वाली है!
बल तोलो अपना बलवानो ! आजादी की रण-गङ्गा का यह पुण्य पर्व, वीरो न्हावो! दर्शन करने आजादी का, पीछे वालो आगे आवो ! मङ्गल गावो, मङ्गल गावो !
मङ्गल गावो, मङ्गक गावो !
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हमारी यह दुर्दशा क्यों ?
[सम्पादकीय ]
एक समय था जब यह भारतवर्ष स्व मन्त्र था. अन्य परन्तु ग्वेद ! अाज भारत वह भारत नहीं है। आज देशोंका गुरु बना हुश्रा था, सब प्रकारसे समृद्ध था और भारतवर्षका मुख समुज्ज्वल होने के स्थानमें मलिन तथा स्वर्गके पमान समझा जाता था। यहोपर हजारों वर्ष नीचा है ! श्राज वही भारत परतन्त्रताकी बेड़ियों में जकडा पहले से श्राकाशगामिनी विद्याके जानकार, दिव्य विमानों हुअा है और दूसरों का मुंह ताकता है ! श्राज भारतका द्वारा अाकाशमार्गको अवगाहन करने वाले, वैक्रियक श्रादि समस्त विज्ञान और वैभव स्वप्नका साम्राज्य दिखाई ऋद्विक धारक और अपने प्रात्मबलमे भूत, भविष्य पड़ता है ! और श्राज उसी भारतवर्ष में हमारे नारों तरफ तथा वर्तमान तीनों कात्रीका दाज प्रत्यक्ष जानने वाले प्रायः ऐस ही मनुष्योंकी मृष्टि नजर आती है जिनके चेहरे विद्यमान थे। भारत की कीनिजता दशों दिशाओं में व्याप्त पीले पड़ गये हैं. १२.१३ वर्षको अवस्थाही जिनके केश थी। उपका विज्ञान, कला कौशन और प्रारमज्ञान अन्य रूपा होने प्रारम्भ होगये हैं, जिनकी श्राख और गाल बैठ समस्त देशों के लिये अनुकरणीय था। उसमें जिधर देखो गये हैं; मुंहपर जिनके हवाई उडनी है; हटापर हरदम उधर प्राय: ऐसे ही मनुष्योंका सद्भाव पाया जाता था जो जिनके खुश्की रहती है, थोडासा बोलने पर मुग्व और कण्ठ जन्मपे ही दृढाग नीरोगी और बलान्य थे. स्वमावसे ही जिनका सूख जाता है। हाथ और पैगंक सलुश्राम जिनक जो तेजस्व), मनस्वी और पराक्रमी थे, रूप और लावर यमें अग्नि निकलती है जिनके पैरों में जान नहीं और घुटनों में जो सोंके देव-देवानाप्रोंये स्पर्धा करते थे. सर्वाङ्गसन्दर दम नहीं, जो लाठोके महारसे चलते है और ऐनकके और सुकुमारशरीर होनेपर भी वीर-रसमे जिनका अङ्ग अङ्ग पहारेसे देखते हैं, जिनके कभी पेट में दर्द है ना कभी सिरमें फडकना था, जिनकी वीरता, धीरता और दृढ प्रतिज्ञताकी
चक्कर: कभी जिनका कान भारी है तो कभी नाक, पालम्य देव भी प्रशंसा किया करते थे, जो कायरता भीरुता और जिनको दबाये रहता है। माहस जिनके पास नहीं फटकता, पालस्यको घृणाकी दृष्टिसे देखा करते थे. श्रारमबलमे वीरता जिनको स्वनमें भी दर्शन नहीं देती: जो स्वयं जिनका चेहरा दमकता था. उपाह जिनके रोम रोममे अपनी छायाप श्राप डरते हैं, जिनका तेज नष्ट होगया है: स्फुरायमान था, चिन्ताओंमें जो अपना प्रात्म-समर्पण जो इन्द्रियोंका विजय नहीं जानने, विषय-वनके लिये जो करना नहीं जानते थे. जन्मभरमं शायद ही कभी जिनको अत्यन्त प्रातुर रहते हैं परन्तु बहुत कुछ स्त्री प्रमंग करनेपर रोगका दर्शन होता हो, जो पदैव अपने धर्म-कर्ममें तत्पर भी संभाग-सुखका वास्तविक प्रानन्द जिनको प्राप्त नहीं पीर पापोंमे भयभीत थे, जिनको पद पदपर मचे माधु प्रों होता, प्रमेहम जिनका शरीर जर्जर है। श्वहारी दवाओं का मत्सत और पदुपदेश प्राप्य था, जो तनिका निमित्त की परीक्षा करते करते जिनका चित्त घबरा उठा है। हकीमों पाकर एकदम समस्त पापारिक प्रपोंको स्यागकर वनो- वद्यों और डाक्टरोंकी दवाई खाने खाते जिनका पेट वापको अपना लेते थे और प्रारमध्यानमें ऐसे तल्लीन हो- अस्पताल और औषधालय बन गया है, परन्तु फिर भी जाते थे कि अनेक उपसर्ग तथा परीषदोंके मानेपर भी जिनको चैन नहीं पड़ता, जिनके विचार शिथिल है. जो चलायमान नहीं होते थे, जो अपने हित-अहितका विचार अपने प्रारमाको नहीं पहचानने और अपना हित नहीं करनेमें चतुर तथा कन्ना-विज्ञान में प्रवीण थे और जो एक जानते; स्वार्थने जिनको अन्धा बना रखा है। परम्परक दूपरेका उपकार करते हुए परस्पर प्रीति-पूर्वक रहा करते थे। ईर्षा और द्वेषने जिनको पागल बना दिया है. विज्ञानसे
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अनेकान्त
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जिनको डर लगता है, पापमयी जिनकी प्रवृत्ति है और विकारते हैं, अपने पापको दोष देने लगते हैं और कोई चिन्तारू, बालाओंपे जिनका अन्त:करण दग्ध रहत है !!! कोई हतभाग्य तो यहां तक हता- हो बैठते हैं कि उनकी
इपीपे प्राजकन हमारे अधिकांश भारतवासियोंके मरण के सिवाय और कोई शरण ही नज़र नहीं पाता, हृष्यों में प्रायः इस प्रकारक प्रश्न उठा करते हैं और कभी और इस लिये वे अपना अपघात तक कर हारने हैं ! कभी अपने इष्ट मित्रादिकाय वे इस प्रकारका रोना भी बहुतसे मनुष्य विपरीत श्रद्धा पड़ कर बारहों महीने दवा रोया करते हैं कि--हमारी शारीरिक अवस्था ठीक क्यों खाने खाते अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर देते हैं ! उनके नहीं? हमारा दिल, दिमाग तथा जिलार (यकृत-Liver) मनोरथोंका पूरा होना तो दुर रहा, उनको प्रकट होनेतक ठोक काम क्यों नहीं करता? हमारे नेत्रोंकी ज्योति का अवसर नहीं मिलता ! वे उठ उठकर हृदयके हृदय में कम मन्द है? कानाप हमको कम क्यों मनाई देता है? ही विलीन हो जाते हैं ! मरते समय उन प्रसिद्ध मनोरथों ननिकमा परिश्रम करने या हमारे मिरमें चक्कर क्यों पाने की याद (स्मृति) उन्हें कैमा बेचैन करती होगी और अपने लगा? हम क्यों घुटनोपर हाथ धर कर उठने और मनुष्य जन्मके व्यर्थ खोजानेका उनको उस वक्त कितना बैठते हैं ? थाही मी दर चन्तने या जराही मेहनतका काम अफसोस नया पश्चात्ताप होगा, इसकी कल्पना महृदय कानेपर कम क्यों हकने लगते हैं ? हमारा उपर भोजनका पाठक स्वयं कर सकते हैं। पाक ठीक तौरसे क्यों नहीं करता ? क्यों हमेशा करून ऊपरके इस वर्णन एवं चित्रणपरम पाठक इतना तो
antineticn) और बद रजमी (अजीर्णना-Dys. सहज हीमें जान सकते हैं कि हमारे भाई भारतवामी pepsia) हमको मतानी रहना है? क्यों चूरन व गोली प्राज-कल कैमी कैमी दुःम्बावस्थानोंस घिरे हए है-प्रमाद बगैरह का फिकर हरदम हमारे पिर पर सवार रहता है ? और अज्ञानने उनको कैमा नष्ट किया है। वास्तवमें यदि हमारा हृदयस्थल व्यर्थ की चिन्ताओं और झूठे पंकल्प- विचार किया जाय तो इन समस्त दुःखों और दुर्दशाओंका विकल्पोंकी भूमि क्यों बना रहता? क्यों अनेक कारण शारीरिक निर्बलना है। निर्बल शरीरपर सहज ही प्रकार के गंगोंने हमारे शरीर में अड्डा जमा रकवा है ? हमारा में रोगोंका श्राक्रमण हो जाता है, निर्बलता समस्त रोगोंकी म्वामय ठीक क्यों नहीं हो पाना ? किसी कार्यका प्रारम्भ जड़ मानी गई है-एक कमजोरी हजार बीमारी की करते हुए हमें डर क्यों लगता है? कार्यका प्रारम्भ कर कहावत प्रसिद्ध है। जब हमारा शरीर कमजोर है तो देने पर भी हम क्यों निष्कारण उमं चटपे छोड बैठते हैं ? कदापि हमारे विचार दृढ नहीं हो सकते। जब हमारे इसमें हिम्मत, उत्साह और कार्य-पटुनाका संचार क्यों नहीं विचार दृढ़ नहीं होंगे तो हम कोई भी काम पूर्ण सफलता होता? क्यों हमारे हृदयाम धार्मिक विचारोंकी सृष्टि के साथ सम्पादन नहीं कर सकते, हमारा चित्त हर वक्त मन' जाती है ? हम विषयोंके दाम क्यों बनने जाते हैं? डोंवाडोल रहेगा तथा व्यर्थ की चिन्ताओंका नाट्यघर बना क्यों हम अपने पूर्वज पि मुनियों की तरह प्रारमध्यान रहेगा और इन व्यर्थकी चिन्ताओंका नतीजा यह होगा कि करने में समर्थ नहीं होने ? को अपने प्राचीन गौरवको हमारा कमजोर दिमाग और भी कमजोर होकर हमारी भलाये जाते है और क्यों हम स्वार्थम्यागी बनकर परोप- विचार शक्ति नष्ट हो जावेगी और तब हम हित-अहितका कारकी ओर दत्तचित्त नहीं होते ? इत्यादि ।
सम्यग्विचार करने की योग्यताके न रहने से यद्वा तद्वा प्रवृत्त परन्तु इन पब प्रश्नों अथवा 'हमारी यह दुर्दशा कर अपना सर्वनाश कर डालेंगे। को इस केवल एक ही प्रश्न का वास्तविक और संतोष- यही कारण है कि प्राचीन ऋषियोंने शारीरिक बलको जनक उत्तर जब उनको प्राप्त नहीं होता अथवा यों कहिये बहुत मुख्य माना है, उन्होंने लिखा है कि जिस ध्यानसे कि जब इन दुर्दशाओमे छुटकारा पानेका सम्यक् उपाय मुक्तिकी प्राप्ति होती है वह उत्तम ध्यान उसी मनुष्यके उन्हें मुझ नहीं पड़ता तो वे बहुत ही खेदखिम होते हो सकता है जिसका संहनन उत्तम हो-अर्थात जिसका है..कभी कभी वे निराश होकर अपने निःसार जीवनको शरीर स्वास तौरसे (निर्दिष्ट प्रकारसे) मजबूत और बज्रका
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किरण ३]
हमारी यह दुर्दशा क्यों ?
बना हुआ हो। और इसी लिये उन्होंने हम शारीरिक उमसे पीछे गेहूँ डाल देव, उमसे कुछ काल पश्चात कच्चे बलकी रक्षाके लिये मुख्यताम ब्रह्मचर्यका उपदेश दिया है चने डाल दे, और उपये भी कुछ
और सबसे पहला अर्थात गृहस्थाश्रमसे भी पूर्व का श्राश्रम समय बाद फिर कच्चे चावल था और कोई वस्नु डान ब्रह्मचर्याश्रम कायम किया है। साथ ही वैद्यकशास्त्रक दव और उनमें किसीका भी पाक पूरा होने का अवसर न नियमों का पालन करनेका आदेश भी दिया है, और इन धाने देकर दूसरी दुसरी धम्तु उपमें डालते रहें तो कदापि नियमों को इतना उपयोगी तथा जरूरी समझा है कि उन हम हांडीका पाक ठीक तथा कार्यकारी न होगा। परन्तु धार्मिक नियमोंमें गर्भित कर दिया है. जिससे मनुष्य उन्हें यह जानने हुए भी ग्व ने-पीने के प्रवपरोपर इसका कुछ धर्म और पुण्यका काम समझकर ही पालन करें। वास्तब ध्यान नहीं रखते--जो वस्तु जिस समय मिल जाती है में महर्षियोंका यह काम बड़ी ही दूरदर्शिता और बुद्धि ठमको उमी समय चट कर जाते हैं - इस बातका कुछ मत्तासे सम्बन्ध रखता है। वे अच्छी तरहम जानते थे कि विचार नहीं करते कि पहले का वाया हुमा भोजन हजम 'शरीरमायं खलु धर्ममाधनम' धर्मार्थ-काम मोक्षागां हो चुका है या कि नहीं? परिणाम जिमका यह होता है शरोरं माधनं मतम'-अर्थात धर्ममापनका ही नहीं कि खाया-पीया कुछ भी शरीर को नहीं लगता और अनेक किन्तु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष एस चारों ही पुरुषार्थों प्रकार के अजीर्णादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जो कभी कभी माधन का सबसे प्रथम और मुख्य कारण शरीर ही है। बड़ी भयंकरता धारण कर लेते हैं और प्राण ही लेकर शरोरके स्वस्थ और बलाढ्य हुए बिना किसी भी पुम्पार्थ छोड़ते हैं। अंग्रेज लोग प्रायः नियमपूर्वक ठीक और नियत का साधन नहीं बन सकता और पुरुषार्थ का मापन किय समयपर भोजन करते हैं, अपने उपरोकी प्राजाको बड़े बिना मनुष्य का जन्म बकरीक गले में लटकते हुए स्तनों श्रादरके माथ शिरोधार्य करते है और बड़े यन्नके माथ (यनों) के ममान निरर्थक है। ऐसी स्थितिमें जो मनुष्य म्वास्थ्य-रक्षाके नियमों का पालन करने है। यही वजह है अपने शीरकी रक्षाके लिये उक्त नियमोंका पालन करता कि उनको रोग बहुत कम मताने है और वे है वह वास्तव में धर्मका कार्य करता है और उसमे अवश्य प्राय: हट पुष्ट तथा बलिष्ट बने रहते हैं। हम लोगाने उसको पुण्य फल की प्राप्ति होती है। हम लोगोंने ऋषियों वैद्यकशास्त्र में निगान वाग्भट जैम वैद्यराजीक वायांकी के वाक्योंका महत्व नहीं समझा और न यह जाना कि अवज्ञा की-न उनको पढा और न नदनुमार भाचरण शरीरका बली निर्बली तथा स्वस्थ-अस्वस्थ होना प्रायः सब किया-और स्वास्थ्यरक्षा नियमामे सपेक्षा धाग्या की,
आहार-विहारपार निर्भर है और चाहार-विहार सम्बन्धी उमीका यह फल हुश्रा कि भारतवर्षमें निचलनाने अपना जितनी चर्या है वह सब प्रायः वैद्यशास्त्र के अधीन है।मी अड़ा जमा लिया और हम दिन पर दिन निर्बल नथा लिये हम अपने श्रापको सबसे पहले ब्रह्मचर्याश्रममें नहीं निस्तेज होकर किसी भी कार्य करने योग्य न रहे। रखते है-अर्थात एक खाप अवस्था तक ब्रह्मचर्यका पालन हमारी इम निर्बलताके संक्षा चार चार कारण कहे नहीं करते है--बल्कि हमका निमल करने के लिये यहां जा सकते है-पहला पैतृक निवन्तता अर्थान माता और नक उद्यत रहते हैं कि छोटीपी अवस्था में ही बच्चों का पिता शरीरका निबंल होना दूसरा, स्वास्थ्यरक्षाके नियमों विवाह कर देते हैं। यही कारण है कि हम योग्य थाहार. में उपेक्षा धारण करना. नीमरा, बाल्यावस्था भनेक खोटे विहार करना नहीं जानते, और यदि जागते भी हैं तो मामे करचे वीर्य स्खलन होना और चौथा, अच्छी प्रमाद या लापर्वाहीसे उसके अनुसार प्रवर्तन नहीं करते। खुराक (Food भोज्य) का न मिलना। इन कारणों में
उदाहरण के तौर पर, बहतपे मनुष्य इस बातको तो यद्यपि पहला कारणा, जिपकी पत्ति भी अन्य तीन जानते है कि यदि हम कोई हांडी चूल्हे पर चढ़ वें और कारणाम ही है, हमारे श्राधीन नहीं है-अर्थात माताउसमें योदेसे चावल पकने के लिये डाल देवं, और फिर पिनाकी शारीरिक निबल नामें उनकी भावी सन्तान कुछ थोडीसी देर के बाद उसमें और कच्चे चावल डाल देवं. भी फेर फार नहीं कर सकती, उनके शरीरमें इसका असर
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अनेकान्त
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अवश्य प्राता है, परन्तु इसमें हमारी प्रायः कुछ भी हानि तौरसे दृष्टि रखने की जरूरत है। बहुतमे बालक अपनी नहीं हो सकती यदि हम अन्य तीन कारणों को अपने पास अज्ञानता बचपनका अन्यन्त निन्दनीय स्वाटी प्रवृत्तियों फटकने देव और विधिपूर्वक अच्छे पौगिक पदार्थोंका (Self destroying habits) में फंसकर हमेशाके बराबर सेवन करते रहें। ऐसा करनेसे हमारी जन्मसे प्राप्त लिये अपना सर्वनाश कर घालते हैं और फिर सारी इम्र हुई निर्बलता सब नष्ट हो जावेगी और हम अागामीके हाथ मन मल कर पछताते हैं, इस लिये माता-पिताकी लिये अपनी मन्तानको इस प्रथम-कारण-जनित व्यर्थकी इस विषय में बाल कोपर कडी दृष्टि रहनी चाहिये और उन पीडामे सुरक्षित रखने में समर्थ हो सकेंगे।
को किसी न किसी प्रकारसे ऐसी शिक्षा देनेका प्रयत्न करना दुसरे कारण की बाबत ऊपर संकेत रूपमें बहुत कुछ चाहिये जिसम बालक इस प्रकारकी बोटी प्रवृत्तियों में पढ़ने कहा जा चुका है और यह विषय ऐसा है कि जिस पर न पावें । अधिकांश माता-पिता इस ओर बिल्कुल भी बहुन कुछ लिखा जा सकता है। परन्तु यहांपर संक्ष में पान नहीं देते और उनकी यह उपेक्षा विचारे हिताऽहित मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि स्वा. य-रक्षाके नियम ज्ञान शून्य बालकोंक लिये विषका काम देती है, जिसका हम लोगोंको दृढताके साथ पालन करने चाहिये और सर्व पारभार माता-पिताओंकी गर्दनपर होता है। अत: मातासाधारणको उन नियमों का ज्ञान कराने तथा उग नियमोंको पिताओं को इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिये और पालन करने की प्रेरणा करने के लिये वैद्यकशाम्रोंको मथनकर छोटी अवस्थामें तो बच्चों का विवाह भूल कर भी नहीं पाहार-विहार सम्बन्धी अत्यन्त मरल पुस्तके तयार करा करना चाहिये, बल्कि उनको कमसे कम २० वर्षकी श्रव. कर मर्वपाधारण में नि:स्वार्थभावसे उनका प्रचार करना स्था तक ब्रह्मचर्याश्रममें रखना चाहिये, और यही काब चाहये। यदि वाग्भटजीके निम्न श्लोकी छोटी बड़ी उनके निशाध्ययनका होना चाहिये। इसके पश्चात् यह उन टीका कराकर अथवा अन्य श्राहार-विहार तथा पूर्ण दिन- की इच्छा रही कि वे चाहे और विद्याध्ययनकर या विवाह चर्या मम्बन्धी पुस्तके तैय्यार कराकर स्कूली भरती कराई कराकर गृहस्थाश्रम स्वीकार करें। जावे तो उनमे बहुत बड़ा उपकार हो सकता है। वह चौथा कारगा सब। प्रधान है, अच्छी खुराकका रजोक यहहै
मिलना निर्बलताको उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करने वाला है। कालार्थ-कमां योगा हीन-मण्या-तिमातृका।। जब अच्छी खुराक अथवा उत्तम भोज्य पदार्थों की प्राप्ति ही सम्यग्यागश्न विज्ञ यो रोग्याऽऽग्यक-काराम ॥ नहीं होगी तो केवल स्वास्५५-रक्षाके नियमोंके जाननेसे ही
इसका सामान्य अर्थ इतना ही है कि-'कालका हीन क्या लाभ हो सकता है ? वैद्यक-शान हमें किसी वस्तुकी योग, मिथ्यायोग तथा अतियोग, अर्थ (पदार्थ) का हीन उपयोगिता-अनुपातिाको बतलाता है परन्तु किसी उपयोग, मिथ्यायोग तथा अनियोग, और कर्म (क्रियादि) का योगी पदार्थकी प्राप्ति करा देना उसका काम नहीं। यह हीनयोग, मिपायोग तथा प्रतियोग, ये सब रोगोंक हमारा काम है कि हम उसका प्रबन्ध करें। इस लिये प्रधान कारण है, और इन काल, अर्थ तथा कर्मका सम्यक स्वास्थ्यरक्षाके नियम भी उस वक्त तक पूरी तौरस नहीं योग प्रारोग्यका प्रधान कारण है। परन्तु काल, अर्थ और पल सकते जब तक कि हमारे लिये अच्छी खुराक मिलने कर्मका वह हीन ग मिथ्यायोग प्रतियोग और सम्यक- का प्रबन्ध न होवे । वाहवमें यदि विचार किया जाय तो योग क्या उसे टीकात्रों द्वारा सप्रमाण स्पष्ट करके बत- मनुष्यके शरीरका मरा खेल उसके भोजनपर निर्भर है। लाने की जरूरत है. जिससे तद्विषयक ज्ञान विकासको प्राप्त अच्छे और श्रेष्ठ भोजन मनुष्यका शरीर सुन्दर, नीरोगी होवे और जनताको संयोग-विरुद्धादिके रूप में अपनी मिथ्या. एवं बलाढ्य बनता है और मनुष्य के हृदयमें उत्तम विचारों चर्याका भान हो सके।
की सृष्टि होती है। विपरीत इसके, बुरे अथवा निकृष्ट तीसरा कारण यद्यपि दूसरे कारण की ही एक शाखा भोजनसे मनुष्यक शरीर रोगाकान्त एवं ति तय्यार है और उसीकी व्याख्यामें प्राता है, फिर भी उमपर वास होता है और उसमें प्राय: छोटे तथा हीन विचार ही उत्पन्न
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किरण ३ ]
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होते हैं। मच्छी खुराक वह वस्तु है कि उसके प्रभावसे भी नसीब नहीं होता! फिर कहिये यदि भारत में निर्बलता अन्य कारणोंसे उत्पस हुई निर्बलताका भी सहज हीमें अपना डेरा अथवा प्रधान जमाव तो और क्या ? संशोधन हो जाता है। इपीक प्रभावसे रांगोंके पाराम होने यहां पर एक बात और भी बल्लेखनीय और वह में भी बहुत कुछ पहायता मिलती है।
यह कि हम महगीक कारगा बहन में स्वार्थी अबवे हमलोग कुछ तो जन्मस ही निबल पैदा हुए कुछ मनुष्य घीमें चर्बी तथा कोकोतम श्रादि दूपरी बस्तु बचपनकी गलतकारियों-अयोग्य प्रवृत्तियों एवं स्वास्थ्य- मिलाने लगे है और दूध में पानी मिला कर अथवा दूधम्मे रक्षाक नियमों को न पालन करनेने हमको निर्यज बनाया, मक्खन निकालकर और कोई : वारकी पा डर उसमें
और जो कुछ रहा महा बल था भी वह अच्छी खुराकके न शामिल करके उसे अमली दूध के रूप में बेचने गे है. मिलने से समाप्तिको पहुंच गया ! हम लोगोंकी सबस जिमसे हमारा धर्म-कर्म और प्राचार वचार र हानेक पच्छी खुराक थी घी और दूध वही हमको प्राप्त नहीं माथ साप हमारे शरीर में अनेक प्रकार के नये ने अपना होती। इधर हम लोगोंने गोरस-प्राप्ति और उसके सेवनकी घर बना लिया है। मणि न घा-दूधको खाने वाले विद्याको भुला दिया, उधर धर्म कर्म-विहीन अथवा मान- शायद यह समझने होंगे कि हम घी दूध खाते हैं और वतासे रिक्त निर्दय मनुष्योन घा-दूधको मैशीन स्वरूप शायद उनको कभी कभी यह चिन्ता भी होता हो किधी. प्यारी गौओंका वध करना प्रारम्न कर दिया और प्रति- दूध खानेपर भी हम हृष्ट १e तथा नीगंगा नहीं रहने ? दिन अधिकसे अधिक संन्यामें गोवंशका विनाश होता परन्तु यह सब उनकी बड़ी भूत है। उनकी पमझना रहने घा-दूध इतना अकरा ( महँगा) हो गया कि मव चाहिये कि वे वास्तवमे घीदृध नहीं खान बलिक एक पाचारण के लिये उसकी प्राप्ति दुर्लभ होगई ! जो घी प्रकार की विषैली वस्तु खाते हैं की उनके स्वामको बिगाद माजस कोई०० वर्ष पहले रुपयेका पदी (५ मेर पका) कर शरीर में अनेक प्रकार के रोगों को पास करने वाली है। और ७५ वर्ष पहले तीन मेरस अधिक प्राता था वही धी एकमा कलकत्तेके किमी व्यापारीका बम्बाता पहा गया प्राज रूपयेका ३ या छटांक माता और फिर भी था और उससे मालूम हश्रा था कि उसने ५.. क अच्छा शुद्ध नहीं मिलता' ! इसी प्रकार जो दूध पहजे सांप च के लिये खरीद किये थे और उनकी चर्बी घमें पैसे या डेढ़ पैम सेर माया करता था वही द्ध प्रान पाठ मिनाई गई थी !! भाने, बारह पाने अथवा रुपये पर तक मिलता है और हा! हम लोगोंकि यह कितने दुर्भाग्यका बात है कि फिर भी उसके खालिस होनेकी कोई गारण्टी नहीं ! ऐपी जिस चीक नामसे ही हमको घृणा श्रानी थी जिमी हाजतमें पाठ करन स्वयं विचार सकते हैं कि कैसे कोई घी- के दर्शनमात्रय के (वमन) हो जानी था और निम नर्वीक दूर खा सकता है और कैस हम लोग पनप सकते हैं? स्पर्शनमा स्नान करने की जरूरत होती थी वही ची भारतवर्ष में आज कल शायद मैंने पीछे दो या तीन धीमें मिलकर हमारे पेट में पहुँच रहा है और पूजन हवनक मनुष्य ही ऐसे निकलेंगे जिनको धीमे चुपड़ा रोटी नसीब लिये पवित्र देवालयोम जा रही है। इतनेपर भी हम होती है, शेष मनुष्योंकी घो-दूधका दशन भी नहीं मिलना लोग हिन्न तथा जैनी कहलाने का दम भरत है, हमको
और अच्छी तरहसे घी द्धका खाना तो अच्छे अच्छोंको कुछ भी लाजा अथवा शर्म नहीं पानी और न हम इसका १ मेरे विद्यार्थी जीवन ( सन १८६६ श्रादि । म. सहारनपुर कोई पक्रिय प्रनीकार है। करने हैं !" जान पड़ता है हमने
बोर्डिङ्ग हाउस में रहते हुए मुझे केवल दो काय मामिकका कभी इस बात पर गम्भीरताक साथ विचार ही नहीं किया ची में ना जाता था और बद वजन में प्रायः माढ़े तीन सेर पक्का कि पहले इतना मम्ता और अच्छ! घी-दूध क्यों मिलता होता था। साथ ही इनना शुद्ध, साफ़ और मुगधिन होना था ? यदि हम विचार करते तो हमें यह मालूम हुए बिना था कि उस जैसे बीका अाज बाजार में दर्शन भी दुर्नभ न रहता कि पहले प्रायः सभी गृहस्थी लोग दो दो चार होगया है । यह भारतकी दशाका कितना उलट-फर है !! चार गोएँ रम्बते थे, बड़े प्रेम के साथ उनका पालन करने
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अनेकान्त
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थे. गौ-माता को अपना जीवनाधार समझते थे और दूध प्रबन्ध न किया और कुछ दिनों और यही हालत चलती न देने का रोगी हो जाने प्रादि किसी कारण पर उनको रही को याद रहे दो एक वर्ष में ही वह समय भी निकट कभ अपने से अलग नहीं करते थे, और यदि अजग करने मानायगा जब दवाई के लिये भी खालिस (शुद्ध) घी दूध की जरूरत ही या पदती थी तो किसी ऐसे भद्र मनुष्यको का मिलना दुर्लभ हो जायगा और हम लोगोंकी और भी समर्पण करने थे जो अपने प भी अधिक प्रेमकं माथ उनको वह दुर्दशा होगा कि जिममे हमारी त फ कोई प्रांख उठा रखने और उनकी प्रतिपालना करने वाला हो। परिणाम कर देखना भी पसन्द नहीं करेगा और हम सब प्रकारसे इसका यह होना था कि गौएँ कपाइयोंक हाथमें नहीं हीन तथा नाण्य समझे जावेंगे। यदि हम भारतवासी जाती थीं घर घरमें घी-दृद्ध की नदियां बहती थीं और सब सचमुच ही इन उपयुंक.) समस्त दुःखों भोर दुर्दशामोंसे नाग श्रानन्दक माथ अपना जीवन पतीत करते थे। तथा छुटकारा चाहते हैं और हममें अपने हित अहितका कुछ भी हृष्ट-पुट बने रहते थे। पान प्राजकन हम लोग मे प्रमादी विचार अवशेष है तो हमें उक्त चारों प्रकारकी निबलताको अथवा जैन्ट नमैन हो गये है कि हमने गौओंका पालन दूर करने का शीघ्रसे शीघ्र प्रयत्न करना चाहिये । ज्यों ही करना बिल्कुल छाब दिया हमें प्राणोंक प्राधा भूत गौत्रों हम इस निर्बजताको दूर करने में सफल होंगेश्यों ही हमें का रखना ही भार मालूम होता है और हम यह कहकर फिरसे इस भारतवर्षमें भीम, अर्जुन महावीर. बुद्ध, रामही अपना जी ठण्डा करलेते हैं कि "गाय न बच्छी नींद रावणादि जैसे वीर पुरुषों के दर्शन होने लगेंगे और हम सब श्राव अाही!" मीका यह फल है कि प्रतिदिन हजारों प्रकारसे अपने मनोरथों को सिद्ध करने में समर्थ हो सकेंगे। गौमांक गलेपर दरी फिरती है, घो दृध इदमे ज्यादह महेंगा * यह लेख अाजसे कोई ३६ वर्ष पहले लिग्वा गया था हो गया और हम लोग शरीरमे कमजोर, कमहिम्मत तथा
और देवबन्द जि. महारनपुर में प्रकट होने वाले 'काम
और देवचन्द जि. महारन अनेक प्रकार गगोंके शिकार बने रहते हैं !! ऐपीअवस्थामें
धेनु' नामक मामा हक पत्रक ३० सितम्बर सन् १६१० हमलोग कैप अपनी उन्ननि या अपने समाज और देशका
के अंक में प्रकाशित हुआ था। उस समय घीका भाव सुधार कर सकते हैं ? कदापि नहीं।
रुपयेका १० छटोंक और दद्धका तीन पाने मेरका था। श्रा: 5म भारतवामियों को गहुन शीघ्र इस ओर
श्राजकी स्थिति उमसे भी अधिक ग्बगब एवं भयंकर है, ध्यान देकर ऐपा प्रबन्ध करना चहिये कि जिममे बहुलता
और इसलिये ऐसे लेखकि मर्वत्र प्रचारकी बड़ी जरूरत
और दलिय से लेखोर fe केश उत्तम घी-दूध की प्राति होती रहे. और उसके लिये
है। यही मब मोच कर आज इसे कुछ आवश्यक परिमबप अच्छा उपाय यही है कि पय लोग पहलेकी तरह
वर्तनों तथा परिवर्धनोके साथ अनेकान्त-पाठकोंके सामने श्राने घगेपर दो दो चार चार गाएँ तथा भैंमें रक्षा करें
स्क्वा गया है। उस समय घी-धका ही गेना था, अाज और कदापि उनको किमी ऐसे अविश्वसनीय मनुष्यके तो देशमें अन्न तथा दूसरे ग्वाद्य पदार्थों का भी संकट हाथ न बे नियम उनके मारे जाने की संभावना होवे। उपस्थित है ! पिछले साल मनुष्यकृत काल के कारण माही. उनके लिये अच्छी चरागाहों का प्रबन्ध करें और
खाद्य सामग्री के न मिलने से बंगाल के करीब ३५ लाख गोवा-भूमि छबिना हर एक अपना कर्तव्य समझे, जिससे मनुष्य कालके गाल में चले गये !! और श्राज सारे चारे-घामका कोई कष्ट न रहे और वे प्रायः जगजमे ही। भारतपर उसी प्रकार के अकाल के काले बादल मँडग रहे अपना पेट भर कर घर पाया करें। इसके अलावा स्थान । हैं !!! ऐमा स्थितिमं हमें बहन ही सतर्क तथा सावधान म्यानपर। मुरव स्थत और विश्वम्त डायरी फार्मोंका। होना चाहिये और स्वावलम्बनको अपनाकर सामूहिक भी प्रबन्ध होना चाहिये, जिमम पाचन विहीनीको समय प्रयत्नद्वारा उम दोषपूर्ण परिस्थितिको ही बदल देना पर उचित दामोंमें यथेष्टरूपसे शुद्ध घी दूध मिल जाया करे। चाहिये जिमने हमारी यह सब दुर्दशा कर रक्खी है और यदि हमने शीघ्र ही इस भीर ध्यान न देकर कुछ भी करने को तत्पर है।
--सम्पादक
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कौनसा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ?
--(लेम्बक-यापं० दरबारीलाल जैन कोठिबा)
-me -- लोयपरागानी' में प्राचार्य श्रीयातरमने 'गडल- उल्लेख नहीं मिला। याद पृजपाद निपाके पूर्ववत है गिरि' में श्री अन्तिमकेवली अंदर की मिट्ट (मक ) दाना तो कराटनागरिक! मरमे पुराना नामोल्लेख उन्दीका बतलाया है । जैमा कि उसके निन्द वाक्यसे प्रकट हे- समझना चाहिए। कुण्टुन गिम्मि रिमी केवल गगाणीम मिरची मिद्ध।
अब देखना यह है कि जिम कुण्डलागारका नामोल्लेख -निलोयप० प्रा० ४, गाथा १४७६ !
पृज्य गद स्वामी कर रहे हैं वह कौनमा है और कहा है? इससने कुछ लोगों का विचार है कि यहा उर्म
क्या उसके दूसर भी नाम है ? मलायाणगानम उन पंच "कुण्डलांगार' का उल्लेख किया गया है जो मध्यपान्त के
पदाहियाका नाम और वम्यान दिये गये है जिन्हें पंच दमोह शहर के पास कुरालग:- एलपर है और जिसे
शैल' कहा जाता है और जो राजगिरि (गनगदी) के पास अाजकल अतिशयक्षेत्र कहा जा । है । अतएन उपयुक्त
है । वे इस प्रकार हैप्रमाणोल्लेव के आधार पर से अब उसे सिद्धक्षेत्र मानना और
च सम्मो पुवाए रिमिमलो दाहिणाए वेभागे। वो:पत कर देना नाहिए।
गाइपिदिदिमा विउलो दोगिया तिको गट्रिदायाग ।। गत बर्ष जब विद्वन्याम्पका कट नाम अधिवेशन हुआ
चावमारनछोहिणो बरुग्णागिगल मोदिविभागेस था, तब इमक निर्णय के लिये तीन विद्वानी की एक ममिति
ईमागगाए पंडू वग्गा सम्वे कुमांगपरियणा | बनाई गई थी। उसमें एक नाम मरा भी रखा गया था।
१-६६, ६७४ अतएव यह श्रावश्यक था कि इमका अनुमन्धान किया
दांशपगग में निम्नप्रकार उन पाचका उल्लेग्व हैजायक निलायपरगानीके उपयुक्त उल्लेग्व में काम कुण्डलागार में अन्तिम केवली श्री श्रीधर का निवारण हुश्रा ऋषिपूर्वा गिरिम्नत्र चतस्रः मनिरः । है ? और उमको मिद्धक्षेत्र बतलाया गया है ? अतः अाज
दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रम्य ककुभं भूषयत्यलम ।। हम अपने अनुसन्धान विचार और उसके निष्कर्षको वैभाग दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृ'तराश्रितः । विद्वानोंके सामने प्रस्तुत करते हैं ।
दक्षिणापर्गदमध्यं विपुलश्च नदाकृतिः । पाम जैनमादित्य में 'कुण्डल गरि' के नामसे उसके
मजचापाकृतिम्तिम्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । मिर्फ दो उल्लेख मिलत है । एक ता प्रति निलोय रागनी
शोभते पाण्डको वृत्तः पूर्वोत्तदिगन्तरे ।।
३-५३ से ३-५ तक। गत दी है और दुमग पूज्यपादको निर्वागभाक' के अन्नगत है जो इस प्रकार है
वीर मन स्वामीने भवला और नगधवलामें उन्हें निम्न द्रोणीमति प्रवरकुण्डल-मेढ़ के च,
प्रकार में उल्लेखित किया हैवंभारपवतनले वर्गमद्धकूटे । ऋषिगरिन्द्राशायां चतुरम्रो याम्यदिशि च वैभारः। मृष्याद्रिक च विपुलादि-बलाह के च, विपुलगिग्नैिऋत्यामुभो त्रिकोगी स्थिती नत्र ।। विन्ध्ये च पौदनपुरे वृषदीप के च। धनुगकाश्छिन्नो वारुगा-वायव्य-मोमदिक्ष ततः।
-दशभक्त्या० पृ. २३३। वृत्ताकृतिगशाने पागइम्म कुशागवृताः। इन दो उल्लेखों के अतिरिक्त हमें अभी तक और कोई ---धवला (म.) १०६२, जयधवला (मु०) पृ. ७३ ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
इन तीनो-चारों स्थानों में ऋषि गिरि (ऋष्याद्रिक ), कुण्डलनिरि भी कहा जाता था। अतएव उन्होंने पाण्डुवेभार. विपुलगिरि, बलाहक ( छिन्न ) और पाण्टुागरि गिरिक स्थानम कुण्डल गिरि नाम दिया है। (पागडुकांगरि) इन पाच पर्वतका ममुल्लेख किया गया है कोई आश्चर्य भी नहीं और न असम्भव है कि पाण्डु
और उनकी स्थिति (अवस्थान) बतलाया गया है । यहां गिरि की कुण्डलागरि कहा जाता हो; क्योंकि कुण्डलका यह ध्यान देने योग्य है कि नलाहकको छिन भी कहा आकार गोल होता है और प ण्डुगिरिको गोलाकार (वृनाजाता है। अत: एक पर्वत के ये दो नाम हैं और उल्लेख क्रनि) सभी प्राचार्योने बतलाया है । जैसाकि ऊपर के ग्रन्थकागने छिन्न अथवा वलाइक दोनो नामांसे किया है। उदागोमे प्रकट है। दृमर, पुगतनाचार्य पूज्यपादने पनि जिन्होंने 'बलाइक' नाम दिया है उन्होंने छिन्न' नाम नहीं पहाडकि अन्तर्गत पाण्ट्रागारका उल्लेग्य नहीं कियादिया और जिमीने 'छिन्न' नाम दिया है उन्होंने 'बलाहक' (जिमका कि उल्लेख करना लाजिमी था क्योंकि वह पाच नाम नहीं दिया और अवस्थान मभीने एकमा बतलाया। मिद्धक्षेत्र शैलीम पग्गिागान है।) किन्तु कुण्डलांग रिका तथा पंच पदाोक माथ उसकी गिनती की है । अतः उल्लेख किया है। तीसरे, एक पर्वत के एकसे श्राधक बलादक और छिन्न ये दोनी पर्यायवाची नाम हैं। इसी तरह नाम देखे जाते है । जैमे बलाहक और छिन्न, ऋषिगर ऋष्यांद्रक और ऋपिगि ये भी पर्याय नाम है।
और ऋष्यद्रिक । अत: इम मंतिम अनुसंधानपरसे यही अब इधर ध्यान दें कि जिन वीरसेन और जिनमेन निष्कर्ष निकलता है कि मादित्यमें पाण्डुगि र ओर कुण्डल स्वामीने पाण्डकागिरिका नामोल्लेख किया है उन्होंने कर गिरि एक हे---पृथक पृषक नहीं--एक ही पर्वत के दो नाम कुण्डलगिरिका उल्लेख नहीं किया। इस प्रकार पुऊपपादने
है। ऐमी वस्तुस्थिति में यह कहना युक्त प्रतीत होता है कि जहा सभा निर्वाण क्षेत्राको गिनाते हुए कुण्डलागार का नाम यातवृषभने पाए
शाहलाकार यतिवृषभने पाण्टुगिरिको ह। कुण्डलगिरि मिद्ध क्षेत्र बतलाया दिया है फिर उन्होंने पारागारका लेख
एवं उल्लेखित किया है। और वह राजगृहीके शाम पंच हो. यनिवृपभने अवश्य पारगर और कंडलगिरिदामनामी पहाड़कि अन्तर्गत हे । इमलिये मध्यप्रान्त के दमोह शहर के का उल्लेख किया है । ले कन दो विभिन्न स्थानाम किया है। पासका कुडलागार या कुण्डपुर ।' पाण्डुगिरिकानी पच्चि पहाडीक माथ प्रथम अधिकार और उमक शास्त्राम मिस क्षेत्र कहा है जिसे कहा गया है वह कुण्डलगिरिका चौथ अधिकारम किया है। अतए। उन्हें गजगृहाक पामका पाण्डागार-कुण्डलागार
गांगरिसभिन्न कुण्डल गरि अभीष्ट हो, एमा नहीं कहा श्रतः मेरे बिनार और खान में दमोहका कुण्डलगिरि जा सकता है। किन्तु ऐमा मान पड़ता है कि यतिवृषभने मिद्धक्षेत्र घोपिन करने या बनानेकी चेष्टा की जायगी तो एक पूज्यपाद की निर्वाण भक्ति देखी होगी और उसमें पूज्यपाद अनिवार्य भ्रान्त परम्पग उसी प्रकार की चल उठेगा, जैस के द्वारा पाएगिरि के लिये नामान्तर रूपसे प्रयुक्त कुण्डल- कि वनगान कर सिदी गिर और मोनागि- की चल रही है। गिरिको पाकर इन्दौने कुण्डल गिरिका भी नामोल्लेख किया में इन दोनों को भी वनमा मद्धक्षेत्र मानने को तैयार नही हूँ। है। प्रतीत होता है कि पूज्यपाद के समयम पाण्डुगिरिको नांगर,
ता. ३-४-१६४६
* सूचना अनेकान्त जैनममाजका कितना महत्वपूर्ण एवं आवश्यकपत्र है यह उसके पाठकों में छिपा हुआ नहीं है--उमका प्रत्येक अंक संग्रहकी वस्तु हे. उसमें खोजपूर्ण ऐतिहामिक मामग्रीका अच्छा संकलन रहता है। सर यदुनाथ सरकार भादिके महत्वपूर्ण पत्रोंमे पाठक उमकी महनाका अन्दाज लगा सकते हैं। ऐसे पत्र की वर्ष ४-५-६-७ की कुछ पुरानी फाइले अविशिष्ट है जिन्हें मंगाना हवि र्शवता करें अन्यथा फिर उनका मिलना कठिन हो जायगा।
मैनेजर-अनेकान्त
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भगवान महावीर (ले०-श्री पं० परमानन्द जैन शास्त्र)
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लिच्छवि उपवंशीय क्षत्री थे। यह वंश उस समय वैशालीको स्थिति
अत्यन्त प्रतिष्ठित समझा जाता था। यह जाति अपनी
वीरता और पराक्रमके लिये प्रसिद्ध थी इनका संगठन, विहार प्रान्तके मुजफ्फुर जिलेकी गण्डिका नदीके
रीति-रिवाज, धर्म और शासन प्रणाली सभी उत्तम थे ममीपस्थित वसाढ ही प्राचीन वैशाली है। यह राजा विशाल
इनका शरीर अत्यन्त कमनीय, मनोहर और श्रोत एवं की राजधानी थी, इसीसे इसका नाम वैशाली हुश्रा जान
तेज सम्पन्न था। यह विभिन्न रंगोंके वस्त्रोंका उपयोग पड़ता है । यह नगरी कोल्लाग आदि समीपस्थ प्रान्तों करते थे। और वसुकुण्ड तथा वाणियग्राम श्रादि उपशास्त्रा नगरोंसे
वजीगणतंत्रमें उस समय अनेक जातियां सम्मिलित विभूषित थी। प्राचीन वैशालीका वैभव अपूर्व था, वह थी और जिनकी संख्या संभवतः पाठ या नौ थी। इनमें वह धनवान्यादिसे समृद्ध और उत्तन महलों एवं मका.
परस्पर बड़ा ही सौहार्द और वात्सल्य था यह एक नातोंसे भलंकृत थी। ईपाको छठवीं शताब्दीसे पूर्व
दूसरेके सुख दुखमें बराबर काम पाते थे । वैशालीके वैशाली तीन भागों में विभक्त थी और जिन्हें वसा
शासक राजा चेटकके राज्यकाल में वैशाली अपनी प्रतिष्ठा (वैशाजी) कुण्डग्राम और तणियाग्राम कहते थे। इनमें
__एवं वैभवकी पराकाष्ठाको पहुंच चुकी थी। काशी कौशल उस समय ब्राह्मण क्षत्री और वैश्य जातिके लोग ही और विदेह (वैशाली) आदि अनेक देशोंकी राज्य व्यवस्था अधिकांशत: निवास करते थे। यह वजीगण तन्त्रकी उस समय गणतन्त्र (प्रजातन्त्र) के प्राधीन थी। इस राजधानी थी, और वजीदेशx की शामक जातिका नाम व्यवस्थास वहांकी प्रना अत्यन्त सुखी और समृद्ध थी। लिच्छवि था। यद्यपि लिच्छवि वंशके उदय अभ्युदयका जनतामें आदर सत्कार धर्म कर्म और श्राचार-विचार कोई प्रामाणिक इतिवृत्त उपलब्ध नहीं है, फिर भी यह आदिकी सभी वृतियां समादरणीय थी। राजा चेटक' * वैशालीके नामके वारेमें पालीग्रन्याम लिखा है कि की पत्नीका नाम सुभद्रा था, इसकी बात पुत्रियां थीं, दीवारोको तीन वार हटाकर उन्हें विशाल करना पड़ा १ मुनि कल्याण विजयजीने श्रमण भगवान महावीर के पृ. ५ था, इसीलिये इसका नाम वैशाली पड़ा।
में चेटकको हैहयवंश' का गजा लिखा हे | किन्तु -पुरातत्व निबंधावली पृ० १४
दिगम्बरीय हरिवंशपुराण के अनुमा वि देवदेशक क्षत्रियोको । देखो, मुजाफरपुर जिलेका गजटियर सन् १९०७ और
'इक्ष्वाकुवंशी' सूचित किया है। जिससे राजा चेटक भा मन् १६०२ का रायलएशियाटिक सोसाइटीका जनरल ।
इक्ष्वाकवंशी मालूम होते हैं। देखा हरि० २, ४ पृ. २२ ५ बजविदे (वज्जाभिदे) देशे विशाली नगरी नृपः। २ भद्रभावा मुभद्राऽस्य बभूव वनितोत्तमा।
--इरिपेण कथाकोष ५५, १६५ पृ०८६ अस्या हितरा सप्त बभूबू रूपराजिताः। वजनादेशमें आजकल के चम्पारन और मुजफ्फरपुर के तन्मध्ये प्रथमा प्रोक्ता परमा प्रियकारिणी। निले, दरभंगाका अधिकांश भाग, तथा छपरा जिलेके दुिनीया सुप्रभा जेया तृतीया च प्रभावती। मिर्जापुर, परमा, सोनपुरके थाने एवं कुछ और भाग प्रियावती चतुर्थी स्यात् सुज्येष्टा पंचमी पगा। सम्मिलित थे।
पठी चलना दिव्या सप्तमी चन्दना मना ।। --देखो, ग• कृत पुरातत्व नि० पृ. १२ का फुटनोट
-दरिषेण कथा-कोष, ५५, १६७ मे १६६
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११८
अनेकान्त
[वर्ष
जो रूप, गुण, कला और विद्या तथा यौवन और गृहस्थो- म. वर्धमानका जन्म जनताके लिये बदा ही सुखचित सभी आवश्यक उत्तम गुणोंमे विभूषित थीं। उनसे प्रद दुमा । उनके जन्म समय संसारके सभी जीवोंको प्रथम पुत्री प्रियकारिणी विदेह (वैशाली या वसाह) क्षणिक शान्तिका अनुभव हुमा था। भनवान वर्द्धमानकी देशमें अवस्थित कुंजपुर या क्षत्रिय कुण्डपुरके राजा बाल्यकालीन दो खास घटनाओं के कारण वे बादको महावीर मिदार्थ' को विधाही गई थी, जो उस समयमें वैशालीके और मन्मतिनामसे ख्यापित हुए ।५ भगवान बर्द्धमान मांडलिक राजाक रूपमें प्रसिद्ध थे। क्षत्रिय कुण्डपुरमें उस बाल्यकाकसे ही प्रतिभासम्पन्न पराक्रमी, वीर, निर्भय, ममय ज्ञानृबन्शी क्षत्रियोंके पांचसौ घर थे इस कारण धीर और मति-श्रुत, अवधिरूप तीन ज्ञानरूपी नेत्रोंसे उप श्वेताम्बीय ग्रन्थों में 'वत्तिय कुडपुर' के नामसे संयुक्त थे। उनका शरीर अत्यन्त सुंदर और मनमोहक उल्लेखित किया गया है। यह नगर उस समय खूब था, उनकी मौम्य प्राकृति देखते ही बनती थी और उनका समृर था, भोग और उपभोगकी सभी चीजोंपे परिपूर्ण मधुर संभापण प्रकृतित: भद्र और लोक हितकारी था। था। राजा सिद्धार्थ क्षत्री थे. इनका वंश नात णात या उनके तेज पुंजसे वैशाली और कुण्डपुरकी शोभा दुगुणित ज्ञान वंश कहलाता था।
होगई थी और वह इन्द्र पुरीसे किसी बात में कम नहीं थी। भगवान बर्द्धमानका जन्म और वाल्य जीवन
भगवान महावीरका जीव अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर भगवान महावीरका वैराग्य विमानमे चल कर प्राषाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन जबकि हस्त और उत्तरानक्षत्रोंक मध्य में चन्द्रमा अवस्थित था, रानी
__ भगवान महावीरका बाल्यजीवन उत्तरोत्तर युवावस्था में प्रिय कारिणीके गर्भ में पाया । नवमास भाठ दिन अधिक
परिणत होगया राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीने व्यतीत होनेपर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको सौम्य ग्रहों और
महावीरको वैवाहिक सम्बन्ध करानेके लिये प्रेरित किया, शुभ लग्नमें जबकि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुणी नक्षत्रपर
क्योंक राजा जितशत्र जिसके माथ कुमार वर्द्धमानके स्थित था, भगवान महावीरका जन्म हुअा।' इन्द्रने श्री
पिता सिद्धार्थकी छोटी बहिन विवाही गई थी। अपनी वृद्धि के कारया भगवानका नाम वर्धमान सखा।
पुत्री यशोदाके साथ कुमारवर्द्धमानका विवाह-म्बन्ध
करना चाहता था । परन्तु कुमारवर्द्धमानने विवाह-संबंध परन्तु श्वेताम्बरीय ग्रंथामें इनके नामोमें कुछ भेदपाया जाता है और वहां त्रिशला प्रियकारिणीको गजा चैमितपक्षफाल्गनि शशांकयोगे दिने त्रयोदश्यां । चटककी बहन बतलाया जाता है।
जज्ञे स्वोच्चस्थषु गृहेषु सौम्येषु शुभलग्ने ।। ५ ॥ सिद्धार्थ नपनि तनयो भारतवास्य विदेह कुंडपुरे ।
-निर्वाणभक्तौ पूज्यपाद : देव्या प्रियकारिण्या............ निर्वाणभक्तौ पूज्यपादः
यहां यह प्रकट करदेना भी अनुचित न होगा कि
श्वेताम्बरीय कल्पसूत्र और श्रावश्यक भाष्यमें ८२ दिन २ देग्यो श्रमगा भगवान महावीर पृ०५
बाद देवनन्दा ब्राह्मणीके गर्भका बालक त्रिशलाके गर्भ में ३ श्रापाद सुमित पाठ या हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते शशनि ।
और त्रिशला (प्रियकारिणी) के गर्भका बालक देवनन्दा अायातः स्वर्गसुग्वं मक्ता पयोत्तराधीशः ।।
ब्राह्मणीके गर्भ में इन्द्रकी अाज्ञा से देवों द्वारा परवर्तित --निर्वाणभक्तौ पूज्यपादः कराये जानेका क्या कारण है ? नियुक्तिकार भद्रबाहने ४ नवमामवतीतः स जिनोऽदिनेषु च ।
इस कल्पनाका आवश्यक नियुक्ति में कोई उल्लेग्व नहीं उत्तरा फाल्गुनीष्विंदी वर्तमानेऽननि प्रभुः ।।
किया। अत: बहूत संभव है कि उसके बाद वाहाणोंको --हरिवंशपुगण २, २५ नीचा दिखाने के लिये इस कल्पनाका उद्गम हुअा हो।
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किरण ३]
भगवान महावीर
कराने के लिये सर्वथा इंकार कर दिया, क्योंकि वर्द्धमान ही वैर ग्यशील थे । उनका अन्त:करण प्रशान्त और अपना आत्मविकास करते हुए जगतका कल्याण करना दयास भरपूर था, वे दीन दुखियोंके दुःखोंका अन्त करना चाहते थे। इसी कारण उन्हें सांपरिक भोग और उपभोग चाहते थे। अब उनकी अवस्था भी तीस वर्षकी होगई थी अरुचिकर प्रतीत होते थे। वे राज्य वैभव में पले और रह अत: प्रारमोत्कर्षकी भावना निरन्तर उदित होरही थी जो रहे थे किन्तु वह जल में कमल वत रहते हुए उसे एक अन्तिम ध्येयकी साधक ही नहीं किन्तु उसके मूतरूप काराग्रह ही ममम रहे थे। उनका अन्त:करण मांगारिक होनेका का प्रतीक था। अत: भगवान महावीरने द्वादश भोगाकांक्षाओंसे विरत और लोक कल्याण की भावनास
भावनाओंका चिन्तन करते हए संसारको भनिन्य विं श्रोत प्रोत था। अत: विवाह सम्बन्धकी चर्चा होने पर उसे अशरणादिरूप अनुभव किया और राज्य-विभूतिको छोर अस्वीकार करना समुचित हीथा। कुमार बर्द्धमान स्वभावतः कर जिन दीक्षा लेनेका बढ़ संकल्प किया। उनकीबोकोप२ श्वेतान्बरों में भगवान महावारक विवाह-सम्वन्धमें दो पकारी इस भावनाका लौकाग्निक देवोंने अभिनन्दन किया मान्यता है विवादित और अविवाहिता कलामत्र और और भगवान महावीरने ज्ञातखण्ड' नामक वनमें मंशिर अावश्यक भाष्य की विवाहित मान्यता है। और आवश्यक
कृष्णा दशमीके दिन जिन दीक्षा ग्रहण की बहुमूल्य नियुक्तिकार भद्रबाहु की अविवाहित मान्यता है, देखो,
वस्त्राभूषणोंको उतारकर फेंक दिया और पंन मुट्टियोस श्वेताम्बरोम भी भगवान महावीरक अविवाहित होने की अपने केशीका भी लोचकर डाला। म तरह भगवान मान्यता' शीर्षक मेरा लेग्व अनकान्त वप ४ किरण महावीरने पर्व पोरसे निर्ममत्व एवं निस्पृह कर दिगम्बर ११-१२- पृ० ५७६
मुद्रा धारण की। श्रावश्यक नियुक्तिकी गामायाग विसया जे भुना तपश्चर्या और केवलज्ञान कुमाररहिएदि' वाक्यमें कुमार नार्थकगको छोड़कर शेष भगवान महावीरने अपने नपस्वी जीवनमें अनशनादि तीर्थकरोंका भोग भोगना सूचित किया है । अतः नियुक्ति- द्वादश प्रकारके दुष्कर एवं दुर्धरतपों का अनुष्ठान किया। कारकी यह मान्यता दिगम्बर परम्परा के समान दी है। घोर एवं हिंस्त्रज तुओंप भरी हुई अटवी में बिहार किया परन्तु कल्पसूत्र गत समरवार गजाकी पत्री यशोदामे तथा डांस मच्छर, शीत उणा और वर्षादि जन्म घोर विवाद-सम्बन्ध होने और उससे प्रियदर्शना नामकी लड़की कटोको महा। ग्राम, खेट कर्वट और बन मटम्ब दि अनेक के उत्पन्न होने और उसका विवाद नामालिके माग कग्ने स्थानों पे मौनपूर्वक उग्रोग्र तपश्चरणीका अनुष्ठान एवं की मान्यता के उद्गम् का मूलाधार क्या है ? यह कुछ १ श्वेताम्बर्गय ग्रन्थों में दीक्षा लेने के बाद इन्द्र के दाग मालूम नहीं होता, और भगवान महावार के दीक्षित होनेसे दिये हुए 'देवदूष्ण' वनके १३ महीने तक बायें कन्धेर पूर्व एवं पश्चात् यशोदाके शेष जीवनका अथवा उसकी पड़े रहने और उसमें से प्राधा फाडकर एक गरीब ब्राह्मगा मृत्यु आदिके सम्बन्धमे कोई उल्लेग्न श्वे. मादित्यम को देने का उल्लेख पाया जाता है। उपलब्ध नहीं होता है जिससे यह कल्पना भी निष्प्राण २ श्वे०मम्प्रदायमें आमतौरपर तीर्थकरका मानपूर्वक तपश्चरण एघ निगधार जान पड़ती है कि यशोदा अल्पजीवी थी का विधान नहीं है। किन्तु उनके यहां जहां तदा छद्मस्थ
और वह भगवान महावीर के, दीक्षित होने से पूर्व । अवम्या में उपदेशादि देनेका उल्लेख पाया जाता है। दिवंगत होचुकी थी। अत: उसकी मृत्यु के बाद भगवान परन्तु श्राचागंग सूत्रके टीकाकार शालाने माधिक बारद महावीरके ब्रह्मचारी रद्दनेसे वे ब्रह्मचारी रूपमें प्रसिद्ध दो वर्ष तक महावीर के मानपूर्वक नमश्रा का विधान किया गए थे; क्योकि श्रावश्यक नियुक्तिका २२२ की गाथामें है वे वाक्य इस प्रकार है-नानाभवाभिग्रहापेती प्रयुक्त 'कुमारवातम्मि पव्वइया' वा में भगवान महावीर घोरानपरीषदीपमानांध महमानी महामत्वतया म्लेच्छानके कुमार अवस्था में दीक्षित होने से इस प्रकार की मन 'युपशमं नयत् द्वादशवर्षाणि माधिकानि क्षमस्थो मौनगढन्त एवं भ्रामक कल्पनाअोका काई मूल्य नहीं रहता। व्रती तपश्चचार ।"-अाचागंगवृत्ति पृ. २७३।
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अनेकान्त
[ वर्षे ८
प्राचरण करते हुए बारह वर्षका समय व्यतीत होगया, साथ दिन्य देशनाका पान कर रहे थे। इससे पाठक और वे घोर तपोंके साधन द्वारा चित्त शुद्ध करते हए भगवान महावीरके शामनकी महत्ताका अनुमान कर जम्मिका ग्रामके समीप भाये और वहां भूजुकूला नदीके सकते हैं भगवान महावीरने ३० वर्ष तक काशी कौशल किनारे शाल वृत्तके नीचे वैशाख शुक्ला दशमीको तीसरे पांगल, मगध, बिहार और मथुरा भादि विविध देशोंमें प्रहरके समय जब वे एक शिलापर षष्ठोपवाससे युक्त विहारकर जीको कल्याणकारी उपदेश किया। उनकी होकर चपक श्रेणीपर अरूढ थे। उस समय चन्द्रमा अन्ध-श्रद्धाको स्टार उमे ममीधीन किया। और दया हस्तोत्तर नक्षत्रके मध्यमें स्थित था, भगवान महावी ने दम, त्याग तथा समाधिका स्वरूप बखाते हुए यज्ञा.द ध्यानरूपी अग्निके द्वारा ज्ञानावरणादि धाति कम मजको काण्डोंमें होने वाली भारी हिसाको विनष्ट किया और इस दग्ध किया और स्वाभाविक प्रारमगुणों का पूर्ण विकास तरह बिजविलाट करते हुए पशुकुजको अभयदान मिला। किया।' कर्मकलंक विनाशये मंमारके सभी पदार्थ उनके जनसमूहको अपनी भूले मालूम हुई और वे सत्पथके ज्ञान में प्रतिमा पत होने लगे । और भगवान महावीर अनुगामी हुए । शूद्रों और स्त्रियोंको अपनी योग्यतानुसार वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदशी होगए । इस तरह मारमाधनका अधिकार मिला। और इस तरह भगवान भगवान महावीर अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए। महावीरने अपने विहार एवं उपदेश द्वारा जगतका कल्याण उनके समक्ष जाति विरोधी जीव भी अपना वैर छोद देते करते हुए कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिके अन्तिम थे । उनकी अहिंसा विश्वशान्ति और स्वतंत्रताका प्रतीक प्रहरमें पावासे निर्वाण प्राप्त किया। है और इसीलिये प्राचार्य समन्तभदने उसे परमब्रह्म कहा वीरशासन और हमारा कर्तव्य भगवान महावीरका उपदेश और विद्या भगवान महावीरके शापन सिद्धान्त बड़े ही गम्भीर
और समुदार हैं वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ केवल ज्ञान होने के पश्चात् उनकी दिव्यवाणीको झेलने
वृत्तिकी उच्चभावनाघोंस श्रोत-प्रोत है क्योंकि उनका या अवधारण करने योग्य कोई गणधर नहीं था इस
मूलरूप अहिमा है। वीरशासनमें अहिंसाकी बड़ी सुनर कारण यामठ दिन तक भगवान मौन पूर्वक रहे, पश्चात्
परिभाषाएँ बनाई गई है जो अन्यत्र नहीं मिलती। उनमें राजगृह के विपुलगिरिपर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको अभि
दर्जे व दर्जे अहिंसाक झमिक विकासका मौलिक रूप जितनक्षत्रमें भगवान महावीरके शापनतीर्थ की धारा
विद्यमान हैं जिनमें अहिंसाको जीवन में उतारनेका बड़ा ही प्रवाहित हुई। उनकी सभाका नाम समवसरण था और
सरल तरीका बतलाया गया है। साथ ही उसकी महत्ता उममें देव दानव, मनुष्य, पशु-पक्षी वगैरह सभोको
पवं उसके व्यवहार्यरूपका मनोरम कयन विदित है जिस पमुचित स्थान मिला, सभी मनुष्य निर्मच बिना किसी
पर चलने से जीवात्मा परम्मा बन सकता है अहिंसा भेदभावके एक स्थानपर बैठकर धर्मोपदेश सुन रहे थे।
भारमबज की वृद्धि होती है क रता और कायरताका यिनाश मनुध्यों की तो बात क्या उस समय सिंह, हिरण, सर्प,
होता है। मानवताके माथ साथ नैतिकरित्रमें प्रतिष्ठा नकुल और चूहा विल्ली आदि तिपंचों में भी कोई वैर
और बलका संचार होता है और मानब सत्यताकी और विरोध दृष्टिगोचर न होता था वे सब बड़ी ही शान्तिके
अग्रसर होने लगता है, स्वार्थवासना और विषयलोलुपता धवलामें भी भगवान महावीरत तपश्चरणका काल १२ जैसी घृणित भावना फिर उसके मागेमें बाधक नहीं हो वर्ष पांच मास १५ दिन बतलाया है ।
पाती। विश्वविभूनि महात्मा गांधी महावीरकी अहिंसा १ देखो, निर्वाण भक्ति पूज्यपादकृत १० से १२ तक । अहिंसा और सत्य पाशिक पालकमें अाज विद्यमान हैं। २ पातंजलि योगसूत्र ३५. ३ वृहत्स्वयंभू०-११६ अत्य और अहिंसा । एक देश निष्ठासे ही वे विश्वक ३ हरिवंश पुगगा २-६१ निलोय १० १-६६, ७०, ध. महात्मा बन सके है और इस समय समूचे मारतका प्रखण्ड,०वर्ष २ कि.८
(शेष पृष्ठ ४३ पर)
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आधुनिक जैनसाहित्य में प्रगति क्योंकर हो ?
( लेखक - मुनि कान्तिसागर, साहित्यालङ्कार )
प्राचीन जैन साहित्यवर भारतीयोंको, खासकर जैनों की बड़ा ही गाँव है । सचमुच में होना ही चाहये, पर प्राचीन साहित्यपर इम तो गौरव मनात दी हैं, लेकिन श्रागामी सन्तान किसपर गौरव करेंगी, जबकि उनके लिये वर्तमान साहित्य न होगा | अतः याधुनिक प्रगतिशील युग में नूतन जैन साहित्य निर्माण करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति होना अत्यन्त आवश्यक दो नहीं, प्रत्युत अनिवार्य है। वर्तमान में बाह्य साधनों तथा विचारोंकी कोई कमी नहीं और न विद्वानोंकी कमी है फिर भी न मालूम इस ओर जैन विद्वानोंका ध्यान आकृष्ट क्यों नहीं होना । यद्यपि मेरा मन्तव्य नहीं है कि सभी सज्जन इस कार्यमें व्यस्त रहें और प्राचीन साहित्योद्वार कार्य बन्द कर दिया जाय। मेरी राय में तो दोनों कार्य क्या प्राचीन, क्या अर्वाचीन तेजीक साथ दनिचाहिए, और यह इतर समाजबालीको मालूम न होने देना चाहिये कि जैन लोगोका एक मात्र प्राचीन है ही माहित्य - श्राधुनिक तो है ही नहीं। अर्थात् दो समान प्रगति दी। फिलहाल में हम बहुत से ऐस विषय देखते हैं जाधुनिक जैन साहित्य में नहीं पाये जाते । जैमाक सम्पूर्ण जैनइतिहास, जैनभूगोल, जैनमादित्य, सर्वदेशीय एवं प्रान्तीय, जैन कला आदि । उपरोक्त विषयों नतन साहित्यका दोना श्राधुनिक जैन समाज के लिये अत्यन्त आवश्यक है । या स्पष्ट शब्दों में यो कहना चाहिये कि उक्त साधन जैन धर्मोन्नति महत्वपूर्ण सोपान है- जैनंतरोको जैनधर्मका परिचय करानेके लिये प्रकाशका काम दे सकते हैं ।
जैन साहित्य में सर्वविषय के साधन दांत हुए ऐसे विषयों में प्रगति न करना बड़ी भारी भूल है। हालांकि श्राधुनिक जैन साहित्य
रूप में उपलब्ध होता है पर अपेक्षाकृत है। देखिये, हिन्दी साहित्यकी ५० वर्ष पूर्ण कितनी दयनीय हालत थी. अब आज उम हिंदी वाङ्गमय
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संसाररत करनेसे स्पष्ट विदित होता है कि वर्तमान हिन्दी साहित्यने अभूतपूर्व उन्नति कर भारतीय साहित्य में उच्च स्थान प्राप्त किया है, जिसमें कई कई तो ऐसे विषय है जो प्राचीन साहित्य में दृष्टिगोचर तक नहीं होते है फिर भी हिन्दीके सुयोग्य विद्वानांने अपनी मातृभाषाका भंडार परिपूर्ण किया है और देशके योग्य श्रात्मगौरव में महत्वपूर्ण वृद्धि की है। जैविद्वानोंके लिये हिन्दी साहित्यिकाके प्रति स्पर्धा होनी चाहिये ।
aatee एक प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि हरएक देशमें इतनी साहित्यिक वृद्धि क्यों होता है ? अर्थात् साहित्य उत्तरोत्तर वृद्धिको क्यों प्राप्त होता है ? इस प्रश्नको सोचने के बाद मस्तिष्क यहां उत्तर देता है कि प्रत्येक देशकी साहित्यिक उन्नति अवनति एकमात्र उस देश के आलोचकोंपर अवलम्बित है । श्राप देख सकते है - योतीय माइत्य १०० वर्ष पहले कितनी गिरी हुई दालत में नजर आता था और याज पूर्णोन्नति के शिवरपर आरूढ है । इसका प्रधान कारण क्या है ? यही है कि वहां सच्चे थौमें आलोचकोंकी बाहुल्यता है । जबकि भारत में उन आलोचककी कमी है जो साहित्यके prus faress समान योग्यता रखते हो। इससे पाठक यह न सम कि भारत में ऐसे समीक्षकांका अभाव है पर कमी तो अवश्य है। यहां हालत हमारे जैन साहित्यकी है। जब तक कि जैन समाजमे पाश्चात्य प्रणालीके समीक्षक
पैदा न होंगे तब तक श्राधुनिक जैन साहित्यका विपुल निर्माण अथवा पूर्णोत्थान कदापि संभव नहीं । वतमान में आलोचक इस प्रकार की आलोचना करनेमें बहुत ही कुशल है - जैसेकि लेखककी तारीफ, प्रकाशककी प्रशंसा, सुन्दर छपाई बढ़िया कागज, लेकिन उन्हें यह मालूम होना चाहिये कि यह श्रालोचनाका रूप नहीं है मात्र परिचय है। आलोचना क्या और कैसी होनी चाहिये, इस सम्बन्ध
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अनेकान्त
[वर्ष ८
में 'आलोचकका कर्तव्य' शीर्षक मेरा निबन्ध देखना मनोमालिन्यमं वृद्धि होती है और ममाज सच्चे साहित्यसे चाहिये जिसमें से कुछ नियम यहाँ बतलाये देता हूँ- वंचित रह जाता है। श्रालोचकको चाहिये कि निम्न विषयोपर जितना भी उनकी मेरे ऊपरके शब्दोमे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब लेवनीम बल हो, प्रयोग करें-ग्रन्थ विषय, लेखकको तक जैन समाज में सच्चे अर्थीम अालोचक पैदा न होगे कहाँ तक मफलता मिली है, वह विषय कहाँ तक सुलझा तब तक हमारी माहित्यवाटिकाके सुन्दर पुष्प कदापि पल्लवित सका है, भाषा मौन्दर्य कैमा है, अादि । गुण-दोष की इन नह। मर्केगे | अत: मर्वयम जैन विद्वानोंका यह परम चातोंको बतलाने वाला पालोचक वस्तुत: अालोचना कर्तव्य होना चाहिये कि वे ऐमें श्राला नक पैदा करें जो (श्राममन्तात् लोचना विचारणा अालोचना) के मच्चे अर्थो जन-माहित्यका शोचनीय हालतको दूर करते हुए और उसकी में सर्व श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर सकता है।
अभिबृद्धि करते हुए उसे प्रोन्नति के शिखर पर पहुंचायें और जैन समा नमें हमने ऐसे भी श्रालोचक दे ये हैं जिनकी हम तरह विश्व में जैन माहित्यको धवल पताका फहरायें। श्रालोचना मूल ग्रन्थ से कोई मम्बन्ध नहीं ग्वती । यह भी निःसन्देह वह दन जैनियोका वर्णदिन होगा, जिस देखने में आता है कि ममीक्षकने मिद्धान्तको छोड़कर मीधा दिन दसपाच उपरोक्त गुगा-मम्पन्न अालोचक हमारी नजरमें व्यक्ति पर श्राक्षेप किया है। जिसका परिणाम यह निकलना श्रावेंगे। उम दिन हमें पूर्ण विश्वास होगा कि अब दम है कि परस्पर साहित्यिक प्रेम तो दूर रहा, पर भयंकर सादिस्य के मुविस्तृत क्षेत्रम अाशातात वृद्धि कर सकेगे।
वीर-वाणीको विशेषताएँ और संसारको उनकी अलौकिक देन
( लेग्वक-- श्री दशग्थलाल जैन कौशल' पटना )
प्राय: देखा जाता है कि कृष्ण, राम, ईसा, महावीर, प्रधानता और गुणा पूनाकी गौणता पाई जाती है जबक मुहम्मद बुद्ध आदि महारमा पुरुषों की जयन्ती मनाई जाने वीर-वाणीको महत्व प्रदान करने में गुणपूजाको प्रधानता का रिवाज चल पड़ा है और उसका कारण यह है कि और व्यक्ति पूनाको गौणता प्राप्त होती है । अत: भगवानकी उपरोक्त सभी महात्माओंने अपने जमानेके लोगों को मान- प्रथम धर्मदेशनाके उपवको महत्व प्रदान कर हम दुनिया बता दस पतित समाजको उनकी जहालतको हटाकर के स्टन्डड ऊँचा उठते हैं। दुनियाके लोगोंने जहां अपने मनुष्यताके समीप जाने का युगान्तरकारी कार्य किया था। अपने महापुरुषों और पैगम्बरोंकी इमलिये पूजा की है कि लेकिन प्रश्न हो सकता है कि उसी तरह जब जैन लोग वे ईश्वर के अवतार थे । इसलिये उनके सभी कार्य हमारे महावीर जयन्ती मनाते हैं तब उनके मुखारविन्दसे प्रगट लिये सराहनीय और सत्य हैं या खुदाकी खाम मेहरबानी हुई इस युगमें प्रथम धर्माणीको महत्व देनेकी निराली हजरत ईमा वा हजरत मुहम्मद साहबपर थी और इसलिये प्रथाका श्रीगणेश करनेकी क्या आवश्यकता हुई ? इसका उनके सभी कार्य और धर्मके नामपर दिये गये उपदेश ही सीधा और सही उत्तर है। वह यह कि एक तो उस तिथि सर्वोत्तम थे और उससे परे सत्य हो नहीं सकता, यहां और स्थानको ऐतिहासिक महत्व देना । और दूसरे, संसार जैनियोंका बड़ा विचित्र और अजीबो ग़रीव रवैया रहा है। भरस निर.जी किन्तु विज्ञानसम्मत अश्रतपूर्व माध्या- उनके यहां तत्वत: कोई ईश्वरवको प्राप्त हुई आत्माको रिमकताकी भोर झुकाने वाले बुद्धिगम्य तत्वोंको संसारके अवतार लेकर पृथ्वीपर उतरने की आवश्यकता ही नहीं तमाम धोंक मुकाबले जोरदार शब्दों में पेश करना। होती । अत: यहां अवतारी पुरुष माना ही नहीं गया। तीसरे, उपर्युक्त महापुरुषोंकी जयंतियोंमें व्यक्ति पूजाकी इसलिये जैनेतर दृष्टिस उनकी कभी यह धारणा ही नहीं
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किरण ३]
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रही कि चकि महावार अवतारी पुरुष है, इसलिये उनका भक्ति किये जानो या योगसाधन करो, ईश्वर प्रपन होगा उपदेश, चरित्र या कलाम हमारे लिये धर्म है, नहींबल्कि और उसमे तुम्हें मुक्ति प्राप्त होगी। जबकि वीर भगवान ने महावीर इमलिये पूज्य हुए कि उन्होंने उनके पूर्व मुक्ति संसारके इतर धमोसे पृथक यह फरमाया कि अपनी अपनी प्राप्त तीर्थ रों( विश्वहितैषी बल्याण पथ दर्शकों द्वारा मामाको पहिचानो और उसके अन्दर पाई जाने वाली प्रणीत प्रत्येक जी रुहो पाक व पवित्र करनेवाले धर्मको चिन्य और अनन्त ईश्वरीय शक्तिपर विश्वास करो पालकर जिस तरह अपनी प्रास्माको पहचाना, उसको Nan objection hy, is a creature of tate and अमलकर विकास करनेके तरीकको जाना और चरित्रके subjectindly has conscrousness and is free. द्वारा श्रामलकर ईश्ववप्राप्तमें कमाल हामिल किया था
गरज श्रा'माको उत्तरोत्तर पवित्र करते रहनेसे जीव अनन्त इपलिये वे कामिल इन्मान होकर जीवन्मुक्त होगये । उस
कर्मराशिको नए करमकता है, पतितसे पतित पारमा मनुष्यके अवस्थामें उन्होंन मंमार में भटकते ज.म मरणाके करमें दका पाकर परमारमा अथवा कृतकृत्य हो सकता है। पडे जी को जो अनुभू सरचा धोपदेश अपनी वाणी (२) दुसरा जगह प्रायः सवत्र जहां श्वरमें किया वह हमारे ल्याग का कारण है । अत: उस वाणी
पनेक कारण मनुष्यको सदैव उमका सेवक या गुलाम बना का हम जितना मुख्य करें, थोड़ा है। भगवान महावीर
रहना और उसकी मर्जीपर अनन्त सुखका पाना बताया है पूर्व और भगवान पार्श्वनाथके पश्चात ..ध्यका काल धर्म
वहां वीरने ईश्वरकी गुजामी सदैव करते रहने के खिलाफ और चरित्रहीन होकर जैमा अंधकारमय होगया था उस
वगावत करने और पाजाद होकर खुद ईश्वर बनजानेका घनघोर निशामें वीर भगवानकी मवतोप्रथम श्रावण
न याष नुसखा पेश कर दिया है। कृष्ण प्रतिपदाको धर्मदेशना होना-हमारे परम सौभाग्य (३) दूसरी जगह जहां संमारके धर्मप्रवर्तक का विषय है और जिस जगह वह हुई वह है हमारे महापुषषोंने अहिंमा धर्मके एक एक अङ्गका पालन व लिये पुण्यभू । अत: हमारे समीप भगवानकी वह वाणी प्रचार करनेमें अपना नाम अमर किया है ज्यादा महत्वकी है और तदुपरान्त भगवान महावीका वहां जैनधर्मने यह बताया कि संसारमें जहां २ जीवव्यक्तित्व।
रक्षणका कार्य है वहां २ सब जगह अहिमा तत्व कार्य अब हम संक्षेपमें उन छ बातोंको कहने का यत्न करते हुए पाया जाता है। अहिंमा धर्म सर्वव्यापी सिौत करेंगे जो इस वाणीकी प्रतीकिक और अभूतपूर्व विशेष- है। ईसाइयोंका मेवाधर्म, मुस्लिमोंका विरादराना मलक नाएँ कही जा सकती हैं।
(बराबरीका भाईचारापन), बुद्धकी दया, हिन्दुओंकी भक्ति (१) सबसे पहले हम 'विश्वास' की बानको लेते हैं। और कम्य-परायणता, मब महावीरकी 'हिंसा'ने प्रायः हर धर्म कहता है कि हम पर विश्वास जाओ और अन्तभून अंग हो जाते हैं अहिंमाधर्मकी अनपम सा. जन ता
भौमिकता एवं अश्रतपूर्व वृहद् रूपका जैमा सांगोपांग कहता है कि तुम विश्वास करो कि ईसा खुदाका बेटा है वर्णन महावीरने किया वैसा अन्यत्र पाना असंमव है। और वह तुम्हारे गुनाहोंको बाशवाने के लिये सूलीपा चढ़ा। (४) सारे संमारने जहां ईश्वरको जगतका कर्ता-हर्ता जो उमपर यकीन लायगा उसे यकीनन मुने, या नज़ात माना और जीवके सुख-दुखका उत्तरदायिम्य अहां परहामिल होगी। दुनियामें इस धर्मके माननेवाले सबसे मामापर नादा गया है वहां महावीर-धर्मने इसे अपने ज्यारा है। दूसरे नम्बरपर है इस्लाम धर्म । उसका कहना शुभ अशुभ कर्माका फल माना और परमात्मा दर्जेको है 'लाइलाहा इल्लिलिल्लाह मुहम्मद रसूल जिल्ला--कुरान शुद्ध, बुद्ध, कनकत्य, पचित श्रानंदमय, रागद्वेष परिणति शरीफ । अर्थात खुदा एक है और मुहम्मद साहब उपके में रहन और निर्विकार, यानी महावीरका धर्म तुलसीदास रसल या पैगम्बर हैं। इसपर विश्वास करो तुम्हें नजात के शब्दों में 'कर्मप्रधान विश्वकरि रास्खा। जो जम करी हासिल होगी। हिन्दु धर्ममें ईश्वर जगतकर्ता है, उसकी मौतम फल चाखा ॥ का शतप्रतिशत हामी है। काँका
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अनेकान्त
[वष ८
जैसा भेद-प्रभेद वर्णन यहां मिलेगा वह अन्यत्र है ही (.) संपारमें जहां अपने अपने धर्म और धर्मप्रचारक नहीं। मनुष्यों के किन परिणामोंपे कौनसे कर्म बंधते हैं, को ही सत्य और मचा धर्म माना और दूसरेको अधर्म उनकी सत्ता, उदय, रसदानक्रिया या फलोंका उदय सममा वहां जैनधर्मने कहा नहीं जी, वे भी एक दृष्टि मादिका ब्यौरेवार वर्णन आपको यहां मिलेगा।
सच्चे हैं और धर्मके एक अंशका प्रतिपादन करते हैं उसे (२) दुनियामें मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती जहां कफ या यह रष्ट उसके स्याद्वादनयकी न्याटप प्राप्त हुई - मिथ्यात्वका बढ़ाने वाला और खुदाकी राह भटका देने इस तरह जैनधर्म पर्व-धर्म-समन्वयका क मात्र स्थान है वाला माना गया वहां जैनधर्मने सिद्धासन ध्यानावस्थाको यह हर पदार्थको भिन्न २ पहलूमे समझनेका माद्दा या मूर्तिको इस रंगविरंगे संसारकी चित्रशालामें हमें ध्यान योग्यता प्रदान करता है, इत्यादि। लगाने और योगावस्थाकी ओर खींचने के लिये गास्थों को इस तरह दुनिया देखेगी कि हम युग में जिस वीर अत्यावश्यक और अध्यात्म रसमें तीन साधुओंके लिये वाणीक सर्वथम प्रगट होमको जो इतना महत्व दिया जा अनावश्यक करार दिया।
रहा है उसका कारण उनकी वाणी द्वारा प्रगट ऐमी प्रमा (६) इसी तरह दुनियामें देखने में बाता किया. धारण, अपूर्व, तर्क, विज्ञान और न्यायकी कसौटी पर खरा इयोंमें जब कोई मर जाता है तो मर्दैको अच्छे सहन उतरने वाले बुद्धिगम्य अकाट्य क्रांतिकारी सिद्धांत हैं जो फुजेलसे सुसज्जित करते हैं और उसकी मात्माको शांति सारे संपाको चेलेंज देने के लिये अपनी शानके इकता कहे मिले इस लिये पादरी साहब वाइविलसे प्रार्थना पढ़ते हैं। जा सकते हैं ये तो बहुत सी बातों में से कुछ नमूने है जो इसी तरह मुस्लिमोंमें मृतक शरीरको कलमा पढ़ कर मार वीर-शामन के गौरवको प्रदर्शित करते हैं। किया जाता है और उसके लिये दुआएँ पढ़ी जाती है। क्या ही अच्छा हो इन्हीं याऔर कोई खास खाम हिंदुओंमें भी मरने पर 'राम नाम सत्य है सत्य बोलो विशेषताओंको खुदा कर वीर प्रभुके अपूर्व प्रथम धर्मगति है' की रट लगाई जाती है। जैनधर्म इसे ऐसा देशनाके प्रम ण स्वरूप एक ऐसा आधुनिक विविध मानता है जैसे कोई सप निकल जाने पर जकीर पीटता कला पूर्ण ढगका विशाल ऊँचा स्मारक स्तम्भ राजगृहीके हो। जैनधर्म जीव निकल जाने पर उपर्युक्त क्रिया व्यर्थ किसी मनोरम प्राकृतिक दर्य युक्त. भूमि पर निर्माण मानता है इस लिये वह कहता है कि जब मनुष्य मरणा- किया जावे जीपंपारकी और खास कर भारतवर्षकी सम हो तो अपने चित्तसे क्रोध, मान, माया, लोभ और एक दर्शनीय चीज हो और देश विदेशक पर्यटकों और गृह कुटुम्बसे मोहका त्याग करे अपने पापोंमे घृणा, प्राय- विद्वानों को बरवम अपनी ओर आकर्षित करे और उन्हें श्चित्त कर सबसे क्षमा याचना करे दान-पुण्य करे इस अपन अजीव सिद्वान्तोंके चेलेंजको स्वीकृत कराने के लिये तरह समाधिमरण पूर्वक स्वयंक पवित्र परिणामोंस शरीर ऐपा वाध्य करे कि वे अपनी प्रारमाकी बेचैनीस एक बार त्याग करे तो उसे स्वयं सद्गति प्राप्त होगी।
जैनधर्मके शांत सोवर में दवकी अवश्य लगा.
FREEM
ASL
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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
(लेरक-प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए०)
गत किरणसे श्रागे] पार्श्वनाथचरितके रस्नकरणहक सम्बन्धो विचार नहीं करेगा, न अपने पाठकों को उसका कुछ भी
पता लगने देगा और बार बार निश्शंक रुपम यह दावा उल्लेखकी ऊहापोह
____ करता चला जायगा कि वे दोनो एक ही ग्रन्थकारको (एक) न्यायाचार्यजीका आत्मनिवेदन---
कृति हैं और वे स्वामी समन्तभद" "अत: यह स्पष्ट पार्श्वनाथचरितके अनर्गत देवागम और सनकरण्डके किनकरगड श्रावकाचार और प्राप्तमीमोमादिक का उसजेस्खोंकी पायापर आकर न्यायाचार्य जी लिखते हैं एक हैं और वे स्वामी समन्तभद्र है" तथा "इन सबका कि ....' मुम्तार मा० ने वादिगजमूरिक जिन दो श्लोकोंके कर्ता कहा और वे? स्वामी समन्तभद्र ।" "प्रकट कर प्राधार अपना उक प्रतिपादन किया था वे दोनों श्लोक देना चाहता है ताकि दोनोंक कतृवक सम्बन्ध में कोई मन्देह
और उनका उक्त प्रतिपादन उस समय मेरे लिये विशेष या भ्रम न रहे ?" जी लेखक उपयुक. उतना बड़ा मन्देश विचारणीय थे। एक तो वे दोनों श्लोक उक्त ग्रन्थमें और भ्रम अपने मन में रखना हश्रा भी अपने पाठकोंको व्यवधान सहित हैं। दूसरे कुछ विद्वान उमसे विरुद्ध भी निस्पन्देह और निभ्रम बन जाने के लिये ललकारे उसकी कुछ विचार रखते हैं। अतएव मैं उस समय कुछ गहरे बौद्धिक ईमानदारी में कहांतक विश्वास किया जा सकता है ? विचारकी अावश्यकता महसूस कर रहा था, और इमलिये यदि न्यायाचार्य जी अपने उस लेख में यह कह देते कि न तो मुख्तार साहबके उक्त कथनसे महमत ही होमा उक्त समस्याके कारण मैं उस प्रभार 'गहरे विचारकी और न असहमत तटस्थ रहा।
भावश्यकता महसूस कर रहा हूं जैसाकि उन्होंने अब कहा पंरितजीके इसी मामनिवेदनमे सिद्ध होजाता है कि है. तब ना यह माना जा सकता था कि वे निपक्ष विचारक कि उन्होंने अपने पूर्व लेखौ जान बूझकर प्रकृतोपयोगी है और नटस्थ रहना भी जानते है। किन्तु उनकी वर्तमान एक महत्वपूर्ण बात को छिपाया था कि वादिराज के दोनों प्रवृत्तिम तो वे न्यायके क्षेत्र में अपने को वा अयोग्य उन्लेख व्यवधन सहित होने के कारया देवागम और विचारक सिद्ध कर रहे हैं।
और रन करगडकके एक कर्तृवकी विदिमें माधक नहीं (ख) न्यायशास्त्रका दुरुपयोगकिन्तु बडे बाधक है। वे और भी लिखते हैं कि-'वहां मैंने जो यह लिखा था कि 'हममे पानिराकृत मुझे वादिराजके जितने असंदिग्ध उल्लेखम प्रयोजन या पार्श्वनाथ चरितको उठाकर देखा" उसपर भी पदिनत्री उतने ही को उपस्थित किया, शेषको छोड़ दिया गया। ।क लम्बी टिप्पणी करते हैं कि उनकी अन्तिम पंक्ति इसके अतिरिक्त एक सच्चे विचारकका कोई अच्छा तो बहुत भापत्ति के योग्य है, क्योंकि उनके इस कथनसे तरीका नहीं है।" किन्तु यदि न्याया नार्य जी विचारकर यह मालूम होता है कि उन्होंने अपने प्रस्तुत लेख लिखने देखेंगे तो उन्हें ज्ञात होगा कि यह राका मच्चे विचारक तक पार्श्वनाथ चरितको उठाकर नहीं देखा था और अब का नहीं, किन्तु एक घोर पक्षपात का है। क्या कोई मेरे द्वारा यादिराज सम्बन्धी पाश्वनाथ चरितका उल्लेख मच्चा विचार क इतना बड़ा उपर्युक बाधक प्रमाणु प्राना प्रस्तुत किये जाने पर ही उपके देखन की भोर भापका सष्टमें रख ।। हुश्रा भी अपने लेख में उसपर जरा भी प्रवृत्ति हुई हैं।" इत्यादि । पंडित जी मुझे समा करेंगे
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वर्ष ८
यदि मैं कहूं कि मुख्य विषयको छोड यह जो वे बात बात (ग) 'देव' का वाचणार्थ पर अपने न्यायशास्त्रके ज्ञानका दुरुपयोग करते हैं एवं वादिराजने जिन तीन पयों में क्रमसे स्वामी कृत देवागम युक्ति, तर्क और अनुमानके उस्कृष्ट नियमोंमे हीन व्यवसाय देवकृत शब्दशास्त्र और योगीन्द्रकृत रस्नकरण्डकका उल्लेख कराते हैं उससे वे धीरे धीरे विक्षप्तताको ओर बढ़ते हुए किया है उनपरमे उनका अभिमत देवागम और रत्नकरण दिखाई देते हैं। मेरे यह कहनेमे कि 'हमने पार्श्वनाथ को एक ही कांकी कृतियां मानने का प्रतीत नहीं हो।, चरितको उठाकर देखा' यह अनुमान किस नियमसे क्योंकि दोनोंके बीच देवकृत शब्दशास्त्रका व्यवधान है। यह निकलता है कि मैंने इसके पहले उसे कभी नहीं देखा था कठिन ई जैसी अन्य विद्वानोंको प्रतीत हुई बैसी स्वयं
और उससे प्रकृत विषय कैस निर्णयकी ओर बढता है ? पंडितजी को भी खटकी थी जैसाकि उन्होंने अब प्रकट पंडितजी अप्रयोजक प्रश्न उठानेका मुमपर दोष रोपण किया है। किन्तु उसके परिहारमें अब आपने मुख्तार करते है और स्वयं उस प्रणालीको क्रियात्मक रूप देकर साहबके उस लेखका उल्लेख किया है जिसमें बतलाया दिखाते हैं। क्या जो पुस्तक एक वार उठाकर देखली जाय गया है कि देवागमकी वसुनन्द कृत बृत्तके अन्त्य मंगल में उस दूरी वार उठाकर देखना न्यायशास्त्रके विरुद्ध है? 'समन्तभद्रदेवाय' पद दो वार पाया, व आराधनाकथामुझे तो जब जब काम पड़ा तब तब मैंने पार्श्वनाथ चरित कोषको कथामें ममन्तभद्रको यो न्द्र कहा है। इसपरसे को उठाकर देखा और पढा है. उक्त लेख लिखते समय न्यायाचार्यजीका मत है कि मुख्तार साहयका यह भी उसे उठाकर देखा और पढ़ा था, तथा मागे भी जब प्रमाण सहित किया गया कथन जीको लगता है और भव जब काम पढ़ेगा तब तब उसे उठाकर देखना पड़ेगा, यदि इन तीनों श्लोकोंके यथास्थित आधारसे मी या क्योंकि बिना ऐसा किये मैं उस अन्य के संबंध में कुछ लिख कहा जाय कि वादिराज देवागम और रत्नकरण्डका एक न मकुंगा । शायद न्यायाचार्यजीको उनके विशेष योपशम ही कर्ता स्वामी समन्तभद्र मानते थे तो कोई बाधा नहीं।' के कारण एक बार पढी पुस्तक की सब बात सदैव याद रह किन्तु मेरा पंडतजीसे कहना कि उक्त बात मके जाती होगी और उन्हें फिर उसके उल्लेखोंके सम्बन्धपर जी को भले ही लगे, परन्तु बुद्धि और विवेकसे काम लेने बिखते समय भी उसे उठाकर देखनेकी अावश्यकतान पर श्रापका निर्णय बहुत कच्चा सिद्ध होता है। पार्श्वनाथपड़ती होगी। किन्तु मेरा क्षयोपशम तो इतना बलिष्ट चरितके जिस मध्यवर्ती श्लोकमें देवकृत शब्दशास्त्रका नहीं है। मैं तो हर बार पुस्तक देख लेता हूँ, क्योंकि प्राय उल्लेख पाया है उसे समन्तभद्रपरक मान लेने में केवल पुरानी पढ़ी हुई बातोंका विस्मरण होजाता है या उनके वसुनन्द वृत्तिका 'समन्तभद्रदेव' मात्र उल्लेख पर्याप्त ज्ञानमें कुछ अस्पष्टता पाजाती है। यदि मेरी यह पद्धति प्रमाण नहीं है। एक तो यह उन्लेख अपेक्षाकृत बहुत न्यायाचार्यजीको 'बहुत भापत्ति के योग्य' दिखाई देती है, पीछे का है। दूसरे, उक्त वृत्तिके अन्स्य मंगल में जो वह तो मैं उनसे क्षमायाचना करने के अतिरिक्त और किसी पद दो बार आगया है उससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्रकार उनका संतोष नहीं कर सकता। हां यथार्थतः स्वामी समन्तभद्र 'देव' उपनामसे भी साहित्यिकों में न्यायाच यंजी स्वयं भी इस प्रकारकी आपत्तिसे वंचित प्रसिद्ध थे। वहां तो उस पदको दो वार प्रयुक्त कर यमक नहीं है क्योंकि उन्होंने लिखा है कि अब मैंने 'जन्म-जरा- और परमात्मदेवके साथ श्लेषका कुछ चमकार दिखलाने जिहासया' इस ४१ वे पद्य के प्रागेका ५० वा पच देखा का प्रयत्न किया गया है। तीसरे, समन्तभद्रको उक्त 'देव' तो वह मेरी विवक्षा मिल गई।" क्या न्यायाचार्यजीके का वाच्य बना लेनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस हीन्यायानुसार मैं नहीं कह सकता कि उनकी यह पंक्ति श्लोकमें वादिराज ने उनके कौनसे शब्दशास्त्रका संकेत तो बहुत ही भापत्तिके योग्य है, क्योंकि उनके इस कथनसे किया है। यह प्रश्न इस कारण और भी गंभीर होजाता यह मालूम होता कि उन्होंने इससे पूर्व स्वयंभू स्तोत्रका है क्योंकि वादिराजसे पूर्व देवनन्दि पूज्यपादका जैनेन्द्र ५० वा पच कभी नहीं देखा था। इत्यादि ।
व्याकरण सुप्रसिद्ध होचुका था और जैन साहित्यके दो
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किरण ३ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्त मीमामाका एक कतृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
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महारथियों, हरिवंश पुराणाके कर्ता तथा प्रादिपुराणक कर्मा मालासे निर्विवाद सिद्ध कि शक संवत् ००५ से लेकर ने इन्हीं का उल्लेख 'देव' पद द्वारा अपने प्रथों में किया है १५ वी १६ वीं शताब्दि तक देवनन्दि पूज्यपाद और उन उन्होंने समन्तभद्र का उल्लेख भी किया है, किन्तु उनके के व्याकरण शासकी प्रसिद्धि धाराप्रवाह रूपसे भक्षुगा उल्लेखोंमे उनकी ख्याति शब्दशाकार के रूप में बिलकुल बनी रही है। इसी परम्परा के बीच हम शक सवत् १४७ नहीं पाई जाती । आदि पुराण में तो समन्तभद्रका यश वादिराजका पार्श्वनाथचरितान्तर्गत यह उस्लेख पाते हैंकवि, गमक वादी और वाग्मियों में सर्व श्रेष्ठ वर्णन किया अचिन्त्यमहिमा देव: सोऽभिवन्द्यो हितैषिण।। गया है, किन्तु उनके किसी व्याकरण जैसे ग्रंथका वहां शमाश्च येन मिद्धन्ति साधुत्यं प्रतिजाम्भिताः॥ कोई संकेत नहीं इसके विपरीत देवनन्दि पूज्यपाद और इस पद्यको स्वयं मुख्तार सा० ने समाधितन्त्रकी उनके शब्दशास्त्रकी प्रसिद्धि परम्परा ध्यान देने योग्य है- प्रस्तावना (सन् १९३१) तथा सरसाधुस्मरण मंगल पाठ
(1) जिनमेन अपने हरिवंशगगग में कहते हैं- (सन् १६४४) में पूज्यपादके लिये ही उद्धृत किया है। इन्द्र चन्द्रानन्दम्याडिव्याकरणे तणाः । पार्श्वनाथ चरितान्तर्गत इस लम्बी गुर्वावलीमें छत पद्यको देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥ छोर अन्य कोई पूज्यपादका स्मरण करने वाला पच नहीं (२) आदिपुगण जिनमनाचायेन कहा है-- रह जाता जो कि चिन्तनीय है। प्राचीन साहित्यिक परकवीनां तीर्थकृत् देवः किंतरां तत्रबर्यते । म्परामें वादियों में जो कीर्ति और प्रसिद्धि समन्तभद्रकी पाई विदुषां वामनध्वसि तीथं यस्य वचीमयम् ॥ जाती है वैषी ही कीर्ति देवनन्दि पज्यपादकी शब्द(३) धनंजयने अपनी नाममालामें कहा है- शास्त्रियों में उपलब्ध होती है। ऐसी अवस्थामें केवल प्रमाण मकलं कस्य पूज्यपादस्य लक्षण म । वसुनन्दं वृत्तिमें 'समन्तभद्रदेव' का उल्लेख मिल जाने
द्विपन्धानकवेः कान्यं रनत्रयमकटकम् ॥ मात्र वादिराजके उस उल्लखको मत समस्त परम्पराक (४) सोमदेवने अपनी शब्दावन्द्रिकामें कहा है- विरुद्ध समन्तभर परक घोषित कर देना प्रतिसाहसका कार्य अनु पूज्यपाद वैयाकरणाः।
है। यह बात मात्र एक अंधपरम्परा मम्बन्धी हठाग्रहके (५) गुगानन्दिने जैनेन्द्रप्रक्रियामें कहा है
कारण न्यायाचार्य जीके जीको भले ही लगे, किन्तु जब तक नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् । वादिराजके समयमें समन्तभद्रकी देवनामसे प्रसिद्धि और यदेवात्र तदन्यत्र यन्नानास्ति न सक्वचिन ॥ उनके किसी शब्द शास्त्रकी मी स्यानिक स्वतंत्र प्रमाण (६) शुभचन्द्र अपने ज्ञानाणवमें कहते हैं- उपस्थित न किये जावे तब तक उनकी यह कल्पना विचाअपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसंभवम् । रक समाजमें कभी प्र.झ नहीं हो सकती। कलंकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यने । (घ) योगीन्द्रका वाच्यार्थ
(७) पद्मप्रभमलधारिदेव अपनी नियमसार टीका यह 'देव' सम्बन्धी पद्यका व्यवधान जहां तक उपमें कहते है
स्थित है वहां तक यह तो कभी माना ही नहीं जा सकता शब्दाब्धीन्दं पूज्यपादं च वन्दे
कि उसके ऊपर और नीचे के पोंमें वादिराजने एकही (5) शुभचन्द्र कृत पांडवपुगणमें पाया जाता है- प्राचार्य के दो ग्रंथोंका अलग अलग दो उपनामौके साथ पूज्यपादः सदा पूज्यपादः पूज्येः पुनातु माम् । उख किया होगा। उम पद्यमें योगीन्द्र ऐसा गुणवाचक व्याकरणाणवो येन तोर्गो विस्तीर्ण सद्गुणः॥ विशेषण भी नहीं है जिसकी वहां अर्थ में कोई सार्थकता
ऐसे उल्लेख जैनसाहित्यमें और भी अनेक है। सिद्ध होती हो। वह तो रस्नकरण्डक ग्रंथके कर्ताका स्वाम शिलालेखों में भी
ही नाम या उपनाम है जैसे समन्तभद्र का स्वामी। इस सर्वव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयम्। परिस्थितिमें समन्तभद्रके श्राराधनाकथाकोषके प्राण्यानमें जैसे अनेक उल्लेख पाये जाते हैं। इस सब उल्लेख योगीन्द्र कहे जाने मात्रसे वह पच समन्तभद्र परक कदापि
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अनेकान्त
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सिद्ध नहीं होता। मुख्तार सा० तथा न्यायाचार्यजीने जिम की शिकायत करना पड़ती है, क्योंकि जिस आधार पर वे आधार पर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र कृत स्त्री रनकरण्ड टीकाकी पार्श्वनाथचरितमे पूर्ववर्ती मान रहे हैं कार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने जो कुछ उसमें उन्हें बड़ी भ्रान्ति हुई है। उनका माधार मुख्तार उसके लिये प्रमाया दिये हैं उनमें जान पड़ता है कि उक्त सा. के शब्दों में यह है कि "प्रभाचन्द्राचार्य धाराके परमार दोनों विद्वानों से किसी एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्र वंशी राजा भोजदेव और उनके उत्तराधिकारी जयसिंह का कथाकोष स्वयं देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या नरेशके राज्यकाल में हुए हैं और उनका प्रमेयकमलमातंगा' किमीसे सना कि प्रमाचन्द्रकृत कथाकोपमें समन्तभद्रके भोजदेवके राज्यकालकी रचना है. जब कि वादिराजसूरिका लिये 'योगीन्द्र' शब्द पाया है। केवल प्रेमोजीने कोई वीम पाश्वनाथ चरित जयसिंहक राज्य में बन कर शक संवत वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथ.श्रोंमें कोई १४७ (वि.सं. १८.) में ममाप्त हुआ है।" मुग्तार विशेष फर्क नहीं, नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्र की गद्यकथा
मा के इस लेखमे मालूम होता है कि वे पार्श्वनाथ चरित में का प्रायः पूर्ण अनुवाद है।" उसीके श्राधारपर श्राज उक्त उलिखत जयसिंह और प्रभाचन्द्र द्वारा उल्लिखित जयसिंह दोनों विद्वानोंको “यह कहने में कोई आपत्ति मालूम नहीं देको एक ही समझते हैं, और वह भोजका उत्तराधिकारी होती कि प्रभाचदने भी अपने गद्य कथाकोषमें स्वामी
परमारवंशी नरेश किन्तु इस बातका उन्होंने जरा भी
ने समन्तभद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लं खित नहीं किया है।"
विचार नहीं किया कि जब वादिराज शक १४७ (वि० सं० यद्यपि मेरी टिम उम शब्दका वहां होना न होना कोई
१०८२) में जयसिंहका उल्लेख कर रहे हैं उस समय महप नहीं रखता, क्योंकि उसके होनेसे भी उक्त परि
और उपसे भी कोई तीस वर्ष पश्चात तक धार के सिंहापन स्थितिमें उससे बादिराजके पद्य, देवागमकारसे तात्पर्य पर तो भोजदेव दिखाई देते हैं और जयसिंहदेवका उम स्वीकार नहीं किया जा सकता। तथापि मुझे यह माश्चर्य
समय वहां पता भी नहीं है। बात यह है कि वादिगजके अवश्य होता है कि जो विद्वान दूसरों की बात बात पर
जयसिंह चालुक्यवंशी थे जिनके परमारवंशी राजा भोजको कठोर न्याय और नुकताचीनी किये बिना नहीं रहते, वे भी
पराजित करने का उल्लेख शक १४५ के एक लेखमें पाया पक्षपातकी और अपने न्यायकी बागडोर कितनी ढीली
जाता है । प्रभाचन्द्रका न्यायकमद चन्द्रोदप भोजदेवक कर लेते हैं।
उत्तराधिकारी जयसिंह परमारके काल में रचा गया था और (क) प्रभाचन्द्रका वादिराजसे उत्तरकालीनत्व- ये नरेश पि. . ११२ में व उसके पश्चात गोपा
यह प्रमाण की कचाई इस कारण और विचारणीय हो बैठे थे । रत्नकरण्डटीकामें न्यायकु०का उल्लेख पाया जाता जाती क्यों कि उसीके आधार पर यह दावा किया जाता है जिसे उसकी रचना उक्त समयसे पश्चत् की विद्ध है कि "स्वामी ममन्तभद्र के लिये योगीन्द्र' विशेषण के होती है। इस प्रकार पार्श्वनाथ चरितकी रचना रनकरण्ड प्रणेगका अनुपन्धान वादिराजमूरिके पार्श्वनाथचरितकी टीकास कमसे कम तीम पैंतीस वर्ष पूर्ववर्ती चिद्ध होती है। रचनामे कुछ पहले तक पहुंच जाता है।" न्यायाचार्यजीने प्रभाचन्द्रकृत प्रमेय कमतमातण्ड, न्यायकुमुदन्द्र, तो यहां तक कह डाला है कि “वारिराज जब प्रभाचन्द्र के श्राराधनागद्यकथाकोश और महापुराण टिपणाकी अंतिम उत्तरवर्ती है तो यह पूर्णत: संभव है कि उन्होंने प्रमाचन्द्र प्रशस्तियों में कर्तान अपने गुरु पद्मनन्दि व अपने मायके के गद्यकथाकोष और उनकी स्नकरण्ड टीकाको जिसमें नरेश भोजदेव या जयसिंहदेवका तथा स्थान धाराका रस्नकरण्डका कर्ता स्वामी समन्तभद्र को ही बतलाया गया उल्लेख किया है। किन्तु रत्नकरण्डटीकामें ऐसा कुछ नहीं है, अवश्य देखा होगा और इस तरह वादिराजने स्वामी पाया जाता । इसीसे न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमार जीके समन्तभद्र को लक्ष्य (मनःस्थित ) करके उनके लिये ही मतानुसार तो रस्नकरण्डटीकाके उन्हीं प्रभाचन्द्रकृत होने की 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग किया है।"
संभावना अभी भी खास तौरम विचारणीय है (न्याकु० यहां फिर मुझे उक्त विद्वानों की शिथिन प्रामाणिकता भाग २ प्रस्ता. पृ. ६७) प्रभाचन्द्रका गद्य कथा कोष भी
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किरण १]
लकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
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परमार जयसिंहदेवके समयका बना हश्रा । ऐसी अव है। प्रभाचन्द्र के उस्लेखों संबंधी न्यायानार्यजीके भ्रान्ति स्था वादिराजके उल्लेख को रत्नकरण्ड टीका व गद्य कथा- रूपा अन्धकार को दिनकर प्रकाश की तरह' विशदतामे दूर कोषके पीछे ढकेल ने का प्रयत्न सर्वथा भ्रान्त श्रीर निराधार है। करने वाल मेरे इन सब लेग्यांशोंके होते हुए पाश्चर्य है
(७व) प्रभा चन्द्र का उल्ले का मामार विचार- पंडतज ने मुझ पर यह लांछन कैम लगा दिया कि मैंने
मैंने जो अपने पूर्व लेख में वादिराजके उक्त उल्लेखको उनके 'वादि जमे पूर्ववर्ती, ज्यादा सुस्पष्ट ऐतिहामिक पंडितनी द्वारा दबाये जाने का उल्लेख किया था जिसका प्रमाण को दबाया'? मैं ऊपर बतना ही चुका हूँ न. कि सब रहस्य अब स्वयं पंडित जीने खोल दिया है. जान करण्इटीका वादिराजकन पार्श्वनायचरितसे पूर्ववर्ती नहीं पड़ता। उपी का बदला लेने के लिये न्यायाचार्य जीने मुझ किन्तु उसमें बहुत पीछे की है। उसमें केवल रन र एडके पर यह दोषारोपण किया है कि- पो. मा. ने वादिगज का नाम स्गमा समन्तभद्र पाया जाता है. पर उसमे के उक्त उल्लेख पर जहां जोर दिशः वहां प्रभाचन्द्र प्राप्तमीचा माय एक क्तृत्वका कोई संकेत नहीं है, जब सुस्पष्ट एवं अभ्रान्त ऐतेहाधिक उल्ने वकी सर्वथा उपेक्षा कि पर्श्वनाथ चरितमें स्वाकत देवागम, और योगीन्द्र की है-इसकी प्रापने चर्चा तक भी न.ीं की है जो कि कत रत्नक एड के उल्लेख सुस्पष्टत: अलग अलग पद्योंमें यथार्थन: समस्त प्रमाणों में दनकर प्रकाश की तरह विशद है जिनके बीच देवकत शम्दशा सम्बन्धी उल्लेख वाले प्राण है और वादिराजमे पूवानी है । पच पुछा जाय तो एक और पद्यका व्यवधान भी पाया जाता है। इस तुलना प्राग्ने इस जगवा सुम्पष्ट पनि हामिक प्रमाणको दवाया है में यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि प्रभाचन्द्र का उल्लेख और जिपका आपने कोई कारण भी बतलाया है।" ज्यादा सुम्पट या विशद है । रनकरण्डटीकाका कोई
प्रभाचन्द्र का उल्लेख केवल इतना ही तो है कि रत्न- समय भी अभी तक सुनिश्चित न हो सका है और यह करण्ड के कर्ता स्वामी मम भद हैं उन्होंने यह तो कहीं भी अभी मन्देहारमक है कि उपक कर्ता केही प्रमेयकमनप्रकट किया ही नहीं कि ये ही रत्नकरण्डक कर्ता प्राप्त मातराद श्रादि ग्रंथोंके रचयिता हैं। किन्तु वा दराजकत मीमांग भी चियिता हैं। मैंने तो अपने सर्व प्रथम लेख पार्श्वनाथ चरितमें सट उल्लेख है कि जमकी रचना शक 'जन इतिहापका एक विलुप्त अध्याय' में ही लिखा था कि १४७ में हुई थी उससे पूर्वका कोई एक भी उल्लेख रत्नरत्न करणड के कर्ता समनभद्र माथ जी स्वामी पद भी करण्डका नाम लेने वाला उपलब्ध नहीं होता, जिसमे जुड़ गया है और पूर्ववर्ती समन्तभद्र सम्बन्धी अन्य रनकरण्डके सम्बन्धका अभी तक वही प्राचीनतम उल्लव घटनाओं का सम्पर्क भी बनलाया गया है व या तो भ्रान्ति है और उसके समक्ष रत्नकरण्डटीकाका उन्लेव कोई के कारण हो सकता है या जान बूझ कर किया गाहो ऐतिहापिकता नहीं रखना क्योंकि, स्वयं न्यायाचार्यजी ही तो भी आश्चर्य नहीं।" इसके पश्च न मैंने अपने दूसरे लेख अपने एक पूर्व लेख में यह मान प्रकट कर चुके हैं कि 'स्वामी' में पुन लिखा है कि -"न्याया वायं जीने वादिगन और पद कुछ प्राप्तमीमांपाकारका ही एकान्तत: बोधक नहीं है।
भावन्द्र सम्बन्धी दो उल्लेख ऐसे दिये हैं जिनसे स्न- समन्तभद्र नामके नो अनेक प्राचार्य हुए हैं और अप्रकट करण्ड श्रावकाचार की रचना ग्न रहवीं शताब्दियं पूर्वकी भी अनेक हो सकते हैं और किमी ले ग्वक विशेषद्वारा नक सिद्ध होती है। किन्नु उपका प्राप्तमीमांसाके माथ एक साथ स्वामी पदका भी : योग करना कुछ असाधारण नहीं व व सिद्ध करने के लिये उन्होंने केवल तुलनात्मक वाक्यों है। इस प्रकार प्रभाचन्द्र के जिम उनम्व पर पडित जीन श्राश्रय लिया है, पर ऐसा कोई ग्रंथोल्लं व पेश नहीं किया हतना जोर दिया है वह न तो सुम्पट है, न अभ्रान्त है जिम में किमी ग्रंथकार द्वारा वे स्पष्ट रूप एक हो कर्ताकी और न उसका कोई ऐतिहासिक महम्य है। वह वादिगजपे कृतियां कही गई हो"
पूर्ववर्ती कदापि नहीं है, प्रकत विषय पर उपकी प्रमागता भी इपके पश्रात मैंने उसी लंग्व में टीकाकार प्रभाचन्द्र कृत याचिका और मैंने न उपकी पेक्षा और न उसे दबाया सनकरण्ड के उपान्य रजोक नारधार्थ का उल्लेख किया है किन्तु उसका उल्लेख भी किया है और निरसन भी।
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अनेकान्त
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रत्नकरण्डके उपान्त्य श्लोक पर विचार स्थलों पर किया है. कृपया बतलाइये कि वे तीन स्थल ___ वसुनन्दी वृत्त के मंगल में 'समन्तभद्रदेव' शब्द पाया कौनसे हैं ?” मेरा ख्याल था कि वहां तो किसी नई है और कथाकोशके किस्से में समन्तभद्रको योगीन्द्र कहा, कल्पनाकी प्रानश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्हीं सन इमलिये वादिराज द्वारा उल्लिखित 'देव' और 'योगीन्द्र' स्थलोंकी संगति सुस्पयरे जो टीकाकारने बतला दिये हैं वे ही हैं, प्रभाचन्द्रका कथाकाष देखा भी न itबिर भी अर्थात् दर्शन ज्ञान और चारित्र क्योंकि वे तत्वार्थसूत्रके उपमें योगीन्द्रका उल्लेख माना जा सकता है. वादिराजसे विषय होनेस मर्वार्थविद्धि में तथा अकलंक और निद्याकोई तीस तीस वर्ष पश्चात् लिखे जाने पर भी गद्य कथा- नन्दि की टीकामों विवेचित हैं और उनका ही प्ररूपण कोश वादिराजसे पूर्ववर्ती प्रमाण है, इत्यादि यह सबतो रत्नक एड कारने भी किया है। इस प्रकार न्यायाधार्यीकी न्यायाचार्यजीके 'जीको लगता है किन्तु मैंने जो रत्नकरण्ड इस शंकाका भी समाधान हो जाता है। और तो कोई के उपान्त्य श्लोकमें पाये हुए 'वीतकलंक' 'विधा' और प्रापत्ति उक्त अर्थ में वे बतला नहीं सके। अतएव उस 'सवार्थसिद्धि' पदोंमें प्रकलंक, विद्यानन्द और सर्वार्थसिद्धि श्लोकमें अलंक, विद्यानन्दि और स्वार्थ सिद्धिके उल्लेख के संकेतका उलेख किया था वह उन्हें बहुत ही विचित्र ग्रहया करने में कोई बाधा शेष नहीं रह जाती। सपना' प्रतीत हुई है और उसमें उन्होंने दो श्रापत्तियां ह-प्राप्तमीमांसा सम्मत प्राप्तका लक्षण उठाई हैं। एक तो यह कि मेरी उक्त बात "किमो भी मैंने अपने पूर्व लेखमें अन्तत: जिन तीन बातों पर शास्वाधारसे सिद्ध नहीं होती, इसके लिये आपने कोई विचार किया था उनके संबंध न्यायाचार्यजीकी शिकायत शास्त्रप्रमाण प्रस्तुत भी नहीं किया।" किन्तु मेरी उक्त है कि मैंने उन्हें 'उपसंहार रूपसे चलती सी लेखनी में कल्पनामें कौनसे शास्त्रापार व शासप्रमाण की आवश्यकता प्रस्तुत की हैं ।" मालूम नहीं पंडितजीका 'चलतीमी पंडितजीको प्रतीत होती? 'वीतलंक' और अकलंक' लेखनी' से क्या अभिप्राय है? मैंने अपने उक्त लेखांश में सर्वथा पर्यायवाची शब्द बहुधा और विशेषतः श्लेष काव्य यह बताने का प्रयत्न किया था कि प्राप्तमीमांसामें जो में प्रयुक्त किये जाते हैं। उदाहरणार्थ लघु ममन्तभद्ने 'दोषावरण याहानि' मादि रूपसे प्राप्तका स्वरूप बतलाया अकलंकका उल्लेख 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्द प्रणम्य गया है उसमें सुपिपामादि वेदनीकर्मजन्य वेदनाओं को निजभवस्या' प्रादि पद्यमें 'अमल' पद द्वारा किया है। दोषके भीतर ग्रहण नहीं किया जा सकता। इपके लिये यथार्थत: रस्नकरण्डके उक्त पद्यमें जब तक किसी श्लेषात्मक मैंने जो बहिन्तिम लक्षय:' 'निर्दोष' व 'विशीर्णदोषाशय. अर्थकी स्वीकृति न की जाय तब तक केवल 'मत्' या पाशबधम्' जैस पदोंको उपस्थित करके यह बतलाया था 'सम्यक' अर्यके लिये बीतकलंक' शब्द का प्रयोग कुछ कि उनसे ग्रंथकारका यह अभिप्राय स्पष्ट है कि वे दोषके अस्वाभाविक और द्राविडी प्राणायाम सा प्रतीत होता है। द्वारा केवल उन्हीं वृत्तियों को ग्रहण करते हैं जिनका केवली विद्यानन्दको 'विद्या' शब्दसे व्यक्त किये जाने में तो कोई में विनाश हो चुका है। 'अब यदि अधातिया कर्मजन्य भापत्ति ही नहीं है। नामके एक देशसे नामोल्लेख करना वृत्तियोंको भी प्राप्त सम्बंधी दोषों में सम्मिलित किया जाय लौकिक और शायदोनोंमें रूद है। पार्श्वसे पार्श्वनाथ, राम तो केवलीमें अघातिया कर्मोंके भी नाशका प्रसग पाता है स रामचन्द्र, देवसे देवनन्दिकी अर्थव्यक्ति सुप्रसिद्ध। जो सर्वसम्मत कर्मसिद्धांत के विरुद्ध है। अतएव दोषसे वे 'सर्वार्थसिद्धि' में तमामक ग्रंथके उखको पहचानने में ही वृत्तियां ग्रहण की जा सकती हैं जो ज्ञानावरणादि कौनसी विचित्रता है और उसके लिये किस शास्त्रका आधार घातिया कर्मोंसे उत्पन्न होती हैं एवं जो उन कोंके साथ अपेक्षित है। इस प्रकार पंडितजीकी प्रथम प्रापत्ति में यदि ही केवलीमें विनष्ट हो चुकी हैं। स्वयंभूस्तोत्रके 'स्वदोषमूलं कुछ सार हो तो उसका भव समाधान हो जाना चाहिये। स्वसमाधितेजसा निनाय यो निर्दयभस्मसास्क्रिय म् (३) भापकी दूसरी प्रापत्तिने प्रश्नका रूप धारण किया है कि आदि वाक्य भी ठीक इसी अर्थका प्रतिपादन करते हैं, "जो मापने श्लोकके 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ 'तीनों क्योंकि सयोगी केवली जिन दोर्षोंके मुनको भस्मसात् कर
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किरण ३ ]
रलकरण्ड और आप्तमीमांमाका एक कतृत्व अभी तक सिद्ध नहीं
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मके हैं वे पतिया का ही हैं, न कि अधातिया कमें। (१) देवागमनादि विभूतियां, विग्रहादि महोदय तथा
मेरे इस समस्त प्रतिपादनपर न्यायाचार्य जीने कोई तम्यापन ये प्राप्तके कोई जण नहीं क्योंकि ये बातें ध्यान नहीं दिया। केवल उमपर 'चलनीपा' नज़र डाल मायावियों, सरागियों एवं परस्पर विरोधियों में भी पाई कर लिख दिया है कि मैंने वहां "कुछ पद वागेका हो जाती है । न्यायाचार्यजीके अनुपार स्थिपासादिका प्रभाव अवलम्बन जिया है, जिनमें वस्तुनः दोष' शब्द के प्रयोगके विग्रहादि महोदयमहासम्मिलित है, अतएव उनके मतस भी अतिरिक्त उसका स्वरूप कुछ भी नहीं बतलाया।" किन्तु प्राप्तमीमांसाकार उपे भाप्तका कोई लक्षण नहीं स्वीकार करते। उन्होंने यह देखने समझने । प्रयत्न नहीं किया कि मरे (२: प्राप्तका नक्षण यह है कि उनमें ऐसी निर्दोषता द्वारा वहा प्रस्तुत किया गया समस्त कर्मनिद्धान्त तो इसका होना चाहिये जिससे उनके बचन युक्ति शास्त्र-विरोधी स्वरूप बतला रहा है जिसपर विचार करना उन्हें लाजमी और प्रसिद्धिप बाधित हों। ऐसी निर्दोषता सर्वज्ञक था। उसकी और भांख मीकर कंवल उस "चलतीमी ही हो सकती है जो सूक्ष्म, अन्तरित और दरम्य पदार्थों को लेखनाम प्रस्तुत" कह देने उसका परिहार कैसे होगया? भी अपने प्रत्यक्ष कर सके। ऐमा सर्वज्ञ हो सकता है दोष न्याचार्य जीकी इच्छ। यह जान है कि इस विषय और प्रावरण इन दोनों निश्शेष जयसे । पर मैं अपने विचार और भी कुछ विस्तारसे प्रकट करूँ (३) भाचार्य ने जो 'दोषावरणयोः हानि' में द्विवचन तभी वे उनपर अपना नचय देना उचित समझेगे । अस्तु। का प्रयोग किया है, बहुवचनका नहीं उससे जान पड़ता ___ प्राप्तमीमांसासम्मत प्राप्तक लक्षण समझनमें हम इस कि उनकी दृष्टि में एक ही दोष भोर एक ही भावरण प्रधान ग्रंयकी प्रथम कह कारिकार्य विशेषरूपम सहायक होती हैं। है। उनकी उपर्युक्त अपेक्षा पर ध्यान देनेस स्पट भी हो प्रथम और द्वितीय कारिकायोंमें कुछ ऐसी प्रवृत्तियोंका जाता है कि यह दोष कोनसा और भावरण कौनसा उल्लेख किया गया है जो मायावयों और सर गा देवामें जो हमारी समझदारीमें बाधक होता है वह दोप है मज्ञान भी पाई जाती हैं, अाए। व अ.प्तका लक्षण में ग्राह्य नहीं। और इसको उत्पारने वाला प्रावरण है ज्ञानावरण न्यायाचायीक मतान पार इन्हीं में सपानादि वेदनाांक कर्म । इन्हीं दो का अभाव होनस सर्वज्ञताकी सिद्धि होती अभावजन्य अतिशय भी सम्मिलित है । यदि यह बात है और प्राप्तता उत्पन्न होती। ठीक है तो उन्हींक मतानुसार यह सिद्ध हो जाता है कि (४) शेष जितनी बातें सर्वज्ञमें अपेक्षित हैं वे ज्ञानाग्रंथकारको उनका प्रभाव अानक लक्षण में स्वीकृत करना वरण के सर्वथा प्रभावसे सुतरां सिद्ध हो जाती है। ज्ञानासर्वथा अमान्य है। तीपर कारिकामें तीर्थ स्थापित करना वरण के साथ दर्शनावरण व अन्तराय कम भय होही भी प्राप्त कोई लक्षण नहीं हो सकता यह स्थापित कर जाते हैं और मोहनीयका क्षय उससे पूर्व ही अनिवार्य दिया गया। इन वृत्तियों का प्राप्तक लक्षणों में निषेध करके होता है जिसमें उनमें वीतरागता पहले ही प्रामाती है। ग्रंथकारने अपनी चौथी व पांचों कारिकामें कहा है कि अतएव प्राप्तमीमांसाने उनका पृथक् निर्देश करना प्रावश्यक दोष और भावरणकी हानि तर-ताम भावसे पाई जाती है नहीं समझा। जिससे क्वचित् उनकी निश्शेष हानि भी होना संभव है। (५) शेष चार प्रघातिया कमोंसे उत्पन्न वृत्तियोंका अतएव किसीको सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ भी प्राप्तमें न केवल प्रभाव नहीं माना गया, किन्तु उनके प्रत्यक्ष हो सकते हैं और इस प्रकार सर्वज्ञकी सिद्धि हो सद्भावका निर्देश पाया जाता है। प्राप्तमें बचनका होना जाती है। सर्वज्ञकी निर्दोषताका फल कारिका छहमें यह आवश्यक है और वचन विना शरीरके नहीं हो सकता। बतलाया गया है कि उससे उनके वचन युक्ति-शास्त्र वि. यह बात नामकर्माधीन है। शरीर अपनी जीवन-मरण रोधी होते हुए किसी प्रमाण सिद्ध बातसे बाधित नहीं होते। वृत्तियों सहित ही होता है और यह कार्य भायुकर्मके
प्राप्तमीमांसाकारकेस प्रतिपादन प्राप्त संबन्ध में अधीन है। शरीरसे शवृत्तिका कार्य लिया जाता उनकी निम्न मान्यताये स्पष्ट दिखाई देती है
उच्च गोत्र कर्मस सिद्ध होता है। एवं शरीर के साथ को
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क्षुधा, तृषाकी बाधा शीत-उष्णकी बाधा प्रादि दुख-सुख पूर्वका उपलब्ध नहीं है, तथा उपका प्राप्तमीमांयाके साथ खगे हुए हैं वे भी मायुकर्मके साथ तक चलने वाले वेद- एक कर्तृत्व बतलाने वाला कोई भी सुप्राचीन उल्लेख नहीं मीयकर्मके भाधीन होनेस अनिवार्य हैं। यह बात कारिका नहीं पाया जाता। १३ में वीतराग केवलीमें सुखदुखकी बाधा के निर्देशसे (३) रत्नकरणका सर्वप्रथम उल्लेख शक है ४७ में स्वीकार करली गई है।
वादिराजकृत पार्श्वनाथ चरिनमें पाया जाता है। किन्तु माप्तमीमांपाकारका यह मत है और वह पर्वथा जैन. यहां वह स्वामी समन्तभद्र कृत न कहा जाकर लोगीन्द्र' सिद्धान्त सम्मत है। प्रकलक विद्यानन्दि आदि टीकाकार कृत कहा गया है एवं उसका उल्लेख स्वामीकृत दे । म जहां तक हम मर्यादाओंके भीतर अर्थका स्पष्ट करण करते (प्राप्तमीमांसा) और देवकृत शब्दशास्त्र सम्बधी पद्य के हैं वहाँ तक तो वह सर्वथा निरापद है किन्तु यदि वे कहीं पश्व त पाया जाता है, प्राप्तमीमावासाके साय नहीं। प्राप्तमीमांसाकार के निर्देशसे बाहर व कर्मसिद्धान्तकी सुम्पष्ट देवकृत शब्दशास्त्र हरिवंशपुराण व आदिपुगण आदि व्यवस्थानोंके विपरीत प्रनिपादन करते पाये जाते हों तो ग्रंथोंक अनुसार देवनन्दि पूज्यपाद कृत जैनेन्द्र व्याकरणाका हमें मानना ही पड़ेगा कि वे एक दूसरी ही विचारधारासे ही अभिप्राय सिद्ध होता है और उसके व्यवधानस रत्नप्रभावित हैं जिसका पूर्णत. समीकरण उक्त व्यवस्थ ओंसे करण्ड प्राप्तमीमांसाकार कृत कभी स्वीकार नहीं किया महीं होता।
जा सकता। १०-उपसंहार
(४) रत्नकाण्डके उपान्त्य श्लोकमें जो बीना लंक' इस पूर्वोक्त समस्त विवेचनसे जो वस्तुस्थिति हमारे विद्या' और 'सर्वार्थमिद्धि' पद पाये हैं उनमें 'अब लंक' सन्मुख उपस्थित होती है वह संक्षेपत: निम्न प्रकार है- 'विद्यानन्दि' और 'सर्वार्थमिद्धि टीकाका उल्लेख श्लेष
(१) रनकरण्ड श्रावकाचारमें प्राप्तका जो चस्पिपा- रूपये किया गया प्रतीत होता है। बिना ऐसी कोई सादिक अभावरूप लक्षण किया गया है वह प्राप्तमीमांसा. विवक्षाके उक्त पदोंका और विशेषत: सत् या सम्यकके म्तर्गत 'दोषावरणयोहनिः' श्रादि प्राप्तके रक्षणसे मेल नहीं लिये 'वीतलंक' पदका ग्रहण किया जाना अस्वाभाविक साता, तथा पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःख त्' प्रादि १३ वीं दिखाई देता है। कारिकासं सर्वथाविरुद्ध पड़ता है, एवं उसकी संगति कर्म- इन प्रमाणाम नकर राहकार पूज्यपाद, अकलं देव सिद्धान्त की व्यवस्थाओंसे भी नहीं बैठनी जिनक अनुपार व विद्यानन्द प्राचार्योंके पश्चात् हुए पाये जाते हैं केवखीके भी वेदनीय कर्मजन्य वेदनायें होती हैं। एव उनका प्राप्तमीमाके कर्तास एकाव सिद्ध
(२) रत्नकरण्डका कोई उल्लेख शक संवत १४७ से नहीं होता।
आध्यात्मिक पद अब हम अमर भये न मरेंगे। तन कारण मिध्याव दियो तज, क्यों कर देह परेंगे। उपजे मरै काल से प्राणी, तात काल हरेंगे। राग दोष जग बन्ध करत हैं, इनको नाश करेंगे॥ देह विनाशी मैं अविनाशी, भेदज्ञान पकरेंगे। नासी जासी हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे। मरे अनन्तवार बिन समझे अब सब दुख बिसरेंगे। मानत निपट निकट दो अक्षर, विन सुमरै सुमरेंगे॥
-ले० कविवर यानतराय कर कर भातमहित रे प्रानी। जिन पग्निामनि बंध होत है, सो परनति तज दुखद्वानी ।। कौन पुरुष तुम कहाँ रहन हो, किहिको संगती रति मानी। जे पर जाय प्रगट पुद्गलमय, ते तें क्यों अपनी जानी ।। चेतन-जोति झलक तुममा, अनुपम सो से विसरानी। जाकी पटतर लगत अान नर्षि, दीप रतन शशि सूरानी ।। प्रारमें आप लखो अपनो पद, धानत कर तन मन-वानी। परमेश्वर पद आप पाइये, यौं भाषै केवल ज्ञानी ।।
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देहली धर्मपुरेका दिगम्बर जैन-मन्दिर
( लेखक-पा० पन्नालाल जैन, अग्रवाल )
संवत १८५७ में श्रीमान लाला हरसुवगयजी वेदीके चारों ओर द वागेपर दर्शनीय बहमूल्य (कुछ लेखकों के मतानुसार मोहनलालजी) ने धर्मपुरा चित्रकारी है । यह चित्रकारी बड़ी खोज क मथ (देहली) में नये मन्दिरजीकी बुनियाद रक्खी, जो शास्त्रोक्त विधिम बनवाई गई है। जैसे वेदोके पीछ मात वर्ष में पांच लाग्बकी लागतम बनकर तय्यार ३ चित्र पावापुरी, श्रनस्कन्ध यंत्र भौर मुक्ता गरक हुा ।' कुछ लेखकों का खयाल है कि वह आठ अङ्कित हैं। इसके उ. ६ भक्तामर काव्य यंत्रहिन, लाग्ब रुपयेकी लागतका है। यह लागत उस समय इसम ऊपर ह भाव, वेदी के द्वारा पांच चित्र ५ की है जब कि राज चार पाने और मजदर दो आने भक्तामर काव्य, १५ भाव, वेदीक बाई ओर ५ चित्र, रोज लेते थे। इस मन्दिरकी प्रतिष्ठा मिति वैशाख १५ भक्तामर काव्य, १५ भाव, मामने ३ चित्र, शुक्ला ३ संवत १८६४ (मन १८०७) में हुई । ६ भक्तामर काव्य, ६ भाव इस तरह चा अर १६ मन्दिरकी मूलनायक वेदी जयपुरके स्वच्छ मकगन चित्र, ४८ भक्तामर काव्य यंत्रहित, ४८ भाव हैं को संगमरमरकी बनी है और उसमें सच बहुमूल्य दशनीय है। कुछ भावांक नाम य है--मनत्कुमर पापागाकी पञ्चीकारीका काम और बलबूटोका कटाव चक्रीकी परीक्षाके लिये देवों का श्राना, भरत बाहुबल ऐसा बारीक और अनु ग्म है कि ताजमहल के कामको के तीन युद्व, शुभचन्द्रका शिलाको स्वर्णमय बनाना, भी लजाना है। जो यात्री विदेशोंसे भारतभ्रमण के ममन्तभद्रका स्वयंभम्तोत्रके उच्चारगाम पिण्डी के लियेयहां आते हैं वे इस वेदीको देव विना देहलीस फटनेसे चन्द्रप्रभकी प्रतिमाका प्रकट होना, गजकुमार नहीं जाते । जिस कमलपर श्रीआदिनाथ भगवानकी मुनिको अग्निका उपसर्ग, सुदर्शन मटके शील के प्रतिमा विराजमान है उस कमलकी लागत दश हजार प्रभावम शलीका मिहामन हाना, गवण का केलाश रुपये तथा वेदीकी लागत सवा लाख रुपये बताई को उठाना, मकमाल जीका वेगग्य और नपमगमहन, जाती है। कमलके नीचे चारों दिशाओं में जो मिहीं सीताजीका अग्निकुग में प्रवेश, भद्रबाहु स्वामास के जोड़े बने हुए हैं। उनकी कारीगरी अपूर्व और चन्द्रगमका स्वप्न का फल पन्द्रना, नाम स्वामी और आश्चयजनक है। यह प्रतिमा संवन १६६४ की है। कृष्णकी बलपरीक्षा, गरिमा जन त्यागकी महिमा, अकयह दुःवकी बात है कि मूलनायक प्रतिमा इम ममय लंकदेवका बौद्ध चायन वाद आदि। बीच की वेदी में मन्दिरजीमें मौजूद नहीं है । कहा जाता है कि वह मबसे ऊपर इन्द्र बाना मृदङ्ग प्रादि लिए हुए है इम खण्डिन होगई और बम्बई के समुद्रन प्रवाहित कर नगह चारों ओर मन्दिरका नकशा चित्रकलामें है। दी गई है।
पहले इम मन्दिर में एक यह वेदी थी फिर एक १ श्रासारेसनादीद सन् १८४७ पृष्ठ ४७-४८ रहनुमाये पृथफ वेदी उप प्रतिविम्ब ममूहक, विराजमान करने
देहली सन् १८७४ पृष्ठ १६६, लिस्ट ग्राफ, महामाहन के वास्ते बनवाई गई । जिनकी रक्षा सन १८५७ के एन्ड हिन्दु मौनमन्स Vol 1 पृ० १३२ ।
बलवे के समय में अपने जीजानम जैनियोन की थी। २ देहली दी इम्पीरियल सिटी पृ० ३५, देहली डायरेक्टरी उसके बहत वप पछि दो स्वर्गीय आत्माओंकी स्मृति फोर सन् १९१५ पृ. १०३ पंजाब दिस्टिकरगजे टयर में उनके प्रदान किए रुपयेम दोनों दालाना में दियाँ सन् १९१२ पृ. ७८, गजेटियर श्राफ देहली डिस्ट्रिक्ट बनाई गई। इन वेदियों में नीलम. मग्गजकी मतिय सन् १८८३-८४ पृ० ७८-७६, दिल्लादिग्दर्शन पृ०६, तथा पाषाण की प्राचीन वन १११२ की प्रनमाएँ हैं।
देहली इनटूडेज़ पृ० ४३, वन्डरफुल देहली पृ० ४३। एकछत्र स्फटिकका बना हुआ है। ३ अामारसनादीद पृ० ४७-४८ ।
वाहरके एक दालानमं दनिक शास्त्रमभा होनी है,
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यहाँकी शामभा दृर २ मशहा है । दशनाक्षणीमें श्रीमान लाला हरसुखरायजीन' २६ विशाल प्रायः बाहर के प्रौढ विद्वान बुलाए जाते हैं। एकम स्वा- मन्दिर (कहा जाता है कि आपने इससे भी कहीं पायशाला हे तथा पुरुषवर्ग स्वाध्याय किया करते हैं। ज्यादा मन्दिर बनवाए, परन्तु लेखकको कोई प्रमाण ___ तीमरे दालान में स्त्रियां शास्त्र सुनतीं व म्वाध्याय नहीं मिला) दिल्ली जयसिहपुग (न्यू देहली) पटपड़, f..या करती हैं उ.परके भागमें सुनहरी अक्षरों में शहादग देली, हस्तिनागपुर, अलीगढ़, सोनागिर, कल्याणमन्दिर स्तोत्र लिम्वा हया है । इसके अन्दर सोनीपत, पानीपत, करनाल, जयपुर, मांगानेर आदि विशाल मरम्पती भंडार है जिममें हस्तलिखित स्थानों में बनवाए और उन मन्दिरों के खर्च के वास्ते लगभग १५०० शास्त्र व छपे हा संस्कृत भाषाके ग्रंथों भी यथेष्ट जायदादें प्रदान की। का अच्छा मंग्रह हे इमसे स्थानीय व बाहरक विद्वान आप शाही विजांजी थे । आपको सरकारी यथेष्ट लाभ उठाते हैं। स्वयं लेखकने अनेक बार ग्रंथों मेवाओं के उपलल्यमें तीन जागीरें सनद मार्टीफिकेट को बाहर भेजा है। लेखककी भावना है कि कब वह आदि प्राप्त हए। आप भरतपुर राज्यके कोमिलर दिन आवे जब देहलीके विशाल ग्रन्थोंका जिनकी थे। आपके पुत्र सुगनचंदजीका फोटु देहलीके लाल नादाद छह हजार के करीब है उद्धार हो । क्या के ई किले में सर्गक्षत है और उक्त फोटूम आपको 'गजा जिनवाणी भक्त इस ओर ध्यान देगा! यही स्त्रियों की सुगनचंद लिम्बा हुआ है। भी शास्त्रमभा होती है । इधरसे पक जीना नीचे मन्दिर के बहर जनमित्र मंडलका कार्यालय है, जाना है जिसमें प्रायः स्त्रीसमाज आती जाती है वह जो सन १६१५ में स्थापित है और जिसने अब तक नांचे उतरकर श्री जैन कन्या शिक्षालय भवनमें १०० से ऊपर बहुमूल्य ट्रैक्ट प्रकाशित किए हैं जिस पहँचता है । शिक्षालय सन १६०८ से स्थापित है। को सरकारने Chief Literary Society लिखा पाँचवीं कक्षा तककी शिक्षा दी जाती है । तीन सौसे है तथा मंडल द्वारा स्थापित सन १९२७से श्रीवर्धमान ऊपर जैनव जैनेतर बालिकाएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं पब्लिक लायब्रेरी है जिसमें धार्मिक पुस्तकों का खासा चमको परिश्रम कर मिडिल कक्षा तक पहुँचा देना संग्रह है में लायब्रेरीव संडलको उन्नतदशामें देखनेका दाहिये। यहीं ऊपर, नीचेका मांजल में स्त्रासमाजकी उत्सुक हैं। कुछ कमियां हैं जिनपर ध्यान देनेकी तुरन्त दो शास्त्रसभाएं होती हैं। मन्दिरका महन भी काफी आवश्यकता है। इसके बाद ही इसी नये मन्दिरजी बड़ा है जिसमें बहुधा पंचायतको बैठक हुआ करती है। की जमीनपर बीबी द्रौपदी देवीकी विशाल धर्म
मन्दिरको दर्शनीय पत्थरकी छतरी है एक ओर है जिसमें कई मभाओं के कार्यालय हैं जिनका कुछ सबसे पुरानी मंवत १६४३ से चालू जैन पाठशाला कार्य नजर नहीं आता । यह धर्मशाला बहुधा विवाह भवन है जिसमें चौथी कक्षा तक शिक्षा दी जाती है शादी, उठावनी आदिके काममें आती है । यहां १५६ विद्यार्थी हैं। इतनी पुरानी शिक्षणसंस्था होते हुए यात्रियोंको टहराने के लिये कोई खास सुविधा नहीं भी कोई खास उन्नति न ह। यह दुःख की ही बात है। है। प्रबंधक व ट्रस्टी महोदयोंको खास ध्यान देकर
मन्दिरके निचले भ गमें सर्दीक मौसममें रात्रिको ऐस नियम बना देने चाहिये जो यात्रियोंको विशेष शास्त्रमभा हुश्रा करती है तथा मिथ्यात्व तिमिर- उपयोगी सिद्ध हो सकें। यहां आसपास वहुधा जैनियों नाशिनी दिगम्बर जैन मभा द्वारा स्थापित आगईश के ही घर हैं। फंडका सामान तथा दिगम्बर जैन प्रेम सभा द्वारा , अग्रेजी जैनग. अक्तूबर १९४५। २ नकल बयान स्थापित बर्तनों का संग्रह है जो बहुधा विवाह शादीके हस्तिनागपुर पृ०६.१२ मशमूला ता. जि. मेरठ १८७१ काम में आता है।
३ पंजाब डि. गज० देहबी डि. सन् १६१२ पृ.७८ ।
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बच्चोंकी दर्दनाक दशा और प्राकृतिक चिकित्सा
(लेखक-६० श्रेयांसकुमार जैन शास्त्री)
हमारी और हमारे बच्चों की कमी शोचनीय अवस्था गेने-धोनेका कारण समझने और न समझने वाली हराएक है, यह किमीसे छिपा नहीं है । प्रायः वच्चो से लेकर बड़ी माता उसे चुप करनेका सबसे सरल आय दूध पिलाना तक प्र.येक का चेहरा किसी न कि.मी गंगमे श्राकान्त है। समझती है, भले ही वह दर्दसे छटपटा रहा हो। यह एक
एक वर्षसे लेकर तीन वर्ष तक के अधिकांश बच्चे बहुत बड़ी भूल है। जिसका नतीना लगातार पेटका खगव प्राय: गंगामे ग्रस्त पाये जाते हैं। जमे दस्त श्रान्न, दध होना है। इसी कारण खून में विकार पैदा होजाना प्रारंभ गिगना, पेट में सुपड़कर दर्द होना, माधारण तौम दोजाता है और बच्चा बीमार होजाता है। श्राग्वे दुम्बनेपर उपचार न निमे श्रावों में रोड़े पर जाना
(२) जिन बच्चाको जग अधिक रोने की आदत पड़ तथा सदा और जकाम हो जाना। प्रारंभ ही बच्चोंकी जाती है, उनको बहूतमी माताएं जब कभी अफीम घोलकर ऐमी दशा देखकर सभीका हृदय दरखी हो उठता है। इन दूध पिला देता है, निममे बच्चे सोने रहे और वे काम मभी रोगोंका कारमा केवल शरीर में विकारका एकटा होना कर सके । जगमे अपने कार्य करने के कारण यह बच्चे के है। मां बाकी पालन पोषण की खगायोंका प्रमाद पाकर साथ घोर अन्याय किया जाता है, जान-बूझकर उसे विष ई। बचे रोगोंका शिकार होन। माना अशिक्षिता दिया जाता है। उमका बुरा प्रभाव पड़ने के कारगा स्वास्थ्य होने के कारण, या घोड़ी बहन शिक्षिता दोती हुई भी नर दो नाता है, दिल कमजोर हो जाता है और मस्तिष्क में स्वास्थ्य सम्बन्धी विषयांस अनभिज्ञ होने के कारण अपने गर्म या जाता है। बड़े होने पर भी यह कटे। नहीं छटती बचोका पालन-पोषण उचित सैनिमें नहीं कर पाती। इस और इमी के कारण भयानक बीमारियां उसे घर लेता है। अज्ञानताके कारण जन्म से दो बच्चोंके शरीर रोगोंके अड्डे (३) बच्चे का पाँच-छ: महीने की उम्र में अन्न-प्राशन बन जाते हैं और बेचारे कोमल व निरपराध बच्चे नाना होत ही उसे ना जपर डाल दिया जाता है, तुम समय घर के प्रकार के कष्ट भोग अकालमें काल कलित होकर संमार में सभी लोग लाइ-चाव आदिक कारण बच्चेको रोटी, दाल चल बमते है । घोड़े बहुत जो कुछ नकदी से बच जाते है चावल इत्यादि सभी चीजें दिन में कई-कई बार अपने-अपने व दुबले-पतले और कमजोर दोनेके कारण हमेशा दी मात्र विनाने लगते हैं। जिससे बड़ी खराबियों पैदा होकिमी न किसी बीमारीके घर बने रहते हैं और बड़े होने पर जाती है। प्रथम दात न निकलने के कारण वह अन्न चबाने तो वे और भी भयानक रोगकि चंगुल में फंस जाते है। में बिल्कुल असमर्थ दाना है, जिसमें उदरमं वह अन पच मंरक्षण-सम्बन्धी प्रधान भूलें:
न सकने के कारण विषवत् अाचरण करता है। दूसरे दुधके बच्चोंके लालन-पालन सम्बन्धी भूल माधारमा दाता बाद एक दम अन्न ग्रहण करने के लिए पेट भी नैयार नहीं हुई भी भावी कटु परिणामको लिये हुए होती हैं। रहता । फलतः बच्चे बीमार हो जाने है। और ऐमी दशामें निम्न प्रकार हैं:
अन्न चबाने की आदत भी हमेशा के लिए छूट जानी है। (१) सबसे बड़ी भूल बच्चों के ग्विलाने पिलानेमें की (४) ग्विनाने पिलाने के समय निधिन न रहने के कारण जाती है । प्रारम्भमे ही उनके खाने-पीने की श्रादन बिगाइ बच्चं समय-कुममय हरदम टूमते रहते है और यदा-तद्वा दी जाती है । समयका तो अंश मात्र भी ध्यान नहीं रखा उचित-अनुचित सभी खाते रहते हैं । फलत: वे बीमार जाता । किसी भी कारण से बच्चे के रोने-चिल्लानेपर उसके रहते हैं।
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किरण ३]
बच्चों की दर्दनाक दशा और प्राकृतिक चिकित्सा
(५) सवेरे के समय मिठाई श्रादि गरिष्ठ, देर से पचने शन रोगी कुछ समय बाद फिर उसी रोगसे या किसी दूसरे वाला भोजन दिया जाता है, जो अतीव हानिकर है। रोगसे ग्रस्त हो जाते हैं और दिनी-दिन इसी प्रकार शारीरक
(६) बहुतमे बच्चे कच्चे वीर्यसे पैदा होने के कारण हाम होता जाता है। शरीर में इस दबे हुए विकारका जरासी मर्दा-गर्माम बीमार पड़ जाते है।
प्रभाव बहुत बुग होता है। जिस तरह नालीका गन्दा ये कुछ कारण हैं जिनसे बच्चे बीमार हो जाते है और पानी निसे बहकर निकन मानेका गस्ता नहीं मिलता कष्ट भोगते रहते हैं। यही कारण है कि विश्वके किसी भी उमी स्थान में पड़ा पड़ा महता रहता है और दुर्गन्धि फैलाता गष्ट्र में इतने बच्चे नहीं मरते जितने भारतवर्ष में मरते हैं। है, उसी तरह औषधियोमे दबा हा विकार भी अप्राकृतिक भोजन और दुषित रहन-सहन इसके प्रधान शरीर में सड़ता रहता है और यदि वह बाहर नहीं निकल कारण हैं।
सका तो अन्दर ही अन्दर फैल कर भीषगा ल नगा चिकित्मा-प्रणालीका गलत ढंगः
प्रकट कर देता है, जिम ताद नालीके मढ़ते हुए पानीम बच्चों के बीमार पड़ने ही हम डाक्टर-दकीमौकी शरण में फिनाइल छोइनेसे उसकी दुर्गन्धि केवल थोड़ी देर के लिए पहंचने हैं, जो अौषधियों को देकर तत्काल या कुछ समय के दब जाती है उसी प्रकार शरीर के अंगों में दबा हा विकार लिये गेगको शान्त कर देते हैं किन्तु जड़मे नाश नहीं श्रौषधिके प्रभाव से थोड़ी देर के लिए मंदाग्नि अख्त्यार करते । परिणाम यह दोता है कि कुछ समय बाद रोग कर लेता है । एक दिन वह ग्राता है जब ये लोग बीमारी फिर उमड़ता है। इसमें भी उपरोक्त कार्यवाही कीजाती हे को लाइलाज कगर दे देते हैं और बेचारे निरपराध भोले. जिससे शरीर की हालत दिनों-दिन खराब होती जाती है। भाले जीव अकाल में दो लोक लीला समाम करके कुच इसी तरह करते-करते बच्चे के शरीरके वह अावश्यकीय कर जाते हैं। श्रङ्ग जो जीवन संजीवनी देनेका काम करते हैं उसकी दिनों-दिन अस्पताल तथा श्रारोग्य-भवन (Saniमौनका इन्तजाम करने लगते हैं और नतीजा यह निकलता torium ) बनते ही जाते है, लेकिन रोगोका वेग घटने है कि वे बेचारे या तो अकाल हामं काल कनित हो जाते के बजाय बढ़ा दी जाता है । वस्तुत: सैकड़ों वर्षोसे हैं या जिन्दा भी रहते हैं नी पूग जीने और मिर्फ सांस चिकित्मक हमार शागरिक रोगांकी जहन मिटा देने का लेने के बीच की दशा में रहते हैं । ऐसे बच देश और समाज हौसला भरते चले याद हैं, लेकिन सचाई कुछ और है। का कुछ भी कल्याण नहीं कर सकते।
है। निम्नलिम्बित डाक्टगके मन मे इमपर और भी अधिक ___ मैंने अाधुनिक चिकित्मा-प्रणालीको गलत कहा है प्रकाश पड़ता है:श्रतः प्रसंगवश उसका कुछ विवेचन कर देना अनुचिन
न पाश्चात्य देशके एलोपेथी (Allopathy ) धातु, होगा। विस्तृत रूसे तो किसी दूसरे लेखम लिगा, नशाले और विपले पदार्थोमे औषधियों बनाकर व्यवहार विस्तारभयसे यहाँ पर छोड़ा जाता है । देखिए:
में लाई जाने वाली सामूहिक औषधियोका नाम एलोपे थी औषधिका प्रयोग करना शरीर के प्राकृतिक नियमोंके हे निमका अर्थ विपरीत प्रभावशाली औषधि होता है, के अनुकूल नहीं है। अधिकांश औषधियां रोगको अच्छा एक एक मुविख्यात डाटर सर विलियम श्रौसलर करने के बदले शरीर में विकाको दबा और छिपा रखती हे (Sir William Osler) का कहना है (we put केवल बाहरी पीड़ा औषधिके प्रभावसे कम होजाती है, drugs, of which we know little, into जिमसे कलममयके लिए रोगीको कष्ट नहीं मालूम होता bodies, of whice we know less. इत्यादि और वह समझता है कि मैं अच्छा होगया । वस्तुत: 'दम लोग श्रोषध, जिनके बारे में कम ज्ञान रखते हैं शरीर दवाका काम रोगपर एक ढक्कन बना देना होता है जिसके में. जिसके बारे में हम और भी कम ज्ञान रखते हैं. कारण रोगी शान्ति अनुभव करता है। परन्तु विकार उसके पहुँचाते है। अमेरिका के डाक्टर क्लार्क (Clark) का शरीर में पूर्ववत् ही रह जाता है। यही कारण है ८५ प्रति- कहना है कि चिकित्सकाने रोगियों को लाभ पहुँचाने के
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किरण ३]
दानि अधक पहुँचाई है। उन्होंने सदस्बा ऐसे रोगियोंके प्राण छीन लिये तो यदि प्रकृतिके भरोसे छोड़ दिये जाते तो अवश्य निरोग होजाते जिन्हें हम औपाच समझते हैं ये वास्तवमें है और उनकी प्रत्येक मात्रा विष रोगीको शक्तिका डास होता जाता है।
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Marathi दर्दनाक दशा और प्राकृतिक चिकित्सा
'Like cares Like' अर्थात् 'विपस्य विपमपधम्' विधिको 'होमियोपैथी' अनुकूल प्रभावकी श्रौषधि चिकित्सा कहते हैं। इसमें एलोपैथी अपेक्षा बहुत कम अवगुण है, क्योंकि इसमें दवा विकारके अनुकूल और नाम मात्रके लिए होती है, जिससे रोग उमड़कर निकल तो जाता है परन्तु फिर भी श्रौषधिका कुछ अंश शरीरमें रह ही जाता है । अतः सर्वथा निर्दोष नहीं कही जा सकती
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प्राकृतिक चिकित्सक इनसे भी एक कदम आगे बढ़ा हुआ है। उसका कहना है कि मैं तो रोगी न चिकित्सा करता हूँ न लक्षणकी बल्कि सारे शरीरको क्योंकि विकार आजानेसे सारा शरीर दूषित होता है। दीपयुक्त अवस्था एक अंग या कई अंगों प्रकट दो सकती है, पर सारे शरीरको स्वच्छ और परिमार्जित करना आवश्यक है ।' श्रत: सर्वोत्तम चिकित्सा प्राकृतिक चिकित्सा है। जिसमें गुण संभावना ही नहीं रह जाती। मनी-भांति समझ लो स्वास्थ्य दवाग्यानां और शीशियों में नहीं है, अस्पताल के बन्द कमरोंमें नहीं है- दवा में नहीं है स्वास्थ्य प्रकृतिक साम्राज्य में जंगल में, बाग में सुन्दर फली में दूध मे है कि विशाल प्राङ्गण में पशु और पनि जगत सदैव स्वस्थ्य विचरण करता है । अत: निश्चित है स्वास्थ्यकी तचादी करना दोनी कि सेवन करो विस्तार से प्रस्तुत प्रकरण छोड़कर प्रकृत प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है
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प्रस्तुत करना यह है कि बीमारियोंका मुख्य कारण भोजन की अव्यवस्था है । प्राणीका स्वाभाविक भजन फल है, उससे उतरकर अन्न, दूध, मक्खन, छाछ, फल, रोटी, दाल, तरकारियों और मेवात में शक्ति दायक भोग्रदार्थ है। शेष आवाय पदार्थ है। इनके नियमित सेवन स्वस्थ और नियमित सेवन से अस्वस्थ अवस्था होती है ।
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बच्चोंकी प्राकृतिक चिकित्माः
के सभी रोगों में यदि वह खाना खाता हो तो उसे बंद करके केवल दूध और फल देने चाइये सर्व प्रथम । को कब्ज या दस्तोकी शिकायत होती है। इसमें यदि बच्चा माँका दूध पीता हो तो मांफी ममानोका व्यवहार छोडकर फल, साग-सी और मादी टोही निर्वा रोटियोपर करना चाहिये । परन्तु यदि बच्चा अन्न खाता हो तो दो तीन दिन उसे फल देना चाहिये। मीनाबूतरे अनार, अंगूर, पीता श्रादि फल दिये जा सकते हैं। दस्त श्रानेवर रसदार फल ही काममें लाना चाहिये, लोकन कब्ज केला कटहल आदि छोड़कर सभी फल खाये जा सकते हैं।
ज्वर में केवल फलोंकारी देना चाहिये, जरूरत पड़नेवर ताजे दूध के साथ संतरे का रस मिलाकर देते हैं। अवस्था लिहाज टी या बड़ी चमकी पट्टी सवेरे शाम दोनों समय श्रधे घण्टे पेटवर बाघना चाहिये। एनीमा भी लगा लेना चाहिये।
दूध पकने में भी उक्त उपचार ही काम लाना चाहिये। एक दो बार एनीमासे पेट भी साफ कर लेवे । दुखनेपर की ही भोजन व्यवस्था रखते हुए खोपर गर्म ठंढे पानीकी बैंक पाँच मिनट के लिये देना चाहिये। सेफनेकी तरकीब यह है एक पतन गर्म सहता हुआ बनी और दूसरे बर्तन में ताला ठंडा पानी भर दे दी छोटी नौलिया या कार्य दोनों बर्तन
डाल देवें फिर गर्म पानीको मलिया या फाया निकालकर उसे निचोड़कर रखे। इसके बाद इसी प्रकार ठंडे पानीकी ये एक बाद दूसरा रस्ता जाय गर्म शुरू और मकरे मिट्टाकी ठंडी ठंडे पट्टी भी खोकी बन्द करके उनपर दे सकते हैं। पुगने रोपांच मिनट का पेडू नदान भी देना चा
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सर्दी लगने और बांस नंबर यदि बच्चा बड़ा हो तो सुबह शाम मिट्टीकी पट्टी वाघ घण्टे रवं और इसके बाद ही एनीमा लगा देवे। बच्चेको दिनम चार बार सनी तीन २ घण्टे बाद चार छः बूंद नींबू और शहद मिलाकर देवें । खाने में मुनक्के या ताजे फल देना चाहिये स्वाँस खाने उपरोध० मिनट लगातार गर्म
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१३८ ।
अनेकान्त
(वर्ष ८
टूटे पानीको मेक दिन में दो बार देवे । पेटकी सफाईपर कपड़े की पट्टी अाध घण्टे बाँधकर सब खोल देनी चाहिये । मदेव ध्यान रखना चाहिये । यदि खाँसी तेज हो तो एक मोटे काकी पट्टी नाजे पानी में भिगोकर निचोड लेवे और वस्तुत: बच्चोंकी तन्दुरुस्ती माताश्रोके हाथ में है उन्हें उसीको गलेमें लपेटकर उमी भीगी पट्टीके ऊपर एक ऊनी स्वतः और बच्चोको होशियारीसे रखना चाहिये ।
आत्मविश्वास ही सफलताका मूल है
(लेग्बक--श्री अखिलानन्द रूपराम शास्त्री)
प्रामा हमारी प्रकृतिका प्राध्यात्मिक तथा दिव्य भाग विघ्नबाधाको दूर कर देगी। वह अपने कार्यकी प्रगति और है। जिन लोगोंको अपनी प्रान्तरिक दिव्यशक्तिका ज्ञान वृद्धि के लिए कोई भी कोर कसर उठा नहीं रखना और नहीं और जिनके पास इस जगानेके लिए बल नहीं उनके अपनी विचारशक्तिको इधर उधर भी गौण बातोंमें नष्ट अन्दर यह गुप्त रहता है। इस अन्तरात्माके साथ वार्ता नहीं करता। वह अपने कार्यस प्रेम करता है उसी प्रसन्न जाप करनेपर तुम्हारे सब वधन टूट जावेंगे क्योंकि तुम्हें होता है और तत्संबंधी प्रत्येक बातमें अपना तन, मन लगा मालूम हो जायगा कि तुम स्वामा हो और संसारकी कोई देता है। चूंकि उसका निश्चय हद होता है, सफलता भी शक्ति तुम्हारे सामने 'नहीं' कहनेका साहस नहीं उसकी भार खिंची चली मारी। रखती। कृतकार्य बननेका साहम करो, एक सत्तावान यदि मफलता देवीकी प्राप्ति अभीष्ट है तो अपन व्यकिकी भांति विचार और कार्य करने का माहम करो, निजकी शक्तिका प्रयोग करो और स्मश्या रक्खो कि भगवान अपने अस्तित्वका अनुभव करो, अपने आपको 'मात्मा' उन्हींकी सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करना मानो, उस दिव्य शक्तिका अनुभव को अपने लिये भाप जानते है । खूब दृढ़निश्चय करी "मैं अवश्य कृतका मोचो फिर देखो कि तुम्हारी मय रुकावट, विघ्न वाधाएँ हंगा।" प्रारमनिग्रह द्वारा बलवान बनो क्योंकि प्रारमसंय. ऐसे दर होती हैं जैसे सूर्यके निकलते ही अंधकार लुप्त सही आर्थिक सफलताको वश में करने वाली मानसिक हो जाता।
शक्ति प्राप्त सकती है। सदैव वचनके पक्के रहो, इससे भारमविश्वासी व्यक्ति अपनी मनोवांछित कामनाको प्रारमनिग्रहकी शक्ति बढ़ती है। उद्योग और परिश्रमक प्राप्ति के लिए विना पूर्ण विचार किये, घबराहट और जल्दी विना कुछ भी नहीं हो सकता । तुम नररत्न नहीं बन में किसी कार्य को भारम्भ नहीं करता । वह कार्य करते सकते जब तक कि अपनी ब्रटियों को दूर न करो। निरन समय अन्यावश्यक दिखलावे और कोलाहलके द्वारा अपनी करो कि 'मैं मफलताकी मूर्ति' हू', मैं एक उन्नतिशील कार्यक्षमताको व्यर्थ नष्ट नहीं करता । वह जानता है और भारमा हूं, मेरी शक्ति प्रतिदिन, नहीं नहीं प्रतिपल बद भलीभांति अनुभव करता है कि उसकी प्रबल इच्छा प्रत्येक रही है।
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चित्तौड़के जैनकीर्तिम्तंभका निर्माणकाल एवं निर्माता
(ले०-- श्री अगर चन्द नाहटा, सिलहट )
मेवारके प्राचीन दुर्ग चित्तौड़गढ़ पटनममाजका बहुत मूर्तियों का भी पता नहीं। जिन रामप्रसाद नरवीर एवं सती प्राचीन एवं घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। श्वेताम्बर ऐतिहासिक बियें निवास करती थीं, पहरेदार भीतर जानसे रोके रहते संबंधोंमें इसके उत्पसिकी कथा पाई जाती.' एवं ७ वीं थे भाज वहाँ बिना रोकटोकके भीर जाते भी भयका शताब्दीके सुप्रसिद्ध जैन विद्वान सिद्धसेन दिवाकरम्म पूर्व भी संचार होता है । यहांकी सुंदर अट्टालिकामोंकी दुदशा देख चित्तौड़ये जैनसमाजका अच्छा सम्बन्ध था प्रमाणित होता कर कोन सहृदय व्यक्रि दोमांसू बहाये बिना रह सकेगा? है। महान् समदर्शी श्री हरिभद्रमूरिजी (८ वीं शताब्दी) श्वेत म्बर जैनमनियोंकि कतिपय प्रन्योंमे यहांके जैनभी यहींके थे। १२ वीं शताब्दीमें यहां चैत्यवामका जबर- मंदिरों एव श्रावको प्रादिके सम्बन्ध में बहुत कुछ ज्ञातव्य दस्त प्रचार था जिसका विरोध खरतरगच्छाचार्य जिन- प्राप्त होता है। जयम' रविगजेन्द्र" के रचित चित्तौड़ वल्लभसूरिजीने किया था, भापक भक, श्रावक साधारण- चैत्यपरिपाटी द्वयके अनुसार यहां ३२ जिनालय थे जिनमें शाहने यहां महावीरस्वामीका विधि चैत्यालय बनवाया हजारपेअधिक जैनमूनिय प्रतिष्ठित थीं। चित्रकूट महाथा। सूरिजीके प्रभावसे यहां की चामुण्डादेवी प्रापकी भक्त वीर प्रमाद प्रशस्ति से वार प्रामादके निर्माता गुणराज एवं होगई थीं। सं. ११६७ में श्रापका प्राचार्य महोत्सव भी प्रतिष्ठायक प्राचार्यके इतिहास माथ और भी कई महत्व यहीं हुमा था और विधिचैयालयमें श्रापके रचित संघ की बातोपर प्रकाश पड़ता है। शत्रं जयके १६ व उद्धार के पट्टकादि ग्रन्थ शिलापट्ट पर उत्कीर्ण किये गये थे । भापके उद्धारक कर्माशाह भी यहींके निवासी थे और उन्होंने पट्टधर प्रगट प्रभावी श्राजिनदत्तमूरिजीका महोरमय भी यहाँ पाय एवं सपार्श्वके दो मंदिर भी बनवाय' थे। चैग्य(सं० ११६१ में) इसी महावीर मंदिरमें हुआ था। १६ वीं परिपाटीके अनुसार यहां श्वेताम्बर मरदायके १ खरतर शताब्दी तक यहांका मित.। अधिकाधिक चमकता रहा। २ तपा ३ अचल ४ मलधारी नायावाल ६ पल्लीवास यद्यपि १४ वीं शताब्दीमें अलाउद्दीन खिलजीने इसमें व्याघात चित्राकाल एवं पूर्णिमागच्छक पृथक पृथक जिनालय उत्पम किया था पर उसका प्रभाव अधिक समय तक नहीं थे। दिगम्बर समाजका भी यहां अछा प्रभाव ज्ञान होता रहा। १७ वीं शताब्दी सम्राट अकबर द्वारा विध्वंस होने है। जिनकीनिम्तंभ हमी समाजके एक श्रावकका महत्वपूर्ण
पश्चत चितौड अपने पूर्व गौरवको पुनः प्राप्त करने में कार्य एवं चैयपरिपाटीक अनुसार यहां एक पार्श्वनाथ समर्थ न होमका आज भी हमके गौरव के ध्वं पावशेष
स्वामीका दि. मंदिर भी था, जिसमें १०. जैनप्रतिमाएँ जगह जगह बिखरे पड़े हैं। यहांके जिन मनोरम मंदिनोंमें
४ प्रकाशित 'जनयुग' वर्ष ३ पृ० ५४ । भक्तजन भगवद् उपासना कर शांतिनाम करते थे, जिन
५ मूलप्रति एलपपुग्भंडार है, प्रतिलिपि हमारे संग्रह में है। मंदिरोंके घंटादेवसे एकवार दुर्ग शब्दायमान हो उठता था।
६ मूलप्रति भाडारकर औरियन्टल रिसर्च इन्स्टचट में है। पान वे देवालय सूने पड़े हैं भकोंकी तो बात ही क्या
प्रतिलिपिदमारे संग्रह है। मन १६०८ में डा. देवधर १ देवें पुरातनप्रबन्धसंग्रह में चित्रकृटोत्यंत प्रबंध ।
भाडारकग्ने इमे प्रकाशित भी की थी। २ देखें -सुमति गणि रचित गगाधर साधंज्ञातक वृहद् वृति ७ जैनगुर्जर कविश्री भा० १ पृ० १४५ में इन दोनों मंदिगे
(मं० ११६५) की प्रतिष्ठा विवेकमंडन गणिनेका लिम्बा है। ३ पन्द्रहवीं मोनवीं शताब्दीम है। यहाँ कीर्तिस्तंभ एवं अनेक ८ शीतलप्रसाद जीने अपने मध्य प्रान्त एवं राजपूताने के जैनमंदिरं बने अतः पुनः उत्कर्ष ही हुआ, कह सकते हैं। स्मारक ग्रंथके पृ० १३८ में अष्टापदावतार शांतिनाथ
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१४०
अनेकान्त
प्रतिष्ठित थीं। जैनसाहित्य और इतिहासके पृ० ५३० में श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमीने इस मन्दिरका निर्माता निदा शको लिखा है। बीरनिर्वाण संवत् २१०० के लगभ गोम्मटारटीका कर्ता नेमिचंद्र गुजरातसे लाला ब्रह्मचारी के से यहाँ पधारे थे वही मन्दिर में ठहरे थे इ491 मी उक्त ग्रन्थ में निर्देश है।
यहाँके ३२ जैन मन्दिरोंमेंसे कइयोंके खंडडर आज भी विद्यमान है, पर ८० हजार मूर्तियोंमें एक भी मूर्तिका नहीं पाया जाना सचमुच श्राश्चर्यका विषय है। । मेरे नम्र मतानुसार मुगलोंके आक्रमणके भय से जितनी मूर्तियां स्थानोंतरित की जा सकीं कर दी गई अवशेष बडक भूमिगृह एवं आसपास के स्थानोंमें छिपा दी गई होंगी। कुछ वर्ष हुए श्रीविजयनीतिसूरिका यहां पधारना हुआ और उन्होंने जैनमन्दिरोंकी वर्तमान दुरवस्था देख जीर्णो द्वारका काम प्रारंभ करवाया। फलतः तीन चार मन्दिरों । फलतः तीन चार मन्दिरों का जीर्णोद्धार हो चुका है बाकीका काम चालू है हम । जीर्णोद्धारित मंदिरोंकी प्रतिष्ठाके समय वहां मूर्ति नहीं होने कारण अन्य स्थानोंमे मूर्तियां मंगवाकर प्रतिष्ठत की गई पर इसके पश्चात् खुदाई करते हुए कई मूर्तियं उपलब्ध हुई हैं जो कि मंदिरमे रखदी गई है इन मूर्तियोंमें मूर्ति ferrer भी थी जो दि० समाजकी देख रेख में है । इस मूर्तिका लेख व रेखाचित्र मुझे भी दुर्गाशंकरजी श्रीमाली
थोड़ा तथा
है
द्वारपर
मंदिर के लेख देने लिखा है कि पीछे जाकर एक जैन मंदिर है जो पुराना है बड़ा दिगम्बरी मालूम होता है। भीतर वेदके कमरे पद्मासन मूर्त्ति पार्श्वनाथ व यक्षादि है भीतर प्रतिमा नहीं शिखर बहुत सुन्दर है। इसकी में पाछे तीन मूर्ति फेरी पद्मासनप्रातिहार्य साइन किन है इसकी बगल में एक वासन जैन मूर्ति है दूसरी बगल वासन हाथ ऊंची है। ऊपर पद्मामन है ।
१ मेरा अनुमान है कमान निरीक्षण कर मन्दिरोंके श्राम पास की जगह खुदाई हो तो और भी मूर्तियें मिन जायेंगी। किसी लगनशील विद्वानकी देखरेख में किसी उदारमना धन के द्वारा यह कार्य करवाया श्रावश्यक है।
जाना
एवं लक्ष्मीनारायण जी की कृपासे प्राप्त हुआ इस प्रकार है
[ वर्ष ८
है प्राप्त लेख
"संवत १३०२ वर्षे माथ सुदि ६ गुरौ श्रीमूलपंचे।" चित्तौड़ और जैन समाज के सम्बन्धमें उपर्युक प्रासंगिक निवेदन कर देनेके पश्चात् खके मूल विषय
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पर आता हूँ। चित्तौड़ के किलेपर सबसे महत्व के एवं दर्शनीय स्थानोंमें जैनकीतिस्तंभ एवं महाराणा कुंभा कीर्तिस्तंभ हो मुख्य हैं। भारतीय शिल्पके ये अपूर्व प्रक हैं। पहला कीर्तिस्तंभ ७५ ॥ । फुट ऊँचा, नीचेका व्यास ३१ फुट ऊपर का १२ फुट है। यह ऊँचे स्थानपर बना हुआ होनेके कारण काफी दूरीमे दिखाई देता है यह मंजिला ७ है बाहर और सुन्दर कारीगरी है जैनकारित होने के कारण चारों ओर जैनमूर्ति बनी हुई है। दूसरा कीर्तिस्तंभ इसके पीछेका बना हुआ होने कारण पहले में जो त्रुटि रह गई थीं उनकी पूर्ति करके उसे अधिका सुन्दर एवं कलापूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है। यह बादरसे को आकर्षक है ही पर मंजिला होनेपर भी कहीं अन्धकार एवं सुभीनेका अनुभव नहीं होता । हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियांका तो यह जो संग्रहालय है। अतः मूर्तिविज्ञान के अभ्यासांके लिये यह अत्यन्त महत्वका है।
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सबसे ऊपरी मंजिल मे २ बड़ी प्रशस्तिाँ लगी हुई है जिसमें इसके निर्माणका इतिहास है। प्रशस्तियोंके दो खंडों के स्थान रिक्त पड़े हैं। ये दोनों कीर्तिस्तंभ वास्तव में एक अद्भुत शिवप्रतिष्ठान है जिनको देखते हो उनके निर्माता कुशल शिल्पियों एवं श्रर्थव्यय करनेवाले उदारमना धनकुबेरों के प्रति सहज श्रद्धाका भाव जागृत होता है दर्शक के मुंह से बरबस उनकी प्रशंसामें वाह वाह शब्द निकले बिना नहीं रहते। मैंने तो इनके दर्शनकर अपनी उदयपुर यात्राको सफल समझी। खेद है कि वहां अधिक समय तक रहकर वहांके उन स्मारकोंके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश बनेकी मेरी अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकी। फिर भी उस स्मृतिको बनाये रखनेके लिये यत् किंचित प्रकाश डाला जारहा है श्राशा है अन्य विद्वान् इसपर विशेष प्रकाश डालने की कृपा करेंगे ।
जैनको स्तंभ के निर्माता एवं निर्माणकलाके म में अभी तक मतैक्य नहीं हैं। अतः पहले विभिन्न मतोंको
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किरगा १]
चित्तौड़क जैनकीर्तिम्भका निर्माण या एवं निर्माता
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उyा कर फिर नवीन प्राप्त प्रमाणीको उपस्थित का "कीनिस्तम्भको सं० १५२ में बघेरवाल जातिक जायेगा।
जीजा या जीजकने बनवाया था--इसका लेख पर्नल टोट १ माननीय गौरीशंकरजी हीराचंद ओझा अपने का मिला था। (Arcb. Pa Report of उदयपुर राज्यके इतिहास लिखते हैं कि--
Western India pr. 1000 में नं० २२०५ म जैन कीर्तिम्तंभ पाता है। जिसको दिगम्बर संप्रदाय २३०६ में चित्तौड़ के शिलालेख हैं। उनमें एकमें जी केवघरवाल महाजन मा. नायक पुत्र जीजाने वि.स. वषैरवालक बनवाने का उल्लेख है। की चौदहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में बनवाया था। यह ४ श्रीयन मोहनलाल दबाचन्द देशाई अपने . की िस्तंभ आदिनाथका मारक है। इसके चगें भागोंपर पाहियक मंक्षिप्त इतिहापक पृ. ४५५ में लिप्तते-- मादिनाथका एक एक विशाल दिगम्बर ( नन्न । जैनमूर्ति "जेनिम्तंभ उपर जणाव्या से कम्तिम खड़ा है और बाकीक मागपर अनेक छटी जैन मुतिय खुदी प्राग्वंश (पारवाड) संघवी कुमारपाती प्राणायाद नी दक्षिणे हुई हैं। इस कस्तंभके ऊपरकी छत्रा बिजली गिरने से बंधाव्यो हनी" । टूट गई और इस स्तंभको मा हानि पहची थी परन्तु प्रापने श्रीमाजीका मत उद्धत करते हुए वह मप्रमागा वर्तमान महागगणा (फतहसिंह जी) पा० ने अनुमान ८०
नहीं लिया है। हजार रुपये लगा कर ठाक बैमी ही छत्री पंछे वनवादी
जैनमत्यप्रकाश वर्ष ७ अं. ५ - २-३ के पृ० १७. है और स्तंभकी भी मम्मा हो गई ।
में मुनि ज्ञानविजयजीन अपने "जैनतीथी" नियन्ध
लिम्बा है कि२ वा. शीतलप्रपाद जीने म. राज के जैनस्मारक
नित्तोड ना किल्लायां बे ऊंचा कौनिस्तंभी छ जो (पृ० १३३मे १४१) में लिखा है कि इसे बबेरनाज जीजाने
पैकीनो एक भ. महावीरस्वाम'ना का मां जैनमं० ११..के लगभग बनाया था। पर चारित्रग्रनर्माण की चित्रकूटीय महावीरमंदिरकी प्रशस्तिसे राजा कुमारपाल ने
कोतिस्तंभ छ जे ममये श्वेताम्बर अने दिगम्बर ना प्रतिमा
भदो पड्या हता ने समयनी एटले वि. म. ८६५ इसे बनाया यह भी प्रा० पर्वे सन १९०५-६ पृ. ४६
। पहेला नीए जैन श्वेताम्बर कार्निम्नमछे । x उलट राजा में लिखा है।
जैनधर्मप्रेमी हतो x नेना समय मां भ. महावीर स्वामी नं ३ बाबू कानताप्रपादजीसे पूछने पर धापने लिखा
मंदिर श्रने कार्तिस्तंभ बनो । मा कानिम्नभनी १ जिसके ऊपर की त्री बनाने व मरम्मत करने में ८० हजार शिल्पस्थापत्य अनेतिमाविधान ते समय ने अनुरूप छ । रुपये व्यय होगये उसके निर्माण में कितना अधिक अर्थ पर मुनिजीका उपर्युक्त लेखन यह नहीं है उन्होंने व्यय हागा पाठक स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। वि.सं. ८६५ में पूर्व के होने की कमाना हमलिये की है एक एक स्मारक के पाछ गाग्वा करोडो रूपये लगाने वाले कि उममें उत्कीर्ण मृतिय दिगम्बर लग्न है। उन धनकुबेगके प्रति किमको अादर न होगा।
उपर्यन अवतरगाॉम पर है कि "विद्वानों के मत श्रीयुत् जगदीशमिजा गहलोतक गजपमानना हान. कार्निस्तंभ के निर्मागा काल के सम्बन्ध में एक दूसरे पधा हामम भी यही लिखा है। शानल मादतीने मन भिन्न हैं कोई
उ से पूर्व वाई १५२ कोई .. कोई भारत व राजपूतानेके जैनस्मारकको १० १५६ २२१. वीं का उत्तगई और कोड १५ व मानते हैं एवं हजार व्यय करने व कारके तोरगा नये बनाने का उल्लेख ३ मुझे उक्त रिपोर्ट नहीं प्रामदामकी पर यदि उसमें कानिकिया है। अर्थ व्ययका रिमाग अंभाजी सूचित दी स्तंभका लेखनी में बाल कामनाप्रमाद जासे प्रकाशित महा प्रतीत होता है।
करने का अनुरोध है मेर ख्यालम अपने संवत बन. २ गजा कुमार यान गलत समझा गया है प्रशस्लिमें पाबाः लाया है वह लेग्वमें नहीं होगा फिर भी हमका न्याय तो संघरति कुमार पान लिया है।
मुललेग्वक मिलने पर ही हो सकता है।
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१४२
अनेकान्त
। वर्ष ८
कीर्तिम्भ के निर्माता सम्बन्धमें पिछले दोनों विद्वानोंका .सं. १६६ से पूर्व रचिा (जय हम कृन) चित्तौड मन श्वे. कारित (जिनमें देशाइने पोग्वाड कुमारपाल चेप्यपरिपाटीमें--- कारित भी बतला दिया है) होने के पक्षमें है। प्र. हुंबडपून तणी धूप तेगि ए मति मंदान। शौनलप्रपाद नीने श्रा० सर्वे के मनानुमार नोनी मत उद्धन कीरति थंभ करावि जात मा हरी सूखडी। किये हैं अत: निर्माता एवं निर्माण काल का निर्णय करना मात भैरिमोहामणीइ विंव महम दोइ देखि । परमावश्यक है।
पंखी पारा मरा ॥ वंदी वीर विशेष ॥१८॥ श्रीयुत देशाई एवं श्रा, पर्वका हमारपाल कारित २ सं० १५७७ में गयंदिरचित चिनौट चैम्प करने का प्राधार नियकृत महारप्रसाद प्रशस्ति है इसकी परिपाटीमेंप्रति मंगाकर देखनेर जात हा कि इस ! शम्तिके पाठ 'पापइ ईवड पनानीमना देवातकहइ इक ताता तार नरे। के ठक नाम नहीं समझने के कारण ही यह भ्रम हुअा मृखडी नइ धन वैगि करावीउरे कीरनिथंभ विग्यान रे ॥ प्रान होना है जिप श्लोकक अर्थ भ्रमके कारण यह गलत उपरि चोखी चिह परि कोणीरे ऊंचर अति विस्तार। धारणा हई है व नोक यहाँ उन्हत किया जाना है जिसमे चडता जे भंडामात माह मणीर बिंब सहमदाइ मार मारना पाठकों को स्वयं निणय करने में सुगमता होगी
ढाल-हवइ दिगंबर देहरारे. तिहां जे नवम बिंब । उच्चमहपान - देश - कुलिका विस्तीर्ण माणश्रियं । भामंडन्त पृठः भन्न न रे, छत्र प्रय पडिबिंब ।। कनिम्तंभ समापवर्तीनमम श्रीचित्रकुटानले ।
अनियां पूजह प्रभु पाम, पनु परइ मनकी प्रास । प्राक्षाद मृजन. प्रसादमममं श्री मामलावितेः। चर्चा चंदन केवडहरे गोरी गावहसमा भवियांपु० । श्रादेशाद्गुणराजमाधुमित स्वरचंदधाषान्मुदा ॥८६" ये दोनों रचना ये श्वेताम्बर मुनियोंकी रचित हैं उन्होंने
उस समय जैसा प्रपिद्धि सुनने में आई वर्णित की है। प्राग्वशम्य ललाम् मापारि शासन यन्नष्टक । गत मार्गश पतिपदको साहित्यालङ्कार मुनिकांतिमारजीमे प्रट: प्रत्यष्टधाजनपते: पूजा सृजन द्वादश । गमपुरमें इस संबध वार्तालाप होने पर आपने अपने सघाधाश कुवारपाल सुकृता कैलाश लघमा हुतो। संग्रह के एक लेखकी नकल बतलाई जिमसे इम की िस्तंभ दक्ष दक्षिणताऽस्य मोदरामवामाद मादीचपन ॥६५ क निर्माणकाल एवं निर्माताके अन्य धार्मिक कार्यों तथा अरकश वेश: तिलकः सुकृतारुते जने । वंशकमपर नवीन प्रकाश मिलता है। अत: इससे उसे भी म्जात्मजः प्रति वपन्नह चित्रकृटे। नीचे दिया जारहा है । प्रस्तुत लेख कारज के नामोल्लेख धात्रायः सुजन जोवनदत्त शैन्यं । होनम और भी महयका है क्योंकि कारंजाक उल्लेख वाला चन्यं चचारु निरमी पदुनरस्य ॥ ६ ॥ अन्य लेख अद्यावधि प्रज्ञात है।
अर्थात् --कीनिस्तंभक समीप में गुणराजने मोकनारामा ३ म्वस्ति श्री संवत १५४१ वर्षे शाक १४ । के मादेशसे महावीर जनात्मक बनाया उप मदिरके दक्षिणा (१४०६) प्रवर्तमान काधीता संवत्सर उतरगणे मासे
में पारवाड मंक कुमारपालका जिन मंदिर था और उत्तर शुक्लपक्ष ६ दिने शुक्रवासरे स्वातिनक्षत्रे-योगे २ करंगे प में श्रीमवाल नेजाक पुत्र चाच,के कगस्ति मंदिर था। मि. लग्ने श्री वराट (ढ) देशे कारंजानगरे श्री जी
अत: कस्तंभन श्वे. व कुमारपाल कारित कहना सुपाश्वनाथ चैत्यालये श्री म(मृलसंघे सनगणे पुष्कर गाछे भ्रममूलकही प्रतीत होना है।
अचम:मन् वृद्धमनगणधराचार्ये पारंपर्गद्गत श्री देवीर अब मैं मुझे प्रान तीन महत्वपूर्ण प्रमाणों को उद्धन महावाद वांदीश्वर रायवादियिकी महामकल विद्वजन माध करता है जिनके श्राधार बघेरवाज मा. जिजाक पुत्र (व)भीम सामिमानवादीममिहभिनव त्रैवद्य सोमन पुनमिहने अपनी पुत्रीक अनुरोधमे प्रस्तुत कीर्तिम्तंभ भट्टारकाणामुपदेशात श्री बघेरवालज्ञाति बमह वाड ५५ वीं शताब्दीमें बनायासिद्ध होता है।
गोत्र अष्टानाशत महोगशिखरप्रासद समुद्धरणे धीर:
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किरण ३1
चित्तौड़ जैन कानिस्तभका निमाणवाल एवं निमाता
त्रिलोक श्री जिनमहाधिबीद्धा अष्टोनरशन श्रीनिमापाजितविनानुसारेणा महायात्रा प्रनिडातीर्थक्षेत्र....... प्रतिष्ठा कारक अष्ट दशस्थाने अष्टादशकोटिश्रनभंडारसंस्थापक म्युफ से ग्व अधूपसानान होता है पर इससे यह सवानक्षबंदी मोक्षगक मंट द पाट देशे चित्रकूटनगरे नोपरा है कि कार्तिस्तंभक निर्माता वधेरवाल श्रीचंद्रप्रभ जिनेन्द्र चैयालयस्याग्रं नि ..भुपाजितवित्तबलेन जीजा उनके पुत्र पुनहि थे उन्होंने १०८ शिखरवद्ध श्रीक निम्तम प्रारोपमाह जिना सुमार पूनिःस्म मंदिगेंका उद्धार गया, अनेक जिनविय बनवाये, १०८ समहदेउ नस्य भार्गवू तुकायाः पुत्र नावार ने प्रतिष्ठाय करवाई. १८ स्थानों में 15 टि श्रनभंडारकी प्रथम पुत्र माह लम्बागा भार्या ई जनाई म संघवी संस्थापनाका लाख वंदनाय और अदभुत कातिभ
गर्या हाई हुतायपुत्र ० भीम तृ पुत्र बनवाया इ. प्रकार य: पावार बहुत ही धनी एवं समृद्ध संघका वीरू भायां संघ व गीगइ गई चनुथं पुत्र- या लेम्ब ५४ वन का है त: कास्तिभ वन: सं. मदे भाय। पदमाई नया: सुता: म. प्र..सी १० धमनी १५०० के अासपास ही बना होगा। सा. देवपी - - चयालयोद्वरणा धरण नजभुजी ....
है . जीव माय अपनको उन्नन श्रीर अवनत बनाता है। (पृष्ठ १० का शेषांश)
नाम अमाका गुरु श्रामा ही है। नेतानकर रहे हैं। पर जैत्री अस्मिाका पालन कायर परिग्रहपरिमाण अथवा अरिग्रहवन विश्वशान्तिका पुरुष नहीं कर सकता । आत्म नर्भया इन्द्रिय विजयी, प्रमोघ उपायह। ममवपरिणामका नाम परिह है और मदृष्टि मनुष्य ही उसका यथेष्टरीया पालक हो सकता है। परिनतम मा होता है। अतः श्रमिक जावक लिये निय समुदार शापनकी छत्रछायामं रहकर पशु भी
परिग्रह का पाया प्रमाण करना अंपकर है । परन्तु अपनी अामाका विकासकर मकं वही विश्वका पावनोनय कप ma nu भीमक सम हो सकता है। वीरके शासन में यह बाप गृहम्गामें रहकर न्याययं धनादि कम्पत्तिका अर्जन विशेषता है कि वह दुनियावी विरोधों को पचा सकता है - एवं संग्रह करे, परन्तु उसके लिये उसे सनने हा प्रयत्नकी अनेकान्त या स्यादाद द्वारा उनका निम्मन एवं समन्वय जरूरत है जिनम उसकी श्रावश्यकताओं का पनि प्रामानी कर सकता है. तथा उनकी विष 'ताको दूर करता हुअा में हो सकती ह।। श्र: गृहस्थ के लिये पारग्रहका प्रमाण उनमें अभिनव मैत्री का संचार भी कर सकता है। इसपर करना प्रायक है। मुनि कि परिग्रह सहन होने हैं। अमन करने से हमारे दैनिक जीवन की कठिनाइयां भी अनः उन्हें अपरिग्रही एवं अतिचिन कहा जाता है। मरतन महल हो सकती हैं।
चाम्तव में यदि विचारकर देखा जाय गो संपारके सभी भारत के दूसरे धर्मों में यहां जीव की परतन्त्र माना अनर्योका मूल कारण परिग्रह अथवा माम्राज्यकी लिप्पा जाता है-उसके सुख दुःम्ब श्रादि सभा कार्य ईश्वरक है। इसके लिये ही एक राष्ट दूपर को निगलने एवं प्रयत्न एवं इच्छा में सम्पन्न होते बतलाये जाते हैं, वहां हापने की कोशिश करता है। अन्यथा विभृतिक संग्रहकी वीरशा नमें जीवको स्वतन्त्र गना है-यह मुम्ब दुःख अनुचित अभिलाषाक चिना रक. पान हानकी कोई अच्छे या बुरे कार्यों को अपनी इच्छामे करता है और सम्भावना ही नहीं है, क्योंकि धनयों का मुख कारण लोभ उनका फन भी स्वयं भोगना है वीरशासन में दब्यरश्मि अथवा स्त्री, राज्य और भनकी मम्प्राप्ति है। इनके लोभ में (जीवविकी अपेक्षाम) सभी जी। यमान है . परन्तु पर्याय ही महाभारत जैप कागद हुए है और ही है। अत: दृष्टि उनमें राना, रंक आदि भंद हो जाते है। इस भंदका समाजको भगवान महावीर के इन सिद्धान्तीपर "यं अमन कारण जीवोंक द्वारा पमुपाणित स्वकीय पुगय पापकर्म है। करना चाहिये। साथ ही संगठन महनशीलता, तथा वात्सल्य उसके अनुसार ही जी। अरछ। बुरी पर्याए प्राप्त करना है का अनुसरया करते हुए भगवान महावीर के सिद्धानोंक प्रचार और उनमें अपने कर्मानुसार सुख दुःखका अनुभव करना एवं प्रसार कर उसे विश्वका मा धर्म बनाना चाहिये।
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वीरसेन स्वामीके स्वर्गारोहण-समयपर एक दृष्टि
(ले०--न्या० पं० दरबारीलाल जैन, कोटिया)
कुछ विद्वानों का मत है कि धवलाटीका लिवन में २१ भी इसके अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। दूसरे यह भी वर्ष लगे हैं अत: जयधवलाटीकामें भी इतना समय अपेचन सम्भव कि गुरु व ग्मन नामी वृद्धवके कारण अथरचहै। चूकि जय पवनाका दो निह ई भाग वीरमन म्वामीके ना दकार्यमे विराम लेकर प्रारम-माधनाके निमित्त अन्यत्र शिष्य जिनमन स्वामीने रचा है और प्रारम्भका एक-तिहाई विहार कर गये हों अंर शिष्य जिनसन दूसरी जगह हो भाग वीरमन स्वामीका रचा हुआ है अतएव दो-तिहाई और ऐपी हाल में उन्हें साक्षात् परामर्श न मिल सकने में भागकी रचना १४ वर्ष और एक-तिहाई भागकी रचना उनके द्वारा रचित पूर्वभागको देखकर ही अपना अग्रिमभाग ७ वर्ष में हुई होगी। प्रो. हीरालाल जी श्रादि कुछ विद्वानों निपेनने लिम्बा हो। तीरे प्रशस्ति लिखने का प्रश्न ग्रंथ की यह मान्यता है कि धवलाकी समाप्तमन ८१६ में हुई समाप्तिके बाद ही प्रस्तुत होता है ...- पहले नहीं। अब जब है, धनलाके ममाप्त होने के बाद ही वीरमन म्वामीने जय- जयधवजा माप्त हुई तब जिनमेनके सामने यह प्रश्न धवलाका कार्य हाथ में ले लिया होगा और ७ वर्ष तक उप उपम्ति हुआ कि जयधवलाका प्रशस्ति कौन लिखे ? क्यों करते रहे होंगे। बादमें स्वर्गवास होजाने की वजह ही वे कि जयधवला टीका गुरु (वीर पेन) और शस्य । जिनम्न) जयधवलाका कार्य पूरा नहीं कर पक और इस लिये उनके दोनोंने मिलकर रची थी। और इस लिये गुरु कीरसेन शिष्य जिनमेन स्वामीको वह पूरा करना पड़ा। अत: स्वामी भी जयधव नाकी प्रशस्तिक लिखने में साझेदार थे। वीरमेन स्वामीका म्वर्गारोहया समय मन 1+७-२३ इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि बृद्ध गुरुने प्रशस्ति क लगभग मानना चाहिए।
लिखनेका भार अपने विनी एवं प्रतिभापम्पन्न प्रिय शिष्य . हम मान्यताका एक माधार यह भी बनताना नाता
जिनमनपर छोड़ दिया होगा और उन्हें पके सम्बनेकी किजिनमन स्वामीने जयपधलाका अगला भाग वामन
प्राज्ञा देदी होगी जब हम इस विचारको लेकर जयधवता स्थामा पूर्व रचे गये भागको देखकर लिखा कहा। यदि
की समाप्ति प्रशस्तिके उप ३५ वें पद्यको ध्यान से पढ़ते हैं वीरपन स्वामी उम समय जोवित होते ना जिनसेन को जन जिसमे जिनम्न स्वामी कहते हैं कि यह पुरा प-शामन के बनाये हुए पूर्वाद्ध को ही देख कर पश्चार्धको पूरा करने का
(पुण्य-प्रशस्ति । गुरु (चीरमन स्वामी की प्राज्ञामे लिख। या श्राव. यकता थी? वे वृद्ध गुरुके चणाम बैठकर उस है' नो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वीरपेन स्वामी पूरा कर सकते थे। अत: इपर यही निकर्ष निकालना
रोहण ई०८२३ लगभग नहीं हुआ बल्कि जयधवः । पड़ता है कि जयधन नाक कार्यको अधुरा हा छोड़कर स्वामी की समाप्तिक समय (४० ८३७) क कुछ वष बाद हुश्रा वीरसेन दिवंगत हो गये थे।
और वे जयधवला प्रशस्तिक लिखने के समय मौजूद थे। पन्त ये दोनों ही प्राधार विचारणाय प्रथम तो यद्यपि उप्रशम्तिके ३६ - पद्यमें उन्होंने यह भी लिखा यह कोई अ.नवार्य एवं आवश्यक नहीं है कि गुरुक अस्ति. है कि 'गुरुके द्वारा बिस्ता लिखे गये पहले के आधे भाग स्वमें गुरुके समीप रहकर ही ग्रन्थरचनादिका कार्य किया को देखकर ही उत्तर भागको जिम्बा है।' पर उनका यह जाय, अथवा पाप रहते हुए भी उनका पूर्वरचित रचनाको जिवनम उपर्युन विचार में कोई बाधक नहीं है, क्योंकि प्रादर्श बनाकर उसका श्रोकन न किया जाय । साक्षात गुरकी भौज रगीमें भी गुरु जैसी पद्धतिको अपनाने के लिये परामर्श लेते हुए भी कितनी ही विशेषताओं का प्रदर्शन जिन पेनने पुर्वभागको देखा होगा तथा वीरमन स्वामीने और परिज्ञान उनकी कृतियोंसे होता है। वर्तमान समय में वृद्ध गादि के कारण जाधवत के अगले कार्यको वयं न
कर निनसेन के सुपर्द कर दिया होगा । इसमे यह १ बा. ज्योतिप्रमाद जी एम. U ने धवला के मान-संबंध
विदित होता है कि नीरम्मनस्वामीका स्वर्गारोहगा सन ८२३ जो . या विचार हाल में प्रस्तुत किया है उसे अभी यहां छोड़ा जाता है।
में न होकर जयधवनाकी समाप्तिममय शक सं० ७५६ (ई.
--लेम्वक २ जयघवला मुद्रन, प्रस्तावना पृ. ७५ ।
पन् ८३७) के कुछ वाद हुधा है।
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वीरसेवामन्दिरको सहायता ।
दी प्रिन्सिपल जैन कालेज सहारनपुर २ दी प्रिन्सि
पल जैन कालेज, बदौत ३ वीर दि. जैन विद्यालय मु. प्रथम किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवा- पपौरा पो टीकमगद सी. आई. ४ मैनेजर श्री जैनगुरुमन्दिरको सदस्य कीसके अलावा जो सहायता प्राप्त हुई।
कुल पो. मलरा via विजावर जि. झांसी, ५ मैनजर वह क्रमशः निम्नप्रकार है और उसके लिये वे
श्रीऐ. प. दि. जैनसरस्वती भवन ब्यावर (अजमेर) ६ सब धन्यवादके पात्र हैं।
मैनेजर श्री उत्तर प्रान्तीय दि. जैन गुरुकुम, सहारनपुर ११००) बा. छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता (अपनी
३१॥) श्रीमन्तमठ लघमाचन्द जी जैन भेलसा ग्वालियर । धर्मपत्नी स्व. मंगाबाई दानद्रव्यमेंसे पूर्व स्वीकृत
(निम्न ६ स्थानोंको अनेकान्त फ्री भिजवाने के लिये श्री ५०००) की सहायतामें १०० की वृद्धि के साथ) दिगम्बर जैन वहा परचार मन्दिर, ग्वालियर २ श्रीमान् सूवा १०.) ला कन्हैयालाल बजवन्तसिंहजी जैन, खतौली
माहिब जिला कलेक्टर, भेलमा (ग्वालियर) ३ दी हेडमास्टर • जिला मुजफ्फरनगर (लायब्रेरी में ग्रंथ मंगाने के
वी. श्रीमन्तसेठ लचमीचन्द जैनहाईस्कूल, जायरी भेलमा लिये) मा. पं. परमानन्द जैन शास्त्री।
( ग्वालियर ) श्री दि. जैनपुस्तकालय ठि. जैनधर्मशाला. ३०)ला. बाबूराम अकलंकप्रसादजो जैन तिम्सा जि.
भोपाल ५ पार्वजनिक वाचनालय, जैनधर्मशाला माधवगंज मुजफ्फरनगर(धर्मकीर्तिके प्रमाणवात्तिक स्वो. माष्यको
भेलमा (ग्वालियर) ६ श्री दि० जैनमन्दिर वासौदा ठिक भन्नामंगाने के लिये) मा. पं. परमानन्दजैन शास्त्री।
लाल दुजीचन्दजी जैन. वासौदा, (ग्वालियर) ७ श्री दुली५२३०)
चन्द सीमतरायजी जैन, मंडी गुलाबगंज, ८ श्री दि. जैन अधिष्ठाता
चैत्यालय, भेलसा (ग्वालियर) ६ ला प्रेमचन्दजी जैन, वीरसेवामन्दिर, सरसावा
माधवगंज भेलसा (ग्वालियर)।।
५) ला. तनसुखरायजी जैन, तिम्मा जि. मुजफ्फरनगर
५) हकीन ना. चन्द्रसैन ,, , गत दूसरी किरण में प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्त को जो सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमश: निम्नप्रकार है, ६२॥) जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं:२१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी जैन बजाज
मैनेजर 'अनेकान्त' सहारनपुर । (निम्न ६ संस्थानोंको अनेकान्त अपनी ओरमे
वीरसंवामन्दिर, सरसावा फ्री भिजवानेके लिये)
सहारनपुर
अनेकान्तको सहायता
केवल पुस्तकालयोंके लिये
-
हिन्दीके मशहूर लेखकांके कद्दानी, उपन्यास, कविता, नाटक, काव्य श्रादिकी पुस्तकोपर हम केवल पुस्तकालयों को ६ प्रतिशतसे २५ प्रतिशत तक कमीशन देते हैं। श्राज ही नियम और सूचीपत्र मंगाईये ।
दुकानदार और श्राम जनता इन नियमोसे लाभ नहीं उठा सकेगी।
कथा कहानी और संस्मरण भारतका श्रादि मम्राट कर्म फल कैसे देते हैं सम्यग्दर्शन की नई खोज भविष्यदत्त चरित्र धन्यकुमार चरित्र अकंलक नाटक सतीमनारमा उर्फ धर्मकी देवी दर्शन कथा, दर्शपालन, दर्शप्रतिज्ञाशील महिमा, जैन ऋषि हरेक ) पोस्टेज अलग
-कौशलप्रसाद जैन, कोर्ट रोड, सहारनपुर
SES
अद्भुत पुस्तकें
राजपूताने के जैन वीर हमारा उत्थान और पतन
२) १)
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१ -:
१८. जय -प:य
वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
१- श्राचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र - नया प्राप्त संक्षिप्त सूत्रप्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर की सानुवाद व्याख्या सहित । मूल्य ।)
Regd. No. A-736. जय
२- सत्साधु- स्मरण - मङ्गलपाठ-मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना सुन्दर हृदयमाही अनुवादादि सहित । इसमें श्री बीर वर्द्धमान और उसके बादके जिनसेनाचार्य पर्यन्त, २१ महान आचार्योंके, अनेकों आचार्यों तथा विद्वानों द्वारा किये गये महत्वक १३६ पुण्यस्मरणों का संग्रह है और शुरूमें १ लोकमङ्गल कामना, २ नित्यकी आत्मप्रार्थना, ३ साधुवेपनिदर्शक जिनस्तुति ४ परमसाधुमुखमुद्रा और ५ सत्साधुवन्दन नामके पांच प्रकरण हैं । पुस्तक पढ़ते समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और साथ ही आचार्योंका कितना ही इतिहास सामने आ जाता है, नित्य पाठ करने योग्य है । मू० ||)
३- श्रध्यात्म-कमल, मार्त्तण्ड - यह पंचाध्यायी तथा लाटीसंहिता आदि ग्रंथोंके कर्ता कविवर - राजमल्लकी पूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कूजे में बंद किया गया है। साथ में न्यायाचायें पं० दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्द शास्त्रीका सुंदर अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्री जुगलकिशोर की लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। बड़ा ही उपयोगी ग्रंथ है । मृ० १ | | )
४- उमास्वामिश्रात्रकाचार-परीक्षा- मुख्तार श्री जुगल किशोरजी की प्रथपरीक्षाओंका प्रथम अंश, ग्रन्थपरीक्षाओं के इतिहासको लिए हुए १४ पेजकी नई प्रस्तावना सहित । मू० ।)
५- न्याय - दीपिका - (महत्वका नया संस्करण ) - न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी कोठिया द्वारा सम्पादित और अनुवादित न्यायदीपिकाकाव्यह विशिष्टसंस्करण अपनी खास विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित संस्करणों में जो अशुद्धियां चली आरही थीं उनके प्राचीन प्रतियों पर से संशोधनको लिए हुए यह संस्करण मूलग्रंथ और उसके हिंदी अनुवाद के साथ प्राक्कथन,
सम्पादकीय, १०१ पृ० की विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई ८ परिशिष्टों से सकलित हैं, साथमें सम्पादक द्वारा नवनिर्मित 'प्रकाशाख्य' नामका एक संस्कृतटिप्पण लगा हुआ है, जो ग्रंथगत कठिन शब्दों तथा विषयोंका खुलासा करता हुआ विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके काम की चीज है । लगभग ४०० पृष्ठों के इस बृहत्संस्करणका लागत मू० ५) रु० है । कागजकी कमीके कारण थोड़ी ही प्रतियाँ छपी है। अतः इच्छुकोंको शीघ्र ही मंगा लेना चाहिये ।
६ - विवाह - समुद्देश्य - लेखक पं० जुगलकिशोर मुख्तार, हाल में प्रकाशित चतुर्थ संस्करण ।
यह पुस्तक हिन्दी साहित्य में अपने ढंगकी एक ही चीज है । इसमें विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही मार्मिक और तात्विक विवेचन किया गया है अनेक विरोधी विधि-विद्वानों एवं विचार-प्रवृत्तियों से उत्पन्न हुई विवाहकी कठिन और जटिल समस्याको बड़ी युक्ति के साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण द्वारा सुलझाया गया है और इस तरह उनके दृष्टविरोधका परिहार किया गया है। विवाह क्यों किया जाता है ? उसकी असली गरज (मौलिकष्ट) और सैद्धान्तिक स्थिति क्या है ? धर्मसे, समाजसे और गृहस्थाश्रम से उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना चाहिये ? उसके लिये वर्ण और जातिका क्या नियम हो सकता है ? विवाह न करने से क्या कुछ हानि-लाभ होता है ? विवाहकं चात् किन नियमों अथवा कर्त्तव्यों का पालन कसे स्त्री-पुरुष दोनों अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं ? और किस प्रकार अपनी लौकिक तथा धार्मिक उन्नति करते हुए वे समाज और देशके लिये उपयोगी बनकर उनका हित साधन करने में समर्थ हो सकते हैं ? इन सब बात का इस पुस्तक में बड़ा युक्तिपुरस्सर एवं हृदयग्राही वर्णन है । मू० ।।) प्रकाशनविभाग, वीर सेवामन्दिर, सरसावा सहारनपुर 25
26 DG
25
G मुद्रक, प्रवाशक पं० परमानन्द शास्त्री वीर सेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुर में मुद्रित
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पकान्त
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
FIRRHAR
1200
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SURAK
वर्ष ८
akal
विषय-सूची १ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक १४५ २ अहिंसा और मांसाहार-प्रो० ए० चक्रवर्ती
१४८ ३ हम अाजादीके द्वार खड़े है-[पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' १५३ ४ रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृन्च प्रमाण सिद्ध है
[-पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया भर ५ कौनसा कुण्डलगिरि सिद्धिक्षेत्र है ?-पं० दरबारीलाल कोटिया १६२
६ मनुष्यनीके 'संजद' पदके सम्बन्धमें विचारणीयशेष प्रश्नan [टा. हीरालाल जैन एम. ए.
७ जैनवाङमयका प्रथमानुयोग-[बा. ज्योतिप्रसाद जैन ८ एक ऐति० अन्त:साम्प्रदायिक निर्णय-[बा. ज्योतिप्रसाद जैन १६६ १ महाशक्ति (कविता)-'शशि' ... ... . ६. अमृतचन्द्र सूरिका समय-[पं० परमानन्द जैन १ राजगृहकी यात्रा-[पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया २ जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व और पद्व्यव्यवस्थापर प्रकाश
५० वंशीधर जैन, व्याकरणाचार्य ३ अदृष्टवाद और होनहार-[श्री दौलतराम 'मित्र' DHIRE & वीरके संदेशकी उपेक्षा-प्रभुलाल जैन, प्रेमी PAHIHIND१६ क्या तीर्थकरप्रकृति चौथे भवमें तीर्थकर बनाती है ?
-बी० रतनचन्द मुख्तार ... १७ धर्मरत्नाकर और जयसेन नामके प्राचार्य-[पं० परमानन्दशास्त्री २०० 11 जैन धर्ममें वर्ण-व्यवस्था कर्मसे ही है, जन्मसे नहीं
-[पं० इन्द्रजीत जैन, न्यायतीर्थ It साहित्य-परिचय और समालोचन-पं० परमानन्द जैन २
२० सम्पादकीय-[सम्पादक ... ANSW२१ देहलीके जैनमन्दिर और जैन संस्थाएँ-बा० पन्नालाल जैन, २१५
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अप्रैल-मई १९४६
४.५
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विलम्बपर भारी खेद !
अनेकान्तकी इस किरण के प्रकाशनमें जो असाधारण विलम्ब हुआ है और उसके कारण प्रेमी पाठकोंको बहत ही प्रतीक्षा-जन्य कष्ट उठाना पड़ा है उसका मुझे भारी खेद है !! मैं समझता हूं अनेकान्तके इतिहासमें यह पहला ही अवसर है जो वर्षका प्रारम्भ होजानेके बाद मध्यकी किसी किरणके प्रकाशनमें इतना विलम्ब हुआ हो। इससे कितने ही पाठकोंके धैर्यका बाँध टूट गया और वे अाक्षेर की भाषामें यद्वातद्वा जो जीमें पाया लिख गये ! एक सज्जनने लिखा"माल शुरू होनेपर नई स्कीमें रखी जाती हैं और लच्छेदार बातोंमें ग्राहक बनाये जाते हैं पर सालमें ४-६ अङ्क देकर चन्दा खतम कर दिया जाता है।।" दूसरे एक विद्यार्थी महाशय यहाँ तक कुपित हुए कि वे सम्पादक या प्रकाशकको कोसने के बजाए सारे जैन समाजको ही के.सने लगे और श्रावेशमें प्राकर लिख गये- “ऐसी जैनसमाज, जो एक ऐसे उच्चकोटि के पत्रका प्रबन्ध नहीं कर सकती. यदि वह संसारसे नष्ट होजाय, तो अच्छा है।" और कुछने अन्य प्रकारसे ही अपना रोष व्यक्त किया। यद्यपि ग्रहकोंका यह रोष मुझे बुरा नहीं लगा, मैंने उसे अपने लिये एक प्रकारकी चेतावनी समझा और साथ ही यह भी समझा कि पाठकोंको अनेकान्तका समयपर न निकलना कितना अखर रहा है और वे उसके लिये कितने अातुर होरहे हैं, परन्तु फिर भी मैं मजबूर था। मैंने पिछले वर्षके अन्त में अपनी स्थिति और प्रेसके कारण होने वाली परेशानीको स्पष्ट कर दिया था। मैं नहीं चाहता था कि प्रेसकी समुचित व्यवस्था हुए बिना पत्रको अगले सालके लिये जारी रखा जाय, और इस लिये वैसी व्यवस्थाके अभावमें मुझे पत्रका बन्द कर देना तक इष्ट था परन्तु कुछ सजनों एवं मित्रोंका अनुरोध हुश्रा कि पत्रको बन्द न करके बरावर जारी रखना चाहिये और उधर प्रेसकी श्रोरसे यह दृढ़ श्राश्वासन मिला कि अब हम जितने फार्मोंका कोई अंक होगा उसे उससे दूने-डाईगुने दिनोंमें छाप कर जन देदिया करेंगे। इसी अनुरोध और आश्वासनके बलपर आठवें वर्षका प्रारम्भ किया गया था।
अाठवें वर्षका प्रारम्भ करते हुए कोई लच्छेदार बातें नहीं बनाई गई, न ऐसी बातोंके द्वारा ग्राहक बनानेका कोई यत्न ही किया गया है और न ऐसा कभी हश्रा है कि ४-६ अंक निकालकर ही चन्दा खतम कर दिया गया हो। हमेशा यह ध्यान रखा जाता है कि ग्राहक मैटरकी दृष्टिसेटंटेमें न रहें, और मैटर भी प्रायः स्थायी होता है-सामयिक समाचारों श्रादिके रूप में स्थायी नहीं, जो पढ़कर फेंकदिया।
यह किरण मई मासमें छपनेके लिये प्रेसको दीगई थी-पाल में मैं राजगृह था और उधर बुकिंग बन्द होने आदिके कारण कागजके देहलीसे सहारनपुर पहुंचने में काफी विलम्ब होगया था। खयाल था कि यह अप्रेल-मईकी किरण जूनमें प्रकाशित होजावेगी और जुलाई में वीरशासन-जयन्तीके अवसरपर जनकी किरण निकल जावेगी; परन्तु प्रेसने अपने वादे और श्राश्वासनके अनुसार उसे छापकर नहीं दिया-वह हमेशा कम्पोजीटरों के न मिलने, किसीके बीमार पड़जानेचलेजाने अथवा प्रेसकर्मचारियों के अभावकी ही शिकायत करता रहा! हम बार बार कहते और प्रेरणा करते हुए थक गये तथा हर तरहसे मजबूर होगये ! सरकारी कायदे कानन भी कुछ ऐसे बाधक रहे, जिससे एक प्रेस दूसरे प्रेसके कामको हाथ में लेनेके लिये तय्यार नहीं हुआ। इन्हीं सब माबूरियों के कारण यह किरण अक्रबरमें प्रकाशित होरही है। अगली किरणोंका पूरा मैटर यथासाध्य शीघ्र देनेका प्रयत्न होरहा है-पेजों में कोई कमी नहीं की जायगी-भलेही वे किरणें
रूपमें निकलें । काग़ज़ भी अब आगे न्यूजप्रिण्ट न लगकर ह्वाइट प्रिंटिंग लगेगा, जो चौथे पांचवें वर्षमें लगे हुए कागज जैसा सफेद और पुष्ट होगा। इतनेपर भी जो ग्राहक अपना शेष चन्दा वापिस चाहते हो वे उसे सहर्ष वापिस मंगा सकते हैं अथवा वीरसेवामन्दिरके प्रकाशनोंमेंसे उतने मूल्यकी कोई पुस्तके मँगा सकते हैं। सम्पादक
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* *अहम् -
तस्ततत्व-सत्य
विश्वतस्व.प्रकाशव
वार्षिक मूल्य ४) -RAKARANAawasenaNAD
इस किरणका मूल्य II) saral
4911
नीतिविरोधचसोलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः।
बर्ष ८
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर बंशाख-ज्येष्ठ शुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २४७२, विक्रम संवत २००३
अप्रेल मई १६४६
किरण ४-५
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन [सम तभद्र-भारतीके कुछ नमूने' इस शीर्षकके नीचे अनेकान्तके प्रायः पाँचवें और छठे वर्ष में स्वामी समन्तभद्र के 'स्वयंभूस्तोत्र'का अनुवाद पाठकोंके सामने प्रस्तुत किया गया था, जो अब संशोधनादिके साथ पुस्तकाकार छप गया है-मात्र कुछ परिशिष्ट तथा : स्तावना छपनेको ब.की हैं, जिनके छपते ही अन्य के शीघ्र प्रकाशित होजानेकी हद पाशा है। आज उन्हीं महान आचार्यकी एक दूसरी अद्वितीय कृति 'युक्त्यनुशासन' को, जो कि स्व-पर-सिन्हान्तोंकी मीमांसाको लिये हुए श्री वीर भगवानका एक बड़ा ही गम्भीर स्तोत्र है, क्रमशः पाठकोंके सामने अनुवादके साथ रक्खा जाता है। यह कृति स्वामीजीकी उपलब्ध कृतियों में यद्यपि सबसे छोटी (कुल ६४ पद्यात्मक) है परन्तु बड़ी ही महत्वपूर्ण है। इसका एक एक पद बीजपदोंके रूपमें सूत्र है अथवा सूत्रवाक्यका अंग है। इसीसे श्रीजिनसेनाचार्य ने हरिवंशपुराणमें समन्तभद्रके इस प्रवचनको 'वीरस्येव वितम्भते' लिखकर वीरभगवानके बीजपदात्मक प्रवचनके तुल्य प्रकाशमान बतलाया है। इसके पदोंमें बड़ा ही अर्थ-गौरव भरा हुआ है। क्रिष्ट और दुर्गम भी यह सबसे अधिक है। शायद इसीसे आजतक इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हो पाया। इसपर एकमात्र संस्कृतटीका श्रीविद्यानन्द-जैसे लब्धप्रतिष्ठ महान् प्राचार्यकी उपलब्ध है, जो बहुत कुछ संक्षिप्त होते हुए भी वातायन (मरोखे) की तरह ग्रन्थके प्रमेयको प्रदर्शित करती है। इसी टीकाका प्रधान आश्रय और सहारा पाकर मैं मूल ग्रन्थको कुछ विशेषरूपमें समझने और उसका यथाशक्रि अनुवाद करने में प्रवृत्त हुआ हूँ। मेरा यह अनुवाद मूलके कितना अनुरूप और उसे संक्षेपसे अभिब्यक्र करने में
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किरा ४-५ ]
कितना समर्थ हुआ है, इसे विद्वज्जन ही जान सकेंगे । अतः विद्वानोंसे मेरा सानुरोध निवेदन है कि वे अनुवादमें जहाँ कहीं भी कोई त्रुटि देखें उसमे उसी समय मुझे सूचित करने की कृपा करें, जिससे ग्रन्थ- प्रकाशनादिके अवसरपर उसे दूर किया जा सके। इसके लिये मैं उनका हृदयसे आभारी हूँगा। क्योंकि जिस समन्तभद्रभारतीको श्रीवीरनन्दी श्राचार्यमे (चन्द्रप्रभचरितमें) उस र्निमल गोल मोतियोंकी माला से भी परमदुर्लभ बतलाया है जिसे नरोत्तम अपने कण्ठका विभूषण बनाते हैं और श्रीनरेन्द्रसेनाचार्य (सिद्धान्तसारसंग्रह में ) जिसे मनुष्यत्वको प्राप्तिके समान दुर्लभ बतलाते हैं उसके विषय प्रायः ऐसे ही गूढ़ प्रवचन ग्रन्थ हैं, और इसलिये मैं चाहता हूँ कि ये ग्रन्थ जनसाधारण के ठीक परिचयमें भावें लोग उनके महत्व तथा मर्मको समझने में समर्थ हो सकें। उसीके श्रर्थ, लोकहितकी भाषनासे, मेरा यह सब प्रयत्न है और उसके लिये सभी विद्वानोंका सहयोग वाँछनीय है । श्राशा है स्वामी समन्तभद्रके उपकारोंसे उपकृत और उनके ऋणसे कुछ उऋण होनेके इच्छुक सभी समर्थ विद्वान् मेरे इस सप्रयत्न में बिना किसी विशेष प्रेरणा के सतर्कता के साथ सहयोग देकर अपने कर्तव्यका पालन करेंगे । - सम्पादक ]
की
१४६
अनेकान्त
हत्या भुवि वर्द्धमानं स्वां वर्द्धमानं स्तुति- गोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश-बन्धम् ॥ १ ॥
'हे वीरजिन ! - इस युग के अन्तिम तीर्थप्रवर्तक परमदेव ! आप दोषों और दोषाऽऽशयोंके पाश-बन्धनले विमुक्र हुए हैं -- श्रापने अज्ञान प्रदर्शन-राग-द्वेष-काम-क्रोधादिविकारों अर्थात् विभावपरिणामरूप भावकर्मों और इन दोषात्मक भावकम संस्कारक कारणों अर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण- मोहनीय-अन्तरायरूप द्रव्यकर्मों के जालको छिन्न-भिन्न कर स्वतन्त्रता प्राप्त की है; आप निश्चितरूपसे ऋद्धमान (प्रवृद्ध माण) हैं— श्रापका तत्वज्ञानरूप प्रमाण (केवलज्ञान) - स्याद्वाद - नयसे संकृत होने के कारण प्रवृद्ध है अर्थात सर्वोत्कृष्ट एवं श्रबाध्य है; और (इस प्रबृद्धप्रमाणके कारण ) आप महती कीर्तिसे भूमण्डलपर वर्द्धमान हैं— जीवादितत्त्वार्थोंका कीर्तन (सम्यग्दर्शन) करनेवाली युक्रि-शास्त्राऽविरोधिनी दिव्यवाणी साक्षात् समवसरएकी भूमिपर तथा परम्परासे परमागमकी विषयभूत सारी पृथ्वीपर छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, निकटवर्ती दूरवर्ती, तत्कालीन और उत्तरकालीन सभी पर अपर परीक्षकजनों के मनों को संशयादिके निरसनद्वारा पुष्ट एवं व्याप्त करते हुए आप वृद्धि-व्याप्तिको प्राप्त हुए हैं--सदा सर्वत्र और सबके लिये 'शुक्रि-शास्त्राऽविरोधिवाक्' के रूपमें अवस्थित हैं, यह बात परीक्षा द्वारा सिद्ध हो चुकी हैं। (श्रुतः) श्रत्र - परीक्षाऽवसानके समय श्रर्थात् (आप्तमीमांसा द्वारा) युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक्स्वहेतु से परीक्षा करके यह निर्णय कर चुकनेपर कि श्राप विर्शर्ण-दोषाशयपाशबन्धत्वादि तीन असाधारण गुणों (कर्मभेतृत्व, सर्वज्ञत्व, परमहितोपदेशकत्व) से विशिष्ट हैं - आपको स्तुतिगोचर मानकर - स्तुतिका विषयभूत श्राप्तपुरुष स्वीकार करके, हम परीक्षाप्रधानी मुमुक्षुजन—- आपको अपनी स्तुतिका विषय बनाना चाहते हैं— श्रापकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त होना चाहते हैं।'
याथात्म्यमुल्लंघ्य गुणोदयाssख्या लोके स्तुतिभूरि-गुणोदधेस्ते । अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तुं जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥ २ ॥
'यथार्थताका — यथावस्थित स्वभावका - उल्लंघन करके गुणोंके― चौरासी लाख गुणोंमेंसे किसी के भी - उदय - उत्कर्ष की जो श्राख्या- कथनी है-बढ़ा चढ़ाकर कहनेकी पद्धति है—उसे लोकमें 'स्तुति' कहते हैं। परन्तु हे वीरजिन ! आप भूरिगुणोदधि हैं— अनन्तगुणोंके समुद्र हैं— और उस गुणसमुद्रके सूक्ष्मसे सूक्ष्म अंशका भी हम (पूरे तौरसे) कथन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं— बढ़ा चढ़ा कर कहनेकी तो बात ही दूर है । श्रतः वह स्तुति तो हमसे न नहीं सकती; तब हम छद्मस्थजन (कोई भी उपमान न देखते हुए) किस तरहसे आपकी स्तुति करके स्तोता बनें, यह कुछ समझ में नहीं आता !!"
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वर्ष ८] समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
१४७ तथाऽपि वैय्यात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः ।
इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ॥३॥
'(यद्यपि हम छमस्थजन आपके छोटेसे छोटे गुण का भी पूरा वर्णन करनेके लिये समर्थ नहीं है) तो भी में भक्रिके वश धृष्टता धारण करके शक्रिके अनुरूप वाक्योंको लिये हए भापका स्तोता बना हुँ-पापकी स्तुति करने में प्रवृत्त हा है। किसी वस्तके इष्ट होनेपर क्या परषार्थीजन अपनी शकिके अनुसार क्रियानी प्रयत्नों-द्वारा उसकी प्राप्तिके लिये उत्साहित एवं प्रवृत्त नहीं होते ?-होते ही हैं । तदनुसार ही मेरी यह प्रवृत्ति है-मुझे अापकी स्तुति इष्ट है।'
त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठा तुला-व्यतीता जिन ! शान्तिरूपाम् ।।
अवापिथ ब्रह्म-पथस्य नेता महानितीयत् प्रतिवनुमीशाः ॥४॥
'हे वीरजिन ! आप (अपनी साधनाद्वारा ) शुद्धि और शक्रिके उदय-उत्कर्षकी उस क.ष्टाको-परमावस्था अथवा चरमसीमाको प्राप्त हुए हैं जो उपमा-रहित हैं और शान्ति-सख-स्वरूप है-आपमें ज्ञानावरण और दर्शनारणरूप कममलके तयसे अनुपमेय निर्मल ज्ञान-दर्शनका तथा अन्तरायकर्मके अभावसे अनन्तवीर्यका आविर्भाव हुमा है, और यह सब श्रात्म-विकास मोहनीयकर्मके पूर्णत: विनाश-पूर्वक होनेसे उस विनाशसे उत्पन्न होनेवाले परम शानि.मय सुखको साथमें लिये हुए है। (इसीसे) श्राप ब्रह्मपथके-आत्मविकास-पद्धति अथवा मोक्ष-मार्गके नेता हे-अपने आदर्श एवं उपदेशादि-द्वारा दूसरोंको उस आत्मविकास के मार्गपर लगानेवाले हैं-और महान् हैपूज्य परमात्मा है-, इतना कहने अथवा दूसरोंको सिद्ध करके बतलाने के लिये हम समर्थ हैं।'
कालः कलिर्वा कलुषाऽऽशयो वा श्रोतुः प्रवक्कुर्वचनाऽनयो वा।
त्वच्छासनकाधिपतित्व-लक्ष्मी-प्रभुत्व-शक्तेरपवाद-हेतुः ॥ ५ ॥
"(इस तरह आपके महान होते हुए, हे वीरजिन ! ) श्रापके शासनमें—अनेकान्तात्मक मतमें-(निःश्रेयस और अभ्युदयरूप लक्ष्मीकी प्राप्तिका कारण होनेसे) एकाधिपतित्वरप-लक्ष्मीका-सभी अर्थ-क्रियार्थिजनोंके द्वारा अवश्य श्राश्रयणीयरूप सम्परिका-स्वामी होनेकी जो शक्रि है-भागमान्विता युक्रिके रूपमें सामर्थ्य है-उसके अपवादका-एकाधिपत्य प्राप्त न कर सकनेका-कारण (वर्तमानमें) एकतो कलिकाल है-जो कि साधारण बाहा कारण है, दूसरा प्रवक्राका वचनाऽनय है-श्राचार्यादि प्रवक्रवर्गका प्रायः अप्रशस्त-निरपेक्ष-नयके साथ वचनव्यवहार है अर्थात् सम्यकनय-विवक्षाको लिये हए उपदेशका न देना है-जो कि असाधारण बाह्य कारण है, और तीसरा श्रोताकाश्रावकादि श्रोतृवर्गका-कलुषित आशय है-दर्शनमोहसे प्रायः प्राकान्त चित्त है-जोकि अन्तरंग कारण है।'
दया दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् । ___ अधष्यमन्यैरखिलैःप्रवाजिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥
'हे वीरजिन ! आपका मत-अनेकान्तात्मक शासन-दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (परिह-त्यजन) और समाधि (प्रशस्तध्यान) की निष्ठा-तत्परताको लिये हुए है-पूर्णत: अथवा देशतः प्राणिहिंसासे निवृत्ति तथा परोपकारमें प्रवृत्तिरूप वह दयावत, जिसमें असत्यादिसे विरक्रिस्प सरप्रतादिका अन्तर्भाव (समावेश) है, मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेषकी निवृत्तिरूप संयम; बाह्य और प्राभ्यन्तर परिग्रहोंका स्वेच्छासे त्यजन अथवा दान; और धर्म तथा शुक्लध्यानका अनुष्टान; ये चारों उसके प्रधान लक्ष्य हैं। (माथ ही) नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा (असम्भवढाधकविषय-स्वरूप) सम्यक वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट (सुनिश्चित) करने वाला है और (अनेकान्तवादसे भिन्न) दूसरे सभी प्रवादोंसे अबाव्य है-दर्शनमोहोदयके वशीभूत हुए सर्वथा एकान्तवादियोंकद्वारा प्रकल्पित वादोंमेंसे कोई भी वाद (स्वभावसे मिथ्यावाद होनेके कारण) उसके (सम्यग्वादात्मक) विषयको बाधित अथवा दूषित करने के लिये समर्थ नहीं है-: (यही सब उसकी विशेषता है और इसी लिये वह) अद्वितीय है-अकेला ही सर्वाधिनायक होनेकी क्षमता रखता है।'
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अहिंसा और मांसाहार (अंग्रेजी अनुवादक-प्रिपल ए० चक्रवर्ती एम० ए०, मद्रास) [ हिन्दी अनुवादक-बा. जयभगवान एडवोकेट, पानीपत ]
['नीलकेशी' तामिल साहित्यका एक बहुत ही सुन्दर, शिक्षाप्रद और अपने ढंगका अनोखा ग्रन्थ है। ई. सन् १९३६ में माननीय प्रिंसपल ए. चक्रवर्तीने इसके तामिल मूलपाठका अंग्रेजी भावार्थ के साथ सम्पादन और प्रकाशन करके साहित्य-प्रेमियोंको सदाके लिये अपना ऋणी बना लिया है। यद्यपि प्रन्थ परसे अथवा अन्यसाधनोंसे अभी तक इसके कर्ता और उसके समयका ठीक निर्णय नहीं हो पाया है, फिर भी इसके प्रतिपादित विषय और प्रसंगवश लिखी हई, तत्सम्बन्धी अनेक बातों परसे यह निश्चित है कि यह किसी महामनस्वी जैन विद्वानकी कृति है, जिसने ई. सन की पहिली शताब्दीसे लेकर पाँचवीं शताब्दी तकके मध्यवर्ती किसी समयमें जन्म लेकर अपनी गुण गरिमापे तामिल देशको सुशोभित किया है। इसका मुख्य विषय अहिंसा' है, अहिंसा-धर्मका अनेक दृष्टियोंसे ऊहापोह करनेके लिये इसके सुयोग्य लेखकने भारतके तत्कालीन सभी दार्शनिक सम्प्रदायोंकी गवेषणपूर्ण चर्चा की है। इस ग्रन्थके चौथे भागके चौथे अध्यायमें अहिंसाधर्मके मानने वाले बौद्ध लोगोंके माँसाहारवाले चलनकी कडी समालोचना की गई है। उसी समालोचनाके भावार्थका निम्न निबन्धमें दिग्दर्शन कराया गया है। यदि पाठकोंको यह निबन्ध रुचिकर सिद्ध हा, तो उपरोक ग्रन्थके अन्य प्रकरणांका भी इसी भाँति हिन्दी भाषामें दिग्दर्शन करानेका प्रयत्न किया जायेगा।
--हिन्दी अनुवादक]
-बुद्धधर्मका कल्प्यमाँसका सिद्धान्त, करपात है;
कर पाते हैं: जैसे बोधिवृक्षकी प्रदक्षिणा देना, उसकी पूजा करना जिसकी मान्यताके आधार पर बौद्ध समाजमें माँसाहारकी पुण्य कार्य है; क्योंकि इसका परम्परागत सम्बन्ध भगवान प्रवृत्ति फेली हई है, बहत ही प्रयुक्त और हिंसात्मक है। बुद्धस ।। यह बात ठीक है कि पशु-पक्षियोको मारना
नीलकेशी-ठीक, यदि तुम्हारी तर्कणा अनुसार अयुक्र और हिंसात्मक है; परन्तु, इसका माँसाहारसे क्या
कारण कार्यमें परम्परागत सम्बन्ध होनेसे पुण्यका उपार्जन सम्बन्ध
हो सकता है, तो कारण कार्य में परम्परागत सम्बन्ध होनेसे नीलकेशी-यदि आप पशु-पक्षियोंको मारना पाप
पापका उपार्जन क्यों नहीं हो सकता। जैसे बोधिवृक्षकी समझते हैं, तो आपको माँसाहारको भी पाप मानना ही
पूजा करनेसे तुम्हारा ध्यान भगवान बुद्ध की ओर श्राकर्षित होगा, क्यों के दोनोंमें कारण कार्य सम्बन्ध है। बिना पशु
होता है, वैसे ही माँसाहारका ग्रहण तुम्हारे ध्यानको माँस पक्षियोंको मारे मांसाहारकी प्राप्ति नहीं होती. प्राणियोंको।
प्राप्तिके उपायोंकी ओर आकर्षित करता है। मारना पाप है, इस लिये मारनेसे प्राप्त हुआ मौसाहार भी
-अच्छा, यदि पशुवध होनेके कारण आपको
हमारे माँसाहार पर आपत्ति है, तो आप अपनी मोरपिंकी द्व-पशु-वध और माँसाहारमें कोई भी कारण रखनेकी प्रथाको कैसे प्रशस्त सिद्ध कर सकते हैं ? क्योंकि कार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं है। हो. मनुष्य पुण्यार्थ जो कार्य मोरपिंछीमें लगे हुये मोरके पंख भी तो मोरोंके वध-द्वारा सम्पादन करता है, उनका सम्बन्ध पुण्यात्मक कारणों से प्राप्त हो सकते हैं। जरूर होता है और उस सम्बन्धके कारण ही वे कार्य पुण्य नीलकेशी-आपने हमारी मोरपिंछीकके सम्बन्ध
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किरण ४-५
अहिंसा और मांसाहार
१४६
में जो हिंसाको आपत्ति उठाई है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि जिम्मेवारीका सवाल केवल मनुष्य-व्यवहारमें ही सार्थक जिन मोर पंखोंसे हमारी पिंछी बनाई जातो है वे मोरोंको ठहरता है, और वह भी तब, जब वि कार्य इच्छापूर्वक किया मारकर प्राप्त नहीं किये जाते, बल्कि जिन पंखोंको मोर स्वयं जाता है । जो कोई किसी मनोरथ सिद्धिके लिये इच्छासमय समयपर माड़ता रहता है, उन्हें जंगलके लोग जमा पूर्वक कोई कार्य करता है, वही उसके भले बुरेका जिम्मेवार करके बेच जाते हैं, उन्हींसे पिंछी बनाई जाती है। इस तरह होता है। इस लिये आपका यह कहना कि मरने वाला हमारी मोरपिंछीका परम्परागत कारण हिंसा नहीं है। पशु भी पापका जिम्मेवार है. बिल्कुल निरर्थक है, क्योंकि ____ इसके अतिरिक्र हमारी चर्या अनुसार साधुके लिये कोई भी पशु अपना वध कराना नहीं चाहता। इतना सावधान रहना जरूरी है कि वह कोई वस्तु ग्रहण बौद्ध-अच्छा, मैं अपनी मान्यताको एक और करनेसे पहिले यह निश्चय करले कि उसकी उत्पत्ति किसी उदाहरण द्वारा सिद्ध करता है। देखिये, कोई मनुष्य हिंसा द्वारा तो नहीं हुई है, मोरपिंछी लेते समय द्वषवश एक देवालयको तोद-फोद कर गिरा देता है; दुसरा साधुको यदि पंखोंके सिरोंपर लगे हए रक चिन्होंसे या मनुष्य, उस गिरे हये मलबे लोक कल्याणार्थ, देवालय किन्ही अन्य उपायों द्वारा हिंसाकी श्राशंका हो जाय तो उस को बनाकर तैयार कर देता है तो क्या दूसरा मनुष्य भी के लिये वह मोरपिंछी त्याज्य हो जाती है।
पहिलेके किये हुए दुष्कर्मका जिम्मेवार है? इसके अलावा हमारे साधु में जो मोरपिंछी रखनेका
-आपका उदाहरण हमारी समस्यासे चलन है, वह सूक्ष्म जन्तुओंकी रक्षाके लिये है, अपनी किसी
कुछ भी समानता नहीं रखता, यह हमारे प्रश्नको हल माँस लालसाको तृप्त करनेके लिये नहीं। इस तरह आपके
करने में तनिक भी सहायक नहीं है। आपके दिये हये उदामाँसाहारके चलन और हमारी मोरपिंछीके चलनमें जमीन हरणमें वह मनुष्य जो गिरे हए मलयेपे देवालयका पुनः पासमानवा अन्तर है। माँसाहार पशु-वध द्वारा हासिल निर्माण करता है. पहिले दुग्कर्म करने वाले मनुष्यके चलन किया जाता है और अपनी जिह्वाकी लालसाके लिये प्रयुक्र का किसी प्रकार भी अनुमोदन नहीं करता, बल्कि देवालय किया जाता है; परन्तु मोरपंख बिना किसी पशुपक्षिवधके
को बनाकर उसे गिराने बालेके आचरणका प्रतिषेध करता प्राप्त किये जाते हैं, और वे सूक्ष्म जन्तुओंकी रक्षा करनेके
है, परन्तु तुम्हारे मांसभक्षण वाले प्राचरणमें कोई बात भी नेक कामके वास्ते प्रयुक्त किये जाते हैं।
ऐसी नहीं है, जिससे वध करने वाले मनुष्य के श्राचरणका बाद्ध-निस्संदेह हिंसायक होने के कारण पशु- प्रतिषेध होता हो बल्कि मौसभक्षक, चुपचाप रीतिसे मारने पक्षियों को मारना पाप है लेकिन इस पाप कार्यके सम्पादन
वालेका अनुमोदन ही करता है। दूसरे, देवालयको पुन: के लिये दो कारण आवश्यक होते हैं. एक मारने वाला निर्माण करने वाला पहले मनुष्य द्वारा किये हुए दुष्कर्मका मनुष्य दसरा मरनेवाला पशु अथवा पति । बिना मरनेवालेके सुधार करके देवालयका उद्धार करता है, लेकिन आपके कोई भी वध-कार्य सम्पादन नहीं हो सकता। अत: यदि दिये हुये उदाहरणमें मॉस-भक्षक मामाहार द्वारा मृत पशुका वध करना पाप है. तो इस पापके भागी मारने वाला और पुनरूद्वार नहीं करता, बल्कि वह उसके द्वारा लालसावश मरने वाला दोनों ही कारण होने चाहिये।
अपने ही शरीरका पोपण करता है। नीलकशो-आपकी यह तर्कणा ठीक नहीं है। बाद्ध-नहीं, आपका कारण कार्य वाला तर्क दोषयदि इस तर्कणाको ठीक मान लिया जाय तो पापकी जिम्मे- पूर्ण है । यदि कारणके सदोष होने पे कार्यको भी सदोष वारी केवल मारने वाले और मरने वाले पर ही लाग न ।
माना जाय तो इसका यह परिणाम होगा कि पुत्र-द्वारा किये होगी, बल्कि उन अस्त्र-शस्त्रोपर भी लाग होगी, जो वध हुए अपराधका फल पिता पर भी लार होगा। करनेमें कारण हुए हैं, परन्तु किसीकी भी धारणा इस नीलकेशी-निस्संदेह अगर पिता अपने पुत्रके प्रकार नहीं है। वास्तवमें बात यह है कि पाप-पुण्यकी नैतिक दोषोंकी मालोचना और सुधार नहीं करता और वह
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अनेकान्त
वर्ष ८
चुपचाप उस आचरणकी ऐसी अनुमोदना करता है जायगी। कल्पना कीजिये कि भगवान बुद्ध एक नगरके जैसे कि मांसभक्षक पशुवधकी करता है तो पिता समीप उद्यानमें आकर ठहरे-नगरवासियोंको यह जानकर निश्चय रूपसे नैतिक दृष्टिमें अपने पुत्रके दुराचारका बड़ा हर्ष हुश्रा कि भगवान श्राहार लेनेके लिये नगरमें उत्तरदायी है।
पधारेंगे । यद्यपि यह बात निश्चित है कि वह केवल एक गृहस्थ -आप मेरे आशयको नहीं समझे, मेरा
के पाससे ही आहार ग्रहण करेंगे: परन्तु सबी नगरवासी अभिप्राय यह है कि मांसभक्षक पशुको मारकर माँसकी
उनके पधारनेकी आशा करके अपने अपने घर पुण्यार्थ प्राप्ति नहीं करता वह तो उसे या तो कहींसे खरीदता है या
भोजन तय्यार करते हैं। ऐसी दशामें श्राप यह बात जरूर मांगकर लेता है या चारी द्वारा प्राप्त करता है । इस तरह
स्वीकार करेंगे कि यद्यपि इन गृहस्थोंमेंसे केवल एकको ही उसका पशुवधमे कोई भी सम्बन्ध नहीं है। ऐसी हालतमें
श्राहार देनेका सौभाग्य प्राप्त है । परन्तु, सभी गृहस्थ वह वध-क्रियाके लिये कैप उत्तरदायी हो सकता है ?
जिन्होंने भगवानका संकल्प करके भोजन तय्यार किया है
निश्चयपूर्वक एक समान पुण्यके अधिकारी हैं । इस उदाहरण नीलकेशी-यदि कोई मनुष्य बुद्ध भगवानके
में यद्यपि अातिथ्य-कार्य केवल एक गृहस्थके साथ ही चरणोंकी पूजा करनेके पश्चात बौद्ध-मन्दिरसे फूल ले जाता
सम्बन्धित है परन्तु आप सभी गृहस्थोंको पुण्य अधिकारी हा रास्ते में किसी दूसरे व्यक्रि द्वारा अधमुश्रा कर दिया
इस वास्ते ठहराते हैं कि सभी भगवानके दर्शनोंके इच्छुक जावे और वह दूसरा व्यक्रि भगवानकी पूजाके भावग्मे उन
थे, सभी उनके साकारद्वारा अपनी प्रात्मतृप्तिके उत्सुक थे, फलोको छीनकर ले जावे तो आपकी मान्यतानुसार दोनों
इसी तरह माँसाहारके विवादस्थ विषयमें भी श्राप पापके उत्तरमनुष्य समान पुण्यके अधिकारी हैं। यदि प्रशस्त अथवा
दायित्वको समझनेकी कोशिश करें। ऊपर वाले उदाहरण में प्रशस्त किसी भी उपाय-द्वारा फूलोंका प्राप्त करना पूजाके
जिस प्रकार भगवान बुद्ध बिना किसी विशेष व्यक्रिको लक्ष्य समान ही पुण्यका देनेवाला है तो अच्छे या बुरे किसी भी
किये नगरमें पधारते हैं, वैसे ही पशुघातक विना किसी उपाय-द्वारा मांसको प्राप्त करना पशुबधके समान ही पापका
विशेष ब्यक्रिको लक्ष्य किये माँस बेचनेके लिये बाज़ारमें देनेवाला ठहरता है । श्राप पहले उदाहरणमें पुण्यकी
श्राता है। ऊपर वाली मिसालमें जैसे सभी गृहस्थ बिना समानताको मानकर दूसरे उदाहरणमें पापकी समानतासे
इस अपेक्षाके कि उनमें से किसने भगवानकी सेवा की. इन्कार नहीं कर सकते, आप जब पुण्यके कार्योंमें कारण कार्य
भगवत् मेवाकी अभिलाषाके कारण पुण्यके अधिकारी सम्बन्धकी सार्थकताको मानते हैं तो आपको पाप-कार्य में भी
हैं, वैसे ही विचारणीय प्रकरणमें, बिना इस अपेक्षाके कि कारण-कार्यकी सार्थकताको मानना ही होगा।
किसने माँसका उपभोग किया. सभी मौसभक्षक जो मांस द्ध-आप अब भी मेरे श्राशयको ठीक नहीं लालसाके कारण मोस खरीदनेकी प्रतीक्षामें लगे हैं, हिंसा समझे, मैं फिर इसको स्पष्ट किये देता हूँ । पशुको मारने पापके उत्तरदायी हैं क्योंकि वे सभी जानते हैं कि बिना वाला मनुष्य न तो हमारे लिये पशुको मारता है न हमारे पशुवधके माँसकी प्राप्ति नहीं होती। इस तरह सभी मांसकहनेपर ही ऐसा काम करता है, वह किसी भी विशेष भक्षक हृदयसे पशुवधका अनुमोदन करते हैं। व्यक्रिको दृष्टिमें न रखकर मांसको बेचने के लिये लाता है जो
-आपके उदाहरणको मैंने भली भाँति कोई उसकी कीमत देता है वह ही उसको ले जाता है।
। समझ लिया है; परन्तु आपकी उठाई हुई आपत्ति तभी इस तरह मारनेवालेने किसी विशेष ग्राहकको लक्ष्यमें रख ।
ठीक हो सकती है, जब कि मांसभक्षक माँस खरीदनेके लिये कर बध नहीं किया है, इसलिये स्वरीदने वाले और मारने
पशुघातकको पेशगी मूल्य दे दे । लेकिन हम तो किसी वालेमें कोई भी सम्बन्ध नहीं ठहरता।
पशुघातक या पशुाँस-विक्रेताको कभी कोई दाम पेशगी नीलकेशी-मापकी उन तर्कशैली बहुत ही नहीं देते; इसलिये हम माँसविक्रेताके आचरणके किस दोषपूर्ण है, यह बात आपको एक ही उदाहरणसे स्पष्ट हो प्रकार अनुमोदक ठहराये जा सकते हैं।
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वर्ष ८]
अहिंसा और माँसाहार
१५१
नीलकेशी-आपकी यह यक्रि भी ठीक नहीं है। व्यवस्थामें पाये बिना नहीं रह सकता। पेशगी दाम देने या न देनेने हिंसा-पापके उत्तरदायित्वमें
-बहुत अरछा, आपकी उपरोक्र. धारणा कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि आप अच्छी तरह जानते ठीक सही; पर यह तो बतलाईये, कि यदि माँस खाना हैं कि मौस-विक्रेता पशु मारकर या मरवाकर ही मौसकी प्राप्ति पाप है, तो श्राप दूध क्यों पीते हैं ! दूध भी तो आखिरकार करता है, और वह पशु मारने या मरवाने का काम उस धनकी माँसमें से ही उत्पन्न होता है। फिर दूध पीना मांस खानेसे लालसा-वश ही करता है, जो वह माँसके बदलेमें श्रापसे भिन्न कैसे हो सकता है। प्राप्त करनेकी इच्छा या अाशा रखता है। इस तरह समस्या
है! यह मापने क्या नासमझीक का विश्लेषण करनेपर यह स्पष्ट होजाता है कि पशु-बध
बात कही ! माँसाहारके सम्बन्धमें हमारी आपत्ति अहिंसा करने अथवा मांस बेचनेका मूल प्रेरक कारण माँस खानेवालों
सिद्धान्तपर अवलम्बित है। चूंकि माँसाहार अन्य प्राणि की माँस-लालसा ही है । कि मसभनक लालसा-वश
के प्राणोंका घात किये बिना नहीं हो सकता । इसलि दाम देकर माँस खरीदना चाहते हैं, इसलिये माँस-विक्रेता
माँसाहार पाप है। परन्तु, दूधके लिये किसीके भी प्राणोंका पशु मारकर बाजारमें लाते हैं। यदि मांसाहार बन्द होजाय
घात करना आवश्यक नहीं। दूधकी प्राप्ति बिल्कुल निरतो माँसविक्रय और पशुबध भी खतम होजाय । इस तरह हिंसक है। स्वयं पशु अपने नियत समयपर दूध देनेके पशुहिंसाका उत्तरदायित्व उन लोगोंपर है जो मॉस-भक्षण
लिये सदा ऐसे ही तय्यार रहते हैं जैसे कि वृक्ष अपने करते हैं।
फलोंको । चूंकि दुग्ध देना पशुओंके लिये हानिकारक द्ध नहीं, नहीं, मानव जीवनमें पुण्य और पाप नहीं, हितकर है, दुःखमय नहीं, सुखमय है, पशुओंमें दुग्धरूप नैतिक मूल्योंका सम्बन्ध उसके सुकर्म अथवा दुष्कर्मसे मोचनकी क्रिया अपनी पुष्टि, सन्तुष्टि और अपनी सन्तान है. भोग-उपभोगसे नहीं। चकि मांसभक्षण भोग-उपभोग की परिपालनाके लिये बिल्कुल स्वाभाविक और श्रावश्यक की कोटिमें आता है. किसी सकर्म अथवा दुष्कर्मको कोटिमें है, इसलिये दूध पीना पाप नहीं है। नहीं पाता, इसलिये मांसभक्षणका पुण्य अथवा पाप-रूप श्रापकी यह धारणा भी कि दूध माँसकी पर्याय है, कोई भी नैतिक मूल्य नहीं है । मांसभक्षणके सम्बन्धमें बिल्कुल भ्रम है। दूध माँसकी पर्याय नहीं, बल्कि जैसा कि पापाचारकी कल्पना करना भ्रममात्र है।
उसके रस अथवा गन्धसे सिद्ध होता है, वह तो उस घास नीलकेशी-ओह ! आपकी पुण्य-पाप-सम्बन्धी
चारेकी निकटतम पर्याय है जो पशुको खानेके लिये मिलता यह धारणा तो बहुत ही भयंकर है। कर्म और भोगमें इस
है। क्या आपको यह मालूम नहीं कि दूधकी विशेषता प्रकारका भेद करके, पुण्य-पापकी व्यवस्था बनाना और
पशुओंके चारेकी विशेषतापर निर्भर है। क्या खल और भोकाको नैतिक उत्तरदायित्वसे सर्वथा मुक्त करना सदाचार
बिनोला खानेवाली गऊके दूधमें अधिक स्निग्धता नहीं और संयमको लोप करना है। इस तरह तो स्त्रियोंके सतीत्व
होती ? क्या मौका खाया हुभा आहार छातीका दृध पीनेवाले को बलात हरण करनेवाले आततायी भी, अफीम, शराब
बच्चे के स्वास्थ्यपर अपना असर नहीं डालता? क्या माँको श्रादि मादक पदार्थोंका भोग करने वाले दुराचारी भी सभी
खिलाई हुई औषधि बहुत बार दूधमुंहे बच्चोंके रोगोंका जिम्मेवारीसे अाजाद हो जायेंगे। सच तो यह है कि मनुष्य निवारण नहीं करती? का मन, वचन अथवा कायसे होनेवाला व्यापार कोई भी इसके अतिरिक्र, लोक व्यवहारमें भी आज तक किसीने ऐसा नहीं जिसका अच्छा या बुरा प्रभाव उसके अपने दूधको अशुद्ध ठहरा कर उसकी निन्दा नहीं की-जब कि निजी जीवनपर अथवा बाह्य लोकके हित-अहितपर न पड़ता संसारके सभी मान्य विज्ञ पुरुषोंने मांसको अशुद्ध और हो, इसलिये नैतिक दृष्टिसे मनुष्यका प्रत्येक कार्य चाहे वह अप्राकृतिक श्राहार ठहरा कर उसकी निन्दा की है। भंग-उपभोगरूप हो, चाहे अन्य प्रकारका हो, पुण्य- पापकी इन सब तर्कोकी मौजूदगीमें भी यदि आप दूधको
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अनेकान्त
[वर्ष ८
माँस समान कहनेका दुराग्रह करते हैं तो करें, इस तरह वे एकादशी आदि पर्वके दिनों में माँसको अशुद्ध समझते तो कोई भी मनुष्य मनुष्यभती कहलानेके अपराधसे खाली हुए इसके आहारका त्याग कर देते हैं। जब बौद्ध धर्मियोंके न बच सकेगा, क्योंकि सभी अपने बचपनके जमानेमें अलावा सभी माँस खाने वाले विधर्मी लोग माँसाहारको माँकी छातीका दूध पीनेवाले होते हैं।
अशुद्ध और अनुक्र समझते हैं तो यह बहुत ही आश्चर्य की बौद्धधक सम्बनमें आपने जो अनेक बातें बात है कि आप लोग मांसको ग्राह्य वस्तु कहते हैं। उपर कही हैं, उनमें से यह बात तो कदापि मानने योग्य
-वैर ! श्राप इस विषयमें हमारे खिलाफ नहीं हो सकती कि संसारके सभी माननीय विज्ञ पुरुषों कुछ भी कहें मगर इतनी बात तो आप जरूर स्वीकार ने माँसको त्याज्य ठहराया है। जहाँ तक सर्वसाधारणका करेंगे ही कि माँसाहारी होते हुये भी किसीके प्राणघात सवाल है, सभी सभ्यजन शराब और अन्य मादक पदार्थों करना या कराना हमारा अभिप्राय नहीं है और इस की निन्दा करते चले आये हैं परन्तु मदिराके समान, मांस अभिप्रायके अभावमें, माँस-प्राप्तिके लिये जो कुछ भी की सब जगह निन्दा होना सिद्ध नहीं है। इससे प्रमाणित पशुधात होता है उसके लिये हमारी कोई भी नैतिक होता है कि यदि माँस वास्तवमें निन्दनीय होता, तो मदिरा जिम्मेवारी नहीं है। के समान सारा संसार बिना किसी मतभेदके उसका भी नीलकेशी-खब ! यदि भापके कहे अनुसार निन्दक होता!
अभिप्रायवादका अर्थ लिया जाय, तो स्वयं मारनेवाला भी नीलकेशी-आपने माँसाहारको निष्पाप कार्य इस प्रकारके अभिप्राय वाला सिद्ध न हो सकेगा। क्योंकि सिद्ध करने के लिये जो सर्वसाधारण मतका सहारा लेनेकी मारने वाला कभी भी मारनेके अभिप्रायसे नहीं मारता, कोशिश की है. यह प्रयास भी श्रापका निष्फल है: क्योंकि वह तो केवल धनके अभिप्रायसे ही मारता है। उसका मोस, मदिरा, मैथुन आदि भोग-उपभोगकी बातों में मनुष्य मुख्य उद्देश्य धन बनाना है. मारना तो धन सिद्धिके कभी भी एकमत अथवा समान-व्यवहारी नहीं रहा है। लिये एक साधन मात्र ही है। इस तरह यदि आपके इसलिये इन बातोंके सत्य और तथ्यका निर्णय करनेके मान्यतापर अमल किया जाये तो मारने वाला भी हत्याके लिये सर्वसाधारण मतका सहारा लेना निरर्थक है । दूर अपराधसे मुक्र होजायेगा। जानेकी जरूरत नहीं, मदिरापानको ही ले लीजिये । क्या बौद्ध-अच्छा श्रापका प्राशय यह है कि, च कि सभी युगोंमें सभी लोगोंने इसकी निन्दा की है? नहीं! माँसाहार परम्परा रूपसे पशुधातका कारण है, इस वास्ते इस सम्बन्धमें हमें प्राचीन वैदिक कालके व्यसनोंकी आलो- माँसाहारी पशुधातका दोषी है, परन्तु श्रापकी यह धारणा चना करनेकी जरूरत नहीं स्वयं बौद्धधर्मी-खासकर सचाई और व्यवहारके विरूद्ध है। व्यवहारमें हम महायान और मन्त्रयान सम्प्रदायोंके लोग शराबका खूब हमेशा देखते हैं कि केवल मृत्युका कारण होजानेसे कोई प्रयोग करते हैं। इनके अलावा बहुतसे अन्य धर्मवाले भी मनुष्य हत्यारा नहीं कहलाता । इस सम्बन्धमें बहुतसे शराबको आजादीसे पीते हैं । इन हालातके रहते हुए, उदाहरण पेश किये जासकते हैं। किसी शत्रु द्वारा घायल भला श्राप कैसे कह सकते हैं कि शराब लोक-निन्द्य वस्तु किये हये मनुष्यके शरीरसे तीर निकालते समय संभव है ? मगर इसके मुकाबलेमें मांसभक्षणकी बात सर्वथा है कि आप उसकी मृत्युके कारण होजायें अथवा किसी भिन्न प्रकार की है। सिवाय बौद्धधर्मियोंके, जो तर्कद्वारा बचके गलेमेंसे अटकी हुई कौडीको निकालनेकी कोशिशमें मांसभक्षणका समर्थन करते हैं; सभी मांसभक्षक चाहे उन उसकी माँ उसकी मृत्युका कारण बन जाये, इसी तरह की यह लत कितनी ही पुरानी क्यों न हो, कभी इसकी किसी रोगीका आप्रेशन करते हुये चिकित्सक-ढाक्टर उसकी प्रशंसा नहीं करते और न इसे अच्छी चीज़ समझते हैं। यह मृत्युका कारण होजाये; परन्तु यह बात निश्चित है कि कोई भी मात स्वयं उनके प्रचलित व्यवहार से ही जाहिर है क्योंकि उपयुक व्यक्रियाको मृत्युका अपराधी नहीं ठहरायेगा।
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किरण ४-५]
पाजादीके द्वार खडे हैं
नालकशा-निस्सन्देह, ऊपर वाले उदाहरणों में पहलूसे भी विचार करें, आप हिंसा और पापकी जिम्मेवारी बे, मृत्युका कारण होते हुये भी मृत्युके लिये उत्तरदायी सन यका कारण ते कोर
से नहीं बच सकते। नहीं हैं। क्यों नहीं इस धास्ते कि उनके प्राधरणका प्रेरक
इस लम्बे बाद-विवादके पश्चात् मेरी यही अन्तिम हेतु प्रेम था, परोपकार था। उनकी दिली भावना थी कि वे प्रार्थना है कि श्राप भगवान बुद्ध द्वारा घोषित अहिंसा तत्व उनके दुख-दर्द को दूर करके उनको मृत्युसे बचा लें । यह
पर निष्पक्ष दृष्टिसे विचार करें; और दुराग्रह छोदकर देखें बात दूसरी है कि वे अपने मनोरथमें सफल नहीं हुए, कार्य
कि वह कहाँ तक आपके प्रचलित मांसाहारकी पुष्टि करता है। की सफलता और असफलता केवल मनोरथपर निर्भर नहीं,
केवल इसलिये कि आप मुद्दतसे माँसाहारकी लतमें पदे इसके लिये बहुतसे, सहायक कारणों के सहयोग और विरोधी हुए हैं और उसे छोड़ना कठिन है। उसकी युनियों द्वारा कारणोंके प्रभावकी जरूरत है। परन्तु माँस-प्राप्तिके लिये समर्थन करनेकी चेष्टा करना पाप जैसे अहिंसा धर्म मानने पशुवध वाली क्रियामें अथवा मोंसभक्षण वाली आदतमें
वालों के लिये शोभा नहीं देता । मैं समझता है, आपका प्रेरक हेतु प्रेम वा परोपकार नहीं है। यह काम पशुओंके पूर्ण विश्वास है कि अहिंसा तत्वका प्रचार करनेमे आप न दुखदर्द हरने और उन्हें मृत्युसे बचाने के लिये नहीं किये केवल दूसरोंकी ही श्राचार-शुद्धि करते हैं । भगवान बुद्धने जाते, बल्कि यह काम प्रमाद, मोह और स्वार्थवश धन- डाकुओंके सरदार अङ्गलिमालको अहिंसा धर्मका उपदेश लालसा अथवा विषय-लालसासे प्रेरित होकर किये जाते हैं। देकर न केवल उसका सदाके वास्ते पापसे उद्वार कर दिया, इस वास्ते ऊपरके उदाहरणों वाले काम पुण्य हैं और पशु- बल्कि उसके द्वारा भविष्य में वध होनेवाले बहुतसे मनुष्यों वध वा मांसभक्षण वाले काम पाप हैं. प्रेरक भावनाओंमें का भी मृत्युसे उद्धार कर दिया । भगवानका यह आचरण भेद होनेसे क्रियाओंके फल और उनके नैतिक मूल्यों में भेद कितना उदार और कितना मिपूर्ण था ? आप भी अपने होना स्वाभाविक ही है। हिंसा-अहिंसा तत्त्वका निर्णय केवल जीवनमें यदि इस प्रकार उदार और वात्सल्य पूर्ण प्राचारको कारण कार्यसम्बन्धको देखनेसे नहीं होता. इसके लिये स्थान दें तो आपके श्रादर्श और व्यवहारमें बड़ी समता कियात्रोंकी प्रेरक भावनाओंको पनपना भी जरूरी है। पैदा होगी, जीवनमें शुद्धि प्रायेगी और संघर्मे वह शकि
उदित होगी कि श्राप संसारके हिंसात्मक प्रवाहको बदलकर इस तरह श्राप इस मांसभक्षण वाले विषय पर किसी उसे अहिंसात्मक बना देंगे।
हम आज़ादीके द्वार खड़े हैं
[रचयिता-श्री पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित']
जनहितके भरमान लिये हम आजादीके द्वार स्थडे हैं !
भारतको आजाद कराने , मानवताके साज सजाने , दुष्ट दु-शासनके हाथोंसे
दुपद-मुताकी लाज बचाने, बोर बढ़ाने; 'मोहन' म्बुद बाहन तजकर भगवान उड़े हैं!
साम्य-सुखोंकी धार बहाने, नवजीवनकी ज्योति जगाने, दिन पलटेंगे, जग बदलेगा,
दम्भ-द्वेषमें आग लगाने विश्व-निरङ्का झण्डा लेकर वीर जवाहरलाल बढ़े हैं।
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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
(लेखक म्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया )
'कात' वर्ष ०, किरण १ १० और ११-१२ में 'क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?' शीर्षकका मेरा दूसरा लेख प्रकाशित हुआ था उसपर प्रो० हीरालालजी एम० ए०, एल-एल० बीने 'अनेकान्त' वर्ष ८, किरण १, २ र ३ में 'रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमांसाका एक कर्तृव अभी तक सिद्ध नहीं' शीर्षक लेख लिखा है । श्राज उसीपर यहाँ विचार प्रस्तुत किया जाता है। प्रो० सा० की मुझलाहट -
मैंने अपने द्वितीय लेखके प्रारम्भ में प्रो० सा०की कई मंगत बातोंकी लोचनाएँ की थीं और लिखा था कि मेरा वह प्रमाण पूर्ण प्रथम लेख अनेक विचारशील विद्वानोंने पसन्द किया है, पर हो० सा० को वह पसन्द नहीं श्राया । इसमें विद्वद्वर्य पं० सुमेरचन्दजी शास्त्री, दिवाकर, की स्वतः प्राप्त एक सम्मति भी प्रदर्शित की थी । इसपर श्राप बहुत ॐ कला उठे हैं और न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीके उस लेखकी जो मेरे 'सच्चार्थसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक थम लेखके उत्तरमें उन्होंने लिखा था, कुछ पंक्रियाँ उद्धृत करके मुझे उसके द्वारा 'चेतावनी' मिल जाने और उससे कुछ सीख' न लेनेका उपालम्भ दिया है । साथमें सम्मतिसंग्रह की प्रवृत्तिको श्रश्रयस्कर बतलाया है। किन्तु मालूम होता है कि उन्होंने मेरे उस लेखको, जिसमें उन पनि उि त्रित लेखका विस्तृत जवाब दिया गया है, देखनेका कष्ट नहीं किया। मुझे है कि शे० सा० मेरी तं 'कुछ सीख' न लेनेकी शिकायत करते हैं और सम्मकि प्रवृत्तिको अधेयस्कर बतलाते हैं परन्तु ये स्वयं अपनेको इन दोषोंसे सुक रखते हैं। यदि वस्तुतः किसी विषय या लेखपर प्रामाणिक विद्वानोंकी सम्मतियोंको प्राप्त करना और उन्हें विषय-निर्णय के लिये प्रदर्शित करना बुरा है— श्रेयस्कर नहीं है तो उन्हें इसे स्वयं चरितार्थ करना चाहिये था। बिद्वान् पाठकोंको मालूम है कि प्रो०सा०ने लगभग पाँच वर्ष पूर्व
'सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार' शीर्षक निवन्ध लिखा था और उसे, उसपर विद्वानोंकी सम्मतियाँ प्राप्त करने के लिये, उनके पास भेजा था और जिसकी सम्म श्राई आई हुई एक प्रति मेरे पास भी मौजूद है। और जब मैंने अपने पुस्तकसंग्रह से उसे निकाल कर देखा तो मुझे उसके द्वितीय और उपान्य एवं अन्तिम पृष्ठोंपर 'षट् खण्डागमके प्रकाशित भागोंपर कुछ सम्मतियां' शीर्षकके साथ श्री चारुकीर्त्ति पण्डिताचार्य मूडविद्री, न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी, पं० सुमेरचन्द्रजी दिवाकर, शास्त्री, पं० परमेष्टीदासजी न्यायतीर्थ और जवाहरलाल जैन 'वैद्यशास्त्री, प्रतापगढ़ प्रभृति डेढ़ दर्जन विद्वानोंकी सम्मतियोंका संग्रह भी उसमें संकलित मिला। जबकि मैंने अपने उम्र लेखमें केवल एक ही विद्वान्की सम्मति प्रदर्शित की थी, जिन्हें प्रो० सा० स्वयं प्रामाणिक विद्वानोंमें रखते हैं और उनकी सम्मतिको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत करते हैं। ऐसी हालतमें मेरी एक सम्मतिको तो 'सम्मतिसंग्रह' कहकर उसकी प्रवृत्तिको अश्रेयस्कर बतलाना और अपनी डेढ दर्जन सम्मतियोंके संग्रहकी प्रवृत्तिको श्रेयस्कर समझना ही क्या कानून सम्मत है ? वास्तवमें यदि प्रो० सा० स्वयं निष्पक्ष दृष्टिसे विचार कर देखेंगे तो उन्हें अपनी भूल नजर धाजायगी और किसी विवाद विषयके निर्णयमें प्रामाणिक विद्वानोंकी सम्मतियोंको प्रदर्शित करना उसी कार श्रेयस्कर समझेंगे, जिस प्रकार 'सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार' निबन्धमें उन्होंने श्रेयस्कर समझा है और तब मेरा भी यह सम्मतिदर्शन उन्हें अनुचित न लगेगा।
आत्म-नियंत्रणकी ओर
मैंने पूर्व लेखमें यह उल्लेख किया था कि सनकरण्ड सम्बन्धी लेखके उत्तर लिखनेके पहले 'भद्रबाहु' सम्बन्धी लेखका उत्तर प्रथमतः लिखना क्रमप्राप्त एवं न्याययुक्त था । इसका प्रो०सा० ने यह जवाब लिखा था कि 'चूंकि दूसरे
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[ वर्ष
रत्नकरण और माप्तमीमाँसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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लेखका विषय हमारी चिसन-धारामें अधिक निकटवर्ती है' 'प्रो. सा. की रीति-नीति ही कुछ ऐसी बन गई है कि वे इसीसे पहले उसे लिया गया है। इसपर मैंने उनसे पूछा मुख्य विषयको टालनेके लिये कुछ अप्रयोजक प्रश्न या था कि 'वह चिन्तन-धारा कौनसी है ? और उसमें इस प्रसंग अथवा गौण बातें प्रस्तुत कर देते हैं और स्पष्ट लेखसे क्या निकटवर्तित्व है ? वास्तवमें तो मेरे पहले लेख्का तथ्यको झमेले में डाल देते हैं। इसके प्रमाणस्वरूप मैंने विषय ही उनकी चिन्तन-धारामें अधिक निकटवर्ती जान पं० फलचन्दजी शिद्धान्तशास्त्रीको उस चर्चाका उल्लेख पड़ता है, जहाँ नियुक्रिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र किया था, जो वेद-वैषम्यको लेकर 'जैन-सन्देश' में कई को दो पृथक ब्यक्रि स्पष्ट करके बतला दिया गया है और महिनों तक चली थी और जिसे विद्वान पाठकोंने दिलचस्पीके जिन्हें कि प्रो० सा० ने एक व्यक्रि मान कर अपने विलुप्त साथ पढ़ा होगा। इसकी पुष्टिमें भी अपनी स्वयंकी प्रत्यक्ष अध्यायकी इमारत खदी की थी।' इसपर अब श्राप लिखते देखी हुई कलकत्ताकी चर्चाका निर्देश किया था। इसपर हैं कि 'ऐतिहासिक चर्च में भी साम्प्रदायिक विक्षोभ उत्पन्न प्रो० सा. पाठकोंकी दृष्टिमें अपनेको गिरते जानकर बड़े होते देख मैंने स्वयं अपने ऊपर यह नियंत्रण लगा लिया जुभित एवं कुपित होगये और मेरे उन कथनको कुत्सित है कि फिलहाल मैं जो कुछ जैनपत्रों के लिये लिखूगा वह वृत्तियाँ' एवं 'धोर अपराध' बतलाते हैं ? साथमें कलकत्ताकी विषय व प्रमाणकी दृष्टिसे दिगम्बर जैन इतिहास, साहित्य चर्चासम्बन्धी बातोंको 'विगतवार पेश' करने के लिये उन्होंने
और सिद्धान्तके भीतर ही रहेगा । बस, इसी आत्म-नियंत्रण मुझे बडी डाटके साथ ललकारा है। इस सम्बन्धमें मैं के कारण नियुत्रिकार भद्रबाहु सम्बन्धी चिन्तन दूर पद यदि कितनी भी ईमानदारीसे लिखगा तो भी प्रो.सा. उसे जाता है और प्रस्तुत विषय पूर्णत: उन सीमाके भीतर कदापि माननेको तैयार नहीं होंगे; क्योंकि उनकी धर्तमान प्राजाता है।'
प्रवृत्तिमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ और न तत्त्वत: जिज्ञासाका पाठक, देखेंगे कि मेरे प्रश्नसे प्रो० सास ने किस ढंगसे भाव जान पड़ता है। अतएव यदि वे उन बातोंको जाननेके किनाराकशी की है और भद्रबाह-सम्बन्धी लेखका उत्तर न लिये उत्सुक हैं तो मेरे पालावा उन उपस्थित विद्वानों देनेमें यह कारण बतलाया है कि उन्हें उससे साम्प्रदायिक
और प्रत्यक्ष दृष्टाओंसे उनको जान सकते हैं। फिर भी मैं विक्षोभ उत्पन्न होनेका भय है । वास्तवमें बात यह है कि एक बातका उल्लेख किये देता हूं। आपने कलकत्ताकी उन लेखके तथ्योंका उनके पास उसी प्रकार प्रमाणपूर्ण प्रथम दिनकी चर्चा के समय सबसे पहले यह प्रश्न किया था कोई उत्तर नहीं है जिस प्रकार पं० परमानन्दजी शास्त्रीद्वारा' कि वेद-वैषम्य सम्भव नहीं है, जब उसे पं० राजेन्द्रकमारजी लिखे गये 'शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार' शीर्षक लेख न्यायतीर्थने जीवकाण्ड गोम्मटसारकी गाथा 'कहिं विषमा' के तथ्योंका कोई उचित उत्तर नहीं है। और यदि वे इन का प्रमाण देकर उसे सिद्ध किया । तब थापने यक्रिसे सिद्ध दोनों लेखांके तथ्योंको स्वीकार करते हैं तो उनके विलप्त करनेके लिये कहा तो उन्होंने बन्ध तत्त्वका विश्लेषण करते अध्यायकी सारी इमारत ढह जाती है। इसी असमंजसमें हुये उसे युक्रिसे भी सिद्ध कर दिया। फिर श्रापका प्रश्न पड़कर अब प्रो. सा. को साम्प्रदायिक विक्षोभके उत्पन्न हुआ कि यह तो स्त्रीमुक्रिनिषेधके लिये दिगम्बर परम्पराने होनेका वहाना ढूंढना पड़ा है और इसीसे अब प्राम-नियं- माना है। इसका जबाब दिया गया कि स्त्रीमुक्रिको माननेअणकी ओर भी प्रवृत्त होना पड़ा है । जो कुछ हो, यह बाली श्वेताम्बर परम्परामें भी वेद-वैषम्य माना गया निश्चित है कि उनके ये वकीली दाव-पंच विचार-जगतमें कोई है । इसके बाद यद्यपि वेद-वैषम्य सिद्ध होजानेपर मुल्यवान नहीं समझे जा सकते हैं।
मामला खतम होगया था, किन्तु कुछ और प्रश्न किये गये
जो प्रस्तुत चर्चाके उपयुक्त न थे और सर्वथा किनारा कमीके अप्रयोजक प्रश्नोंका आरोप गलत नहीं है
थे । उपस्थित लोगोंने जान लिया कि अब आपसे उत्तर आगे चलकर मैंने अपने उसी लेखमें लिखा था कि नहीं बन रहा और इस लिये श्रापका चेहरा फीका पड़ने १ 'अनेकान्त' वर्ष ७, किरण १-२ ।
लगा एवं अन्यत्र जानेकी बात कही गई तो फिर चर्चा
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अनेकान्त
[किरण ४-५
दूसरे दिनको स्थगित की गई, इन सब बातोंको प्रत्यक्षदृष्टाओंने तो हमें समझमें नहीं आता कि मतसे अतिरिक्त और स्पष्ट देखा था। ऐसी स्थितिमें मेरे 'अप्रयोजक प्रश्न' या मान्यता क्या है और उसके परिवर्तनको छोड़कर परित्याग 'प्रयोजक प्रसंग' अथवा गौण बातें कहनेपर उन्हें 'कुत्सित और क्या चीज़ है ? साधारण विवेकी भी मत भार मान्यता वृत्तियाँ' और 'घोर अपराध' बतलाना सर्वथा गलत है। मैं तथा परिवर्तन और परित्यागकी अभिन्नताको समझ सकता नहीं चाहता था कि उन बातें प्रस्तुत की जाये, पर प्रो० सा है और निश्चय ही उसे कबूल करेगा । यथार्थत: मत और ने सोभमें पाकर मुझे उनको प्रकट करनेके लिये बाध्य मान्यता एवं परिवर्तन और परित्याग ये पर्यायवाची ही किया है। अत एव इस एक ही बातसे प्रकट है कि वे शब्द हैं। थोड़ी देरको यदि हम प्रो० सा० की यह मान्यता किस ढंगसे अनेकों अप्रयोजक प्रश्न खड़े करते हैं-'और की परिभाषा मान भी लें कि जिस बातको मननपूर्वक ग्रहण तथ्यको झमेलेमें डालकर उसे ईमानदारीके साथ स्वीकार और स्थापित किया जावे वह मान्यता है तो मैं कह देना नहीं करते। और इस लिये उनका क्षभित एवं कुपित होना __ चाहता है कि मत भी तो इसीको कहते हैं । दूसरे, अध्ययन सर्वथा व्यर्थ है।
के अधिकार नामक निबन्धमें जो कथन प्रस्तुत किया गया है मान्यताकी परिभाषा और उसका ग्रहण-परित्याग- वह मननपूर्वक किया हुश्रा है या नहीं ? यदि है, तो वहाँ
रत्नकरडश्रावकाचारको स्वामी समन्तभद्रकृत कहा जाना __ मैंने पहले लेखमें यह उल्लेख किया था कि 'सिद्धान्त
मान्यता क्यों न कहलायंगी? और यदि मननपूर्वक नहीं हैऔर उनके अध्ययनका अधिकार' नामक निबन्धमें स्न
गैरमननका है तो अधिकारका वह सब कथन निरर्गल ही करण दुश्रावकाचारको स्वामी समन्तभद्रकृत बतलाया गया है
कहा जायगा। ऐसी हालतमें प्रो० सा० स्वयं बतलायें कि और अब विलुप्त अध्यायमें उसे उनकी रचना न होनेका
ऐसे प्रयुक कथन और पूर्वापरविरुद्ध कथनका प्रमाणक्षेत्रमें कोई कथन किया गया है और इसलिये यह तो पूर्व-मान्यताका
मुल्य नहीं है या संगत और पूर्वापर-अविरुद्ध कथनका कोई छोड देना है। इसपर प्रो० सा० ने 'स्नकरण्डश्रावकाचार
मूल्य नहीं है ? स्पष्टत: विवेकीजन अयुक्र और पूर्वापरविरुद्ध और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व' शीर्षक अपने लेखमें मेरे इस
कथनका ही प्रमाण क्षेत्रमें कोई मूल्य न बतलायेंगे। और आलोचनात्मक प्रतिपादनको पहले तो 'भ्रम' बतलाया और
यत्रिपूर्ण अविरोधी कथनको ही मुल्यवान कहेंगे। और इस फिर आगे उसी जगह बादमें यह कहते हुए उसे स्वीकार
लिये मेरे उन मान्यता छोडनेके कथनको निर्मूल और कर लिया कि 'गवेषणाके क्षेत्रमें नये आधारोंके प्रकाशमें
निराधार प्राक्षेप' बतलाना सर्वथा अनुचित एवं बेबुनियाद है। मतपरिवर्तन कोई दोष नहीं है। किन्तु अब आप लिखते हैं कि 'मान्यता तो तभी होती है जब किसी बातको मनन केवलीके १२ दोपों के अभावका स्वीकारपूर्वक ग्रहण और स्थापित किया जावे । किन्तु जहाँ पूर्वमें
स्नकरण्डश्रावकाचारमें प्राप्तके लक्षणमें पाये 'उच्छिन्नऐसी मान्यता प्रकट ही नहीं की गई वहाँ उसे छोड़ने आदि
दोष' विशेषणका स्वरूप क्षुधादि १८ दोष-रहित बतलाया का लांछन लगाना तो निर्मूल और निराधार आक्षेप हो
गया है। इसपरसे प्रो. साहबने उसे प्राप्तमीमांसाकार
। कहलायगा, जिसका प्रमाण क्षेत्र में कोई मूल्य नहीं।'
स्वामी समन्तभद्रकी रचना न होनेका मत प्रकट किया था मुझे सखेद कहना पड़ता है कि प्रो. सा. अपनी
और लिखा था कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचारको उक्न समन्तभद्र पहले कही हुई बातको सर्वथा भूल जाते हैं। जब वे पहले
प्रथम (स्वामी समन्तभद्र) की ही रचना सिद्ध करनेके लिये या ढंकेकी चोट स्वीकार कर लेते हैं कि 'गवेषणाके क्षेत्र में
जो कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं उन सबके होते हए नये आधारों के प्रकाशमें मत-परिवर्तन कोई दोष नहीं है।'
भी मेरा अब यर मत दृढ होगया है कि वह उन्हीं ग्रन्थकारकी १६. फुलचन्द्रजी और पं. जीवन्धरजीकी चर्चाश्रोमें भी रचना कदापि नहीं हो सकती, जिन्होंने प्राप्तमीमाँसा लिखी
आपके द्वारा किये गये अनेको अप्रयोजक प्रश्न भरे पड़े थी, क्योंकि उसमें दोषका जो स्वरूप समझाया गया है है। जिन्हें पाठक उन चर्चाश्रोसे जान सकते हैं। वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता।'
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[ वर्ष ८
रत्नकरण और भाप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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इसपर मैंने अपने प्रथम खेखमें प्राप्तमीमांसाकारकी ही गत उल्लेखानुसार स्वेदके प्रभाव-नि:स्वेदत्वको भी स्वीकार दूसरी रचना स्वयम्भूस्तोत्रके उल्लेखोंके प्राधारपर यह सिद्ध कर लिया है। इस प्रकार अस्पष्टत: ७ दोषोंके अभावको किया था कि प्राप्तमीमांसाकारको भी प्राप्तमें क्षधादि १८ और भी आप मान लेते हैं । अर्थात् प्राप्तमें ५+७= १२ दोषोंका अभाव इष्ट है। हमारे इस कथनकी मालोचना दोषोंका भाव माननेमें प्रो. मा०को कोई आपत्ति नहीं करते हुए प्रो. सा. ने लिखा था कि 'पंडितजीने जिस जान पढ़ती। इस मेरे विशद विवेचनके किये जानेपर अब प्रकारके उल्लेख प्रस्तुत किये हैं उनको देखते हुये मुझे इस प्रो० सा० मुझसे पूछते हुए कहते हैं कि 'मैं पण्डितजीसे बातकी अब भी श्रावश्यकता प्रतीत होती है कि यहाँ सबसे पूछता हूँ कि उन बारह दोषोंका केवली में प्रभाव मानने में पहले मैं अपने दृष्टिकोणको स्पष्ट करदूं । केवलीमें चार मुझे आपत्ति थी कब ?' मेरे ऊपर उद्धृत लेखाँशसे मुस्पष्ट वातिया कर्मोंका नाश होचुका है, अत एव इन कमोसे है कि मैंने तो उस सम्बन्धमें पण्डितजीके उल्लेखों में अविउत्पन्न दोषोंका केवलीमें अभाव माननेमें कहीं कोई मतभेद वेक और अनावश्यकताको ही सूचना की थी।' नहीं है। स्नकरण्डके छठे श्लोकमें उल्लिखित दोषोंमें इस ममें पुनः खेद सहित कहना पड़ता है कि प्रो. सा. प्रकारके पाँच दोष हैं-भय, स्मय, राग, द्वेष और मोह। कितनी चतुराईसे पाठकोंको भुलावेमें डालना जानते हैं। अत एव इन दोषोंके केवलीमें प्रभावके उल्लेख प्रस्तुत पाठक देखेंगे कि उनके उपयंक उल्लेखोशमें उक्र १२ दोषों करना अनावश्यक है।'
का कोई उल्लेख नहीं है, जिनके बारेमें वे 'सस्पष्ट' कहनेका यहाँ यह स्मरण रहे कि विलुप्त अध्यायमें प्रो. सा. निःसंकोच निर्देश करते हैं। यहाँ तो सिर्फ पांच ही दोषोंका नै अष्टसहस्री टीका (प्रा० मी. श्लो० ४ और ६) का स्पष्टत: उल्लेख है। हां, प्रस्तुत लेखमें अब अवश्य उन १२ हवाला देकर राग, द्वेष और मोह (प्रज्ञान) इन तीनको दोंके केवलीमें प्रभाव माननेमें अनापत्ति स्वीकार करली है। प्राप्तमीमांसाकारका अभिप्राय बतलाकर दोषका स्वरूप प्रकट सो कब ? जब मैंने विश्लेषण करके विशदताये उन्हें दिखाया किया था-उनमें भय और स्मय ये दो दोष नहीं कहे थे। और उनके मानने में श्रापनि न होनेको कहा। पहले तो
और जब मेरे द्वारा स्वयम्भूस्तोत्रके उन उल्लेख उपस्थित उन्होने विलुप्त अध्यायमें तीन ही दोष बतलाये थे फिर किये गये तो बादमें 'नकरण्ड और प्राप्तमीमीमांसाका पाँच दोष होगये और अब बारह दोष होगये । और शायद एक-कर्तृत्व' लेखमें यह कहते हुए कि 'रनकरण्डके छठे अगले लेखमें पूरे १८ दोष मान लें और उनका केवलीमें श्लोकमें उल्लिखित दोपोंमें इस प्रकारके पाँच दोष-भय,
अभाव स्वीकार करलें। ऐसी स्थितिमें पाठक जान सकते हैं स्मय, राग, द्वेष और मोह।' राग, द्वेष और मोहके अलावा कि अविचेक और अनावश्यकता किस ओर है ? मेरे विवेभय और स्मय इन दो दोषोंको और भी मान लिया गया चन" उल्लेखों में है या उनके उत्तरोत्तर संशोधन होने गये और इस लिये मैंने द्वितीय लेस्त्रमें लिखा था कि 'प्रसन्नताकी
कथनमें है ? इससे प्रकट है कि जब उनके कथनमें उत्तरोत्तर बात है कि 'राग, द्वेष, मोहके साथ भय और स्मयके
संशोधन होता गया तो मेरे उन उल्लेखों में विवेकीजन विवेक अभावको भी केवलीमें प्रो. सा० ने मान लिया है और और सार्थकता ही निश्चय से प्राप्त करेंगे। प्रो० सा. ने स्वयं इस तरह उन्होंने रत्नकरण्डमें उक्र १८ दोषोंमेसे पोच भी पहले अपने 'दृष्टिकोण' को अस्पष्ट स्वीकार किया है दोषोंके अभावको तो स्पष्टत: स्वीकार कर लिया है। और श्रीर पीछे उसे 'स्पष्ट किया है। जैसा कि उनके ऊपरके चिन्ता, खेद, रति. विस्मय और विषाद ये प्रायः मोहकी पर्यायविशेष हैं, यह प्रकट है। अतः मोहके प्रभावमें इन प्राप्तमीमांसामें भी रत्नकरण्डोक दोषका स्वरूप दोषोंका प्रभाव भी प्रो० सा० अस्वीकार नहीं कर सकते हैं। निद्रा दर्शनावरण कर्मके उदयसे होती है, इसलिये केवलीमें
___ माना गया हैदर्शनावरण कर्मका नाश होजानेसे निद्राका अभाव भी प्रो. मैंने स्वयम्भूस्तोत्रके प्रमाणोल्लेखोंसे यह सिद्ध किया मा. को अमान्य नहीं हो सकता। विद्यानन्द के असहस्त्री- था कि प्राप्तमीमाँसाकारको भी नकरण्डोक दोषका स्वरूप
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अनेकान्त
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स्वीकार है। इसार प्रो. सा.ने लिखा था कि न्यायाचार्य प्राप्तपरीक्षा दोनोंकी स्थिति एक है और दोनों ही में जी बातमीमांसा तथा युक्त्यनुशासनमेंसे तो कोई एक भी दार्शनिक दृष्टिकोण मुख्यत: विवेचनीय है और प्रागमिक ऐसा उल्लेख प्रस्तुत नहीं कर सके, जिसमें उन मान्यताका गौणतः । अतएव इस सम्बन्धमें और अधिक विवेचन अनाविधान पाया जाता हो। यथार्थत: यदि प्राप्तमीमांसाकारको वश्यक है। पूर्व लेखमें वह विस्तृत रूपसे किया जा चुका है। प्राप्तमें उन प्रवृत्तियोंका प्रभाव मानना अभीष्ट था तो उसके सुधादि वेदनाएँ मोहनीय सहकृत वेदनीय प्रतिपादनके लिये सबसे उपयुक्र स्थल वही ग्रन्थ था, जहाँ
जन्य कही गई हैउन्होंने प्राप्तके ही स्वरूपकी मीमांसा की है।' इसपर मैंने
पिछले लेखमें हमने बुधादि वेदनाओंको शास्त्रीय उनसे प्रश्न किया था कि क्या किसी प्रन्थकारके पूरे और
प्रमाणपूर्वक मोहनीय जन्य बतलाया है । यह हमने कहीं ठीक अमिप्रायका एकान्तत: उसक एक ही ग्रन्थपरस जाना नहीं लिखा कि 'क्षधादि वेदनाएँ सर्वथा मोहनीय जा सकता है ? यदि नहीं तो प्राप्तमीमांसापरसे ही प्राप्त- कमपन्न हैं। किन्तु प्रो० साहबको कुछ ऐसी गन्ध श्रागई मीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रके पूरे अभिप्रायको जाननक है कि मैं उन्हें सर्वथा मोहनीय कर्मोन्पन्न मानता है। इसके लिये क्यों प्राग्रह किया जाता है? और उनके ही दूसरे लिये उन्होंने मेरे लेखके दो स्थलोंकी कुछ पंक्रिया उद्धृत ग्रन्थपरमे वैसे उल्लेख उपस्थित किये जानेपर क्यों अश्रद्धा
श्रद्धा की है, जो अधूरे रूपमें उपस्थित की गई हैं । वे पंक्रियों की जाती है ? ममममें नहीं आता कि प्रो० सा के
अपने पूरे रूप में निम्न प्रकार हैं:इस प्रकारके कथनमें क्या रहस्य है?' इसके साथ ही पाँच
'वास्तव में प्राप्तमीमाँसामें प्राप्तके राग, द्वेषादि दोष हेतु-प्रमाणसे प्राप्तमीमाँसामें भी कारिका दोमें रत्नकरण्डोक्र
और प्रावरणोंका अभाव बतला देनेपे ही तजन्य धादि दोषका स्वरूप प्रमाणित किया था । अब उन्होंने लिखा है
प्रवृत्तियों-लोकमाधारण दोषोंका प्रभाव मुतरौ सिद्ध हो कि 'जो प्रन्थकार अपने एक ग्रन्थमें प्राप्तके सुस्पष्ट लक्षण
जाता है। उनके प्रभावको प्राप्तमें अलग बतलाना अमुख्य स्थापित करे और प्राप्तमीमांसापर ही एक पूरा स्वतंत्र ग्रन्थ
एवं अनावश्यक है।' लिखे उससे स्वभावत: यह अपेक्षा की जाती है कि वह उस
तात्पर्य यह कि समन्तभद्को प्राप्तमीमांसामें यथार्थग्रन्थमें उन्हीं लक्षणोंकी व्यवस्थित मीमांसा करेगा।' मालूम वक्रत्व और उसके जनक वीतरागत्व तथा सर्वज्ञत्व रूपसे ही होता कि उन्होंने मेरे उन पाँच हेतु-प्रमाणोंर सर्वथा ही प्राप्तके स्वरूपका स्पष्टत: निर्वचन करना इष्ट है । धादि ध्यान नहीं दिया, जिनके द्वारा यह बतलाया गया है कि तुच्छ प्रवृत्तियोंके प्रभावकी सिद्धि तो श्रासमें मोहका प्रभाव प्राप्तमीमांसा का० २ में दोषका लक्षण वही किया है जो रन- होजानेसे अस्पष्टत: एवं भानुषंगिक रूपमें स्वत: होजाती है। करण्टुमें है। थोड़ी देरको यह मान भी लें कि प्राप्तमीमामा अत: उसके साधनके लिये सीधा प्रयत्न या उपक्रम करना में वह लक्षण कण्ठत: नहीं है तो यह जोर देना अनुचित है स्वासतौरसे आवश्यक नहीं है। बुधादि प्रवृत्तियों वस्तुतः मोह कि वह लक्षण भी उसमें कण्ठतः ही होना चाहिए। इसके नीय सहकृत वेदनीयजन्य हैं। अतएव मोहनीयके बिना केवलीमें बारेमें प्राप्तपरीक्षा और उसकी प्राप्तपरीक्षालंकृति टीकाका वेदनीय उन प्रवृत्तियोंको पैदा करनेमें सर्वथा असमर्थ है।' हवाला भी दिया गया था जहाँ मुख्यत: उन धादि दोषों इन मेरे पूरे उद्धरणोंपरसे विज्ञ पाठक जान सकेंगे कि के अभावरूपसे प्राप्तका स्वरूप वर्णित नहीं किया गया है। मेरी जुधादिवेदनाओंको सर्वथा मोहनीय कर्मोत्पल माननेकी फिर भी इससे यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि मान्यता है या मोहनीय सहकृत वेदनीय जन्य माननेकी है? उसके कर्ताको उक्र लक्षण इष्ट न होगा या उसे बाधित स्पष्टत: वे मेरी मान्यता बधादिवेदनाओंको मोहनीय सहकृत समझा होगा। किन्तु वह लक्षण फलित होजानेसे वर्णनीय वेदनीय जम्य होनेकी ही उक उद्धरणों में देखेंगे, जब मैं नहीं रहा। यही स्थिति प्राप्तमीमांसाके लिये है और इस उसी जगह स्पष्टतया लिख रहा हूं कि सुधादि प्रवृत्तियों लिये उन तीन विकल्पोंका कोई महत्व नहीं रहता जो इस वस्तुत: मोहनीय सहकृत वेदनीय जम्य हैं।' तब समझमें नहीं प्रसंगमें प्रस्तुत किये हैं क्योंकि प्राप्तमीमामा और पाता कि प्रो० सा० ने मेरी मान्यताका विपर्यास क्यों
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---- मिद्ध रत्नकरण्ड और भाप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्धी
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किया और उसे पाठकोंके सामने अन्यथा रूपमें क्यों रखा ! अत एव मैंने जो बुधादिवेदनाओंको मोहनीय सकृतह यदि उन उदरणों में मोहनीयपर जोर दिया गया है तो वेदनीय जम्य और पातिकर्मसहकृत वेदनीय जन्य बतलाया उसका मतलब यह नहीं है कि वहां उन वेदनाभीको सर्वथा है वह प्रमाणसंगत है। मोहनीय जन्य बतलाया है, किन्तु उसकी वेदनीयमें कार्यकारी केवल वेदनीय तुधादिवेदनाओंका जनक नहीं हैप्रबल एवं अनिवार्य सहायकता प्रतिपादित की गई है। इसी सिलसिलेमें प्रो० सा० मे दो बातोपर विशेष यह सब जानते हैं कि घडेकी जनक मिट्टी है लेकिन कुम्हार जोर दिया है। एक तो यह कि वेदनीयकर्म फल देने में भी उसका अनिवार्य निमित्तकारण होनेसे उसका जनक मोहनीय या धातिकर्मके अधीन नहीं है वह उनसे निरपेक्ष कहा जाता है और 'कुम्भकार' ऐसा उसमें सर्वप्रसिद्ध स्वतंत्र फलदाता है। दूसरी यह कि शास्त्रोंने इन दोनों व्यादेश भी होता है। बस, इसी रूपमें वहाँ मोहनीयपर कर्मोंको विरोधि ही बतलाया है तब मोहनीयवेदनीयका सहकारी जोर दिया गया है। और यह जोर देना शास्त्रसम्मत ही कैसे हो सकता है ? पहली बातके समर्थनमें पापने पूज्यपाद है-अशास्त्रीय नहीं है। यहाँ मैं नमूनेके तौरपर इम की सर्वार्थ सिद्धि (१-१६) और वीरसेन स्वामीकी धवला विषयके एक-दो शास्त्रीय प्रमाण भी प्रस्तुत किये देता हूं:- टीका (१, १-१,७।१,१-१,१८) गत कुछ पंक्रियोंको
मोहकर्मरिपो नष्टे सर्व दोषाश्च विद्गताः । शुद्धत किया है। किन्तु आश्चर्य है कि प्रो. सा. यह भूल छिन्नमूलतरोद्वद् ध्वस्तं सैन्यमराजवत् ॥ जाते हैं कि ये दोनों ही प्राचार्य वेदनीयको फल देने में नष्ट छद्मस्थविज्ञानं नष्ट केशादिवर्धनम् । मोहनीय या घाति कर्माधीन ही मानते हैं। जैसा कि उनके नष्ट देहमलं कृत्स्नं नष्टे धातिचतुष्टये ॥ निम्न उद्धरणोंसे स्पष्ट है:नष्टाः चत्तभयस्वेदा न प्रत्येकबोधनम् ।
'निरस्तपातिकर्मचतुष्टये जिने वेदनीयसद्धावान्तदाश्रया नष्ट भूमिगतस्पर्श! नष्टं चेन्द्रियजं सुखम् ॥' एकादशपरीषहाः सन्ति । ननु मोहनीयोदयसहायाभावात्म
-प्राप्तस्वरूप। दादिवेदनाऽभावे परीपहम्यपदेशो न युक्रः; सत्यमेवमेतत; 'यस्य हि धादिवेदनाप्रकर्षोदयस्तस्य तत्सहनारप- वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परीषहोपचारः क्रियते।' रीषहजयो भवति । न च मोहोदयबलाधानाभावे वेदनाप्रम
-सर्वार्थसि० (पृ. २८९) चोऽस्ति तदभावारसहनवचनं भकिमात्रकृतम् ।'
'ण च वेयणीयं तकारणं; असहेजत्तादो । घाइचउकस.
-तत्त्वार्थवार्तिक। हज संत वेयणीयं दुक्खुप्याययं । ण च तं घाइचउकमस्यि यहाँ मुख्यत: मोहनीयपर जोर दिया गया है लेकिन केवयिम्मि, सदोण सकजजणणं वेयणीयंजलमटियादिवह वेदनीयकी अनिवार्य सहायकतारूप में ही दिया गया विरहियबीज वेत्ति। वेयणीयस्स दुक्खमुप्पाएंतस्स बाइच है। और यही मेरा वहाँ अभिप्राय है। जहाँ सुधादि प्रवृ. उकं सहेजमिति कधं शवदे ? तिरयण-पउत्तिअण्णहाणुत्तियोंके अभावको अतिशय बतलाया है और उन्हें घाति- ववत्तीदो। कर्मक्षय जन्य प्रतिपादित किया गया है वहाँ भी घातिकोंकी वाइकम्मे ण संते वि जइ वेयणीयं दुक्खमुप्पायह तो वेदनीयमें अनिवार्य सहायकता ही वर्णित की गई है। और यह सतिसो सभुक्खो केवली होज ? ण च एवं; भुक्खातिसासु वर्णन भी स्वकाल्पनिक या अशास्त्रीय नहीं है-शास्त्रीय कर-जलविसयतण्हासु संतीस केवलिस्स सम.हदावत्तीती। ही है। यथा
सण्हाए ण भुजइ, किंतु तिरयणमिदि ण वो जुत्तं; 'अस वेद्योदयो वातिसहकारिव्यपायतः । तस्थ पत्तासेससरूवम्मि तदसंभवादो । तं जहा. ण ताव स्वस्यकिंचित्करी नाथ ! सामग्रया हि फलोदयः ॥ णाण8 भुजह पत्त केवलणाणभावादो। ण च केवलणाणा
-प्रादिपुराण २५ वो पर्व दो पहियमण्णं पस्थणि णाणमस्थि जेण तद केवली 'पातिकर्मोदयसहायाभावात तत्सामर्थ्य विरहात् ।' भुजेज । ण संजम' पत्तजहाक्खादसंजमादो। उमाण
-तत्त्वार्थवार्तिक । विसईकयापेसतिवणस्स ज्झेयाभावादो। भुजावली
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अनेकान्त
[वर्ष
केवली भुत्तिकारणाभावादो त्ति सिद्धं ।
में भातविषयक और जलविषयक तृष्णाके होनेपर फेवली ___अह जइ सो भुजह तो बलाउ-सादु-सरीरुवचय-तेज- भगवानको मोहीपनेकी आपत्ति प्राप्त होती है। सुहह चेव भुजइ संसारिजीवो व्व; ण च एवं समोहस्स यदि कहा जाय कि केवली तृष्णासे भोजन नहीं करते केवलणाणाणुवत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदो- हैं किन्तु रत्नत्रयके लिये भोजन करते हैं, तो ऐसा कहना समोहकलंककिए हरि-हर-हिरण्यगन्भेसु व सञ्चाभावादो। भी युक्र नहीं है, क्योंकि वे पूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त कर श्रागमाभावे ण तिरयणपत्ति तिस्थवोच्छेदो चेव होज, चुके हैं, अत एव यह कहना कि वे रत्नत्रय (ज्ञान संयम ण च एवं, तित्थस्स गिब्बाहबोह-विसयीकयस्स उवलंभादो। और ध्यान) के लिये भोजन करते हैं, सम्भव नहीं है। वह तदोण वेयणीयं धाइकम्मणिरवेक्खं फलं देदि ति सिद्धं। इस प्रकारमे-केवली जिन ज्ञानकी प्राप्तिके लिये तो भोजन
-जयधवला मु. पृ. ६८-७१ करते नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया यह पहले अ
पात सामी परतया की है और केवलज्ञानसे बड़ा कोई दूसरा झान प्राप्त करने रहे हैं कि वेदनीय कर्म मोहनीयोदयकी सहायताके बिना योग्य है नहीं जिसके प्राप्त करनेके लिये वे भोजन करें । आधादि वेदनाओंको उत्पत्र नहीं करता । दसरे उद्धरणमें संयमके लिये भी वे भोजन नहीं करते, क्योंकि यथाख्यात वीरसेन स्वामी सबलताके साथ वेदनीयमें मोहनीय एवं संयम. जो सबसे बड़ा और अन्तिम है, उन्हें प्राप्त है। धातिकर्मकी सहायकताका समर्थन करते हैं और घाति निरपेक्ष ध्यानके लिये वे भोजन करते हैं, यह कथन भी उसके फल देनेका सख्त विरो करते हैं । उनके इस उद्ध. युक्रिसंगत नहीं है, क्योंकि उन्होंने सब पदार्थोंको जान रण का पूरा हिन्दीभाव हिन्द-टोकाकारों के ही शब्दों में दे देना लिया है, इसलिये उनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही आवश्यक समझता है जिससे सभी पाठकोंको सहलियत नहीं रहा है। श्रतएव भोजन करनेका कोई कारण नहीं रहने होगी। यथा
से केवली जिन भोजन नहीं करते हैं यह सिद्ध होजाता है। ___'वेदनीय कर्म केवली भगवानमें अवगुण (दोष) पैदा
दूसरी बात यह है कि यदि केवली भोजन करते हैं तो नहीं करता, क्योंकि असहाय है । चार वातिया कर्मोकी
वे संसारी जीवोंके समान ही बल, आयु, स्वाद, शरीरकी सहायतासे ही वेदनीय कर्म दुःस्व उत्पन्न करता है। और चार
वृद्धि, तेज और सुखके लिये ही भोजन करते हैं. ऐसा धातियाकर्म केवली भगवानमें नहीं हैं। इसलिये जल और
समझा जायगा, परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि वे मोहयुक्र हो मिट्टी के बिना जिस प्रकार बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य
जायेंगे और ऐसी हालतमें उनके केवलज्ञानको उत्पत्ति नहीं करने में समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार वेदनोय भी धाति
हो सकेगी। चतुष्कके बिना अपना कार्य नहीं कर सकता है।
यदि कहा जाय कि अकेवली पुरुषोंके वचन ही आगम
हैं तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा माननेपर शंका-घाति चतुष्क दावोत्पादक वेदनीय कर्मका
राग, द्वेष और मोहसे कलंकित उनमें हरिहरादिककी सहायक है, यह कैसे जाना जाता है?
तरह सत्यताका अभाव हो जायगा और सत्यताके समाधान-यदि चार धातिया कोंकी सहायताके प्रभाव होजानेपर प्रागमका अभाव होजायगा और आगमका बिना भी वेदनीय कर्म दुःख देनेमें समर्थ हो तो केवली अभाब होजानेपर रत्नत्रयकी प्रवृत्ति नहीं बन सकेगी, जिनके रत्नप्रयको निर्वाध प्रवृत्ति नहीं बन सकती है. इससे जिससे तीर्थका विच्छेद ही हो जायगा। परन्तु ऐसा न प्रतीत होता है कि घातिचतुष्ककी सहायतासे ही वेदनीय है क्योंकि निर्बाध बोथके द्वारा शात तीर्थकी उपलब्धि अपना कार्य करने में समर्थ होता है।
बराबर होती है। अत एव यह सिद्ध हुआ कि घाति कर्मोंकी यदि घातिकर्मके नष्ट होजानेपर भी वेदनीय कर्म दुःख अपेक्षाके बिना वेदनीय कर्म अपने फलको नहीं देता है।' उत्पन्न करता है तो केवलीको भूम्व और प्यासकी बाधा वीरसेन स्वामीके इस युनिपूर्ण विशद विवेचनसे प्रकट होनी चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि भूख और प्यास है कि वेदनीयको फल देनेमें मोहनीय एवं घातिकर्म सापेक्ष
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किरण ४-५]
रत्नकरएड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्धी
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घातिकर्म निरपेक्ष फल देनेमें जो बीरसेन स्वामीके वचनोंसे दयसहायाभावात तासामर्थ्य विरहात । तद्भावोपचाराद् ध्यानप्रमाणित करनेका प्रयत्न किया गया है वह सर्वथा भ्रान्त है कल्पनवच्छक्रितः एव केवलिन्येकादशपरीषहाः सन्ति । और उनकी विभिन्न स्थलीय विवक्षामोंको न समझने एवं पुनय क्रितः, केवलाद्वेदनीय । द्वयन सुदायसम्भवादियुपचारउनका समन्वय न कर सकनेका ही परिणाम है।
तस्ते तत्र परिज्ञातम्याः । कुतस्ते तत्रोपचर्यन्ते इत्याहइसी प्रकारकी बढ़ी भूल उन्होंने अपनी दूसरी बात लेश्यैकदेशयोगस्य सद्भावादुपचर्यते । (वेदनीय और मोहनीयके पारस्परिक विरोध) के समर्थनमें की यथा लेश्या जिने तद्ववेदनीयस्य तत्त्वतः ॥ है। भाप लिखते हैं परन्तु कर्म सिद्धान्तके शारूज्ञोंको वैसा घातिहत्युपर्यन्ते सत्तामात्रात परीषहाः । पष्ट नहीं है, और वे मोहनीयको बेदनीयका सहचारी न मान छमस्थवीतरागस्य यथेति परिनिश्चितम् ॥ कर उसका विरोधी ही बतलाते हैं । उदाहरणार्थ, तत्त्वार्थसूत्र ननदादेरमिव्यकिस्तत्र तद्वस्वभावतः । ८, ४ की टीकामें कर्मों के नामनिर्देश क्रमकी सार्थकता बत- योगशून्ये जिने यद्वदन्यथातिप्रसंगतः ॥ लाते हुए राजवार्तिककार ज्ञानावरण और दर्शनावरणका नैकं हेतुः सदादीनों व्यक्रौ चेदं प्रतीयते। साहचर्य प्रकट करके कहते हैं।' आगे राजवार्तिककी कुछ पंक्रियों तस्य मोहोदयाद् व्यरसद्वेचोदयेऽपि च ॥ को उद्धृत किया है। साथ ही वे यह कहते हुए कि 'इसी क्षामोदरवसम्पत्तौ मोहापाये न सेक्ष्यते । प्रकार श्लोकवार्तिककार स्वयं विद्यानन्दजीने भी स्वीकार किया सत्याहाराभिलाषेऽपि नासदेयोदयाहते ॥ है।' विद्यानन्दके श्लोकवार्तिककी भी दो पंकियों उन बातके न भोजनोपयोगस्यासवेशाऽप्यनुदीरणा । समर्थनमें प्रस्तुत करते हैं!
असातावेदनीयस्य न चाहारेक्षणादिना ।। यहाँ प्रो० साने वेदनीय और मोहनीयमें विरोध प्रमा- शुदित्यशेषसामग्रीजन्याऽभिव्यज्यते कथम् । शित करने के लिये उन दो सुप्रसिद्ध प्राचार्यों के ग्रन्थोंके तवैकल्ये मयोगस्य पिपासादेश्योगतः ॥ वाक्योंको उपस्थित किया है जो मोहनीयको वेदनीयका क्षदादिवेदनोद्भती नाई तोऽनन्तशर्मता। सबलताके साथ सहायक मानते हैं और जो प्रो० साके निराहारस्य चाशनी स्थातुं नानन्तशक्तिः ॥ मन्तव्यका जरा भी समर्थन नहीं करते हैं । यथा :
नित्योपयुक्रबोधस्य न च संज्ञाऽस्ति भोजने । ___'यस्य हि दादिवेदनाप्रकर्षोदयस्तस्य तत्सहनापरीषह- पाने चेति हुदादीनां नाभिव्यकिर्जिर्नाधिपे ॥' जयो भवति । न च मोहोदयबलाधानाभावे वेदनाप्रभवोऽस्ति
-श्लोकवार्तिक पृ. ४१३ । तदभावारसहनवचनं भक्रिमात्रकृतम् ।
प्राचार्यप्रवर अकलदेव और विद्यानन्दके इन पातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात । यथा उद्धरण से स्पष्ट है कि वे मोहनीय एवं घातिकर्मको वेदनीयका विषद्रव्यं मंत्रौषधिबलादुपक्षीणमारणाशक्रिकमुपयुज्यमानं न सहकारी मानते हैं-विरोधी नहीं। मारणाय कल्प्यते तथा ध्यानानल निर्दग्धघातिकमेंन्धनस्यानन्ता- हम प्रो. सा. से नम्र प्रार्थना करेंगे कि वे उन प्रतिहतज्ञानादिचतुष्टयस्यान्तरायाभावामिरन्तरमुपचीयमानशुभ- अन्धकारोंके, जो उनके मतके विरोधी हैं, वाक्योंको तभी पुद्गलसन्ततेवेंदनीयाख्यं कर्म कदापि प्रक्षीणसहायबलं स्व. उपस्थित करें जब उनपर पूर्वापरके अनुसंधान और सन्दर्भयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति खुदाद्यभावः ।' का स्थिरतासे विचार करलें । यह नीति उनके ही पक्षमें बड़ी
-राजवार्तिक पृ० ३३८। विधातक-साधक नहीं-सिद्ध होरही है कि उन ग्रन्थों में कोई 'न हि साधनादिसहायस्याग्नेधूमः कार्यमिति केवल- वाक्य या पंकि उनके पक्षके जरा भी समर्थक मिले और स्यापि स्यात् । तथा मोहसहायस्य वेदनीयस्य यत्फलं सुदादि तुरन्त उन्हें पूर्वापरका विचार किये बिना या तत्तस्थलीय तदेकाकिनोऽपि न युज्यत एव तस्य सर्वदा मोहानपेक्षत्व- विवक्षाओंका समन्वय किये बिना प्रस्तुत कर दिया, भले ही प्रसंगात । तथा च समाध्यवस्थायामपि कस्यचिदुद्भतिप्रसंगः।' उनसे उनका मन्तव्य सिद्ध न होता हो। यह एक मामूली
'वेदनीयोदयभावात सदादिप्रसंग इति चेन, धातिको समझदार भी समझता है कि ग्रन्थकारोंकी यह पद्धति
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अनेकान्त
[वर्ष ८
अतएव स्पष्ट है कि वेदनीय फल देनेमें मोहनीय या वातिकर्मकी अपेक्षा करता है और इस लिये इन दोनोंमें विरोध नामकी कोई चीज संभवित नहीं है । इस सम्बन्धमें गो० क० गाथा १६, न्यायकुमुद पृ० ८५६, चामुन्डराय कृत चारित्रसार ४० ५७-५८, अनगारधर्मामृत पृ० ४६५, शतक, प्र६० टी० पृ० २८, रत्नकरण्ड टी० पृ० ६, और भावसं० श्लोक २१६ श्रादि शास्त्रीय प्रमाण और प्रस्तुत हैं, जहाँ भी दोनोंकी सापेक्षताका विशदतासे सयुक्रिक वर्णन है।
(क्रमश:)
होती है कि जो विषय नहीं मुख्यतः वर्णनीय होता है वहां उसका वे श्रन्वय और व्यतिरेक दोनों द्वारा इस ढंगसे साधन करते हैं कि पाठक, उसकी सत्ता और अनिवार्यता स्वीकार करलें । यही बात वेदनीयको सिद्ध करनेमें उसके प्रकरण में राजवार्तिककार और श्लोकवार्तिककारने अपनाई है अर्थात् मोहनीयको वेदनीयका विरोधी कह कर उसका स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध किया है। तात्पर्य यह कि जो कार्य वेदनीयका है वह मोहनीय द्वारा नहीं किया जासकता है हां, उसका सहायक हो सकता है। इतने अर्थ में ही वहां अकलंक और विद्यानन्द एवं दूसरे श्राचार्योंने दोनों में वीरसेवामन्दिर, सरसावा विरोध बतलाया
है 1
२३-६-४६
कौनसा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ?
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[ परिशिष्ट ]
'अनेकान्त' की गत, किरण ३ में मेरे द्वारा उक्त शीर्षकके साथ एक लेख लिखा गया | उस लेख से सम्बद्ध कुछ अंश उस समय सामने न होनेसे प्रकाशित होने से रह गया था । उसे अब इस फिर में यहां परिशिष्ट के रूप में दिया जा रहा है ।
दमोह कुण्डलगिरि या कुण्डलपुरकी कोई और अब वह पन्ना स्टेटमें पकड़ा गया है'।
ऐतिहासिकता भी नहीं हैं
जब हम दमोहक पाश्वर्ती कुण्डलगिरि या कुण्डलपुरकी ऐतिहासिकता पर विचार करते हैं तो उसके कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। केवल विक्रमकी अठारहवीं शताब्दीका उत्कीएँ हुआ एक शिलालेख प्राप्त होता है, जिसे महाराज छत्रसालने वहां चैत्याल - का जीद्धार कराते समय खुदवाया था। कहा जाता है कि कुण्डलपुर में भट्टारकी गद्दी थी। इस गद्दीपर छत्रसाल के समकाल में एक प्रभावशाली एवं मंत्रविद्या के ज्ञाता भट्टारक जब प्रतिष्ठित थे तब उनके प्रभाव एवं आशीर्वाद से छत्रसाल ने एक बड़ी भारी यवन सेनापर
काबू करके उसपर विजय पाई थी। इससे प्रभावित होकर छत्रसालने कुण्डलपुर के चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराया था और मन्दिर के लिये अनेक उपकरणोंके साथ दो मनके करीबका एक वृहद् घंटा (पीसलका ) प्रदान किया था, जो बादमें चोरीमें चला गया था
जो हो. यह शिला लेख विक्रम सं० १७५७ माघ सुदी १५ सोमवारको उत्कीर्ण हुआ है और बहके उक्त चैत्यालय में खुदा हुआ है। यह लेख इस समय मेरे पास भी है । यह अशुद्ध अधिक है। कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नाय में यशः कीर्ति, ललितकीर्ति, धर्मकीर्ति (रामदेवपुराण के कर्त्ता), पद्मकीर्ति, सुरेन्द्रकीर्ति और उनके शिष्य ब्रह्म हुए सुरेन्द्रकीर्तिके
१
२
यह मुझे मित्रवर पं० परमानन्दजी शास्त्री से मालूम हुआ है। उक्त पं० जीसे यह शिल| लेख प्राप्त हुआ है, जिसके लिये इस उनके आभारी हैं।
( शेषांश टाइटिल के दूसरे पेज पर )
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मनुष्यनीके 'संजद' पदके सम्बन्धमें विचारणीय शेष प्रश्न
(ले०-डा. हीरालाल जैन, एम० ए० )
षट्खंडागम जीवट्ठाणकी सत्प्ररूपणाके सूत्र ६३ 'क्या षट्खंडागमसूत्रकार और उनके । टीकाकार में 'संजद' पदकी संदिग्ध अवस्थाको लेकर एक विवाद वीरसेनाचायका अभिप्राय एक ही हे?' श षेक लेख खड़ा हो गया था। किन्तु मूविद्रीकी मूल ताडपत्रीय में प्रकट कर चुका है। वहाँ बतलाई गई कठिनाइयों प्रतियों में 'संजद' पद मिल जाने, स्वयं सूत्रों में अन्य का अभी तक कोई उचित समाधान नहीं किया गया। सवत्र मनुष्यनीके 'संजद' पद ग्रहण किये जाने, उसी मिद्धान्तकागेका ठीक अभिप्राय समझने के लिये सूत्रकी धवला टीकापर समुचित विचार करने एवं यहां हमें दो चार प्रमुख बातोंपर ध्यान देना आयश्यक आलापाधिकारपर दृष्टि डालने, गोम्मटसारमें भी प्रतीत होता है। पहली बात विचारणीय यह है कि उसी परम्पराके पाये जाने एवं बम्बईके तत्संबंधी गुणस्थानादि प्रतिपादनके लिये मनुष्य जातिका किम शास्त्र र्थ और पत्रों में की गई ऊहापोह तथा फरवरी प्रकार वर्गीकरण किया गया है । षटूखंडागम सुत्रपाठ, १६४६ के अनेकान्त में प्रकाशित 'संजद पदके संबंधमें धवला टीका, गजवार्तिक व गोम्मटसारके प्रतिपादन अकलंकदेवका महत्वपूर्ण अभिमत' शीर्षक लेखमें से सम्पष्ट है कि गणस्थानादि व्यवस्थाओं के लिये बतलाये गये राजवातिकके उल्लेखसे यह बात अब तिर्यंच जातिका पांच व मनुष्य जातिका चार प्रकार से भलीभांति प्रमाणित हो चुकी है कि उस सूत्रमें 'संजद' वर्गीकरण किया गया है जिमकी व्यवस्था गोम्मटयार पाठ अनिवार्य है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सिद्धान्त जीवकांड गाथा १४६ में इस प्रकार पाई जाती हैमें सर्वत्रमनुष्यनीके भी चौदों गणस्थान माने गये हैं। सामण्णा पंचिदी पजना जोणिणी अपजत्ता। . अव प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या मनुष्यनीके तिरिया णरा तहा वि य पंचिंदयभंगदो हीणा ।। चौदहों गुणस्थानोंका विधान होनेपर भी उसके छठे अर्थात-सामान्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, योनिनी
आदि गुणस्थानोंका निषेध माना जा सकता है ? उक्त और अपर्याप्त, यह निर्यांका वर्गीकरण है । एवं सूत्रके सम्बन्धमें धवला टीका और राजबार्तिकमें यह इनमें से पंचेन्द्रियको छोड़कर शेष चार अर्थात् प्रतिपादन पाया जाता है कि मनुष्यनीके चौदह गण- सामान्य, पर्याप्त, योनिनी और अपर्याप्त, यह मनुष्य स्थान भाववेदको अपेक्षा ही होते हैं, किन्तु द्रव्य वेद जातिका वर्गीकरण है । ये ही विभाग षट्खंडागम की अपेक्षा उनके केवल पाँच ही गुणस्थान हो सकते सूत्रों, धवला टीका आदिमें निर्यच व मनुष्य जातिका है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस मनुष्यके स्त्री- भेद स्पष्ट निर्दिष्ट करने के लिये प्रकरणानुमार कुछ वेदका उदय होते हए भी शरीर पुरुषाकार हो, वही नामोंके हेरफेरसे सर्वत्र स्वीकार किये गये हैं। उदाचौदहों गुणस्थानोंकी योग्यता रख सकता है । किन्तु हरणार्थ, तिर्यच योनिनीके लिये मत्प्ररूपरणा स्त्र ८७ जिसका शरीर त्रा-आकार हो उसके चौदह नहीं, में 'पंचेंदिय-तिरिक्ख-जाणिगी' गजवातिक पृष्ठ ३३१ केवल पांच गुणस्थानों की योग्यता हो सकती है, इस पर तिरश्वी' धवला टीका मत्प्ररूपणा पृ० २०८ में से ऊपरके गुणस्थानों की नहीं। इस संबन्धमें धवला- पंचेन्द्रियपर्याप्रतिरश्च्यः ' व जीवकाण्ड गाथा १५५ में कारने जो स धान किया है उसपर मैं अपने विचार केवल 'जोगिणी' तथा गाथा २७६ में 'जोरिणगी 'जैनमिद्धान्त भास्कर' (जुन १९४४) में प्रकाशित तिरिक्ख' शब्दका प्रयोग किया गया है। उसी प्रकार
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मनुष्य जातिके योनिनी जीवोंके लिये सत्प्ररूपणा योगमार्गणामें काययोगके प्रसंगमें किया है, अतएव सूत्र में 'मनुष्यना' व राजवातिक पृ० ३३१ तथा उक्त विभागमें कायगत विशेषताभोंकी ही प्रधानता नावकाएर गाथा १५८ में 'मानुषी' शब्दका ग्रहण स्वीकारकी जासकती है। यदि सूत्रकार उक्त कथन में पाया जाता है। इस विभागके लिये जो सामान्य गतिकी या भाववेदकी प्रधानता स्वीकार करना चाहते 'यानिनी' शब्दका प्रयोग किया गया है उससे सुस्पष्ट थे तो उन्होंने गति मार्गणा या वेदमार्गणामें यह है कि उक्त विभागमें दृष्टि शरीरगत भेदोंपर ही रखी प्रतिपादन क्यों नहीं किया और काययोगके सिलसिले में गई है और यही बात गाम्मटमारकी समस्त टीकाओं ही क्यों किया? -दोनों संस्कृत और एक हिन्दी-में तिथंच योनिनी ३-जहां मनुष्य-मनुष्यनी विभागसे कथन किया तथा मनुष्य योनिनी दोनोंका 'द्रव्यस्त्री' अर्थ करके गया वहां सर्वत्र दोनोंके चौदह गुणस्थान कहे गये प्रकट की गई है। यथा 'पर्याप्त मनुष्यराशेः त्रिचतुर्भागो हैं, और जहां भाववेदी स्त्री या पुरुषका कथन है वहां मानषीणां द्रव्यत्रीणां परिमाणं भवति।
केवल नौवें गुणस्थान तकका ही है, उससे ऊपर इस प्रकार शास्त्रकारोंका मनुष्यनोसे अभिप्राय जीव अपगतवदी कहा गया है । इसके लिये वेदमाद्रव्यस्त्रीका ही मिद्ध होता है । पंडित फूलचन्दजी गंणा देखिये । अब यदि योगमार्गणा और वेदमागणा शास्त्रीने १४ अक्तूबर १९४३ के जैनसन्देशमें अपने दोनोंमें भाववेदकी अपेक्षा ही प्रतिपादन है, तो इस एक लेख द्वारा इसे 'जीवकाण्डके टीकाकारोंकी भूल' सुव्यवस्थित भिन्न दो प्रकारकी कथन शैलीका कारण बतलानका प्रयत्न किया । किन्तु तबसे मेरे उनके क्या है ? बीच उत्तर प्रत्युत्तर रूप जो दश लेख प्रकाशित हुए ४--यदि मनुष्यनीक गुणस्थान प्रतिपादनमें ऐसे हैं उनके अनुसार उक्त टीकाकारों के कथनमें कोई भूल जीव ग्रहण किये गये हैं जिनके शरीर पुरुषाकार मिट नहीं होती। इस विषयपर मेरा अन्तिम लेख और वेदोदय स्त्रीका, तो जिन मनुष्योंका शरीर ५७-५-२५ के जैनसन्देशमें प्रकट हुआ था । तबसे सीका और वेदोदय पुरुषका होगा उनका समावेश फिर पण्डितजीका उस विषयपर काई उत्तर प्रकट मनुष्यनी वर्गमें है या नहीं ? यदि है तो उनके भी नहीं हुधा।
चौदहों गुणन्यानोंका निषेध सूत्रके कौनसे संकेतमे शास्त्रकारोंके जाति संबंधी भेदोंकी व्यवस्थामें फलित होता है ? और यदि उनका समावेश मनुष्यनी निम्न बातें ध्यान देकर विचारने योग्य हैं- वर्गमें नहीं होता तो पारिशेष न्यायमे उनके पर्याप्त
१-पर्याप्त मनुष्य जाति केवल दो भागों में मनुष्य कथित चौदहों गुणस्थान मानना ही पड़ेंगे। विभाजित की गई वे-मनुष्यनी अर्थात् स्त्री और यदि किसी अन्य सूत्र द्वारा उनका और प्रकार नियमन शेष प्रथात पुरुष । इससे मनुष्यकी शरीराकृति होता हो तो बतलाया जाय? अनुसार केवल दो जातियोंका अभिप्राय पाया जाता ५-षटूखंडागम सूत्रों व गोम्मटसारकी गाथाओंहै । यदि सूत्रकारकी दृष्टि भाववेदपर होती तो में यदि कहीं भी स्त्रीके छठे आदि गुणस्थानोंका निषेध नपुसक वेदकी दृष्टिसं भा मर्याप्त मनुष्य राशिके व केवल पांच ही गुणस्थानोंवा प्रतिपादन किया गया भीतर एक अलग विभाग निर्दिष्ट किया गया होता, हो तो उन उल्लेखोंको प्रस्तुत करना चाहिये। यदि जैसाकि वेदमागणामें पाया जाता है। यदि यहां इन ग्रंथों में ऐस सल्लेख न पाये जाते हों तो यह भाववेदकी ही अपेक्षा विभाग किया गया है तो देखनेका प्रयत्न करना चाहिये कि सिद्धान्तमें यह पर्याप्त नपुंसक वेदी मनुष्यका अलग विभाग क्यों मान्यता कबसे व कौनसे ग्रंथाधार द्वारा प्रारंभ नहीं किया गया?
होती है? २-पूर्वोक्त समस्त विभाग व प्रतिपादन सूत्रकारने द्रव्यस्त्रीक छठे आदि गुणस्थानोंके निषेधकी
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किरण ४-५]
मनुष्यनीके 'संजद' पदके सम्बन्धमें विचारणीय शेष प्रश्न
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षात इस मान्यतापर अवलंबित है कि स्त्रीवेदी जीवके शास्त्री व पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीके साथ मेरी जो पुरुषाकार शरीर होना भी संभव है और पुरुषवेदी उत्तर-प्रत्युत्तररूपसे तत्त्वचर्चा हुई उसमें मैं इस विषय जीवके स्त्रीश्राकार । अतएव स्वभावतः यह प्रभ होता का पर्याप्त विवेचन कर चुका हूँ । बार बार मैं इस है कि क्या कर्म सिद्धांतकी व्यवस्थाओं के अनुसार बातपर विचार करने के लिये प्रेरणा करता पाया हूँ ऐसा होना संभव है ? उक्त प्रकार भाव और द्रव्य कि क्या स्त्रीवेदीके पुरुष शरीरकी उत्पत्ति होना संभव वेदके वैषम्यकी संभावना दो प्रकारसे हो सकती है। है। किन्तु वे उस प्रश्नको टालते ही रहे । अन्ततः एक तो जीवनमें भाव वेदके परिवर्तनसे, या दूसरे सा० २६४३।४५ के जैनसन्देशमें मेरे एक लेखका उत्तर जन्मसे हो । प्रथम संभावनाका तो शास्त्रकारोंने देते हुए पं. कैलाशचंद्रजी शास्त्रीने वेद-वैष स्पष्ट वाक्यों एवं कालादिकी व्यवस्थाओं द्वारा निषेध उत्पन्न होनेकी यह व्यवस्था प्रकट की किही कर दिया है कि जीवनमें कभी भावभेद बदलही "यदि कोई स्त्रीवेदी स्त्रीवेदके साथ वीर्यान्तराय, नहीं सकता। दूसरी सम्भावनापर विचार करना भोगान्तराय और उपभोगान्तरायका प्रकृष्ट क्षयोपशम आवश्यक प्रतीत होता है। शरीर रचनाके जो नियम तथा साताके माथ गर्भ में जाता है और वहाँ यदि शास्त्रमें पाये जाते हैं उनके अनुसार भवर्क प्रथम वीयकी प्रधानता हुई तो उसके पुरुषका शरीर बन समयस जीवक जो भाव होते हैं उन्हीं के अनुमार जाता है । इसी प्रकार यदि कोई पुरुष वेदी उक्त वह योनिस्थल में पहुँच कर अपने शरीर और भवयवों अन्तगयों के साधारण क्षयोपशय तथा असाता वेदनीय
आदि कर्मो के साथ गर्भमें जाता है और उसे वहाँ कर्मविपाक भोगता है। इसी कारण अंगोपांग नाम रजोप्रधान उत्पादन सामग्री मिलती है तो उसके स्त्री कर्मोंके उपभेदों में केवल शरीरोपयोगी पदगल वर्गणा- का शरीर बन जाता है।"
ओंका नामोल्लेख मात्र किया गया है। उनकी अंग उनके इस प्रतिपादनपर मैंने निम्न शंकाएं विशेष रचना जीविपाकी प्रकृतियों के आधीन है। उपस्थित की कि:उत्पत्ति स्थानमें जीव बाहरसे केवल आहार आदि १-यदि स्त्रीवेदी जीवके उक्त जीवविपाकी वर्गणाओंके पुद्गल स्कन्ध मात्र ग्रहण करता है प्रकृतियोंका प्रकृष्ट क्षयोपशम व साताका उदय होते जिनसे फिर, यदि वह देव या नारकी है तो, अपनी हुए भी योनिस्थल में वीर्यको प्रधानता न हुई तो वैक्रियक शरीर रचना करता है, अथवा मनुष्य या उसके स्त्री शरीर उत्पन्न होगा या पुरुष ? यदि फिर तियच है तो औदारिक शरीर रचना । उसके जितनी भी पुरुष शरीर हो उत्पन्न होगा तब वोयंको प्रधानता इन्द्रियोंका क्षयोपशम होगा उतने ही इन्द्रियावयवोंका अप्रधानता निरर्थक है। और यदि स्त्री शरीर ही वह अपनी जाति अनुसार निर्माण करेगा । यदि होगा तो उस जीवका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट क्षयोपशम उसके नो इन्द्रियावरणका क्षयोपशम भी हो तोही व साता-भसाताका उदय भकिचित्कर सिद्ध हुआ? वह द्रव्यमनकी भी रचना करेगा। इसी प्रकार जीवके २-माधारण क्षयोपशमसे जो कार्य होते हैं जो भाववेदका उदय होगा उसीके अनुसार वह वही कार्य प्रकृष्ट क्षयोपशमसे और भी उत्तम रीतिसे अपर्याप्तकाल में अपने शरीरकी अवश्य रचना करेगा होना चाहिये । फिर उसमें कार्यकी विपरीतता क्यों और जीवन में उसी अवयवसे वह अपना वेदोदेय और किस सीमापर भाजाती है? सार्थक करेगा । भाव और द्रव्यको इस आनुषंगिक ३-भोगभूमिमें उक्त कर्माका प्रकृष्ट क्षयोपशम व्यवस्थाके अनुसार स्त्री वेदी जीवके पुरुष शरीरकी व साताका उदय होता है या साधारगा क्षयोपशम और रचना असंभव प्रतीत होती है । पं० फूलचन्दजी असाताका उदय ? यदि प्रकृष्ट होता है तो वहां स्त्रीशास्त्री, पं. जीवन्धरजी शास्त्री, पं.राजेन्द्रकुमारजी वेदियोंका शरीर भी पुरुषाकार बनना चाहिये, भोर
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२६६
अनेकान्त
[वर्ष -
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यदि माधारण भी होता है तो कितने ही पुरुषवेदियों- वीर्यकी प्रधानता व अप्रधानता किस प्रकार अवयव को शरीर रचना स्त्रीकी होगी ? युगलियोंको एक ही रचनामें कारणीभूत होती है, यह शास्त्रीय प्रमाणों योनिस्थलमें तो वीर्यकी हो या रजकी ही प्रधानता द्वारा समझाया जाय? मिलेगी। तब उनमें क्यों वेदवैषम्य उत्पन्न नहीं हो मेरी इन शंकाओंके उपस्थित किये जानेपर पाता?
पंडितजीने न तो वह मेरा लेख प्रकाशित करना ४-स्त्री वेदोदयसे जीव के पुरुषसे मैथुनकी अभि- उचित समझा और न शंकाओं के समाधान करनेकी लाषा उत्पन्न होगी, स्त्री मैथुनकी कदापि नहीं। और आवश्यकता समझी। बल्कि मेरे लेखको छापनेका इसी अभिलाषाकी तृप्ति के लिये उसके अन्तरायके वायदा करते करते अन्ततः सन्देशके सम्पादकीय प्रकृष्ट क्षयोपशम व साताके उदयसे स्त्री द्रव्यवेद ही लेखमें यह प्रकट कर दिया गया कि "अब हम यही उत्पन्न होना चाहिये ? किन्तु आपकी उक्त व्यवस्था- उचित समझते हैं कि इस चर्चाको सन्देशमें समाप्त नुमार उस जीवके उसकी अभिलाषामे विपरीत कर दिया जाय।" इस प्रकार उक्त सैद्धान्तिक गुत्थी अवयव उत्पन्न होगा जिसके द्वारा वह कदापि अपनी उलझीकी उलझ ही आँखोंके ओझल रख दी गई। तृप्ति नहीं कर सकेगा। तब फिर यह कार्य अन्तरायके शस्त्रीय विषयोंपर विद्वानोंकी ऐसी उपेक्षावृत्तिको प्रकृष्ट क्षयोपशम व साताके उदयसे उत्पन्न कहा जाना देकर बड़ी निराशा होती है । किन्तु जान पड़ता चाहिये या इसमे विपरीत?
है अनेकान्तके सुविज्ञ सम्पादक इस विषयको अभी ५-कर्मसिद्धान्तकी व्यवस्थानुमार तो जीव भी निर्णयकी ओर गतिशील बनानेकी अभिलाषा योनिस्थलमें पहुँचकर आहार पर्याप्तिकालमें केवल रखते हैं। अतएव जिस तत्परतासे कुछ विद्वानाने
आहारवर्गणाके पुद्गल स्कंध मात्र ग्रहण करता है 'सजद' पदकी चर्चाको उसके अन्तिम निर्णयपर जिनको ही खल-नस भाग रूप परिणमा कर वह पहुँचा दिया है. उसी प्रकार वे उक्त प्रश्नोंपर विचार अपने शरीरादि पयोप्ति के काल में अपने परिणामा- कर उससे फलित होने वाली व्यवस्थाओंको भी नुसार शरीर-अवयवोंकी रचना करता है । तब फिर निर्णयोन्मुख करेंगे, ऐसी आशा है ।
जैन वाङ्मयका प्रथमानुयोग (लेखक-वा० ज्योतिप्रासद जैन, विशारद एम० ए०, एल-एल० बी०)
प्राचीनतम अनुश्रुति के आधारपर जैन वाछ-मयका देवने सर्व प्रथम जनताको धर्मोपदेश दिया-जैनधर्मका मूलाधार धर्म प्रवतेक जैन तीर्थङ्करोंका धर्मोपदेश या। सर्व-प्रथम प्रतिपादन किया, यह बात प्रागऐतिहासिक अनेक प्रागऐतिहासिक विशेषज्ञों के मतानुमार धर्म काल (Prehistoric times) के अन्त तथा और मभ्यताका सर्व प्रथम उदय भारतवर्ष में हुआ अशुद्ध ? ऐतिहासिक काल (Pro to historicti था। और इस बातके भी प्रबल प्रमाण उपलका mes) के प्रारम्भ की है। भगवान ऋषभदेवक कि प्रथम जैन तीर्थङ्कर आदिदेव भगवान ऋषभ उपरान्त, उसी अशुद्ध ऐतिहासिक कालमें भगवान उक्त धर्म, सभ्यता तथा संस्कृतिके मूल प्रवर्तक थे। नेमिनाथ पर्यन्त बीस जैन तीर्थकर और हुए और भारतीय अनुश्रुतिकी जैनधाराके अनुसार उन्हीं ऋषभ- उन सबने अपने अपने समय में भगवान ऋषभद्वारा
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किरण ४-५]
जैन बाङ्मयका प्रथमानुयोग
१६७
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प्रतिपादित जिनधर्मका प्रचार किया । अधिकांश 'प्रथम' पुरुष हैं, और उनके सम्यक्त्वप्राप्तिलक्षण आधुनिक भारतीय इतिहासज्ञ विद्वानों के मतानुसार पूर्वभवादिकका वर्णन करनेवाला होने के कारणसे यह सन् ई० पू० १५०० के लगभग प्रसिद्ध महाभारत अनुयोग 'प्रथमानुयोग' कहलाया । शेष शलाकापुरुष युद्धकी समाप्तिसे भारतवर्षका नियमित इतिहास तथा अन्य मोक्षमार्गमें प्रयत्नशील महान मात्माएँ प्रारम्भ होजाता है । महाभारत-युद्धके समय बाईसवें भी प्रथमवर्गकी ही होनेसे इस अनुयोगमें उनका जैनतीर्थङ्कर अरिष्टनेमि जैनधर्मका प्रचार कर रहे थे। वर्णन होता है । मुमुक्षुओं को धर्मका रहस्य भली उनके उपरान्त ई० पू० ८७७-७७७ में २३ वें तीर्थकर प्रकार समझाने के लिये तीर्थकरों तथा अन्य भाषाभगवान पार्श्वनाथका तीर्थ पला । और अन्तमें चौबी- र्यादिकोंको दृष्टान्तादिके लिये परम भावश्यक एवं मवें जैन तीर्थकर वर्धमान महावीरने (ई० पू० ६००- उपयोगी इस अनुयोगका सबसे भागे और बार बार ६२७ उसी अहिंसामूलक, स्याद्वादमयी, कर्म-सिद्धान्तपर कथन करना होता है अतः यह 'प्रथमानुयोग' कहलाया। आधारित साम्यवादी जैन-धर्मका पुनरुद्धार किया। इस सबके अतिरिक्त, जैन तीर्थकर तथा जैनासन् ई० पू० ५५८ में पम्पशैलपुर ( राजगृह ) के
चार्य भारी मनोविज्ञानवेत्ता होते थे। वे जानते थे विपुलाचलपर्वतसे उनका सर्वप्रथम उपदेश हुआ और कि अधिकांश मानव समाज अल्पबुद्धिका धारक होता उक्त शान्तिमयी अक्षय सुखप्रद उपदेशका प्रवाह
है और इसी कारण कथाप्रिय भी । भाकर्षक ढंगसे भगवानके निर्वाणपयन्त लगभग ३० वर्ष तक निरंतर
तर कही गई अथवा लिखी गई उपदेशप्रद तथा नीत्याप्रवाहित रहा।
त्मक कथा-कहानीको मावालवृद्ध, बी, पुरुष, शिक्षित भगवानने जो कुछ उपदेश दिया था उसे उनके अशिक्षित अधिकांश व्यत्ति बड़े पावसे पढ़ते सुनते प्रधान शिष्यों इन्द्रभूति-गौतम आदि गणधरोंने हैं। साथ ही, अपने पूर्वजोंके चरित्र व उनकी स्मृति द्वादशाङ्गश्रुतके रूपमें रचनाबद्ध किया। द्वादशाङ्गश्रुतके को अपने भतीत इतिहासको स्थाई बनाये रखनेकी भेदप्रभेद तथा विस्तार बहुत अधिक हैं और उसका प्रवृत्ति भी मनुष्यों में स्वभावतया होती है । दूसरे अधिकांश आज उपलब्ध नहीं है।
गूढ़ धार्मिक सिद्धान्तों एवं तत्वज्ञानको, शुष्क चारित्र इसी द्वादशाङ्गश्रुतके बारहवें भेद दृष्टिप्रबादाङ्गका अर नियमोंको जनगाधारण इतना शीघ्र और सुगतृतीयभेद प्रथमानुयोग था। मृलप्रथमानुयोग अर्ध- मतासे हृदयंगत नहीं करता जितना कि वह अपनेसे मागधी भाषामें था और इसका विस्तार केवल ५००० पूर्वमें हुए अनुश्र त महापुरुषों के जीवन वृत्तान्तों तथा पदप्रमाण था। अन्य अधिकारोंकी अपेक्षा प्रथमा- पाप-पुण्य फलमयी दृष्टान्तोंको। इन कथनोंका सजीव नुयोगका इतना कम विस्तार था कि इससे यह अनु- वर्णन उनके हत्तलको स्पर्श करता है, उन्हें प्रभावित मान होता है कि इस अनुयोगके अन्तर्गत विषयका कर देता है, भोर परिणामस्वरूप पापसे भय तथा बहुत संक्षिप्त वर्णन किया गया था।
पुण्य कार्योंसे प्रीति करना सिखलाता है । इसी लिये इसमें भगवान महावीर पर्यन्तके बारह अतीत जैनाचार्योंने 'प्रथम' का अर्थ 'भव्युत्पन्न मिथ्याष्टि' जिनवंशों तथा राजवंशोंका इतिवृत्त था, साथ ही किया है । इन शब्दोंसे तात्पर्य उन अधिकांश देहधातीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण भादि त्रेसठ रियोंसे है जो न व्युत्पन्न मति ही हैं और न धर्म तथा महापुरुषों ( शलाकापुरुषों) के जीवनचरित्र तथा धार्मिक क्रियाओंके प्रति ही विशेष खिंचाव महसुस पूर्वभवोंका वर्णन था, इनके अतिरिक्त अन्य भी करते हैं, जिन्होंने धर्मका रहस्य न समझा है, न मोक्षमार्गमें प्रयत्नशील अनेक महान आत्मा स्त्री- अनुभव किया है और न तदनुकूल आचरण ही किया पुरुषोंके वृत्तान्त थे।
है। इस प्रकार धर्ममार्गपर न आरूढ हुए अल्पबुद्धि तीर्थङ्कर नर्तक होनेसे पुरुषश्रेष्ठ अर्थात जनों के हितार्थ जो धार्मिक साहित्यका अंग जातीय
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१६८
अनेकान्त
[वर्ष ८
अनुश्रुतिके आधारपर जैनाचार्योंने सुरक्षित रक्खा उसे कोष, जिनसेनने आदिपुराण व पाभ्युदय प्रन्थ उन्होंने प्रथमानुयोगका नाम दिया।
रचे । वीं शताब्दी में आचार्य गुणभद्रने उत्तरपुराण, जैसाकि ऊपर निर्देश किया जा चुका है, भगवान जिनसेन काष्ठासंघीने हरिवंशपुराण, महाकवि पुष्पदंत महावीर द्वारा प्रतिपादित प्रथमानुयोगके विषयको ने अपभ्रंशमहापुराण, णायकुमारचरित, जसहरचरिउ गौतमा द गणधरोंने पाँच सहस्र पद प्रमाण रचनाबद्ध
मादिरचनायें की। किया था, किन्तु उससमय वह रचना लिपिवद्ध नहीं प्रथमानुयोगके उपर्युक्त प्रसिद्ध प्राचीन ग्रन्थों के हुई थी, लगभग उनके पाँचसौ वर्ष पर्यन्त प्रथमानुयो- अतिरिक सैंकड़ों अन्य पुराण, चरित्र, कथाप्रन्थ, गका विषय गुरुशिष्य परम्परासे 'नामावली निवद्ध गद्य, पद्य, काव्य-चम्पू रासा भादिके रूपमें, प्राकृत, गाथाओं' तथा 'कथासूत्रों' के रूप में मोखिक द्वारस संस्कृत अपभ्रंश. कन्नड़ी, हिन्दी, गजर ही प्रवाहित होता रहा । और ईस्वी सनके प्रारम्भकाल- भाषाओं में रचे गये । तामिल तथा तेलुगु भाषाभों में में विच्छिन्न होजानेके भयसे तथा लिपिका विशेष भी ईस्वी सन्के प्रारम्भकालसे ही प्रथमानयोगके प्रचार होजानेके कारण अन्य धर्म-प्रन्थोंके साथ प्रसिद्ध एवं विशाल काम्यप्रन्थ मितते हैं। साथ वह भी लिपिबद्ध किया जाने लगा।
वास्तव में वर्तमान जैनवासमयमें अन्य साहित्य वीरनिर्वाण संवत् ५३० अर्थात् ईस्वी सन ३ में की अपेक्षा, प्रथमानुयोग सम्बन्धी साहित्य सर्वाधिक भाचार्य विमलसूरिने उपयुक्त नामावलानिबद्ध है और यद्यपि इस अनुयोगका प्रधान उद्देश्य नीत्यागाथानों तथा कथासूत्रोंके आधारपर प्राकृत 'पउम- त्मक तथा धर्मकार्यों में अभिरुचि एवं पापकार्योंसे चरियकी रचना की। सरो३रीशताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान भीरुताकी प्रवृत्तियोंका पोषण करना ही प्राचार्य स्वामी समन्तभद्रने अपने ग्रन्थों में, तीर्थंकरा- इस साहित्यका ऐतिहासिक महत्व कुछ कम नहीं है। दिके रूपमें अनेक पुराणपुरुषोंका निर्देश किया है प्राचीन भारतीय अनुश्र तिकी जैन, हिन्दू, बौद्धनामक ५ वीं-६ ठी शताब्दीमें श्वेताम्बर-सूत्र ग्रन्थ लिपिबद्ध त्रिविध धारामेंसे यह जैनधाराका प्ररिचायक है। हुए। इनमें प्राचीन तथा महावीर कालीन अनेक अनु. जहां इसके स्वाध्यायसे धर्मप्रेमियोंको धामिक कार्यों में भुत कथानक सुरक्षित हैं । ७ वीं शताब्दी में रविषेणा- प्रोत्साहन मिलता है, जहां जनसाधारणको रुचिकर चायने संस्कृत पद्मपरित्र, जटासिंहनन्दिने वारांग- कथाप्रसंगोंके मिस सच्चारित्रका उपदेश मिलता चरित्र, महाकवि धनन्जयने प्रसिद्ध द्विसंधान काव्य वहाँ विद्वानों और इतिहासकारोंको भारतवर्षके की रचनायें की।
प्राचीनकाल संबंधी इतिहास निर्माणार्थ यथेष्ट प्रमा८वी शताब्दीमें प्राचार्य हरिषेण प्रसिद्ध कथा- णिक सामग्री भी मिल जाती है।
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एक ऐतिहासिक अन्तःसाम्प्रदायिक निर्णय
(ले० या. ज्योतीप्रसाद जैन एम० ए०. )
RUIX
तमान के सभी अनर्गष्टीय महान समाजकी अपेक्षा कम नहीं है । समस्त जैन समाज भारत व
विनारक विश्व-मैत्री और विश्व की अखण्ड राष्ट्रीयता एवं स्वतन्त्रता का समर्थक तथा
बंधुत्वका प्रचार कर रहे है । विभिन्न महायक है। फिर भी इसकी कोई प्रावान नहीं प्राय: इस EHIMAIT
देशीय राष्ट्रों की प्रतिद्वन्द्व नाके फल- ममाजकी उपेक्षा ही की जाती है। राष्ट्रीय संस्थाश्रो और
स्वरूप होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय द्वन्द्वी , उनकी योजनाओंमें भी जेनीकी अवहेलना ही की जाती संहारकारी युद्धों,सबल राष्ट्रों द्वारा निर्बलोका धार्मिक शोषण है। बहुधा उस हिन्दु समाज के, जिसके साथ जैन समाज एवं राजनैतिक-परतन्त्रता आदि अप्रिय अश्रेयस्कर का मास्कृतिक एवं सामाजिक सम्पक सदेव से सर्वाधिक रहा घटनाप्रोका अन्त करने के लिये ये मानवताके प्रेमी एक हे और अब भी है, विद्वान और नेता कहलाने वाले व्यक्ति विश्वव्यापी साम्यवादी सभ्य एवं सुसंस्कृत राष्ट्र की स्थापना जैनों का अपमान करनेसे, जैन धर्म और संस्कृति के साथ के स्वप्न देख रहे है । तथापि यह युग प्रधानतया विभिन्न अन्याय करने से, इनके प्रति अपना हास्यास्पद धार्मिक देशीय राष्ट्रीयताका ही युग है। किन्तु भारतवर्ष के दुर्भाग्य विद्वेष और तुच्छ असहिष्णुता प्रकाशित करने से भी नहीं से इस देशमें वह स्वतन्त्र स्वदेशीय राष्ट्रीयता भी सुलभ चूकते। नहीं हो रही है। कांग्रेम जैसी संस्थाओं, महात्मा गांधी मरी श्रोर भारतीय मुसलमान है। वे भी अल्पसंख्यक जैसे नेताओं और देश की स्वतन्त्रताके लिये अपना जीवन ही हैं। इस समाजका भी एक अल्पसंख्यक भाग आज होम देने वाले असंख्य देशभक्तक सतत् प्रयत्न के परिणाम. कल मुसलिम लीग के नामसे प्रसिद्ध हो रहा है किन्तु स्वरूप जो एक प्रकार की भारतीय राष्ट्रीयता दीव भी पड़ता दावा करता है समस्त मसलिम समाजके प्रति हे उसमें भी भारी घुन लगे हुए है। राष्ट्रीयता के इन घुनो।
सारा घुन लग हुए. ह । राष्ट्रायता क इन घुना करनेका । इसके नेता वर्तमान राज्यसत्ताके इशारेमे में सर्वाधिक विनाशकारी घुन धार्मिक विद्वष एवं साम्पदा
अथवा अपने निजी स्वार्थ साधनाकी धुनमें भारतीय यिक द्वन्द्व हैं।
राष्ट्रीयता एवं स्वतन्त्रताके सबसे बड़े शत्रु बने हुए है। इस देश में अनेक धर्म प्रचलित हैं और उन धर्मोइनके मारे कांग्रेस जैसी संस्था का भी नाको दम पा रहा से सम्बंधित उतनी ही जातियां अथवा समाज हैं। इनमें से है. और देश की शान्ति प्रिय जनताका जन धन खतरे में कुछ बहुसंख्यक है कुछ अल्पसंख्यक । एक ओर जैन समाज पड़ा दीखना है। इस लीगकी उपेक्षा करनेकी शक्ति है जो एक अत्यन्त प्राचीन, विशुद्ध भारतीय धर्म एवं संस्कृति अथवा इच्छा न काग्रेसमें हे न सरकारमें । देशकी से सम्बद्ध है। इसकी संख्या अल्प होते हुए भी यह एक सर्वोदय उन्नति में यह सबसे बड़ी बाधा है और इसका शिक्षित, सुसंस्कृत, समद्ध एवं शान्तिप्रिय समाज है, जो मूल कारण धर्म व भिन्यजन्य विदुष एवं असहिष्णुना ही देशमें सर्वत्र फैला हुआ है। इसकी साहित्यिक एवं मास्कृतिक है। देन देशके लिये महान गौरवकी वस्तु है । श्राधुनिक समय मारे विविध धर्म न तो कभी एक हर है ओर न हो में भी सार्वजनिक हित के कार्यों में तथा गष्ट्रीय अान्दोलन सकते हैं, किन्तु उनके अनुयायियोंके बीच परस्पर सद्भाव में जैनियोंका भाग और स्वानन्य संग्राममें इनका और सौहाद्रं सदा ही बन सकता है। धर्म अात्माकी वस्तु बलिदान, अग्नी संख्या के हिसाबसे किसी भी जैनेनर है. इसका प्रश्न व्यक्तिगत बनाया जा सकता है। और प्रत्येक
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अनेकान्त
[ वर्ष
धर्मको वास्तविक रूपमें पालन करने वाले का कमा भा प्रबल प्रचारने जैनधर्मको भार। श्राघात पहुंचाया, उसकी किमी दूसरे धर्मसे अथवा उसके अनुयायियोम विष नहीं प्रगति रुक गई और हाम हाने लगा. मनपारवर्तनके कारण हो सकता । जब कभी ऐसा विष होता है तो वह अपने जैनियों की संख्या भी न्यून होती चली गई । अस्तु । धर्मकी वास्तविकताको भुला देने वाले कुछ एक मतलब १४वीं शताब्द। ईस्वीम, विजयनगर राज्यकी स्थापना खोके कारण ही होता है। और यदि जनसाधागा अथना के समय जैनौकी स्थिति गौण हो चला थो । विजयनगर विविध धमों और समाजोंके नेता चाहें तो ममन्त धार्मिक नरेश सायं हिन्दुधर्मानुयायी थे । तथापि उनके साम्राज्यम विद्वेष एवं साम्प्रदायिक द्वन्द्रो (झगडों) का अन्न महज दी मंग्या समाद्ध शक्ति और विस्तारको अपेक्षा सर्वाधिक हो सकता है और परस्पर सद्भाव तथा सौहार्द्र स्थापित होना महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समाज जैन समाज हा या । अत: कुछ भी कठिन नहीं। इसके अतिरिक्त यदि विद्यमान राज्य- विजयनगर नरेशोंकी धार्मिक नीति हिन्दु-जैन प्रश्नको लक्ष्य सत्ता ही इस बात का प्रयत्न करे तो वह भी सरलतामे इस में रखकर निश्चित एवं निर्मित हुई थी, उसका उद्देश्य कार्य में सफल हो सकती है।
इन दोनों धोके बीच एक प्रकारका समन्वय-सा करते गज्यसत्ता-द्वारा हम प्रकारकी एक महत्वपूर्ण हुए उनके श्रनु गथियों में पार पूर्ण मेत्री एवं सद्भाव सफलता का ज्वलंत उदाहरण भारतवर्ष के मध्यकालीन स्थापित करके गट की नावको सुदृढ़ करना था। इस विषय इतिहाममें मिलता है । यह घटना विजयनगर गज्यके में उन्होंने निष्पक्षता, न्यायपरता नथा सहिष्णुतासे काम प्रारंभिक काल की है। विजयनगर साम्राज्यकी उत्तात्त, लिया। उनकी इस नीतिका पारेरणाम भी गजा जा दोनों उत्कर्ष और पतन मध्ययुगीन भारतको महत्वपूर्ण एवं के ही लिये अति ह कर एवं सुखद सिद्ध हुश्रा।
आश्चर्यजनक घटनाएं हैं । मन् १३४६ ई० में दक्षिणम विजयनगर राज्यकी ववेकपूर्ण धार्मिक नीतका विजयनगर के हिन्दु-साम्राज्यकी स्थापना हुई थी। यह वद प्राभास विजय-गरके प्रथम सम्राट हरिहररायके समयसे समय था जब एक और योग्य एवं समर्थ नेताओंके प्रभाव ही मिलना शुरु होजाता है। सन् १३६३ ई० में तहत्तालमें तथा नवोदित शैव वैष्णव आदि हिन्दु सम्प्रदायोक स्थित प्राचीन पार्श्वनाथ वस्तीकी मिल्कियत भूमिकी सीमा प्रबल प्रचार के कारगा भारतीय इतिहासमें जैनियोंके के सम्बंधम जैनों और हिन्दुओंके बीच झगड़ा हुआ। स्वर्णयुगका अन्त हो रहा था, और दूसरी ओर विदेश। सम्राट के पुत्र विरूपाक्ष उम प्रान्त के शासक थे। उन्होंने दोनो अाक्रमणकारी मुमलमान देश की स्वतन्त्रताका अपहरण दलोक नेताअोंको बुलाकर पूर्ण निष्पक्षता और न्यायके साथ कर रहे थे। उत्तरी भारतमें तो उनका स्थायी माम्राज्य उक्त विवादका निपटारा कर दिया। स्थापित हो ही गया था, दक्षिण भारतमें भी वे प्रवेश करने किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध अन्त: लगे थे। इस बात का श्रेय विजयनगर राज्यको ही है कि साम्प्रदायिक निर्णय मन् १३६८ ई.में सम्राट बुक्कारायने उसने लगभग दो मौ वर्ष तक दक्षिण भारत को मुसलमानों दिया था। उसी सन्के एक शिलाभिलेख से पता चलता द्वारा पराभूत होने से बचाये रक्त्वा । और विजयनगर राज्य हे कि जनियों और श्रीवैष्णवोंके बीच एक भाग विवाद की शक्ति और सुदृढ़ताका एक प्रधान कारण उसके राजा उपस्थित हो गया था। साम्राज्य के समस्त लि। और और शासकोंकी पार्मिक नीति था जिसका मूलाधार पूर्ण नगरोंके जैनौने सम्राट बुक्कागय के सम्मुग्व एक सम्मिलत अन्तर्धार्मिक सहिष्णुता था।
प्रार्थनापत्र पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि ईस्वी सन्के प्रारंभसे ही ईमाकी लगभग ११वी १२वीं वैष्णव लोग उनके साथ बहुत अन्याय कर रहे हैं। सम्राट शतान्दी तक, विशेष कर दक्षिण भारत में, जैनोंका पूर्ण ने तुरन्त तत्परता के साथ मामले की जाँच की और अपने प्राधान्य था, किन्तु उसके पश्चात् श्रीवैष्णव, वीरशैव दर्वार में दोनों ममा जो के समस्त मुखियाओं को इकट्ठा होने अथवा जंगम श्रादि सम्प्रदायों की उत्पत्ति और उनके (१) E.C VIII Te.197p..206-207. नयनार, अलवार, लिंगायत आदि नेताओंके विद्वेष पूर्ण (२)E.C.II 334,p.146-147: IX.18.p.53-54
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किरण ४-५]
एक ऐतिहामिक अना: साम्प्रदारिक निर्णय
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की श्राज्ञा दी। अठारहो पान्तों के प्रमुम्ब श्रीवैष्णव इकट्टा इम आशापत्र में कई बातो पर महत्वपूर्ण प्रकाश हुए, उनके सब श्राचार्य और प्रधान मठाधीश भी पाये, पड़ता है। यह सट है कि उस समय विजपनगर साम्राज्य इनके अतिरिक्त मातक , मोस्तिक तथा अन्य विविध में जैनी सर्वत्र फैले हुए थे, और विशेष कर श्रानेगुंडी स-प्रदायों के प्राचार्य, मबहीवों और जातियों के मुखिया दोसनपट्टन, पेनगोंडा, और कल्लदा में तो वे अत्यधिक सब ही मामन्त मरि नया अन्य विविध श्रेणियों और वो प्रभावशाली थे। ऐमा प्रतीत होता है कि अठारहो नाडुओं के प्रधान प्रतिष्ठित व्यक्ति एक त्रन हए । सब ही स्थानोंमे (लिलो ) के श्रीवैष्णव इन ' भव्यो'के कतिपय सामान्य जैनियोंक भी मुखिया लोग पहुँचे थे । सबके दर्बार में इकट्र एवं विशेषाधिकारों का प्रयास विरोध कर रहे थे । झगड़ा हो जाने पर महाराज बुक्काराय ने जैनियोंका हाथ वैष्णवोंके. इतना अधिक बढ़ गया गाकि वह स्थानीय अथवा प्रान्त य हायमें देकर यह घोषणा की कि
शामको, या दोनों धर्मों और समाजोंके नायकों के मान का "जैन दर्शन पूर्ववत् 'पञ्चमहाशब्द' और 'कलश' का न रह गया था और विजयनगर सम्राट के मम्मग्व उपस्थित अधिकारी है। यदि भक्तों ( वैष्णवो) के द्वारा भव्यों किया गया । महाराज ने भी पूरी जाँच पड़ताल के बाद ( जैनों ) के दर्शन ( धर्म ) को किसी प्रकार की भी क्षति विशेष रूपमे बुलाये गये एक सार्वजनिक दर में, दोनों ही या लाभ पहूँचता है तो वैष्णन लोग उम अपने ही धर्म धर्मा और समानों के प्रतिनिधियों, प्रधान राजकर्मचारियो, की क्षति या लाभ समझ । श्रीवैष्णव का श्राज्ञा दी जाती और अन्य सभी श्रेणियाँ तथा बाँके मुखयों की उपस्थिति है कि वे इस शामन ' ( राजाज्ञा ) का माम्राज्यको सभी में अपना यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया जो निष्पक्ष होने के बस्तियों में घाषत और प्रकाशन कादं कि जब तक सूर्य साय माय न्यायपूर्ण भी था। सभी ने उसे बिना किमी और चन्द्रमा विद्यमान हैं बैष्णवधर्म जैनधर्मकी रक्षा प्रतिवाद के स्वीकार कर लिया । और इस प्राज्ञापत्र को करेगा। वैष्णव और जैन श्राभन्न शरीर है, उनके बीच श्रवणबेलगोल तथा कल हाके अतिरिक्त साम्राज्य की सभी कभी कोई भेदभाव होनादी नही चाहये , जेनांगण प्रत्येक बस्तियों में स्वयं वैष्णवो द्वारा शिलाखंडीपर अङ्कित कराने घर पीछे एक एक 'हट' ( मुद्राविशेष ) एकत्रित करके को राजाज्ञा भी। और उदाराशय जैन श्रेष्ठ बसविमट्टी को, देंगे और वैष्णव लोग एकात द्रव्य के एक भागस श्रवण जो इस मामले में वादा पक्ष का प्रधान प्रतिनिधि पा, जेन वेलगोला की रक्षार्थ बोस रक्षक नियुक्त करेंगे और शेष तथा वाव दोनों दमा जी ने उपी दार में सर्वसम्मति द्रव्यस साम्राज्य भर के जीर्ण शर्ण जिनालयो का मरम्मत से सर्वधर्मनायक की उपाधि प्रदान की। पुताई सफाई आदि करायेगे। जैनीको इच्छानुसार तिरुमले के तातय्य नामक प्रतिष्ठित सजन को यह कार्य भार सोपा अपने इस श्रादश निर्णय-द्वारा महाराज बुक्कारा पने गया । इसपर जेनीगण प्रतिवर उक्त द्रव्य प्रदान करके एक अल्पसंख्यक समुदायको राज्याश्रय प्राप्त बहुसंख्यक पण्य और यशके भागी होंगे नया वैष्णव गगा उनकी रक्षा समुदायके अत्याचारसे रक्षा भी की, साथ ही साथ उक्त करेंगे। जो व्यक्ति इस नियम तोड़ेगा वह राजद्रोही, बहसंख्यक समुदायक स्वत्वों एवं अधिकारों पर भी कोई संघद्रोही और समुदाय द्रोही ममझा जायगा।
श्राप त नहीं किया। दोनों के बीच मंत्री और सद्भाव स्थापित कल्लेहा निव सी दावी सेट्टीके. सुपत्र बवि सेट्टीने जिसने कर दिया, धार्मिक विदेष और तजन्य माम्प्रदायिक झगड़ो कि महाराज की सवामें जेनीकी श्रागस प्राथनापत्र भेजा था का वह समय के लिये अन्न करादिया । देशका अान्तरिक तिरुमले के नातय्य द्वारा इस श्राशापत्रका प्रचार करवाया। शान्ति की श्रार में गज्य निश्चिन्त होगया और अपना
और दोनों ही समाजो ( जैन एवं वैष्णव ) ने बमवि सट्टा समय तथा शाक्त बाह्य शाम लोहा लेने तथा व्यापार को 'संघनायक' (सर्वधर्मनायक) पदसे विभूषित किया। श्रादि द्वारा गमको ममद्ध और शक्तिशाली बनाने के लिये 3 Saletore- Medieval Jainism ch. VIII,
व्यय करने में समर्थ हा सका । किसी भी एक समुदायका p.288-292.
अन्याय पूर्ण पक्षात कर के बह दूसरे समुदायको राज्यका
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अनेकान्त
[वर्ष ८
विरोधी बना लेता, और इस अान्तरिक अशान्ति के कारण भी जैनधमके भक्त थे। इन्हीं वीर योद्धाभोंके कारण विजयविजयनगर राज्य वैसी उन्नतिको प्राप्त न हो सकता जैसा नगर साम्राज्य लगभग दो सौ वर्ष पर्यन्त अपने शत्र कि वह हा । बुक्कारायकी नीतिका अनुमरगा उसके वंशजों मुसल्मान राज्योका सफलता पूर्वक मुकाबला करता रहा। ने पूरी तरह किया, श्राधीनस्थ राजाश्रो, मामन्ती सर्दार्गे जेन व्यापारियों के कारण ही वह अत्यन्त समृद्ध हो सका राजकर्मचारियों और प्रजापर भी उसका पूरा प्रभाव पड़ा। और जैन विद्वानों तथा कलाकारोंने साम्राज्यको अपनी १४वीमे १६वाशताब्दी तकके अनेक शिलालेखों में जैन अजैन अनुपम साहित्यिक एवं कलात्मक कृतियों से सुसजित कर दोनों हीके द्वारा अईन्त जिनेन्द्र, शिव और विष्णु की एक दिया। प्रत्येक जैनी थाहार, औषध, विद्या और अभयरुप साथ ही नमस्कार किया गया है. जैन और हिन्दु दोनों ही चार प्रकारका दान करना अपना दैनिक कर्त्तव्य समझता धर्मों को एक साथ प्रशंसा की । स्वयं गमवंशके अनेक था। इस प्रकार, समस्त जैन समाजने विजयनगर-नरेशों स्त्री पुरुष जैन धर्म का पालन करते थे। इस वंशके अनेक को धार्मिक उदारताके :त्युत्तर में तन-मन-धनसे साम्राज्य नरेशां ने जैनधर्मानुयायो न होते हुए जैन मन्दिरों और की सर्वतोमुखी उन्नत में पूर्ण सहयोग दिया। धर्मस्थलों को दान दिये, भव्य जैन मन्दिर स्वयं निर्माण यह सब परिणाम महाराज हरिहरराय तथा बुक्काराय कराये और जैन गुरुओका सम्मान किया। राजवशंकी भांति द्वारा निश्चित की हुई सहि राना और उदारतापूर्ण धार्मिक प्रजामें भी अनेक कुटुम्बोंमें जेन में शैव और वैष्णव श्रादि नीति का ही था, जिसका कि श्रादर्श उदाहरण सन्१३६८ विविध धोके अनुयायी स्त्री पुरुष एक साथ प्रेम और ई० का महाराज बुक्कराय द्वारा प्रदत्त अन्त:साम्प्रदायिक श्रानन्दके साथ रहते थे । सेनापति वेचण, इरुगप्य, गोप चमू- निर्णय है और जो कि मध्यकालीन भारतीय इतिहासकी पति श्रादि कितने ही प्रचंड जैन योद्धा साम्राज्य की सेनाके एक अति महत्वपूर्ण घटना है । प्रधान सनानायक रहे, अनेक उपराना सामन्त और सार लखनऊ,-५-१८४६
* महाशक्ति !
सुलझ सुलझ जाय जाय शतशत
शतशतशताब्दियोंकी गत संचित उलझन । जीवन तप कर बन जाये, सोने से, निर्मल कुन्दन !
मेरी पद रज से वश्चित हों, संमृति के आकर्षग्य । मेरे गेम - रोम में हो, नव । प्रलय - क्रान्तिका नर्तन !
वरवस मुझे प्राण दे जाये, महामृत्यु - प्रालिगन । करें न विचलित मुझे रंचभर, यम अथवा पद · वन्दन,
एक वार अब फिर वह मोई. महाशक्ति जग जाए । बीहड - मरु में स्वतंत्रता - तरु जीवन भर नहगए।
चयिता
'शशि'-रामपुर
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समृतचन्द्र सूरिका समय (ले०-६० परमानन्द जैन, शास्त्री)
प्राचार्य अमृतचन्द्र अग्ने समयके एक अच्छे कोल्हापुरने प्रवचनसारके न्यू एडीशनकी अग्नी महआध्यात्मिक विद्वान होगए हैं। वे आचार्य कुन्दकुन्द त्वपूर्ण प्रस्तावनामें आचार्य अमृतचन्द्रका समय ईसा के ममयसारादि प्राभृतत्रयके मार्मिक टोकाकार और की लगभग दशवी शताब्दीका अन्त बताया है। माथ अध्यात्मिक ग्रंथों के तलसर्शी व्याख्याता विद्वान ही, यह भी लिखा है कि प्राचार्य अमृतचन्द्रने नमिथे । उनका नाटक समयसार, जो समयप्राभृतकी चन्द्र के गोम्मटमारसे कुछ गाथाएं उद्धृत की जान तत्त्वदीपिका टीकाके अन्तर्गन है, कुन्दकुन्दाचार्य के पड़ता हैं । नेमिचन्द्रका समय ईसाकी दशवीं शताब्दी समयसार पर कलशरूप है। उमकी कवित। बहत ही है। इससे अमृतचन्द्रका समय नेमिचन्द्रक मम गम्भीर, साम तथा आध्यात्मिकताका अपूर्व भंडार कालीन अथवा उसके कुछ बादका ही है। प न्तु उन है और मुमुक्षुओं के लिये बड़े कामकी चीज है। उन गाथाओं में से दो गाथाएं, जिन्हें उपाध्यायजीने अमृतकी प्रवचनमारादि ग्रंथों की तानों टीकाओंसे दाशिनिक चन्द्रकी टोकान्तर्गत स्वरचित अथवा उक्त टीकान्तर्गत पद्धतिका अच्छा आभास मिलता है। समयसारका वाक्योंकीसूची में दिया है और उन्हें जीवकाण्ड में ६१२ स्याद्वादाधिकार तो इसका पुष्ट प्रमाण हे हो। इन्हें और ६५४ नम्बरपर बतलाया है वे वास्तव में जवाण्ड विक्रमको १३ वीं शताब्दीके विद्वान पंडित आशाधर की नहीं है। पटवण्डागम के मूल सूत्र हैं। और भी जीने अनगारधर्मामृतकी स्वोपज्ञ टीका ( पृ० ५८८ ) कितनी ही गाथाएँ वहां मूलसूत्र के रूपमें पाई जाती है-- "एतच विस्तरेण ठक्कुरामृतचन्द्रसुरि-विरचितममय- णिद्धाणद्धाण बझति रुकाव रुक्वा य पोग्गला। मार-टीकायां दृष्टव्यम" इम वाक्यमें ठक्कुर या णिद्धलुकावा य बझतिरूवारूवी य पोग्गला ||३४|| ठाकुर विशेषण के साथ उल्लेखित किया है, जिसस णिद्धस्म णिद्धेण दुगहिरण पाप क्षत्रिय जाति जान पड़ते हैं। सारत्रयकी उक्त
लुस्वस्म लुक्खेण दुराहिएण। तीनों टीकाओंके अतिरिक्त आपका तत्त्वार्थसार ग्रंथ णिद्धस्स लुक्खेण हवेज बंधो उमास्वातिके सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्रका विशद एवं
जहएणवज्जे विममे समे वा ॥ पल्लवित अनुवाद है। और पुरुषार्थसिद्धयु गाय अपनी
इनमेंकी अन्तिम गाथा प्राचार्य पूज्यपादने अपनी शैलीका एक उत्तम श्रावकाचार है । इसके अनेक पद्य तत्त्वार्थवृत्तिके ५ वें अध्यायके २६ वें सूत्रकी टीका प्राचीन प्राकृत पद्योंके अनुवादरूपमें पाये जाते हैं। करते हुए नद्धत की है। अतः ये गाथएं नेमिचन्द्रको इन ग्रन्थोंमेंस किसी में भी रचनाकाल दिया हुआ नहीं खदको कृति नहीं है। शेष दमरी दो गाथाओं में में निम्न है. अतः ऐसे ग्रन्थकारके समय-सम्बन्ध में जिज्ञासा गाथा सिद्धसेनके सम्मतितके तृतीय प्रकरणकी ४७ उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है । कुछ विद्वानोंने अमृत- वे नम्बरकी हैं। अतः वह भी नमिचन्द्रकी स्वरचित चन्द्राचार्य के समय सम्बन्धमें जो विचार प्रस्तुत किये नहीं कही जा सकती:हैं और उनसे उनके समय पर जो प्रकाश पड़ता है उस पर यहाँ कुछ नवीन प्रमाणों के आधारपर विचार १ Introduction of Pravacanasara p.101 किया जाता है।
२ यह गाया अकलंकदेवके तत्वार्थराजवातिकमें भी डा. ए. एन. उपाध्ये एम० ए० डी लिट उद्धृत है ५-३६ ।
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अनेकान्त
जादिया बयणवहा तावदिया चेव होंति णयवाद। प्राचार्य अमृतचन्द्रकके पुरुषार्थ सिद्ध्युपायके २३, १२, जावदिया णयवादा तावदिया चेव हॉति परममया ॥ ६३,६४,६५,६६,६७,६८EE. १००,१०१, १०३, १०४,
और इम लिये इन तीन गाथाभों के आधार पर १०५, १०७, १०, १११, ११२, ११३, ११४, ११५, तो अमृतचन्द्रका ममय नेमचन्द्रके बादका नहीं कहा ११६, ११७, ११८, ११६, १२०, १२१, १२, १२३, जासकता। भव रही चौथी गाथाकी बात, उस गाया १२४, १२५ १२६, १२७, १२८, १२६, १३०, १३१, के सम्बन्धमें यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जामकता १३२ १३३. ५३४, १४३, १४५, १६२, १६३, १६४, कि वह गाथा प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके १६५, १६६, १६६, १७२, १७३, १७५, १७६, १७७. द्वागही निर्मित है। हो सकता है कि उक्त तीनों १७६, १७६ ११८, १८६, १६०, १६४, नम्बरके पद्य गाथाओं की तरह यह भी उमसे पूर्वका बनी हुई हो; पाये जाते हैं। साथ ही, उसके २२५ वें पद्यका भावाक्योंकि गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है उसमें कितनी नुवाद भी पाया जाता है जो जैनी नीतिके रहस्यका ही गाथाएं दुसरे ग्रंथोंपरसे है। जिन गाथाओं निदर्शक है। यथा:का प्राची- ममुल्लेख मिल गया है उनके सम्बन्ध में एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । तोहम निश्चयतः कह ही सकते हैं कि वे गोम्मटसार मन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्धाननेत्रमिव गोपी ।।२२५ के कर्ताको नहीं हैं। शेष गायाओं के सम्बन्धम अभी
-पुरुषार्थसिद्धय पाय निश्चित रूपसे कुछ कहना कठिन है। अतः यह बहुत यस्या नैवोपमानं किमपि हि मकलद्योतकेषु प्रतक्यसंभव है कि उक्त गाया भी प्राचीन हो। वह गाथा मन्त्ये नैकेन नित्यं श्लथयति सकलं वस्तुतत्त्वं विवक्ष्यं । इस प्रकार है:
अन्येनान्त्येन नीति जिनपत्तिर्माहतां संविकर्षत्यजस्र', परसमयाणं वयण मिच्छखल होइ मवहा वयणा। गोपी मंथानवद्या जगतिविजयतांसा सखीमुक्तिलक्ष्म्याः जइग्णाणं पुण वयणं मम्मं ख कहं चि वयणादो॥
-धर्मरत्नाकर २०,६६ ऐमी स्थिति में यह कहना ठीक नहीं होगा कि ऊपरके इस कथनसे यह स्पष्ट है कि प्राचार्य प्राचार्य अमृतचन्द्रने उक्त गाथा गोम्मटमारसे उद्धत अमृतचन्द्र के समयकी उत्तगवधि सं० १०५५ के बाद की है। क्योंकि इससे पूर्वकी गथा सम्मतितककी की नहीं हो सकती। और पूर्वावधि आचार्य अकलंकहै। और इसलिये अमृतचन्द्रका समय नेमिचन्द्रा- देवके बाद किसी समय हो सकती है; क्योंकि प्राचार्य चार्य के वादका नहीं ठहराया जा सकता।
अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार में, प्रत्यक्ष-परोक्षादिके कितने ___ डा० ए० एन० उपाध्येकी उक्त प्रस्तावनाके ही लक्षण उनके तत्त्वार्थ राजवातिकके वार्तिकों परसे
आधारसे, जिसमें प्रवचनसारकी तात्पर्यवृत्तिके कर्ता बनाए गये हैं। जैसा कि उनके निम्न उद्धरणोंसे प्राचार्य जयसेनका ममय ईसा की १२ वीं सदीका स्पष्ट है:उत्तगधे और विक्रमकी १३ नीं सदीका पूर्वाध बत- इंद्रियानिद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं
प्रत्यक्षं।
तत्त्वारा०१-१२ लाया है. पं० नाथूरामजी प्रेमीने आचार्य अमृतचन्द्र
इंद्रियानिन्द्रियापेक्षमुक्तमव्यभिचारि च । के समयका अनुमान १२ वीं सदीका कर लिया है।
साकार-ग्रहणं यत्स्यात् सत्प्रत्यक्ष प्रवक्ष्यते ॥ जो ठीक नहीं है। क्यों कि प्राचार्य जयसेनके धर्म
तत्वार्थसार १-१७ रत्नाकर में, जिमका रचनाकाल सं० १०५५ है,
उपासानुपात्त प्राधान्यादवगमः परोक्ष । १देखो, जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४५८
-तत्त्वा००१-१२ २ वाणेन्द्रिय-व्योम-सोम-मिते संवत्सरे शुभे ।
समुपात्तानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत । ग्रंथोऽयं मिद्धता यात सकलीकरहाटके ॥
पदार्थानां परिज्ञानं तत्परोक्षमुदाहृतम् ।। धर्मरत्नाकर ऐ०५० स० प्रति।
-तत्वार्थसार १-१६
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किरण ४-५]
राजगृहकी यात्रा
१७५
इसके मिवाय सम्यग्ज्ञान (प्रमाण) का लक्षण भी होनी चाहिये । इम लिये बहुत संभव है कि पट्रावली अकलंकदेवके लघीयत्रयके निम्न लक्षणको मामने में उल्लिम्बित अमृतचन्द्रका समय विक्रम संवत ६६२ रखकर बनाया गया मालूम होता है। यथा- (ई. मन ६०५) प्रायः ठीक हो । वि नोंको इस पर व्यवमायात्मकं ज्ञानमात्मार्थप्राहकं मतम् ।
विशेष विचार कर अन्तिम निणय करनेका प्रयत्न
करना चाहिये। -लघीय. ३ ६०
धीरसेवामंदिर, सरसावा,ता.१०-५-४६ मम्यग्ज्ञानं पुनः म्वार्थ-व्यवमायात्मकं विदुः। -वार्थमार १-१८
३. जिसके ठीक होने की घोषणा मुनि जिनविजय जी श्रादिने
भी अनेक ताडपत्रीय प्रतियोके आधार पर की है। और अतः अमृतचन्द्राचार्य के ममयको पूर्वावधि अक
इसलिये पानसे कोई २० वर्ष पहले मुख्तार श्री जुगल . लंकके समय विक्रम तथा ईसाकी ७ वीं शताब्दी'
किशोर जाने अपने स्वामी समन्तभद्र' इतिहास (पृ०१२५) नन्दिसूत्रकी चूणिमें श्रीजिनदासगणी महत्तरने अकलंक- में अकलंकचरितके निम्नपद्यके श्राधारपर, जिसमें संवत् देवके सिद्धिविनश्चयग्रन्यका बड़े गौरवके साथ उल्लेख ७०. में अकलंकका चौद्धोंके साथ महान्बाद होने का किया है, पर यह चणि शक सं० ५६८ अर्थात् वि. उल्लेग्व है, अकलंक का समय विक्रमकी ७ वीं शताब्दी सं० ७३३ ( ई० सन् ६७६ ) में जैसा कि उमके अन्त में निर्धारित किया था वह भलेप्रकार पुष्ट होता है:दिये हुए "शकराजः पंचसु वर्षशतेषु व्यनिक्रान्तेषु अष्टन- विक्रमार्क - शकाब्दीय - शतमात - प्रमाजुषि । वानेषु नन्द्यध्ययनचणि: समामा" इस शक्यसे जाना जाता कालेऽकलंकयतिनों बौद्धर्वादो महानभूत ॥
राजगृहकी यात्रा
तारीख २८ मार्च सन १६४६. वृहस्पतवारके सामाजिक धर्ग-वार्ता भी आरा तक होती आई । ब्राझ महत्त में प्रातः साढ़े पांच बजे मुख्तार श्री पं. इसमे बड़ा प्रानन्द रहा । लखनऊ म्टेशनपर जगलकिशोरजी और मैं गजगृह के लिये रवाना वयोवृद्ध बा० अजितप्रमादजी एडवोकेट और बा. हुए और सहारनपुरमे ७-२० वाली पंजाब एक्सप्रेस ज्योतिप्रसादजी एम. ए. हम लोगों के मानेकी खबर में सवार हुए। दैववश उम दिन तीमरे दर्जे के सब होनेसे मिलनेके लिये आये। यहाँ गाड़ी काफी देर डिब्बे खूब भरे हुए थे और इस लिये लुक्मर तक तक ठहरती है और इम लिये आप लोगोंके माथ बड़े इन्टर में आये। वहांसे तीसरे दर्जे के कई और डिब्बे प्रानन्दसे गाड़ी छूटने तक नातचीत होती रही। लग जानेसे तीसरे दर्जेके सफर में कोई तकलीफ नहीं ता० २६ को वख्त्यारपुर जंकशनपर १० बजे पहुँच हुई और न विशेष रश हुआ। मौकेकी बात है कि कर और वहांसे मवा ग्यारह बजे दिन में गजगृहकी धामपुरसे सुहद्वर प्रो० खुशालचन्द्रजी एम. ए. गादीमें बैठकर करीब पौने तीन बजे दिन में ही राजसाहित्याचार्य और भाई बा० चेतनलालजी भी मिल गृह सानन्द मकुशल पहुँच गये। राजगृह जानेवालों गये, जो क्रमशः श्रारा और डालमियानगर के लिये के लिये वख्यारपुर जंकशनपर गाड़ी बदलना होती जारहे थे। प्रो०खुशालचन्द्रजीके साथ साहित्यिक और है और छोटी लाइनकी गाड़ी में सवार होना होता है।
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भनेकान्त
[वर्ष -
उम दिन राजगृह में वारुणी मेला था, जो पूछनेपर बुलाना पड़ता है या भुक्तभोगी बन कर तब तक पड़ा मालूम हुआ कि बारह वर्ष बाद भरा करता है और रहना पड़ता है जब तक वे स्वयमेव अच्छे न होजायें दो-तीन दिन रहता है। अतएव विहारशरीफसे गाड़ी या वीमारीकी हालत में ही घर चले न जायें । परिमें कुछ अधिक भीड़ रही। राजगृह पहुँचनेसे कई णाम यह होता है कि घर पहुँचते पहुँचते कितने ही मील पूर्वसे विपुलाचल सिद्धक्षेत्र के दर्शन हाने लगते यात्री वहीं या बीच में हो मर जाते हैं। यह हैं। हमारे डिब्बे में गुजराती दिगम्बर जैन बन्धु भी बात समाचारपत्रोंसे भी प्रकट है जिसका खबरें जैनथे, हम सबन दृरसे ही विपुलाचल मिद्धक्षेत्रके दर्शन मित्रादिमें प्रकाशित होती रहती हैं। हमने १५-२० किये और नतमस्तक वन्दना की। स्टेशनपर पहुँचते दिनों में ही कई दजेन या त्रयों को राजगृहमें मलेरिया ही दिगम्बर जैन धर्मशालाका जमादार मिल गया से पीड़ित पड़े हुए और कई दिन तक कगहते हुए और वह हमें धमशाला लिवा लेगया। ४-५ घंटे तक देखा है। हिबरूगढ़के एक सेठ सा० अपने २१ तो, पहलेसे सूचना दी जानेपर भी, उचित स्थानकी आदमियों महित कर ब ८ दिन तक अस्वस्थ पड़े रहे। कोई व्यवस्था न हो सकी, बादमें क्षेत्रके मुनीम गम- अन्तमें अस्वस्थ हालत में ही उन्हें मोटरलारी कर के लालजीने हमारे ठहरनेकी व्यवस्था श्री कालूरामजी जाना पड़ा। जबलपुरके ८ यात्री ७-८ दिन तक बुरी मदी गिरीडी वालोंकी कोठी में कर दी। वहाँ ५दिन हालतमें वीमार पड़े रहे। अच्छे न होते देख उन्हें ठहरे । पीछे कोठीक आदमीस मालूम हुआ कि उसके मुनीमजीद्वार। घर भिजवाया गया। दुःख हे कि इन पास श्रीकालरामजीक भाईगोंका गिरीडीस प्रानका मेंसे एक आदमीकी रास्ते में (सतनाके पास) मृत्यु भी पत्र पाया है और वे कोठी में ठहरेंगे । अतएव हमें होगई ! हमारी समझमें नहीं आता कि तीर्थक्षेत्र छठे दिन, जिस दिन वे आने वाले थे, सुबह ही उस कमेटीक जिम्मेदार व्यक्ति इन मौतोंका मूल्य क्यों खाली कर देना पड़ा और दूमरे स्थानोंम चला जाना नहीं आँक रहे ? और क्यों नहीं इसके लिये कोई पड़ा। बाद में मालूम हुआ कि उक्त काठामें कोई नहीं समुचित प्रयत्न किया जाता है ? हमारा तीर्थक्षेत्र आया और यह सव मात्र उस आदमीकी चालाकी थी। कमेटी और समाजके दानी सज्जनोंसे नम्र अनुरोध जो कुछ हो।
है कि वे कोठोकी ओरसे वहाँ एक अच्छे औषधालय फिर हम बा. सखीचन्दजी कलकत्तावालोंकी की व्यवस्था यथा शीघ्र करें। अथवा बड़नगर जैसे कोठीमें ठहर गये। राजगृहमें मच्छरोंकी बहुतायत स्थानोंसे दवाईयों को मंगवाकर वीमारों के लिये देने है जो प्रायः य त्रियांको बड़ा कष्ट पहुँचाते हैं और की उचित व्यवस्था करें। वहाँ एक योग्य वैद्य और अक्मर जिससे मलेरिया हो जाता है। मच्छर होने एक कम्मोटरकी तो शीघ्र ही व्यवस्था होजानी का प्रधान कारण यह जान पड़ाहे कि धर्मशाला चाहिए। यदि जदे तक यह व्यवस्था नहीं होती तो के आस-पास गंदगी बहुत रहती है और जिसकी तब तक तीर्थक्षेत्र कमेटीको सर्वसाधारण पर यह सफाईकी ओर कोई खास ध्यान नहीं है। धर्मशाला स्पष्टतया सभी पत्रों में प्रकट कर देना चाहिये कि के पिछले भागमें पाखानेका महीनों तक पानी भरा शिखरजीका पानी अभी तक ठीक नहीं हुआ है और रहता है जो नियमसे मच्छरों को पैदा करता है और इसलिये लोग वन्दना स्थगित रखें या अपने साथ
आसानीसे मलेरिया आजाता है। यह देख कर तो दवाई आदिका पूरा इन्तजाम मरके वन्दनाथे अथवा बहुत दुःख हुआ कि वीमारों के लिये उनके उपचारादि नीमियाघाटसे आवें* | इस स्पष्ट घोषणासे सबसे का प्रायः कोई साधन नहीं है। शिखरजीसे लौटे हुए बड़ा लाभ यह होगा कि जो वीमार पड़ कर वापिस कितने ही यात्री राजगृह आकर कई दिन तक वीमार १४ फरवरी सन् १९४६, के नैनमित्रमें प्रकाशित पड़े रहते हैं। या तो उन्हें बस्तोसे डाक्टर या वैद्यको सूचना अधूरी और अस्पष्ट है।
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किरण ४-५
राजगृहकी यात्रा
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जाते हैं और जिन संक्लेश परिणामों को सिद्धक्षेत्र माना जाता है, इसे भी हम लोगोंने गौरस देखा। जैसे पवित्र स्थानोंसे लेजाते हैं उन परिणामों को लेकर पुराने मन्दिरों के अवशेष भी पड़े हुए हैं। विपुलाचल जानेका उन्हें अवमर नहीं आयेगा और न सिद्धक्षेत्रके कुछ चौड़ा है और वैभा गरि चौड़ा तो कम है पर प्रति अपनी भावनामें कमी होगी या अन्यथा परि- लम्बा अधिक है। सबसे पुरानी एक चौबीमी मी णाम होंगे। आशा है. इस ओर अवश्य ध्यान इमी पहाड़ पर बनी हुई है जो प्राय: खंडहरके रूपमें दिया जावेगा।
स्थित है और पुरातत्त्वविभागके संरक्षण में है । इतिहासमें राजगृहका स्थान
अन्य पहाड़ोंके प्राचीन मन्दिर और खंडहर भी उसी मुख्तार सा० का अरसेसे यह विचार चल रहा के अधिकार में कहे जाते हैं। इसी वैभारगिरिक उत्तर था कि राजगृह चला जाय और वहां कुछ दिन ठहरा में सप्तपर्णी दो गुफाएँ हैं जिनमें ऋषि लोग रहते जाग तथा वहांकी स्थि त, स्थानों, भग्नावशेषों और बतलाये जाते हैं। गुफाएँ लम्बो दूर तक चली गई इतिहाम तथा पुरातत्व सम्बन्धी तथ्योंका अवलोकन हैं। वास्तवमें ये गुफाएँ सन्तोंके रहने के लिये बड़े किया जाय आदि । इमीमम लोग राजगह गये। कामकी चीज हैं। ज्ञान और ध्यानकी साधना इनमें राजगृहका इतिहासमें महत्वपूर्ण स्थान है। मम्राट की जा सकती है, परन्तु आजकल इनमें चमगीदड़ांका विम्बमारके, जो जैनपरंपराके दिगम्बर और श्वेताम्बर वास है और उसके कारण इतनी बदबू है कि खड़ा तथा बौद्ध माहित्यमें राजा श्रेणिकके नामसे अनुश्रु न नहीं हुआ जाता। हैं और मगवसाम्राज्य के अधीश्वर एवं भगवान महा- भगवान महावीरका सैकड़ोंवार यहां राजगृह में वीरकी धर्म-सभाक प्रधान श्रोता माने गये है, समवशरण पाया है और विपुलगिरि तथा वैभागिरि मगधसाम्राज्यकी राजधानी इसी राजग में थी। यहां पर ठहरा है। और वहींस धर्मोपदेशकी गङ्गा बहाई उनका किला अब भी पुरातत्त्व विभागके संरक्षण में है है। महात्मा बुद्ध भी अपने संघ सहित यहाँ राजगृह और जिसकी खुदाई होने वाला है । एक पुराना किला में अनेकवार आये हैं और उनके उपदेश हुर हैं। और है जो कृष्णके समकालान जरासन्धका कहा राजा श्रेणिकके अलावा कई वौद्ध और हिन्दू सम्राटों जाता है। वैभार पर्वतक नीचे उधर तलहटीमें पर्वत की भी राजगृह में राजधाना रही है। इस तरह राजकी शिला काट कर एक आम्थान बना है और उसके गृह जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों संस्कृतियों के सङ्गम आगे एक लंबा चौड़ा मैदान है, ये दोनों स्थान गजा एवं ममन्वयका पवित्र और प्राचीन ऐतिहासिक तीर्थ श्रेणिकके खजाने और बैठ के नामसे प्रसिद्ध हैं। स्थान है जो अपने अंचलमें अतीतके विपुल वैभव तीसरे चौथे पहाडके मध्यवर्ती मैदान में एक बहत और गौरवको छिगये हप है और वर्तमान में उसकी विशाल प्राचीन कुआ भूगर्भसे निकाला गया है और महत्ताको प्रकट कर रहा है। यहाँक लगभग २६ जिस मिट्टीसे पूर भी दिया गया है। इसके ऊपर टोन कुंडों ने राजगृहकी महत्ताको और बढ़ा दिया है । दूर का छतरी लगादी गई है। यह भी पुरातत्व विभागके दरस यात्री और चमंगरोगादिके रोगी इनमें स्नान संरक्षणमें है। इसके आस पाम कई पुराने कुए और करने के लिये रोजाना हजारों की तादाद में आते रहते वेदिकाएं भी खुदाई में निकले हैं। कहा जाता है कि हैं। सूर्यकुण्ड. ब्रह्मकुण्ड और सप्तधाराओंका जल रानी चेलना प्रतिदिन नये वस्त्रालंकारोंको पहिन कर हमेशा गर्म रहता है और बारह महीना चालू रहते पुराने वस्त्रालंकारोंको इस कुएमें डाला करती थीं। हैं। इनमें स्नान करनेसे वस्तुनः थकान, शारारिक दूसरे और तीसरे पहाड़के मध्यमें गृद्धकूट पर्वत है, क्लान्ति और चर्मरोग दूर होते हुए देखे गये हैं। जो द्वितीय पहाड़का ही अंश है भौर जहाँ महात्मा लकवासे ग्रस्त एक रोगीका लकवा दो तीन महीना इन बुद्धकी बैठकें बनी हुई हैं और जो बौद्धोंका तीर्थस्थान में स्नान करनेसे दूर होगया। कलकत्ताके सेठ प्रेमसुख्न
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अनेकान्त
[वर्ष ८
जीको एक अङ्ग में लकवा हो गया वे भी वहां ठहर से मुक्त रहकर अपना धर्मसाधन कर सकता है। रहे हैं और उनमें स्नान कर रहे हैं। पूछनेसे मालूम भोजन ताजा और स्वच्छ मिलता है। मैनेजर बा० हुआ कि उन्हें कुछ आराम है। हम लोगोंने भी कई कन्हैयालालजी मिलनसार सज्जन व्यक्ति हैं। इन्हींने दिन स्नान किया और प्रत्यक्ष फल यह मिला कि हमें धमशाला आदिकी सब व्यवस्थामे परिचय थकान नहीं रहता था-शगरम फुरता आजाती थी। कराया। श्वेताम्बरों के अधिकार में जो मन्दिर हे वह राजगृह के उपाध्याय-पण्ड
पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंका था। अब वह कुण्डॉपर जब हमन वहाँक सैकड़ों उपाध्यायों पारस्परिक समझते के द्वारा उनके अधिकारमें चला और पण्डोंका परिचय प्राप्त किया तो हमें ब्राह्मण- गया है । चार जगह दर्शन हैं। देखने योग्य है। कुलोत्पन्न इन्द्रभूति और उसके विद्वान पाँचसौ शिष्यों वा० छोटेलालजीक साथ १३ दिनकी स्मृति हो आई और उस पौराणिक घटनामें कई बातोंपर विचार-विमर्श करने के लिये 40 विश्वासको दृढ़ता प्राप्त हुई जिसमें बतलाया गया है नोटेलाली रईस कलकत्ता ता०५ माचको राजगृह कि वैदिक महाविद्वान गौतम इन्दभूत अपने पाँचमो गये थे और वे ता० १८ तक माथ रहे। आप शिष्यों के साथ भगवान महावारके उपदेशस प्रभावित काफी ममयसे अस्वस्थ चले रहे हैं-इलाज का होकर जनधर्ममें दीक्षित होगया था और फिर वही काफी का चके हैं, लेकिन कोई स्थायी आराम नहीं उनका प्रधान गणधर हुआ था । श्राज भी वहाँ
हुआ। यद्यपि मेरी आपमे दो-तीन वार पहले भेंट हो सैकड़ों ब्राह्मण उपाध्याय नामसे व्यवहत होते हैं।
चुकी थी; परन्तु न तो उन भेटासे आपका परिचय परन्तु आज.वे नाममात्रक उपाध्याय हैं और यह देख
मिलपाया था और न अन्य प्रकार से मिला था। परन्तु कर तो बड़ा दुःख हुआ कि उन्होंने कुण्डोंपर या
अबकीवार उनके निकट सम्पर्क में रह कर उनके अन्यत्र यात्रियोंसे दा-दो, चार-चार पैस माँगना ही
व्यक्तित्व, कर्मण्यता, प्रभाव और विचारकताका अपनी वृत्ति-आजीविका बना रखी है । इससे उन
आश्चर्यजनक परिचय मिला। बाबू साहबको मैं एक का बहुत ही नैतिक पतन जान पड़ा है। यहाँके उपा
मफल व्यापारी और रईसके अतिरिक्त कुछ नहीं ध्यायोंको चाहिए कि वे अपने पूर्वजोंकी कृतियों और .
जानता था, पर मैंने उन्हें व्यक्तित्वशानी, चिन्ताशील कीतिको ध्यानमें लायें और अपने को नैतिक पतनसे
और कर्मण्य पहले पाया-पीछे व्यापारी और रईस बचायें।
आप अपनी तारीफसे बहुत दूर रहते हैं और चुपचाप श्वेताम्बर जैनधर्मशाला और मन्दिर- काम करना पसन्द करते हैं। आप जिस उत्तरदायित्व ___ यहां श्वेताम्बरोंकी ओरस एक विशाल धर्मशाला को लेते हैं उसे पूर्णतया निभाते हैं। आपको इससे बनी हुई है, जिसमें दिगम्बर धर्मशालाकी अपेक्षा बड़ी घृणा है जो अपने उत्तरदायित्वको पूरा नहीं यात्रियोंको अधिक आगम है। स्वच्छता और सफाई करते। आपके हृदय में जैन संस्कृति के प्रचारकी बड़ी प्रायः अच्छी है। पाखानोंकी व्यवस्था अच्छी है- तीव्र लगन है। आप आधुनिक ढंगसे उसका अधिकायंत्रद्वारा मल-मूत्रको बहा दिया जाता है, इससे बदबू धिक प्रचार करने के लिये त्सुक हैं। जिन बड़े बड़े या गन्दगी नहीं होती। यात्रियों के लिये भोजनके व्यक्तियोंसे. विद्वानोंमे और शासकोंसे अच्छे-अच्छों वास्ते कच्चो और पक्की रसोईका एक धाबा खोल रखा की मित्रता नहीं हो पाती उन सबके साथ आपकी है, जिसमें पाँच वक्त तकका भोजन फ्री है और शेष मित्रता-दोस्ताना और परिचय जान कर मैं बहुत समयके लिये यात्री आठ आने प्रति बेला शुल्क देकर आश्चर्यान्वित हआ । सेठ पद्मराजजी रानीवाले भोजन कर सकता है और आटे, दाल, लकड़ी की चिता और अर्जुनलाल जी सेठी के सम्बन्धकी कई ऐसी बातें
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किरण ४-५]
राजगृहकी यात्रा
१७६
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आपने बतलाई जो जैन इतिहामकी दृष्टिसे संकलनीय जमीनमें सर्वत्र S.P. Jainके नामसे चिन्ह लगे हुए हैं, है। आपके एकहरे दुर्बल शगीरको देख कर महमा जिससे आपकी जमीनका पार्थक्य मालूम होजाता है।
आपका व्यक्तित्व और चिन्ताशीलता मालूम नहीं और भी कुछ लोगोंने नवाबसे छोटे छोटे हिस्से खरोद होती, ज्यों ज्यों आपके मम्पर्क में पाया जाये त्यों त्यों किये हुए हैं। राजगृहमें खाद्य सामग्री तेज तो मिलती वे मालूम होते जाते हैं। वस्तुतः ममाजको उनका है। किन्तु बेइमाना बहुत चलता है । गेहुंओंको कम परिचय मिला है। यदि वे सचमच में प्रकट रूपमें अलगसे खरीद कर पिस ने पर भी उसमें चौकर बहत समाजके सामने आते और अपने नामको अप्रकट न मिला हुआ रहता था । आटा हमें तो कभी अच्छा रहते तो वे सबसे अधिक प्रसिद्ध और यशस्वी बनते। मिलकर नहीं दिया। बा० छोटेलालजीने तो उसे अपनी भावना यही है कि वे शीघ्र स्वस्थ हों और उनका छोड़ ही दिया था। क्षेत्रके मुनीम और आदमियोंसे संकल्पित वीरशासनसंघका कार्य यथाशीघ्र प्रारम्भ हो। हमें यद्यपि अच्छी मदद मिली, लेकिन दूसरे यात्रियों
के लिये ननका हमें प्रमाद जान पड़ा है। यदि वे गजगृहके कुछ शेष स्थान
जिम कार्यके लिये नियुक्त हैं उसे आत्मीयताके साथ वर्मी बौद्धोंका भी यहाँ एक विशाल मन्दिर बना करें तो यात्रियोंको उनसे पूरी मदद और महानुभूति हुआ है । आज कल एक वर्मी पुङ्गी महाराज उममें मिल सकती है। आशा है वे अपने कर्त्तव्यको समझ मोजद हैं और उन्हींको देखरेख में यह मन्दिर है। निष्प्रमाद होकर अपने उत्तरदायित्वको पूरा करेंगे। जापानियोंकी ओर से भी बौद्धोंका एक मन्दिर बन रहा था, किन्तु जापानमे लड़ाई छिड़ जाने के कारण आरा और बनारसउसे रोक दिया गया था और अब तक रुका पड़ा है। राजगृहमें २० दिन रह कर ता० १८ अप्रेलको मुसलमानोंने भी राजगृहमें अपना तीर्थ बना रखा है। वहाँ से आरा आये । वहाँ जैन सिद्धान्तभवनके विपुलाचलमे निकले हुए दो कुण्डोंपर उनका अधि. अध्यक्ष पं० नेमीचन्द्रजी ज्योतिपाचाय के मेहमान रहे। कार है। एक मस्जिद भी बनी हुई है। मुस्लिम यात्रियों स्टेशनपर आपने प्रिय पं. गुलाबचन्द्र जी जैन,
हरने के लिये भी वहीं स्थान बना हआ है और मैनेजर जैन वाला विश्रामको हमें लेने के लिये भेज कई मुस्लिम वासिदाके रूपमें यहाँ रहते हुए देखे जाते दिया था। श्रागमें स्व. बा. देवकुमारजी रईस द्वारा हैं । कुछ मुस्लिम दुकानदार भी यहाँ रहा करते हैं। स्थापित जैन-सिद्धान्त-भवन और श्रीमती विदुषी सिखों के भा मन्दिर और पुस्तकालय आदि यहाँ हैं। पण्डिता चन्दाबाईजी द्वाग संस्थापित जैनवालाबुंडों के पास उनका एक विस्तृत चबूतरा भी है। विश्राम तथा श्री १००८ बाहुबलिस्वामीकी विशाल ब्रह्मकुंड के पास एक कुंड ऐसा बतलाया गया जो खड्गामन मूर्ति वस्तुतः जैन भारतकी श्रादर्श वस्तुएँ हर तीसरे व पड़ने वाले लौंडके महीने में ही चालू हैं। पारा आनेवालोंको जेनमन्दिरों के अलावा इन्हें रहता है और फिर बन्द होजाता है। परन्तु उमका अवश्य ही देखना चाहिये । भवन और विश्राम दोनों सम्बन्ध मनुष्य कृत कलासे जान पड़ा है । राजगृह ही समाजकी अच्छी विभूति हैं। यहाँ स्व० श्रीहरिप्रसाद की जमींदारी प्रायः मुस्लिम नवाबके पास है, जिसमें जी जैन रईसकी ओरस कालेज. लायब्रेरी आदि कई से रुपयामें प्रायः चार आने भर (एक चौथाई ) संस्थाएं चल रही हैं । यहाँ भी प्रो० खुशालचंदजीसे दो जमीदारी सेठ साह शान्तिप्रसादजी डालमियानगर दिन खूब बातचीत हुई। आरासे चलकर बनारस आये ने नवाबसे खरीद ली है। यह जानकर खुशी हुई कि और अपने चिरपरिचित स्याद्वादमहाविद्यालयमें ठहरे जमीदारीके इस हिस्सेको आपने दिगम्बर जैन सिद्ध संयोगसे विद्यालयके सुयोग्य मंत्री सौजन्यमूर्ति बा० क्षेत्र राजगृहके लिये ही खरीदा है। उनके हिस्सेकी सुमतिलालजीस भी भेंट हो गई। आपके मंत्रित्वकाल
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
तया स्याद्वाद महाविद्यालयको ही देन है और जो उसमें क्रियाशीलता दिख रही हैं वह उक्त संस्थाओं के संचालकों की चीज है । आशा है इन संस्थाओं से मिलती रहेगी। समाज और साहित्य के लिये उत्तरोत्तर अच्छी गति
विद्यालय बहुत उन्नति की है। कई वर्ष से आप गवर्नमेन्ट सर्विस से रिटायर्ड हैं और समाजसेवा एवं धर्मोपासना में ही अपना समय व्यतीत करते हैं। आपका धार्मिक प्रेम प्रशंसनीय है। यहां अपने गुरु जनों और मित्रोंके सम्पर्क में दो दिन रह कर बड़े आनन्दका अनुभव किया। स्याद्वादमहाविद्यलय के अतिरिक्त यहाँकी विद्वत्परिषद् जयधवला कार्यालय और भारतीयज्ञानपीठ प्रभृति ज्ञानगोष्ठियाँ जैनसमाज और साहित्यके लिये क्रियाशीलताका सन्देश देती हैं। इनके द्वारा जो कार्य हो रहा है वह वस्तुतः समाजके लिये शुभ चिन्ह 1 तो समझता हूँ कि समाज में जो कुछ हरा-भरा दिख रहा है वह मुख्य
इस प्रकार राजगृहकी यात्राके प्रसङ्ग में आरा और बनारसकी भी यात्रा हो गई और ता० २४ मार्चको सुबह साढ़े दस बजे यहां सरसावा हम लोग सानन्द
सकुशल वापिस गये ।
३०-४-४६ वीर सेवा-मन्दिर सरसावा
- दरबारी लाल, जैन कोठिया न्यायाचार्य )
जैनसंस्कृति की सप्ततत्त्व और षद्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश
( ले० - जैनदर्शन शास्त्री पं० बंशीधरजी जैन, व्याकरणाचार्य )
नं० १ प्रास्ताविक
अखण्ड मानव- समष्टि को अनेक वर्गों में विभक्त कर देने वाले जितने पंथभेद लोकमें पाये जाते हैं। उन सबको यद्यपि 'धर्म' नामसे पुकारा जाता है, परन्तु उन्हें 'धर्म' नाम देना अनुचित मालूम देता है क्योंकि धर्म एक हो सकता है, दो नहीं, दोसे अधिक भी नहीं, धर्म धर्म में यदि भेद दिखाई देता है तो उन्हें धर्म समझना ही भूल है ।
अपने अन्तःकरण में क्रोध, दुष्टविचार अहंकार, छल-कपटपूर्ण भावना, दीनता और लोभवृतिको स्थान न देना एवं सरलता, नम्रता और श्रात्मगौरव के साथ २ प्राणिमात्रके प्रति प्रेम, दया तथा सहानुभूति यदि सद्भावनाओं को जाग्रत करना ही धर्मका अन्तरंग स्वरूप माना जा सकता है और मानवताके धरातल पर स्वकीय वाचनिक एवं कायिक प्रवृत्तियों में हिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं तथा अपरिग्रह वृत्तिका यथा
योग्य संवर्धन करते हुए समता और परोपकारकी ओर अग्रसर होना धर्मका बाह्य स्वरूप मानना चाहिये ।
पन्थ भेदपर अवलंबित मानवसमष्टिके सभी वर्गोंको धर्म की यह परिभाषा मान्य होगी इसलिये सभी वर्गों की परस्पर भिन्न सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यताओं - जिन्हें लोकमें 'धर्म' नाम से पुकारा जाता है-के बीच दिखाई देनेवाले भेदको महत्व देना अनुचित जान पड़ता है ।
मेरी मान्यता यह है कि मानव समष्टिके हिन्दू, जैन, बौद्ध, पारसी, सिख, मुसलमान और ईसाई आदि वर्गों में एक दूसरे वर्ग से विलक्षण जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यतायें पाई जाती हैं उन मान्यताओंको 'धर्म' न मानकर धर्म-प्राप्तिकी साधनस्वरूप 'संस्कृति' मानना ही उचित है । प्रत्येक मानव, यदि उसका लक्ष्य धर्मे प्राप्ति की ओर है तो लोकमें पाई जानेवाली उक्त सभी संस्कृतियों में से किसी भी
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किरण ४-५]
जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व और षड्द्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश
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संस्कृतिको अपनाकर उल्लिखित अविवादी धर्मके पप्कृित बनाते हुए अधिकसे अधिक धर्म के अनुकूल प्राप्त कर सकता है । संस्कृतिको ही धर्म मान लेनकी बनाने के प्रयत्नमें लग जायेंगे तथा उनमें से अहंकार, भ्रान्तिपूर्ण प्रचलित परिपाटीस हिन्दू जैन आदि पक्षपात और हठ के साथ २ परस्परक विद्वेप, घृणा, सभी वर्गोका उक्त वास्तविक धमकी और झुकाव ही ईर्षा और कलहका खात्मा होकर सम्पूर्ण मानव नहीं रह गया है इसीलिये इन वर्गों में विविध प्रकार समष्टि में विविध संस्कृतियों के मद्रावमें भी एकता के अनर्थकर विकारों, पाखण्डों एवं रूढ़ियों को अधिक और प्रमका रस प्रवाहित होने लगेगा। प्रश्रय मिला हुआ है और इस सबका परिणाम यह मेरा इतना लिखनेका प्रयोजन यह है कि जिसे हुआ है कि जहाँ उक्त वास्त वक धर्म मनुष्य के जीवन लोकमें 'जैनधर्म' नामसे पुकारा जाता है उसमें से मर्वथा अलग होकर एक लोकोत्तर वस्तुमात्र रह दूरी २ जगह पाये जाने वाले विशुद्ध धार्मिक अंश गया है वहां मानवतासे विहीन तथा अन्याय और को छोड़कर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यताओं अत्याचारसे परिपूर्ण उच्छल जीवन प्रवृत्तियोंके के रूपमें जितना जैनत्वका अंश पाया जाता है उसे सद्भावमें भी संस्कृतिका छद्मवेष धारण करने मात्रसे जैनसंस्कृति' नाम देना ही उचित है, इसलिये लेखक प्रत्येक मानव अपने को और अपने वर्गको कट्टर श.र्ष में मैंने जैनधर्म' के स्थानपर 'जैनप्तंस्कृति' धर्मात्मा समझ रहा है इतना ही नहीं, अपनी शब्दका प्रयोग उचित समझा हे और लेखके अन्दर संस्कृतिस भिन्न दुसरा सभी संस्कृतयोंको अधर्म मान भी यथास्थान धर्मके स्थानपर संस्कृति शब्दका ही कर उनमें से किसी भी संस्कृतिके माननेवाले व्यक्ति प्रयोग किया जायगा। तथा वर्गको धर्म के उल्लिखित चिन्ह मौजूद रहनेपर
२ विषयप्रवेश भी वह अधर्मात्मा ही मानना चाहता है और मानता किमी भी संस्कृति के हमें दो पहल देखनेको है और एक ही संस्कृतका उपासक वह व्यक्ति भी मिलते हैं-एक संस्कृतिका आचार-संबन्धी पहलू और उसकी दृष्टि में अधर्मात्मा ही है जो उस संस्कृतिके दूमरा उमका सिद्धान्त-सबन्धी पहलू। नियमों की ढोंगपूर्वक ही सही, आवृत्ति करना जरूरी जिसमें निश्चित उद्देश्यकी पूर्ति के लिये प्राणियों के नहीं समझता है, भले ही वह अपने जीवनको कर्त्तव्यमार्गका विधान पाया जाता है वह संस्कृतिका धर्ममय बनाने का सच्चा प्रयत्न कर रहा हो । इस तरह आचार संबन्धी पहल है जैनसंस्कृति में इसका व्यवस्थाआज प्रत्येक वर्ग और बर्ग के प्रत्येक मानवमें मान- पक चरणानुयोग माना गया है और आधुनिक भाषावताको कलंकित करनेवाले परस्पर विद्वेष, घृणा, ईर्षा प्रयोगकी शैली में इसे हम 'कर्तव्यबाद' कह सकते हैं। और कलह के ददनाक चित्र दिखाई दे रहे हैं।
संस्कृति के सिद्धान्त · रबन्धी पहल में उसके ___ यदि प्रत्येक मानव और प्रत्येक वर्ग धर्मकी (संस्कृतिक) तत्वज्ञान ( पदाथ व्यवस्था ) का समावेश उल्लिखित परिभापाको ध्यान में रखते हुए उसे संस्कृति होता है। जैनमस्कृति में इसके दो विभाग कर दिये हैंका साध्य और संस्कृतिको उसका साधन मान लें तो एक सप्ततत्वमान्यता और दूसरा पडव्यमान्यता। उन्हें यह बात सरलताके साथ समझमें आजायगी सप्ततत्वमान्यतामें जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, कि वही संस्कृति सच्ची और उपादेय हो सकती है संवर, निजरा और मोक्ष इन सान पदार्थोंका और तथा उस संस्कृतिको ही लोकमें जीवित रहनेका अधि- षड्व्य मान्यतामें जीव, पुद्गल, धर्म, अधम, आकाश कार प्राप्त हो सकता है जो मानव जगतको धर्मकी ओर ओर काल इन छह पदार्थों का समावेश किया गया
अपना करा सके और ऐसा होने पर प्रत्येक मानव है । जैनसंस्कृतिमें पहली मान्यताका व्यवस्थापक तथा प्रत्येक वर्ग अपने जीवनको धर्ममय बनाने के लिये करणानुयोग और दूसरी मान्यताका व्यवस्थापक अपनी संस्कृतिको विकारों, पाखण्डों और रूढ़ियोंसे द्रव्यानुयोगको माना गया है। आधुनिक भाषाप्रयोगकी
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अनेकान्त
[वर्ष
शैलीमें करणानुयोगको उपयोगितावाद और द्रव्या- का अस्तित्व प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो सकता हो अथवा नयोगको अस्तित्ववाद ( वास्तविकतावाद) कहना उनके अस्तित्वकी सिद्धि के लिये कोई प्रमाण उचित जान पड़ता है । यद्यपि जन संस्कृतिके शास्त्रीय उपलब्ध न भी हो। व्यवहार में करणानुयोगको आध्यात्मिक पद्धति और दर्शनों में आध्यात्मिकता और आधिभौतिकताका द्रव्यानुयोगको दार्शनिक पद्धति इस प्रकार दोनोंको भेद दिखलानेके लिये वक्त उपयोगितावादको ही अलग २ पद्धति के रूपमें विभक्त किया गया है परन्तु आध्यात्मिकवाद और उक्त अस्तित्ववादको ही आधि मैं अयोगितावाद और अस्तित्ववाद दोनोंको दाश- भौतिकवाद कहना चाहिये क्योंकि आत्मकल्याणको निक पद्धतिसे बाह्य नहीं करना चाहता हैं क्योंकि मैं ध्यान में रखकर पदार्थ प्रतिपादन करने का नाम प्राध्यासमझता हूँ कि भारतवर्ष के मांख्य, वेदान्त, त्मिकवाद और प्रात्मकल्याणकी और लक्ष्य न देते हुए मीमांमा, योग, न्याय और वैशेषिक आदि सभी भूत अर्थात् पदार्थों क अस्तित्वमात्रको स्वीकार करन वैदिक तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक आदि सभी का नाम माधिभौतिकवाद मान लेना मुझे अधिक अवैदिक दर्शनोंका मूलतः विकास उपयोगितावादके संगत प्रत त होता है। जिन विद्वानोंका यह मत है कि आधारपर ही हुआ है इस लिये मेरी मान्यताके समस्त चेतन अचेतन जगतकी सृष्टि अथवा विकास अनुसार करणानुयोगको भी दार्शनिकपद्धति मे बाह्य आत्मास मानना आध्यात्मिकवाद और उपयुक्त जगत नहीं किया जा सकता है।
का सृष्टि अथवा विकास अचेतन अर्थात् जड़ पदार्थ जगत क्या और कैसा है ? जगतमें कितने पदार्थों से मानना आधिभौतिकवाद है उन विद्वानों के साथ का अस्तित्व है ? उन पदार्थोंके कैसे २ विपरिणाम मेरा स्पष्ट मतभेद है। इस मतभेदम भी मेग तात्पर्य होते हैं ? इत्यादि प्रश्नों के आधारपर प्रमाणों द्वारा यह है कि प्राध्यात्मिकवाद और आधिभौतिकबादके पदार्थोंके अस्तित्व और नास्तित्वक विषयमें विचार उनको मान्य अर्थ के अनुसार उन्होंने जो वे करना अथवा पदार्थों के अस्तित्व या नास्तित्वको स्वी- को आध्यात्मिक दर्शन और चार्वाकदर्शनको आधिकार करना अस्तित्ववाद (वास्तविकतावाद ) और भौतिक दर्शन मान लिया है वह ठीक नहीं है। मेग जगतके प्राणी दुःस्वी क्यों है ? वे सुग्बी कैसे हो सकते यह सष्ट मत है और जिसे मैं पहिले लिख चुका हूँ हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर पदार्थोंकी लोक- कि सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेकल्याणोपयोगिताके आधार पर प्रमाण सिद्ध अथवा षिक ये सभी वैदिक दर्शन तथा जैन, वौद्ध और प्रमाणों द्वारा प्रसिद्ध भा पदार्थों को पदार्थ व्यवस्था में चावोक ये सभी अवैदिक दर्शन पूर्वोक्त उपयोगितास्थान देना उपयोगितावाद समझना चाहिये। संक्षेप वादक अधारपर ही प्रादुर्भूत हुए हैं इसलिये ये में पदार्थोके अस्तित्वके बारे में विचार काना अस्तित्व- सभी दर्शन आध्यात्मिकवादके ही अन्तर्गत माने जाने वाद भार पदार्थोंकी उपयोगिताके बारेमें विचार करना चाहिये । उक्त दर्शनों मेंस किमी भी दर्शनका अनउपयोगितावाद कहा जा सकता है। अस्तित्ववादके यायी अपने दर्शन के बारेमें यह आक्षेप सहन करने आधार पर वे सब पदार्थ मान्यताको कोटि में पहुंचते हैं को तैयार नहीं हो सकता है कि उसके दर्शनका जिनका अस्तित्व मात्र प्रमाणों द्वारा सिद्ध होता हो, विकास लोककल्याणके लिये नहीं हुपा है और इसका भले ही वे पदार्थ लोककल्याणके लिये उपयागी सिद्ध भी सबब यह है कि भारतवर्ष सर्वदा धर्मप्रधान देश न हों अथवा उनका लोककल्याणापयोगितासे थोड़ा भी रहा है इसलिये ममस्त भारतीय दर्शनोंका मूल संबन्ध न हो और उपयोगितावादके आधारपर वे आधार उपयोगितावाद मानना ही संगत है। इसका सब पदार्थ मान्यताकी कोटि में स्थान पाते हैं जो लोक विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जारहा हैकल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध होते हों भले ही उन 'लोककल्याण' शब्दमें पठित लोकशब्द 'जगत्का
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जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व और षड्व्य
व्यवस्थापर प्रकाश
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प्राणिसमूह' अर्थमें व्यवहत होता हुआ देखा जाता है धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां इसलिये यहांपर लोककल्याण शब्दसे 'जगतके प्राणि- महाजनो येन गतः स पन्थाः॥" समूहका कल्याण' अर्थ प्राण करना चाहिये । कोई २ इस पद्यमें हमें चार्वाकदर्शनकी आत्माका स्पष्ट दर्शन प्राणियों के दृश्य और अदृश्य दो भेद स्वीकार आभास मिल जाता है। इस पद्यका आशय यह करते हैं और किन्हीं २ दर्शनों में सिर्फ दृश्य प्राणियों है कि “धर्म मनुष्यके कत्तव्यमार्गका नाम है के अस्तित्वको ही स्वीकार किया गया है । दृश्य प्राणी और वह जब लोककल्याण के लिये है तो उसे भी दो तरह के पाये जाते हैं-एक प्रकारके दृश्य अखण्ड एक रूप होना चाहिये, नाना रूप नहीं, प्राणी वे हैं जिनका जीवन प्रायः समष्टि-प्रधान रहता लेकिन धर्मतत्वकी प्रतिपादक श्रुतियां और स्मृतियां है मनुष्य इन्हीं सष्टि-प्रधान जीवनवाले प्राणियों नाना और परस्पर विरोधी अर्थको कहने वाली देखी में गिना गया है क्योंकि मनुष्यों के सभी जीवन व्य- जाती हैं, हमारे धर्मप्रवर्तक महात्माओंने भी धर्मतत्व वहार प्रायः एक दूसरे मनुष्यकी सद्भावना, सहानुभूति का प्रतिपादन एक रूपसे न करके भिन्न भिन्न
और सहायतापर ही निर्भर हैं मनुष्यों के अतिरिक्त रूपसे किया है इस लिये इनके (धर्मप्रवर्तक महाशेष सभी दृश्य प्राणी पशु-पक्षी सप, विच्छू , कीट- त्माओं के) वचनोंको भी सर्वसम्मतप्रमाण मानना पतंग वगैरह व्यष्टि-प्रधान जीवनव'ले प्राणी कहे जा असंभव है ऐसी हालतमें धर्मतत्व साधारण मनुष्यों सकते हैं क्योंकि इनके जीवनव्यवहारोंमें मनष्यों के लिये गूढ़ पहेली बन गया है अर्थात जैसी परस्परकी सद्भावना, सहानभूति और सहायता समझने में हमारे लिये श्रुति, स्मृति या कोई भी धर्मकी आवश्यता प्रायः देखने में नहीं आती है। इस प्रवर्तक सहायक नहीं हो सकता है इस लिये धर्मतत्व व्यष्टिप्रधान जीवनको समानताके कारण ही इन की पहेली में न उलझ करके हमें अपने कर्तव्यमार्ग पशु-पक्षी आदि प्राणियों को जैनदर्शनमें 'तियेग' नाम का निर्णय महापुरुषों के कर्तव्यमागेके आधारपर ही स पुकारा जाता हैं कारण कि 'तियग' शब्दका समा- करते रहना चाहिये तात्पर्य यह है कि महापुरुषोंका नता अर्थमें भी प्रयोग देखा जाता है । सभी भारतीय प्रत्येक कर्तव्य स्वपर कल्याणके लिये ही होता है इस दर्शनकारोंने अपने २ दर्शनके विकास में अपनी २ लिये हमारा जो कर्तव्य स्वपरकल्याण विरोधी मान्यता अनुसार यथायोग्य जगतके इन दृश्य और न हो उसे ही अविवाद रूपसे हमको धर्म समझ अदृश्य प्राणियों के कल्याणका ध्यान अवश्य रक्खा लेना चाहिये।" है। चावाकदर्शनको छोड़कर उल्लिखित सभी भार- मालूम पड़ता है कि चार्वाक दर्शनके आविष्कर्ता तीयदशेनों में प्राणियोंके जन्मान्तररूप परलोकका का अन्तःकरण अवश्य ही धर्म के बारेमें पैदा हुए समर्थन किया गया है इस लिये इन दर्शनोंके लोककल्याणके लिये खतरनाक मतभेदोंसे ऊब चुका
आविष्कर्ताओं की लोककल्याण भावनाके प्रति तो था इस लिये उसने लोकके समक्ष इस बातको रखने संदेह करनेकी गुंजाइश ही नहीं है लेकिन उपलब्ध का प्रयत्न किया था कि जन्मान्तर रूप परलोक, स्वर्ग साहित्यसे जो थोड़ा बहुत चार्वाकदर्शनका हमें और नरक तथा मुक्तिकी चर्चा-जो कि विवादके दिग्दर्शन होता है उससे उसके (चार्वाकदर्शनके ) कारण जनहितकी घातक हो रही है-को छोड़ कर
आविष्काकी भी लोककल्याण भावनाका पता हमें हमें केवल ऐसा मार्ग चुन लेना चाहिये जो जनहित सहज ही में लग जाता है।
का साधक हो सकता है और ऐसे कर्तव्य मार्गमें किसी
को भी विवाद करनेकी कम गुंजाइश रह सकती है। "श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना, "यावज्जीवं सुखी जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः॥"
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अनेकान्त
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यह जो चार्वाक दर्शनकी मान्यता वतलाई जाती होगा कारणकि हम पहले बतला आये हैं कि मनुष्यका है वह कुछ भ्रममूलक जान पड़ती है अर्थात यह उन जीवन परस्परकी सद्भावना, महानुभूति और सहायता लोगोंका चार्वाक दर्शनके बारेमें भाक्षेप है जो के आधारपर ही सुम्बी हो सकता है। यदि एक मनुष्य सांप्रदायिक विद्वेषके कारण चार्वाकदर्शनको सहन नहीं को अपना जीवन सुखी बनाने के लिये संपूर्ण साधन कर सकते थे।
उपलब्ध हैं और दूसरा उसका पड़ोसी मनुष्य चार __समस्त दर्शनों में बीजरूपसे इस उपयोगितावाद
दिनसे भूग्वा पढ़ा हुआ है तो ऐसी हालतमें या तो को स्वोकार लेने पर ये सभी दर्शन जो एक दूसरेके
पहिले व्यक्तिको दृमरे व्यक्तिके बारेमें सहायताके रूप अत्यन्त विरोधी मालूम पड़ रहे हैं ऐसा न होकर
में अपना कोई न कोई कर्तव्य निश्चित करना होगा अत्यन्त निकटतम मित्रों के समान दिखने लगेंगे अर्थात अन्यथा नियमस दूसरा व्यक्ति पहिले व्यक्तिके सुम्बी उक्त प्रकारसे चार्वाक दर्शन में छिपे हुए उपयोगितावाद
जीवनको ठेस पहुंचानेका निमित्त बन जायगा । के रहस्यको समझ लेनेपर कौन कह सकता है कि तात्पर्य यह है कि हमें परलोककी मान्यतासे अच्छे उमका (चार्वाकदर्शनका ) परलोकादिके बारेमें दसरे कृत्य करनेकी जितनी प्रेरणा मिल सकती है उससे भी दर्शनों के साथ जो मतभेद है वह खतरनाक है क्यों कहीं अधिक प्रेरणा वर्तमान जीवनको सखा बनानेकी कि जहाँ दूसरे दर्शन परलोकादिको आधार मान कर आकांक्षासे मिलती है, चार्वाकदर्शनका अभिप्राय हमें मनुष्योचित कर्तव्यमार्ग पर चलनेकी प्रेरणा करते इतना ही है। हैं वहाँ चार्वाक दर्शन सिर्फ वर्तमान जीवनको सुखी बौद्धोंके क्षणिकवाद और ईश्वरकर्तृत्ववादियों के बनाने के उद्देश्यसे ही हमें मानबोधित कर्तव्य मार्गपर ईश्वर कर्तृत्ववादमें भी यही उपयोगितावादका रहस्य चलनेकी प्रेरणा करता है। पर्वाकदर्शनकी इस मान्यता छिपा हुआ है। बौद्धदर्शनमें एक वाक्य पाया जाता का दूसरे दर्शनोंकी मान्यताके साथ समानतामें हेतु है-“वस्तुनि क्षणिकत्वपरिकल्पना आत्मबुद्धिनिरायह है कि परलोकादिके अस्तित्वको स्वीकार करने के साथम" अथात् पदार्थों में जगत्के प्राणियोंकि मनुबाद भी सभी दर्शनकारोंको इस वैज्ञानिक सिद्धान्त राग, द्वष और मोहको रोकने के लिये ही बौद्धों पर थाना पड़ता है कि "मनुष्य अपने वर्तमान जीवन ने पदोंकी अस्थिरताका सिद्धान्त स्वीकार किया है। में अच्छे कृत्य करके ही परलोकमें सुखी हो सकता इसी प्रकार जगतका कर्ता अनादि-निधन एक ईश्वरको है या स्वर्ग पा सकता है।" इस लिये चर्वाक मतका म न लेनेसे संस रके बहुजन समाजको अपने जीवन अनुयायी यदि अपने बर्तमान जीवनमें अच्छे कृत्य के सुधारमें काफी प्रेरणा मिल सकती है। तात्पर्य य करता है तो परलोक या स्वर्गके अस्तित्वको न मानने है कि एक व्यक्ति पदार्थोंकी क्षणभंगुरता स्वीकार करके मात्रसे उसे परलोकमें सुख या स्वर्ग पानेसे कौन रोक उनम विरक्त होकर यदि आर कल्याणकी खोज कर सकता है अन्यथा इसी तरह नरकका अस्तित्व न सकता है और दूसरा व्यक्ति ईश्वरको कर्ता धर्ता माननेके सबब पाप करनेपर भी उसका नरकमें जाना मान करके उसके भयसे यदि अनर्थोंसे बच सकता है कैसे संभव हो सकेगा? तात्पर्य यह है कि एक प्राणी तो इस तरह उन दोनों व्यक्तियों के लिये क्षणिकत्वनरकके मस्तित्वको न मानते हुए भी बुरे कृत्य करके वाद और ईश्वरकर्तृत्ववाद दोनोंकी उपयोगिता स्वयं यदि नरक जा सकता है तो दूसरा प्राणी स्वर्गके सिद्ध हो जाती है । इस लिये इन दोनों मान्यताओं के अस्तित्वको न मानते हुए अच्छे कृत्य करके स्वर्ग भी औचित्यके बारेमें “पदार्थ क्षणिक हो सकता है या जा सकता है। परलोक तथा स्वर्गादिके अस्तित्वको नहीं ? जगत्का कर्ता ईश्वर है या नहीं ?" इत्यादि न मानने वाला व्यक्ति अच्छे कृत्य कर ही नहीं सकता प्रश्नोंके आधार पर विचार न करके "क्षणिकत्ववाद है यह बात कोई भी विवेकी व्यक्ति माननेको तैयार न अथवा ईश्वरकर्तृत्व लोककल्याणके लिये उपयोगी
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सिद्ध हो सकते हैं या नहीं ?" इत्यादि प्रश्नों के आधार सुख-दुःकी परंपरारूप संसारका सर्वथा विच्छेद पर ही विचार करना चाहिये।
स्वरूप निःश्रेयसका स्थान मुक्ति इन तत्वोंकी मान्यता माँख्य और वेदान्तदर्शनोंकी पदार्थमान्यतामें नहीं है इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा उपयोगितावादको स्पष्ट झलक दिखाई देती है-इसका प्राणियोंके और विशेषकर मानवसमाजके वर्तमान स्पष्टीकरण 'पद्रव्यमान्यता के प्रकरण में किया जायगा। जीवनकी सुख-शान्तिको लक्ष्य करके ही निर्धारित ___ मीमांसादर्शनका भी आधार मनुष्योंको की गयी है और इसी लोककल्याणको ध्यान में रखकर स्वर्ग प्राप्तिके उद्देश्यसे यागादि कार्यों में प्रवृत्त कराने के ही वहाँ पदार्थोंकी व्यवस्थाको स्थान दिया गया रूप उपयागितावाद ही है, तथा जैनदर्शनमें तो उप- है। मीमांसादर्शनमें यद्यपि प्राणियों के जन्म-मरण योगितावादके आधारपर सप्ततत्वमान्यता और अस्ति- अथवा सुख-दुःखकी परंपरारूप संसारका मर्वथा त्ववादके आधारपर षड्द्रव्यमान्यता इस प्रकार विच्छेद स्वरूप निःश्रेयस और उसका स्थान मुक्ति इन पदार्थव्यवस्थाको ही अलग २ दो भागों में विभक्त तत्वोंकी मान्यता नहीं है वहाँपर स्वर्गसुखको ही कर दिया गया है।
निःश्रेयम पदका और स्वर्गको ही मुक्तिपदका वाच्य इस तरहसे समस्त भारतीयदा
स्वीकार किया गया है फिर भी प्राणियों का जन्मान्तरउपयोगितावादके विद्यमान रहते हुए भी अफ़सोस है. रूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुग्वप्राप्तिका कि धीरे धीरे सभी दर्शन उपयोगितावादके मूलभूत स्थान स्वर्ग और पापका फल परलोकमें दुःश्वप्राप्तिका आधारसे निकलकर अस्तित्ववादके उदर में समा गये स्थान नरक इन तत्वोंको वहाँ अवश्य स्वीकार किया गया अर्थात् प्रत्येक दर्शनमें अपनी व मरे दर्शनकी है इसलिये वहाँपर लोककल्याणकी सीमा प्राणियों के प्रत्येक मान्यताके विषयमें 'अमुक मान्यता लोक वर्तमान (ऐहिक) जीवनके साथ २ परलोककी सुखकल्याणके लिये उपयोगी है या नहीं?' इस दृष्टिसे शान्तिको ध्यानमें रखकर निर्धारित की गई है और इसी विचार न होकर 'अमुक मान्यता संभव हो सकती है लोककल्याणको रखकरके ही वहां पदार्थ-व्यवस्थाको या नहीं ? इस दृष्टिसे विचार होने लग गया और स्थान दिया गया है। चार्वाक और मीमांसा दर्शनों के इसका यह परिणाम हुआ कि सभी दर्शकारोंने अतिरिक्त शेष उल्लिखित वैदिक और अवैदिक सभी अपने २ दर्शनोंके भीतर उपयोगिता और अनुप- दर्शनोंमें उक्त प्रकार के परलोक, स्वर्ग और नरककी
की मोर ध्यान न देते हए अपनी मान्यताको मान्यताके साथ २ प्राणियों के जन्म-मरण अथवा संभव और सत्य तथा दसरे दर्शनकारों की मान्यताको सुख-दुःखकी परंपरा रूप संसारका सर्वथा विच्छेद असंभव और असत्य सिद्ध करनेका दुराग्रहपूर्ण एवं स्वरूप निःश्रेयस और नि: यमका स्थान मुक्तिको परस्पर कलह पैदा करने वाला ही प्रयास किया है। मान्यताको भी स्थान प्राप्त हे इमलिये इन दर्शनों में ३ सप्ततत्त्व
लोककल्याणकी सीमा प्राणियोंके ऐहिक और पारऊपर बतलाये गये दर्शनों में परलोक, स्वर्ग, लौकिक सुख-शान्तिके साथ २ उक्त निःश्रेयस और नरक और मुक्तिकी मान्यताके विषयमें जो मत मुक्तिको भी ध्यान में रखते हुए निर्धारित की गयी है पाया जाता है उसके आधारपर उन दर्शनों में लोक- और इसी लोककल्याण के आधार पर ही इन दर्शनोंमें कल्याणकी सीमा भी यथासंभव भिन्न २ प्रकारसे पदाथेठरवस्थाको स्वीकार किया गया है। निश्चित की गयी है । चार्वाकदर्शन में प्राणियोंका तात्पर्य यह है कि चार्वाक दर्शनको छोड़कर जन्मान्तर रूप परलोक, पुण्यका फल परलोकमें सुख परलोकको माननेवाले मीमांमादशेनमें और परलोक प्राप्तिका स्थान स्वगे, पापका फल परलोकमें दुःखप्राप्ति के साथ २ मुक्तिको भी माननेवाले सांख्य, वेदान्त, का स्थान नरक और प्राणियों के जन्म-मरण अथवा योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध दर्शनों में
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अनेकान्त
जगत्के प्रत्येक प्राणी के शरीर में स्वतंत्र और शरीर के साथ घुल-मिल करके रहनेवाला एक चित्शक्तिfafaष्ट are eater faया गया है । यद्यपि सर्वसाधारण मनुष्योंके लिये इसका प्रत्यक्ष नहीं होता है और न ऐसा कोई विशिष्ट पुरुष ही वर्तमान में मौजूद है जिसको इसका प्रत्यक्ष होरहा हो परन्तु इतना अवश्य है कि प्रत्येक प्राणी में दूसरे प्राणियों की प्रेरणा के बिना ही जगत्के पदार्थोंके प्रति राग, द्वेष या मोह करना अथवा विरक्ति अर्थात समताभाव रखना, तथा हर्पे करना, विषाद करना दूसरे प्राणियों
का अपकार करना, पश्चात्ताप करना, परोपकार करना, हंसना, रोना, सोचना, समझना, सुनना, देखना, सूंघना, खाना, पीना बोलना, बैठना, चलना, काम करना, थक जाना, विश्रान्ति लेना, पुनः काममें जुट जाना, सोना, जागना और पैदा होकर छोटेसे बड़ा होना इत्यादि यथासंभव जो विशिष्ट व्यापार पाये जाते हैं वे सब व्यापार प्राणिवर्गको लकड़ी, मट्टी, पत्थर, मकान, कपड़ा, बर्तन, कुर्सी, टेबुल, सोना, चांदी, लोहा, पीतल, घंटी, घड़ी, ग्रामोफोन, रेडियो, सिनेमाके चित्र, मोटर, रेलगाड़ी, टेंक, हवाई जहाज और उड़नयम आदि व्यापारशून्य तथा प्राणियोंकी प्रेरणा पाकर व्यापार करनेवाले पदार्थोंसे पृथक कर देते हैं और इन व्यापारोंके आधारपर ही उक्त दर्शनों में यह स्वीकार कर लिया गया है कि प्रत्येक प्राणी के शरीर में शरीर से पृथक एक एक ऐसा तत्व भी वद्यमान है जिसकी प्रेरणा से ही प्रत्येक प्राणी में उल्लिखित विशिष्ट व्यापार हुआ करते हैं इस तत्वको सभी दर्शन, चित्शक्तिविशिष्ट स्वीकार करते हैं तथा अपने अपने अभिप्रायके अनुसार सभी दर्शन इसको पुरुष, आत्मा. जीव, जीवात्मा ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य अलग नामों से उल्लेख करते हैं ।
प्रत्येक प्राणीके शरीर में एक एक चित्शक्तिविशिष्ट तत्व अस्तित्वकी समान स्वीकृति रहने हुए भी उक्त दर्शनों में से कोई कोई दर्शन तो इन सभी वितृशक्तिविशिष्ट तत्वोंको परस्पर मूलतः ही पृथक करते हैं और कोई कोई ईश्वर या परब्रह्मके एक एक
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अंशके रूपमें इन्हें पृथकू र स्वीकार करते हैं अर्थात् कोई कोई दर्शन उक्त चित्शक्तिविशिष्ट तत्वों की स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करते हैं अर्थात कोई दर्शन उनकी नित्य और व्यापक ईश्वर या परब्रह्म से उत्पत्ति स्वीकार करके एक एक चित्शक्तिविशिष्ट तत्वको उक्त ईश्वर या परब्रह्न का एक एक अंश मानते हैं उन्हें मूलतः पृथक् पृथक नहीं मानते हैं । सांख्य, मीमांसा आदि कुछ दर्शनो के साथ २ जैन दर्शन भी संपूर्ण चित्शक्तिविशिष्ट तत्वोंकी स्वतंत्र अनादि सत्ता स्वीकार करके उन्हें परस्पर भी पृथकू २ ही मानना है ।
उक्त प्रकारस चित्शक्तिविशिष्टतत्वकी सत्ताको स्वीकार करनेवाले सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध ये सभी दर्शन प्राणियों को समय समयपर होनेवाले सुख तथा दुःख का भोक्ता उन प्राणियों के अपने २ शरीर में रहनेवाले चितशक्तिविशिष्टतत्वको ही स्वीकार करते हैं सभी दर्शनोंकी इस समान मूलमान्यता के आधारपर उनमें (सभी दर्शनों में ) समानरूपसे निम्नलिखित सिद्धान्त स्थिर होजाते हैं
(१) प्रत्येक प्राणी के अपने २ शरीर में मौजूद तथा भिन्न २ दर्शनों में पुरुष, आत्मा, जीव, जीवात्मा, ईश्वरांश या परब्रह्मांश आदि यथायोग्य भिन्न २ नाम से पुकारे जानेवाले प्रत्येक विनशक्तिविशिष्टतत्व का अपने २ शरीर के साथ आबद्ध होने का कोई न कोई कारण अवश्य है ।
(२) जब कि प्राणियोंके उल्लिखित विशिष्ट व्यापारोंके प्रादुर्भाव और सर्वथा विच्छेदके आधार शरीर के साथ प्राप्त हुई बद्धताका जन्म और मरण के पर प्रत्येक चित्शक्तिविशिष्ट तत्वकी अपने २ वर्तमान रूपमें आदि तथा अन्त देखा जाता है तो मानना पड़ता है कि ये सभी चितशक्तिविशिष्ट तत्व सीमित काल तक ही अपने २ वर्तमान शरीर में भावद्ध रहते हैं ऐसी हालत में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अपने २ वर्तमान शरीर के साथ आवद्ध होनेसे पहिले ये चित्शक्तिविशिष्टतत्व किस रूप में विद्यमान रहे होंगे ? यदि कहा जाय कि अपने २ वर्तमान शरीर के
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साथ आबद्ध होनेसे पहिले वे सभी चिनशक्तिविशिष्ट है। इनमें से योग न्याय और वैशेषिक दशनों में माना तत्व शरीरके बन्धनसे रहित विल्कुल स्वतंत्र थे तो गया ईश्वर उनकी मान्यताके अनुसार चित्शक्तिप्रश्न उठता है कि इन्हें अपने अपने वर्तमान शरीरके विशिष्टतत्वोंके साथ असंबद्ध रहते हुए भी उनके मन, साथ आबद्ध होनेका कारण अकस्मात् कैसे प्राप्त हो वचन और शरीर संवन्धी पुण्य एवं पापरूप कृत्यों के गया ? इस प्रश्नका उचित समाधान न मिल सकनेके आधारपर सुख तथा दुःखके भोगमें सहायक शरीरके कारण चितशक्तिविशिष्टतत्वकी सत्ताको स्वीकार करने साथ उन्हें आबद्ध करता रहता है। शेष सांख्य आदि वाले उक्त सभी दर्शनों में यह बात स्वीकार की गयी दर्शनोंमें चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरबद्धतामें है कि अपने अपने वर्तमान शरीर के साथ आबद्ध माने गये प्रकृति आदि कारण उन चिनशक्तिविशिष्टहोनेसे पूर्व भी ये सभी चितशक्तिविशिष्टतत्व किसी तत्वोंके साथ किसी न किसी रूपमें संवद्ध रहते हुए दुसरे अपने २ शरीरके माथ आबद्ध रहे होंगे और ही उनके मन, वचन और शरीर संबन्धी पुण्य एवं उमसे भी पूर्व किसी दूसरे २ अपने २ शरीरके साथ पापरूप कृत्यों के आधार पर सुख तथा दुःखके भोगमें
आबद्ध रहे होंगे इस प्रकार सभी चितशक्तिविशिष्ट- सहायक शरीरके साथ नन्हें आबद्ध करते रहते हैं। तत्वोंकी शरीर वद्धताकी यह पूर्वपरंपरा इनकी स्वतंत्र इसी प्रकार चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरवद्धताकी अनादि सत्ता स्वीकार करनेवाले दर्शनों की अपेक्षा जिस पूर्वपरंपगका नल्लेख पहले किया जा चुका है अनादिकाल तक और ईश्वर या परमब्रह्मसे इनकी उसकी संगतिके लिये योग, न्याय और वैशेषिक उत्पत्ति स्वीकार करनेवाले दर्शनोंकी अपेक्षा ईश्वर दर्शनों में ईश्वरको शाश्वत ( अनादि और अनिधन) या परमब्रह्मसे जबसे इनकी उत्पत्ति स्वीकार की गयी मान लिया गया है तथा एक जैनदर्शनको छोड़कर हे तब तक माननी पड़ती है।
शेष सांख्य आदि सभी दर्शनों में चिनशक्तिविशिष्ट(३) चितशक्तिविशिष्टतत्वों की शरीरबद्धताका तत्वोंके माथ प्रकृति आदिके संबन्धको यथायोग्य कारण उनका स्वभाव है-यह मानना असंगत है अनादि अथवा ईश्वर या परमब्रह्मसे उनकी (चितशक्तिकारण कि एक तो स्वभाव परतंत्रताका कारण ही विशिष्टतत्वोंकी) उत्पत्ति होने के ममयसे स्वीकार किया नहीं हो सकता है। दूसरे, स्वभावसे प्राप्त हुई परतंत्रता गया है । जैनदर्शन में चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरकी हालतमें उन्हें दुःखानुभवन नहीं होना चाहिये; बद्धतामें कारणभून कर्म के संबन्धको तो मादि स्वीलेकिन दुःस्वानुभवन होता है इस लिये सभी चित्- कार किया गया है परंतु उनकी = - शरीरबद्धताकी शक्तिविशिष्टतत्व की शरीरबद्धताका कारण स्वभावसे पूर्वोक्त अविच्छिन्न परम्पराकी संगतिके लिये वहांपर भिन्न किमी दूसरी चीजको ही मानना युक्तियुक्त जान (जैनदर्शनमें ) शरीरसम्बंधकी अविच्छिन्न अनादि पड़ता है और इसी लिये सांख्यदर्शनमें त्रिगुणात्मक परम्पराकी तरह उसमें कारगा भून कमसम्बधकी (मत्वरजस्तमोगुणात्मक) अचित प्रकृतिको वेदान्त- भी अविच्छिन्न अनादि परंपराको स्वीकार किया दशनमें असत कही जानेवाली विद्याको, मीमाँसा- गया है और इसका आशय यह है कि यदि दर्शनमें चिन्शक्तिविशिष्ट तत्वों में विद्यमान अशुद्धि चितशक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरबद्धतामें कारणभूत (दोष) को, ईश्वरकर्तृत्ववादी योग, न्याय और वैशे- उक्त कर्मसंबन्धको अनादि माना जायगा तो उसे षिक दर्शनोंमें इच्छा, ज्ञान और कृति शक्तित्रय कर्मसम्बंधको कारण रहित स्वाभाविक ही मानना विशिष्ट ईश्वरको, जैनदर्शनमें चित कर्म (पृथ्वी, होगा, लेकिन ऐसा मानना इस लिये असंगत है कि जल, अग्नि, वायु आदि द्रव्योंका सजातीय पौद्ल क इस तरहसे प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुख-दुःख वस्तुविशेष) को और बौद्धदर्शनमें विपरीताभिनिवेश की परंपरास्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेदके अभाव स्वरूप अविद्याको उसका कारण स्वीकार किया गया का प्रसंग प्राप्त होगा जो कि साँख्य, वेदान्त, योग
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अनेकान्त
न्याय, वैशेषिक, जैन और बौद्ध इन दर्शनोंमें से किसी भी दर्शनको अभीष्ट नहीं है। मीमांसादर्शन में जो प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुःख दुग्वकी परंपरा रूप संसारका सर्वथा विच्छेद नहीं स्वीकार किया गया है उसका सच यही है कि वह चित्शक्तिविशिष्ट तत्वोंमें विद्यमान अशुद्धिके संबन्धको अनादि होनेके सबब कारण रहित स्वाभाविक स्वीकार करता है । परन्तु जो दर्शन प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुखदुःखकी परंपरा स्वरूप संसारका सर्वथा विच्छेद स्वीकार करते हैं उन्हें चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंकी शरीरवद्धतामें कारणरूप से स्वीकृत पदार्थ के सम्बंधको कारणसहित अस्वाभाविक ही मानना होगा और ऐसा तभी माना जा सकता है जब कि उस सम्बंधको सादि माना जायगा । यही सबब है कि जैनदर्शन में मान्य प्राणियों के जन्म-मरण अथवा सुख-दुःखकी परम्परा स्वरूप संसारके सर्वथा विच्छेद की संगति के लिये वहां पर ( जैनदर्शनमें ) शरीरसम्बंध में कारणभूत कर्मके सम्बंध को तो सादि माना गया है और शरीर सम्बंध की पूर्वोक्त अनादि परम्पराकी संगतिके लिये उस कर्म सम्बंध की भी अविच्छिन्न परंपराको अनादि स्वीकार किया गया है। इसकी व्यवस्था जैनदर्शन में निम्न प्रकार बतलायी गयी है
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उसी प्रकार अपने मन, वचन और शरीर सम्बंधी पुण्य एवं पापरूप कृत्यों द्वारा गरम हुआ ( प्रभावित ) उक्त चित्शक्तिविशिष्टतत्व समस्त लोकमें व्याप्त कार्माणवर्गणा के बीच में पड़जानेके कारण चारों ओरसे उस कार्मारण वर्गणाके यथायोग्य परमाणु पुरंजोंको खींच लेत है और इस तरहसे कार्माण वर्गणा के जितने परमाणुपुज जब तक चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंके साथ चिपटे रहते हैं तब तक उन्हें जैनदर्शन में 'कर्म' नामसे पुकारा जाता है तथा इस कर्म से प्रभावित होकरके ही प्रत्येक प्राणी अपने मन, वचन और शरीर द्वारा पुण्य एवं पापरूप कृत्य किया करता है अर्थात् प्राणियोंकी उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्योंमें प्रवृत्ति कराने वाले ये कर्म ही हैं। प्राणियों की पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति कर देने के बाद इन कर्मोंका प्रभाव नष्ट हो जाता है और ये उस हालत में चितशक्तिविशिष्ट तत्वोंसे पृथक होकर अपना वही पुराना कार्माणवर्गगाका रूप अथवा पृथ्वी आदि स्वरूप दूसरा और कोई पौद्गलिक रूप धारण कर लेते हैं ।
जैनदर्शन में कार्माण वर्गणा नामका चित्शक्ति से रहित तथा रूप, रस गंध और स्पर्श गुणोंसे युक्त
के कारण पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्वोंका सजातीय एक पौद्गलिक तत्व स्वीकार किया गया है । यह तत्व बहुत ही सूक्ष्म है और पृथ्वी आदि तत्वोंकी ही तरह नाना परमाणुपुंजों में विभक्त होकर समस्तलोकाकाशमें सर्वदा अवस्थित रहता है। प्राणियों को मन, वचन और शरीर के जरिये पुण्य एवं पापरूप कार्यों में जो प्रवृत्ति देखी जाती है उस प्रवृत्तिसे उस कार्मार्गणा यथायोग्य बहुतसे परमाणुओं के पुंजके पुंज उन प्राणियों के शरीर में रहने वाले चित् शक्तिविशिष्ट तत्वोंके साथ चिपट जाते हैं अर्थात् efore तपा हुआ लोहेका गोला पानीके बीच में रङ्ग जाने से जिस प्रकार चारों ओरसे पानीको खींचता है
siपर यह खासतौर से ध्यान में रखने लायक बात है कि इन कर्मों के प्रभावसे प्राणियोंकी जो उक्त पुण्य एवं पापरूप कार्यों में प्रवृत्ति हुआ करती है उस प्रवृत्तिसे उन प्राणियों के अपने २ शरीर में रहने वाले चित्शक्तिविशिष्टतत्व कार्माणवर्गणा के दूसरे यथायोग्य परमाणुपु जोंके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं और इस तरहसे चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंकी पूर्वोक्त शरीरसम्बंधपरंपराकी तरह उसमें कारणभूत कमसम्बंधकी परंपरा भी अनादिकाल से अविच्छिन्नरूप में चली भारही है। अर्थात् जिस प्रकार वृक्षसं बीज और बीज से वृक्षकी उत्पत्ति होते हुए भी उनकी यह परंपरा अनादिकाल से अविच्छिन्न रूपमें चली आ रही है उसी प्रकार कर्मसम्बंध से चित्शक्तिविशिष्टतत्वोंका शरीरके साथ सम्बंध होता है इस संबद्धशरीरकी सहायता से प्राणी पुण्य एवं पाप रूप कार्य किया करते हैं उन कार्योंसे उनके साथ पुनः कर्मोंका बन्ध हो जाता है और कर्मोंका यह
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किरण ४-५]
जैनसंस्कृतिको सप्ततत्त्व और षड्द्रव्य व्यवस्थापर प्रकाश
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अनादि काल मे अविच्छिन्न रूपमें चली जा रही है। परलोक और मुक्ति दोनोंकी मान्यताको स्थान प्राप्त है।
इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर के जैन संस्कृतिकी जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, साथ चितशक्ति विशिष्ट तत्वोंके आबद्ध होनेका संवर, निर्जरा और मोक्षस्वरूप सप्ततत्ववाली जिस कारण सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय, वैशेषिक पदार्थमान्यताका उल्लेख लेख में किया गया है उसमें जैन और बौद्ध इन सभी दर्शनोंमें स्वरूप तथा उक्त दर्शनोंको स्वीकृत इन पाँचों तत्वोंका ही समावेश कारणताके प्रकारकी अपेक्षा यपि यथायोग्य सत्- किया गया है अथोत सातत्वोंमें स्वीकृत प्रथम जीव चित्शक्तिविशिष्ट तत्वोंके आवद्ध होनेका कारण तत्वसे चितशक्तिविशिष्ट तत्वका अर्थ लिया गया है, अतिरिक्त पदार्थ है।
द्वितीय अजीव तत्वसे उक्त कामांण वर्गणास्वरूप (४) उल्लिखित तीन सिद्धान्तोंके साथ २ एक चौथा
अजीव तत्वकी सम्बंधपरम्परारूप मृल संसारको जो सिद्धान्त इन दर्शनों में स्थिर होता है वह यह है
चौथे बन्ध तत्वमें समाविष्ट करके चित्रशक्तिविशिष्ठ कि जब चितशक्तिविशिष्ट तत्वोंका शरीर के साथ
. तत्वके शरीरसम्बन्ध परंपरा रूप अथवा सुख दुःखसंबद्ध होना उनमें अतिरिक्त कारणके अधीन है तो
परंपर.रूप संसारको इसीका विस्तार स्वीकार किया इस शरीरसंबंधपरंपराका उक्त कारण के साथ साथ
गया है। तीसरे आस्रवतत्वम उक्त जीव और अजीव मलतः विच्छेद भी किया जा सकता है । परन्तु इस बीindiTIFU मल संसार में कारगा चौथे सिद्धान्तको मीमांसादर्शनमें नहीं स्वीकार किया .
भूत प्राणियों के मन वचन और शरीर सम्बंधी गया है क्योंकि पहिले बतलाया जा चुका है कि
पुण्य एवं पापरूप कार्योका बोध होता है। मीमांसा दर्शनमें शरीरसंबंधमें कारणभूत अशुद्धिके।
तत्वव्यवस्था में बन्ध तत्वको चौथा और श्राव संबंधको अनादि होनेके सबब अकारण स्वीकार
तत्वको तीसरा स्थान देनेका मतलब यह है कि बन्ध - किया गया है इसलिये उसकी मान्यताके अनुसार इस
रूप संसारका कारण मानव है इसलिये कारणरूप संबंधका मर्वथा विच्छेद होना असंभव है। इन सिद्धान्तोंके फलित अर्थ के रूपमें निम्न
श्रावका उल्लेख कार्यरूप बन्धके पहिले करना ही लिखित पाँच तत्व कायम किये जा सकते हैं
चाहिये और चूंकि इस तत्व व्यवस्थाका लक्ष्य प्राणियों (१) नाना चित्रशक्तिविशिष्ट तत्व, (२) इनका शरीर
का कल्याण ही माना गया है तथा प्राणियोंकी हीन संबंध परंपरा अथवा सुख-दुःख परंपगरूप संसार,
और उत्तम अवस्थाओंका ही इस तत्व व्यवस्थासे हमें
बोध होता है इसलिये तत्वव्यवस्थाका प्रधान आधार (३) संसारका कारण, (४) संसारका सर्वथा विच्छेद
होने के कारण इस तत्वव्यवस्था में जीवतत्वको पहिला स्वरूपमुक्ति और (५) मुक्तिका कारण । चार्वाक दर्शन में इन पाँचों तत्वोंको स्वीकार नहीं
स्थान दिया गया है। जीव तत्वके बाद दूसरा स्थान किया गया है क्योंकि ये पाँचों तत्व परलोक तथा अन
अजीवतत्वको देनेका सबब यह है कि जीवतत्वके मुत्तिकी मान्यतासे ही सम्बंध रखते हैं । मीमांसा साथ इसके (अजीव तत्वके) संयोग और वियोग दर्शन में इनमेंसे आदिके तीन तत्व स्वीकृत । है। क्योंकि आदिके तीन तत्व परलोककी मान्यतासे तत्वोंमें संगृहीत किया गया है। सम्बंध रखते हैं और मीमांसा दर्शन में परलोककी सातवें मोक्षतत्वसे कर्मसंबन्ध परंपरासे लेकर मान्यताको स्थान प्राप्त है परन्तु वहाँ पर (मीमांसा शरीर संबंन्ध परंपरा अथवा सुख-दुःखपरंपरारूप दर्शनमें ) भी मुक्तिकी मान्यताको स्थान प्राप्त न होने संसारका सवेथा विच्छेद अर्थ लिया गया है । के कारण अन्तके दो तत्वोंको नहीं स्वीकार किया चूंकि प्राणियोंकी यह अन्तिम प्राप्य और अविनाशी गया है । न्याय और वैशेषिक तथा वौद्धदर्शनमें इन अवस्था है इसलिये इसको तत्वव्यवस्था में अन्तिम पाँचों तत्वोंको स्वीकार किया गया,क्योंकि इन दर्शनोंमें सातवाँ स्थान दिया गया है।
न तत्व स्वीकृत किये गये तथा संयोग और जिसे
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अनेकान्त
[वर्ष ८
पाँचवें संवरतत्वका अर्थ संसार के कारणभूत कारण उनका भिन्न २ दृष्टिकोण ही है । तात्पर्य यह है पात्रबका रोकना भोर छठे मिजंरातत्वका अर्थ संबद्ध कि सारभूत-मुख्य-मलभत या प्रयोजनमत पदार्थीको कों अर्थात संमारको समूल नष्ट करनेका प्रयत्न तत्वनामसे पुकारा जाता है। यही सच है कि जैन करना स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि जब दर्शनके दृष्टिकोण के मुताविक जगतमें नाना तरह के पूर्वोक्त संसारके आत्यन्तिक विनाशका नाम मुक्ति है दूसरे २ पदार्थोंका अस्तित्व रहते हुए भी तत्व शब्दके तो इस प्रकारकी मुक्तिकी प्राप्ति के लिये हमें संसार इसी अभिप्रायक गनमें रखकर प्राणियों के प्रात्यके कारणोंका नाश करके संसारके नाश करने न्तिक सुख (मुक्ति) की प्राप्ति में जिनका समझ लेना का प्रयत्न करना होगा, संवर और निर्जरा इन दोनों प्रयोजनभूत मान लिया गया है उन पूर्वोक्त चित्तत्वोंकी मान्यताका प्रयोजन यही है और चूकि इन शक्तिविशिष्टतत्व स्वरूप जीव कार्माण वणास्वरूप दोनों हत्वोंको सातवें मोक्ष तत्वकी प्राप्तिमें कारण अजीव तथा आस्रव और वियोगके कारणस्वरूप संवर माना गया है इसलिये तत्वव्यवस्थामें मोक्ष तत्वके और निर्जराको ही सप्ततत्वमयपदार्थव्यवस्था में पहिले ही इन दोनों तत्वोंको स्थान दिया गया है। स्थान दिया गया है। संवरको पाँचवां और निर्जराको छठा स्थान देनेका साँख्य दर्शनके दृष्टिकोण के अनुसार मुक्तिप्राप्ति मतलब यह है कि जिस प्रकार पानीसे भरी हुई नाव के लिये चितशक्तिविशिष्टतत्वस्वरूप पुरुष तथा इनकी को इवनेसे बचाने के लिये नावका बुद्धिमान मालिक शरीरसंबंधपरंपरारूप संसारकी मूलकरण स्वरूप पहिले तो पानी आने में कारणभूत नावके छिद्रको बंद प्रकृति और इन दोनोंके संयोगसे होनेवाले बुद्धि करता है और तब बादमें भरे हुए पानीको नावसे आदि पंचमहाभूत पर्यन्त प्रकृतिविकारोंको समझ बाहर निकालने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार मुक्तिके लेना ही जरूरी या पर्याप्त मान लिया गया है इसलिये इच्छक प्राणीको पहिले तो कर्मबन्ध में कारणभूत सांख्यदर्शनमें नाना चितशक्तिविशिष्ट तत्व, इनका आस्रवको रोकना चाहिये जिससे कि कर्मबन्धकी शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुख परंपरारूप भागामी परंपरा रुक जाय और तब बादमें वद्ध कमों संसारका कारण, संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप को नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिये।
मुक्ति और मुक्तिका कारण इन पाँचों तत्वोंकी मान्यता ___ यहांपर इतना और समझ लेना चाहिये कि पूर्ण रहते हुए भी उसकी (सांख्यदर्शनकी) पदार्थ व्यवस्था संवर होजानेके बाद ही निजराका प्रारम्भ नहीं माना में सिर्फ पुरुष, प्रकृति और बुद्धि आदि तेवीस प्रकृति गया है बल्कि जितने अंशोंमें संवर होता जाता है विकारोंकोही स्थान दिया गया है। उतने अंशों में निर्जराका प्रारम्भ भी होता जाता है जैनदर्शनकी सप्ततत्व स्वरूप पदार्थव्यवस्थाके साथ इस तरह पानी पानेके छिद्रको बंद करने आर भरे यदि सांख्यदर्शनकी पच्चीस तत्वस्वरूप पदार्थव्यस्थाका हुए पानीको धीरे २ बाहर निकालनेसे जिस प्रकार स्थूल रूपसे समन्वय किया जाय तो कहा जा सकता नाव पानी रहित हो जाती है उसी प्रकार कर्मबन्धके हे कि जैनदर्शनके जीवतत्वके स्थानपर सांख्पदशेनमें कारणोंको नष्ट करने और बद्ध कर्मोंका धीरे २ पुरुषतत्वको और जैनदशनके अजीव तत्व (कामर्माण विनाश करनेसे अन्त में जीव भी संसार (जन्म-मरण वर्गणा) के स्थानपर सांख्यदर्शनमें प्रकृतितत्वको अथवा सुख-दुःखकी परंपरा )स सर्वथा निर्लिप्त स्थान दिया गया है तथा जैनदर्शनके बन्धतत्वका यदि होजाता है।
विस्तार किया जाय तो सांख्यदर्शनकी बद्धि आदि - सौल्य आदि दर्शनोंको यद्यप पूर्वोक्त पांचों तत्व तेवीस तत्वोंकी मान्यताका ससके साथ समन्वय मान्य है परन्तु उनकी पदार्थव्यवस्थामें जैनदर्शन किया साथ और परस्पर जो मतभेद पाया जाता है उसका दोनों दर्शनोंकी मान्यताओं में सिर्फ इतना भेद रह
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किरण ४-५]
जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व भौर षड्व्यव्यवस्थापर प्रकाश
जाता है कि जहां सांख्यदर्शनमें बुद्धि आदि सभी रूपमें स्वीकार करके उनका असत् स्वरूप अविद्याके तत्वोंको पुरुष संयुक्त प्रकृतिका विकार स्वीकार किया साथ संयोग, इस संयोगके आधारपर उन चित्रशक्तिगया है वहाँ जैनदशेनमें कुछको तो प्रकृति संयुक्त विशिष्टतत्वोंका सुख-दुःख तथा शरीर-संबन्धकी परंपरा पुरुषका विकार और कुछको पुरुष सयुक्त प्रकृतिका रूप संसार, इस संसारसे छुटकारा स्वरूप मुक्ति और विकार स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि मुक्तिका कारण ये सब बातें स्वीकार की गयी हैं। सांख्य दर्शनके पञ्चीस तत्वोंको जैनदर्शनके जीव, वेदान्तदर्शनमें परब्रह्मको सत् और संसारको असत् मजीव और बन्ध इन तीन तत्वों में संग्रहीत किया जा माननेकी जो दृष्टि है उसका सामञ्जस्य जैनदर्शनकी सकता है। इस प्रकार सांख्यदर्शनमें पच्चीस तत्वों के काणानुयोगदृष्टि (उपयोगितावाद)से होता है क्योंकि रूपमें नाना चिनशक्ति विशिष्ट नत्व और इनका जैनदर्शनमें भी संसार अथवा शरीरादि जिन पदार्थों शरीरसंबन्धपरम्परा अथवा सुख-दुःख परम्परा को द्रव्यानुयोग ( वास्तविकतावाद ) की दृष्टिसे सत् रूप संसार ये दो तत्व तो कंठोक्त स्वीक र किये गये स्वीकार किया गया है उन्हींको करणानुयोगोकी दृष्टि हैं। शेष संसारका कारण, संसारका सर्वथा विच्छेद से असत् स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि स्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण इन तीन तत्वोंकी जैनदर्शन में भी करणानुयोगकी दृष्टिसे एक चितशक्तिमान्यता रहते हुए भी इन्हें पदार्थमान्यतामें स्थान विशिष्ट आत्मतत्वको ही शाश्वत् होनेके कारण सत् नहीं दिया गया है।
स्वीकार किया गया है और शेष संसारके सभी तत्वों ___ योगदर्शनमें नाना चित्शक्तिविशिष्टतत्व, उनका को अशाश्वत्, आत्मकल्याणमें अनुपयोगी अथवा संसार, संसारका कारण, मुक्ति और मुक्तिका कारण बाधक होनके कारण असत् (मिथ्या ) स्वीकार इन तत्वोंकी मान्यता रहते हुए भी उसकी पदार्थ किया गया है। व्यवस्था करीब करीब सांख्यदर्शन जैसी ही है। विशे- इसी प्रकार चितशक्तिविशिष्ट तत्व, उनका पूर्वोक्त षता इतनी है कि योगदर्शन में पुरुष और प्रकृतिके संसार और संसारका कारण इन तीन तत्वोंको स्वीसंयोग तथा प्रकृतिकी बुद्धि आदि तेवीस तत्वरूर होने कार करने वाले मीमांसादेर्शनमें तथा इनके साथ २ वाली परिणतिमें सहायक एक शाश्वत ईश्वरतत्वको मुक्ति और मुक्तिके कारण इन दो तत्वोंको मिलाकर भी स्वीकार किया गया है और मुक्तिके साधनोंका पांच तत्वोंको स्वीकार करने वाले न्याय, वैशेषिक विस्तृत विवेचन भी योगदर्शनमें किया गया है। और बौद्ध दर्शनों में भी इनका जैनदर्शनकी तरह जो
सांख्यदर्शनकी पदार्थव्यवस्था योगदर्शनकी तरह तत्वरूपसे व्यवस्थित विवेचन नहीं किया गया है वह वेदान्तदर्शनको भी मान्य है लेकिन वेदान्तदर्शनमें इन दर्शनोंके भिन्न २ दृष्टिकोणका ही परिणाम है। उक्त पदार्थव्यवस्थाके मूल में नित्य, व्यापक और एक इस संपूर्ण कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि परब्रह्म ना क तत्वको स्वीकार किया गया है तथा जैनदर्शनकी सप्ततत्वमय पदार्थव्यवस्था यद्यपि उक्त संसारको इसी पर ब्रह्मका विस्तार स्वीकार किया गया सभी दर्शनोंको स्वीकार्य है परन्तु जहां जैनदर्शनमें है इस प्रकार वेदान्तदर्शनमें यद्यपि एक परब्रह्म हीको उपयोगितावादके आधारपर उसका साङ्गीण और तत्वरूपसे स्वीकार किया है परन्तु वहाँपर ( वेदान्त- व्यवस्थित ढंगसे विवेचन किया गया है वहां दूसरे दर्शनमें ) भी प्रत्येक प्राणीके शरीर में पृथक् २ रहने दर्शनों में उसका विवेचन सर्वाङ्गीण और व्यवस्थित वाले चिनशक्तिविशिष्टतत्वोंको उस परब्रह्म के अंशोंके ढंगसे नहीं किया गया है।
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दृष्टवाद और होनहार
( श्री दौलतराम 'मित्र' )
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इस विषय में कितने ही मत हैं, कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है। उनमें सर गुरुदास बनर्जीका मत वैज्ञानिक है । देखिये
मैंने इसपर एक तुकबंदी की है, वह यह है"कारण हो अनुकूल, कार्य प्रतिकूल न होगा । हों कारण प्रतिकूल, कार्य अनुकूल न होगा || होनहार है यही, करो यह मनमें धारण । होनहार शुभ हेतु इकट्ठे करो कारण ||
सर गुरुदास वनर्जी कहते हैं
"अष्टवाद कहने से अगर यह समझा जाय कि मैं किसी वांछित कार्यके लिये चाहे जितनी चेष्टा
क्यों न करूँ, अदृष्ट अर्थात मेरी न जानी हुई कोई “अलंघ्यशक्तिर्भवितत्र्यतेयं हेतु-याविष्कृत-कार्यलिङ्गा । अनीश्वरो 'जन्तुर इंक्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः — स्वयम्भूस्तोत्र
अलंघ्य- अनिवार्य शक्ति उस चेष्टाको विफल कर देगी, तो अदृष्टवाद माना नहीं जा सकता; क्योंकि वह कार्य-कारण-सम्बन्ध विषयक नियमके froद्ध है । किन्तु यदि अदृष्टवादका अर्थ यह हो कि कि कार्य-कारण-परंपरा क्रमसे जो कुछ होने को है, और जो पूर्णज्ञानमय ब्रह्मर्के ज्ञानगोचर था कि ऐसा होगा, उसीकी ओर मेरी चेष्टा जायगी - दूसरी ओर नहीं जायगी, तो वह अदृष्टवाद माने विना नहीं रहा जा सकता । कारण, वह कार्य-कारण- संबंध विषयक अलंघ्य नियमका फल है ।" (ज्ञान और कर्म पृ०१६२)
सम्पादकीय नोट - सर गुरुदास बनर्जीने अदृष्टवाद अथवा भवितव्यता (होनहार ) के विषय में कार्यकारणसम्बन्ध विषयक जो बात कही है वह आजसे कोई १८०० वर्ष पहले विक्रमकी दूसरी शताब्दीके विद्वान् महान् श्राचार्य स्वामी समन्तभद्रके निम्न सूत्रवाक्य में संनिहित ही नहीं कितु अधिक स्पष्टता के साथ कही गई है :
मिले सफलता यदि नहीं, हैं कारण प्रतिकूल । निःसंशय यह जानिये, हुई कहीं भी भूल || "
इसमें अध्यशक्तिर्भवितव्यताको 'हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा' बतलाया गया है और उसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि अन्तरंग और बहिरंग अथवा उपादान और निमित्त दोनों कारणोके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होनेवाले कार्य में भवितव्यता जानी जाती है अर्थात् भावी होनहारके साथ कारण-कार्य-नियमका सम्बन्ध अटल है । इसमें हेतुका 'द्वय' विशेषण अपना खास महत्व रखता है, सो सर गुरुदासजी के कथनपर से स्पष्ट नहीं है और इससे उत्तरार्ध में उस संसारी प्राणीका श्रहंकार से पीडित और अनीश्वर ( कार्य करने में असमर्थ ) बतलाया गया है जो उक्त भवितव्यता श्रथवा हेतुद्वयकी अपेक्षा न रखता हुआ अनेक सहकारी बाह्य कारणोंको मिलाकर ही कार्य सिद्ध करना चाहता है ।
और इसलिये लेखकने "कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है” इन शब्दोंके द्वारा दूसरे सभी कथनोंपर जो रुचि व्यक्त की है वह समुचित प्रतीत नहीं होती ।
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वीरके संदेशको उपेक्षा
(ले०-या प्रभुलाल जैन 'प्रेमी')
श्राजमे लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व, जबकि इस धर्म- जीने दो" इतना ही नहीं, विवेक पूर्ण जीवन बिताने के लिये प्रधान देशमें अधार्मिकता, अत्याचार और अनाचारों ने उत्माहित भी करो यही वीर-धर्म है। आज हम वृक्षके पत्ते अपना नग्न ताण्डव प्रारम्भ कर दिया था, दुखित, मर्माहत तोड़ने और दरी शाक भाजी काटनमें भले ही जीव-रक्षा
और भूले भटके प्राणियोको उचित पथ प्रदशक कोई कहीं का ध्यान रखलेते हो, पर नि:संदेह प्राणियों के साथ जो श्राज दृष्टिगोचर नहीं होता था, मानव समाज के हृदयसे मनुष्यत्व व्यवहार होरहा है वह मानवतासे परे है । प्राणीमात्र की कोसों दूर भाग चुका था, कर्तव्याकर्त्तव्यपर विचार करनेके रक्षाके स्थान में हम उसको अरक्षित दशामें छोड़ कर है। लिये मस्तिष्क दिवालिया बन चुका था, पशुयज्ञ ही एक मात्र शांत नहीं हो जाते पर उसका विनाश कैसे हो इसके लिये
शांति और कल्याण के साधन बतलाकर पराकाष्ठापर पहुँचा तरद २ के साधन जुटाने और जुटवानेका प्रयत्न करते हैं। दिये गये थे-नरमेध यज्ञ तक होने लगे थे। प्राणी दीन और जिस संदेश में अात्माभिमानकी गंध तक नहीं थी छूत के भूत श्राश्रय हीन, मणिविहीन सर्पकी तरह तड़फड़ा रहे थे,तब मूक भागते थे, 'जन्मना जायते शूद्रः' मतानुसार ऊंच नीच पशुश्रो तथा निरपराध और नि:महाय प्राणियोंकी दुखित वेद- का भेद संस्काराधीन था, वहाँ स्वार्थी समाज के मुखिया कहे नाओं और मर्माहीन अाहोंसे करुणानिधानका भी करुण हृदय जाने वाले लोगोंने अपने जीवनका यह लक्ष्य बना कर किभर आया। उनकी पुकार सुनी और वे आये । उस भीषण स्थिति में भगवान वीरने अपने दिव्य संदेश-द्वारा अधर्म के
चाहे भारत गारत होय हमें क्या करना
संसार अनोखा स्वाद, हमें ३ चखना' गढ़ तोड़े, अशांतिका साम्राज्य नष्ट किया, अन्ध-श्रद्धा और अन्ध भक्ति को पंगु किया, अज्ञान और अन्धकार समूहका
धर्म के नाम पर ऐमी विकृति नीति फेलादी है जिसे विध्वंस कर ज्ञान प्रभाकरकी प्रभासे चोर प्रकाश देखकर कौन ऐसा पाषाण हृदय मानव दोगा जिसकी प्रोखों फैलाया, उनके इन्दों श्रात्म कल्याणकारी उपदेशोंको विश्व
से अश्रधाग का स्रोत न उमड़ पड़ता हो ? यदि संस्कार इतिहास वीर-संदेश नामसे पुकारता है।
और अधिकारी पर नीच कुलोत्पन्न व्यक्ति श्रात्मकल्याण प्राणीमात्रकी रक्षा करो, अपराधीके अपराधको केवल हेतु पतित पावनालय में प्रार्थना करने जाना चाहता है तो क्षमा ही न करो, अपितु उसके प्रति प्रेम और दयालुताके उमे उसके प्रवेशमे पतितपावनालय के अशुद्ध दी जाने का भाव प्रदर्शित करो। संसारके सभी प्राणियोंको समानता भय दिखाकर बुरी तरह धुनकार दिया जाता है। किसी से की दृष्टि से देखो । प्रचलित कुप्रथाश्रोंके भाव न बन कर छोटा अथवा बड़ा केमा ही अपराध हुआ हो चाहे फिर वह समय और स्थिति देखकर ही पथप्रदर्शन करो । वीर-संदेश धार्मिक दो मामाजिक हो अथवा राजनीतक हो, उसे उपासना के इन सैद्धान्तिक अंगों के प्रचार और प्रसारकी विश्व लय ( पतितपावनालय ) में जाकर पतितावनकी पृजन कल्याण की दृष्टि में आज भी उतनी ही आवश्यकता है, भक्तिसे वंचित रखना यही समाजने आज दण्डविधान जितना इन सिद्धान्तों के प्रवर्तकके आविर्भाव काल में थी। निर्माण कर रखा है। ऐसे ही कारणों में एक राष्ट्र में कई वीर-मंदेश वीरका वीर के लिये दिया गया संदेश है । और विभिन्न मत और मतानुयायियोका जमघट इकट्ठा होगया है, सच्चा वीर वही है जिसने अपने प्रारको जीत लिया हो। और गष्ट, समाज तथा जाति के अनेक छोटे २ विभाजन होने जो अपने ही हृदय स्थित बैरियोंसे पराजित होकर दसरोको से अलग २ उपासनालय और अलग २ उपासनाके ढंग जीतने की लालसा करता है वह कायर है। "जीओ और बना लिये है। मानो परमात्मापर जाति-विशेषका जायदादी
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भनेकान्त
[वर्ष
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तथा पुश्तैनी हक हो और उसका मनचाहा बटवारा कर को सुलझाकर सफलता पूर्ण पथप्रदर्शन करनेमें अच्छे २ लिया ह।। यदि कोई व्यक्ति किसी अस्पृश्य द्वारा छू लिया अनुभवियोंको भी दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। यदि जाता है तो वह किसी भी जलाशयके साधारण जल में स्नान भविष्य में भी वीर-संदेशकी और ममाजकी ऐसी ही उपेक्षा कर शुद्ध हो जाता है, पर यदि वही अस्पृश्य व्यक्ति भगवान वृत्ति रही और ममा जके मुखिया ऐसे ही स्वार्थान्ध लोगोंको के मन्दिर में प्रवेश कर जाता है, तो मन्दिर और पतितपावन बनाये रक्खा तो वीरका संदेश इतिहासकी ही सामग्री रह जायेगी। करुणासागर भगवान भी अपवित्र होजाते हैं। एक समय नवीन मन्दिरनिर्माण, वेदीप्रतिष्ठा, जलविहार वह या जबांके मनुष्योकी कौन कहे पशु-पक्षी तियेच भी वीर रथोत्सव श्रादि जिनमें समाज अन्धे होकर लाखो रुपये पानी संदेशको श्राभेदरूप समानाधिकारसे सुनते थे, और अपना की तरह बहा देता है, ऐसा करनेसे समाज धर्मात्मा बन श्रात्म कल्याण करते थे, और अाज थोड़ेसे नामधारी बनियों जायगा, अथवा धार्मिक वास्तविक उत्थान होगा, ऐसा मेरा ने जिनको कायर कह कर हिकारतकी दृष्टि से देखा जाता है, विश्वास नहीं है। भगवान वारने जिस देशको मर्वसाधारण श्राने धार्मिक साहित्य तकको अल्मारियोमें बन्द कर ताला तक पहुँचाने के लिये महान त्याग और द्वादशवर्षीय कठिन डाल रखा है. धर्मानुयायियोंकी जब इतनी संकुचित, दूषित तपश्चरण किया था, उसे जीवित रखने के लिये हमें भी मनोवृत्नियां दौ,फिर धार्मिक मामाजिक सभी प्रकारसे ह्रास होनेमें त्याग करना पड़ेगा। श्राज हगरा इतना ही स्याग और आश्चर्य ही क्या है ? अात्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् तपश्चरण पर्याप्त होगा कि हम वीरसंदेशके प्रमुख २ सिद्धान्तों इस द्धिान्त के अनुसार ममाजसे जैसा व्यवहार श्राप
का प्रचार करने में जुट जावें. और उसमें अाने वाली विघ्न अपने प्रति कराने के अभिलाषी हैं वेसाही दूसरोके प्रति बाधाओंसे हम तनिक भी पीछे न हटें । हमारा कर्तव्य है कीनिये! यार-संदेशका विश्वप्रेम यही है । इम सिद्धान्तका कि हम प्राचीन वस्त प्राचीन इतिहास, और धार्मिकमाहित्य श्राचरण करने पर हमारी अन्तरात्मा अपने पापही दिव्य के अन्वेषण संकलन और संरक्षणा में जट जायें, क्योंकि ये ज्योतिस पालोकित हो नठेगी और एक २ व्यक्ति जब अपनी ही हमारी वास्तविक निधि है, यदि हम त्यागपूर्वक इन इस प्रकार प्राध्यात्मिक उन्नति करलेगा तो समूचे राष्ट्र और कार्योकी पूर्तिमं लग सकते हैं, तो यह माना जासकता है समाजका मामहिक रूपमें फिर उद्धार होने में देर नहीं लगेगी। कि हम वीरके संदेशको समझ सके हैं, और उसकी पूर्ति में हम देखते है कि कुछ लोग हाथमें सुमरनी, माथे की लकीर
रिना, माय भी लगे हैं। •Young men are the mirror to पर चन्दन और वक्षस्थल पर यज्ञोपवीत धरण कर तीन २ ।
_heep in to the soul of a nation” किसी भी बार उपासनालयामें जाते है । धार्मिक ग्रन्थोंक पाठोंको पढ२
राष्ट्र तथा समाजकी अन्तर श्रात्माका प्रतिविम्ब देखने के कर फाड़ डालते हैं. पूजा पाठ और स्वाध्याय करते समय
लिये नययुवक ही दर्पण हैं । वीरका संदेश जो हमारे राष्ट्र ज्ञात होता है मानो वार के संदेश प्रसारक गणधर यही हों।
यहा हा। और समाजकी ही नहीं विश्वकी तुल निधि है, अक्षयधननाना प्रकारके व्रत, उपवास, एकाशन, बेला, तेला अादि गांश है। श्रार्यसभ्यता और भारतीय संस्कृतिका निर्मल दर्पण अपने त्याग और तपश्चरणक परिचय देनका भी प्रयत्न है. और जो जैनसंस्कृतिका अाधारभत प्राणु है. आज अप्रकरते हैं । पर---
काशमें हैं। राष्ट्र और समाजकी भावी श्राशायें हम नवयुवकों सत्वे मंत्री गुणिषु प्रमं दम् , क्लिषु जीवेषु कृपत्वम्। पर निर्भर हैं अाज हमें प्रचलित कुप्रथाओंका उन्मूलन कर माध्यस्थ्य भावं विपरीत वृनौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ उपर्युक्त निर्दिष्ट कार्यक्रम के अतिरिक्त ग्रामशिक्षा और
इन सिद्धान्तोंका जीवन में अंशन: भी पालन नहीं करते ग्रामसुधार की दिशामें भी प्रगतिशील होना चाहिये। यदि विपरीत इसके स्वार्थमाधनाहेतु धर्म, कर्म तथा दैनिक हमने इन मुधार योजनाओंमें भाग लेकर उनके पूर्ण उत्तरव्यवहार तीनोंका तिगुड़ इकट्ठा कर माली भाली जनताको दायित्वको सम्हाल लिया तो हम " वीरका संदेश" पुन: ऐसी धार्मिक भ्रान्ति में डाल देते हैं, कि पुन: उन ग्रन्थियों विश्व के समक्ष उसी रूपमें रखने के अधिकारी बन सकेंगे।
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वीर-संदेश (ले०-५० ब्रजलाल जैन, 'विशारद')
- - समारमें महापरुषोंका आविर्भाव होता है जीवमात्रको दुष्कृत्योंसे त्राहि-त्राहिका नाद प्रतिध्वनित हो रहा था। शद्रों उपकृत करके उनके नाना कष्टोंके विनाश एवं उत्थानके के साथ पशुओं से भी गर्हित व्यवहार होता था । स्त्री और हेतु । उनके संकल्प दृढ़ तथा उच्च और प्राशय गंभीर शूद्र धर्म सेवन से वंचित रखे जाते थे। स्त्रियोंके अधिकारों पर होते हैं । वे प्रत्येक दशा एवं प्रत्येक स्थितिमें अपना मागे कुठाराघात करके उनको केवल भोगविलासकी सामग्री हो स्वयं परिष्कृत कर लेते हैं। घर में, वन में, सम्पद में, विपदमें समझा जाता था। सामाजिक जीवन विशृङ्खल होकर समाज उन्हें अपने अन्त:करण दीका अवलम्ब होता है। वे ज्ञान धर्ममे विमुख और अधर्मकी ओर उन्मुख हो रहा था। भृग्व के प्रकाशके लिए मतत एवं दृढ़ उद्योग करके अपना तथा और प्यासे लोग जिस प्रकार अन्न और जल के लिए तडपते संसारका कल्याण करने में संलग्न रहते हैं। सांसारिक भोग-फिरते हैं उसी प्रकार सत्य और शोतिके इच्छुक जन दरविलासकी प्रगा। उन्हें अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं दरकी ठोकरें खाते फिरते थे । ब्राहाण क्षत्रिय और वैश्य कर पाती। वे अपनी कार्य-कुशलता,आशु-बुद्धि एवं चातुर्य अपने अपने पथसे भ्रष्ट होकर मदान्ध हो रहे थे।
आदि गुणोंके तथा प्रतिभाके बलसे संसाररूपी गगनपर ऐसी परिस्थिति में भगवान महावीग्ने अपना बाल्यावस्था जाज्वल्यमान् नक्षत्रकी भांति सदैव भास्वर रहते हैं। से लेकर युवावस्था तकका जीवन व्यतीत किया था। इससे उनके हृदय सदेव अन्यायका विरोध और अत्याचारका उनका हृदय विह्वल होगया और मनमें विचार प्रकट हुआ अवरोध करनेके लिए तत्पर रहते हैं।
कि संमार श्रज्ञान और अन्धविश्वास के गहरे गहरमें गिर __श्रमणोत्तम भगवान् महावीर जैन-धर्मके सबसे अंतिम रहा है- ठोकरें खा रहा है पर उसे कोई सन्मार्ग पर लाने २४ वें महापुरुष हुए हैं । आजसे २५४४ वर्ष पूर्व बिहार वाला नहीं है। उनका हृदय पूछता था- ये अत्याचार प्रान्तस्थ कुण्डलपर नगरमें चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको उनका और अन्याय क्योंकर दूर हो ? मनु-प अपने कर्तव्यको श्राविर्भाव इस शस्म-श्यामला भारत भूमिपर ज्ञातृवंशी समझकर सुख, शांति और स्वाधीनताको कैसे प्राम करे ? क्षत्रिय गजा सिद्धार्थके औरसरुपमें उनकी महागनी प्राणों की भीषण होली, यह रक्तगत क्या वास्तबमें सत्यके त्रिशलादेवीके गर्भसे हुआ था। उनमें महापुरुषांके सभी निकट है ? उत्तर मिलता था-- नदी । प्रश्न उटता थालक्षण विद्यमान थे- अपूर्व तेज, अलौकिक प्रतिभा एवं तो फिर घाम्तव सत्य है क्या ? इसी जिज्ञासाम उनकी असाधारण व्यक्तित्व । उनके जन्मसे संसार धन्य होगया था अवस्था ३० वर्षको प्राम होगई। उन्होंने सोचा कि जब तक सर्वत्र तत्काल ही एक अानन्द की लहर दौड़ गयी थी। मैं स्वयं यथार्थतामे अभिज नहीं होना तबतक हम महान
उस समय संसार की दशा अत्यंत शोचनीय हो रही कार्यमें सफलता प्राम करना अशक्य है । अत: उन्होंने गृहयो । अन्याय और अत्याचारकी विषम ज्वाला अपना जंजाल एवं राजपाटका वैभव श्रादि त्याग कर सर्व प्रथम प्रचण्ड रूप धारण किये हए थी। मर्वत्र ई. द्वेष कलह श्रात्मशुद्धि तथा आन्तरिक शक्तियाँको विकमित करनेका
और अन्धविश्गमका साम्राज्य छाया हुआ था । धमके निश्चय किया और मुसीबतोको अपनाकर जंगलमे नाता पवित्र नाममे मूक पशुओंकी गर्दनापर दुधारे चलाये जा जोड़ने के लिए उद्यत हुए। रहे थे । यजामें पशुबलि तथा नरबलि देकर बताया जाता माता-पिता पुत्र के विवाद की व्यवस्थामें लीन थे नर था कि यज्ञमें मारे गये जीवको मिलता है स्वर्ग। हन राक्षमी भगवान महावीरने अपना ध्येय प्रकट किया । घरमें हा हा
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१६६
अनेकान्त
[वर्ष ८
कार मच गया, माता-पिता एवं बन्धुबान्धवोंने बहुत द्वारा " वसुधैव कुटु बकम् " के महान् श्रादर्शको समझाते समझाया पर सब व्यर्थ; पितासे श्राज्ञा प्राप्त की और वनकी एवं अपने कर्तव्यको भूलकर कुमार्गपर जाने वालोंको
ओर प्रस्थान किया। 'ज्ञातखण्ड' नामक वनमें पहुँच कर सन्मार्ग पर लगाते। उनकी इन सभात्रोका नाम था “समव जिन-दीक्षा ग्रहण की और समस्त परिग्रह वस्त्राभूषण एवं सरण" । समवसरणका द्वार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र शरीरके भी ममत्वको त्यागकर तथा दिगम्बर बनकर घोर तथा तिर्यच तकके लिए उन्मुक्त था। वहां राजा रंक, गृही तपश्चाग क ने लगे।
साधु, ज्ञानी-अज्ञानी ऊंच-नीच पतित और पवित्र सभी सिद्धिकी प्राप्तिके हेतु उन्होंने अनेको कठिनाईयां झेली
उपदेश सुननेके समान अधिकारी थे , सभी एक साथ हिलआतताइयोके श्राक्रमणोंको सहन किया और जबतक उसे
मिलकर बैठते थे और भगवान्की सत्य अदिसा-प्रधान प्राप्त न कर लिया तबतक अनवरत वनमें मौन धारण करके
अनेकान्त वाणीका रसास्वादन करते थे , उनके उपदेशोंसे श्रात्मचिन्तन करते रहे। इस प्रकार बारह वर्ष तक सतत
अनेकको पूर्ण सत्यका अनुभव हुअा था और अनेकने सत्य असह्य तपस्या करनेके उपरांत उनकी दृष्टि में साम्य, बुद्धिमें
समझ कर तथा उसके अनुरूप अाचरण करके भगवानकी समन्वय, श्राचारमें अहिंसा तथा भावोमें सहनशीलता प्रकट
भाँन पूर्णज्ञान प्राप्त किया था। हुई। उनकी संपूर्ण शक्तयोका प्रवाह फूट निकला । वे तप्त
युगप्रवर्तक भगवान् वीरने अनेक देशदेशांतरोंमें भ्रमण कांचनकी भाँति शुद्ध होकर केवल ज्ञानी (सर्वज्ञ ) और
__ करके ज्ञानामनकी भारी वर्षा की थी और मनुष्योंके हृदयों
जा सर्वदर्शी होगये । हृदयमें सत्यका सूर्य प्रकाशमान होनसे
पर छायी हुई पशुताका नाश करके मानवको मानव बनाया उनके अन्तस् का तम विलीन होगया। विश्व प्रेमकी पतित
था। जनता उनके तप, त्याग, एवं ज्ञान से प्रभावित होकर पावन जाह बीका स्रोत उनके रोम-रोमसे बहने लगा। उनको अपना सच्चा हितैषी समझने लगी थी। उस समय
अनभव और मनन करनेके उपरान्त जब उन्होंने के लगभग सभी बडे-बडे राजा महाराजाअोंने भगवानकी अपनेको देशोद्धार एवं धर्म प्रचारके अनुरूप पाया तभी शरणमें अाकर उनसे व्रत नियमादिक धारण किये थे, और उन्होंने अपने जीवन के प्राप्त अनुभव-सत्य, अहिंसा प्रेम एवं इसी तरह अपने कल्याण मार्गको प्रशस्त बनाया। दुःख सहनेके श्रेष्ठ मार्गको अपने महान् आदशं द्वारा भगवान्ने तीस वर्ष तक चारों ओर विहार करके संसारके सम्मुख रखा । वे भारतवसुन्धरापर सर्वत्र पतितपावन सत्यधर्मका नाद सर्वत्र व्याप्त किया था । जो विहार करने लगे। भगवान्ने जीवोकी कठिनाइयोंको दूर सत्य सदासे है और सदैव रहेगा उसी सनातन सत्यका करनेका मार्ग सुझाया, उनकी भूलें बतलायीं उन्हें बन्धन अनुभव जगतके प्राणियोको कराकर उनमें सच्चे ज्ञानपर मक होकर श्रात्मकल्याण करनेका सदुपदेश दिया। उन्होंने श्रद्धा उत्पन्न की थी। स्वावलम्बन, स्वात्मनिर्भरता, संयम, अन्याय, अत्याचार, अन्धविश्वास श्रादि क्रिया-काण्डों साम्य, अहिंसा तथा विश्वप्रेमका उन्होंने वह असाधारण का निर्भीकता पूर्वक विरोध किया । बलिदान, सामाजिक निर्मल स्रोत बहाया था, जिसमे संसार में सुख-शान्तिका विशृङ्खलता, मानवकी मानवके प्रति निर्दयता, पाखण्ड तथा पवित्र वातावरण उत्पन्न होगया था। दुराग्रहका आवरण विदीर्ण करके संसारमें ज्ञान-सूर्यको श्रीवीर धर्मके प्रवर्तक थे अत: वे तीर्थंकर थे । सब उन्होने चमकाया और परस्पर समानताका संबन्ध स्थापित गुणसंपन्न थे और उन्हें वीर, अतिवीर, महावीर, वर्द्धमान, किया। इसके फल स्वरूप अनेको अनर्थ समूल नष्ट होगये सन्मति जैसे नामोंसे स्मरण किया जाता है।
और प्रायः सारा जन-समूह वीर भगवानका अनुयायी एवं भगवान् वर्द्धमान-द्वारा प्रचारित सत्यधर्म वैज्ञानिक भक्त बन गया।
धर्म-में सयाद्वाद अनेकान्त या अपेक्षावाद एवं जीव, अजीव दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर जहा भी पहुँचते वहां श्रास्रब. बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व तथा उनके लिये महती सभाएं जुडती और उन सभाओंमें वे सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र श्राद दार्शनिक विषय संसारके प्राणीमात्रको अपने धारा प्रवाही अमूल्य उपदेशो प्रमुख रहते थे। जिनमें सुख-शांति, सत्य एवं सौन्दर्यके
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किरण ४-५]
वीर संदेश
महान् तत्वोका निचोड़ और आत्माके गूढ रहस्योका सम्पूर्ण ६ धर्म किसी व्यक्ति या जाति-विशेष की वस्तु नहीं, शान भरा पड़ा है।
वह तो मानव मात्रके अधिकारकी चीज है । उसे ब्राह्मण, ___सांसारिक झंझटोको पार करते हुए वीर प्रभुने अपने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चाण्डालादि सभी क्रियाशील जीवनको कर्मठ और कर्मवीर बनाया था । जीवन मार्गमें जीवन धारण करके उच्चासन प्राप्त कर सकते हैं। श्रायी हुई अनेक महान् आपत्तियोंका दृढ़ता पूर्वक सामना ७ घणा पापसे करो न कि पापीसे । पापीमे प्रेमपूर्वक करके उन्होंने अहिंसा धर्मकी छाप अखिल मानव समाज व्यवहार करके उसे उसकी भूल समझाओ और अपने पर अंकित कर दी थी। वे जबतक जीवित रहे तबतक सत्प्रयत्न द्वारा उससे पाप छुड़ाकर उसे सन्मार्गपर संसारके लिए ही जिये और जब गये तो संसारका कल्याण लगाश्रो। करते हो गये । इस प्रकार अपने समस्त कर्मजंजालोको नष्ट ८. किसीके अस्तित्वको मत मिटायो । संसारमें शांति कर उन्होंने ७२ वर्षकी श्रायमें अपने जन्म-प्रान्तके पावापर पूर्वक जियो और दूसरोको भी अपने समान जीने दो। नगरमें ही कार्तिकी अमावस्याके उषा:काल में मोक्ष-लक्ष्मी ६. प्रत्येक जीवकी पीडाको स्वयंकी पीड़ा समझो, का वरगा किया था। इसी हेतु जनताने भगवानकी पवित्र प्रत्येक जीवके दुःखको अपना दुःख अनुभव करो तथा स्मृतिको अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए तभीसे दीपावली पर्व दूमरोके सुख में ही अपना सुख देखो तभी तुम संमारके मनाना प्रारम्भ किया है।
समक्ष समद्धि, सुख और कल्याणका श्रादर्श उपस्थित कर अद्भन विचार-कान्तिके स्रष्टा जीवनके सच्चे साधक सकोगे। पतितोद्धारक स्वनामधन्य भगवान् वीरने संसारके कल्याणार्थ
१०, सभी प्राणी जीने की इच्छा रखते हैं। जो सन्देश दिया था वह संक्षेपमें इस प्रकार है:
अत: प्रत्येककी प्रवृत्ति ऐसी होनी चाहिये जिससे दूसरे १. संसारका प्रत्येक प्रागी, जो अज्ञान, प्रशांति और जीवोको पीडा न पहुंचे और वे भी मुग्व-शांति भीषण दुःखकी ज्वालासे दग्ध होरहा हो, मेरे उपदेशसे लाभ से रहें । तुम्हें उनको मारने अथवा कष्ट पहँचानेका अधिकार प्राप्त कर सकता है। अज्ञान-चक्रमें फंसा हा प्रत्येक जीव- नहीं है। वह चाहे तिर्थच हो या मनुष्य, आर्य हो या म्लेच्छ ब्राह्मण ११ श्रोछे, बनावटी, असत्य तथा दंभयुक्त वचनोको हो या शूद्र तथा पुरुष हो या स्त्री- मेरे पास श्राकर अथवा त्याग कर मीठे और मदुल सद्वचन बोलो। मेरे दिखाए हुए मार्गपर चलकर अपनी आत्मपिपासा १२. कषाय भावो-क्रोध, मान, माया, लोभादिका शान्त कर सकता है।
अभाव ही अहिंसा है और उनका भाव हिसा है अर्थात् २. अपनी दृष्टि में सबको समान समझो-सम्यकदृष्टि कषाय और प्रमाद भावोंके कारण मन, वचन और कायसे बनो तथा अपने हृदयमें नम्रता, विनय, और दयाको स्थान आत्माके विवेकादि गुणोंका जो घात होता हे वह हिसा हे। दो। उदार, साहसी, बुद्धिमान एवं सत्यपरायण बनकर इसलिए अन्य जीवोंकी भाति अपनी आत्माकी भी हिंसा मत अपने गुणोंका सुन्दर उपयोग करो।
करो। ३. साँसारिक जीवनका सचा लाभ-प्रेमपूर्वक परस्पर १५ प्रत्येक प्रात्माके समीप सच्चे, ईमानदार और सदभाव, मंगलकामना, सहानुभूति और सत्यका पालन विश्वसनीय बननेका यल करो तथा जीवमात्रके प्रति कोमल करना है।
हृदय रखो। ४ धर्म पतितोके लिए ही होता है, इस हेतु पतितसे १४ सत्य-अहिंसाके पथपर चलकर-मानवमें मानवता पतित व्यक्ति धर्मकी शरण लेकर अात्मविकास, स्वकल्याण को जगाकर-मानव जातिकी सभी समस्याएं हल हो सकती कर सकता है । अतः किसीको भी धर्म सेवनसे मत रोको। है।
५. तुम दूसरोंके साथ वैसाही व्यवहार करो, जैसा तुग १५ देशादिक पर आपत्ति प्राने अथवा धर्मसंकट दूसरोका व्यवहार अपने साथ पंसद करते हो।
उपस्थित होने पर सम्यकदृष्टि गृहस्थको उसे दूर करनेके लिए
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भनेकान्त
[वर्ष
सदा तत्पर रहना चाहिए। उसकी संपूर्ण शक्ति नि:स्वार्थ का अस्तित्व तुम्हारे लिए-अर्थात् तुम संसारको अपने तथा निर्मलभावसे ऐसी प्रत्येक बाधाको दूर करने और लिए न बनायो किन्तु तुम संसारके लिए बनो। श्राततायीका दमन करनेके लिए लगनी चाहिए।
२५ अपने आपको वशमें रखनेसे ही पूर्ण मनुष्यत्व १६ जो समर्थ होकर भी दूसरोपर होनेवाले अत्याचारों प्राप्त हो सकता है। को देखता रहता है-उन्हें रोकता नहीं वह कापुरुष है। २६ जिसकी आत्माका विकास होगया है वह उच्च है
१७ श्रात्म-स्वातंत्र्य प्राप्त करनेका अधिकार प्रत्येक और जिसकी श्रात्माका विकास न होकर पतन होरहा है वह प्राणीको है। इस हेतु अपनी स्वतंत्राको सुरक्षित रख प्रत्येक नीच है। दशामें वीर बत्ती बनकर रही । परतंत्र रहना श्रात्महनन (२७) कभी भी जातिमद न करो । ब्राह्मण, क्षत्रिय, करना है।
वैश्य, शूद्र और चाण्डालादि जातिकी केवल आचारमेदसे १५ श्रेष्ठताका आधार जन्म नहीं बल्कि गुण होता है ही कल्पना की गयी है। इसलिए वर्णगत नीचता-उच्चता और गणोंमें भी जीवनकी महत्ताका गुण । अत: हृदयसे का भाव हृदयसे निकालकर गुणोंकी ओर ध्यान दो। शद्र भेद भावनाको तथा अहंभावको शाघ्र नष्ट करके विश्व- कुलोत्पन्न व्यक्ति यदि श्राहार, विचार, शरीर और वस्त्रादि बन्धुत्वकी स्थापना करो।
से शुद्ध एवं व्रतादिसे युक्त है तो वह देव-पूज्य होता है। रह जिनकी श्रात्मा दृढ एवं उद्देश्य ऊँचा है और २८ सत्यशील, न्यायी और पराक्रमी बनकर जीवनजिनमें निपाता उत्साह तथा पुरुषार्थकी मात्रा बढ़ी हुई है संग्राममें वीरताके साथ लड़ो तथा अपने कर्तव्यको निभाते उन्हें सांसारिक अड़चने कर्तव्य-पथसे विचलित नहीं कर जाओ। विरोधोंकी चिन्ता मत करो। सकती। अतएव श्रात्मबलका सन्मादन करो, हृदय तथा २८ मनुष्य जाति एक है। कर्मसे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, चद्धिको परिष्कृत करो और अपना संकल्प दृढ़ एवं उच्च वश्य और शुद्र होते हैं । इसमें जन्मगत भेद-गाय, भैस. खकर धीर, वीर तथा संयमी वना।
घोड़ादिकी भाँति नहीं है । इसलिए मानवकी मानवता २० दुःखमें शक्ति, क्षोभमें श्रात्मनिग्रह, विपत्तिमें धैर्य उसके सद्गुण और सच्चरित्रका श्रादर करो। और तम्पग मिताचार रखो।
३. अपना हृदय विकाररहित बनाकर ज्ञान प्राप्ति के २१ अपने भावीको शुद्ध करो। मनुष्य भावो द्वारा ही लिए सद्ग्रन्योका पठन-पाठन करो और समस्त प्राणियोके आचरणा करता और आचरण-दृष्टान्त मनुष्य जाति कल्याण करनेकी भावनाको हृदयमें जाग्रत करो। की पाठशाला । जो कुछ वह उससे सीख सकता है और ३१ दूसरोंके दृष्टिकोण पर गंभीरतापूर्वक विचार करके किसीसे नहीं।
उसमें सत्यका अनुसंधान करो और अपने दृष्टिकोणसे २२ प्रायः प्रत्येक जीवात्मामें वह प्रबल शक्ति विद्य- विवेकपूर्ण विश्लेषणकर उसमें त्रुटि निकालनेका प्रयत्न करो। मान है जिसके द्वारा वह स्वावलम्बी बनकर और अपने ३२ हम सच्चे है, हमारा धर्म सच्चा है; पर दूसरोंको समस्त कर्मजंजालोको काटकर सर्वज्ञ-सर्वदशी परमात्मा बन सर्वथा मिथ्या मत समझो वल्कि स्याद्वादकी दृष्टिसे काम लो सकता है अथवा यो कहिये कि संसारका सर्वश्रेष्ठ पुरुष और सद्गुणोकी पूजा करो। हो सकता है।
३३ दूसरोंके दोष देखनेके पहले अपने दोषोंपर २३ श्रात्माका बल वास्तवमें बड़ा भारी बल है दृष्टि डालो। जिसका सहारा प्रत्येक मनुष्यको प्रत्येक दशामें मिलता ३४ अन्धे होकर लोकानुकरण मत करो; बल्कि यथार्थ रहता है। अत: अपने आपको पहचाननेके लिए अपनी ज्ञानको प्राप्त करो, जिससे चित्तवृत्ति शुभ तथा शुद्र भाव
आत्माका अध्ययन करो। उस एक आत्माको जाननेसे ही नात्रों और प्रौढ़ विचारोंसे पूर्ण हो जाय । ही सब कुछ जाना जा सकता है।
३५ यदि तुम वास्तविकतापर-सच्चे धर्मपर विश्वास २४ तुम्हारा अस्तित्व संसारके लिए हो, न कि संसार लाना चाहते हो तो निर्भय वन जाओ। निर्भयता स्वतंत्रता
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किरण ४-५]
क्या तीर्थकर प्रकृति चौथे भव में तीर्थकर बना सकती है?
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की जननी है, जिससे संसारके दुर्व्यसनोंको कभी भी श्राव- उनका नाम अजर-अमर है-आज हम भूल गये हैं। उन श्यकता नहीं रहती। निर्भय मनुष्य ही 'जे कम्मे सूरा ते उच्च तत्वोंसे स्वार्थके कारण हमारी श्रद्धा विचलित होगयी धम्मे सूरा' अर्थात् जो कर्मवीर है वही धर्मवीर है का पाठ है। जब तक हम वीरके दिव्य-सन्देशको-जिसमें मनुष्यपढ़ सकता है।
मात्रके लिये व्यक्ति स्वातन्यका मूलमंत्र गर्भित है-संसार ३६ नारी नरकी खान है । अत: उसको पुरुषोंकी के कोने-कोने में नहीं क देते और स्वयं स्वीकार नहीं भाँति व्रत धारण करनेका, पूजा-प्रक्षालन और श्रागम कर लेते, तब तक दुनियाको प्राजके भीषण नर संहारसे अंगोंके अध्ययनका पूर्णाधिकार है। इसलिये महिलाअोंका बचा सकना असम्भव है । यह स्व. दीनबन्धु एण्ड जके सम्मान करके उन्हें धार्मिक एवं सांसारिक अधिकारोसे निम्न शब्दोंसे भी प्रकट हैवंचित मत रखो।
संसारोद्धारक भगवान् महावीर स्वामीने भेदभावसे "जब तक यूरोप और अमेरिका के सर्वप्राणी समभाव रहिन होकर प्राणीमात्रके कल्याणार्थ जो शुभ सन्देश दिये के जैन सिद्धान्तको समझकर जीवनके अहिंसक आदर्शको ये उनसे जैन-साहित्य भरा पड़ा है । उक्त वाक्य तो उनके समझकर स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक पश्चिममें उत्पन्न दिव्य सन्देशके प्राभासमात्र है । जैनमाहित्यका पठन- हुए जात्याभिमान और साम्राज्यवाद, जो युद्ध और संहारके पाठन करनेसे ही उनमें सन्निविष्ट, अद्भुत तत्वचर्चा, अपूर्व दो मुख्य कारण है और जिनके कारण ही सारी मानवजाति शातिका मार्ग, सुन्दर मर्मस्पर्शी भाव और संसारको उन्नति अकथनीय वेदना पा रही है, नष्ट नहीं होंगे। के महान् शिखर तक पहुंचाने वाले अगणित आश्चर्यकारी वैज्ञानिक विवेचनोका सम्यक ज्ञान हो सकता है।
यदि हम भगवान् महावीरके सन्देश और उपदेशको भगवान् द्वारा स्थापित जीवनका महान अादर्श- समझे और उन्हें श्रपने जीवनमें उतारकर अहिंसा-समता जिसके कारण उनकी लोककल्याणमयी साधना भलीभाँति और अनेकान्तकी प्रतिष्ठा करें तो सर्वत्र सुख एवं शान्ति सफल हुई थी और मानवजातिके इतिहासमें सदाके लिए स्थापित होने में विलम्ब नहीं है।
क्या तीर्थकरप्रकृति चौथे भवमें तीर्थंकर बनाती है ?
(ले०-बा० रतनचन्द जैन, मुख्तार )
'जैनसन्देश' ता० १४ फरवरी १६४६, संख्या ३६, सौधर्मद्विकमें उपज कर पश्चात् मनुष्य होकर अवश्य तीर्थतथाहि पृ. श्रीमान् न्यायाचार्य पं. माणिकचन्दजीके लेख कर बन जायगा। को लक्ष्य करके शंका प्रकाशित हुई थी। इसका समाधान इस पर शंका हुई और समाधान भी हुश्रा। समाधान'जैनसन्देश' ता. २८ मार्च १६४६, संख्या ४४, पृष्ठ ५ कारका यह मत है कि तीर्थकर प्रकृति-प्रारम्भक-मनुष्यको पर प्रकाशित हुआ है। श्रीमान् न्यायाचार्य पं. माणिकचंद तीसरे ही भवमें तीर्थंकर बनना पड़ता है उसके लिये ज्यादा जीका यह मत है कि तीर्थकर प्रकृति अधिकसे अधिक चौथे से ज्यादा चौथा भव नहीं। और इसका हेतु यह दिया है भवमें तीर्थंकर बना ही देती है और हेतु यह दिया है कि तीर्थकर प्रकृति के प्रास्त्रवका काल ज्यादा से ज्यादा (जस) किसी मनुष्यने मनुष्य श्रायु बाँधली हो पुनः तीर्थकर "अन्नमुहर्त अधिक आठ वर्ष घाट दो कोटि पूर्व वर्ष का श्रास्रव किया तो वह भोगभूमिमें मनुष्य हो कर पुनः और तेतीस सागर है। यदि तीर्थकर प्रकृतिका प्रारम्भक
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अनेकान्त
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मनुष्य पर्यायसे भोगभूमिका मनुष्य होता तो इस इतने बड़े अब प्रश्न यह होता है कि चौथे भव में नहीं किन्त काल में तीन पल्यके समयको और ले लिया जाता परन्तु वह तीसरे भव में ही तीर्थकर हो जाता है, इसमें हेतु क्या है ? भोगभूमिका तीन पल्यका समय टीकाकारने लिया नहीं है इसका समाधान गो. क. गा. ३६६, ३६७ की जी० प्र० इससे सिद्ध है कि तीर्थंकरप्रकृतिके प्रारम्भक मनुष्यको टीका पत्र ५२४ में इस प्रकार है-"बुद्धतियग्मनुष्यायुष्कभोगभूमिमें जन्म नहीं लेना पड़ता है।
योतीर्थे सत्त्वाभवात् ।" इसकी हिन्दी टीका (पत्र ५२६) में समाधानकारकका यह मत तो सत्य है कि तीर्थकर पं. टोडरमल्लजीने लिखा है-जाते मनुष्यायु तिर्यचायुका प्रकृति प्रारम्भक मनुष्य अधिकसे अधिक तीसरे भवमें तीर्थ- पहिलै बन्ध भया होई ताकै तीर्थकर बध न हाई।" जिस कर अवश्य होगा, परन्तु युक्ति समझमें नहीं आई। यदि मनुष्यने तीयंकर प्रकृतिका प्रारम्भ कर दिया है वह भोग किसी मनुष्यने मनुष्य श्रायुका बंध कर लिया हो पुन: भूमि में मनुष्य नहीं हो सकता। यदि उसने मनुष्य श्रायुका सम्यग्दृष्टि ही तीर्थकर प्रकृतिका प्रारम्भक हो३ कोटि पूर्व पहिले बन्ध कर लिया है तो वह तीर्थकर प्रकृतिका प्रारम्भिक वर्ष शेष मनुष्य आयुको पूर्ण कर तीन पल्यकी श्रायु वाला नहीं हो सकता और यदि उसने प्रारम्भक होनेसे पहिले उत्तम भोगभूमिमें मनुष्य हो सौधर्मद्विकमें दो सागरकी श्रायु आयुका बंध नहीं किया तो वह मनुष्य आयुका बंध नहीं भोग एक कोटपूर्व वर्षकी श्रायु वाला मनुष्य हुश्रा और कर सकता। 'सम्यक्त्वं च" त० सू० अ०६ सू०२१ के अन्त में श्रेणि चढ तीर्थकर हश्रा। इस प्रकार चौथा भब तो अनुसार जिसके सम्यक्त्व है वह देव श्रा हो गया, परन्तु तीर्थकर प्रकृति के प्रास्रवका काल "१७ करेगा अन्य प्रायुका नहीं। इस प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिका कोटि पूर्व वर्ष ३ पल्य २ सागर" हुश्रा जो ३३ सागरसे प्रारम्भक मनुष्य तीसरे भवमें तीर्थकर अवश्य हो जावेगा, बहुत कम है। भोगभूमिका मनुष्य विजयादिक अनुत्तर चौथा भव घटित नहीं होता। विमानोंमें उत्पन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वहांपर असंयमी मैं पंडित या संस्कृतका ज्ञाता नहीं हूँ। यदि कोई भूल उत्पन्न नहीं होते। अत: टीकाकारको भोगभूमिके तीन पल्य रह गई हो तो विशेष विद्वान् उसको क्षमा करें और उसका लेने की आवश्यकता न थी।
सुधार करदें।
धर्मरत्नाकर और जयसेन नामके आचार्य
(लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
- - जैनसाहित्यका भालोडन करनेसे एक नामके है और उससे कितनी ही महत्वकी गुत्थियों के सुलअनेक विद्वानोंका उल्लेख मिलता है । ऐतिहासिक मानेमें मदद मिली है तथा मिल रही है। ऐसी क्षेत्रोंमें काम करनेवालोंको यथेष्ट साधन सामग्रीके स्थितिमें जैनपुरातत्त्वका संकलन एवं प्रकाशन कितना अभाव में उनका पृथक्करण करने एवं समय निर्णय आवश्यक है उसे बतलाने की जरूरत नहीं, विज्ञजन करनेमें कितनी असुविधा होती है, उसे भुक्तभोगी ही उससे भली भांति परिचित हैं। आज इसी दृष्टिको जानते हैं, और इसलिये अप्रकाशित साहित्यको शीघ्र लेकर पाठकोंके समक्ष एक अप्रकाशित ग्रंथ और उसके प्रकाशमें लानेकी उपयोगितासे किसीको भी इनकार कर्ता मादिके सम्बंधमें प्रकाश डाला जाता है। आशा नहीं हो सकता। भारतीय पुरातत्त्वमें जैन इतिवृत्तों है विद्वाज्जन उम पर विचार करेंगे। की महत्ता एवं प्रामाणिकता अपना खासा स्थान रखती प्रस्तुत ग्रंथका नाम 'धर्मरत्नाकर' और उसका
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किरण ४-५ ]
प्रपाद्य विषय गृहस्थ मे हे प्रत्येक गृहस्थ के द्वारा आचरण करने योग्य अणुव्रत गुणवत और शिक्षाव्रत
द्वादश व्रतों के अनुष्ठानका इसमें विस्तृत विवेचन दिया हुआ है । ग्रंथ में बीस प्रकरण या अध्याय हैं जिनमें विवेचित वस्तुको देखने और मनन करने से उसे धर्मका रत्नाकर अथवा धर्म लाकर कहने में कोई अत्युक्ति मलूम नहीं होनी और वह उसका साथक नाम है। साथ ही ग्रंथ सुन्दर संस्कृत पद्यों अलंकृत है, जो पढ़ने में भावपूर्ण और सरस प्रतीत होते हैं प्रथमें स्वरचित और प्रमाणरूप में निविष्ट दूसरे आचार्यों तथा विद्वानों के चुने हुए वाक्य यत्र तत्र पाये जाते हैं, जिनसे विषयका करण हो जाता है और उन्हें बारबार पढ़ने के आर चित्त आकृष्ट होता है। आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासनका, अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थमिद्धयुपायका और आचार्य सामदेव के यशस्तिलकका, 'उक्त'च' वाक्य के साथ अथवा fear किसी ऐसे वाक्यके ही प्रन्थभर में खूब उपयोग किया गया है और इससे प्रथक कर्तृत्वसम्बन्ध में भी काफी प्रकाश पड़ता है। इस ग्रंथके कर्ता श्राचार्य जयसेन हैं जो उस समय साधु सम्प्रदाय में प्रसिद्ध थे और सभी जनों को आनन्ददायक थे श्राचार्य जयसेनने अपनी गुरुपरम्परा' इस प्रकार दी है गुरु भावसेन, १ मंदार्येण महर्षिभिर्विदरता तेपे तपो दुखरं, श्री खंडिल्लक रत्तनान्तिकरणाभ्यर्द्धिप्रभावात्तदा । शायनाप्युक्तस्पृता सुरतरुप्रख्यां जनानां 'श्रियं', तेना जीयत झाडवागडइति त्वेको हि संघोऽनघः ॥ २ ॥ धर्मज्योत्स्नां विकिरति सदा यत्र लक्ष्मीनिवासाः, प्रापुश्चित्रं सकलकुमुदायत्युपेता विकाशम् । श्रीमान्सो भून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गद्रस्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनीभूतयोगीन्द्रवंशे ॥ ३ ॥ भक्त्वा वादीन्द्रमान पुरि पुरि नितरां प्राप्नुवन्नुद्यमानं । तन्वन् शास्त्रार्थदानं रुचिरुचिरुचिरं सर्वथा निर्निदानं ॥ विद्यादर्शोपमानं दिशि दिशि विकिरन् स्वं यशो योऽसमानं । तेभ्यः(तस्मार्छु।) शांतिषेणः समज नि सुगुरु: पापधूली- समीर ः।। यत्रास्पदं विदधती परमागमश्रीरात्मन्यमन्यत्मतत्वमिदं तु चित्रम् ।
धर्मरत्नाकर और जयसेन नामके आचार्य
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भासेन के गुरु गोपसेन, गोपसेन के शांतिषेण और शांतिषेणके गुरु धर्मसेन गणीन्द्र । ये सब साधु झाडबागड़ संघ, जोकि वागड़ संघका ही एक भेद जान पड़ता है, विद्वान थे क्योंकि बागड़के साथ जो 'झ ड़' विशेषण लगा हुआ है वह बागड़संघ के ही भेदका सूचक अथवा निर्देशक है । परन्तु प्रयत्न करनेपर भी इस संघ के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी ।
धर्मनार में स्वामी समन्तभद्र के देवागम और रत्नकरण्डका भी अनुकरण है। साथ ही स्वानी समन्तभद्र और कलंकदेवको तर्क और प्रमाणके द्वारा जैनशासनका समुद्धार करने वाला भी प्रकट किया है जैसा कि उसके निम्गपद्य में प्रकट है :-- स्वामी समन्तभद्रः मानकलंकदेव इत्याद्य: । तर्केण प्रमाणैरपि शासनमभ्युद्धरति स्म ॥ ७६ आरा प्रति, पत्र ५० ।
ग्रंथ में पात्रोंका स्वरूप और उनके भेदोंका निर्देश करते हुए पात्रदान करनेकी प्रेरणा की गई है। तथा ज्ञानकी महिमाका जयघोष करते हुए बतलाया है कि
वृद्धा च संततमनेकजनोपभोग्या
श्रीगोपसेन गुरुराविग्भूत्स नस्मात् ॥ ५ ॥ उत्पत्तिस्तपसां पदं च यशसामन्यो रविस्तेजसामादि: सद्वचसां विधिः सुनरसामासोन्निधिः श्रेयसां । श्रावास गुणिनां पिता च शमिनां माता च धर्मात्मनां, न ज्ञातः कलिना जगत्सुबलिना श्रीभावसेनस्ततः ॥ ६ ॥ ततो जातः शिष्यः सकलजनतानन्द जनन: ( क ) । प्रसिद्ध: साधूनां जगति जयसेनाख्य इह सः ॥ इदं चक्रे शास्त्रं जिनसमयसारार्थ निश्चितं । हितार्थे जन्तूनां स्वमतिविभवाद्
गर्व - विकलः ॥ ७ ॥ - धर्मरत्नाकर प्रशस्ति
२ वागs देशको वाग्वर, वागट, वैय्यागढ़ भी कहते हैं । यह संघ इसी देश के नामसे विश्रुत हुआ है, इसी कारण इसे वागड़ संघ कहते हैं । यह संघ अनेक भेदोंमें विभाजित रहा है, जैसे लाडवागड संघ और झाडवागड संघ, उनमें लाडवागडसंघ माथुरसंघका ही एक भेद उल्लिखित मिलता है।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
"प्रज्ञ प्राणी जितने कर्म करोड़ वर्षों में क्षय करता है दिया हुआ है और उन दश सम्यक्त्वोंकी स्वरूप ज्ञानी जीव उतने कर्म त्रिगुप्तिसे उश्वास मात्रमें नष्ट निर्देशक सस्कृत गद्य भी यशस्तिलक चम्पूके ६ ठवें कर देता है"।
आश्वासके पृष्ठ ३-३ के समान ही दी हुई है यथाः___ ग्रंथ(पारा प्रति पत्र १०४में 'ओं णमो अग्हंताणं' आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् ।
आदि महामंत्र के बाद षट् बण्डागम के वेदनाखण्ड गत विस्तारार्थाभ्यां भवभवपरभावादिगाढं च ॥१०-३० ४४ मंगल सूत्रोंमेंस 'ओंगणमो जिणाणं' आदि २५- 'अस्यार्थः-भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीतागमानुज्ञासंज्ञा ३० मंगलसूत्र भी समुद्धृत हैं, जिन्हें ग्रंथकाने विघ्न आज्ञा. ग्लत्रयविचारसर्गो मार्गः, पुराणपुरुषचरित विनाशक एवं सुग्वप्रद समझकर रक्खा है । पश्चात् श्रवणेभिनिवेशः उपदेशः यतिजनाचा निरूपणपात्रं कतिपय पद्यों के साथ कुछ प्राकृत पद्य भी उद्धत किये सूत्रम्। सकलसमयदलसूचनाव्याज वीजम्, प्राप्तश्रुतव्रतहैं जिनमें अरहंतादि पंचपरमेष्ठियों तथा यक्षादिकों पदार्थ समासालापेक्षः संक्षेपः, द्वादशांगचतुर्दशपूर्वप्रका आह्वान किण गया है. और कुछ संस्कृत में बीजाक्षर कीर्णविस्तीर्णश्रतार्थसमर्थनप्रस्तारो विस्तारः, प्रवचन युक्त मंत्र भी दिये हैं। अनंतर १०७ वें पत्रमें देवशास्त्र विषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः त्रिविधस्यागमस्य निःशेषतो गुरु की नैमित्तिकपू के आदिमें पढ़े जाने वाले ऽन्यतमदेशावगाहालीढमवगाढम् अवधिमनःपर्ययचौंठ ऋद्धियोंक नाम व स्वरूप निर्देशक-नित्या- केवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम ॥" प्रकम्पादतकेवलाघाः स्फुरन्मनःपर्ययशुद्धबाधाः ।' धर्मरत्नाकरमें आचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ इत्यादि पद्य भी पाये जाते हैं जिनके कर्तृत्वका अभी सिद्धय पायके ५६ पद्य पाये जाते हैं। और भी कुछ कोई निर्णय नहीं है कि वे वतः ग्रंथकार जयसेनाचार्य पद्योंका होना संभव है।साथ ही इन पद्योंके अतिरिक्त कुछ द्वारा बनाये गये हैं अथवा इनसे पूर्ववर्ती किसी अन्य पटा ऐसे भी हैं जिनमें कल पाठभेट पार
पद्य ऐसे भी हैं जिनमें कुछ पाठभेद पाया जाता है । यथाः आचार्य द्वारा निर्मित हैं।
पात्र त्रिभेदमुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणान म्। ___ व्रतोंका महत्व ख्यापित करते हुए उनमें प्रसिद्धि
__अविरतसम्यग्दृष्टिः विरताविरतश्च सकलविरतश्च ।। पानेवाले कुछ भव्योंका नामादि समुल्लेखपूर्वक
-पुरुषार्थसिद्धथु पाय १८१ उल्लेख किया है और सम्यग्दर्शनका स्वरूप व महत्व पात्रं त्रिभेदमुक्त संयोगो मुक्तिकार णगुणानां । प्रकट करते हुए क्षायिक सम्यक्त्वका निम्नरूपसे महत्व सम्यग्दृष्टिविरतो विरताविरतस्तथा विरतः ॥ प्रकट किया है।:
__-धर्मरत्नाकर १८-१४-पृष्ट १२१ श्रेणकक्षितिपतियथा वहनक्षायिक तदनु रेवती परं। इसी तरह सोमदेवाचाय कृत यशस्तिलकके ६ ठे आदिराजतनुजा सुदर्शनाच्छिश्रियुः शिवपदं क्षणादपि। ७ वें और ८ वें श्राश्वासके सौसे भी अधिक पद्य पाये
अाज्ञादि दश सम्यक्त्वोंका नामनिर्देश सूचक जाते हैं। यहां यह कह देना अनचित न होगा कि यर्याप श्रात्मानुशासन का वह ११ वाँ पद्य भी ज्य का त्यों यशस्तिलक चम्प में भी अन्य ग्रंथोंसे कितने ही पद्य १ अज्ञानी यत्कर्म क्षपय त बहुकाटिभिः प्राण।। उद्धत हैं। परन्तु धर्मरत्नाकरको देखनेसे यह स्पष्ट तज्ज्ञानी गुप्तात्मा क्षयत्युच्छ वासमात्रेण || ६-१२ है कि उनके समक्ष सोमदेवका यशस्तिलक चम्प
धर्मरत्नाकरके इस पद्य को देख कर श्राचार्य कुन्दकुन्द जरूर रहा है और उसका उन्होंने अपनी रचनामें के प्रवचनसारका निम्न पद्य याद अाजाता है जिसका उपयोग भी किया है। कहीं कहीं तो उनके पद्यों के भावानुनाद स्वरूप ऊपर संस्कृत श्लोक दिया गया है- भावानुवाद को ही दे दिया गया है। जं अगाणी कम्मं ववाद भवसायसहस्सकोडीहिं। १ इन पद्योंक नम्बरोका उल्लेख 'अमृतचन्द्रसूरिका समय' तं णाणी तिहिं गुत्ती खदि उस्सासमेत्तेण ॥
शीर्षक लेखसे जानना चाहिये. जो अनेकान्तकी इसी -प्रवचनसार ३-३८ किरण में अन्यत्र प्रकाशित है।
अका
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किरण ४-५]
धर्मग्त्नाकर और जयसेन नामके भाचार्य
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धर्मरत्नाकरकी कितनी हो प्रतियों में उसका वैयाकरण. प्रभावशाली और सम्पूर्ण सिद्धान्त ममुद्ररचनाकाल विषयक पद्य नहीं है वह लेखकों की के पारगामी बतलाया है, जिमसे वे महान योगी,
ट गया जान पड़ता है। परन्तु ऐलक पन्ना- तपस्वी और प्रभावशाली सैद्धान्तिक आचार्य मलूम लाल दिगम्बरजैन सरस्वतीभवन व्यावर के शास्त्रभंडार होते हैं। साथ ही कर्मप्रकृतिरूप आगमके धाक की एक प्रतिमें जो सं० १७७६ की लिखी हुई है, होने के कारण संभवतः वे किसी कर्मग्रंथ के प्रणेता भी रचना समयवाला पद्य निम्न रूपमें पाया जाता है:- रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं; परन्त उनके वाणे न्द्रयव्योमसोममिते संवत्सरे शुभे (१०५५)। द्वारा किसी ग्रंथके रचे जाने का कोई प्रामाणिक स्पष्ट ग्रंथोऽयं सिद्धतां यातः सकली करहाटके' ॥१॥ उल्लेख अभी तक देखने में नहीं आया। ___ इस पद्यपरसे प्रस्तुत ग्रंथका रचना काल वि० सं० आदिपुराणके कर्ता जिनसेनाचार्य, जो व रमना१०५५ स्पष्ट है। और यह सकलीकरहाटक नामके चार्य के शिष्य थे, हरिवंशपुगणके कर्ता से पहले हो किसी नगरमें बनकर समाप्त हुआ है।
गए हैं क्योंकि हरिवंशपुराणकारने जिनसेनके पार्श्वभ्युजयसेन नामके दूसरे विद्वान् दयकाव्यका पार्श्वजिनेन्द्रगुणस्तुति' रूपसे उल्लेख किया जयसेन नामके कई विद्वान आचाय हो चुके हैं है जिससे आदिपुराण का पुत्राटसंघीय जिनमनसे जिनका कुछ परिचय यहां प्रस्तत किया जाता है। पूर्ववातत्व स्वतः सिद्ध है। अतः उक्त दोनों ग्रंथकारों उससे अन्वेषक विद्वानों को एक नामके कुछ विद्वानों ।
नों द्वारा स्मृन जयसन एक ही विद्वान मालूम होते हैं। का एकत्र परिचय मिल सकेगा।
जिनसंनने अपने हरिवंशपुगणमें जो विस्तृत गुरुरंप्रथम जयसेन वे हैं जिनका उल्लेख ईसाकी प्रथम
___ परा दी है उसमें न्होंने अपनेको जयसेनके शिष्य शताब्दीक मथुराके शिलालेखमें पाया जाता है और
अमतसेन और प्रशिष्य कीर्तिषेणका शिष्य बतलाया जो धर्मघोषके शिष्य थे।
है। अब अमितसेन और कीर्तिषेण का समय यदि द्वितीय जयसेन वे हैं जिनका स्मरण आदि
प्रत्येकका पञ्चीस पच्चीस वर्षका अनुमानित किया पुराणके कता भगवजिननाचार्य ने किया है और
जाय जो अधिक मालूम नहीं होता तो जयमनका इ मालूम होता है कि वे एक महातपस्वी
समय शक संवत ६५५ (वि० सं०७६०) या इसके श्रत और प्रशमके, तथा विद्वत्ममूहमें अग्रणीय थे, आस-पास का होगा; क्योंकि जिनसेनने अपना हरिवंश जैसा कि उनके निम्न पद्यस प्रकट है:
पुराण शक सं०६०५ (वि० सं०७४०) में बनाया है। जममिस्तपालक्ष्म्या श्र.प्रशमयोनिधिः।
अतएव उक्त दोनों ग्रंथकारों द्वारा स्मृत अयसेन विक्रम जयसनगुरुः पातु बुधवृन्दाग्रणी मनः॥५४॥ की८वीं शताब्दीके द्वितीय जयसेन मालूम होते हैं। और
पुन्नाटसंघी प्राचार्य जिनसननेभी अपने हरिवंश- यह भी हो सकता है कि दोनों जयसेन भिन्न भिन्न भी पुराणमें एक जयसेनका महत्वपूर्ण शब्दों में उल्लेख रहे हों, अतः इ के एकत्व अथवा प्रथकत्व विषयक किया है । यथाः--
विशेष प्रमाणों के अनुसंधान की प्रावश्यक्ता है। दधार कर्मप्रकृतिं च यो श्रुति जिताक्षवृत्तिर्जयसेनसद्गुरुः। तृतीय जयसेनका उल्लेख प्रद्युम्नचरितके कर्ताप्राचार्य प्रसिद्धवैयाकरणप्रभाववानशेषराद्धान्तसमुद्रपारगः ॥ महासेनने किया है जो लाडवागड़संघक पूर्णचन्द्र थे ____ इस पद्यमें जयसेनको सद्गुरु इन्द्रियव्यापार शास्त्रसमुद्र के पारगामी थे, तपके निवाम थे और स्त्री विजयी. कमप्रतिरूप आगमक धारक, प्रसिद्ध की कलारूपी बाणोंसे नहीं भिदे थे--पण ब्रह्मचयसे १ यह पद्य भवनके मेनेजर पं. दीपचन्दजी पांड्या की कृपासे ३ यामिताभ्युदये पार्श्वजिनेन्द्र गगासंस्तुतिः।
प्राप्त इन है। अत: मैं इसके लिये उनका आभारी हूँ। स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति मंकी त्यसौ ॥ ४०॥ २ See, E.J; P. 1991
-हारवंश पुराण १-४०
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अनेकान्त
प्रति थे, जैसा कि उनके निम्न पद्यसे प्रकट है:-- श्रीला वर्गटनभस्तल पूर्णचन्द्रः शास्त्राणवान्तगसुधीस्तपसां निवासः । कान्ताकलावपि न यस्य शरैर्विभिन्नं स्वान्तं बभूव स मुनिर्जयसेननामा ॥ - प्रद्युम्नचरित कारंजा प्रति यह जयसेनाचार्य महासेन के प्रगुरु- गुणाकरसेनसूरके गुरु थे । गुणाकरसेनसूरि के शिष्य महासेनका समय पं० नाथूरामजी प्रेमीने सं० २०३१ से १०६६ के मध्यमें किसी समय बतलाया है। और यदि महासेनसे ५० वर्ष पूर्व भी जयसेनाचार्य का समय माना जाय तो भी वह १० वीं शताब्दी का उत्तरार्ध हो सकता है; क्योंकि महासेन राजा मुंजके द्वारा पूजित थे, और मुंजका समय विक्रमकी ग्य रहवीं शताब्दीका का है । इनके समय के दो दानपत्र सं० १०३१ और १०३६ के मिले हैं। और प्रेमीजी की मान्यतानुम र सं० २०५० से १०५४ के मध्य में किसी समय तैलपदेवने मुंजका बध किया था। इससे स्पष्ट है कि श्राचार्य महासेन विक्रम की ११ वीं शताब्द के
में हुए हैं। और इनके गुरु तथा प्रगुरु जयसेन दोनों का समय यदि इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माना जाय, जो अधिक नहीं, तो इन जयसेनका समय विक्रमकी दशवीं शताब्दीका अन्तिम भाग होगा । इस विवेचनसे इतना और भी स्पष्ट हो जाता हैं कि यह जयसेन पूर्वोक्त जयसेन नामके विद्वानों से भिन्न हैं; क्योंकि वे इनसे बहुत पहले हो गये हैं । और वे लाड बागड़ संघके आचार्य भी नहीं थे । अतः यह तृती" जयसेन नामके जुदे. ही विद्वान हैं।
चतुथं जयसेन वे हैं जो भावसेनके शिष्य और कर्ता थे और जिनका समय सं० १०५५ पहले बतलाया जा चुका है। इन जयसेनका समुल्लेख आचार्य नरेन्द्रसेनने अपने सिद्धान्तसारकी अन्तिम प्रशस्ति पद्य में निम्न रूपसे किया है:
ख्यातस्ततः श्रीजयसेननामा जातस्तपः श्रीक्षतदुःकृतौघः । यः त्तर्कविद्यावदश्वा विश्वासगेहं करुणास्पदानां ।। १ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १८४ ॥
[वर्ष
८
इस पद्य में भावसेनके शिष्य जयसेनको तप रूपी लक्ष्मा के द्वारा पापसमूह का नाशक, सर्त्तकविद्याfa पारदर्शी और दयालुओं के विश्वासपात्र बतलाया गया है ।
पांचवें जयसेन वे हैं जो वीरसेनके प्रशिष्य और सोमसेन के शि" थे, ' । इन्होंने श्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राभृतत्रयपर अपनी 'तात्पर्य वृत्ति' नामकी तीन टीकाएं लिखी हैं। इनका समय डा० ए० एन उपध्ये एम. ए. डी. लिट् कोल्हापुर ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में ईसाकी १२ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और विक्रमकी १३ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया है; क्योंकि इन्होंने श्राचार्य वीर नन्दीके आचारसारसे दो पद्य उद्धत किये हैं । आचार्य वीरनन्दीने आधारसारकी स्वोपज्ञ कनड़ टीका शक सं० २०७६ (वि० सं० १२११) में पूर्ण की थी । इनके गुरु मेघचन्द्र त्रैविद्यदेवका स्वर्गवास विक्रम को १२ संदीके उणन्त्य समय में अर्थात् १९७२ में हुआ था। इससे जयमेनसूरिका समय विक्रमकी १३ व सदीका प्रारम्भ ठीक ही है।
छठे जसे वे हैं जो प्रतिष्ठासार के कर्ता हैं और जिनका अपरनाम वसुविन्दु कहा जाता है । यह अपनेको कुन्दकुन्दाचार्यका अशिष्य प्रकट करते हैं। इन्होंने प्रतिष्ठापाठ नामका ग्रंथ दक्षिण दिशा में स्थित 'कुकुर' नामके देश में सह्याद्रिके समीप श्रीरत्नागिरके ऊपर भगवान चन्द्रप्रभके उन्नत चैत्यालय में (जिसे लालाहराजाने बनाया था ) बैठकर प्रतिष्ठा करने के लिये गुरु की आज्ञा से प्रतिज्ञा पूर्ति निमित्त ? See, Introbuction of the Provacansara Po 10+
और प्रवचनसारी तात्पर्यवृत्ति प्रशस्ति । २ देखो, तात्पर्यवृत्ति पृ० ८ और श्राचारसार ४-६५-६६ श्लोक |
३ स्वस्तिश्रीमन्मेघचन्द्रत्रैविद्य देवरश्रीपादप्रसादासादितात्म प्रभावसमस्त विद्याप्रभाव सकल दिग्वर्तिकीर्तिश्रीमद्वीरनन्दिसैद्धान्तिकचक्रवर्तिगलु शक वर्ष २०७६ श्रीमुखनाम - संवत्सरे ज्येष्ठ शुक्ल १ सोमवारदंदु तावुमाडियाचारसारक्के कर्णाट वृत्तियमा डिदपर" |
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किरण ४-५]
जैनधर्ममें वर्णव्यवस्था कर्म से ही है, जन्मसे नहीं
२०५
दो दिन में बनाया था । इस प्रतिष्ठापाठको देखने से
उपसंहार प्रथ कोई महत्वशाली मालूम नहीं होता, भौर न म प्रविवेचनपरमे. जिसमें धर्मरत्नाकरके उसमें प्रतिला सम्बन्धी कोई खास वैशिष्टय ही नज़र परिचयके साथ छह जयसेन नामके विद्वानोंका संक्षिप्त
आता है । भाषा भी घटिया दर्जे की हैं जिससे ग्रंथकी परिचय कराया गया है और धमलाकर के को महत्ता एवं गौरवका चित्तपर विशेष प्रभाव नहीं जयसेनका स्पष्ट समय निश्चित किया गया है, प्राचाय पड़ता। इस कारण यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह अमृतचन्द्र के समयपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और प्रवचनसारादिप्राभृतग्रंथोंके कर्ताक शिष्य नहीं हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके समयकी उत्तरावधि किन्हीं दूसरे ही कुन्दकुन्द नामके विद्वानके शिष्य वि० सं० १०५५ के बाद की नहीं हो सकती, इसस हो सकते हैं। इनके सम्बन्धमें भी अन्वेषण करना
अमृतचन्द्र के समय-सम्बन्ध में एक स्वतंत्र लेख द्वाग जरूरी है।
विचार किया गया है। १ देखा, प्रतिष्ठापाठ प्रशस्ति ।
ता०३-५-४६, बीरसेवामन्दिर, सरमावा।
जैनधर्ममें वर्ण-व्यवस्था कर्मसे ही है, जन्मसे नहीं
[वीर-शासनमें साम्यवादका महत्वपूर्ण आधार] (लेम्बक-वैध पं० इन्द्रजीत जैन मायुर्वेदाचार्य, शास्त्री, न्यायनीर्थ )
जिस तरह पूर्ण अहिंसाबाद सर्वजीवोंमें माम्य- पूर्ण रूपसे स्थापित किया और जन्मसे किसीको भी वादका आधार है उसी तरह मनुष्यवर्ग में भी साम्य- ऊँच नीच नहीं माना । केवल जो ऊँचे कर्म (अहिमा, पादका आधार जन्मसे वर्ण व्यवस्थाको न मानना झूट, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पापोंके त्यागरू) ही है। यही कारण है कि भगवान महावीरने प्रचलित आचार-विचार पाले, उस ऊँचा (उच्चवर्णी) घोषित वणव्यवस्थाको जन्मसे न मानकर कर्म (क्रिया) से किया और जो उक्त प्रकारके उन आचार विचार न ही माना है। और सभी प्राणियों को जैन धर्म धारण पाले उसे नीच घोषित किया । जन्मसे ऊँच-नीचका करनेका अधिकारी बतलाया है । जिस वैदिक युगमें फतवा किमीको नही दिया । श्राज तमाम जैनशास्त्र शूद्रोंको पशुसे भी बदतर माना जाता था तथा शूद्रों इस बातको बतलाते हैं कि वणे - व्यवस्था कर्मसे है, की छाया पड़ने पर भी वैदिक पंडित स्नान कर डालते जन्मसे नहीं।। थे । उस समय भ० महावीरने उन सभी वर्गके प्राणियोंको अपने धर्ममें दीक्षित किया और उनकी प्राइये गठक ! जैनधर्मानुमार वर्ग,व्यवस्थाके
आत्माका कल्याण किया था। इसीलिये भ० महावीरके आदि स्रोतपर नजर डालें । जैनधर्मानुसार इस समवशरण (धर्मसभा ) में सभी तरह के मनुष्य, पृथ्वीपर दो समय विभाग माने गये हैं, एक भोगपशु-पक्षी. देव-दानव जाकर जैनधर्म धारण करते भूमिका समय और दूसरा कर्मभूमिका समय ।
और अपनी अत्माका कल्याण करते थे । भ० वीरने भोगभूगिके समय सभी मानव व निर्यच कल्पवृक्षसर्व जीवोंमें और खासकर मनुष्य वर्गमें साम्यवाद जन्य सभी तरह के सुग्वोंका अनुभव करते हैं और
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अनेकान्त
[वर्ष ८
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व्यापारादि बाह्य परिश्रमकी वहां कोई जरूरत नहीं. कायम की ऊँचनो के ख्यालसे नहीं। चूँकि तीर्थकर होता है । भागभूमिके सभी मनुष्य समान होते और समदर्शी और दयाके समुद्र थे वे कैसे उन आर्यों में आर्य कहलाते हैं। फर्मभूमिके समयमें मनुष्योंको किमीको ऊँच और किमीको नीच कह सकते थे । उस अपने कर्म-पुरुषार्थ (असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, व्यवस्थासे सभी मनुष्य अपने अपने निश्चित कर्मों सेवा, शिल्प) द्वारा अर्थात् शासन-रक्षण , लेखन, द्वारा आजीविका हल करने लगे। इस प्रकार क्षत्रिय खेती, व्यापार, दूसरोंकी सेवा, और चित्रकारी आदि वैश्य, शूद्र वर्णकी नीव भ० ऋषभदेवने आजीविका कार्योंसे आजीविकाकी समस्या हल करनी पड़ती है। भेद और आचारभेदपर डाली । इसके बाद भ० ऐस समयका ही कर्मभूमिका समय कहते हैं। इस ऋषभके पुत्र भरत चक्रवर्तीने तीनों वर्गों के दयालु युगके पूर्व भारतमें भोगभूमिका समय था । उस लोगोंको छाँटकर ब्राह्मणवण स्थापित किया । अादि जमानेमें मभी मानव श्रआर्य कहलाते थे और कल्प- पुगण पर्व ३६ से प्रकट है कि भरत चक्रवर्तीन जब बृक्ष जन्य सुग्वोंका अनुभव करते थे, जैनधर्मानुसार ब्राह्मण वर्ण स्थापित करनेका विचार किया तो एक उस समय मानवोंमें कोई वर्ण-व्यवस्था नहीं थी, उत्मवका आयोजन करके उसमें गजाओंको अपने सभी उच्च और आय कहलाते थे। जब भोगभूमिकी मित्रों बन्धुओं और नौकरों सहित निमंत्रित किया। ममाप्ति हो गई और फल्पवृक्ष भी नष्टप्रायः हो गये निमंत्रणमें जो लोग सम्मिलित हुए उनमें क्षत्रिय, एवं कमभूमि प्रारम्भ होगई और इसमें उन अाय वैश्य, शूद्र सभी तरह के मनुष्य थे। उनमें जो भरत मनुष्यों को भोजनादि सामग्री मिलना कठिन होगया महाराज के आंगन में उगे हुये हरे धान्योंको कूचते तब वे आर्य मनुष्य उस जमानेके कुलकर नाभिराजाके हुये पहुँचे उन्हें तो चक्रवर्तीने घरसे बाहर निकाल पास पहुँचे और दुःखको निवेदन किया। नाभिगजाने दिया और जो दयाप्रधानी धान्योंको न कूचकर बाहर समझाया कि 'अब भागभूमि समाप्त हो चुकी है और ही खड़े रहे और जब वापिस जाने लगे तो उन्हें कर्मभूमि प्रारंभ हो गई है, अतः अब तुम लागोंको धर्मात्मा दयालु समझकर ब्राह्मणवर्ण संज्ञा दी और अपने परिश्रम द्वारा श्राहारादिकी ममस्या हल करनी उनका उचित सम्मान किया। इस तरह भरत महागजहोगी।' उन्होंने उसके उपाय बताये और विशेष ने तीनों वर्णोके लोगोंमेंसे दयालुओंको छांट कर समझने के लिये अपने पुत्र भगवान ऋषभदेवके ब्राह्मण बनाया । इससे साफ जाहिर है कि पास भेज दिया । भ. ऋषभने उन सबको असि, वर्ण-व्यवस्थाकी नीव आचार-क्रिया और आजीविकाममि, कृषि, वाणिज्य, सेवा, शिल्प इन छह कमाकी भेदपर बनी है -नित्य जन्मता नहीं है। व्यवस्था बतलाई और इन्ही षट् कर्मोद्वारा श्राजी वका वर्णों का परिवर्तन भी क्रिया-धंधा बदल देनेपर हल करनेकी समस्या समझाई। उम्ही भ० ऋषभदेवने होजाता है। जैसा ऊपर सिद्ध किया है। श उन मनुष्योंको-जिनने असिकर्म-शस्त्र चलाना वर्णलाभ करने वालेको पूर्वपत्नीके साथ पुनर्विवाह
और शासनकर्म (लोकरक्षण)द्वारा आजीविका मंजूर को करनेका विधान मौजूद हैक्षत्रियवर्ण संज्ञादी । जिनने खेती, व्यापार पुनर्विवाहसंस्कारः पूर्वः सर्वोस्ऽय सम्मतः। और लेखनकला द्वारा आजीविका मंजूर की
(आदिपु० पर्व ३६) वैश्यवर्ण संज्ञादी और जिनने सेवा करना अर्थात्-नवीन वर्णलाभ करनेपर पूर्वकी पत्नी और शिल्पकर्म द्वारा श्राजीविका स्वीकार की उनको के साथ फिरसे विवाह संस्कार करना माना गया है। शूद्रसंज्ञा दी । इस तरह भ० ऋषभदेवने संमारका आदिपुराणमें अक्षत्रियोंको क्षत्रिय होने बावत भी कार्य सुचारुतया और शान्तिपूर्ण ढंगसे चलता रहे, एसा उल्लेख हैइस बातको ध्यान में रख कर ही वर्तमान वर्णव्यवस्था "अक्षत्रियाश्च वृत्तस्थाः क्षत्रिया एव दीक्षिताः।"
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किरण ५-५]
जैनधर्ममें वर्णव्यवस्था कर्म से ही है जन्मसे नहीं
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अर्थात चारित्र धारण करनेपर अक्षत्रिय भी चिन्हानि विडजातस्य. सन्ति नांगेष कानिचित । दीक्षित होकर क्षत्रिय होजाते हैं। अतः क्रिया-आजी- अनायेमाचरन् किश्चिज्जायते नीचगोचरः।। (प०पु०) विकाके साधन बदलनेपर वर्णपरिवर्तन होजाता है। अर्थात्-व्यभिचारस पैदा हुयेके अङ्गों में कोई चिन्ह इमी तरह आचार छोड़नेपर अन्य कुलवर्ण होजाता है नजर नहीं आता है, जिससे उस नीच समझा जासके ।
"कुलावधि कुलाचाररक्षणं स्यात् द्विजन्मनः। अतः जिसका प्राचार नीच है वही नीच वर्ण समझा तस्मिन्नसत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यकुलतां ब्रजेत् ॥” जाता है।
a (आदिपु० ४० वां ५०, १८१ श्लोक) विप्र-क्षत्रिय-विड़-शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः। अर्थात्-ब्राह्मणोंको कुलकी मर्यादा और कुला- जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बिन्धवोपमाः ।। चारकी रक्षा करना चाहिये । यदि कुलकी मर्यादा
(अमितगत ध०र०) और कुलाचारकी रक्षा न की जाये तो नष्टक्रिया वाला अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद्र ये सब वर्ण बाहामा अन्य कल वर्णवाला होजाता है। अतः वर्ण क्रियाभेदसे कहे गये हैं। जैनधर्मको सभी धारण की व्यवस्था जैनशासनमें आचार-क्रिया-विशेषपर कर सकते हैं और धर्म धारण करनेसे वे सब भाईके निर्भर है-जन्मसे नहीं।
समान होजाते हैं। जैनशास्त्रोंस यह भी प्रकट है कि प्रत्येक चक्रवर्ती "नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् ।। नारायण आदि प्रतिष्ठित महान पुरुषोंने और शान्ति
(गुणभद्राचार्य) नाथ कुथुनाथ अरहनाथ इन तीन तीर्थकर चक्र - SI
अर्थात-मनुष्यों में गौघोड़े के समान जाति (वर्ण) वर्तियांने म्लेच्छ, शद्र, विद्याधर और क्षत्रिय कन्याओं कृत भेद नहीं हैं। से विवाह कर संसार के सामने आदर्श रखा था । मनुष्यजातिरेकंव, जातिमामोदयोद्भवा । दुःख है कि आज हम लोग मिथ्या • दमें व्यस्त होकर वृत्तिभेदाहितानेदाच्चातुविध्यमिहारनुते ।। किसीको ऊँच और किसी (शद्रादि)को नीच मान रहे
(आदि पु० ३८ पर्व ४५ श्लो. हैं। किन्तु जैनशासन सभीको एक मानता है और ब्राह्मणावतसंस्कारात क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । बर्णव्यवस्थाको क्रियाधीन और आजीविका दम वाणिजोर्थार्जनान्न्यय्यात शृद्राः न्यक्वृत्तिसं यात ।। मानता है। यहां हम इस सम्बन्धमें शास्त्रीय प्रमाण
_ (आदिपु० ३८ पर्व, ४६ श्लो०) को प्रस्तत करते जो जैन शालों में भरे पडे :- अर्थात-जातिनामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई चातुर्वण्य यथान्यच्च, चाण्डालादिविशेषणम्। मनुष्य जाति एक ही है किन्तु आश्रीविका भेदोंसे चार सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ।। ।। (पद्मपु०)
भागों में बट गई है । व्रतों के संस्कारस ब्राह्मण, शस्त्र अर्थात-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद, चांडालादि धारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक द्रव्य कमानेसे वैश्य; भेद आचारभेदसे ही माने गये हैं।
और नीचवृत्तिका आश्रय लेनेसे शूद्र कहलाते हैं। श्राचारमात्रभेदेन, जातीनां भेदकल्पनम् । वर्णाकृत्यादिभेदानां, देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । न जातिाह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी ॥ ब्राह्मण्यादिपु शूद्राद्यैः गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥ गुणैः संपद्यते जातिः गुणध्वंसैविपद्यते।
(उत्तरपुराण प०७४) (धर्मपरीक्षा) अर्थान--इस शरीरमें वर्ण और आकारसे भेद अर्थात्-ब्राह्मणत्वादि जाति वास्तविक जाति नहीं नहीं दिखाई देता है । तथा ब्राह्मणी आदिमें शूद्रादि है। सिर्फ प्राचारके भेदस जाति की कल्पना है। के द्वारा गर्भाधान भी देखा जाता है । तब कोई गुणोंसे जाति प्राप्त होती है और गुणों के नाशसे व्यक्ति अपने वर्ण और जातिका घमंड कैसे कर नाशको प्राप्त होजाती है।
सकता है ? इसलिये जो सदाचारी है वही उच्च
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अनेकान्त
वर्णी है और जो दुराचारी है वह नीच वर्णी है। वर्णको बास्तविक' न होनेसे ही जैनशासनम त्रिवर्णाचार शास्त्र नहीं पाया जाता है, जो त्रिवर्णाचार सोमसेन भट्टारककृत है वह नकली है और हिन्दू धर्म की पूरी नकल है | अतः वह माननीय नहीं । जिस तरह नाना तरह के प्रणीत श्रावकाचारविषयक शास्त्र मिलते हैं उस तरह विचार जैन धर्म में एक भी नहीं है । उसका कारण वर्णको वास्तविक न मानना ही है। हाँ, आधार भेदसे वर जरूर माना है किन्तु जन्मना नहीं । ११ वीं शताब्दी के महान् नैयायिक जैनाचार्य प्रभाचन्द्रजी जन्मना वर्ण और जातिकी धज्जियां उड़ा देते हैं और क्रियासे ही उसको सिद्ध करते हैं । प्रमेय कमल मार्तण्ड ( पृ० १४१ - १४२ ) में उन्होंने प्रबल युक्तियों से जन्मना वर्ण और जातिका खण्डन किया है। यथा-
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" एतेन नित्यं निखिल ब्राह्मण व्यक्तिव्यापकम् ब्राह्मण्यमपि प्रत्याख्यातम् । ननु च ब्राह्मणोऽयमिति प्रत्यक्षत एवास्य प्रतिपत्तिः । न चेदं विग्ययज्ञानं बाधकाभावात् । नापि संशयज्ञानमुभयांशानवलम्बित्वात् । तथानुमानतोऽपि - ब्राह्मणपदं व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमि ताभिधेयसम्बद्धं पदत्वात् पटादिपदवत् ।
अत्रोच्यते यत्तावद्दुक्त' प्रत्यक्षत एवास्य प्रतिपतिः तत्र किं निर्विकल्पकाद् सविकल्पकाद्वा प्रतिपत्तिः स्यात् न तावद् निर्विकल्पकात तत्र जात्यादिपरामर्शीभावात् । भावे वा सविकल्पका नुषंगः स्यात् । नापि सविकल्पकात् कटकलापादिव्यक्तीनां मनुष्यत्वविशिष्ट तयेव ब्राह्मण्यविशिष्टतयापि प्रतिपत्यसंभवात् । श्रथादृश्याव्राह्मण्यजातिस्तेनायमदोषाः कथं तर्हि सा प्रत्यक्षेत्युक्त शोभेत । कि चौपाधिकोऽयं ब्राह्मशब्दः तस्य च निमित्तं वाच्यम् । तच्च कि पित्रोरत्रिप्लुतत्वं ब्रह्मप्रभवत्वं वा ? न तावदविलुत्वमनादौ काले तस्यायण ग्रहीतुमशक्यत्वात । प्रायेण प्रमदानां कामातुरतयेह जन्मन्यपि व्यभिचारोपलंभाच्च कुतो योनिनिबन्धनो ब्राह्मण्यनिश्चयः ? न च विप्लुतेतर चित्रपत्येषु वैलक्षण्यं लक्ष्यते । न खलु वड़वायां देभा स्वप्रभवापत्येविव व्रह्मण्यां त्राह्म i शूद्रप्रभवापत्येध्वपि
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वैलक्षणं लक्ष्यते क्रियाविलोपात् । कथं चैवं वादिनोव्यास विश्वामित्रप्रभृतीनां ब्राह्मण्यसिद्धिः तेषां जज्जन्यत्वासंभवात् । तत्र पित्रो रविप्लुतत्वं तन्निमित्तम् । नापि ब्रह्मप्रभवत्वं सर्वेषां तत्प्रभवत्येन ब्राह्मणशब्दाभिधेयतानुसंगात् । तन्मुखाज्जातो ब्राह्मणो नान्य इत्यपिभेदं ब्रह्मप्रभवत्ये प्रजानां दुर्लभः । न खलु एक वृतप्रभवं फलं मूले मध्ये शाखायां च भिद्यते । ननु नागवल्लीपत्राणां मूलमध्यादिदेशोत्पत्तेः कंठभामर्पादिदृष्टः, एत्रमत्रापि प्रजाभेदः । इत्यप्यसत्, यतस्तत्पत्राणां जघन्योकृष्ट प्रदेशोत्पादात् तत्पत्राणां तद्भेदो युक्तः । ब्रह्मणस्तु तद्देशाभावात् न तद्भेदो युक्तः तद्देशमवि चाम्य जघन्योत्कृष्टतादिभेदप्रसंगः स्यात् । श्रतो न ब्रह्मप्रभवं ब्राह्मण्यम् । तज्जाता किंचित्तथाविधं सहायं वाच्यम् । तच्चाकारविशेषः अध्ययनादिकं वा ? तत्यकार विशेषः तस्याब्राह्मणोऽपि संभवात् । अत एवाध्ययनं क्रियाविशेषो वा तत्सहायतां न प्रतिपद्यते । दृश्यते हि शूद्रोपि स्वजाति विलोपाद्देशांतरे ब्राह्मणो भूत्वा वेदाध्ययनं तत्प्रणीतां च क्रियां कुर्वाणः । ततो ब्राह्मणजातेः प्रत्यक्षतोऽप्रतिभासनात् कथं व्रतवन्धवेदाध्ययनादिः विशिष्टव्यक्ता वेवसिद्धत्येत् । यदप्युक्त ब्राह्मण पदमित्याद्यनुमानं तत्र व्यक्तिव्यतिरिक्त क निमित्ताभिभेय संवद्धत्वं तत्पदास्याध्यक्षवाधितं कठफलादिव्यक्तीनां ब्राह्मण्यविविक्तानां प्रत्यक्षतोऽनिश्च यादश्रावणत्वविविक्तशब्देवत । हेतुश्चानैकान्तिकः सत्ताकाशकालपदे अद्वैतानि पदे वा व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेन संबद्धत्वाभावेपि पदत्वस्यभावात । तत्रापि तत्संबद्धत्व कल्पनायां सामान्यवलेन अद्वैताश्वविशाणादेः वस्तुभूताननुसंगात् । कुतोऽप्रतिपक्षापक्षमिद्धिः स्यात् । ब्राह्मण्येन यष्टव्यभित्यागमोपि न प्रमाणम प्रत्यक्षवाधितार्थाभिधायित्वात् तृथामे हस्ति यूथशतमास्ते -- इत्यागमवत् । ननु ब्राह्मण्यादि जातिविलोपे कथं वर्णाश्रमव्यवस्थातन्निबंध दोषा तपोदानादिव्यवहारो वाजैकानां घटेतेत्यसमीचीनम् । क्रियाविशेष यज्ञोपवीतादिचिन्होपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्व्यवस्थायास्तद्व्यवहारम्योपपत्तेः । कथमन्यथा परशुरामेण निक्षत्रीकृत्य ब्राह्मणदत्तायां पृथिव्यां
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फिरण ४-५]
जैनधर्म में वर्णव्यवस्था कर्मसे है, जन्मसे नहीं
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क्षत्रियसंभवः ? यथा पानेन निःक्षत्रीकृताऽसो तथा वह क्या सविकल्पक प्रत्यक्षसे मालूम पड़ती है अथवा केनचिनिब्राह्मणीकृतापि संभाव्येत । ततः क्रियाविशेष- निर्विकल्पक प्रत्यक्षमे १ निर्विकला प्रत्यक्षमे तो निबंधन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारः । तन्न परपरिकल्पि- मालूम पड़ती नहीं है। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में तायां जाती प्रमाणमस्ति यतोऽस्याः सदावः स्यात। जात्यादि विकल्पका ज्ञान नहीं होता। अगर जात्यादि
दाव वा वेश्यापटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां ब्राह्मण्या- विकल्पका ज्ञान निर्विकल्पमें मानोगे तो वह निविकल्प भायो निन्दा प न स्यात् . जातियतः पवित्रताहेतुः। क प्रत्यक्ष न होकर सविकल्पक प्रत्यक्ष कहलायेगा। मा च तन्मते तदवस्थेव । अन्यथा गोत्वादपि ब्राह्मण्यं मविकल्पक प्रत्यक्षमे भी ब्राह्मणत्व जाति नहीं मालूम निकृष्टं स्यात् । गवादीनां हिचांडालादि हे चिरोषिता- पडनी है। जिस प्रकार मनुष्यों में मनुष्यत्व जाति नामपि इष्टं शिष्टगदानं न तु ब्राह्मण्यादीनाम । अथ मविकल्पक प्रत्यक्षसे नहीं मालूम होती उमी नरह क्रियाभ्रंशात तत्र ब्राह्मण्यादीनां निन्द्यता तहि किया- उनमें (ब्राह्मणों में) ब्राह्मगात्व जाति भी नहीं मालूम निबन्धनैव वर्णव्यवस्था न तु जन्मना सिद्धयेत्। पड़ती है। अगर कहो व्रह्मणत्व जाति अदृश्य हे नो
किं चेदं ब्राह्मण्यं जीवस्य शरीरस्याभयस्य वा वह प्रत्यक्ष कैसे सिद्ध हो सकती है । दमरी बात यह है संस्कारस्य वेदाध्ययनस्य वा ? गत्यन्तरासंभवात । न कि ब्राह्मण शब्द औपाधिक (उपाधियुक्त) शब्द है तावज्जीवस्य, क्षत्रियविडूश द्रादीनामपि ब्राह्मण्य य प्रसं- अतः उसका निमित्त बतलाना चाहिये । सो वह गात, तेषामपि जीवस्य विद्यमानत्वात् । नापि शरीर- निमित्त माता-पिताकी अविप्लुता-शुद्धि हे अथवा स्यास्य पंचभूतात्मकस्यापि घटादिवत् ब्राह्मण्यासंभवात। ब्रह्मासे पैदा होना है ? अगर माता-पिताकी शुद्धि नाप्युभय योभयदोषानुपंगात् । नापि संस्कारस्यास्य शूद्र- ब्राह्मणत्व (ब्राह्मण जाति) की पहचानका निमित्त है बालके कर्तुशक्तितस्तत्रापि तत्प्रसंगात् । नापि वेदा- तो वह वन नहीं सकता है क्योंकि इस अनादिकाल में ध्ययनस्य शूद्रेपि तत्संभवात् । शूद्रोपि कश्चिद्देशान्तरे उम शुद्धिका बना रहना अमम्भव है । कारण स्त्रियोंको गत्वा वेदं पठति पाठयति च, न तावता अस्य ब्राह्मगा- प्रायः कामातुर होनेसे इस जन्म में भी व्यभिचार त्वं भवद्भिरप्युपगम्यते । ततः सदृशक्रियापरिणामादि- करते देखा जाता है। इस लिये योनिशुद्धिकारक निवन्धनैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिब्यवस्था।"
ब्राह्मणत्व (ब्राह्मगाजाति) का निश्चय कैसे हो सकता अर्थात-जिस तरह नित्य सामान्यका स्वरूप है? शुद्ध माता पिता और व्यभिचारी माता-पितासे नहीं ठहरता है उसी तरह सभी ब्राह्मणों में रहनेवाली पैदा हुई सन्तानोंमें विलक्षणता भी मालूम नहीं होती नित्य ब्राह्मणत्व जाति भी नहीं ठहरती है। शंकाकार दै क्योकि क्रिया दोनों सन्तानों में एकमी (शुद्धाशुद्ध) (मीमांसक) शंका करता है--यह ब्राह्मण है २? इस पायी जाती है। अतः यह शुद्ध ब्राह्मण है और यह अशुद्ध प्रकार प्रत्यक्षसे ही वह सिद्ध है। यह ज्ञान विपर्यय ब्राह्मण है ऐमा निश्चय कदापि नहीं हो सकता । जिस मान नहीं है क्योंकि बाधक प्रमाणका अभाव है। तरह घोड़ी और गधे के संसर्गसे पैदा हुई संतान संशय ज्ञान भी नहीं है क्योंकि उभयाँशोंको परामर्श खच्चर रूपसे देखने में विलक्षण नजर आती है उस नहीं करता है । तथा अनुमानसे भी मालूम पड़ता है तरह ब्राह्मण और शूद्रके संसर्गमे पैदा हुई और कि ब्राह्मणपद ब्राह्मण व्यक्तिसे जुदा ब्राह्मणत्व ब्राह्मण-ब्राह्मणीके संसर्गमे पैदा हुई संतानों में विलक्ष (जाति) के निमित्तसे है क्योंकि वह पद हे पटादि पदके णता नहीं मालूम होती है क्योंकि दोनोंमें एक मरी स्वा समान।
ही आकार, पाचारादि होता है। अतः माता-पिताकी इसका श्रीतार्किकशिरोमणि प्रभाचन्द्राचार्य शुद्धि ब्राह्मणत्व (ब्राह्मण जाति) का निश्वायक निमित्त खंडन करते हैं--जो यह कहा गया है कि प्रत्यक्षसे नहीं हो सकता है। दूसरे, मातापिताकी शुद्धि ब्रह्मब्राह्मणत्व जाति मालूम पड़ती है सो हम पूल ते हैं कि णत्वके पहचानने में निमित्तकारण मानने या कहनेपर
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अनेकान्त
ब्राह्मणत्व
व्यास, विश्वामित्र आदिके (ब्राह्मणपना) कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि वे शुद्ध माता पितास पैदा नहीं माने गये हैं। फिर भी उन्हें ब्राह्मण माना है । अगर कहो कि अशुद्ध माता-पिता से पैदा होनेपर भी शुद्ध ब्रह्मण की क्रिया करनेसे वे ब्राह्मण कहलाते हैं तो फिर क्रियाके आधीन ही वर्ण व्यवस्था हुई। अतः मातापिताकी शुद्धि ब्राह्मणत्वका निमित्त कारण नहीं है । ब्रह्मासे पैदा होना ब्राह्मणत्व का निमित्त कारण है यह भी नहीं बनता है क्योंकि वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र भी ब्रह्मासं पैदा होने के कारण ब्राह्मण हो जायेंगे। अगर कहो कि ब्रह्माके मुम्बसे जो पैदा हो उसे ब्राह्मण कहते हैं अन्यको नहीं, तो यह भेद भी ब्रह्मासे पैदा हुई प्रजामें नहीं बन सकता है। जैसे एक बृक्ष से पंदा हुये फल, मूल, मध्य, शाखाकं भेदसे भेदको प्राप्त नहीं होते उसी तरह ब्रह्मासे पैदा हुये सभी प्राणियों में भी ब्राह्मणादि भेद नहीं होसकते । - शंका पान की वेल के पानो में मूलमध्यदि देशांत्वन्न भेद कंठमर्याद भेद अवश्य देखा जाता हैअर्थात पानकी वेलके मूलभागसे पैदा हुये पान taraपर गलेका स्वr faगाड़ देते हैं और पानकी ताके मध्य भागोन पान खानेपर गलेका अच्छा स्वर कर देते हैं। इसी तरह ब्रह्ममुखोत्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मा बाहु पैदा हुये क्षत्रिय, और ब्रह्माकी नाभि से पैदा हुये वैश्य, और ब्रह्मा के पैरोंस पैदा हुये शुद्र कहलाते हैं ।
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वह क्या आकार विशेष है अथवा वेदाध्ययनादिक ? कार- विशेषतो कारण नहीं हो सकता है क्योंकि वह शूद्रादिक में भी पाया जाता है । अतः श्राकार- विशेषसे शूद्र भी ब्राह्मण हो जायेंगे, जो कि अभीष्ट नहीं । वेदाध्ययन और क्रिया-विशेष भी ब्राह्मणत्वकी पहचानके सहायक करा नहीं हो सकते हैं, क्योंकि शूद्र भी अपनी जातिको छिपाकर दूसरे देशमें जाकर ब्राह्मण का रूप बनाता है और ब्राह्मण सम्बन्धी क्रिया और वेदाध्ययन करने लगता है । अतः वह शूद्र भी ब्राह्मण हो जायेगा । इस लिये नित्य ब्राह्मण जातिको प्रत्क्षयसे न दिखने से व्रत वेदाध्ययनादि ब्राह्मणमें ही कंसे सिद्ध सकते हैं ? अतः प्रत्यक्षमे ब्राह्मणत्व जाति सिद्ध नहीं हो सकती । और जो अनुमान (अर्थात् ब्राह्मणपद ब्राह्मणत्व जातिसे युक्त हैं पद होने से पटादि पदके समान) से ब्राह्मणत्व जातिको सिद्ध करने की कोशिश की है वह भी व्यर्थ है, क्योंकि ब्राह्मणत्व जाति ब्रह्मण व्यक्ति से जुदी प्रत्यक्षसे नहीं दिखती है । अतः प्रत्यक्षबाधित पक्ष होनेसे हेतु कालात्ययापदिष्ट है। दूसरे, प्रस्तुत अनुमानगत हेतु श्रनैकान्तिक दोष सहित होनेसे अपना साध्य सिद्ध नहीं कर सकता क्यों क, श्रद्वैत अश्वविषाणादिपदों में सामान्य जातिका अभाव होनेपर भी पदत्व हेतु रहता है। अगर इन अश्वविषाण श्रद्वैतादिकमें भी अश्वविषत्वादि जाति मानी जाय तो वे अश्वविषाण (घोड़े के सींग) अद्वैतादि सत्य वस्तुएँ सिद्ध होजायेंगी। किन्तु वे सत्य नहीं हैं । अतः अनुमानगत हेतु सदोष होनेसे उसके द्वारा ब्राह्मणत्वकी सिद्धि नहीं बन सकती है ।
शंका- 'ब्राह्मणेन यष्टव्यम्" अर्थात ब्राह्मणको यज्ञ करना चाहिये, इस भागम-वाक्य से ब्राह्मणजाति सिद्ध होजायेगी ?
समाधान - यह कहना भी व्यर्थ है क्योंकि पानकी daमें जघन्योत्कृष्टादिका भेद होने से उन उन प्रदेशों से पैदा हुये पानोंमें भेद बन सकता है किन्तु ब्रह्मा जघन्योत्कृष्टादि भेद न होनेसे ब्राह्मणादि भेद नहीं बन सकते हैं। अगर ब्रह्मामें जघन्योत्कृष्टादि भेद माना जाय तो जघन्य मध्यम उत्कृष्ठ तीन तरहका ब्रह्मा हो जायेगा और ऐसा माना नहीं है । ब्रह्मा के पैरोंको जघन्य माननेपर उसके पैरोंको अंडकोष के समान वंदनीयता नहीं बन सकती है । अतः ब्रह्मासे पैदा होना भी ब्राह्मणत्वका नियामक नहीं बनता है । ब्राह्मण जाति में सहायक कारण भी यदि कोई कहें तो
a
समाधान -- यह भी ठीक नहीं क्योंकि वह प्रत्यक्ष बाधित अर्थका कथन करता है। जैसे 'तृण के प्रभाग पर सो हाथियों का समूह है' यह गम प्रत्यक्ष बाधित है ।
शंका-- नित्य ब्राह्मणादि जातिको न माननेपर वर्णाश्रमकी व्यवस्था और उसके आधीन तपोदानदि
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किरण ४-५]
जैनधर्ममें वर्णव्यवस्था कर्मसे ही है, जन्मसे नहीं
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न्यवहार जैनियोंके कैसे बनेंगे ?
है अथवा शरीरके अथवा दोनोंके या संस्कारके समाधान-नहीं, क्योंकि क्रियाविशेषसे सहित अथवा वेदाध्ययनके ? जीवके तो ब्राह्मणत्व बन नहीं और यज्ञोपवीतादि चिन्ह बाले व्यक्तियोंमें यह सकता है, क्योंकि क्षत्रिय वैश्य शूद्रोंके भी ब्राह्मणत्वका वर्णाश्रमकी व्यवस्था और तपोदानादि धर्म बन ज,येंगे। प्रसंग आयेगा । कारण, जीवत्व, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों में अर्थात् शामाध्ययन, व्रताचरण प्रधान ब्राह्मण, भी होता है । पंचभूतादिस्वरूप शरीर के भी ब्राह्मणत्व शासन क और असहायों की रक्षा करनेवाले क्षत्रिय, संभव नहीं है। जिस तरह पंचभूतात्मक घटादिकमें व्यापार, खेती, मुनीमी श्रादि कर्म करने वाले वैश्य, ब्राह्मणत्व नहीं है उसी तरह पंचभूतात्मक शरीरमें
और सेवा शिल्पका कार्य करने वाले शूद्र कहलायेंगे। भी ब्राह्मणत्व नहीं है। शरीर और जीव दोनों के अतः कोई भी नित्यजाति वर्ण नहीं है । क्रियाविशेषसे ब्राह्मणत्व माननेपर दोनों में कहे हुये दोषोंका प्रसंग जाति वर्ण बनते हैं और क्रिया छोडनेपर जानि वर्ण आवेगा। संकारके भी ब्राह्मणत्व संभव नहीं. क्योंकि नष्ट होजाते हैं और क्रिया बदल देने पर जातिवणं संस्कार शूद्रबालकमें भी हो सकनेसे उसके भी ब्राह्मणबदल जाते हैं । अगर क्रियासे ही वणव्यवस्था न त्वका प्रसंग आयेगा । वेदाध्ययनसे भी ब्राह्मणत्व होनी तो परशुरामद्वारा क्षत्रिय रहित पृथ्वी कर देने पर नही बनता है क्योंकि शूद्र भी वेदाध्ययन कर सकते वर्तमान में क्षत्रिय कहाँसे पैदा होते ? जिस तरह हैं। अतः उसके भी ब्राह्मणत्वका प्रसंग आयेगा । और परशुरामने क्षियरहित पृथ्वी की उसी तरह किसीके यह ज्ञात ही है कि शूद्र भी देशान्तर में जाकर वेद द्वारा ब्राह्मणरहित पृथ्वीकी भी संभावना हो सकती पढ़ते हैं और दूसरोंको भी पढ़ाते हैं। पर इतनेस है। फिर वर्तमानमें ब्राह्मण कहाँसे आगये ? अगर उन्हें ब्राह्मण नहीं माना जाता है। इन प्रमाणोंसे कहो कि ब्राह्मण क्षत्रिय रहित पृथ्वी होने पर भी बाकी मिद्ध है कि नित्य जन्मना वर्णव्यवस्था नहीं है बचे शूद्र, वैश्य ही ब्राह्मणादिकी क्रिया कर नेसे ब्राह्मण किन्तु सदृश क्रियाविशेष परिणामादि (आचार तत्रिय बन गये तो फिर क्रियाक आधीन हो वर्ण विचार आजीविकादि भेद) के प्राधीन ही वर्णव्यवस्था व्यवस्था हुई, जन्मसे नहीं। यही जैनधर्म मानता है। है। अर्थात् जो उच्च आचार विचार रखे वह उच्च वणअगर जन्मसे नित्य ब्राह्मण जाति मानी जाय तो का है और जो नीच आचार-विचार रखे वह नीच धेश्याके घरम रहनेवाली ब्राह्मणीको निन्दा क्यों की वर्णका है। जाती है ? और उसमें ब्राह्मणत्वका प्रभाव क्यों माना इसी बानका समर्थन पं० आशाधरजीने अनगार जाता है ? क्योंकि उस ब्राह्मणीको वेश्या होजानेपर धर्मामृतमें किया है यथा-। भी नित्य जन्मना ब्राह्मण जाति पवित्रताकी हेतु “अनादाविह संसारे, दुर्वारे मकरध्वजे । उसमें मौजूद रहेगी ही । अन्यथा गोजातिसे भी कुले च कामिनीमूले का जाति-परिकल्पना।" ब्राह्मणजात निकृष्ट कही जायेगी। क्योंकि चांडालादि- अर्थात-अनादिकालीन संसार में कामदेव सदासे के घर में वर्षोंसे रही हुई भी गायोंको बड़े लोग दुर्निवार चला आरहा है । और कुलका मूल कामिनी (उच्च वर्णवाले) खरीद लेते हैं और उसका दूध है तो नमके आधारपर जाति और वर्णकी कल्पना सेवन करते हैं किन्तु भ्रष्ट हुई ब्राह्मणीको नीं अपनाते। कैसे ठहर सकती है। तात्पर्य यह कि कामदेवकी अगर कहा जाय कि वेश्याके घरमें रहने वाली ब्राह्मणी चपेट में न जाने कौन स्त्री कब आजाये। अतः स्त्रियोंकी क्रिया नष्ट होजानेसे उसकी निन्दा हो जाती है की शुद्धिके ऊपर जातिकी कल्पना नहीं ठहरती। तो क्रियाविशेषसे ही वर्णव्यवस्था सिद्ध हुई, जन्मने पूज्य तार्किक शिरोमरिण प्रभाषन्द्राचार्यने कितनी नित्य नहीं।
सुन्दरतासे नाना विकल्पोंको उठाकर जन्मना व नित्य दूसरी बात यह है कि ब्राह्मणत्व' जीवके हाता वर्ण व्यवस्थाका खंडन किया है। इसे पाठक स्वयं ही
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भनेकान्त
[ वर्ष -
ऊपर देख चुके हैं। इन तमाम प्रमाणोंसे सिद्ध है कि सोऽपि गजादिसम्मत्या शोधयेत् स्वं कुलं यदा।। वर्णव्यवस्था प्राचार-क्रिया और आजीविकाके भेदको तदाऽस्योपनयास्त्वं पुत्रपौत्रादिसंततौ । लेकर ही कायम हुई है-जन्मसे नित्य नहीं हैं। न निषिद्धं हि दीक्षाई कुले चेदस्य पूर्वजाः ।। उपसंहार
(मादि पर्व० पृ० ४०) अगर निश्चित करें (क्रिया) और भाजीविकाके अर्थात्-किसी कारणवश किसी कुलमें कोई साधनको छोड़ देते हैं या वदल देते हैं तो जाति-वर्ण दोष लग गया हो तो वह राजादिकी सम्मतिसे जव नष्ट भी होजाता है और बदल भी जाता है । अतः अपने कुलको प्रायश्चित्तसे शुद्ध कर लेता है तब उसे जन्मसे किसीको ऊँचा समझना और किसीको नीचा फिर यज्ञोपवीतादि लेनेका अधिकार होजाता है। समझना उचित नहीं है । प्रचलित अच्छे यदि इसके पूर्वज दीक्षायोग्य कुलमें हुये हों तो वर्ण-जातिमें पैदा होकरभी अगर सदाचारी नहीं उसके पत्र पौत्रादिको यज्ञोपवीतादि लेनेका कहीं है तो वह नीच-वर्णी ही है, और प्रचलित नीच निषेध नहीं है। इस आगमपर नजर डालकर दस्सावर्णमें पैदा होकर सदाचारी है तो वह उच्चवर्ण लोगोंको पुनः शुद्ध कर अपने में शीघ्र मिला लेना वाला ही है। यही भ० महावीरकी देशना है। आज चाहिये। जिस तरह नीच चारित्रमे मानव पतित जो इसका प्रचार भी वर्तमान युगके महात्मा गांधी और शूद्र होसकता है उसी तरह पंचपापोंके त्यागरूप कर रहे हैं वह भी वीरशासनका सञ्चा प्रचार है। उच्च चारित्रमे शूद्र, पतित और मलेच्छ भी इससे यह नतीजा निकलता है कि प्रत्येक मानव पुच्चवर्णी (बामणादि) जैनी हो सकते हैं। जो समीचीन आचार-विचार पालन कर जैनधर्म त्रिय कारणवश भृष्ट होगई हैं वे भी प्रायश्चित्त लेकर धारण करनेका अधिकारी हो सकता है और हम यथायोग्य पुनः शुद्ध होसकती हैं । ऐसी हजारों ऊँचे कुल वर्णमें पैदा हुये, इस बातका हमें घमंड नजीरें जैनशास्त्रों में भरी पड़ी हैं। मधुराजा, अंजन, छोड़ देना चाहिये और उच्च चारित्रका-पंच पापोंके बसंतमेनावेश्या, चारुदत्त सेठ तथा रुद्रोंको पैदा स्यागरूप संयमका पालन कर सच्चे जैन बाह्मणादि करनेवाली अजिंकायें भी तो प्रायश्चित्त लेकर पुनः बनना चाहिये । जब वर्ण और जाति क्रियाके आधीन शुद्ध बनकर स्वर्गकी अधिकारिणी हुई थीं । अत: ही है और उसका परिवर्तनादि भी हो सकता है बन्धुओं चेतो, नवीन लोगोंको जैन बनाओ और तब प्रत्येक वर्ण (जाति)के साथ विजातीयविवाह तथा हर वर्ण के मनुष्यस्त्रीको जैनधर्ममें दीक्षित करो और अपनी उपजातियों में अन्तर्जातीय विवाह किये जा- उनके साथ भाईपनेका व्यवहार करो जो धार्मिक सकते हैं और शूद्रसे शूद्रादिकों को जैन बनाया जासकता सामाजिक अधिकार तुम्हें प्राप्त है वे अधिकार नी है और वह उच्च चारित्र पालन कर स्वर्गादिकका उन नवदीक्षित लोगोंको दो जिससे जैनधर्मकी असली अधिकारी भी होसकता है। इस बात के प्रथमानुयोगके प्रभावना हो और जैनसंख्याकी वृद्धि हो । रानी शास्त्रोंमें हजारों प्रमाण मिलते हैं। दस्मा लोगोंको चेलनाने भी तो गजा श्रेणिक बौद्धको जैन बनाया था जिन्हें आप अपनेसे छोटा मानते हैं-पुनः शुद्ध कर तथा अपके तीर्थकर और आचार्योनेतो सारे विश्वको शुद्ध वर्णवाला बनाया जासकता है, क्योंकि आचारके ही जैन बनाया था। यही कारण है कि आज भी आधीन ही वर्णव्यवस्था है। अतः उच्चचारित्र पालन करणाटक प्रांतमें सभी वर्णके लोग जैनधर्म धारण कर और प्रायश्चित्त लेकर दस्सा लोग पुनः शुद्ध हो किये हुये हैं। जब वर्ण और जाति ही क्रियाके सकते है। इसी बातका समर्थन जिनसनाचार्यने ठहरते है तो उनके उपभेदस्वरूप जो उपनातियाँ अपने आदिपुराणमें किया है यथा-
वर्तमानमें प्रचलित हैं जो देशभेद, आजीविकाभेद, कुनश्चित्कारणादास्य, कुलं संप्राप्तदूषणम । और राजादिके नामपर बनी हैं वे सब तो अपने
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किरण ४-५]
साहित्य-परिचय और समालोचन
(२१३
आप ही कृत्रिम ठहरती हैं । अतः इन उपजानियों का वादका आधार और अहिंसावाद क्रियास वर्णघमड करना भी व्यर्थ है। भ० महावीर के माम्य- व्यतम्याको मानना ही है।
साहित्य-परिचय और समालोचन १ पटखण्डागम (क्षद्रकबन्ध धवला टीका और पर उसमें समस्त जीवराशिका समावेश हो ही जाता उसके अनुवाद सहित)-सम्पादक प्रो० हीरालालजी है जिनमें अकायिक जीव भी मम्मिलित हैं--वे जैन एम. ए. डी. लिट् मारिस कालेज, नागपुर, ममम्त जीवशिसे भिन्न नहीं हैं। ऐमी हालत में उक्त महसम्पादक, पं० बालचन्द जी मिद्धान्तशस्त्री, अमरा- अर्थ जीको लगता हा प्रतीत नहीं होता, किन्तु वती । प्रकाशक, श्रीमन्त मठ शितावगय लक्ष्मीचन्द अकायिक जीव प्रथम वर्गमूल के अनन्त भागमात्र है' जन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती पृष्ठ सं० ऐमा हाना चाहिये सूत्रोंका अर्थ करते हुए कितन ही ६७२, मूल्य जिल्द १०), शास्त्रकार १२) रुग्या। सूत्रों क अर्थको भावार्थ द्वारा स्पष्ट करना चाहिये था,
जिममे पढ़ने वालों के लिये और सरलता हो प्रस्तुत ग्रंथ षटवण्डागमका द्वितीय खण्ड हे, जाती. सम्पादकजीने प्राक्कथन और प्रस्तावनामें 'मंयन' जिसे खुद्दाबंध या क्षुद्रकबंध कहते हैं। इसमें संक्षिप्त पदकी चर्चा करते हए मुडवद्रीय ताडपत्रीय प्रतिक रूपमे कर्मबन्धका वर्णन स्वामित्व, काल. अन्तर, अनमारहवें सत्र में 'संजद'पद जोडनेकी प्रेरणा की है। भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, नानाजीवकाल, नानाजोवअन्तर. भागाभागानुगम, परिशियों में अवतरणगाथा सूची नामक परिशिष्ट
और अल्पबहत्वानुगम इन ग्यारह अनुयाग द्वारा में निर्दिष्ट गाथाएँ पंचसंग्रह प्राकृत भीर मुलाचार मार्गगगास्थानों में किया गया है । साथ हा, महादंडक (आचारांग) में भी पाई जाती हैं। 'समने मदिग्गा' चलिकामें अल्पबहुत्वानुयोग द्वारा सुचित अर्थकी और 'णाणावग्णचदक्क' ये दो गाथाएँ प्राकृत पंचविशेषताका भी निरूपण किया गया है। अचार्य संग्रहम पाई जाती हैं आर शेष 'गिग कम्वत्त विदियभूतलिने इम खंडका विषय १५८८ सूत्रों में वर्णित मन' पढमक्खो अंतगओ, संखा नह पन्थागे, मंठाविकिया है। हिन्दी अनुवाद पूर्ववत् मूलानुगामी है; दुण रूवं, सग माणहि, विहत्त, पढम पडिपमारणं और परन्तु कुछ स्थलोंपर स्खलन तथा अर्थका मामंजस्य सम्बेपि पुत्रभंगा, ये सब गाथा १०३७. १०३८, ठीक नहीं बैठ मका है। उदाहरण के लिये प्रष्ठ ६
। ह । उदाहरणक लिये प्रष्ठ ६ १०४०, १०३६, १०३३ और १०३५ नंबगेपर पाई को चतुर्थ पंक्ति में 'गम्यते इति गतिः'। अर्थ ठीक जाती है। नहीं किया गया है तथा पृष्ठ ५३६ की निम्न पंक्तिको देखिये-"गण च अकाइया मधजीवाणं पढमवगमूल- ऐसे महान ग्रंथ के सम्पादन प्रकाशन में बड़ी मावमेत्ता अस्थि नस्म पढमवगमूलस्स अणंनभागमेत्तादो।" धानी रखते हुए भी कुछ भूलोंका हो जाना बहुत बड़ी अथ-"अकायिक जीव मर्वजीवों के प्रथम वर्गमूल बात नहीं है। आशा है आगे और भी सावधानी प्रमाण है, क्योंकि वह प्रथम वर्गमूल अकायिक जीवों रखने का प्रयत्न किया जावेगा। ग्रंथका प्रस्तुत भाग के अनन्नवें भाग प्रमाण है।"मलपंक्तिसे यह अर्थ फलिन प्रायः करके अपने पूर्व भागों के अनुरूप ही है। नहीं होता; क्या।।१. पन जीवराशिका प्रथम वर्गमूल छपाई सफाई भी सुन्दर और चित्ताकर्षक है । प्रत्येक प्रकायिक जीवों के अनन्नवें भाग प्रमाण नहीं हो जैन मन्दिर, लायब्रेरी और शास्त्रभंडार तथा संस्थाओं सकता. कारण कि प्रथम वर्गमूलका एकवार वर्ग करने और विद्वानोंको मंगाकर अध्ययन करना चाहिये।
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अन्त
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कवि राजमलजीकी पंचाध्यायीको लेकर चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टिके ज्ञानचेतनाके सद्भाव-विषयक मान्यताकी समालोचना करते हुए लिखा है कि ज्ञानचेतना अष्टम गुणस्थान से पूर्व नहीं हो सकती । यह विषय अभी बहुत कुछ विवादास्पद है । पुस्तक उपयोगी है। छगई सफाई साधारण है ।
२. भावत्रयदर्शी - लेखक स्वर्गीय आचार्य श्री कुंथुमार | अनुवादक -- पं० लालराम शास्त्री । प्रकाशक, सेठ मगनलाल हीरालाल पाटनी पारिमा र्थिक ट्रस्ट फण्ड, मदनगंज (किशनगढ़) पृष्ठसंख्या, सब मिलाकर ३१६ | मूल्य, परिणामविशुद्धि ।
इस ग्रन्थ में आचार्य श्रीने संसारी जीवों के 'भावत्रय' में निष्पन्न होनेवाले परिपाक (फल) का अच्छा चित्रण किया है, जिसे ध्यान में रखते हुये प्रत्येक मानवको चाहिये कि वह अपने परिणाम अशुभ प्रवृत्ति हटाकर शुभमें नियोजित करे-लगावे और शुद्ध भाव प्राप्तिकी भावना करे। ऐसा करने से वह अशुभ परिणामसे निष्पन्न दुःखद परिपाक (फल) से बच सकता है और अपने जीवनको आदर्श तथा समुन्नत बना सकता हैं ।
यह ग्रंथ उक्त ट्रस्ट फडकी ओर से संचालित 'पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला' का द्वितीय पुष्प हैं। मेट मगनलाल हीरालालजीने धार्मिक भावनासे प्रेरित होकर पाँच लाखकी सम्पत्तिका यह ट्रस्ट कर दिया है, जिससे कितनी ही संस्थाओं का संचालन होरहा है और सामाजिक तथा धार्मिक कायों में उस का व्यय किया जाता है । जिसके लिये वे महान धन्यवाद के पात्र हैं। आशा है दूसरे महानुभाव भी अपनी चंचला लक्ष्मीको सफल करनेमें सेठ साहबका अनुसरण करेंगे और इसी तरह जैनशासन तथा जनसाहित्य के प्रचार एवं प्रसार में अपना तन मन और धन अर्पण करेंगे ।
सम्यग्दर्शनकी नई खोज - लेखक, स्वामी कर्मानन्द, प्रकाशक, जैन प्रगति ग्रन्थमाला, सहारनपुर, पृष्ठ संख्या ८०, मूल्य आठ आना !
इस पुस्तक में लेखक महाशयने अनेक जैनग्रंथोंका स्वाध्याय कर सम्यग्दर्शन और उसके उपशम-क्षयोपशमादि भेदों के स्वरूपपर यथेष्ट प्रकाश डाला है और स्वाध्यायप्रेमी विद्वानोंके लिये विविध प्रन्थोंक अनेक अवतरणको उद्धृत कर कितनी ही विचारकी सामग्री प्रस्तुत की है । सम्यग्दर्शनके व्यवहार-निश्चय भेदों और उनके स्वरूपपर भी विचार किया है। साथ ही,
४. मुक्तिका मार्ग- - ( सप्तास्वरूपशास्त्रप्रवचन) प्रवचनकर्ता श्रीकानजी स्वामी, अनुवादक, पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ । प्राप्तिस्थान, श्री जैनस्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (काठियावाड़) पृ० मं०
१२. ०० इस आना ।
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यह पुस्तक स्वर्गिय पं० भागचन्दजीके 'सत्तास्वरूप' नामक ग्रंथपर गुजराती भाषामें दिये गए प्रवचनोंव्याख्यान का संग्रह है। जो पं० परमेष्ठीदासजी द्वारा अनुवादित होकर पुस्तकरूपमें प्रकाशित हुआ है । कानजी स्वामी अध्यात्मरसके मर्मज्ञ मंत हैं । आपके व्याख्यान तात्विक और अध्यात्मकी मनोहर कथनीको लिये हुए होते हैं। आपके सत्प्रयत्न से इस समय सोनगढ़ अध्यात्मका एक केन्द्र बन गया है। वहां आचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि अध्यात्म ग्रंथोंका प्रवचन, मनन और अनुशीलन होता है । जिन महनुभावोंका उधर जाना हुआ है वे उनकी अध्यात्मकथनी पर मोहित हुए हैं। पुस्तक स्वाध्याय प्रेमियोंक लिये विशेष उपयोगी है, मुमुक्षु जनोंको मंगाकर पढ़ना चाहिये ।
६. कर्मयोग — सम्पादक हरिशंकर शर्मा, वार्षिक मूल्य चार रुपया ।
यह गीतामन्दिर आगराका पाक्षिक मुखपत्र है । पत्र में अनेक विचारपूर्गा सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक लेख रहते हैं। कितने ही लेख तो बड़े ही भोजस्वी, प्रभाविक एवं शिक्षाप्रद होते हैं- मानव जीवन में स्फूर्ति तथा उत्साह बढ़ाते हैं । पत्रका उद्देश्य प्रशंसनीय है और वह कर्मयोगका विकास करता हुआ संसारका एक श्रेष्ठ एत्र बनने के लिये प्रयत्नशील है । हम सहयोगीकी हृदयसे उन्नति चाहते हैं । - परमानन्द जैन, शास्त्री
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सम्पादकीय
१. राष्ट्रीय सरकारका अभिनन्दन --
बहुत कुछ श्राश्वासनों, बलिदानों आशाओं और कष्टपरम्पराओंके बाद भारतमें जो राष्ट्रीय सरकार स्थापित हुई है उसका हृदयसे अभिनन्दन है। आशा है इस सरकार के द्वारा भारतकी चिर अभिलाषाएँ पूरी होंगी, उसे स्वतन्त्र वातावरण में सांस लेनेको मिलेगा, उसके सभी व्यक्रियाँका जीवन ऊँचा उठेगा, सबका याचार-विचार शुद्ध होगा, सब को बोलने और अपना उत्कर्ष सिद्ध करनेकी स्वतंत्रता प्राप्त होगी, व्यर्थका भेदभाव मिटेगा, अन्याय-अत्याचार दूर होंगे. न्यायका नाटक नहीं होगा और न वह श्राजकल की तरह मँहगा ही पड़ेगा, पारस्परिक प्रेम तथा विश्वसंयुकी भावना जोर पकड़ेगी और रिश्वतसतानी (घुसखोरी) तथा प्लेक मार्केट आदि अन्यायमागों से व्य प्राप्तिका जो बाजारा रफ गर्म होरहा है वह अपना अन्तिम सांस लेना हुआ शीघ्र समाप्त हो जायगा। यह सब कुछ होनेपर सुख- शान्ति और श्रात्म-समृद्धिकी जो लहर व्याप्त होगी वह इस सरकार को भारतीय जनताकी ही नहीं किन्तु विश्वभरकी नज़रों में अभिवन्दनीय बना देगी और भारतको फिरसे गुरुपदपर स्थापित करने में समर्थ होगी। और इसलिये वही सब इस सरकारका सर्वोपरि कर्तव्य है।
२. राजगृहके प्रबन्धकोंसे
बहुत दिनसे मेरी इच्छा थी कि मैं राजगृह (राजगिर ) नीपरजावर उदक और यहाँकी स्थितिका अध्ययन करूँ । तदनुसार २८ मार्च सन् १६४६ को प्रात:काल मैं न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठियाको साथ लेकर राजगृहके लिये रवाना हुश्री और वहाँ श्रगले ही दिन कोई ३ बजे दिनके पहुँच गया। अपने इस पहुँचनेकी सूचना पहले नीव के मैनेजर मुनीम रामलालजीको दे दी गई थी और साथ ही कलकत्ता बाबू छोटेलालजी तथा उनके भाई बालू नन्दलालजी को भी विषयमें लिख दिया था और उन दोनों पत्र भी मैनेजर साहबके पास स्थानादिके समुचित प्रबन्ध के लिये पहुँच गये थे परन्तु वह सब कुछ होते हुए
भी पहुँचनेपर कोई यथोचित प्रबन्ध नहीं देखा गया और इसलिये कई घंटे श्राफ़िसके बरामदे श्रादिमें यों ही बिताने पडे । रात्रिको सोने के समय मुनीमजीके प्रयत्नसे ला० कालूरामजी मोदी गिरीडी वालोंकी कोठीमें ठहरनेकी कुछ अस्थायी व्यवस्था हुई और इसलिये कुछ दिन बाद ही वहाँसे खिसकना पड़ा। मालूम हुआ इस वर्ष यात्रियोंकी बरावर इतनी भीड़ रही है जितनी कि आचार्य शान्तिसागर का संघ वहाँ पहुँचने पर हुई थी। इसी मार्च मासके धन् पर भी स्थानको बिनी रही।
जिस समय 栽 राजगृह पहुँचा उस समय दि० जैन धर्मशाला और मन्दिरके बीच वाली गली में तथा रा० ब० खीचन्द्रजी आदि बंगलोंके पास इतनी दुर्गन्ध थी कि वहीं खड़ा नहीं हुआ जाता था, दट्टियोंसे खुले स्थानपर पानी बहकर बंगलोंके सामने वाली जमीनपर इतना सदा हुया चोदा इकट्टा होगया था कि उसकी यह दम घुटा जाता बदबू था। उधर धर्मशाला श्रादिमें चारों थोर बीमार यात्रियों के कुड़ने करारने आदिको दुख भरी आवाजें सुनाई पड़ती थीं और उनके उपचारका कोई समुचित साधन नजर नहीं श्राता था । एक दिन तो एक कुटुम्बके सभी प्राणी ज्वरसे पीड़ित थे, कुछ बेसुध पड़े थे, कुछ पानीके लिये पुकार कर रहे थे पस्तु उन्हें कोई भी पानी देनेवाला नहीं था और न भीतरके गरम कमरे से निकालकर बाहर बरामदे में लिटाने चाला ही । उनके लिये इन दोनों कार्योंको रात्रिके समय पं० दरबारीलालजीने और मैंने मिलकर किया। मुनीमजी चर्चा करनेपर मालूम हुआ कि कोटीमें ग्रादमियोंकी कमी है और वे स्वयं धनवकाशये बहुत ही घिरे रहते हैं। इसलिये किस २ यात्रीको कैसे खबर रखें और क्या सेवा उन्हें पहुंचाएँ !
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बड़े
टीका विषय है कि यात्री जन तो सुख-शान्ति दुःखका की तलाश अपने घरोंये निकलकर नीचांकी शरण में आयें और वहां इस तरह की असहायावस्थायें पडकर अशान्ति तथा यातनाएँ भोगें एवं मंक्लेशपरिणामोंके द्वारा पाप उपार्जन करें ! वह स्थिति निःसंदेह वदी ही भयावह एवं
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०१६
अनेकान्त
विर्ष ८
खेदजनक है और एक समृद्ध धार्मिक समाजके लिये भारी तो दो भंगियोंकी नियुक्ति अवश्य ही होनी चाहिये । साथ लजाका विषय है ! इसकी भोर तीर्थक्षेत्रके प्रबन्धकोंका ही धर्मशालाके पीछे रहियोंका पानी फैलकर जो सड़ता ध्यान शीघ्र ही आकृष्ट होना चाहिये और उसे दर करनेके और सर्वत्र बदबू फैलाता है उसे एक दम बन्द करदेना लिये निम्न उपाय काममें लाने चाहियें:
चाहिये। उसके लिये श्वेताम्बर धर्मशालाके उस सिस्टमको १. इस तीर्थपर एक अच्छा औषधालय एवं चिकि- अपनाना अच्छा होगा जिससे मल-मूत्रादिक सब पृथ्वीके ल्यालय खुलना चाहिये जो बारहों महीने स्थानीय तथा प्राधेभागमें चला जाता है और ऊपर तथा श्रास पास कोई देहाती सर्वसाधारण जनताकी सेवा करता हा तीर्थयात्राको दुर्गन्ध फैलने नहीं पाती। और टट्टियोंकी नालीके पास मोसम (कातिकसे चैत्र तक) में यात्रियोंकी विशेष रूपये रेतीली जमीन तक गहरे गड्ढे खोदकर उन्हें इंट पन्थरों के सेवा करने में संलग्न रहे और उसमें एक अनुभवी वैद्य तथा दकड़ोंसे भर देना चाहिये । इससे गन्दा पानी गडटेके गस्ते डाक्टर चिकित्सकके रूपमें रहने चाहियें। यदि इनमेसे और जमीनमें जज़ब होजायगा और उपर दुर्गन्ध नहीं फैलाएगा। महीनों में कोई एक ही रहे तो भी यात्राके दिनों में तो दोनों ५. हरमाल, यात्राका सीजन प्रारंभ होनेसे पहले ही की ही नियुक्रि वहाँपर होनी चाहिये । साथ ही चिकित्सालय श्रासपासके सब कश्नोंकी सफाई पूरी तौरसे होनी चाहिये। में एक दो नर्स भी उन दिनों रहनी चाहिये ।
धर्मशाला तथा बंगलोंके पासके कुओंका जल अच्छा नहीं २. यात्राको मौसममें अनेक स्थानोंकी सेवा समितियों पाया गया और इस लिये कुछ दृग्ग्ये पानी मंगाना होता था। से कुछ ऐसे स्वयंसेवकोंके बैच प्रयत्न करके बलाने चाहियं अत: जिन कारा पानी वैसे ही खराब है उन्हें कुछ गहरा " जो यात्रियोंकी सेवामें तत्पर हों और इस पनीत कार्य के लिये करादेना चाहिये अथवा उनमें नल डलवाकर गहराई मेंसे अपने १०.२० दिनके समयका खशीसे उत्सर्ग कर सकें। निर्दोष जलको ऊपर लानेका यन्न करना चाहिये। ऐसे मेवकोंके आने जाने और ठहरने आदिका सब प्रबन्ध ६. देहली वालोंके मन्दिर और श्री सग्बीचन्द के तीर्थक्षेत्र कमेटीको करना चाहिये।
बंगलेके बीच में जो एक पुख्ता अहाता पड़ा हुआ है और ३. यदि एक विद्यालय अथवा गुरुकुल भी यही खोल जिसमें कुत्रा भी बना है उसमें शीघ्र ही धर्मशाला या दिया जाय तो उससे यात्रियोंकी सेवामें विशेष सुविधा हो औषधालय श्रादि की विल्डिग बना देना चाहिये । और सकती है। साथ ही वीर भगवानके जिस पर्वोदय तीर्थकी जब तक ऐसी कोई बिल्डिग न बने तब तक उस अहाने पवित्र धारा यहाँसे प्रवाहित हुई है उसका कुछ रसास्वादन की दोनों तरफी दीवारोंको और ऊँचा उठाकर उसमें ताला भी स्थानीय, प्रासपासकी तथा दूसरी सम्पर्कमें आनेवाली डाले रखना चाहिये, जिसस्पे कोई भी टट्टी श्रादिके द्वारा जनताको सहजमें ही मिल सकता है, जिसके मिलनेकी उस स्थानको गन्दा तथा वातावरणको दृषित न कर सके। जरूरत है और वह उस संस्कृतिका एक प्रतीक हो सकता ७. धर्मशालाके पीछे जो एक बड़ा प्लाट पड़ा हुश्रा है जिसने वहांपर जन्म लिया अथवा प्रचार पाया। है और जिसपर एक तरफ कुछ टट्टियां बनी हैं तथा टहियों
४. मन्दिर, धर्मशाला और बंगलोंके पास पास निरंतर का गन्दा पानी फैलकर वातावरणको दुर्गन्धित एवं दृषित सफाईका पूरा प्रबन्ध होना चाहिये और इसके लिये पूर्ण करता है उसकी शीघ्र ही एक अच्छी प्रहाताबन्दी होजानी वेतनभांगी दो भंगी जरूर रखे जाने चाहिये। मुनीमजीका चाहिये और उस अहातेमें अच्छा नक्शा तय्यार कराकर यह कहना कि नगर भग्में कुल चार वर भंगियों के हैं और ऐसी बिल्दुिगका डौल डालदेना चाहिये जो विद्यालय, गुम्कल उनके पास काम बहुत ज्यादा है अत: पूर्ण समयके लिये श्रौषधालय और म्यूजियम (अजायबघर) जैसी किसी किसी एक की भी योजना नहीं की जा सकती कुछ भीर्थ बड़ी संस्था अथवा संस्थाओंके लिये उपयुक्र हो। रखता हुश्रा मालूम नहीं होता; क्योंकि राजगृहमें यदि अाशा है प्रबन्धक जन इन सब बातोंकी और शीघ्र ही भंगियोंकी कमी है तो पूर्ण वेतन देकर दूसरे भंगियोंको ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और तीर्थक्षेत्र कमेटी अपना विशेष बाहरसे बुलाया जा सकता है। कमसे कम तीर्थयात्राके दिनों में कर्तव्य समभेगी।
(शेष फिर)
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देहलीके जैन मन्दिर और जैन संस्थाएँ
(वा० पन्नालाल जैन, अग्रवाल)
- -- अरसेसे यह विचार चल रहा था कि देहलीके जैन चैत्यालय--ला. मीरीमलजीका । ये दो जैनमन्दिर मुहल्ला मन्दिर और जैन संस्थानोंका एक संक्षिप्त परिचय सर्वसाधा- गली पहाड़के बाहर में हैं। रणके लिये संकलित किया जाय । श्राज उसे ही यहाँ मस्जिद खजुरस्थान-क्रममे पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत किया जाता है । इनमें
(१) पंचायती मन्दिर--यह मन्दिर लगभग २०३ यदि कहीं कुछ कमीवेशी रही हो तो उक्त संस्थानोंसे परिचित
_वर्ष पुराना सन् १७४३ का बना हश्रा है जिसका पीछे
ना सजन उससे सूचित करनेकी कृपा करें :
कुछ वर्ष हुए नूतन संस्कार हश्रा था और उससे इसने धर्मपुरा
विशाल रूप धारण किया है। इसे शुरूमें महोम्मदशाह के (१) नया मन्दिर---यह ला० हरसुखरायजीका विशाल कमसरियेट डिपार्टमेन्ट के श्राफीसर प्राज्ञामलने बनवाया था मन्दिर है। वि० सं० १८५७, ई. सन् १८०. में इसका और वाटको उसे पंचायती किया था। इसमें ३ विशाल बनना प्रारम्भ हुआ था और वैसाख सुदी ३ सं० १८६४, प्रतिमाएं हैं जिनमें पार्श्वनाथजीको मूर्ति श्यामवणं ५ फुट ई. सन् १८०७ में प्रतिष्ठा हुई थी। दर्शनीय बेदी, पच्ची ६ इंच ऊँची और ३ फुट ५ इंच चौड़ी है। अन। दो कारीका अद्भुत काम, दीवारोंपर सुनहरी चित्रकारी प्राचीन प्रतिमाएँ श्वेत रंगकी है, जिनमें प्रत्येक ३ फुट ५ इंच हस्तलिखित लगभग १८०० शास्त्र और छपे हुए प्रायः ऊँची और २ फट च चौडी है। इनके अलावा कई सभी शास्त्रोंका संग्रह ये सब इस मन्दिरकी विशेषताएं है। रत्नप्रतिमा, हस्तलिखित लगभग ३००. शास्त्र और स्फटिक, नीलम, मरकत और पाषाणकी सं० १११२ की क्रपे हए कितने ही शास्त्रोंका संग्रह आदि भी इस मन्दिर बनी हुई कितनी ही प्रतिमाएँ यहाँ है। दोनों समय इसम की विशेषताएं हैं। पुरुषोंकी शास्त्रसभा होती है । स्त्रीसमाजको भी एक शास्त्र
(२) धर्मशाला--पंचायती मन्दिरकी। सभा सुबहके वक्त हुआ करती है।
मस्जिद खजूरके बाहर(२) स्वाध्यायशाला, (३) श्राराईशफण्ड (मिथ्यात्व
(१) पद्मावती पुस्खाल दि. जैन मन्दिर--स्थापित . तिमिरनाशिनी दि० जैन समाश्रित), (४) जैन पाठशाला
सन् १६३१ । (चौथी कक्षा तक) स्थापित सम्बत् १६४३, सन् १८८६, (५) जैनवर्त्तनफण्ड (दि. जैनप्रेमसमाश्रित), (६) जैन (२) मेहरमन्दिर--ला. मेहरचंदजीका बनाया हुआ, मित्रमण्डल कार्यालय स्थापित सन् १६१५ (७) जिसमें १६७००० रुपये खर्च हुए । प्रतिष्ठा २३ जनवरी श्रीवर्धमान पब्लिक लायब्ररी-स्थापित सन् १६२७, (5) सन् १८७६ को हुई। नन्दीश्वरद्वीपके ५२ चैत्यालयोंक धर्मशाला--बीवी द्रोपदी देवाकी (भूमि नये मन्दिर जीकी) अपूर्व रचना, छपे हुए व हस्तलिखित शास्रोका संग्रह, प्रात: स्थापित संवत् १६६४, सन् १९३७, (E) धर्मशाला-- काल शास्त्रसभा, ये इस मस्जिद खजूर के मेहर मन्दिरकी कमरा, धर्मपत्नी ला० चन्दलाल मुलतानवालोंका, स्थापित खास चीजें हैं। संवत् १६७E, सन् १६२२. (१०) जैनकन्याशिक्षालय-- वैद्यवाड़ास्थापित सन् १६०८ (गचवीं कक्षा तक)। ये दश संस्थाएँ (१) दिगम्बर जैन बाड़ा मन्दिर-मय चैत्य लय मुहल्ला धर्मपुरामें हैं।
शान्तिनाथ स्वामी, लगभग २०५ वर्ष पुगना (सन् १७४१में गली पहाड़के बाहर
निर्मित, विशाल पनिमा, स्फटिककी प्रतिमायँ, हस्तलिखित (१) चैत्यालय-ला० भींदूमल जी द्वारा निर्मापित, (२) शास्त्रभंडार, स्त्रीसमाजकी शास्त्रसभा ये सब इसकी
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अनेकान्त
[ वर्षे
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विशेषताएँ हैं । (२) शान्तिसागर दि. जैन कन्यापाठशाला (१३) जैन सेवासंघ-(गलो नत्यनसिंह जाट)। ये १३ (पाँचवी कक्षा तक), (३) सुन्दरलाल दि० जैन औषधालय धार्मिक संस्थाएँ मुहल्ला पहाड़ी धीरजमें हैं । (४) सुन्दरलाल दि. जैन धर्मशाला और (५) चैत्यालय करोलबाग(गलामें), ये इस वैद्यवाड़ाके धर्मायतन हैं।
(१) जैन मन्दिर (छप्परवाले कुएके पास) । इसकी सदरबाजार
प्रतिष्ठा सन् १९३५ में हुई थीं। (१) हीगलाल जैन हायर सेकेंडरी स्कूल-स्थापित (१) मुन्शीलाल जैन आयुर्वेदिक औषधालय । सन् १६२० ।
न्यूदेहली-राजाका बाजार-- (२) शिवदयाल फ्रीनाईट स्कूल (श्रीपार्श्वनाथ युवक (१) अग्रवाल जैन मन्दिर-ला. हरसुखरायजीका मंडल द्वारा संचालित)।
बनवाया हुआ मुगलोंके समयका । इसमें मूलनायक प्रतिमा (३) 'जैन संसार (उर्दू मासिक) पत्र कार्यालय । संबत् १८६१ सन् १८०४ की है।
(४) धर्मशाला-ला० मूलचन्द मुसद्दीलालकी । ये (२) बुद्धिप्रकाश जैन रीडिंगरूम, सदर बाजार की संस्थायें हैं।
(३) खण्डेलवाल जैन मन्दिर-मुगलोंके समयका, डिप्टागंज उर्फ महावीरनगर
प्राचीन संबत् १२४८ की प्रतिमा । (१) लाल चैत्यालय, (२) श्रीलालचन्द जैन धर्मार्थ (४) जैन सभा (रजिस्टर्ड) स्थापित सन् १६३६ में । औषधालय-स्थापित सन् १६४० । ये दोनो धर्मायतन ला. (५) दि० जैन वादरी (सभा) । लालचन्द बाड़ीवालोंके बनाये हुये हैं । इसके साथ ही (६) जैनयंगमैन एसोसियेशन-स्थापित सन् १६३५ । (३) श्री १००८ जम्बूकुमार संघ नामक संस्था भी यहाँ है।
निशि-मुगलोके समय की। पहाड़ी धीरज
पहाड़गंज (मन्टोलामें)-- (१) जैन शिक्षा प्रचारक सोसाईटी (रजिस्टर्ड)। (१) जनमन्दिर । (२) श्री दि० जैन पंचायती धर्मशाला।
गली इन्दरवाली कुंचापातीराम(३) जैन संगठन सभा कार्यालय-सन् १९२४। (१) जैनमन्दिर संबत् १६४६ का बना हुआ ।
(४) सार्वजनिक जैन पुस्तकालय- स्थापित सन् १९२४ (२) जैन प्रेमसभा । (जन संगठन (सभाश्रित)।
(३) नेमिनाथ कीर्तनमंडल। (५) श्रीपार्श्वनाथ युवकमंडल कार्यालय,
देहली दरवाजा(६) जैनमैरिज वयूरो (जैनसंगटनसभाश्रित) (१) जैनमन्दिर-यह मुगलोंके ममयका बना हुआ है।
(७) जैन मन्दिर (गली मन्दिरवालीमें) जो गदरसे दरियागंजपहिले का बना हुआ है। यहां छपे हुए शास्त्रोका अच्छा (१) श्री भारतवर्षीय अनाथक्षक जैन सोसाइटी मंग्रह भी है।
(रजिस्टर्ड) स्थापित सन् १६०३, (२) जैन अनाथालय(८) चैत्यालय-ला. मनोहरलाल जौहरीका यहां स्थापित सन् १६०३, (३) जैन चैत्यालय, (४) जैन मंत्रशास्त्रों व छपे शास्त्रोंका अच्छा संग्रह है।
आयुर्वेदिक फार्मेसी, (५) टेलरिंग डिपार्टमेंट (६) जैन कन्यापाठशाला-स्थापित सन् १६१८, (६) जैनप्रचारक (मासिकपत्र कार्यालय)। (७) जैन एंग्लो (इसमें आठवीं कक्षा तक पढ़ाई है)
वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल । (८) रायबहादुर पारसदास रिफ्रेस (१०) हीरालाल जैन प्राइमरी स्कूल।
लायब्रेरी-(इममें अंग्रेजीकी बहुमूल्य पुस्तकोंका संग्रह है)। (११) जैनमन्दिर-(गली नत्यनसिंह जाट) ला० मक्वन- (६) ला. हुकमचन्दका चैत्यालय (नं० ७ में), (१०) लाल का बनवाया हुआ।
रंगीलालजैन होमियोपेथिक फ्री डिस्पेन्सरी, ये दरियागंजकी (१२) श्राविकाशालां-(गली नत्यनसिह माट) संस्थाएँ हैं।
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किरण ४-५]
देहलीके जैन मन्दिर और जैन संस्थाएँ
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फैज़बाज़ार-ऋषिभवन
कटडामशरू (दरीबा)(१) अखिल भारतवर्षीय दि. जैन परिषद कार्यालय- (१) धर्मशाला ला. श्रीराम जैन बकीलकी-स्थापित स्थापित सन् १९२३ (२) 'वीर' साप्ताहिकपत्र कार्यालय, सन् १६०६ । (३) परिषद् पब्लिशिंग हाउस (४) परिषद परीक्षावोर्ड (५) कंचासेठ (दरीवा)जैन एज्यूकेशनबोर्ड, ये फैजबाजार में स्थित संस्थाएँ हैं। (१) बड़ा मन्दिर-जो संवत् १८८५ (सन् १८१८)में लालकिलेके पास
बनना प्रारंभ हुश्रा और मगसिर वदी १३ संबत् १८६१ (१) लाल मन्दिर या उर्दूका मन्दिर-यह सबसे (सन् १८३४) में जिसकी प्रतिष्ठा हुई। स्फटिककी मूर्तिये प्राचीन मन्दिर है, जो सन् १६५६ में सम्राट शाहजहां के संबत् १२५१ को मूर्ति, लगभग १४०० हस्तलिखित समयमें बना था। यहां संवत् १५४८ की मूर्तियां हैं । स्त्री शास्त्र और छापेके ग्रंथोंका इसमें अच्छा संग्रह है। पुरुषव पुरुष समाजकी शास्त्रसभा हुश्रा करती है । कहा जाता समाजकी शास्त्रसभा होती है। (२) वर्तनफंड (जैन सेवाहै कि यह मन्दिर 'उई मन्दिर' के नामसे इस लिए प्रसिद्ध समिति के तत्वावधानमें)। (३) छोटा मन्दिर-ला० इन्द्रराजहुआ कि उसका निर्माण उन जैनियों के लिए किया गया जीका बनवाया हुआ लगभग १०६ वर्ष पुगना (सन् १८४०) था जो सम्राट शाहजहाँकी सेनामें थे, एकबार सम्राट औरङ्ग- इसमें संबत १५४६ की प्रतिमाएँ हैं । ला० इन्द्रराजजीने जेबने हुक्म निकाला था कि इस मन्दिर में बाजे न बजाये काबुल के एक दुर्रानीसे एक प्रतिमा अपना सब सामान बेच. जायें; परन्तु उनके हुक्मकी पाबन्दी न होसकी-बाजे कर ५००) रुपयेमें खरीदी थी। उसे पहले अपने घरमें बराबर बजते रहे और आश्चर्य यह कि बजानेवाला कोई प्रतिपून किया बादमें पंचोंके सपुर्द कर दिया। दुर्रानीसे जो दिखाई न देता था। सम्राट स्वयं देखने गए और संतषित प्रतिमा खरीदी थी वह संवत १५४६ की थी। (४) जैन होकर उन्होंने अपना हुक्म वापिस ले लिया। कहा जाता है धर्मशाला, (५) मुनि नमिसागर परमार्थ पवित्र औषधालयकि जिस स्थानपर यह मन्दिर है वहांपर शाही छावनी थी स्थापित सन् १९३१ (६) जैनसंस्कृतव्यापारिक विद्यालयऔर एक जैनी सैनिककी छोलदारी लगी हुई थी, जिसने पाठवीं कक्षा तक, (रजिस्टर्ड) स्थापित सन् १६११ में। अपने दर्शन करनेके वास्ते एक जिन प्रतिमा उसमें विंगज- गली अनार--धर्मपरामान कर रक्खी थी, उपरान्त उसी स्थानपर यह विशाल
(१) चैत्यालय बीबी तोखन । मन्दिर बनाया गया है।
सतघरा--धर्मपुरा(२) जैनस्पोर्टस क्लब
(१) चैत्यालय मुशी रिश्कलाल । (२) मन्दिर-ला० कूचाबुलाकीबेगम (परेड ग्राउंडके पास)
चन्दामल, स्त्रीसमाज शास्त्रसभा, (३) श्राविकाशाला । (१) जैनधर्मशाला ला० लच्छूमल कागजी-स्थापित
सतघरा (बाहर) धर्मपुरा-- सन् १६२६
(१) हिसार-पानीपत अग्रवाल दि. जैन पंचायत चांदनीचौक (दरीबेके पास)
कार्यालय-हाउस नम्बर ६४८ । गिरधारीलाल प्यारेलाल जैन एज्यूकेशन फंड (श्राफिम)
1147) छत्ता शाहजी (चावड़ीबाजार)हाउस नम्बर ३३॥
___ अग्रवाल जैन औषधालय--ला. अमरसिंह धूमीमल गली खजांची (दरीबा)
कागनीका, स्थापित सन् १६३६ । (१) चैत्यालय-ला. हजारीलाल का, ला० साहबसिंह नई सड़क-- का बनाया हुआ है, जो लगभग १५५ वर्ष पुगना सन् (१) भारतवर्षीय दि० जैन महासभा कार्यालय (रजिस्टर्ड) १७६१ में बना था। (२) चैत्यालय ला० गुलाबराय स्थापित सन् १८६४ में। (२) जैनगजट ( साप्ताहिक) मेहरचन्द (मुगलोंके समयका)।
पत्र-कार्यालय ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
कटडा खुशालराय--
१८६४, पुस्तकोंके संग्रह सहित । (१) अग्रवाल दि. जैन मन्दिरान मैनेजिंग कमेटी कटडा खुशालराय-- कार्यालय हाउस नम्बर ६६२ ।
(१) जैन श्वेताम्बर पौशाल श्रीसंघ श्रीरंगसूरीश्वर गन्दानाला--
खतरगच्छकी स्थापित संवत् १९८३, सन् १९२६ । (२) नेन (१) जैन मन्दिर।
जागृति संघ कार्यालय (तीनो संप्रदायोंका)। सब्जीमंडी
नवघरा(१) पाश्वनाथ मन्दिर (वर्फग्वाने के पाम)। (२) (१) श्वेताम्बर जैन मन्दिर लगभग २३० वर्ष पुराना आदिनाथमन्दिर (गली मन्दिरवालोमें ), स्त्रीसमाजकी अर्थात् मन् १७६६ का। शास्त्रसभा, (३) श्री शान्तिसागर दि. जैन कन्यापाठशाला बैद्यवाडा-- (पांचवीं कक्षा तक)। (४) श्री शान्तिसागर दि. जैन (१) श्री जैन श्वेताम्बर स्वतरगच्छीय जैनधर्मशाला,
औषधालय । (५) दि. जैन महावीर चैत्यालय (जमना लाला नवलकिशोर बैगतीलाल रक्यान जौहरीकी, स्थापित मील में), (६) जैन विद्यार्थी मंडल (सभा) व पत्र कार्यालय संवत् १६८२. सन् १६२५ । (मासिक) रोशनारारोड
मालीवाड़ा-- भोगल-जंगपुरा देहलीसे ४ मीलकी दूरीपर-- (१) स्थानक (पत्तलवाली गलीमें)। (२) महावीर जैन
(१) यहाँ एक जैन चैत्यालय और (२) जैन कन्या औषधालय । (३) श्री गंगादेवी धर्मार्थ ट्रस्ट (गली दागेगा पाठशाला है।
कन्हैयालाल, मकान नं० २०७६ में)। पटपड़गंज देहलीसे ५ मील दूर
चीरावाना(१) यहाँ एक जैन मन्दिर है, जो ला० हरसुखगयजी (१) चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर । का बनवाया हुआ है।
(२) श्री जैन तरुणसमाज कार्यालय, (३) श्री एस. एस. देहली शाहदरा देहलीसे ४ मील दूर
जैन कन्या पाठशाला (छटी कक्षा तक), (४) धर्मशाला (१) जैनमन्दिर ला• हरसुखरायजीका वनवाया हुश्रा मुन्नालाल सिंघी, मकान नं. ३८३ । मन्दिरवाली गली में शास्त्र भंडार सहित है। (२) जैन पाठ- नई सड़कशाला, (३) रघुवीर सिंह जैनधर्मार्थ औषधालय ।
(१) श्री महावीर जैन हाई स्कूल । कुतुबमीनार (देहलीस ११ मील दूर)
चांदनीचौक(१) खंभोंपर जैन मूर्तियों खुदी हुई हैं (कीली लोहेके (१) श्री एस. एस. जैन महावीर भवन । (२) महावीर सामनेकी दालानमें नीचे तथा ऊपरकी मंजिल में)
जैन पुस्तकालय, स्थापित सन् १६२३ । नोट-यहाँ तक जिनका परिचय दिया गया वे सब मन्दिर और संस्था दिगम्बर जैन है।
(१) जैन श्रमणोपासक मिडिल स्कूल, स्थापित श्वेताम्बर और स्थानकवासी जैन संस्थाएँ। सन् १६५६। चेलपुरी
डिप्टीगंज(१) श्वेताम्बर जैन मन्दिर, सन् १८१६ का। (१) श्री जैन श्वेताम्बर स्थानक, (२) श्री जैन किनारीबाज़ार--
पब्लिक लायब्रेरी। (१) श्रात्मवल्लभ जैनधर्मशाला, स्थापित १८ अप्रैल सब्जी मंडीसन् १६३६, (२) श्री श्रात्मवल्लभ प्रेमभवन उपनाम भी (१) श्री पार्श्वनाथ जैन लायब्रेरी मय धर्मशाला, (२) जैन श्वेताम्बर धर्मशाला, स्थापित संवत् १६५२, सन् स्थानक सोहनगंज (चन्द्रावलरोड)।
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(पृष्ठ १६२ का शेषांश)
गया । चूँकि छत्रमालको वहाँके भट्टारककी कृपा और शिष्य इन ब्रह्मने वहांकी मनोज्ञ महावीरस्वामीकी उनके मंविनाके प्रभावसे युद्ध में विजयलाभ हुआ जीर्णं मूर्तिको देखकर द्रव्य मांग मांग कर उसका था। इस लिये वह तबसे अतिशयक्षेत्र भी कहा उद्धार कराया तथा चैत्यालयका उद्धार छत्रमालने जाने लगा। कराया । इन मब बातोंका शिलालेखमें उल्लेख है। प्रभाचन्द्र और श्रुतसागरके मध्य में रचे गये साथमें छत्रसालको बड़ा धर्मात्मा प्रकट किया गया निर्माणकाण्डमें जिन अति गयक्षेत्रोंकी परिगणनाकी हे और उसका यशोगान किया गया है। भस्तु । गई है उनमें भी कुण्डलपुरको अतिशयक्षेत्र या
इससे यही विदित होता है कि वहाँ १५ वींसे अन्य रूपमें परिगणित नहीं किया। इससे भी यह १७ वीं शताब्दी तक रहे भट्टारकी प्रभुत्वमें कोई प्रकट है कि वह सिद्धक्षेत्र तो है ही नहीं-अतिशयमहावीरस्वामीका मन्दिर निर्माण कराया होगा। क्षेत्र भी १५वी १६ वीं शताब्दीके बाद प्रसिद्ध हुआ है। उसके करीब १०० वर्ष बाद जीर्ण होजानेपर वि० बीना (सागर) -दरबारीलाल जैन, कोठिया स० १७५७ (अठारहवीं सदी) में उसका उद्धार कराया १६.५-४६ ५ पारालाल ज
अनेकान्तको सहायता वीरसेवामन्दिरको सहायता गत तीसरी किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद गत तृतीय किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद भनेकातको जो सहायता प्राप्त हुई है वह वीर सेवामन्दिरको सदस्य फीसके अलावा जो सहायता निम्न प्रकार है, जिसक लिये दातार महानुभाव प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है जिसके लिये थन्यवादके पात्र हैं:
दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र है५१) रा०प० ला हुलाशराय जी जेन रईस, सहारनपुर १००१) श्रीमान ला० कपू चन्दजी जैन रईस कानपुर, __ (अपने दत्तक पुत्रकी शादी में निकाले हुए दानमें से) मालिक फर्म ला• विश्वेश्वरनाथ मूलचन्दजी ५०) बा० नेमचन्दजी गांधी, उस्मानाबाद ।
जैनने ५०१) अपनी ओर तथा ५००) रुपया २०) ला० फेरूमल चतरसैनजो, मासिक 'वीर स्वदेशी अ.ने चचा बनारसीदामजीके भोरसे दशलक्षण
भंडार' 'सरधना'. (१० ग्राहकों को अधमूल्य में पर्व के उपलक्ष में, भेंट किये।
अनेकान्त भिजवाने क लिये, जिन्हें भेजा गया)। २०१) श्री दि. जैन समाज, नजीबाबाद, जि. १०) ला० रूड़ामलजी शामियाने वाले, सहारनपुर बिजनौर (दशजक्षण पर्व के उपलक्षमें) मार्फत
(चि० बा. कस्तूरचन्दजीके विवाहके समय न्यायाचाय पं. दरबारीलालजी जैन कोठिया । निकाले गए २५१) ७० के दानमेंस)
१००) बा० छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता (बतौर ५) बा०कपूरचन्द लालचन्दजी C. P. तिलोकचन्द
सहायता सफर खचक)। कल्याणमल, इन्दोर।
२०॥-)|| उक्त ला. कपरचंदजी कानपुरके दोनों ५) इन्द्रमलजी एडवोकेट बुलन्दशहर (चिं० पुत्र चैत्यालयोंमें रक्खी हुए गोलकों से प्राप्त ।
नरेन्द्रमोहनकी विवाहोपलक्ष में निकाले दान मेंसे) १०) श्री दिगम्बर जैन समाज नजीबाबाद सफर ५)ला. दामोदरदासजी अलीगढ़ और ला वासी- खचकी सहायतार्थ, मार्फत न्यायाचार्य पं० लालजी मुगदाबाद (पुत्र-पुत्रोके विवाह के उपलक्ष- दरबारीलालजी कोठिया। में निकाले गए दानमेंसे)।
१०) ला० रूडामलजी जैन शामियानेवाले, सहाग्न५)ला. हरचन्दराय नेमीचन्दजी पथवारी, आगरा पुर (चि० पुत्र ब. कस्तूरचन्दजी जैनके
(चि. पुत्र मोहनकुमार की शादीके उपलक्षमें विवाहके अवसरपर निकाले हुए २५५) रू. ५)ला० सुमेरचन्दजी जैन सर्राफ किरतपुर जि. के दानमेंसे) विजनौर (चि० पुत्र प्रेमचन्दकी शादीके उपलक्ष में ५) ला० आनन्दस्वरूपजी जैन, खतौली। निकाले गए दानमसे)।
५) दि० जैन पंचायत किशनगढ, (जयपुर) ५)ला. मिश्रीलालजी सोगानी हाथरस (धर्मपत्नाके - स्वर्गवासके समय निकाले हुए दानमेंसे) १३५२।।)
अधिष्ठाता१६१) व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर)
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Regd..No. A-736.
वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
१-आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र-नया प्राप्त अनुवादके साथ प्राक्कथन, सम्पादकीय, १०१ पृ० की संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी सानुवाद व्याख्या
विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई - परिशिष्टोंसे सहित । मूल्य।)
संकलित है, साथमें सम्पादक द्वारा नवनिर्मित 'प्रकाशारण्य'
नामका एक संस्कृतटिप्पण लगा हुश्रा है, जो ग्रंथगत कठिन २-सत्साध-स्मरण-मङ्गलपाठ-मुख्तार श्रीजुगल- या विषयोका खलासा करता हा विद्यार्थियों किशोरकी अनेक प्राचीन पोंको लेकर नई योजना सुन्दर
कितने ही विद्वानों के कामकी चीज है। लगभग ४०० पृष्ठों हृदयग्राही अनुवादादि सहित। इसमें श्रीवीर वर्द्धमान और उस
के इस बृहत्संस्करणका लागत मूल्य ५) रु. है। कागज के बादके जिनसेनाचार्य पर्यन्त, २१ महान् आचार्यों के
की कमीके कारण थोड़ी ही प्रतियों छपी हैं। अत: इच्छुकों अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा किये गये महत्वके १३६ को
लेना चाहिये। पुण्य-स्मरणोंका संग्रह है और शुरूमें । लोकमाल-कामना, २ निन्यकी प्रारम-प्रार्थना, ३ साधुवेषनिदर्शक जिनस्तुति
६-विवाह-समुद्देश्य-लेखक पं० जुगलपरमसाधुमुखमुद्रा और ५ सरसाधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण किशोर मुख्तार, हालमें प्रकाशित चतुर्थ संस्करण। हैं। पुस्तक पढ़ते समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न यह पुस्तक हिन्दी साहित्यमें अपने ढंगकी एक ही चीज होते हैं और साथ ही प्राचार्योंका कितना ही इतिहास सामने है। इसमें विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही मार्मिक श्राजाता है, नित्य पाठ करने योग्य है । मू०॥)
और तात्विक विवेचन किया गया है अनेक विरोधी विधि
विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियोंसे उत्पन्न हुई विवाहकी कठिन ३-अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड यह पंचा
और जटिल समस्याको बड़ी युनिके साथ रटिके स्पष्टीकरण घ्यायी तथा लाटीमंहिता आदि ग्रंथोंके कर्ता कविवर-राजमान
द्वारा सुलझाया गया है और इस तरह उनमें दृष्टविरोधका की अपूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कूजेमें बन्द
परिहार किया गया है। विवाह क्यों किया जाता है ? उस किया गया है। साथमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया
की असली गरज (मौलिकदृष्टि) और सैद्धान्तिक स्थिति और पं० परमानन्द शास्त्रीका सुंदर अनुवाद,सम्पादन, विस्तृत
क्या है ? धर्मसे, समाजसे और गृहस्थाश्रमसे उसका क्या विषयसूची तथा मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी लगभग ८०
सम्बन्ध है? वह कब किया जाना चाहिये ? उसके लिये पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ
वर्ण और जातिका क्या नियम हो सकता है ? विवाह न है। मूल्य १॥)
करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है? विवाहके पश्चात् ४-उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा-मुख्तार किन नियमों अथवा कर्त्तव्योंका पालन करनेसे स्त्री-पुरुष श्रीजुगलकिशोरजीकी ग्रंथपरीक्षाओंका प्रथम अंश, ग्रन्थ- दोनों अपने जीवनको सुखमय बना सकते हैं ? और किस परीक्षाभों के इतिहासको लिए हुए १४ पेजकी नई प्रस्तावना प्रकार अपनी लौकिक तथा धार्मिक उन्नति करते हुए वे सहित । मूल्य।)
समाज और देशके लिये उपयोगी बन कर उनका हित
साधन करने में समर्थ हो सकते हैं? इन सब बातोंका ५-न्याय-दीपिका-(महत्वका नया संस्करण)
इस पुस्तकमें बड़ा युक्रिपुरस्सर एवं हृदयग्राही वर्णन म्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित और अनुवादित न्याय दीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण अपनी खास
है। मूल्य ॥)
प्रकाशनविभाग-- विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित संस्करणों में जो अशुद्धियाँ चली प्रारही थीं उनके प्राचीन प्रतियोपरसे संशो
वीरसेवामन्दिर, सरसावा धनको लिए हुए यह संस्करण मूलग्रंथ और उसके हिन्दी
(सहारनपुर यू०पी०)
RU
मुद्रक, प्रकाशक पं० परमानन्द शास्त्री वीरसेवामन्दिर सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल द्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित
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अनेका
सम्पादक-पं० जुगलकिशोर मुग्तार
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विषयसूची
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नवंबर
दिसंबर
। समन्तभद्र-भारती के कुछ नमन (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक ०३ • श्रा, भापायों की व्यु. जैन० महत्व -- [बा, व्यातिप्रसाद एम. ए...५ ३ ग्रंथ और ग्रंथकार (मूलाचार कार्तिकयानुप्रक्षा)-[सम्पादक ५ वीतरागस्तोत्र--सम्पादक ५ मर गधाकृष्णनके विचार--- ६ साम्प्रदायिक दंगे और हिमा - [बा. गजकुमार जैन ७ भ० महावीर और उनका सन्देश-श्रीकम्यूरसाव जैन. बी. ए., ०३७
वनम्पति घी- महात्मा गांधी ६१३ वे सूत्र में मजद पदका विरोध क्या ?--[पं० दरबारीलाल ४७ १० कायरता चोग्पाप है---श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय ११ बंगालके कुछ प्राचीन जैनथल--[चा, ज्योतिप्रसाद एम. ए. १. चारित्र्यका आधार-श्री काका कालेलकर १३ धर्म आर नारी-बा. ज्योनिप्रसाद जैन. एम. ए. १४ अपभ्रंश भाषाका जैन कथा-साहित्य---[पं० परमानन्द शास्त्री १५ प्रा. जनमक ध्वं में निर्मित पम्जिदें---[वा० ज्योतिप्रसाद एम०प, १६ रत्न और आ० का का कर्तृत्व प्रमागग सिद्ध है-[पं० दरबारीलाल :१७ एक प्राचीन ताम्र-शासन[सम्पादक १८ भदारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना----[सम्पादक
१६ विविध विषय-[जे० पी०] .. REATREE.. साहित्यपरिचय और समालोचन--[ज्योनिप्रसाद जैन
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आवश्यक सूचना
गत किरणमें अनेकान्तके प्रकाशनमें होनेवाली विलम्ब- ध्यान दिलाया गया उन्होंने क. मा.को कुछ लिखा और तब पर अपना भारी खेद व्यक्त करते और उसके कारण एवं कंट्रोलर साहबने परमिट वापिस मँगाकर उसे होलसेलरों तजन्य अपनी मजबूरीको बतलाते हुए यह आशाकी गई और डिस्ट्रीब्यूटरों दोनोंके नामपर कर दिया साथ ही थी कि अगली किरणोंका मैटर शीघ्र ही प्रेसमें जाकर वे सहारनपुरका कुछ कोटा भी बढ़ गया । ऐसा होनेपर भी प्रेस के श्राश्वासनानुसार जल्दी छप सकेंगी और कुछ समयके कितने ही असेंतक मिलोसे डिस्ट्रीब्यूटरों के पास २०४३० भीतर ही विलम्बकी पूर्ति हो जायगी। परन्तु जिस ह्वाइट साइजका कागज नहीं पाया, जो अपने पत्र में लगता है, प्रिंटिंग कागजपर अगली किरणकि छापनेकी सूचनाकी गई और कुछ अाया भी तो वह अपने को नहीं मिलमका पाखिर थी उसका परमिट तो मिलगया था किन्तु कागज नहीं मिला ८ दिसम्बरसे कागज मिलना शुरू हुश्रा, जो मिलते ही था। कागजके लिये कितनी ही बार सहारनपुर के चक्कर प्रेमको पहुँचा दिया गया जिसके पास मैटर पहलेसे ही छग्ने लगाने पड़े और प्रत्येक होलसेलर (wholeseller) को गया हुअा था। प्रेसको अपना कुछ टाइप बदलवाना को उसके देने के लिये प्रेरणा की गई परन्तु सबने टकासा था, इससे उसे छपाई प्रारम्म करने में देर लगगई और जवाब देदिया और कह दिया कि हमारे पास श्रापके मतलब इस तरह देरमें और देर होगई ! का कागज नहीं है । मालूम यह हुआ कि सहारनपुर जिलेका
यह सब देखकर विलम्ब की शीघ्र पूर्ति की कोई अाशा कोटा तो कम है और परमिट अधिकके कटे हुए हैं. ऐसी
नहीं रही, और इसलिये किरणोके सिलसिलेको ही प्रधान:: हालतम माँगके अधिक बढ़ जानेसे अक्सर व्यापारी लोग
अपनाया गया है। अर्थात् इस संयुक्त किरणको जून जुलाई (हालसलर्स) श्राते ही माल को प्राय: इधर उधर कर देते की न रखकर नवम्बर-दिसम्बर की रखा गया है और है-दुकानोपर रहने नहीं देते-और फिर ड्योढे दुगुने
किरणका नंबर पूर्व सिलसिलेके अनुमार ही ६-७ दिया दामोपर बलैकमार्केट द्वारा अपने खास व्यक्तियोंकी म र्फत
गया है। किरणे पूरी १२ निकाली जाएंगी-भले ही बेचते हैं । यह देखकर डिस्ट्रव्यूटरों (distributors)
कुछ किरणें संयुक्त निकालनी पड़े, परन्तु पृष्ठ संख्या जितनी के पाससे कागज के मिलनेकी व्यवस्थाके लिये परमिटमें
निर्धारित है वह पूरी की जावेगी और इससे पाठकों को कोई सुधार करदेने की प्रार्थना कीगई परन्तु पेपर कंट्रोलर साहबने
अलाभ नहीं रहेगा । हम चाहते हैं यह वर्ष श्राषाढतक उसे मंजूर नहीं किया-अर्थात् अपनी हंडी तो खड़ी रक्खी
पूरा कर दिया जाय और वीरशासनजयन्तीके अवसरपर परन्तु उसके भुगतान की कोई सूरत नहीं निकाली !! लाचार श्रावणसे नया वर्ष शुरू किया जाय और उसके प्रारंभमें देहली में । क. पेस एडवाइजरी बोर्ड के मेम्बर के सामने अपना
दी एक खास विशेषाङ्क निकाला जाय। रोना रोया गया और इम सरकारी व्यवस्थाकी अोर उनका
सम्पादक
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ॐ अर्हम्
वस्ततत्त्व-सघातक
श्वतत्त्व-प्रकाशक
वाषिक भूल्य ४)
इम किरण का मूल्य )
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नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । |परमागमस्य पीज भुल्नैकगुर्जयत्यनेकान्तः।
वर्ष ८ । वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जि. सहारनपुर किरगा ६-७ ( मार्गशीर्ष-पौष शुक्ल, वीरनिर्वाण मं० २४७३, विक्रम सं० २००३
नवम्बर-दिसम्बर । १६४६
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन अभेद-भेदात्मकमर्थत वं तव स्वतन्त्राऽन्यतगतग्व-पुष्पम् ।
अवृत्तिमत्वात्पमवाय-वृत्तेः संसर्गहानेः सकलाऽर्थ-हानिः ॥ ७ ॥ '(हे वीरभगवन ! ) भापका अर्थतत्त्व-आपके हाग मान-प्रतिपादित अथवा श्रापके शासनमें वर्गि त जीवादि-वस्तुतत्व-अभेद-भेदात्मक -परसरतन्त्रता (अपेक्षा, दृष्टिविशेष) को लिये हुए अभेद और भेद दोनों रूप है अर्थात कथञ्चित द्रव्य-पर्यायरूप, कथञ्चित् सामान्म-विशेषरूप, कथञ्चित् एकानेकर प और कथञ्चित निन्याऽनित्यरूप है; न सर्वथा अभेदरूप (द्रव्य, सामान्य, एक अथवा निन्यरूप) है, न सर्वथा भेदरूप (पर्याय, विशेष, अनेक अथवा अनियरूप) है और न सर्वथा उभयरूप (परस्पर निरपेक्ष द्रव्य-पर्यायमात्र, मामान्य-विशेषमात्र, एक अनेकमात्र अथवा निन्य-अनित्यमात्र) है।श्रभेदात्मकतत्त्व-द्रव्यादिक और भेदात्मकत्त्व-पर्यायादिक दोनोंको खतम्च-पारस्परिक तन्त्रता से रहित सर्वथा निरपेक्ष-स्वीकार करनेपर प्रत्येक-द्रव्य, पर्याय तथा उभय; सामान्य, विशेष तथा उभय; एक, अनेक तथा उभय और नित्य, अनित्य तथा उभय-माकाशक पुष्प-समान (श्रवस्तु) हो जाता है-प्रतीयमान (प्रतीतिका विषय) म हो सकनेसे किसीका भी तब अस्तित्व नहीं बनता।'
(इसपर यदि यह कहा जाय कि स्वतंत्र एक द्रव्य प्रत्यक्षादिरूपसे उपलभ्यमान न होनेके कारण क्षणिकपर्याय की तरह प्राकाश-कुसुमके समान अवस्तु है सो तो ठीक, परन्तु उभय तो द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायरूप सत् तत्त्व है और प्रागभाव-प्रध्वंसाऽभाव-अन्योन्याऽभाव-अत्यन्ताऽभावरूप असत तत्व है, वह उनके स्वतंत्र रहते हुए
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२.०
अनेकान्त
[वर्ष ८
भी कैप श्राकाशके पुष्प समान अवस्तु है ? वह तो द्रव्यादि-ज्ञानविशेषका विषय सर्वजनोंमें सुप्रसिद्ध है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि कारण दम(अवयव)-कार्यद्रव्य (अवयवी)की, गुण-गुणीकी, कर्म-कर्मवानकी समवाय-समवायवानकी एक दुसरं से स्वतंत्र पदार्थके रूप में एक बार भी प्रतीति नहीं होती। वस्तुतत्त्व इससे विलक्षण-जात्यन्तर अथवा विजातीय-है और वह सदा पदोंको अवयव-अवयवीरूप, गुण-गुणीरूप, कर्म-कर्मवानरूप तथा सामान्य-विशेष. रूप प्रत्यक्षादि प्रमाणांसे निर्बाध प्रतिभासित होता है।)
(यदि वैशे पिक-मतानुसार पदार्थोको-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छहोवोपर्वथा स्वतंत्र मानकर यह कहा जाय कि समवाय-वृत्तिमे शेप सब पदार्थ कृतिमान हैं अर्थात समकाय नामके स्वतंत्र पार्थ-द्वारा वे सब परस्परने सम्बन्ध को प्राप्त हैं, तो) समवायवृत्तिके प्रवृत्तिमती होनेस-वाय नाम के स्वतंत्र पदार्थका दूसरे पदार्थों के साथ स्वयका कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण उसे स्वयं असम्बन्धवान माननेसेसंसर्गकी हानि होती है-किसी भी पार्थका सम्पर्क पृथवा सम्बन्धक दूसरे के साथ नहीं बनता । समकायसमवायिकी तरह अवरट पदार्थों के समवायवृक्तिसे संसर्गकी कल्पना न करके, पदार्थों के अन्योऽन्य-संसर्ग (एक दूसरे के साथ सम्बन्ध) को स्वभावरितु माननेपर स्यावाद शासनका ही श्राश्रय होजाता है; क्योंकि स्वभावसे ही इसका सभी गुण-कर्म-सामान्य-दिर पोकेम कति तादायका अनुभव करनेवाले ज्ञानविशेषके वर.मे यह दव्य है, या गुण है, यह कर्म है. यह सामान्य है. यः विशेष है और यह उनका अविश्वम्भावरूप (अस्थग्भूत) समवाय-सम्बन्ध है. इस प्रकार भेद करके सतबनिबन्धन (मभाचीन नयव्यवस्थाको लिये हुए) व्यवहार प्रवर्तता है और उससे अनेकान्तमत प्रसिद्ध होता है, जो वैशेषिक का इष्ट नहीं है और इसलिये वैशेपियोंके मतमें स्वभावसिद्ध संसर्गके भी न बन सकनेसे संस की हानि ही ठहरती है। और संसगेकी हानि होनर-पदार्थों का परस्पर स्वत: (स्वभादसे) अथवा परत: (दुसर के निमित्तम) कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण ... संपूर्ण पदार्थों की हानि ठहरती-किसी भी पदार्थ की तब सत्ता अथवा व्यवस्था बन नहीं सकती।- श्रतः जो लोग इस हानिको नहीं चाहते उन ग्रास्तिकोंके द्वारा वही वस्तुतत्व समर्थनीय है जो अभेद-भेदामक है. परस्परतंत्र है, प्रतीतिका विषय है तथा प्रक्रिया में समर्थ है और इमलिये जिसमें विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । वह वस्तुतत्त्व हे वारजिन ! अापके मतमें प्रतिाहत है, इससे श्रापका मत अद्वितीय है-नयों तथा प्रमाणों के द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्वुल स्पष्ट करनेवाला और दूसरे सभी प्रवादों (सर्वथा एकान्तवादी) से अबाध्य हानेके कारण सुर वरिथत है-दूसरा (सर्वथा एकान्तवार का प्राश्रय लेनेवाला) कोई भी मत व्यवस्थित न होने से उसके जोडका, सानी अथवा ममान नहीं है, यह अपना उदाहरण श्राप है।' समवाय पदार्थका दसरे पदार्थो के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता, क्योंकि सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है-एक संयोग-सम्बन्ध, दूसग समवाय-सम्बन्ध और तीसरा विशेषण-विशेष्यभाव-सम्बन्ध । पहला संयोग-सम्बन्ध इसलिये नहीं बनता. क्योंकि उसकी वृत्ति द्रव्यमें मानी गई है-द्रव्योंके अतिरिक्त दूसरे पदार्थों में वह घटित नहीं होती-और समवाय द्रव्य है नहीं, इसलिये संयोगसम्बन्धके माथ उसका योग नहीं भिडता । यदि अद्रव्यरूप समवायमें संयोगकी वृत्ति मानी जायगी तो वह गुण नहीं बन सकेगा और वैशेषिक मान्यताके विरुद्ध पड़ेगा; क्योंकि वैशेषिकमतमें संयोगको मी एक गुण माना है और उसको द्रव्याश्रित बतलाया है । दूसग समवाय-मम्बन्ध इसलिये नहीं बन सकेगा, क्योंकि वह समवायान्तरकी अपेक्षा रक्खेगा और एकके अतिरिक्त दुसरा ममवाय पदार्थ वैशेषिकोंने माना नहीं है । और तीसग विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध इसलिये घटित नहीं होता, क्योंकि वह स्वतंत्र पदार्थोका विषय ही नहीं है । यदि उसे स्वतंत्र पदार्थोका विषय माना जायगा तो अतिप्रसंग श्राएगा और तब सह्या चल (पश्चिमीघाटका एक भाग) तथा विन्ध्याचल जैसे स्वतंत्र पर्वतोमें भी विशेषण-विशेष्यभावका सम्बन्ध घटित करना होगा, जो नहीं हो सकता। विशेषण-विशेष्यभावसम्बन्धकी यदि पदार्थान्तरके रूपमें संभावना की जाय तो वह सम्बन्धान्तरकी अपेक्षा विना नहीं बनता और दूसरे सम्बन्धकी अपेक्षा लेनेपर अनवस्था दोष पाता है। इस तरह तीनोंमेंसे कोई भी सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता।
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किरण ६-७]
समन्तभद्र भारती के कुछ नमूने
भायेषु नित्येषु विकारहानेनं कारक-व्यापृत-काय-युक्तिः ।
न बन्ध-भागो न च तद्विमोक्षः समन्तदोपं मतमन्यदीयम् ॥ ८॥ 'सत्तात्मक पदार्थोंको-दिक-काल-श्राकाश-छात्माको, पृथिव्यादि परमाणु-द्रव्योंको, परम-महत्वादि गुणों को तथा सामान्य-विशेष-समवायको-(सर्वथा) नित्य माननेपर उनमें विकारकी हानि होती-कोई भी प्रकारकी विक्रिया नहीं बन सकती-विका की हानिम कादि कारकोंका (जो क्रियाविशिष्ट द्रव्य प्रसिद्ध हैं) व्य पार नहीं बन मकता, कारक-व्यापारके अभ वमें (द्रव्य-गुण-कर्मरूप) कार्य नहीं बन सका, और कार्य फ अभावमें (कार्यझिङ्गात्मक अनुमानरूप तथा योग-सन्बन्ध-संसर्गरूप) युक्ति घटित नहीं हो सकती । युक्तिके प्रभावमें बन्ध तथा (बन्ध-फलानुभवनरूप) भोग दोनों नहीं बन सकते और न उनका विमोक्षही बन सकता हैक्योंकि विमोक्ष बन्धपूर्वक ही होता है. बन्धके अभावमें मोक्ष कैसा ? इस तरह पूर्व पूर्वके अभावमें उत्तरोत्तरकी व्यवस्था न बन सकनेसे संपूर्ण भावात्मक पदार्थोंकी हानि ठहरती है-किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती । और जब भावात्मक पदार्थ ही व्यवस्थित नहीं होते तब प्राम्भाव-प्रध्वंसाऽभावादि अभावामक पदार्थोकी व्यवस्था तो कैसे बन सकती है ? क्योंकि वे भावामक पदार्थों के विशेषण होते हैं, स्वतंत्ररूपसे उनकी कोई सत्ता ही नहीं है । अतः (हे वीरजिन !) आपके मतसे भिन्न दसर्गका-सर्वथा एकानावादी वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक तथा सांग्य आदिका -मत (शासन) सब प्रकासे दोषरूप है-देश-काल और पुरुप विशेषकी अपेक्षाने भी प्रत्यक्ष अनुमान तधा भागम-गम्य सभी स्थानों में बाधित है।'
अहेतुकत्व-प्रथितः स्वभावस्तस्मिन् क्रिया-काग्क-विभ्रमः स्यात् ।
आचाल-मिद्धर्विविधार्थ-मिद्धिादान्तरं कि तदसूयतां ते ॥ ६ ॥ '(यदि यह कहा जाय कि प्रामानिनिय दल्यो स्वभादसे ही विकार सिद्ध है अत: कारकव्यापार, कार्य श्रीर कार्ययुनि. सब ठीक घटित होते हैं और इस तरह सकल दोप असंभव ठहरते हैं-कोई भी दोषापत्ति नहीं बन सकती; तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वह स्वभाव बिना किसी हेतुके ही प्रथित (प्रसिद्ध) है अथवा आबाल-सिद्धिये विविधार्थसिद्धि के रूपमें प्रथित है ? उत्तरमें) यद यह कहा जाय कि नित्य पदार्थों में विकारी होने का स्वभाव विना किसी हेतुके ही प्रथित है तो ऐसी दशामें क्रिया और कारकका विभ्रम ठहरता है- स्वभावले ही पदार्थोंका ज्ञान तथा प्राविर्भाव होनेसे ज्ञप्ति तथा उत्पत्तिरूप जो प्रतीयमान किया है उसके भ्रान्तिरूप हानेका प्रसंग श्राता है, अन्यथा स्वभावके निहें तुकत्वकी सिद्धि नहीं बनती। और क्रिया के विभ्रमसे प्रतिभाममान कारक समूह भी विभ्रमरूप हो जाता है; क्योंकि क्रिशविशिष्ट व्यका नाम कारक प्रसिद्ध है, क्रियासे कारककी उत्पत्ति नहीं । और स्वभाववादीके द्वारा क्रिया कारकका विभ्रम मान्य नहीं किया जा सकता--विभ्रमकी मान्यतापर बादान्तरका प्रसंग पाता है-सर्वथा स्वभाववाद स्थिर न रहकर एक नया विभ्रमवाद और खड़ा हो जाता है। परन्तु (हे वीरजिन !) क्या प्रा. -आपके स्थाद्वाक्ष-शासनसे-द्वेष रखनेवाले के यहाँ यह वादातर बनता है ?-नहीं बनता; क्योंकि सब दुछ विभ्रम है' ऐसा एकान्तरूप वादान्तर स्वीकार करनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस विभ्रममें ध्रुविभ्रम-अभ्रान्ति है या वह भी विभ्रम-भ्रान्तिरूप है ? यदि अविभ्रम है तो विभ्रम-एकान्त न रहा-अविभ्रम भी कोई पदार्थ ठहरा । और यदि विभ्रममें भी विभ्रम है तो सर्वत्र अभ्रान्तिको सिद्धि हुई; क्योंकि विभ्रममें विभ्रम होनेसे वास्तविक स्वरूपकी प्रतिष्टा होती है। और ऐसी हालतमें स्वभावके निर्हेतुकम्पकी सिद्धि नहीं हो सकती।'
'यदि यह कहा जाय कि (बिना किसी हेतुके नहीं किन्तु) भाषालसिद्धिरूप हेतुसे विविधार्थक-सर्वथा नित्य पदार्थों में विक्रिया तथा कारक ज्यापारादिकी-सिद्धिके रूप में स्वभाव प्रथित (प्रसिद) है-अर्थात् क्रिया
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अनेकान्त
विर्ष ८
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कारकादिरूप जो विविध अर्थ हैं उन्हें बालक तक भी स्वीकार करते हैं इसलिये वे सिद्ध हैं और उनका इस प्रकारसे सिद्ध होना ही स्वभाव है तो यह वादान्तर हुअा; परन्तु यह वादान्तर भी (हे वीर भगवन ! ) आपक द्वेषियों के यहाँ बनता कहाँ है ?-क्योंकि वह प्रावाल-सिद्धिसे होनेवाली निणीति नित्यादि सर्वथा एकान्तवादका श्राश्रय लेने पर नहीं बन सकती, जिससे सब पदार्थो सब कार्यों और सब कारणोंकी सिद्धि होती। कारण यह कि वह निीति अनित्य होती है और विना विक्रियाके बनती नहीं, इसलिये सर्वथा नित्य-एकान्तके साथ घटित नहीं हो सकती । प्रत्यक्षादि प्रमाणसे किसी पदार्थकी सिद्धिके न हो सकनेपर दूसरों के पूछने अथवा दूपणार्थ जिज्ञासा करनेपर स्वभाववादका श्रवलम्बन ले लेना युक्र नहीं है; क्योंकि इससे अतिप्रसंग अाता है-प्रकृतसे अन्यत्र बिपक्षमें भी यह घटित होता हैसर्वथा अनित्य अथवा क्षणिक-एकान्तको सिद्ध करने के लिये भी स्वभाव-एकान्तका अवलम्बन लिया जा सकता है। और यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकी सामर्थ्यसे विविधार्थकी सिन्द्विरूप स्वभाव है तो फिर स्वभाव-एकान्तवाद कैसे सिद्ध हो सकता है? क्योंकि स्वभावकी तो स्वभावसे ही व्यवस्थिति है उसको प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके बलसे व्यवस्थापित करनेपर स्वभाव-एकान्त स्थिर नहीं रहता। इस तरह हे वीर जिन ! आपके अनेकान्तशासनसे विरोध रखने वाले मर्वथा एकान्तवादियोंके यहाँ कोई भी वादान्तर (एकके साथ दूसरा वाद ) ८.न नहीं सकता-वादान्तर तो सम्यक एकान्तके रूपमें आपके मित्रों-सपक्षियों अथवा अनेकान्तवादियोंके यहाँ ही घटित ता है।
येपामवक्तव्यमिहाऽऽत्म-तत्वं देहादनन्यत्व-पृथक्त्व-क्लप्तेः ।
तेपां ज्ञ-तत्त्वेऽनवधार्यतच्चे का बन्ध-मोक्ष-स्थितिरप्रमेये ॥ १० ॥ नित्य अत्मा देहमे (सर्वथा) अभिन्न है या भिन्न इस कल्पनाके होनेसे (श्री अभिरनव तथा भिनव दोनामसे किसी एक भी विकल्पके निर्दोष सिद्ध न हो सकनेसे) जिन्होंने प्रात्म-त्वको 'श्रवक्तव्य'-वचनके अगोचर अथवा अनिर्वचनीय-माना है उनके मतमें आत्मतत्त्व अनवधार्य (अज्ञेय) तत्त्व हो जाता है-प्रमेय नहीं रहता। और आत्मतत्त्वके अनवधाये होनेपर-प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाग का विषय न रहनेपर-बन्ध और मोक्षकी कौनसी स्थिति बन सकती हे ? बन्ध्या-पुत्रकी तरह कोई भी स्थिति नहीं बन सकती-न बन्ध व्यवस्थित होता है और न मोक्ष । और इसलिये बन्ध-मोक्षकी सारी चर्चा व्यर्थ ठहरती है।'
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न चाऽप्यदृष्टो योऽयं प्रवादः क्षणिकाऽऽत्मवादः ।
'न ध्वस्तमन्यत्र भरे द्विताये' सन्तानभिन्न न हि वासनाऽस्ति ॥ ११ ॥ 'प्रथम क्षणमें नष्ट हुया चित्त-आत्मा दृमरे क्षण में विद्यमान नहीं रहता' यह जो (बौद्धोंका) क्षणिकात्मवाद है वह (केवल) प्रवाद है-प्रमाणशून्य वाद होनेसे प्रलापमात्र है; क्योंकि इसका ज्ञापकअनुमान करानेवाला-कोई भी दृष्ट या अदृष्टहेतु नहीं बनता। देहसे श्रात्माको सर्वथा अभिन्न माननेपर संसारके अभावका प्रसंग श्राता है; क्योंकि देह-रूपादिककी तरह देदात्मक श्रात्माका भवान्तर-गमन तब बन नहीं सकता और इसलिये उसी भवमें उसका विनाश ठहरता है, विनाशका नित्यत्वके साथ विरोध होनेसे श्रात्मा नित्य नहीं रहता और चार्वाकमतके श्राश्रयका प्रसंग अता है, जो प्रात्मतत्त्वको भिन्नतत्त्व न मानकर पृथिवी आदि भूतचतुष्कका ही विकार अथवा कार्य मानता है और जो प्रमाण-विरुद्ध है तथा आत्मतत्ववादियोंको इष्ट नहीं है । और देहसे आत्माको सर्वथा भिन्न माननेपर देहके उपकार-अपकार से श्रात्माके सुख-दुःख नहीं बनते, सुख-दुःखका अभाव होनेपर राग-द्वेष नहीं बन सकते और राग-द्वेषके अभावमें धर्म-अधर्म संभव नहीं हो सकते। अत: 'स्वदेहमें अनुरागका सद्भाव होनेसे उसके उपकार-अपकारके द्वारा आत्माके सुख-दुःख उसी तरह उत्पन्न होते हैं जिस तरह स्वगृहादिके उपकार-अपकारसे उत्पन्न होते हैं। यह बात कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकती। इस तरह दोनों ही विकल्प सदोष ठहरते हैं ।
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कि ण ६-७]
समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने
(या. यह कहा जाय कि 'जो सत है व पब स्वभावये ही क्षणिक है, जैसे शहर और विद्युा अति अरना श्रारला भी कि पत् है अत: वह भी स्वभावणे क्षणक है, और ५४ स्वभावहेतु ही उसका ज्ञाक है, तं. इन प्रकार के अनुमान पर ऐसा करने अथवा अनुमान लगानेपर - यद :श्न पैदा होता है कि वह हेतु स्वयं प्रातपत्ता (ज्ञाता) के द्वारा दृष्ट (रेवा ग ।) है या अदृष्ट (नहीं देखा गया अर्थात कल्पनारोपित) है? दृष्टहेतु संभव न हो सकता; क्यों के सब कुछ कि होने के कारण दर्शनके अनन्तर ही उसका विनाश हो जानेसे अनुमानकाल में भी उपका श्रभाव होता है। साथ ही, चित्तविशेपके लिङ्गदर्शी उस अनुमाताका भी संभव नहीं रहता । इसी तरह कल्पनारंचित (कालात) अदृष्ट हेतु भी नहीं बनता; क्योंकि उस कल्पनाका भी तक्षण विनाश होजाने अनुमानक लमें मग व नहीं रहता।)
(या. य कला जाय कि व्याप्तिके ग्रहण काल में लिङ्गदर्शनकी जो कल्पना उत्पन्न हुई थी उसके तण विनाश हो जानेपर भी उसकी वासना (संस्कार) बनी रहती है अत: अनुमानकालमें लिङ्गदर्शन प्रबुद्ध हुई उस वासनाके सामर्धमे अनुमान वृत्त होता ही है, तो ऐसा कहना युक्र नहीं है, क्योंकि) मा भन्न (चित्त) -हेतु(साधन)
और हेतुमद् (माय) के विनाभाव-सम्वन्धरूप व्याप्तिके ग्राहक चित्तमे अनुमाताका चित्त (सन्तानतः भिन्नकी तरह) भिन्न पन्नान होने पे उसमें-वासनाका अस्तित्व नही बन सकता -यदि भिन्न सन्तानवालेके वासनाका अस्तिव माना जाय तो भित्रपन्नान देव, त्त-द्वारा साध्य-पाधनकी व्यतिका ग्रहण होनेपर जिनदत्तके (व्याप्तिका ग्रहण न होने पर भी) साधनको देखने मात्र पाध्यके अनुमानका प्रसंग अाएगा; कयोंकि दोनोंमें कोई विशेस्ता नहीं है। श्रीरका बान संभव नहीं हो सकती; क्यों के व्यासिके ग्रहण विना अनुमान प्रवर्तित नहीं हो सकता)।'
आधुनिक भाषाओंकी व्युत्पत्तिके लिये जैनसाहित्यका महत्व
(ले० - बा. ज्योतिषसाद जैन, एम. ए.)
-MOKगुजराती पत्र 'श्री जैन सत्यप्रकाश' (वर्प १२ किन्तु इम शब्द । संस्कृत म्हप एक प्राचीन जैन अंक १) में प्रो० मूलराजजीका एक संक्षिप्त लेख 'दो ग्रन्थ 'वृहनकथाकोप' में उपलब्ध होता है । इम १८होंकी व्युत्पत्ति' शीपकसे प्रकाशित हुया है। उसम ग्रन के चिगिता दिगम्बगचाय हरिपेगा थे और प्रकट होता है कि जैन साहित्यका अध्ययन भारतनपे उन्होंने इस प्रन्थकी रचना विक्रम संवन ८६ (सन की अध नक लोकभापायों की व्युत्पत्तकी जानकायके १३२ ई.) में की थी। यह ग्रन्थ अब प्रमिद्ध प्राच्य लिये भा उपयोगी एवं आवश्यक है।
भषाविज्ञ डा. ए. एन. उपाध्ये द्वारा संपादित होकर ___पंजाब प्रान्त में प्रचलित लोकभाषाका एक शब्द सिबी जेन ग्रंथमाला के बन्नेगत, भारतीय विद्याभवन है 'कुड़', जिसका अर्थ है कन्या, लड़की अथवा पुत्री। बम्बई से प्रकाशित हो चुका है । उक्त कथाकोषकी यह शब्द अपने इस प्रकृतरूपमें अथवा किसी रूपान्तर कथा न० ३० (पृ० ५०) का शीर्षक 'मृतक संगे नष्ट को लिये हुए अन्य किसी प्रान्तीय भाषा में नहीं मिलता माना कथानकम' है। इस कथामें लड़कीके अर्थोमें सांकृत प्राकृत आदि भषाओं में भी अभी तक ऐसा 'कुटिकां' शब्दका प्रयोग हुआ है* । फुटनोट तथा कोई शब्द जानने में नहीं आया जिससे कुड़ी', शब्दकी भूमिका पृ० १०३ पर दिये हुए विशेषशब्दार्थकोषमें व्युत्पत्ति की जासके।
* वृहत्कथाकप, कया नं० ३०, श्लोक ८-६ ।
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२२६
अनेकान्त
[वर्ष ८
विद्वान सम्पादकमे भी 'कुटिकाका अर्थ 'कन्याम्' स्वामीसमन्तभद्रकी उक्तिमें भी 'ठक्क' शब्द आया है, अर्थात् पुत्री किया है।
जो कि श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके मतानुसार प्रस्तुत कथाका प्रारंभ इस प्रकार होता है--उत्तरा. पंजाब देशका ही घातक है । कनिघम साहिबने अपने पथके वलदेवपुर में बलवधन नामक प्रतापी राजा था ग्रन्थ 'एन्शेन्ट जागरफी' में भी ठक्क देशका पंजाबसे जिमकी अनि सुन्दर कुल वधनी नामकी रानी थी। उस ही समीकरण किया है । मि. लेविस राइस, एडवर्ड नगरमें धनदत्त नामक एक 'टक्क श्रेष्ठी' + रहना था। पी० राइस, तथा रा०व० भार० नरासिहाच.येरने भी इसकी स्त्रीका नाम धनदत्ता था । इनके धनदेवी ठक्क को पंजाब देश ही लिखा है। न मकी पुत्री थी । इस नगरमें एक दूसरा 'टककश्रेष्ठी'
अतः इसमें सन्देह नहीं रह जाता कि वृहत्कथापूणभद्र रहता था। इसकी स्त्रीका नाम पूर्णचन्द्रा था और पुत्रका पूर्णचन्द्र । एक दिन पूर्णभद्रने धनदत्तसे
कोषकी प्रस्तुत कथामें उल्लिखित टक्कश्रेष्ठीका अर्थ कहा कि 'आप अपनी पुत्री धनवतीका विवाह मेरे
पंजाबी सेठ ही है, और उसके साथ लड़कीके अर्थमें पुत्र पूणचन्द्र के साथ करदें।' धनदत्तने उत्तर दिया शुद्ध पंजाबी शब्द कुड़ीके संस्कृत रूप 'कुटिका' शब्द कि यदि आप मुझे बहुत-पा धन देखें तो मैं अपनी
का योग सर्वथा संगत और उचित है। दूसरे, लड़को दे।' इसपर पूर्णभद्र बोला धन भाप चाहे
पंजाब प्रान्तमें सदेवसे ही लड़कियों की कुछ कमी रहती जितना लेलें लडकी जल्दी देदें।
भाई है और इसलिये वहाँ कन्याविक्रय प्रायः होता कथामें धनदत्त और पूर्णभद्र दोनोंके ही लिये रहता है । कथामें धनदतका अपनी लडकीके बदले में 'टक्वश्रेष्ठी' शब्द प्रयुक्त हुआ है और प्रो• मूलराज
धनकी मांग करना इसी बातको सूचित करता है। जीने इसका अर्थ किया है टक्कदेशका अथवा टक्क
कथाकोपके उपर्युक्त संस्करणकी भूमिका (पृ०. देशका रहने वाला । बृहत्कथाकोषकी कथा नं. ६३ १०१-११०) में डा० उपाध्येने ऐसे लगभग ३५० शब्दों में भी टक्कः, टक्कनी. टक्ककानाँ शब्द आये हैं (श्लोक का कोष दिया । जो प्रचलित प्रान्तीय भाषाओं, ६५, ६२,६७) । और वहाँ डा० उपाध्येने टक्क या प्राकृत या देसी भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं किन्तु टक्ककका पर्थ कंटक-कंजूम (a niggard) किया संस्कृत साहित्यमें जिनका प्रयोग नहीं होता । इन है और अनुमान किया है कि संभवतया 'ठक्क' शव्दकी शब्दोंका कथाकोषकारने संस्कत रुप देकर या अपने भाँति यह कोई पेशेवर नाम (a professional मल रूपमें ही प्रय ग किया है डा. उपाध्येके शब्दोंमें name) हेx । किन्तु जैसा कि प्रो० मूलराजगीका ये शाब्दिक प्रयोग अपने रूप और अर्थों द्वारा सहज कशन है कि कोषों में टक्क नाम बाहीक जातिका है। में भारतवर्षीमानिक भाषाओंके तत्तत् शब्दों राज र रङ्गिकी (५, १५०) में भी टक्देशका उल्लेख
___ का स्मरण करादेवे हैं-चाहे ये भाषायें आर्य हों या है और इससे पंजाबका तात्पर्य है । पंजाबके पवंत दाविद. और इन शब्दों के लिये तत्सम तद्भव प्राकृत प्रदेशकी लिपिको आज भी 'टाकरी' कहते हैं ' अस्तु
अथवा देसी शब्द उपलब्ध हों या न हों।" कमसेकम प्र तुप्त कथामें तो टक शब्द का अर्थ क्षेत्र सूचक अर्थात पंजाब ही ठीक अँचता है। बाहिक (टक्क) इस प्रकार, विशाल जैन साहित्यके सम्यक् अध्ययन जतिका निवास पश्चिमोत्तर प्रान्तमें ही था । श्रवण द्वारा विभिन्न आधुनिक भारतीय लोकभाषाओंके न बेलगोलके प्रसिद्ध शिलालेख न० ५४ में संगृहीत जाने कितने शब्दोंकी व्युत्पत्तिपर महत्वपूर्ण प्रकाश
पड़ सकता है। + वही, श्लोक ३, ५। Brhat-Kathakosa, Introd. p. 105
१७-११-४६
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ग्रन्थ और ग्रन्थकार
[सम्पादकीय ]
'पुरातन-जैनवाक्य-सूची' की प्रस्तावनामें, जो अभी तक अप्रकाशित है और अब जल्दी ही प्रेसको जानेवाली है, 'ग्रन्थ और ग्रन्थकार' नामका भी एक प्रकरण है, जिसमें मैंने इस वाक्यसूचीके श्राधारभूत ६३ मूलग्रन्थोंका परिचय दिया है। इस प्रकरण मेंसे नमूनेके तौरपर कुछ ग्रन्थों का परिचय अनेकान्त-पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है:-1
१ मूलाचार और वट्टकर
पाई जाती हैं जिनमें ग्रंथकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य दिया
हा है। डाक्टर ए. एन. उपाध्येको दक्षिणभारतकी कुछ __ 'मुलाचार जैन साधुचोंके प्राचार-विषयका एक बहुप्त ऐसी प्रतियोंको स्वयं देखनेका अवसर मिला है और जिन्हें, ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ है। वर्तमानमें दिगम्बर प्रवचनमारकी प्रस्तावनामें, उन्होंने quite genuine in सम्प्रदायका 'याचाराज' सूत्र समझा जाता है । धवला their appearance 'अपनेरूपमें बिना किसी मिलावटके टीकामें प्राचाराङ्गके नामसे उसका नमूना प्रस्तुत करते हुए विस्कुल असली प्रतीत होने वाली' लिखा है। इसके कछ गाथाएँ उद्धृत हैं, वे भी इस ग्रंथमें पाई जाती है; सिवाय, माणिकचन्द्र दि. जैन-ग्रन्थमालामें मलाचारकी जब कि श्वेताम्बरोंके आचारागमें वे उपलब्ध नहीं हैं, जो सटीक प्रति प्रकाशित हुई है उसकी अन्तिम पुष्पिकामें इससे भी इस ग्रंथको श्राचाराङ्गकी ख्याति प्राप्त है । इसपर भी मलाचारको
प्राप्त है । इसपर भी मूलाचारको 'कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत' लिखा है। वह 'आचारवृत्ति' नामकी एक टीका प्राचार्य वसुनन्दीकी उप- पुष्पिका इस प्रकार है:लब्ध है, जिसमें इस ग्रंथको आचाराग का द्वादश अधिकारों में उपसंहार (सारोद्वार) बतलाया है, और उसके तथा भाषा
____ “इति मूलाधार-विवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दटीकाके अनुसार इस ग्रंथकी पद्यसंख्या १२४३ है। वसनन्दी कुन्दाचायप्रणीतमूलाचाराख्य-विवृतिः । कृतिरियं श्राचार्य ने अपनी टीकामें इस ग्रंथके कर्ताको वट्टकेराचार्य, पर
अपनी टीकामें इस पंथ मानो वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य।" वट्टकर्याचार्य तथा वढेरकाचार्यके रूपमें उल्लेखित किया यह सब देखकर मेरे हृदयमें यह खयाल उत्पन्न हुश्रा है-पहला रूप टीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना-वाक्यमें, दूसरा कि कुन कुन्द एक बहुत बड़े प्रवर्तक श्राचार्य हुए हैंस्व. १०वें तथा १वें अधिकारोंके सन्धि-वाकोंमें और श्राचार्यभनिमें उन्होंने स्वयं आचार्य के लिये प्रवर्तक' होना तीसरा ७वे अधिकारके सन्धिवाक्यमें पाया जाता है। एक बहुत बड़ी विशेषता बतलाया है- और 'प्रवर्तक' परन्तु इस नाम किसी भी श्राचार्यका उल्लेख अन्यत्र विशिष्ट साधुओंकी एक उपाधि है, जो श्वेताम्बर जैनसमाज गुर्वावलियों, पट्टावलियों, शिलालेखों तथा ग्रंथप्रशस्तियों में श्राज भी व्यवहृत है, हो सकता है कि कुन्दकुन्दके इस
आदिमें कहीं भी देखने में नहीं पाता, श्रीर इस लिये प्रवर्तकत्व-गुणको लेकर ही उनके लिये यह 'वट्टकर' जैसे ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्चस्कॉलरोंके सामने यह प्रश्न पदका प्रयोग किया गया हो। और इसलिये मैंने वहकर, बराबर खड़ा हुआ है कि ये रादि नामके कौनसे श्राचार्य वकेरि और वढेरक इन तीनों शब्दोंके अर्थपर गम्भीरताके हैं और कब हुए हैं?
साथ विचार करना उचित समझा । तदनुसार मुझे यह मुलाचारकी कितनी ही ऐसी पुरानी हस्तलिखित प्रतियां मालूम हुआ कि वकका अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है. इरा * देखो. माणिकचन्द्र-ग्रंथमालामें प्रकाशित ग्रन्यके दोनों बाल-गुरु-वुड्ढ-सेहे गिलाण-थेरे य खमण-संजुत्ता । भाग नं० १६, २३ ।
वट्टावणगा भरणे दुस्सीले चावि जाणित्ता ॥३॥
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२२८
अनेकान्त
[वर्ष ८
गिरा-वाणी-सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणी-सरस्वती है। इसके सिवाय. भाषा-साहित्य और रचना-शैलीकी दृष्टिले प्रवर्तिका हो - जनताको सदाचार एवं सन्मार्गमें लगानेवाली भी यह ग्रंथ कुन कुन्द के ग्रंथों के साथ मेल खाता है. इतना हो-उसे 'वहकेर' समझना चाहिये । दूसरे, वहकों- ही नहीं बल्कि कुन कुन के अनेक ग्रंथों के वाक्य (गाथा तथा प्रवर्तकों में जो इरि गिरि-प्रधान-प्रतिष्ठित हो अथवा ईरि गाथांश) इस ग्रंथमें उसी तरहसे संप्रयुक पाये जाते हैं जिस समर्थ-शकिशाली हो उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिये । तीसरे, तरह कि कंदकंद के अन्य ग्रंथों में परस्पर एक-दूसरे ग्रन्थ के चट्ट नाम वर्तज-आचरणका है और ईरक प्रेरक तथा प्रवर्तकको दाक्योंका स्वतंत्र प्रयोग देखने में प्राता है। इतः जब तक कहते हैं सदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला है। उसका नाम किपी स्पष्ट प्रमाण-द्वारा इस ग्रन्थके कर्तृन्दरूपमें बहकेराचार्य 'वट्टरक' है । अथवा वह नाम मार्गका है, मन्मार्गका जो का कोई स्वतंत्र अथवा थक व्यक्रित्व सिद्ध न हो जाय तब प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी 'वीरक' कहते है। तक इस ग्रंथको कन्दकन्दकृत मानने और घट्टप्लेगचारीको और इसलिये अर्थकी दृष्टिपे ये बहकेरादि पद कुन्दकुन्दके
सद पद कुन्दकुन्दक कुन्दकुन्दके लिये प्रयुक्र हा वर्तकाचार्य पद स्वीकार करने लिये बहुत ही उपत्र तथा संगत मालूम होते हैं। आश्चर्य में कोई खास बाधा मालन नहीं होती। नहीं जो प्रवर्तकत्व-गुणकी विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके
२ कार्तिकेयाऽनुप्रेक्षा और स्वामिकुमारलिये वढेरकाचार्य (वर्तकाचार्य) जैसे पदका प्रयोग किया गया हो । मूलाचारकी कुछ प्राचीन प्रतियों में ग्रन्थकर्तृवरूप
यह अध्र वादि बारह भावनाओंपर, जिन्हें भव्यजनों के
लिये आनन्दकी जननी लिखा है (गा.१), एक बड़ा ही से कुन्दकुन्दका स्पष्ट नामोल्लेग्व उसे और भी अधिक पुष्ट करता है। ऐसी वस्तुस्थिनिमें मुहद्वर पं० नाथूरामजी मीने,
सुन्दर, सरल तथा मार्मिक ग्रंथ है और ४८१ गाथा-संख्याको जैनसिद्धान्तभास्कर (भाग १२ किरण 1) में प्रकाशित
लिये हुए है। इसके उपदेश बडे ही हृदय-ग्राही है, उक्रियों 'मूलाचारके कर्ता वरि' शीर्षक अपने हाल के लेग्वमें.
अन्तस्तलको स्पर्श करती हैं और इसीसे यह जनसमाजमें जो यह कल्पना की है कि, बेट्टगेरि या बेट केरी नामके कुछ
सर्वत्र प्रचलित है तथा बड़े श्रादर एवं प्रेमकी दृष्टिसे देखा ग्राम तथा स्थान पाये जाते हैं, मूलाचारके कर्ता उन्हीं में से
जाता है। किसी बेट्टगेरि या बेटकेरी ग्रामके ही रहनेवाले होंगे श्रीर
इसके कर्ता ग्रन्थकी निम्न गाथा नं. ४८८ के अनुसार
'स्वामिकुमार हैं, जिन्होंने जिनवचनकी भावनाके लिये और उस परसे कोए कुन्दादिकी तरह 'वट रे' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ संगत मालूम नहीं होती-बेट्ट और वह
चंचल मनको रोकने के लिये परमश्रद्धाके साथ इन भावनात्रों शब्दोंके रूपमें ही नहीं किन्तु भाषा तथा अर्थ में भी बहुत
की रचना की है :अन्तर है। बेट्ट शब्द, प्रेमीजीके लेखाउसार, छोटी कहाकि जिण-वयण-भावणटुं सामिकुमारेण परमसद्धाए । वाचक कनड़ी भाषाका शब्द है और गरि उप भाषामें पली-
रइया अणुपेक्खाओ चंचलमण-रंभणटुं च ॥
रइया अणुपक्खाआ चच भोहल्लेको काने हैं; जब कि वह और बट्टक जैसे शः 'कुमार' शब्द पुत्र, बालक, राजकुमार, युवराज, प्राकृत भाषाके उस अर्थ के वाचक शन: हैं और प्रन्थकी अविवाहित, ब्रह्मचारी आदि अर्थों के माथ 'कार्तिकेय' अर्थ में भाषाके अनुकूल पढ़ते हैं । ग्रंथभर तथा उसकी टीका में भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक प्राशय कृतिकाका पुत्र है बेट्टगेरि या बेट्टकेरि रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं पा और दूसरा श्राशय हिन्दुओंका वह पडानन देवना है जो जाता और न इस ग्रंथके कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही उसका शिवजीके उम वीर्यमे उत्पन्न हुअा था जो पहले प्रग्निप्रयोग देखनेमें प्राता है, जिससे उन कानाको कुछ प्रायमर देवताको प्राप्त हुया, अग्निये गंगामें पहुंचा और फिर गंगामें मिलता । प्रायुत इसके, ग्रन्थदानकी जो प्रशस्ति मुद्रित प्रतिमें स्नान करती हुई छह कृतिकाओंके शरीरमें प्रविष्ट हुश्रा,
अहित है उसमें 'श्री देकानायकतसूत्र-य । द्विधेः' जिससे उन्होंने एक एक पुत्र प्रसव किया और वे कहों पुत्र इस वाक्यके द्वारा 'बट्टेरक' नामका उल्लेख है, जो कि बादको विचित्र रूपमें मिलकर एक पुत्र 'कार्तिकेय' हो गये, ग्रन्थकार-नामके उन तीनों रूपोंमेंसे एकरूप है और सार्थक देखो. अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ पृ० २२१.२४
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किरण ६..]
प्रन्थ और ग्रन्थकार
२२६
जिसके छह मुम्ब और १२ भुजाएँ तथा १२ नेत्र बतलाए जाते सहन करने वाले सन्तजनोंके कुछ उदाहरगा प्रस्तुत किये हैं, हैं। और जो इसीसे शिवपुत्र, अग्निपुत्र, गंगापुत्र तथा जिनमें एक उदाहरण कार्तिकेय मुनिका भी निम्नाकर है:कृतिका श्रादिका पुत्र कहा जाता है। कुमार के इस कार्तिकेय "स्वामिकार्तिकेयमुनिः क्रौंचराज - कृतोपसर्ग अर्थको लेकर ही यह ग्रंथ स्वामी कार्तिकेयकृत कहा जाता सोद्वा साम्यपरिगामेन समाधिमरणेन देवलोकं है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे प्र.प्य: (H:१)" नामों से इसकी सर्वत्र प्रसिद्धि है। परन्तु ग्रन्थभरमें कभी इसमें लिखा है कि 'स्वामिकार्तिकेय मुनि क्रींचराजकृत ग्रन्थकारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न ग्रन्थको उपसर्गको समभावसे सहकर समाधिपूर्वक मरण के द्वारा कार्तिकेयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामस्से देवलोकको प्राप्त हुए। उल्लेखित ही किया है। प्रत्युत इसके, ग्रन्थके प्रतिज्ञा और तखार्थराजवातिकादि ग्रन्थों में 'अनुत्तरोपपादंदशांग' का समाप्ति-वाक्योंमें ग्रन्थका नाम सामान्यत: 'अगुपेहानो' वर्णन करते हुए, वर्द्धमानतीशंकरके तीर्थ में दारुण उपसर्गोंको (अनुप्रेक्षा) और विशेषत: 'बारसअणुवेषग्वा' (द्वादशानुप्रेक्षा) सत्कर विजयादिक अनुत्तर विमानों (देवलोक) में उत्पन्न होने दिया है* । कुन्दकुन्द के इस विषय के ग्रन्थका नाम भी वारस वाले दम अनगार साधुओंके नाम दिये हैं, उनमें कार्तिक अथवा अगुपेक्वा' है। तब कार्तिकेयानुप्रेक्षा यह नाम किसने और कार्तिकेयका भी एक नाम है। परन्तु किसके द्वारा वे उसगको कर दिया, यह एक अनुसन्धानका विषय है। ग्रन्थपर एक- प्राप्त उप ऐसा कछ उल्लेख स थमें नहीं है। मात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टाक शुभचन्द्रकी हो. भगवतीअाराधना जैसे प्राचीन ग्रन्थकी निम्न है और विक्रम संवत् १६१३में बनकर समाप्त हुई है। गाथा नं. १५४६ में बचके द्वारा उपसर्गको प्राप्त हुए एक इस टीकामें अनेक स्थानों पर ग्रंथका नाम 'कातिके नुप्रेक्षा' व्यत्रिका उल्लेख जरूर है. साथ उपसर्गस्थान रोहडक' श्रीर दिया है और ग्रन्थकार का नाम 'कार्तिकेय' मुमे प्रकट किरा 'शक्रि' हथियारका भी उल्लेख है परन्तु 'कार्तिके.' है तथा कुमारका अर्थ भी 'कार्तिकेय' बतलाया हैx । नामका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उस व्यतिको मात्र अग्निइससे संभव है कि शुभचन्द्र भट्टारकके द्वारा ही यह दायितः' लिखा है. जिसका अर्थ होता है अग्निप्रिय, नामकरण किया गया हो-टीकासे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें अग्निका प्रेमी अथवा अग्निका प्यारा, प्रेमपात्र :ग्रंथकाररूपमें इस नामकी उपलब्धि भी नहीं होती। रोहेब्यम्मि सत्तीए मोकाचेण श्रमियदा वि ।
'कोहेण जाण तपदि' इत्यादि गाथा नं० ३६४ की तं वेदणमधियासिय पडिवण्णो तमं अटुं ॥ टीकामें निर्मल क्षमाको उदाहत करते हुए घोर उपसर्गोको 'मजाराधनादर्पम' टीकामें पं० श्राशाधरीने 'प्रांग * वोच्छं अणुपेहायो (गा. १); बारमअणुपेक्खायो दयिदो' (अग्निदयित:) पदका अर्थ, 'भग्निगज नाम्नो
भणिया हु जिणागमाणुसारेण (गा० ४८८)। राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयसंज्ञः'-ग्नि नामके राजाका पुत्र x यथा:-(१) कार्तिकेयानुप्रेक्षाष्टीका वक्ष्ये शुभश्रिये- कार्तिकेय संशक--या है। कार्तिकेय मुनिकी एक कथा
(श्रादिमंगल) भी हरिषेण. श्रीचन्द्र और नेमिदत्तके कथाको में पाई (२) कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा (प्रशस्ति ८)। जाती है और उसमें कार्तिकेयको कृनिका मानासे उत्पन्न (३) 'स्वामिकार्तिकेयो मुनीन्द्रो अनुप्रेक्ष्या त्याख्यातुकाम: अग्निराजाका पुन बतलाया है। माथ ही, यह भी लिखा
मल गालनमंगलावाप्ति-लक्षण मंगल]माचष्टे(गा०१) है कि कार्तिकेयने बालकालमें--कुमारावस्थामें ही मुनि (४) केन रचितः स्वामिकुमारेण भव्यवर-पुण्डरीक-श्री- दीक्षा ली थी, जिसका अमुक कारण था, और कार्तिकेयकी
स्वामिकार्ति केमुनिना आजन्मशीलधारिण:अनुप्रेक्षा: बहन रोहेटक नगरके उस च गजाको ब्याही थी जिसकी रचिताः।
(गा. ४८७)। शक्रिसे आहत होकर अथवा जिमके किये हुए दारुण (५) अहं श्रीकार्तिकेयसाधुः संस्तुवे (४८६) उपमर्गको जीतकर कार्तिकेय देवलोक सिधारे हैं। इस (देहली नवा मन्दिर प्रति वि०, संवत् १८०६
कथाके पात्र कार्तिकेय और भगवती आराधनाकी उक्त गाथाके
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२३.
अनेकान्त
[वर्ष ८
पात्र 'अग्निदयित' को एक यतलाकर यह कहा जाता है परिवर्तनादिका यह कार्य किसी बादके प्रतिलेखक द्वारा संभव
और श्राम तौरपर माना जाता है कि यह कार्तिकवानुप्रेक्षा मालूम नहीं होता, बल्कि कुमारने ही जान या अनजानमें उन्हीं स्वामी कार्तिकेयकी बनाई हुई है जो क्रौंच राजाके जोइन्दुके दोहेका अनुसरण किया है ऐसा जान पड़ता है। उपसर्गको समभावसे सहकर देवलोक पधारे थे, और इस- उन दोहा और गाथा इस प्रकार हैं:-- लिये इस ग्रंथका रचनाकाल भगवतीप्राराधना तथा श्री विरला जाणहिं तत्तु बहु विरला णिसुणहि तत्तु । कुन्दकुन्द के ग्रंथोंसे भी पहलेका है -भले ही इस ग्रन्थ तथा विरला झायहिं तत्त जिय विरला धारहितत्त ॥६॥ भ० ग्राराधनाकी उन गाथामें कार्तिकेयका स्पष्ट नामोल्लेख
-योगसार न हो और म कथामें इनकी इस ग्रन्थरचनाका ही कोई विरला णिमुणहि तच्चं बिरला जाणंति तच्चदो तचं । उल्लेख हो।
विरला भावहि तचं विरलाणं धारणा होदि ॥३७६।। पन्तु डाफ्टर ए. एन. उपाध्ये एम. ए. कोल्हापुर इस
--कार्तिकेयानुप्रेक्षा मतसे सहमत नहीं है। यद्यपि वे अभीतक इस ग्रन्यके और इसलिये ऐसी स्थितिमें डा. साहबका यह मत कर्ता और उसके निर्माणकालके सम्बन्धमें अपना कोई है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा उन कुन्दकुन्दादिके बादकी ही नहीं निश्चित एक मत स्थिर नहीं कर सके फिर भी उनका इतना बल्कि परमात्मप्रकाश तथा योगसारके कर्ता योगीन्दु प्राचार्य के कहना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उतना (विकमसे दोसो या तीनसी भी बाद की बनी हुई है, जिनका समय उन्होंने पूज्यपादके वर्ष पहलेकाx) प्राचीन नहीं हैं जितना कि दन्तकथाओं के समाधितंत्रसे बादका श्रीर चण्ड व्याकरणसे पूर्वका अर्थात आधारपर मानाजाता है. जिन्होंने ग्रन्थकार कुमारके व्यकि- ईसाकी ५ वीं और ७ वीं शताब्दीके मध्यका निर्धारित किया स्खको अन्धकारमें डाल दिया है। और इसके मुख्य दो है; क्योंकि परमाग्मप्रकाशमें समाधितंत्रका बहुत कुछ अनुकारण दिये है, जिनका सार इस प्रकार है:
सरण किया गया है और चण्ड-व्याकरणमें परमात्मप्रकाशके (8) कुमारके इस अनुपेक्षा ग्रंथमें बारह भावनाओंकी प्रथम अधिकारका ८५ वां दोहा (कालु नहे विणु जोइया' गणनाका जो क्रम स्वीकृत है वह वह नहीं है जो कि इत्यादि) उदाहरण के रूप में : बहकर, शिवार्य और कुन्द न्कके ग्रन्थों (मूलाचार, भ. इसमें सन्देह नहीं कि मूलाचार भगवतीयाराधना आराधना तथा बारसअणुपेक्खा) में पाया जाता है, बल्कि और बारसअणुवेक्खामें बारह भावनाओंका क्रम एक है, उससे कछ भिन्न वह क्रम है जो बादको उमास्वातिके इतना ही नहीं बक्षिक इन भावनाओंके माम तथा क्रमकी तत्त्वार्यसूत्रमें उपलब्ध होता है।
प्रतिपादक गाथा भी एक ही है. और यह एक खास विशे(२) कुमारकी यह अनुप्रेक्षा अपभ्रंश माषामें नहीं पता है जो गाथा तथा उसमें वर्णित भावनाओंके क्रमकी लिखी गई: फिर भी इसकी २७६ वी गाथामें 'णिसुणहि' अधिक प्राचीनताको सूचित करती है। वह गाथा इस
और 'भावहि' (prefer by हिं) ये अपभ्रंशके दोपद प्रकार है :प्राघुसे हैं जो कि वर्तमान काल तृतीय पुरुषके वहु बचनके अद्धवमसरणमेगत्तमरण-संसार-लोगमसुषितं । रूप है। यह गाथा जोइन्दु (योगीन्दु) के योगसारके ६५ वें भासव-संबर-णिज्जर-धम्मं वोहि व चिंति
वह पाचातात जो॥ दोहेके साथ मिलती जुलती है, एक ही श्राशयको लिये उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रमें इन भावनाओंका क्रम हए है और उन दोहेपरसे परिवर्तित करके रक्खी गई है। एक स्थानपर ही नहीं बल्कि तीन स्थानोंपर x पं. पन्नालाल वाकलीवालकी प्रस्तावना पृ०
विभिन है। उसमें अशरणके अनन्तर एकत्वCatalogue of Sk. and Pk. Manus
अन्यत्व भावनाओंको न देकर संसारभावनाको दिया है cripts in the C. P. and Berar P. XIV; .
v. और संसारभावनाके अनन्तर एकत्व-अन्यत्व भावनाको तथा Winternitz, A history of Indian * परमात्मप्रकाशकी अंग्रेजीप्रस्तावना पृ. ६४-६७ Literature, Vol. II, P. 577.
तथा प्रस्तावनाका हिन्दीसार पृ० ११३-११५,
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किरण ६-७]
प्रन्थ और अंथकार
२३१
रक्खा है: लोकभावनाको संसारभाषनाके बाद न रखकर मालूम नहीं होती-खासकर कम प्रान गाथा नं० २८०की निर्जराभाषनाके बाद रक्खा है और धर्मभावनाको बोधि. उपस्थितिमें, जो उसकी स्थितिको और भी सन्दिग्ध कर दुर्लभसे पहले स्थान न देकर उसके अन्तमें स्थापित किया देती है. और जो निम्न प्रकार है:है जैसा कि निम्न सुत्रसे प्रकार है
तच्चं कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिलदे जो हि । ___“अनित्याशरण-संसारेषत्वाऽन्यत्वाशच्याss. तं चिय भावेइ सया सो वि य तत्त्चं वियाणेई ।। सव-संवर निरा-लोक- बोधिदुर्लभ • धर्मस्वाख्यात •
॥२०॥ तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः॥६-"..
इसमें बतलाया है कि, 'जो उपर्य तत्वको-जीवादिऔर इससे ऐसा जाना जाता है कि भावनाओंका यह
विषयक तत्वज्ञानको अथवा उसके मर्म को-स्थिरभावमेक्रम, जिसका पूर्व साहित्यपरसे समर्थन नहीं होता, बादको
दृढ़ताके साथ-ग्रहण करता है और सदा उसकी भावना उमास्वातिके द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है । कार्तिकेयानुप्रेक्षामें
रखता है वह तत्वको सविशेष रूपसे जाननेमें समर्थ होता है। इसी क्रमको अपनाया गया है। अत: यह ग्रन्थ उमास्वातिके
इसके प्रनंतर दो गाथाएँ और देकर एवं पूर्वका नहीं बनता । तब यह उन स्वामिकार्तिकेयकी कृत्ति
लोयसहावं जो झादि' इत्यादि रूपसे गथा नं. भी नहीं हो सकता जो हरिषेणादि कथाकोषोंकी उन कथाके
२८३ दी हुई है, जो लोकभावनाके उपसंहारको
लिये हुए उसकी समाप्ति-सूचक है और अपने स्थानपर ठक मुख्य पात्र हैं, भगवती श्राराधनाकी गाथा नं. १५४६ में
रूपसे स्थित है । वे गाथाएं इस प्रकार हैं:'अग्निदयित' (अग्निपुत्र) के नामसे उल्लेखित हैं अथवा अनुत्तरोपपाददशाङ्गमें वर्णित दश भनगारोंमें जिनका नाम
को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं ।
को दिएहिं गा जिमो कोण कसाएहि संतत्तो।२८। है। इससे अधिक ग्रन्थकार और ग्रन्थके समय-सम्बन्धमें इस क्रमविभिन्नतापरसे और कुछ फलित नहीं होता।
सो ण वसो इथिजणे सण जिओ इंदिपहिं में हेण ।
जो ण य हिदि गंथं अब्भतर बाहिरं सव्वं ।२.२। अब रही दूसरे कारण की बात, जहाँ तक मैमे उसपर
इनमेंसे पहली गाथामें चार प्रश्न किये गए हैंविचार किया है और ग्रन्थकी पूर्वापर स्थितिको देखा है उस
कौन स्त्रीजनोंके वशमें नहीं होता? २ मदन-कामदेवसे परसे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि ग्रंथों
किसका मान खंडित नहीं होता ?, ३ कौन इन्द्रियों के द्वारा उक्र गाथा नं० २७६ की स्थिति बहुत ही संदिग्ध है और
जीता नहीं जाता ?, ४ कौन कषाय से संतप्त नहीं होता? वह मूलत: ग्रंथका अंग मालूम नहीं होती-बादको किसी
दूसरी गाथ में केवल दो प्रश्नोंका ही उत्तर दिया गया है तरहपर प्रक्षिप्त हुई जान पड़ती है । क्योंकि उन गाथा
जो कि एक खटकने वाली बात है, और वह उत्तर यह 'लोकभावना' अधिकारके अन्तर्गत है, जिसमें लोकसंस्थान,
है कि-स्त्रीजनों के वशमें वह नहीं होता और वह इन्द्रियों लोकवर्ती जीवादि छह द्रव्य, जीवके ज्ञानगुण और श्रुत से जीता नहीं जाता जी मोहसे बाह्य और श्राभ्यन्तर समस्त ज्ञानके विकल्परूप नैगमादि सात नय, इन सबका संक्षेप में
परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है। बढ़ा ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन गाथा नं. ११५ से २७८
इन दोनों गाथात्रोंकी लोकभावनाके प्रकरण के साथ कोई तक पाया जाता है। २७८ वी गाथामें नयों के कथनका
संगति नहीं बैठती और न ग्रन्थम अन्यत्र ही कथनकी ऐसी उपसंहार इस प्रकार किया गया है:
शैलीको अपनाया गया है । इर से ये दोनों ही गाथाएं स्पष्ट एवं विविहगााहिं जो वस्य ववहरेदि लोयम्मि। रूपसे प्रक्षिप्त जान पड़ती हैं और अपनी इस प्रक्षिप्तताके दसण-णाण-चरितं सो साहदि सग्ग-मोवखं च ॥ कारण उन 'विरला शिसुणहिं तरचं' नामकी गाथा न.
इसके अनन्तर विरला णिसुणहिं तच्चं' इत्यादि २७६ की प्रक्षिप्तताकी संभावनाको और दृढ करती हैं। मेरी गाथा नं.२७६ है, जो श्रौपदेशिक ढंगको लिये हुए है और रायमें इन दोनों गाथाओंकी तरह २७६ नम्बरकी गाथा भी ग्रंथको तथा इस अधिकारकी कथन-शैलीके साथ कुछ संगत प्रक्षिप्त है, जिसे किसीने अपनी प्रन्यप्रतिमें अपने उपयोगके
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२३२
भनेकान्त
[ वर्ष
लिये संभवत: गाथा न० २८० के भानपास हाशियेपर, बादका बना हुआ है, ठीक मालूम नहीं होता। मेरी समझमें उसके टिप्पणके रूपमें, नोट कर रक्खा होगा, और जो प्रति- यह ग्रंथ उमास्वातिके सत्त्वार्थसूत्रसे अधिक बादका नहीं लेखककी अमावधानीये मूलमें प्रविष्ट हो गई है। प्रवेशका है--उसके निकटवर्ती किसी समयका ह.ना चाहिये । और यह कार्य भ. शुभचन्द्रकी टीकामे पहले ही हश्रा है, इसीसे इसके कर्ता वे अग्निपुत्र कार्तिकेयमुनि नहीं है जो श्रामइन तीनों गाथाओंपर भी शुभचन्द्र की टीका उपलब्ध है तौरपर इसके कर्ता समझे जाते हैं और क्रौंचराजाके द्वारा और उसमें (तदनुसार पं. जयचन्द्रजीकी भाषा टीकामें भी) उपसर्गको प्राप्त हुए थे, बरिक स्वामिव मार नामके प्राचार्य बड़ी खींचातानीके साथ इनका सम्बन्ध जोडनकी चेष्टा की ही है जिस नामका उल्लेख उन्होंने स्वयं अन्तमंगल की गई है; परन्तु सम्बन्ध जुड़ता नहीं है। ऐसी स्थितिमें उक्त गाथामे श्लेषरूपसे भी किया है:-- . .. गाथाकी उपस्थितिपरसे यह कलपित करलेना कि उसे स्वामि- तिहयण पहाण-सामि कुमार-काले वितविय तबयरणं । कुमारने ही योगसारके उन दोहेको परिवर्तित करके बनाया है, बसपज्जसयं महलं परमतियं स्थवे गिछ । ४६।। समुचित प्रतीत नहीं होता-खासकर उस हालत में जबकि ग्रंथ- इसमें वसुपूज-सुत वासुपूज्य, मल्लि और अन्तके तीन भरमें अपभ्रंशभाषाका और कोई प्रयोग भीन पाया जाता हो। नेमि, पार्श्व तथा वर्तमान ऐसे पाँच कुमार-श्रमण तीथंकरोंको बहुत संभव है कि किसी दूसरे विद्वानने दोहेको गाथाका बन्ना की गई है, जिन्होंने कुमारावस्थामें ही जिन-दीक्षा रूप देकर उसे अपनी ग्रन्यप्रतिमें नोट किया हो, और यह लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोकके धान भी संभव है कि यह गाथा साधारणसे पाठ भेदके साथ स्वामी हैं । और इससे ऐसा विनित होता है कि ग्रन्थ कर अधिक प्राचीन हो और योगीन्दुने ही इसपरसे थोडेसे परि- भी कुमारश्रमण थे, बालाह्मचारी थे और उन्होंने बाल्यावर्तनके साथ अपना उन दोहा बनाया हो; क्योंकि योगीन्दु के वस्थामें ही जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण किया है-सा परमात्मप्रकाश श्रादि ग्रंथों में और भी कितने ही दोहे ऐसे कि उनको विषयमें प्रसिद्ध है, और इसीसे उन्होंने, अपनेको पाये जाते हैं जो भावपाहुड तथा समाधितंत्रादिके पोपर विशेषरूप में इष्ट, पाँच कुमार तीर्थकरोंकी यहाँ रतुत की है। से परिवर्तित करके बनाये गये हैं और जिसे डाक्टर साहबने स्वामि-शब्दका व्यवहार दक्षिण देशमें अधिक है और स्वयं स्वीकार किया है। जबकि कुमारके इस ग्रंथकी ऐसी वह व्यनि-विशेपोंके साथ उनकी प्रतिष्टाका द्योतक होता है। कोई बात अभी तक सामने नहीं आई.-कुछ गाथाएँ ऐसी कुमार, कुमारसेन, वुमारनन्दी और बुमारस्वामी जैसे जरूर देखने में पाती हैं जो कुन्दकुन्ः तथा शिवार्य जैसे नामोंके प्राचार्य भी दक्षिण में हुए हैं। दक्षिण देशमें बहुत प्राचार्योंके ग्रन्थों में भी समानरूपसे पाई जाती हैं और वे प्राचीन कालसे क्षेत्रपालकी पूजाका भी प्रचार रहा है और
और भी प्राचीन स्रोतसे सम्बन्ध रखने वाली हो सकती हैं, इस ग्रन्थकी गाथा नं० २५ में 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट जिसका एक नमूना भावनाओंके नामवाली गाथ.का उपर नामोल्लेख करके उसके विषय में फैली हुई रक्षा-सम्बन्धी दिया जा चुका है। अतः इस विवादापन्न गाथाके सम्बन्ध मिथ्या धारणाका निषेध भी किया है। इन सब बातोपरसे उक्र कल्पना करके यह नतीजा निकालना कि, यह ग्रन्थ ग्रन्थकार महोदय प्रायः दक्षिण देशके प्राचार्य मालूम होते जोइन्टके योगसारसे-साकी प्रायः छठी शतालीपे- हैं. जैसाकि डाक्टर उपाध्येने भी अनुमान किया है।
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वीतराग-स्तोत्र [यह स्तोत्र कोई २० वर्ष पहले, अगस्त सन् १६२६ में, काँधला जि० मुजफ्फरनगरके जैनमन्दिरशास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुए, मुझे देखनेको मिला था; आज इसे अनेकान्तमें प्रकाशित किया जाता है। इसमें अलङ्कार-छटाको लिये हुए वीतरागदेवके स्वरूपका निर्देश करते हुए बार बार यह घोषित किया गया है कि 'जो पुण्य-हीन हैं वे ऐसे वीतरागदेवका दर्शन नहीं कर पाते।'-१र्थात् वीागका दर्शन-अनुभवन
और सेवा-भजन बड़े भाग्यसे प्राप्त होता है। स्तोत्रकी पद-रचमा प्रायः सरल तथा सुगम है और उसपर सहज हीमें बिना किसी विशेष परिश्रमके-बहुतकुछ अर्थावबोध हो जाता है. इसीसे स्तोत्रका अर्थ साथमें देनेकी जरूरत नहीं समझी गई। यह स्तोत्र वें पद्यपरसे 'कल्याणकीर्ति' प्राचार्यका बनाया हुमा जान पड़ता है और हवें पद्यमें श्लेषरूपसे पासेन' और 'नरेन्द्रसेन' नामके प्राचार्योंका भी उल्लेख किया गया है, जो कल्याणकीर्ति के गुरुजन मालूम होते हैं। कल्याण कीर्ति. पद्मसेन और नरेन्द्रसेन नामके अनेक भाचार्य हो गये हैं, अभी यह निश्चित नहीं हो सका कि उनमें से यहाँपर कौन विवक्षित हैं :-सं०]
(वसन्ततिलका) शान्तं शिवं शिव-पदस्य परं निदानं, मवज्ञमीशममलं जित-मोह-मानम् । संसार-नीरनिधि-मन्थन-मन्दगऽगं , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ १॥ अव्यक्त-मुक्ति-पद-पङ्कज-राजहंसं, विश्वाऽवतंसममरविहित-प्रशंसम् । कन्दर्प-भूमिरुह-भञ्जन-मत्त-नागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ २॥ संमार-नीरनिधि-तारण-यानपात्रं, ज्ञान्क-पात्रमतिमात्र-मनोग्य-गात्रम् । दुर्वार-मार-धन-पातन-बात-गगं२ , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ३ ॥ दान्तं नितान्तमतिकान्तमनन्तरूपं, योगीश्वरं किमपि संविदित-स्वरूपम् । संसार-मारव-पथाऽमृत-निर्भराऽगं३ , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतगगम् ॥ ४ ॥ दुष्कर्म-भीत-जनता-शरणं सुरेन्द्रः, निश्शेष-दोप-रहितं महितं नरेन्द्रः । तीर्थक्करं भविक-दापित-मुक्ति-भाग, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतगगम् ॥ ५॥ कल्याण-बल्लि-बन-पल्वनाऽम्बुवाह, लोक्य-लोक-नयनक-सुधा-प्रवाहं । सिद्धयङ्गना-वर-विलास-निबद्ध-गगं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ६॥ लोकाऽवलोकन-कलाऽतिशय-प्रकाशं, व्यालोक-कीर्ति-वर,निर्जित-कम्बु -हास्यम् । वाणी-तरङ्ग-नवरङ्ग-लसत्तडागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥७॥ कल्याणकीर्ति-रचिताऽऽलय-कल्पवृक्ष, ध्यानाऽनल दलित-पापमुदात्त-पक्षम। नित्यं क्षमा-भर-धुरन्धर-शेषनागं, पश्यन्ति पुण्य-हिता न हि वीतरागम् ॥ ८॥ श्रीजेनसूरि-विनत-क्रम-पद्मसेनं, हेला-विनिर्दलित-मोह-नरेन्द्रसेनम् । लीला-विलंधित-भवाऽम्बुधि-मध्यभागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतगगम् ॥॥ १ मन्दराऽचल. २ पवन-वेग. ३ पूर्ण छायातरु. ४ शङ्ख ।
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सर राधाकृष्णनके विचार पेरिसमें संयुक्त राष्ट्रीयसंवके शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन के प्रथम अधिवेशनमें भाषण देते हुए हालमें सर राधाकृष्णनने का:मानवताका पुनः-संस्थापन
संचारकी वर्तमान दुरवस्थाके मुख्य कारण जीवनके प्रति "यूनेस्काफा उद्देश्य केवल इतना ही नहीं है कि वह हमारा पार्थिव दृष्टिकोण, अात्म-विद्याके प्रति हमारी अवज्ञा कौर थं ई.मी नयी व्यवस्थाएँ करके बैठ जाये । उसे तो जीवनकी
प्राध्यामिक श्राःोंके प्रति हमारी उदासीनता ही है। एक नयी दिशा, एक नया दृष्टिकोण और एक नयी ससाका उन्नत करने के लिये हमे आदर्शवादी विच रधाराका अन्वेषण करना है, जो मानव जातिको स्फुरण व
दार्शनिक विचारधारा तथा आध्यात्मिक तत्वोंको पुनः अपनाना प्रदान कर सके। अपने देशमें हम लोग इस बातमें विश्वास पर रखते हैं कि ऐसी विचारधारामें श्राध्यात्मिकताका पुट अवश्य नये आदर्शोंकी आवश्यकता हो। धुरी राष्ट्रोंका उदारण हमारे लिये चेतावनी है। परन्तु मेरी सबसे अधिक चिन्ता इस बातके लिये है कि जर्मनी और जापान बौद्धिक अवदानों, वैज्ञानिक प्रगति, कहीं हम बुद्धिवादी ही अपने कार्यके प्रति भूठे सिद्ध न हो। श्रौद्योगिक कुशलता और मैन्यशक्रि में बड़े चढ़े थे, लेकिन हममें विनम्रता ही नहीं, सचाई भी होनी चाहिये । अपरिफिर भी पिछले महायुद्ध में वे पराजित हुए। वे इसलिये पक्व मस्ति में मिथ्या धारणाएं भरने और ज्ञानके स्रोतों असफल हा कि उन्में विवेक और बुद्धि का अभाव था। को विषाक्र कर देनेके लिये हमीं उत्तरदायी हैं हम सरल
अगस्त १६४६के अन्तिम दिन जब न्यूरेभ्वर्गके वन्दियों युवकोंके मश्तिकोंको विकृत कर देते हैं और युद्धकी इच्छा से पूछा गया कि उन्हें कोई युति देनी है तो उनमें से एक न रखने वाले नि.व व्यक्रियों को मृत्यु तथा विनाशका नंगा फेंकने का प्रधान अभि क्र. एडोल्फ हिटलर जर्मब-जनता नाच नाचनेवाले दानवो के रूप में परिणत कर देते हैं। मानवके सम्मुख अपना अन्तिम बयान देनेको यहां उपस्थित नहीं ह.यकी कं.मल भावनाश्रीका उन्मूलन करके उसकी सहज है। वैज्ञानिक त्रोटयों के कारण हम युद्ध में पराजित नहीं हुए। ललकका अन्त कर देते हैं। महान बुद्धिवादी सुकरात, जिसे परमात्माने हिटलर और हम सबके विरुद्ध, जो ईश्वरसे पश्चिमी संसारके बुद्धिवादियोंका प्रतिनिधि कहा जा सकता विम्व थे और जिन्होंने हिटलर की सेवाकी, अपना निर्णय है. अात्म-निर्णयके सिद्धान्त पर चलता था। जब उसका दिया है। जब कोई राष्ट्र खुल्लमखुल्ला परमा मासे विमुग्व अपने समयके समाजसे संघर्ष हया तो उसने राज्यके श्रादेश होकर केवल पार्थिव सफलता और समृद्धिकी ओर मन की हमारे नेताके शलोंमें 'भद्र अवज्ञा' की। अपनी लगाता है त उसका पतन हो जाता है। आज जितनी बौद्धिक सचाईपर आघात होनेपर राज्य के अतिक्रमण से लोहा श्रावश्यकता मानवको उसकी पूर्वावस्थामें लानेकी है उतनी लेनेका साहस हममेंसे कितने बुद्धिवादियों में है ? राज्यके पाठशालाओं पुस्तकालयों या दुकानों और कारखाको लाने श्रादेशीका सत्यसे विरोध होनेपर हमसे कितने उन आदेशों की नहीं। यदि हमें एक नवीन सार्वभौम समुदायको स्कृति की अवज्ञा करते हुए शहीद होने को तैयार हैं ? प्रदान करनी है तो हमें मानवको स्फूर्ति दान करना चाहिये। हम अामाके पुजारी हैं। हमारे होठों पे असत्यका एक अाज ऐसे व्यक्तियोंकी संख्या बहुत है जिनकी परमात्मामें
शब्द न निकनना चाहिये और न किसी मिथ्या विचारका धास्था नहीं है, जो दर्शनतत्त्वमें विश्वास नहीं रखते किनु
प्रवेश हो हमारे मस्तिष्कमें होना चाहिये । मुझे इस बात यदि कोई हमपे यह कहे कि हम नास्तिक अथवा पराङ्मुख हैं की कामना है कि हम सब राजनीतिसे उपर ₹ठ कर केवल तो हम बुरा मान जायंगे। सच और प्रेम ही प्रत्येक धर्मका
विश्व श्रादों को ही अपनावें । एक जर्मन विचारकने कहा है
नाम मा उपदेश है। सत्य हमपे श्रद्धावान व्यक्रिका अादर करनेका "नये शोरगलके आविष्कारकोंके इर्दगिर्द नहीं, बल्कि नवीन पात्रह करता है और प्रेम हमें मानव-जाति के सम्मानका पाठ प्रदोंके आविष्कारको हुर्दगिर्द यह दनिया घूमती हैपढ़ाता है। व्यक्ति और मानव-जाति संसारके दो सम्भ हैं
चुप-चाप घूमती है।" और अन्य समूह केवल बीच के अध्याय ।
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साम्प्रदायिक दंगे और अहिंसा (लेखक बा० राजकुमार जैन)
- -- EARNERAज यह किसीसे भी छिपा नहीं कि साधारण सी कहावतसे मी यह स्पष्ट हो जाता है कि
जगह २ पर साम्प्रदायिक दंगे होरहे जो बड़ा है, जो शक्तिशाली है, जिसके भुजदण्डोंमें
हैं। यह दंगे साम्प्रदायिक हैं या बल है, वही क्षमा कर सकता है। एक पतित, दलित PADMPAN राजनैतिक ? इस प्रश्न का सम्बन्ध तथा शक्तिविहीन पुरुप, जिसे कुछ भी चारा नहीं, राजनीतिसे है और इस प्रभपर मुझे कुछ नहीं क्या करेगा ? वह क्षमाके सिवा और कर भी क्या लिखना है। देखना तो इस बातका है कि इन दंगों सकता है ? क्या एक से पुरुपकी क्षमा ही 'उत्तम से अहिंसाका क्या सम्बन्ध है।
क्षमा' हैं ? नहीं-नहीं। यह तो उसकी कायरता है। अहिंसा अभयका ही एक अंग है तथा इन एक ऐसा पुरुप जो उन्नति तथा वीरताकी सीढ़ीपर दोनों में एक विशेष सम्बन्ध है। जब तक हम अभय सबसे ऊंचे हो वह क्षमा करे, वह अहिंसक हो तो नहीं हैं तब तक हमारा असिक होना एक सीमा बात दूसरी; परन्तु एक सा पुरुप जिसने किसी भी तक निरर्थक है और हम भी उसी सीमाके अन्दर दिन उस सीढ़ीपर चढ़ने तकका साहस न किया ही हैं। क्या हमारा अाततायियोंको क्षमा कर देना हो, किस प्रकार क्षमा कर सकता है ? वह तो वाध्य
और उनको इस प्रकार प्रेरणा देना ही अहिंसा है ? है क्षमा करने के लिये। आज ठीक यही अवस्था क्षमा करनेसे पहले यह बात अवश्य ध्यानमें रक्खी जैनसमाजकी है। हमें वैसी अहिंसा नहीं चाहिये । जानी चाहिये कि क्षमा वही कर सकता है जिसमें हमें आजकल क्षमा करनेका अधिकार प्राप्त नहीं है, शत्र से बदला लेनेकी शक्ति हो । वे पुरुप जो उनसे इसके लिये हमें अधिकार प्राप्त करना होगा । मैं डरकर अपने २ घरों में भयभीत हुए बैठे हैं यह कहता है कि अगर हम दंगोंस अभय हो जाएं, तो नहीं कह सकते कि हम तो अहिंसक हैं। उनका इस किसी भी शक्तिका साहस दंगा करने का नहीं हो प्रकार अहिंसाकी आडमें बैठा रहना सर्वदा दोपपूर्ण सकता है। आज जब हम अपना मान खो चुके हैं, है। इस प्रकारसे वह अहिंसाको कायरतामें परिव- बल, वीरता तथा शीर्य खो चुके हैं, अपनी उन्न तक तित कर रहे हैं और जो दोप अन्य समाजोंने जैन सिंहासनसे च्युत हो गये हैं, आज जब हम अभयक
और बौद्ध धर्मकी अहिंसापर लगाया और भारतीय मार्गको भूल गये हैं और कायरताक पथपर अग्रसर परतन्त्रता उसीका फल बतलाया है, उसके योग्य हैं, तब ही नीच, पतित, अत्याचारी पुरुपोंको जिन बन रहे हैं। याद रक्खें इस प्रकार वे केवल अहिंसा का कि इतिहास उनके काले कारनामोंसे भरा पड़ा पर बल्कि अपने जैनधर्मपर भी कलंक लगा रहे हैं। है, दंगा करनेका साहस हुआ है। जैनधर्म अभयका 'क्षमा बड़नको चाहिये छोटनको अपराध' इस सन्देश देता है और अभय हम तब ही हो सकते हैं
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अनेकान्त
विर्ष
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जब हम शक्तिशाली हों, हमारे भुजदण्डोंमें बल हो, पुरुप समझ जाए तो फिर अपनी ही बोली बोलनी वीर हों और अतिवार हों या हमारे अन्दर असा- चाहिये। मित्रों ! हमारी बोली अहिंसाकी है, लेकिन धारण तथा अद्वितीय अत्मशक्ति हो।
आज अपने कर्मानुसार तथा काल-चक्रकी गतिसे वीर भगवानका आदेश है "तम खद जीओ, हम इतने कायर हो चुके हैं कि हम असिंहक हो ही जीने दो जमानेमें सभी को" (Live and Let नहा सकत। आज हम दग
नहीं सकते। आज हमें दंगा करने वालोंको समझामा Live) जब हम संसारमें जीवित हो, शक्तिशाली हो, है। अमर वे हमारी बोलीमें नहीं समझते तो हमें उन्नतिके शिखरपर हों, तब तुम दसरोंको मत उनको उन्हींकी बोलीमें समझाना पड़ेगा। चाहे वह दवाओ और उन्हें भी जीने दो। अच्छा व्यवहार बोली हिसाकी हो या अहिंसा की । फिर जब हम करो और अत्याचार न करो। पर यह बात नहीं है जागृत हो जाएँगे और इस भेदको समझने लगेंगे,
आजके लिये। अगर हम शक्तिविहीन हैं तो भी तो कोई भी शक्ति इस प्रकारका अनुचित कार्य करने किसी को न सतावें, परन्तु आज तो हमारा अस्ति- का साहस न करेगी । मेरी लेखनी फिर वही लिखने त्व ही मिटाये जानेकी चनौती दी गई है । तम्हारी को विवश है कि जब तक हम वीर बलवान नहीं, सभ्यता, तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारे धर्म कर्म सब कुछ अहिंसक कैसे ? हमें तो विवश होकर अहिसाकी नष्ठ किये जा सकते हैं अगर तुम इसी प्रकार कायर शरण लेनी पड़ती है। बने रहे। अब जब हम स्वयं ही नष्ट हो जानेवाले हैं,
मित्रो ! अाज हमें दंगा करनेवाले दुष्टोंको तब दूसरोंके रहनेका प्रश्न ही नहीं उठता । क्या अहिंसा और क्या अहिंसा ?
भगवान कुन्दकुन्दके आदेशानुसार समझाना है।
अपनी बोलीमें या उनकी ही बोलीमें । अगर वे __ भगवान कुन्द कुन्दने कहा है कि हमें उसी बोली अहिंसाकी वोली महीं समझते तो अपने प्यारे जैन में ही बोलना चाहिये जिसमें कि दूसरा पुरुष समझ धर्म तथा उसकी अहिंसाकी रक्षाके लिये, प्रचारके सके। उसे समझानेके लिये अगर हमें उसकी ही लिये, उन्नतिके लिये हमें हिंसाकी बोली ही बोलनी बोलीमें बोलना पड़े तो कोई डरकी बात नहीं ; परन्तु पड़ेगी। जब वे समझ जाएँगे तो हम अपनी ही हमें इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि कहीं हम बोली बोलेंगे। उस ही बोलीको अपना माध्यम न बनालें । जब वह
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भगवान महावीर और उनका सन्देश (बम्बक-श्री कस्तूरसावजी जैन अप्रवाल ,बी. ए., बी. टी.)
[किरण १ स भागे]
पाठक अबतक धर्म और अहिंयांको जिस रूपमें दख विविध वैज्ञानिक प्राविकारोंसे हम प्रतिक्षण अनेकविध चुके हैं उसका प्राधार अनुभूनि (Feeling) ही प्रधान लाभ भी उठा रहे हैं, वैज्ञानिकोन प्रकृनिद को एकनिष्ठा रूपये रही है। अब हम निम्न पंत्रियों से बौद्धिकता और लगन संवा नया तपस्यामे प्रसन्न करम अपनी (Rationality) की कसौटीपर परम्बनका :यान रंगे अज्ञाकारिंगी चेरी बना लिया है. और अभी मानव समाजकी तथा पाश्रिमान्य विचारधाग कि.म तरह बहती है, उसकी प्राशापूर्ण क्रियाशीलना भी अनन्त है। मानवजातिकी लच्यमं रखकर इसके व्यावहारिक स्वरूपका परीक्षण करेंगे। वैज्ञानिक धनराशिकी मीमा कल्पना भी परिमित नहीं
प्रायः त्वांग पन म नया पारलौकिक मखमं विश्वास हानीयीके इनपर मुम्बके परमोच शिवरपर मनुष्य नहीं करते बल्कि उस कपोलकल्पित तथा धं,म्बकी टट्टी भासीन हो सकता है। अतएव निराशावा. यो तथा निष्क्रिय समझते हैं । अत्यादी मनुष्य जीवनका लक्ष्य प्राधिभौतिक पुरुषोंका ही काल्पनिक मुग्म भविष्यकालीन मांग की उमति, प्राधिक उकर्ष तथा काम-संबन ही समजते हैं। सर्वथा त्याज्य तथा हेय है ऐसा उनका काना है। उनके नजदीक शरीरये 'श्यक प्रामा कोई वस्तु नहीं है श्रमन्तोष अवनतिका कारण नहीं, किम्बहुना उमरिकी किन्तु इन्द्रियजनित सुवाका भंग करना ही परम श्रेयस्कर पहली सीढी है । जबतक असंतोषसे मनुष्य जर्जर नहीं होता, है। उनका कना है कि 'ईश्वर और धर्म केवल टोंग हैं। हमारे मनमें अपनी दशा सुधारनेका विचार भी नहीं पुरातन काल में खुदगरज़ नया स्वार्थी किन्तु बुद्धिप्रधान पैदा होता । संतापीका सुम्ब प्रायः उमनिका घातक होना है पुरुषोंने केवल स्वार्थक लिये तथा अपने जीवनको सुखमय तथा उत्कर्षकी गनि सटाके लिये की रहनी है। मनप्य बनाने के लिये जगतके भाले प्राणियोंको उगकर अपना उल्न निर्जीव तथा अकर्मण्य बन जाता है तथा गुलामी और मीधा करना अपना पैदायशी हक समझ लिया था। दासबका वः शिकार हो जाना है। प्रत: अमन्नाप या
बेवकूफीका माल अलमन्दोंकी खुराक है" इस सिद्धान्तको हलचल जावन पैदा करती है। वह हर प्रकारके माधनांका दुनिया पहले ही से अपना चुकी है। भी हो, उनके अवलंबन लेकर न सिर्फ अपने प्राःको किंबहुना मम ननदीक धर्म एक ढकोसला है, एक जाल है, अकर्मण्यता राष्ट्रको कहीं कहीं पहुंचा देती है। साधन चाहे कैसा ही तथा अन्धपरम्परा है। भविष्यकालीन काल्पनिक सम्खोंकी हो वह अपने उत्तम व्यरको प्राप्ति कर लेता है। दिमा नानमाके लिये वर्तमानकालको बलिवेदीपर चढ़ाना गर्हगीय अथवा बला योगये शान्ति स्थापित की जा सकती है। है। वास्तवमें विचारशील लोगोंके चित्तमं मानवजातिकी अतएव प्रभुता ही जीवनका लक्ष्य होना चाहिए । जब पश्रिममें उत्तरोत्तर उन्नति हो रही है-यह ऐतिहासिक हमारी नीयत अच्छी है ना मार्ग कैमा ही कण्टकाकीण साय है। उसी प्रकार पूर्वमें अधःपतन हो रहा है यह भी क्यों न हो, हिम्मत न हारनी चाहिए। यदि बुर साधनाम निर्विवाद है (इसका कारण धर्म समझा जाता है) प्रकृतिपर उद्दिष्ट की सिद्धि हो सकती है तो इसमें हर्ज ही क्या ? मनुष्यका अधिकार होता जा रहा है। इसके गूढ रहस्य यही कारण है कि "All is well tha ends मिलने आज मनुष्यको ज्ञात हैं और उनका जितना सदुपयोग well" की दुहाई दी जाती है। हमें ग्राम खानसे मतलब अपने जीवन में यह कर रहा है-प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर है। है पेट गिननसे नहीं। अतएव पाश्चिमात्य विचारधाराके
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अनेकान्त
[वर्ष ८
प्रमुसार शान्तिका पाठ पढ़ाना तथा संतोपका केसुरा राग करना सीखा है, अपनी प्रामाकी महानताको भी धनकी
आलापना एक अक्षम्य अपराध नथा महापाप है, काय ताकी तराजू पर तोलन चाहा है। इन दृषित विचारोंकी हवा निशानी है तथा वुद्धपनकी अलामत है।
हमारे दिल और दिमागोंको विषल) और गन्दा बनाती ___ हमारे सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्किगत जीवनमें जा रही है। स्व० गुरुदेव रवीन्द्रनाथजीने विश्व-कल्याण का धर्म और ईश्वरवाद यदी बधा डालता है। इसीकी प्राइमें एक सस्ता और अच्छा नुसन्वा दनिया दालोंको दिया है। अन्धविश्वासका अन्धेरा हमको अाच्छादित किये हुए है। हिंसा अन्धी दुनियाको प्रेम और अहिंसाका प्रमृतमय इसके नामपर करोडों मर मिटे हैं-- खूनकी नदियां बह चुकी : संगीत सुनाया है। इनके रोचक शब्दोंमें इस मर्जका इलाज हैं। थर्मामा दुखी और अधर्मामा मुखी दिखलाई देते हैं या चतुराई (Polit cs) और तं. नहीं-किन्तु प्रेम, श्रद्ध! दूसरे शब्दों में दु:यांका तथा हमारी मौजूदा अधोगनिका और त्याग है। अग्नि अग्निका शमन नहीं कर सकती, कारण धर्म ही है।
उसी प्रकार पाप पापका शमन नहीं कर सकता। शन्तिकी विचारशील लोगों के चित्त में प्रश्नोंकी उपरोत्र तरंगें अवश्य शक्रिका विकास ही उन्नतिका सहायक होगा। स्वनामधन्य उठा करती है, मानव जातिका उत्कर्ष और सर्वोच्च ध्येय विश्वविख्यात स्व. गुरुदेवजीका मत है कि पश्चिमी सभ्यताने क्या होना चाहिये यह प्रश्न जटिल होनेपर भी बदा रोचक श्राज मनुप्यकी श्रात्माको वासनाओंकी पंखलायोंमे बद्ध गंभीर और महत्वशाली है, उहेश्य और ध्येयके मूलभूत
करके बोर अवनति के कारागारमें बन्द कर दिया है। तन्बोंग्ये इसका सम्बन्ध है, समस्त सिद्धान्नों और दर्शनीका मानवताके सच्चे विकासके लिए उनके शब्दोंका सार यहाँ यही सार है। सारा संसार युगके श्रादिमे शान्ति और दिया जाता है:मखकी खोज में रत रहा है। यही कारण है कि ज्ञान और "मनुष्यजानिकी वर्तमान सन्तानमें श्राधी मनुष्यता अनुभवकी मात्रा उत्तरोत्तर बदती गई। ज्ञानराशिकी ऐसी और श्राधी पशुता एवं बर्बरता पाई जाती है । इसका श्रीवधिको देखते हुए उपरोक प्रश्नोंका हल प्रामानीसे यदि मौजदा भयानक रूप पूर्व ऐतिहासिक युगके (Preनहीं तो काफी गवेषण व अन्वेषण के उपरान्त निकाला जा Historic Tericd) दानवोंकी अपेक्षा अधिक सत्तार सकता है। वर्तमानके नये प्राविकार और खोज ज्ञानके जनक और फलन: आपत्तिजनक है। उन दानधान केवल सदपयोगमें बाधा डालने के लिए हमारी बुद्धिको म्रममें डाल पशु बल था, किन्तु अब मनुष्यसन्तान में पशुबल तथा रहे हैं। यही कारण है कि धर्मके साथ २ मुख श्री शान्ति विनाशकारी वुद्विवलका सम्मिलन है । इसने ऐसी बीभत्रू त . दनियामे विदा होती जा रही है, अंधकारमय अधर्मरूपी को जन्म दिया है. जिसकी वासनामें हृदयका प्रभाव और अशान्तिका साम्राज्य होता जा रहा है । प्रास्तिकतापर अस्त्र-शस्त्रको छल-कपट-पूर्ण बना दिया है, इसने अन्धी नास्तिकताकी विजय गौरवकी चीज समझी जा रही है। वासनाको श त्रिशाली और कार्यक्षम बना दिया है। एक सदबुद्धि और सतप्रवृत्ति सारे संसारसे ऐमी गायब हो रही समय था जब एशियाके विचारशील पुरुषोंने मनुष्यम है जैसे मानसरोवरसे मुक्राफल चुगने वाले हंस । स्वार्थकी विद्यमान पशुता और क्रताको रोकने के लिए पड़ीसे चोटीका मात्रा बढ़ती जा रही है, नीति और सत्यका गला स्वार्थ जोर लगा दिया था। किन्तु खेद है कि आज इस रोशन साधनके लिये घोटा जा रह! है । इनके पास उन्नति इसीका जमानेमें बुद्धि की इस पाशविक सत्ताने हमारी नैतिक और नाम है, किन्तु इमीमें ही अवनति बीजरूपसे छिपी न रह अध्यात्मिक सम्पत्तिको छीन लिया है। पशुओंकी क्षमता कर अपना विकराल रूप प्रकट कर रही है:-
जद नहीं थी, जीवनसे उसका संयोग अवश्य था। वह "राह वो चलते है-लगती है जिसमें टोकर प्राणियोंकी ही सत्ता थी, किन्तु श्राजकलके वैज्ञानिक युगके काम हम करते हैं वह-जिसमें जरर देखते हैं।" प्राविष्कार उदाहरणार्थ सर्वनाशकारी बमके गोले, विषली
भृमण्डलके इन आबुनिक विद्वानोंने या पूजीपतियोंने गैसें, प्राणघातक हवाई जहाज, लयकालको लानेवाले धन-द्वारा ही जगतकी सभी वस्तुनौका मूल्य निर्धारित रोबों बम अंटम बम, श्रादि भयंकर अस्त्र सर्वथा जड़ है।
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किरण ६-७]
भगवान महावीर और उनका सन्देश
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किन्तु विज्ञान जैसी पवित्र वस्तुका दुरुपयोग करने वाले नरह बुद्धिने निरे पाशविक बलपर फतह पाई थी, उसी स्वपिपासु नररूपी दानवोंको क्या कहें ? वे इष्ट दानव तरह अब त्यागके बलवूनपर लोभ और अहंकारका दमन अवश्य अपनी काली करतूतोंकी सजा पायेंगे, क्योंकि उन्हीं के करना होगा। प्रायो मानव ! अामाको कारागारले निकालने में निर्मित हथियार उन्हीं के विरद्ध उपयोगमें लाए जावेंगे।" मदद दो, मानवके प्रति श्रद्धा, त्याग और मानवताको प्रगट
गुरुदेवकी भविष्यवाणी सच निकली। जर्ममीने भयंकर करी" थादि। शस्त्र तथा अस्त्रोंये सुसजित होकर सारे धरातलको श्राश्चर्य
"यही है इबादत, यही दीनो ईमों। चकित कर दिया था. और ऐसा प्रतीत होरहा था कि इन कि काम पाये दुनियों में इनसा के इनसों।" ... नतनतासे परिपूर्ण अविष्कारोंसे बलपर सारे संसारपर उसकी
ऐतिहासिक दृष्टिले धर्मका जन्म विजय-पताका फहराने लगेगी। किन्तु अाज उसी शस्त्रास्त्र और उसी रणनीतिने जिमका वह निर्माता था उसको तहस
ऐतिहासिक दृष्टिसे यदि छानबीन की जाए तो इस नहस करके ही दम लिया DR सट हो गया है। ख्यात बातका पता चलता है कि सदियों पहिले इस स्नगर्भा नामा डाक्टर बालने भी इसी मतको प्रदर्शित किया है:- भारत-भूमिमें नैतिकताको आवाज गंजती थी, मनुष्यके "तुम्हारी तहजीब अपने खंजरमे श्रापही खुदकशी करेगी. प्रति मानवताका व्यवहार करना ही धर्म समझा जाता था। जो शारखे नाजपे याशियाना बना वो नारायदार होगा।" नैतिक जिम्मेदारीके अनुसार ही सांसारिक कार्य चलते थे।
सच तो यह है कि पाश्चिमात्य सभ्यता तथा संस्कृति मानव प्राणी जय दृसरोंको अपने प्रति सद्ग्यवहारसे पेश देखने में श्रयन्त सुन्दर प्रतीत होती है। इसका रूप तथा प्राने देखता तो वा भी स्वाभाविक तौरपर अनायास ही भंगार श्रोखोंमें चकाचौध पैदा करता है। यह एक नशा है दूसरेके प्रति प्रेम प्रकट करता, उसके न्याय्य अधिकारों के किन्तु इसका परिणाम अत्यन्त भयावह तथा प्रामगाशका संरक्षण व संवर्धनमें लग जाका अर्थात द्वेष और मरसर कारण है। यह भ्रान्त धारणा समस्त संसारका सर्वनाश प्रतियोगिता तथा मुकाबलेके बदले सरलता और प्रेम तथा करेगी, अतएव किसी तरह भी इसे पूर्वीय लिबास नहीं पारस्परिक सहायताके मार्गपर चलने लगता । किनु संसारको पहिनाया जा सकेगा। खुद पश्चिममें अाज अस्त्र तथा शस्त्रों गति सदा एकसी नहीं रही। शनैः शनै: नैतिक जिम्मेदारीको की झनकार तथा अनठे व रोचक वैज्ञानिक प्राविष्कारों में लोग भूलने लगे। सौंसारिक कार्योंमें बाधा उपस्थित होने जीवनका सुमधुर मगीत विलीन हो चुका है। मत्सर, लगी। चालाक और स्वार्थी लोग दूसरोंकी नैतिकतामे प्रतियोगिता तथा प्राण-घातक अार्थिक मुकाबलेकी काली फायदा उठाने लगे और समाजके नेताओंको व्यवहार के छायामें विकासका राजमार्ग भुला दिया है, और उन्हें अपनी लोप होने और अशान्तिका भयानक चित्र दिखाई देने ग्वामखथालीने कायल कर दिया है तथा यह समझने लग लगा। श्रतएव समाजको अनीतिक गहरे कृपमें गिरने से गये हैं कि वे गुमराह है और शान्ति तथा कल्यागाकी चान के लिए, सामाजिक शासनको सुसंगठित करने के लिए उनकी कल्पना एक ऐसा स्वप्न है जो कभी भी मन्यकी नैनिक नियमों को ही धार्मिक रूपमें एरिगत करनेकी श्राव मृष्टिमें परिणत नहीं किया जा सकता।
श्यकता प्रतीत हई। इन्हीं नैतिक नियमोंको संकलित, स्व. गुरुदेव इस श्रापत्तिजनक परिस्थितिसे बचनेके परिवधित और संशोधित करके धर्मका मौलिक रूप दिया लिए एकमात्र उपाय बतलाते रहे। उन्होंने की लिखा गया। पुण्य और पापकी परिभाषा इमीका परिणाम है। है:-"अब समयने पलटा खाया है, अतएव पाशविक तथा जब नैतिक बन्धनोंका भय जाता रहा तो प्राकृतिक तथा जड़ शनि जब असफल रही है तो अन्य शधिकी खोज सामाजिक नियमोंका उल्लंघन धार्मिक दृष्मेि अक्षम्य करार लगाना अवश्यम्भावि हो जाता है। दूसरोंको कष्ट पहुंचानेपे पाया ! नैनिक जिम्मेदारीकी जगह अब धार्मिक जिम्मेदारी अब काम नहीं चलेगा बल्कि अब स्वयं कष्टको सहन करते समाजका अाधार व विश्व-कल्याणका प्राण बन गई। हुए त्याग भावनाको अपनाना होगा। पिछले युगोंमें जिस मानवके कष्टोंका अन्त करनेके लिए नैतिक सिद्धान्त-धार्मिक
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भनेकान्त
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शिक्षाके मौलिक रूपमें बदल गए । मानवताके पुजारियोंने के हितसाधनमें बाधा उत्पन्न होन संभवनीय है या जिसके अखिल मानवताके लिए धमका न्यिसंदेश सुनाया । करनेसे स्वपं करने वालेको लज्जा या घृणा हो सके, उसे न भगवान महावीर भी धार्मिक आकाशके एक देवीप्यमान करना ही काननकी दृष्टिसे योग्य समझा गया। सारांश नक्षत्र थे। सदियों पहले से ही वीरपुङ्गवोंने धर्मकी ऐतिहासिक दृष्टिये मानव-समाजका जीवन एक सागरकी शीतल धाराप्रवाहित की। पतितीका रद्वार करने, दलितोंको भाँति है. इसमें रह रह कर रहें उठती रही, जब नीतिको बचाने, असहायको महायता देने, पश्चात्ताप की अग्निमे न काएं डूबने लगी तब धर्म के जहाजका अविष्कार हुआ, पाकुलित हृदयको मंतोषामृतकी दृष्टिये बुझाने माद और जब यह जहाज मंझधारमं श्रागया और किनारे पर पहुंचनेकी निराशाको दूर करके उत्साह, उमंग और कर्मण्यताको उम्मीद कम हो गई तो काननके बड़े बड़े जहाज विविध सिखाने और उच्च नागरिक श्रादर्शको स्थापित करनेके शस्त्रास्त्रोंये सुसजित होकर जीवन सागरको चीरनेके लिए खयालसे धर्मका जन्म हुआ। यही नहीं किन्तु धर्म में अवतीर्ण हुए। राजनीतिका भी प्रवेश प्रासानीसे हो गया। धार्मिक नियंत्रण से इस ऐतिहासिक खोजको या. जैन साहित्यकी कसौटीपर जौकिक व्यवहार बंध गये, विश्वमें शान्ति स्थापित हो जाँचा जाय तो उपरोक बातोंका बहुत यकी दतक समर्थन गई, संसार स्वर्गतुल्य हो गया। किन्तु काल सदासे ही हो जाता है। जैन साहित्यसे इस बात का पता चलता है परिवर्तनशील है। रूदियोंने धर्मकी जगह ले ली । समयानुसार कि भारतवर्ष में प.िले तीन काल तक भोगभूमि रही है। रुडियों में परिवर्तन न होने के कारण पतनका होना अनिवार्य य सा गी प्रेम, नीति, मुम्ब. श्रानन्द श्रादिका साम्राज्य हो गया। मनुष्यने अपनी मनुष्यता खां दी और जीवन था। न यहां आर्थिक अड़चन ही थीं और न किसी प्रकारकी खतरेमें पर गया । धार्मिक जिम्मेदारीको भूल जानेके झंझटें । किन्तु तीसरे कालक अन्तमें लोगोंको भय पैदा कारण वातावरण प्रक्षुब्ध हो उठा, अशान्तिकी लहरें एक हश्रा, अज्ञानने जोर पकडा, कर्तव्याकर्तनका भान न रहा, छोरसे लेकर दूसरे छोर तक उठने लगी । वर्तमान प्राधि- नैतिक बन्धन ढीले पड़ गये, कौटुबिक व्यवस्थ -नागरिक भौतिक जड़वादने एक और शान्ति प्रस्थापित करने के लिए प्रादर्शको शान्तिके हेतु स्थापन करनेकी आवश्यकता प्रतीत भरसक प्रयत्न किया तो दूसरी ओर वासनाओंकी अग्निको होने लगी। जगतमें घोर अशान्तिके बादल मंडला रहे थे, और भी प्रज्वलित कर दिया । सम्ति भूमण्डलपर सम्पूर्ण प्राकुलताका आधिपत्य हो चला था। ऐसे समयमै भगवान देशों में परस्पर सानिध्य और सम्पर्क संस्थापित हो पारिनाथने जन्म लेकर-आवश्यकता, समय व परिस्थितिकी जाने के कारण एकार दूसरेकी संस्कृति, साहित्य, विचारधारा, लघर में रखते हुए - नैतिक नियमांका निर्माण करके धर्मके वाणिज्य-व्यवसाय, कला आदिका प्रभाव पडा । विज्ञानकी मौलिक सिद्धान्तोंका प्रचार किया और भोगभूमिको कमजबरदस्त धीने जीवनकी कायापलटकरी और सुचारु भूमिमें परिणत कर दिया। धार्मिक सिद्धान्तोंकी उत्पत्ति रूपसे सारे जगतको कार्यक्षम बनाने के लिये काननकी शरण गहरे विचारका नतीजा थी, इसलिये व कथन और ली। जो काम प्राचीन काल में धार्मिक नियमों तथा संस्था. उपदेशसे इसका प्रचार होने लगा तथा इसकी सार्थकता
ने किया वह अब वर्तमानकाल में राजशासन द्वारा किया सिद्धान्तोंको कार्यरूप में परिणत करनेसे होने लगी। यह जाने लगा। जहाँ नैतिक बल और धार्मिक जिम्मेदारी विचारधारा नैसर्गिक स्वाभ विक तथा समयानुकूल थी। अपने अपने कालमें कामयाब रहे, वहीं अब कानन द्वारा लोगोंने इसे हाथोंहाथ अपनाया। संसारकी समझमें यह सामाजिक वैयनिक तथा राष्ट्रीय जीवनका नियन्त्रण किया बात आगई कि धर्म और अधर्मके आचरण का परिणाम जा रहा है। अधर्म, पाप या कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करनेके क्रमशः सख और दुख होता है। इसीसे देश और समाजकी लिए कई तरह नियम बना दिये गये और इन नियमोंकी व्यवस्था रह सकती है, संसारके सौकिक व्यवहार चल अवहेलना या उत्तरदायित्वसे ग्युत होना काननकी दृष्टिसे सकते हैं। इसी तरह जब जब धार्मिक नियमोंकी भवसजाने योग्य समझा गया। हमारे जिन कामोंसे समाज- बनाकारण जगतमें प्रनीति और प्रशान्ति फैल जाती,
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किरण ६-७१
भगवान महावीर और उनका संदेश
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तब तब समय ऐसीनरको या तीर्थकरोगे । करता गाफिलों की इमदाद नहीं करता"। "'मन: सिन और इनके कारण वीजगत में ज्ञान की नहरी किरणें परेषां न समाचेरत्" । "हर प्राण को खु का शिफाइल अज्ञानकः भिटानी तथा लोक मर्यदा स्थापित हो जाती। करनेका हक है" । श्रादि कान नी तत्वोंये उपर बताया
यह बात भी विचारणीय कि धार्मिक किमान्तीका ही समर्थन होता है। प्रचार हमेशा क्षत्रिय राजाओं द्वारा हाहै; क्योंकिर्मके किन्तु दोनों समय के इन प्रयोगों में पचा है। न सिद्वान्तोंका प्रचार राजाश्रित का है। देश और समाज समय में कानन का पालन करना कराना उनकाक और हित के लिए प्राकृतिक तथा मानमगिक और लौकिकाचार लिक कर्तव्य समझा जाता था। विरोधक र व्यावतार तथा सलियों के विछ बाते करनीय समझी गई। इन था किन्न आकल हाल योग द्वारा वानऊ, कस्पाय चीको कानन का सप प्राप्त हया। यो समयकी पुकारके बनाने का प्रयान किया जा रहा, धान , पासा. बरो अनुसार धम्कि नियमों का पालन ही देखा जाता ही हरका आधार है और उन दिनों एरका 'रामरहान यदा कदाचित चन्द व्यक्ति या उनका समूह इन कर्तव्य नैतिक यावश्कता, प्रशासन तथा संयम का। निय की सहेलनाद्वारा स.स. या राष्ट तथा की उभी तो यत्रतमा जैन शास्त्रों में -
वामें बाधा उपस्थित करता तो न सिर्फ राजदर ही "तरनुल्य परद्रयं परं च स्वशरीरयन् । उसे भुगतना पड़ता कि काउकी दक्षिण भी वह गिर परदारां समा मातुः पश्यन यानि पा पद" । जाता । राजनीति इन पुसी या राजाका यह तय था कि ऐसे वाक्य मिलते हैं । दमकी स्योकी घामक लिनक जको धार्मिक तथा ली कर नियमको धमली जामा की तरह. परस्त्रीको माताके समान और दूसरे जाका पहिनान में विश करे तथा ऋश्यकतानुसार सैनिक बलको अपने समान जानः । क्या या माय वरिक सिमान। भी काममें लाये । यही कारण है कि भारतवर्ष में उस समय है। क्या इसपर अमल करने मध्य-गो शान्तिक शनि च सुचवस्थाका मधुर महत मनाई देता रहा है। नहीं पा सकता? ___ गत मा.मरके अन्त में विश्वशान्तिको सद के लिए
धर्म और गजनीति स्थापित करने के खयाल अमेरिकाके स्वनामधन्न सिटेन्ट
वैसे तो और रानी वितरीत विचारों विल्सनने छन्तर टीय परिषदको जन्म दिया और एक लंबी
ती होती किन्नु वार में न है। प्राचीन कामा चौड़ी नियमावली बना दी, कि कार्यरु। में, मैनिक
में राजनीतिका रोग मान : जीनो: त्येक क्षेत्र में पाया बलका प्रभाव होने के कारण, वह परिए त न कर सका और
जाता है। किरक तथा सस्था क ज र रानी ज्ञा परिणाम यह निकला कि युद्धकी ज्याला पुनः भी
तथा मा रश: २ नाथे । मानव सीके स्वभा। उनकी धधक उठी । किन्तु भारतवर्षके प्राचीन राजनीतिज्ञोंकी
प्रवृत्तियों आदिका उगने नत्म निरीक्षणः कृयश्य कि । यह बात भलीभांति परिचित थी कि अपनी जाति
था । नामें मदान व उसके श्रीका साधनके लिए निक-शनिद्वारा राष्ट. देश, समाज के रिमों
दर्णन मिलता है। उदा रणर्थ मौके को ढीकरण: व धार्मिक सिद्धान्त का प्रचार थापानीसे कराया जा सकता।
गुलम रथ त्रा. पूजामा, संत्र निकालना, धार्मिक प्रसव जनसाहित्य और कानून
कराना श्रादिके द्वारा में प्रभा ना करना; महामिन भारतवर्ष की अनेक धार्मिक तथा सामा जक प्रवृत्तिपर मक'ना, बाई सभा में उनकी महाता करना, समाज ही मौजूदा क.ननका प्राधार है । धर्म के निमोको तथा संगठनका बीज बना ग्रादि ची सरधिका हाल है। प्रचलित रिवाजोंको जयमें रखकर ही ( Juris इन चीकन धर्ममें मत्थर र्शन के अंगी इर्थान Prudence) क.ननके मूलभूत तत्व बनाये गए है ऐसा स्थितिकरण प्रभावना, चामल, श्रादि नामो याद कि । खुद का. नदानोंका खयाल है। "न्दर की आवाज जो युछ है। इनके मूलभूत तोपर दृष्टि डालने से मालूम पड़ता है कि काती है उस पर अमल करना जुर्म नहीं" । "क.नन उनि मानस विज्ञान Psychology) के रद हरदों तथा
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अनेकान्त
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राजनीति Politics), नागरिकशास्त्र (Civics श्रादिका कारण ही व्यवहारधर्मको श्रामधर्म या पारलौकिक धर्मकी गहरा अध्ययन करके मानव प्राणियोंके स्वभावों तथा सिद्धि कहा गया है। इसकी सिद्धिके बगैर हम कुछ नहीं प्राकृतिक नियमांको समझकर उनको धर्ममें सन्निहित कर कर सकते । इस ग्रा.र्शपर ही उनकी नई दुनियाकी लिया था। यही नहीं बल्कि दुनियावी जरूरतों र ध्यान बुनियाद खड़ी हो सकती है। परमार्थका बीज यहीं बोया देकर इन प्रा.शौं अपितु नैतिक गुणोंको-जिनका होना जा सकता है तथा कोई भी नागरिक त्याग, सेवा, दया, एक अच्छे नागरिकके लिए अन्त आवश्यक है- कर्तव्य श्रादिके नैतिक तत्त्वों द्वारा ही अपने जीवनमें स्वर्गक व्यवहारिक रू। यिा और यह चीजें लौकिक या व्यवहार मखीका अनुभव करके विश्वकी शान्ति में सहायक सिद्ध धर्नमें समाविष्ट हो गई। प्राचीन कालके श्रादर्श व्यक्ति हो सकता है। श्राने समय के अच्छे नागरिक कहलाये जा सकते हैं। किन श्राजकल अनेक देशोंके राज्यशासनने जिस ये-लौस होते थे, स्वार्य उन्हें बता नहीं था, दूसरोंपे लडना वे वातावरणको पैदा किया है. उससे नागरिकोंको न पाप समझते थे । दूसरोंकी सेवा करना, पड़ोसियोंकी तो उन्नति करने का मौका ही मिलता है और न विश्वकल्याण सहाता व अभ्यागतों, प्रवासियों व अतिथियोंका उचित तथा शान्ति का स्वग्न ही सस्यसष्टिमे परिणत किया अादर करना, उन्हें भोजन देना अा. पुण्य समझा जाता जा सकता है। इस मसीनों के युगमें इस प्रौद्योगिक तथा था। ये चीजें उनके निन्य तथा नैमित्तिक कार्यों में शुमार व्यावसायिक प्रतियोगिताके दौरमें खुदगरजीको विशेष (परिगणित) की जाती थीं। ऐसे ही शुद्ध व्यक्रि राज्य-शासनके महत्व दिया गया है। स्वार्थ भावनाएं प्रदीप्त होती जा जिम्मेदार होते थे। सारांश यह कि राज्य अपने सामने रही हैं तथा दूसरों के व्यत्रियको मिटाने पर राए तुले हुये उच्च श्रा.र्श रखता था और इसीलिए वह राष्ट्र, समाज नफरत की जहरीली भावना प्रधागतिकी तरफ उन्हें ले जा और देशकी हर प्रकारकी उरातिका जिम्मे.ार समझा जाता रही है. शक्ति और स्वार्थका बोलबाला है और तुर्फा यह है था । Proj Herold Laski का बयान है कि कि प्रत्येक राष्ट शान्ति-स्थापनकी दुहाई दे रहा है। बेचारी "प्रत्येक राज्यशासन उनके नागरिकों के चरित्रका बाईना है। जनता न तो अपने उद्धारका कोई ज्ञान रखती है और न उसके अन्तर्गत व्यक्ति तथा समानके नैतिक चरित्रका इस मार्ग पर अग्रसर ही हो सकती है। इन राजनीतिज्ञों की प्रतिविम्ब उसमें दिखाई देता है।" हम तत्वको जैन कूटनीतिने ही सारे विश्वमें सन्तोष की भावना पैदा कर साहित्यमें कथित पुराणों और कथागर देखें तो उपरत दी है। क्या ही अच्छा हो कि ये लोग तनिक विचारसे काम बातोंकी सत्ता अनापास ही सिद्ध हो जाती है। वास्तवमें लें और सच्ची मानवता का सबूत दें:श्रा.र्श राजनीतिज्ञों द्वारा ही सुशासन संचालित होता है। "कथनी मीठी खाँड सी करनी विष की लोय। यह उत्तम नरपुंगव-जिनके हृमार अपने अनुयायि की कथनी तज करनी को तो विप से अमृत होय ॥" चोट होती है-वातावरण को शुद्ध करने के लिए, फलप्रातिकी इसी तरह जो सुख-शान्तिकी स्थापनामें अनैतिक व प्राशा न रखते हुए, राज्यशासन या धर्मशासनको चलाते प्राकृतिक साधनों के अदलंबन द्वारा चिरस्थायी यश प्राप्त हैं । मानवप्राणी जिस समाज या राष्ट्रमें रहता हैं करना चाहते हैं, मानों वह पानशम्से फूल तंद कर लाने के उसका जीवन उसी राष्ट्रको उन्नते या अवनतिपर सदृश ही हास्यासद विचार रखते हैं । विय से अमृतफल निर्भर है । इसलिए राजनीतिज्ञ एवम् धार्मिक सिद्धान्तोंके की अाशा नहीं की जा सकती -बबूल को बोकर श्राम नहीं प्रचारक जनसाधारणके कल्याण की भावनाको लक्ष्यमें रखते खाये जा सकते, चालू से तेल नहीं निकाला जा सकता, जलको हुए बड़ी योग्यतासे शासनका रथ हाँकने में व्यस्त रहते हैं। मथकर नवनीत नहीं किकाला जा सकता। इसी तरह 'क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतुबलवान् धार्मिको भूमिगलः' आदि हिंसा'मक उपायों द्वारा शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती। पाठ इसी बातको ध्वनित करते हैं। व्यावहारिक जीवनकी जब हमारी नीयत ही बुरी हो तो अच्छे फलोंकी पाशा रखना कामयाबी ही उनका परमोच्च ध्येय रहता है। शायद इसी ही व्यर्थ है। अोल्डस हकसले के प्रसिद्ध, मान्य ग्रन्थ
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भगवान महावीर और उनका सन्देश
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Ends and means "साध्य और साधन" में इन्हीं काले ह्रदयको भी नतमस्तक बना देता है। सारा संसार ऐसे समस्याओं पर प्रकाश डाला है। साध्य और साधनकी व्यः- श्रादर्श व्यक्तिको सर आँखों पर बिठा लेता है। विरोधियोंके ख्या करते हुये आपने शादर्श समाज, नारन मानव, और हृदयको शुद्धब पवित्र कर देता है। वह पश्चाता की अग्निमें अहिंसा श्रादि विषयोंको जोरदार शब्दों में प्रतिपादित किया बुरे भावोंको जला देता है और पवित्र अन्तःकरणसे धीर, वीर है। वे फर्माते हैं कि किसी तरह भी बुरे उपायों या तथा अपने उपकारीका अनुयायी बन जाता है। अब वह साधनोंद्वारा उत्तम साध्य या ध्येयकी प्राप्ति नहीं सकती। अपने आपमें तबदीली महसूस करने लगता है और समझता "यदि हमारा ध्येय तथा प्रादर्श शुद्ध है तो उँचे श्रादर्श तक है किहमारी रसाई (हुंच) सिर्फ पवित्र तथा शुद्धसाधनों द्वारा ही “सरपु मैत्री गुणिपु प्रमोद, क्रिष्टेषु जीविषु कृपापरत्वम् । हो सकती है"। किन्तु खेद तो इस बातका है कि इस समय माध्मस्वभाव विपरीत-वृत्ती, स. ममात्मा वि धातु देव ॥" सारे संसारपर स्वार्थ-साधनका भूत सवार है, वह इसके
- (प्रमितगति) परिणाम-स्वरूप वासनाओका गुलाम बन गया है ! ऐसी यही धर्मका व्यावहारिक तथा सार्वभौम रूप है। परिस्थितिमें मानव या राष्ट्र को विश्वकल्याण के पवित्र श्रादर्श कुछ अाधुनिक पाश्चिमात्य विद्वानोंका मत है कि में सहायक खयाल करना गलत है। जैन धर्मकी भी यही भारतवर्ष जैसे सुसम्पन्न कृषि-प्रधान देशमें प्राचीन काल में मान्यता है। वह कहता है कि अहिंसा द्वारा ही जगतमें रोटीका सवाल ऐया उन नहीं था, इसीपे अध्यात्मवाः शान्ति प्रस्थापित की जा सकती है। प्रात्मोद्वारकी कुंजी भी बेकार लोगोंके दिमाग़की पैदावार है । "An idle यही है ।इसी मार्गका अनुसरण करके स्वाभाविक तथा असीम brain is satan's workshop " इसी उक्रिके सुखकी प्राप्ति हो सकती है । अहिंसा, सत्य, ईश्वर, धर्म, अनुसार ही फुरसतके समय में Mysticism या शान्ति, सुख, संतोप आदि एक ही अर्थ के पर्यायवाची शब्द Spirituality का जन्म हिन्द में हुभा। किन्तु एक हैं। इन्हींकी उपासना, इन्हींका सहारा, व इन्हीका सम्पूर्ण दूसरी विचारधारा यह भी बताती है कि यह जरूरी नहीं कि ज्ञान ही हमारा उच्चादर्श है तथा नैतिक, व्यावहारिक, स्वाभा- फुरसतके समयको सबलोग बरबाद ही कर देते हैं, बल्कि विक या धार्मिक कर्तव्य भी यही है । इसके सामने स्वार्थ- ललित कलाओं, ज्ञानकं विविध अंगों तथा संस्कृति व सभ्यता साधु, विषय-लोलुप, वासनाओंका पुजारी घटने टेक देता है। की उन्नतिको चरम सीमापर एक ही समयमें पहुंचाया जाता इसके लिए सच्चे नागरिक, दार्शनिक या धार्मिक पुरुषको है। भारतवर्ष के प्रकाएद-पण्डितोंने जो सेवाएँ साहित्य, मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं, कष्ट सहन करने पड़ते हैं। यी विज्ञान, संस्कृति और कलाके सिलसिलेमें की हैं वे भलाई नहीं, बल्कि श्रात्मोत्सर्ग द्वारा विरोधियोंके हृदय पर विजय नहीं जापकती । विश्वके इतिहास में यह अमर गाथा प्रात करनी होती है।
अंकित रहेंगी । प्रो० मैक्समूलर (Prof. Max जैनशास्त्राने परिषह-सहन तथा उपसर्ग जीतनेक बड़ा Muller) जैसे शास्त्रियोंका मत है कि इस भारतवर्ष ने मालिक तथा रोचक वर्णन किया गया है। विराधियोंक, कष्ट सा.यो पहिले, जेत्र यूरोप अज्ञानकी घोर निद्रामें पड़ा न देकर स्वयं कष्ट सहना खेल नहीं है, इस तन्वमें मानस- हुश्रा था, ऐसी सभ्यताको जन्म दिया जो रहती 'शास्त्र (Psychology) के गढ़ तचोंका अंतर्भाव है। दुनिया तक यादगार रहेगी और इस देशको यदि विश्वदूसरों के लिए कष्ट सहन। जीवनका बड़ा ध्येय है । जब बीज गुरुके पदसे विभाषित किया जाय तो योग्य है, श्रादि । स्वयंको नष्ट कर डालता है तब ही तो नयन-मनी र वृक्ष प्रार. सी. दत्त (R. C. Dutt.', अलपेरूनी Albeउसमेंसे जन्म लेता है। हिंसा तथा असत्य या राग भावाद्वारा run5) ब्राउन (Brown), कांउट जरना Count वैर व मत्सर बढ़ता है । अशान्तिकी लहरें जीवन-सागरमें Jerna) श्रादि कतिपय विद्वानोंने अपने लेखों द्वारा उठती हैं, द्वेषके बादल सिरपर मंडराने लगते हैं तथा सर्व उपरोक मतका ही समर्थन किया है। कहा जाता है कि नाशका पहाद सिर पर टूट पढ़ता है, किन्तु परिवह सहन आध्यात्मिक विचारवादका बीज सबसे पहिले भारतवर्ष ही में
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अनेकान्त
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बोया गया । यहाँकी भौगोलिक, प्राकृतिक तथा मानसिक धर्मने तो यही प्रतिपादित किया है कि दुष्ट के साथ हमें नीच परिस्थिति इसीके अनुकूल थी। इस विचारधाराके लिए नहीं होना चाहिए किन्तु क्रोधको शान्तिसे, वैर भावको प्रेम यहाँका उ.लवायु बहुत अच्छा सिद्ध हुा । इस वृक्षको __ तथा दयाभावगे और दुधको साधुतासे जीतना ही श्रेष्ठ है। फलते फूलने देखकर दूसरे देशों में भी यह बीज बोया गया, धर्मकी रूदियों और बाह्य लक्षणको समयानुकूल बदलना किन्तु दूरी जगह वितु वातावर। के न मिलने से पिशाल- पाप नहीं है। धर्म के नामार श्राडबर, ज्ञान, ६. ग्याचारका काप वृत्त नहीं होसका। मानसशास्त्रियों Psychologist: प्रदर्शन करना पार है। धर्मके मुजदूत सिद्धान्त कभी नहीं तथा समाजविज्ञान (Social Science के पण्डितोंका बदलते। चोग शीर भूट सदा पार ही समझे जावेंगे। कथन है कि बाह्य और भ्यंतर परिस्थितियोंका भाव दुनियाके कोने २ से इसके विरुद्ध ही श्रावाज उठेती। विचार-निर्माणपर पड़ता है। यही कारण है कि श्रा-यामिक लौकिक स्वार्थ-पाथन या श्रामाका विकारी रूप ही नरकका विचा थरा यहीं पर बढ़ी, उसका विकास यहींके शान्त द्वार कहलाया जासकता है। मानवताका पुजारी जब पतित वातावरण में हुश्रा। न तो यहाँ पहिले रोटीका सवाल ही हो जाता है तो वह गित समझा जाता। इसीको था और न दृसरे अडंगे । फलत: इस धन-धान्य परिपूर्ण अमाचरण का फल कहा जायेगा। अकर्मण्यता और वैराग्यमें भूमिपर बड़े बड़े प्राचार्मोन साहित्य और ज्ञान की ऐसी बहुत बड़ा अन्तर है। उत्तरदायित्व बरना धर्स नहीं, लंघन उपासना की कि अध्यात्मकी देवी प्रसन्न होगई। यहाँके और फाकाकशीको तपस्था नहीं कहा गया है किन्तु लौकिक नयनाभिराम स्वर्गोपस प्राकृतिक सौन्दर्य, शीतल तथा शान्त धर्मको साधन करता हश्रा पुस्पार्थी जीव ने विशेष और वातावरण, मनोहर दृश्यों और ज्ञान-पिपासा श्रादिने स्वाभाविक आदर्श की तरफ बढ़ता है। वह जानता है श्राध्यात्मवादकी मुथियों को सुलझा दिया । अव्या मवाद कि "पर्व परवशं दुःखं सर्व प्रामवशं मुखम्"। धर्मको भूल भारतवर्षी सारे विश्वको अनुपम देन है। इनकी कदर जानेसे मनन्य अपनी मनुप्यता को खो देता है तथा बदनामी वही कर साता है जिसने यह मज़ा चग्या है। सारे का जीवन गुज़ारकर काल के गालमें चला जाता है। इसीलिये विश्वकी बीमारीमा यी इलाज है । ग़ालिब सा.ब भी तो किपीने कहा है के जगत में आकर हमें मानवताका सना यही फरमाते हैं:
देना चाहिए तथा पथ-भ्रष्ट न होना चाहिए। कर्तव्यका ही "कये तबियतने जीस्ता मना पाया । दूसरा नाम धर्म है - दशी वा पाई दई ये-दवा पाला।"
"जो तू शाया जातमें जगत सराहे तोय । नशास्त्रों का निचोड़ भी यही अध्यावाद है, किन्नु ऐसी कानी कर चलो जो पाछे हँसी न हो" || खयान रहे कि या निष्क्रिय नहीं है इसके लिए पुकमार्थको धर्म दो कार का है । एकको मोक्ष धर्म या निवधर्म अपनाना पड़ता है।
कहते हैं तो यरको .वहारधर्म याश्रावकधर्म कर सकते हैं। "अमल हिन्दगी बनधी, जन्नत भी, अमन भी” पहले धर्मका श्रादर्श विशिष्ट ये या स्वाभाविक पदकी पति पारलौविद जातका आधार या निश्चय धर्मका श्राधार है। दूसरेका श्राश: किने संसारमें कानाचाहिए व्यवहार धर्म है। व्यवहार धर्म परिलो सीदी है। इसी रपे वहम वय कर सकते हैं। समाजमें हमारा स्थान क्या है? गुजरते हुए, ऊपरकी मंजिलपर पहुंचा जा सका है। व हमें हमारे उत्तर यित्व को किस तरह निभाना चाहिए। अध्या मवाद बारी का नतीजा नहीं, बल्कि पुरुषार्थ धर्मके दस चिना बताये गये हैं ....क्षमा, मार्दव, प्रार्जय, नतीजा है, मनुष्यमात्रकी चरो तग उनाते है।
सत्य, शौच, संयम, तप. त्याग प्राचिन्म और ब्रह्मचर्य । वास्तवमें रूढियों के प्रावल ने धर्म के असली रूको येही चीजें मानवताकी द्योतक हैं। इनसे जब यह मानव च्युत छिपा दिया है। अबतो केवल प्रामारहित अस्थपंजर या होजाता है या अपने स्वभावको भूल जाता है तो व, न सिर्फ कलेवरका भीषण दृश् ही दिखाई देता है। इसी रूपको देख अपनी अधोगतिके अभिमुख होता है बल्कि सामाजिक कर पाश्चिमात्य लोग धर्मको अभावहारिक समझने लगे हैं। जीवनमें भी बाधा डालता है। ए.ई. मैण्डर A. E.
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किरण ६-७ ]
भगवान महावीर और उनका सन्देश
Mander साहब अपनी पुस्तक "Psychology for उसे हम किसी सरह निष्ठुर या हिंसक नहीं कह सकते। Every Man Woman" में क्रोधकी प्रवृत्तिका वर्णन क्षमाकी उपासना बाकी नौ चिन्होंकी उपासना है। इसीका करते हुए बतलाते हैं कि-"जब मनुष्य पर क्रोधका भूत नाम भेद विज्ञान है। इसी भेदविज्ञानमय परिणतिको शास्त्र सवार हो जाता है तो उसका चेहरा सुर्ख होजाता है, की परिभाषामें अन्तरात्मा कहा जाता है। इस पदको पा मुट्ठियाँ बंध जाती हैं; विचारशक्रि उसमें बाकी नहीं रहती। लेनेके बाद कर्तव्याकर्तव्यका प्रतिभास होता है। सांसारिक आँखोंसे चिनगारियां निकलती हैं और वह परिणामको सोचने सुखों और दुखोंको वह स्थितप्रज्ञ उदासीन भावसे भुगतता के बदले मरने-मिटने पर तुल जाता है। यह उसकी है, विश्वकल्याण में सहायक होता है। पुरुषार्थी होनेके अस्वाभाविक दशा है, उसका विकृत रूप है। उसकी कारण समाज या राष्ट्रको उन्नतिमें उसका हाथ होता है। स्नायधिक प्रन्थियोंमें ऐठन पैदा होजाती है। हृदयसे शकरकी नैसर्गिक नियमों, सामाजिक, नैतिक अथवा धार्मिक बन्धनोंमात्रा खूनकी नालीमें दौड़ जाती है और इस कारण हम का उल्लंघन करने वाला अपने कियेकी सजा पाता है । किसी भयंकर बातके करनेपर उतर आते हैं। फलत: पाचन- धार्मिक परिभाषामें इसे पाप या धर्माचरण के फलके नामसे क्रिया बन्द हो जाती है। ऐसे समयमें शरीर-विज्ञानके याद करते हैं, और पाश्चिमात्य लोग प्रकृतिके खिलाफ मतानुसार एडेनलीन (Adrenalin) की अधिक बगावत करनेका अवश्यंभावि परिणाम कहते हैं। चाहे जो मात्रा इतनी प्रतिक्रिया प्रारंभ करके शरीरको अपनी असली भी कह लें, दुष्कर्मोंका फल भुगतना प्राणिमात्रके लिए हालतमें लाने के लिए सहायक होती है। अतएव इन विद्वानी अनिवार्य है। व्यभिचारी या हिंसक राज्यद्वारा या समाजसे के मतानुसार मनुष्यको ऐसे अस्वाभाविक तथा अप्राकृतिक अपने कियेका दण्ड पाता है। यदि किसी देशमें यह चीज़ दशाने या तो किसी उद्यानमें निकल जाना चाहिये या दण्डनीय समझी नहीं गई तो भी प्रकृति उसे बीमारीके कोई शारीरिक काममें अपने आपको व्यस्त रखना चाहिए, रूपमें अवश्य दण्ड देती है। अतएव मनुष्यमात्र अपनी इसी तरह उस समय भोजन करना शरीरको हानि करतूतोंका जिम्मेदार है। उसकी उन्नति या अवनति पहुँचाना है।" श्रादि
उसीके हाथ है। जब प्राणी अवनतिके अभिमुख होता है
तो उसे दर्शनशास्त्री 'बहिगत्मा' के नामसे पुकारते हैं, यह अत: इस पाश्चिमात्य मानसशास्त्रीने भी स्पष्ट रूपसे स्थिति सर्वनाशका कारण है। अन्तरात्माकी दशामें बतला दिया है कि क्रोध मनुष्य मात्रका स्वभाव नहीं है मनप्य अपने जीवनको स्वर्गीय वातावरण में बदल सकता
और इससे भयंकर हानि होती है, अतएव यह त्याज्य है। है. किन्त जिसके सामने विशेष प्रादर्श है वह इन तमाम इसीलिए तो क्षमाको प्रात्माका गुण कहा गया है । इसके बातोंसे परे अतुलनीय, असीम व अखण्ड सुख के लिए बराबर कोई दूसरा तप नहीं है। और न दयाहीन धर्मको प्राप्मशुद्धिकी अोर असर होता है। वही पूर्ण शुद्ध व्यकि धर्मके नामसे जाना जा सकता है, किन्तु उसका व्यवहार-धर्म परमात्मा कलवानेका हक रखता है । यही मानवताकी चरम की दृष्टिपे यह अर्थ कदापि नहीं है कि यदि न्यायका खून सीमा है, यही उपादेय है । वहीं प्रारमसाक्षात्कार है, हो रहा हो; समाजकी मर्यादाका अतिक्रम हो रहा हो, सिद्धावस्था है तथा मुक्रिका कमनीयरूप है । यह अनुभवगम्य लौकिक विधियोंग जबरन उल्लंघन किया जा रहा हो या है. अन्तरामा पर में इसकी परम श्रानन्ददायिनी मलक खुदका फूक फूंक कर कदम रखनेके अनन्तर भी पर्वनाश हो खाई दे सकती है। तर्कके घोडे यहाँ पहुँचने नहीं रहा हो तो दब्बूपनका सबूत दो या प्रातताइयोंके धागे सर पाते।झुका दो । बल्कि ऐसे समयमें प्रातताइयोंको शिक्षा देना, दण्ड देना या दमन-नीतिसे काम लेना भी प्राय अहिंसा तथा "रहिमन बात अगमकी कहन सुननकी नाहिं । न्यायमार्गमें दाखिल है। यहाँ नियतका सवाल है । डाक्टर जो जानत ते कहत नहीं कहत ते जानत नाहिं॥" रोगियोंका इलाज करनेके लिये शस्त्रक्रिया करता है किन्तु अतएव विश्व कल्याणके हेतु जगतके प्राणियोंके लिए
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अनेकान्त
[वर्षे
भगवान महावीरने जो सन्देश दिया है वह बुद्धिकी कसौटी रूप देखना चाहती है। ज्ञानकी प्यास इसी शर्बतसे वुझाना
की तरह उतरता है। परन्तु खेद तो इस बातका चाहती है। इसलिये समाजके प्रकाण्ड पण्डितोंको चाहिए है कि आज कलकी हवा पूर्वाचायों के कथनको, चाहे वह कैसा कि वह जैनसाहित्यको अाधुनिक दृष्टिकोणसे सुसम्पादित ही श्यों न हो, कमोल-कल्पित बतलाती है। इनको फोर्ड करके उसका प्रचार करें । कई संस्थाएँ अाजकल सुलेखकों भाछी चीज समूचे साहित्यमें नजर नहीं पाती।न्तुि यही तथा विद्वानोंको जन्म देनेका रवा करती है किन्तु प्रामचीज यदि हॅकसले रसेल, मॅक्समूलर, लास्की प्रादि तौरपर लकीरके फकीर ही इनके द्वारा पैदा होरहे हैं, अतएव पाश्चिमात्य विद्वानोंकी लेखनी द्वारा प्रतिपादित हो जाये तो समयका साथ देना जरूरी है। ग्रन्थमालाओं के संचालकोंको हम फौरन उसपर ईमान लाते हैं। इसका अर्थ है हमने चाहिए कि वे आजकलकी जरूरतोंको सममें । केवल अपनी बुद्धि या अक्लको इन जैसे अनेक विद्वानोंके हाथ बेच भाषांतरसे काम नहीं चलेगा। खोज -तथा अन्वेषण करके दिया है। हम बुद्धिके गुलाम हैं। दूसरोंके नीबूमें हमें श्राम गवेषणापूर्ण लेखमालाएँ प्रारम्भ कर देनी चाहिए । तभी का स्वाद थाता है, किन्तु अपनी चीज खट्टी मालूम होती साहित्यकी सची उणसना होगी। क्या हम आशा कर सकते है। यह हमारी बुद्धिकी बलिहारी है, हमारा अधःपात है। हैं कि समाजके विद्वान-साहित्यदेवताके चरणों में सुचारुहाँ, एक बात इससे यह निकलती है कि दुनिया श्राधुनिक सुमनोंकी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करेंगे? ढंग और मौजूदा प्रणालीके श्राइन में अपना तथा धर्मका
小小小小小小小小小小小小小小小小小小小小小小小小小的
वनस्पति घी
उस वनस्पत्रिसे किसीको झगड़ा नहीं हो सकता जिसका अर्थ फल-फूल और पत्तियां हैं, किन्तु जब यह नाम अन्य वस्तुको दिया जाय तो उसे विष समझना चाहिये । वनस्पतिको कभी धीका नाम नहीं दिया जा सकता । यदि उससे वास्तवमें घी बन सकता है तो यह घोषित करनेके लिये मैं प्रथम श्रादमी हूंगा कि अब असली घीकी कोई आवश्यकता नहीं है। घी या मक्खन पशुओं के दूधसे बनता है बनस्पतिको घी और मक्खनके नामसे बेचना भारतीय जनताको धोखा देना है. यह पूर्ण रूपसे बेइमानी है।
व्यापारियोंका यह सुस्पष्ट कर्त्तव्य है कि वे इस प्रकारके किसी उत्पादनको घीका नाम देकद न बेचें। किसी भी सरकारको इस प्रकारके मालकी बिक्री जारी नहीं रहने देना चाहिये । श्राज करोड़ों भारतीयोंको न तो दूध मिल रहा है और न घी, मक्खन या मट्ठा ही। अत: अगर यहांकी मृत्यु संख्या इतनी बढ़ गई है एवं यहाँके निवासी उत्साहहीन हैं तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। मनुष्य बिना दूध अथवा दूध के बने पदार्थसे जीवन नहीं धारण कर सकता। इस प्रकारसे धोका देनेवाला भारतका शत्र है।
-महात्मा गांधी
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३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ? (ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
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'षट्खण्डागम' के उल्लिखित ६३ वें सूत्र में संजद' है। उन्होंने मनुष्यगतिसम्बन्धी उन पाँचों ही-८६,६.. पद हे या नहीं ? इस विषयको लेकर काफी अरसंसे चर्चा ६१, ६२ ६३--सूत्रोंको द्रव्य-प्ररूपक बतलाया है। परन्तु चल रही है। कुछ विद्वान् उक्त सूत्रमें 'संजद' पदकी हमें अब भी ऐसा जग भी कोई स्रोत नहीं मिलता, जिमसे अस्थिति बतलाते हैं और उसके समर्थनमें कहते है कि उसे 'द्रव्यका ही प्रकरण' समझा जा सके। हम उन प्रथम तो वहाँ द्रव्यका प्रकरण है, अत एव वहाँ द्रव्य- पाँचों सूत्रोको उत्थानिका-वाक्य सहित नीचे देते है:स्त्रियों के पाँच गुणस्थानोंका ही निरूपण है। दूसरे, "मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाइषटखण्डागममें और कहीं आगे-पीछे द्रव्यस्त्रियों के पाँच मणुस्सा मिच्छाइट्रि-सासणसम्माइट्ठि-अमंजदगुणस्थानोंका कथन उपलब्ध नहीं होता । तीसरे, वहाँ सम्माइट्रि-द्वाणे सिया पज्जत्ता सिया अपजत्ता 1156) सूत्रमें 'पर्याप्त' शब्दका प्रयोग हे जो द्रव्यस्त्रीका ही बोधक
तत्र शेषगुणस्थानसत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाइहै। चौथे, वीरसेनस्वामीकी टीका उक्त सूत्र में संजद' पदका
सम्मामिच्छाइटि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे पियमा समर्थन नहीं करती, अन्यथा टीकामें उक्त पदका उल्लेख
पज्जता ||६|| अवश्य । होता पाँचवें, यदि प्रस्तुत सूत्रको द्रव्यस्त्री के गुग्यस्थानोंका प्ररूपक-विधायक न माना जाय और चूंकि
मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाहषटखण्डागममें ऐसा और कोई स्वतंत्र सूत्र है नहीं जो एवं मणुस्सपज्जत्ता ॥६॥ द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोंका विधान करता हो, तो मानुषीषु निरूपणार्थमाहदिगम्बर परम्पगके इस प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थ षटखण्डा
मणुसिणोसु मिच्छाइ द्वि-सासणसम्माइटि-हाणे गमसे द्रव्य स्त्रियों के पांच गुणस्थान सिद्ध नहीं हो सकेंगे सियाजत्तियामा सिया अपजत्तियामो ॥२॥ और जो प्रो. हीरालाल जी कह रहे हैं उसका तथा श्वेताम्बर
तत्रैव शेषगुणविषयाऽऽरकापोहनार्थमाहमान्यताका अनुषंग श्रावेगा। अत: प्रस्तुत ६३ वे सूत्रको
___सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट-संजदासंजद - 'संजद' पदसे रहित मानना चाहिये और उसे द्रव्यस्त्रियोंके
संजद-ट्ठाणे णियमा पत्तियानो ॥६॥ पाँच गुणास्थानोंका विधायक समझना चाहिये।
-धवला मु० पृ. ३२६-३३२। उक्त दलीलोंपर विचार
ऊपर उद्धृत हुए मूलसूत्रों और उनके उत्थानिका
वाक्योंसे यह जाना जाता है कि पहल' (८८) और दूसरा १-पटखण्डागमके इस प्रकरणको जब हम गौरसे (६०) ये दो सूत्र तो सामान्यत: मनुष्यगति--पर्याप्त कादिक देखते हैं तो वह द्रव्यका प्रकरण प्रतीत नहीं होता। मेदसे रहित (अविशेषरूपसे) सामान्य मनुष्य--के प्रतिपादक मूलग्रन्थ और उसकी टीकामें ऐसा कोई उल्लेख अथवा हैं। और प्रधानताको लिये हुए वर्णन करते हैं। श्राचार्य संकेत उपलब्ध नहीं है जो वहाँ द्रव्यका प्रकरण सूचित वीरसेनस्वामी भी यही स्वीकार करते हैं और इसीलिये करता हो। विद्वदर्य पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने हालमें वे 'मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाह' (८६) तथा 'तत्र (मनुष्य'जैनबोधक' वर्ष ६२, अंक १७ और १९ में अपने दो गतौ) शेषगुए स्थानसक्तवस्थाप्रतिपादनार्थमाह' (६०) लेखो द्वारा द्रव्यका प्रकरण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया इसप्रकार सामान्यतया ही इन सूत्रों के मनुष्यगतिसम्बन्धी
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२४८
अनेकान्त
उत्थानिकावाक्य रचते हैं। इसके अतिरिक्त, श्रगले सूत्रोंके उत्थानिक वाक्यों में वे 'मनुष्यविशेष' पदका प्रयोग करते हैं जो खास तौर से ध्यान देने योग्य है और जिससे विदित हो जाता है कि पहले दो सूत्र तो सामान्य मनुष्य के प्ररूपक हैं और उनसे अगले तीनों सूत्र मनुष्यविशेषके प्ररूपक हैं । श्रतएव ये दो (८६, ६०) सूत्र सामान्यतया मनुष्यगतिके ही प्रतिपादक हैं, यह निर्विवाद है और यह कहनेकी ज़रूरत नहीं कि सामान्य कथन भी इष्ट विशेष में निहित होता है— सामान्यके सभी विशेषों में या जिस किसी विशेष में नहीं। तालर्य यह कि उक्त सूत्रों का निरूपण संभवताकी प्रधानताको लेकर है ।
तीसरा (६१), चौथा (६२), और पांचवाँ (६३) ये तीन सूत्र श्रवश्य मनुष्यविशेष के निरूपक है— मनुष्योक चार भेदों (सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्यात, मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्य ) मेंसे दो भेदों— मनुष्यपर्यात और मनुष्यनी के निरूपक हैं। और जैसा कि उपर कहा जा चुका है कि वीरसेन स्वामीके 'मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाह', 'मानुषं पु निरूपणार्थमाह' और 'तत्रैव (मानुषीष्वेव) शेषगुणविषयऽऽरेको पद्दनार्थमाह' इन उत्थानिकावाक्योंसे भी प्रकट है। पर, द्रव्य श्रौर भावका भेद वहाँ भी नहीं हैद्रव्य और भावका भेद किये बिना ही मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यणीका निरूपण है। यदि उक्त सूत्रों या उत्थानिका वाक्योंमें 'द्रव्यपर्याप्तमनुष्य' और 'द्रव्यमनुष्यणी' जैसा पद प्रयोग हंता अथवा टीका में ही वैसा कुछ कथन होना, तो निश्चय ही 'द्रव्यप्रकरण' स्वीकार कर लिया जाता। परन्तु हम देखते हैं कि वहां वैसा कुछ नहीं है । अत: यह मानना होगा कि उक्त सूत्रोंमें द्रव्यप्रकरण इष्ट नहीं है और इस लिये ६३ वै सूत्रमें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका वहाँ विधान नहीं है, बल्कि सामान्यत: निरूपण है और पारिशेष्यन्याय से भावापेक्षया निरूपण वहाँ सूत्रकार और टीकाकार दोनोंको इष्ट है और इस लिये भाव लिङ्गको लेकर मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोका विवेचन समझना चाहिये । श्रतएव ६३ वे सूत्रमें 'संजद' पदका प्रयोग न तो विरुद्ध है और न श्रनुचित है। सूत्रकार और टीकाकारकी प्ररूपणशैली उसके अस्तित्वको स्वीकार करती है ।
[ वर्ष
८
यहां हम यह श्रावश्यक समझते हैं कि पं० मक्खन लालजी शास्त्रीने जो यहाँ द्रव्यप्रकरण होनेपर जोर दिया है और उसके न माननेमें जो कुछ प्रक्षेप एवं आपत्तियां प्रस्तुत की हैं उनपर भी विचार कर लिया जाय । श्रतः नीचे 'श्राक्षेप परिहार' उपशीर्षक के साथ विचार किया जाता है ।
प्रक्षेप - परिहार
अक्षे-यदि ६२ वां सूत्र भारस्त्रीका विधायक माना जाय - द्रव्यस्त्र का नहीं, तो पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान होना आवश्यक है क्योंकि भावस्त्री माननेपर द्रव्यमनुष्य मानना होगा। और द्रव्य मनुष्यके चौथा गुणस्थान भी अपर्याप्त अवस्था में हो सकता है। परन्तु इस सूत्र में चौथा गुणस्थान नहीं बनाया है केवल दो ही (पहला और दूसरा ) गुणस्थान बताये गये हैं । इससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि यह ६२ वां सूत्र द्रव्यस्त्रीका ही निरूपक है ?
परिहार- पण्डितजीकी मान्यता ऐसी प्रतीत होती है कि भाव स्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य के अपर्याप्त अवस्था में चौथा गुणस्थान होता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव मर कर भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य होसकता है और इस लिये ६३ वें सूत्रकी तरह ६२ वे सूत्रको भावस्त्रीका निरूपण करनेवाला माननेवर सूत्रमें पहला, दूसरा और चौथा इन तीन गुणस्थानोंको बताना चाहिये था, केवल पहले व दूसरे इन दो ही गुणस्थानोंको नही ? इसका उत्तर यद है कि सम्यग्दृष्टि जीव, जो द्रव्य श्रौर भाव दोनोंसे मनुष्य होगा उसमें पैदा होता है— भावसे स्त्री और द्रव्यसे मनुष्य में नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव समस्त प्रकारकी स्त्रियोंमें पैदा नहीं होता । जैसा पण्डितजीने समझा है, अधिकांश लोग भी यही समझते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव द्रव्य स्त्रियों - देव, तिर्येच श्रौर मनुष्यद्रव्यस्त्रियोंमें ही पैदा नहीं होता, भावस्त्रियों में तो पैदा हो सकता है । लेकिन यह बात नहीं है, वह न द्रव्यस्त्रियोंमें पैदा होता है और न भावस्त्रियों में । सम्यग्दृष्टिको समस्त प्रकारकी स्त्रियों में पैदा न होनेका ही प्रतिपादन शास्त्रोंमें है । स्वामी समन्तभद्रने 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकनपुंसकस्त्रोत्वानि' रत्न
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किरण ६-७]
६३ वें सत्रमें संजद' पदका विरोध क्यों ?
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करण्डश्रावकाचार के इस श्लोकमें स्त्रीच' सामान्य (जाति) लेकिन वहाँ नमक वेदको छोड़कर अन्य कोई विशिष्ट पदका प्रयोग किया है जिसके द्वारा उन्होने यावत् स्त्रियों वेद नहीं है। अतएव निवश उसी में उत्पन्न होता है। (स्त्रीत्वावच्छिन्न द्रव्य और भाव स्त्रियों) में पैदा न होनेका परन्तु तिर्यचोंमें तो स्त्रीवेदसे विशिष्ट--उँचा दुमरा वेद स्पष्ट उल्लेख किया है । पण्डितप्रवर दौलतरामजीने प्रथम पुरुषवेद है, अतएव बदायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदी नाक बिन षट्भु ज्योतिष वान भवन सब नारी' इम तियेचोमें ही उत्पन्न होता है । यह श्राम नियम पद्य में सब" शब्द दिया है जो समस्त प्रकारकी स्त्रियोंका है कि सम्यग्दृष्टि जहां कहीं (जिस किसी गतिमें) पैदा बोधक है । यह पद्य भी जिम पंचसंग्रहादिगत प्राचीन होता है वहां विशिष्ट (सर्वोच) वेदादिकों में ही पैदा गाथाका भावानुवाद है उस गाथामें भी 'सब-इत्यं सु' होता है-उससे जघन्यमें नहीं। पाठ दिया हश्रा है। इसके अलावा, स्वामी वीरसेनने बरसेनस्वामीके इस महत्वपूर्ण समाधानसे प्रकट है पटवण्डागमके सूत्र ८८ की टीकामें सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्तिको
कि मनुष्यगनिमें उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्ट जीव द्रव्य और लेकर एक महत्वपूर्ण शंका और समाधान प्रस्तुत किया भाव दोनोंसे विशिष्ट परुषवेदमें ही उत्पन्न होगा-भावसे स्त्रीहै जो खास ध्यान देने योग्य है और जो निम्न प्रकार है:- वेद और' द्रव्यसे परुषवेदमें नहीं, क्योंकि जो द्रा और भाव
"बद्धायुष्क:क्षायिकसम्यग्दृष्टिरियेषु नपुसकवेद इवात्र दोनोंसे पुरुषवेदी है उसकी अपेक्षा नो भाषसे स्त्र वेदी और स्त्रीवेदे फिन्नपद्यते इति चेत् , न, तत्र तस्यैवै कस्य मत्वात् । द्रव्यसे पुरुपवेदी है वह हीन एवं जघन्य है--विशिष्ट यत्र कवन समुत्पद्यमानः सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्ठवेदादिपु (सर्वोच्च) वेदवाला नहीं है। द्रव्य और भाव दोनोंमे जी समुत्पद्यते इति गृह्यत म् ”
पुरुषवेदी है वही वहाँ विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला है। शंका-श्रायुका जिसने बन्ध कर लिया है ऐसा अतएव सम्यग्दृष्ट भावस्त्री विशिष्ट द्रव्य मनुष्य नहीं हो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जिस प्रकार नारकियोंमें नसक- सकता है और इसलिये उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे वेदमें उत्पन्न होता है उसी प्रकार यहाँ तिर्यचौमें स्त्र वेदमें गुणस्थानकी कदापि संभावना नहीं है। यही कारण है कि क्यों नहीं उत्पन्न होता?
कर्ममिद्धान्तके प्रति गदक ग्रन्थोंमें अपर्याप्त अवस्थामं अर्थात् समाधान-नहीं, क्योंकि नारकियोंमें वही एक नपु
विग्रहगतिमें चतुर्थगुणस्थानमें स्त्रीवेदका उदय नहीं बतलाया सकवेद होता है, अन्य नहीं, अतएव अगत्या उमामें पैदा
गया है। सासादन गुणस्थानमें ही उसकी व्युच्छित्ति होना पड़ता है। यदि वहां नपुंमकवेद मे विशिष्ट-ऊँचा
बनला दी गई हैं, (देखो, कर्मकाण्ड गा०३१२-३१३-३१६)। (बढ़कर) कोई दूसरा वेद होता तो उसी में वह पैदा होता.
तात्पर्य यह कि अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यस्त्रीकी तरह
भावस्त्रीमात्रके भी चौथा गुणस्थान नहीं होता है। इमीसे १ 'पंढ' शब्दका संशोधन ठीक नहीं है। प्रो० प्रतियों में सूत्र काग्ने द्रव्य और भाव दोनों तरहकी मनुष्यनियों के 'सब' शब्द ही उपलब्ध होता है। यथा
अपर्याप्त अवस्था में पहला, दुमराये दो हगुगास्थान बतलाये छसु हेछिमासु पुढविसु जोइम-वण-भवण-सव्वाय'सु । हैं उनमें चौधा गुणस्थान बतलाना सिद्धान्तावरुद्ध होने के वारस मिच्छोवादे सम्माहिस्स णस्थि उववादो ॥ कारण उन्हें इष्ट नहीं था। अत: ६२वें सूत्रको वर्तमान
-पंचसं०१-१६३। स्थिति में कोई भी आपत्ति नहीं है। पण्डनजीने अपनी छसु हेट्रिमासु पढवीसु जोहस-पण-ववण-सव्वइत्यीसु। उपयुक मान्यताको जैनबोधक ६१वें अंकमें भी दुहराते हए णेदेसु सपुषजा सम्माइट्ठी दु जो जीवो ॥ लिया है:- "यदि यह ६२ वा सूत्र भावस्त्रीका विधायक
-धवला मु. १ ली पु०पृ० २०६ । होता तो अपर्याप्त अवस्थामें भी तीन गुण स्थान होने चाहिये। हेछिमछा-पुढवीणं जोइसि-वण-भवण सव्वइत्यीणं । क्योंकि भावस्त्री (द्रव्यमनुष्य) के असंयत सम्यग्दृष्टि चौथा पुरिणदरे ण हि सम्मो ण सासणे णारयापुणो ॥ गुणस्थान भी होता है।" परन्तु उपरोक्त विवेचनसे प्रकट है
-गोम्मटसार जीवकाँड गा० १२७। कि पण्डिनजीकी यह मान्यता प्रापत्ति एवं भ्रमपूर्ण है।
नारकियोम वहादा
तादी गई है, (
अवस्थाम
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२५०
अनेकान्त
[वर्ष ८
ममता
द्रव्यस्त्रीकी तरह भावस्त्रीके भी अपर्याप्त अवस्थामें चौथा भावस्त्रीका प्रकरण सिद्ध नहीं हो गुणस्थान नहीं होता है, यह ऊपर बतला दिया गया है। परिहार-यह प्राक्षेप सर्वथा असंगत है । हम ऊपर और गोम्मटसार जीवकाण्डकी निम्न गाथासे भी स्पष्टत:
कह पाये है कि सम्यग्दृष्टि भावस्त्रियोमें भी पैदा नहीं होता, प्रकट है:-. ..
तब वहां सूत्रमें 'असंजद ठाणे' पदके जोड़ने व होनेका प्रश्न हेट्टिमछप्पुढवीणं जोइसि-वण-भवण- सम्बइत्थीणं ही नहीं उठता । स्त्रीवेदकर्मको लेकर वर्णन होनेसे पुण्णदरे ण हि सम्मो ण सासणे गारयापुरणे ॥ भावस्त्रीका प्रकरण तो सुतगं सिद्ध हो जाता है।
गा० १२७ ॥ - प्राक्षेप - यदि ८६, ६०, ६१ सूत्रोंको भाववेदी अर्थात् 'तीयादिक छह नरक, ज्योतिषी व्यन्तर पुरुषके मानोगे तो वैसी अवस्थामें ८६ वे सूत्र में 'असंजद भवनवासी देव तथा सम्पूर्ण स्त्रियाँ | इनकी अपर्याप्त सम्माइट्रि-ट्राणे यह पद है उसे हटा देना होगा क्योंकि अवस्थामें सम्यक्त नहीं होता । भावार्थ-सम्यक्त्व सहित- भाववेदी मनुष्य द्रव्यस्त्री भी हो सकता है उसके अपर्याप्त
के द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी, व्यन्तर, अवस्थामें चौथा गुणस्थान नहीं बन सकता है। इसी भवनवासी देवो और समग्र स्त्रियोंमें उत्पन्न नहीं होता।' प्रकार ६० वे सूत्रमें जो. 'संजद-टाणे' पद है उसे भी हटा मापने 'भावस्त्रीके असंतसम्यग्दृष्टि चौथा गुणस्थान भी देना होगा। कारण, भाववेदी पुरुष और द्रव्यस्त्री के संयत होना और हो सकता है। इस अनिश्चित बातको सिद्ध गुणस्थान नहीं हो सकता है । इस लिये यह मानना होगा करने के लिये कोई भी पागम प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। कि उक्त तीनो सूत्र द्रव्यमनुष्य के ही विधायक है, भाव. यदि हो, तो बतलाना चाहिये, परन्तु अपर्याप्त अवस्थामें मनुष्यके नहीं ? भावस्त्रीके चौथा गुणस्थान बतलानेवाला कोई भी श्रागम परिहार-पण्डितजीने इस आक्षेपद्वारा जो श्रापत्तियाँ प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सकता, यह निश्चित है। बतलाई हैं वे यदि गम्भीर विचारके साथ प्रस्तुत
की गई होती तो पण्डिमजी उक्त परिणामपर न पहुंचते । आक्षेप-जब ६२ वा सूत्र द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका
मान लीजिये कि ८६ वें सूत्र में जो 'असंजदसम्माइद्वि-हाणे' निरूपक है तब उससे श्रागेका ६३ वां सूत्र भी द्रव्यस्त्रीका
पद निहित है वह उसमें नहीं है तो जो भाव और द्रव्य निरूरक है। पहला ६२ वाँ सूत्र अपर्याप्त अवस्थाका निरूपक है, दूसरा ६३ वाँ पर्याप्त अवस्थाका निरूपक है,
दोनोंसे मनुष्य (पुरुष) हे उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा इतना ही भेद है। बाकी दोनों सूत्र द्रव्यस्त्रीकं विधायक
गुणस्थान कौनसे सूत्रसे प्रतिपादित होगा ? इसीप्रकार मान
लीजिये कि ६० वे सूत्रमें जो 'संजद-टाणे' पद है वह हैं। ऐमा नहीं हो सकता कि अपर्याप्त अवस्थाका विधायक १२ वां सूत्र तो द्रव्यस्त्रीका विधायक हो और उससे लगा
उसमें नहीं है तो जो भाववेद और द्रव्यवेद दोनोंसे ही हुअा ६३ वा सूत्र पर्याप्त अवस्थाका भावस्त्रीका मान
पुरुष है उसके पर्याप्त अवस्थामें १४ गुणस्थानोंका उपपादन
कौनसे सूत्रसे करेंगे? अतएव यह मानना होगा कि ८६ लिया जाय ?
वां सूत्र उत्कृष्टतासे जो भाव और द्रव्य दोनोंसे ही मनुष्य . परिहार-ऊपर बताया जा चुका है कि ६२ वाँ (पुरुष) है, उनके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे गुणस्थानका सूत्र 'पारिशेष्य' न्यायसे स्त्रीवेदी भावस्थाकी अपेक्षासे है।
प्रतिपादक है और ६० वा सूत्र, जो भाववेद और द्रव्यवेद और ६३ वां सूत्र. भावस्त्रीकी अपेक्षास है ही। अतएव दोनोंसे परुष है अथवा केवल द्रव्य वेदसे पुरुष हे उसके उक्त प्राक्षेप पैदा नहीं हो सकता है।
पर्याप्त अवस्था में १४ गुणस्थानोंका प्रतिपादक है। ये __आक्षेप-जैसे ६३ वे सूत्रको भावस्त्रीका विधायक दोनों सूत्र विषयकी उत्कृष्ट मर्यादा अथवा प्रधानताके मानकर उसमें 'संजद' पद जोड़ते हो, उसी प्रकार ६२३ प्रतिपादक है, यह नहीं भूलना चाहिये और इस लिये सूत्र में भी भावस्त्रीका प्रकरण मानकर उसमें भी असंयत प्रस्तुत सूत्रोंको भावप्रकरणके मानने में जो श्रापत्तियाँ प्रस्तुत (असंजद-ठाणे) यह पद जोड़ना पड़ेगा। बिना उसके जोड़े की हैं वे ठीक नहीं हैं । सर्वत्र 'इष्टसम्प्रत्यय' न्यायसे
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किरण ६-७]
६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
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विवेचन एवं प्रतिपादन किया जाता है। साथमें जो विषय- होते हैं। वे निम्न प्रकार हैं:की प्रधानताको लेकर वर्णन हो उसे सब जगह सम्बन्धित (क) जिस कालमें षट्खण्डागमकी रचना हुई उम नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह कि ८६ वाँ सूत्र भाववेदी कालकी-अर्थात करीब दो हजार वर्ष पूर्वको अन्त:मनुष्य द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे नहीं है, किन्तु भाव और द्रव्य साम्प्रदायिक स्थितिको देखना चाहिये । जहां तक ऐतिमनुष्यकी अपेक्षासे है। इसी प्रकार १० वा सूत्र भाववेदी हासिक पर्यवेक्षण किया जाता है उससे प्रतीत होता है पुरुष और द्रव्यवेदी पुरुष तथा गौणरूपसे केवल द्रव्यवेदी कि उस समय अन्त:साम्प्रदायिक स्थितिका यद्यपि जन्म पुरुषकी अपेक्षासे है और चंकि यह सूत्र पर्याप्त अवस्थाका हो चुका था परन्तु उसमें पक्ष और तीव्र हो पाई थी। है इस लिये जिस प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्य और भाव कहा जाता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के कुछ ही पुरुषों तथा स्त्रियोंके चौथा गुणस्थान संभव है उसी प्रकार काल बाद अनुयायिसाधुत्रोंमें थोड़ा थोड़ा मत-भेद शुरू पर्याप्त अवस्थामें द्रव्यवेदसे तथा भाववेदसे पुरुष और हो गया था और संघभेद होना प्रारम्भ हो गया था, लेकन केवल द्रव्य वेदी पुरुषके १४ गुणस्थान इस सूत्रमें वणित वीरनिर्वाणकी सातवीं सदी तक अर्थात् ईसाकी पहली किये गये हैं।
शताब्दीके प्रारम्भ तक मत-भेद और संध-भेदमें कट्टरता इस तरह पण्डितजीने द्रव्यप्रकरण सिद्ध करनेके नहीं थाई थी। अतः कुछ विचारभेदको छोड़कर प्रायः लिये जो भावप्रकरण-मान्यता प्रापत्तियां उपस्थित जैनपरम्पराकी एक ही घरा (अचेल ) उस वक्त की है उनका ऊपर सयुक्तिक परिहार हो जाता है। तक बहती चली श्रारही थी और इसलिये उस समय श्रत: पहली दलील द्रव्य-प्रकरणको नहीं साधती । और षटखण्डागमके रचयिताको षटखण्डागममें यह निबद्ध इस लिये ६३ वाँ सूत्र द्रव्यस्त्रियोंके पांच गुणस्थानोका करना या जुदे परके बतलाना आवश्यक न था कि द्रव्यविधायक न होकर भावस्त्रियोके १४ गुणस्थानोका विधायक स्त्रियों के पाँच गुणस्थान होते हैं उनके छठे आदि नहीं है। अतएस ६३ सूत्र में 'संजद' पदका विरोध नहीं है। होते । क्योंकि :.कट था कि मुक्ति अचेन अवस्थासे होती
है और द्रव्य मनुष्यनियां अचेल नहीं होती- वे सचेल ऊपर यह स्पष्ट हो चुका है कि षटखण्डागमका
ही रहती हैं। अतएव सुतगं उनके सचेल रहनेके कारण प्रस्तुत प्रकरण द्रव्य-प्रकरण नहीं है, भाव-प्रकरण है।
पांच ही गुणस्थान सुसिद्ध है। यही कारण है कि टीकाकार अब दूसरी आदि शेष दलीलोपर विचार किया जाता है।
वीरसेन स्वामीने भी यही नतीजा और हेतु-प्रतिपादन उक्त २-यद्यपि षटूखण्डागममें अन्यत्र कहीं द्रव्यस्त्रियोंके
१३ वे सूत्रकी टीकामें प्रस्तुत किये हैं और राजवार्तिककार पांच गुणस्थानोका कथन उपलब्ध नहीं होता, परन्तु इससे
अकलङ्कदेवने भी बतलाये हैं। यह सिद्ध नहीं होता कि इस कारण प्रस्तुन ६३ वां सूत्र
ज्ञात होता है कि वीर निर्वाणकी सातवीं शताब्दीके ही द्रव्यस्त्रियोंके गुणस्थानोका विधायक एवं प्रतिपादक है।
पश्चात् कुछ साधुओ द्वारा कालके दुष्प्रभाव आदिसे क्योंकि उसके लिये स्वतंत्र ही हेतु और प्रमाणोंकी जरूरत
वस्त्रग्रहणपर जोर दिया जाने लगा था, लेकिन उन्हें इसका है, जो अब तक प्राप्त नहीं है और जो प्राप्त है वे निराबाध
, समर्थन प्रागमवाक्योसे करना आवश्यक था, क्योंकि उसके और सोपपन्न नहीं है और विचारकोटिमें हैं-उन्हींपर यहाँ
बिना बहुजनसम्मत प्रचार असम्भव था। इसके लिये विचार चल रहा है। अत: प्रस्तुत दूसरी दलील ६३ वें
उन्हें एक श्रागमवाक्यका संकेत मिल गया वह था सूत्र में संजद'पदकी स्थितिकी स्वतंत्र साधक प्रमाण नहीं है।
साधुत्रोंकी २२ परिषहोंमें आया हुआ 'अचेल' शब्द । हॉ. विद्वानों के लिये यह विचारणीय अवश्य है कि इस शब्दके आधारसे अनुदरा कन्याकी तरह 'ईषद् चेलः पखण्डागममें द्रव्यस्त्रियों के पांच गुणस्थानोंका प्रतिपादन अचेल:' अल्पचेल अर्थ करके वस्त्रग्रहणका समर्थन किया क्यों उपलब्ध नहीं होता? मेरे विचारसे इसके दो समाधान और उसे श्रागमसे भी विहित बतलाया। इस समयसे ही हो सकते है और जो बहत कुछ संगत और ठीक प्रतीत वस्तुत: स्पष्ट रूपमें भगवान महावीरकी अचेल परम्पराकी
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भनेकान्त
सर्वथा चेजरहित-दिगम्बर और अल्पचेल-श्वेताम्बर पलब्ध है। ये दो पारायें बन गई प्रतीत होती हैं । यह इस बातसे (ख) यह पहले कहा जा चुका है कि षट्खण्डागमका भी सिद्ध है कि इसी समयके लगभग हुए प्राचार्य उमा- समस्त वर्णन भावकी अपेक्षासे है । अतएव उसमें द्रव्यस्वामिने भगवान महावीरकी परम्पराको सर्वथा चेलरहित वेदविषयक वर्णन अनुपलब्ध है। अभी हालमें इस लेखको ही बतलानेके लिये यह जोरदार और स्पष्ट प्रयत्न किया लिखते समय विद्वद्वर्य पं.फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशा कि 'अचेल' शब्द का अर्थ अल्पचेल नहीं किया जाना बोधकमें प्रकाशित लेख पढनेको मिला । उसमें उन्होंने चाहिये-उसका तो नग्नता-सर्वथा चेलरहितता ही सीधा- खुद्दाबन्धके उल्लेखके आधारपर यह बतलाया है कि षट्मादा अर्थ करना चाहिए और यह ही भगवान महावीरकी खण्डागम भरमें समस्त कथन भाववेदकी प्रधानतासे किया परम्परा है। इस बातका उन्होंने केवल मौखिक ही कथन गया है। श्रतएव वहां यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिये नहीं किया, किन्तु अपनी महत्वपूर्ण उभय-परम्परा सम्मत कि षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके लिये गुणस्थान विधायक सूत्र सुप्रसिद्ध रचना 'तत्त्वार्थसूत्र' में बाईस परीषहोंके अन्तर्गत क्यों नहीं पाया ? उन्होंने बतलाया है कि 'षट्खण्डागमकी अचेल परिषहको, जो अब तक दोनों परम्पराओंके शास्त्रोंमें रचनाके समय द्रव्यवेद और भाववेद ये वेदके दो भेद ही इसी नामसे ख्यात चली आई, 'नाग्न्य परीषह' के नामसे नहीं थे उस समय तो सिर्फ भाववेद वर्णनमें लिया जाता ही उल्लेखित करके लिखित भी कथन किया और अचेल था । षट्खण्डागमको तो जाने दीजिये जीवकाण्डमें भी शब्दको भृष्ट और भ्रान्तिकारक जानकर छोड़ दिया। द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोका विधान उपलब्ध नहीं होता क्योंकि उस शब्दकी खींचतान दोनों तरफ होने लगी और इसलिये यह मानना चाहिये कि मूल ग्रन्थों में भावऔर उसपरसे अपना इष्ट अर्थ फलिन किया जाने लगा। वेदकी अपेक्षासे ही विवेचन किया जाता रहा, इस लिये इमारा विचार है कि इस विवाद और भ्रान्तिको मिटानेके मन ग्रन्थों अथवा सूत्रग्रन्योमें द्रव्यवेदकी अपेक्षा विवेचन लिये ही उन्होने स्पष्टार्थक और अभ्रान्त अचेलस्थानीय नहीं मिलता है। हाँ. चारित्रग्रन्थों में मिलता है सो वह 'नान्य' शब्दका प्रयोग किया। अन्यथा, कोई कारण ठीक ही है। जिन प्रश्नोंका सम्बन्ध मुख्यतया चरणानुयोगसे नहीं कि 'अचेल' शब्द के स्थानमें 'नाग्न्य' शब्दका है उनका समाधान वहीं मिलेगा, करणानुयोगमें नहीं।' परिवर्तन किया जाता जो कि अबतक नहीं था। अतएव पण्डितजीका यह सप्रमाण प्रतिपादन युक्तियुक्त है। दूसरी श्रा. उमास्वातिका यह विशुद्ध प्रयत्न ऐतिहासिकोंके लिये बात यह है कि केवलीषटखण्डागमपरसे ही स्त्रीमुक्ति निषेधकी इतिहासकी दृष्टिसे बड़े महत्वका है। इससे प्रकट है कि दिगम्बर मान्यताको कण्ठत: प्रतिपादित झेना श्रावश्यक प्रारम्भिक मूल परम्परा अचेल-दिगम्बर रही और स्त्र के हो तो सर्वथावस्त्रत्याग और कवलाहारनिषेधकी दिगम्बर अचेल न होने के कारण उसके पांच ही गुणस्थान सम्भव मान्यताओं को भी उससे कण्ठत: प्रतिपादित होना चाहिये । हैं, इससे आगेके छठे श्रादि नहीं।
इसके अलावा, सूत्रोंमें २२ परिषदोंका वर्णन भी दिखाना . जान पड़ता है कि साधुमि जब वस्त्र-ग्रहण चल चाहिये । क्या कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रकारकी तरह षटपड़ा तो स्त्रीमुक्तिका भी समर्थन किया जाने लगा; क्योंकि खण्डागमसूत्रकारने भी उक्त परीषहोंके प्रतिपादक सूत्र क्यों उनकी सचेलता उनकी मुक्तिमें बाधक थी। वस्त्र-ग्रहणके नहीं रचे? इससे जान पड़ता है कि विषय-निरूपणका बाद पुरुष अथवा स्त्री किसीके लिये भी सचेलता बाधक संकोच-विस्तार सूत्रकारकी दृष्टि या विवेचनशैलीपर निर्भर नहीं रही। यही कारण है कि प्राय जैन साहित्यमें स्त्री- है। अत: षटविण्डागममें भाववेद विवक्षित होनेसे द्रव्यमुक्तिका समर्थन अथवा निषेध प्राप्त नहीं होता । अतः स्त्रियोंके गुणस्थानोंका विधान उपलब्ध नहीं होता। सिद्ध है कि सूत्रकारको द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका ३-तीसरी दलीलका उत्तर यह है कि 'पर्यास' बतलाना उस समय आवश्यक ही न था और इसलिये शब्दके प्रयोगसे वहाँ उसका द्रव्य अर्थ बतलाना सर्वथा षटखण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका विधान अनु- भूल है। पर्याप्तकर्म जीव विपाकी प्रकृति है और उसके
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किरण ६-७
६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदम विरोष क्यों ?
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उदय होनेपर जीव पर्यातक कहा जाता है। अत: उसका माव षादिककाल)में स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नही स्त्पन होते? भी अर्थ है। दूसरे, वीरसेन स्वामीके विभिन्न विवेचने (इस शंकासे यह प्रतीत होना है कि वीरसेन सामीके सामने
और अकलकदेव के राजवात्तिकगन प्रतिपादनसे पर्शम कुछ लोगोंकी हुण्डावसर्पिणी कालमें स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्ट मनुष्यनियों के १४ गु-स्थानोका निरूपण होनेसे वहाँ 'पर्याप्त' उत्पन्न होनेकी मान्यता रही और इसलिये इस शंका द्वाग शन्दका अर्थ द्रव्य नहीं लिया जासकता है और इसलिये उनका मत उपस्थित करके उसका उननि. निराकरण किया 'पज्जतमणुस्मिणा' से द्रव्यस्त्रीका बोध करना महान् है। इसी प्रकारसे उन्होंने आगे द्रव्यस्त्री मुक्तिकी मान्यताको सैद्धान्तिक भूल है। मैं इस सम्बन्ध में अपने "संजद भी उपस्थिन किया है जो सूत्रकार के सामने नहीं थी और पदके सम्बन्ध में प्रकलंकदेवका महत्वपूर्ण अभिमत" उनके सामने प्रचलित थी और जिमका उनहोंने निराकरण शर्षक लेखमें पर्याप्त प्रकाश डाल चुका हूँ।
किया है। हुण्डावसर्पिणीकाल का स्वरूप ही यह है कि ' . . ४-हमें बड़ा आश्चर्य होता है कि 'संजद' पदके जिसमें अनहोनी बातें हो जायें, जैसे तीर्थकरके पुत्रीका विरोध में यह कैसे कहा जाता है कि 'वीरसेन स्वामीकी होना, चकरीका अपमान होना मादि। और इमलिये टीका उक्त सूत्रमें 'संजद' पदका समर्थन नहीं करती, उक्त शंकाका उपस्थित होना असम्भव नहीं है ।) वीरसेन अन्यथा टीकामें उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता।' सामी इस शंकाका उत्तर देते हैं कि हुएडावसपिणी क्योकि टीका दिनकर-प्रकाशकी तरह संजद' पदका कालमें स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि मत्पन्न नहीं होते। इमपर ममर्थन करती है। यदि सूत्रमें 'संजद' पद न हो तो टीका- प्रश्न हा कि इसमें प्रमाण क्या ? अर्थात् यह कैसे गत समस्त शंका-समाधान निराधार प्रतीत होगा । मैं यहाँ जाना कि हण्डावरिणी में स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्ट उत्पन्न टीकागत उन पद-वाक्यादिकोको उपस्थित करता हूँ जिनसे नहीं होते ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि इसी 'संजद' पदका प्रभाव प्रतीत नहीं होता, बल्कि उसका पागम-सूत्रवाक्यस उक्त बात मानी जाती है। अर्थात् समर्थन सष्टतः जाना जाता है। यथा
प्रस्तुत ६३ वे सूत्र में पर्यात मनुष्यनीके ही चौथा गुणस्थान 'हुण्डावरियां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः कन्नोत्पद्यन्ते. प्रतिपादित किया है, अपर्याप्त मनुष्यनीके नहीं, इससे साफ इति चेत्, नोरयन्ते । कुतःऽवसीयते ? अमादेव. जाहिर है कि सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी कालमें द्रव्य और र्षात । अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सिद्धयेत, भ व दोनों ही तरह की स्त्रियों में पैदा नहीं होते। अतएव इति चेत्, न; सबासस्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां सुतगं सिद्ध हे कि हुण्डावसर्पिणामें भी स्त्रियोंमें सम्पष्टि संयमानुपपत्तेः । भावसंयमस्तासां सवाससमप्यविरुद्धः, पैदा नहीं हते। इति चेत. न. तासां भाव संयमोऽस्ति. भागसंयमा- यहाँ हम यह उल्लेख कर देना आवश्यक समझते विनाभाविवस्त्रायुगदानान्यथानुगपत्तः । कथं पुनस्तासु हैं कि पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकोक्त 'स्त्री' पदका पतुदेशगुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्य- द्रव्यस्त्री अर्थ करके एक और मोटी भूल की है। 'लोष' गतो तत्सत्वाविराधात् । भावचेदो बादर षाय नो. पदका बिल्कुल सीधा सादा अर्थ है और वह है-'स्त्रियां'। पर्यस्तातिन तत्र चतुदशगुणस्थानानां सम्भव इति वहाँ द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकारकी स्त्रियोंका प्राण चेत्, न, अत्र वेदत्य प्राधान्याभावात् । गतिस्तु प्रधाना है। यदि केवल द्रव्य स्त्रियोंका ग्रहण इष्ट होता तो वीरसेन न साद्विनश्यति । वेदविशेषणायां गतौ न तान स्वामी अगले 'द्रव्यत्रीगा' पदकी तरह यहाँ भी दिव्यसम्भवन्ति, इति चेत्, न, तद्वचादेशमादधानमनुष्य- नष' पदका प्रयोग करते और जिससे सिद्धान्तविरोध गतो तत्सत्त्वाविरोधात्।'
अनिवार्य था, क्योंकि उससे द्रव्यस्त्रियों में ही सम्यग्दृष्टियोंके ___यहाँ सबसे पहले यह शंका उपस्थित की गई है कि उत्पन्न न होनेकी बात सिद्ध होती, भावस्त्रियों में नहीं। यद्यपि स्त्रियों (द्रव्य और भाव दोनों) में सम्यग्दृष्टि जीव किन्तु वे ऐसा सिद्धान्तविरुद्ध असंगत कथन कदापि नहीं मरकर उत्पन्न नहीं होते हैं। लेकिन हएडावसर्पिणी (श्राप कर सकते थे और इसी लिये उन्होंने व्यस्त्राका
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....:. अनेकान्त
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प्रयोग न करके 'स्त्रीष' पदका प्रयोग किया है जो सर्वथा द्रव्यस्त्रियोंके भक्ष सिद्ध होता है। यदि सूत्रमें 'संजद' पद न सिद्धान्ताम्रि और संगत है । यह स्मरण रहे कि हो, पाँच ही गुणस्थान प्रतिपादित हो तो यह द्रव्यस्त्रीमुक्तिमिडान्तमें भाषस्त्रीमुक्ति तो इष्ट है, द्रव्यस्त्रीमुक्ति इष्ट नहीं है विषयक हम प्रकारकी शंका, जो इसी सूत्रपरसे हुई है, किंतु सभ्यरष्ट-उत्ति-निषेध द्रव्य और भावस्त्रं दोनोंमें ही कदापि नहीं हो सकती) । इस शंकाका वीरसेन स्वामी उत्तर इष्ट है। अत: पंडितजीका यह लिखना कि ६३वे सूत्र में पर्याप्त- देते हैं कि यदि एसी शंका करो नो वह ठीक नहीं है अवस्यामें ही जब द्रव्यस्त्रीके, चौथा गुणस्थान सूत्रकारने क्योंकि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होनसे पंचम अप्रत्याख्यान बताया है तब टीकाकारने यह शंका उठाई है हिं द्रव्यस्त्री (संयमासंयम) गणस्थानमें स्थित है और इसलिये उनके पर्यायमें सम्यम्ह क्या उत्पन्न नहीं होते हैं ? उत्तरमें कहा संयम नहीं बन सकता है । इस उत्तरसे भी स्ष्ट जाना घया कि द्रव्यस्त्रीपर्यायमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते
जाता है कि सूत्रमें यदि पाँच ही गुणस्थानोंका विधान है। क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? हमके लिये श्रार्ष प्रमाण
होता तो वीरसेनरवामी द्रव्यस्त्रीमुक्तिका प्रस्तुत 'सवस्त्र' बनलाया है। अर्थात् श्रागममें ऐसा ही बताया है कि द्रव्य
हेतुद्वारा निराकरण न करते, उसी सूत्रको ही उपस्थित करते स्त्रीपर्यायमें सम्यग्दृष्टि नहीं जाता है"। "यदि १३ वा सूत्र
तथा उत्तर देते कि 'द्रव्यस्त्रियों के मोक्ष नहीं सिद्ध होता, भावस्तीका विधायक होता तो फिर सम्यग्दर्शन क्यों नहीं
क्योंकि इसी श्रागमसूत्रसे उमका निषेध है। अर्थात् प्रस्तुत होता, यह शंका उठाई ही नहीं जा सकती क्योंकि भावस्त्री
६३ वें सूत्रमें श्रादिके पाँच ही गुणस्थान द्रव्यस्त्रियोंके बतके तो सम्बग्दर्शन होता ही है। परन्तु द्रव्यस्त्रीके लिये शंका
___ लाये हैं छठे श्रादि नहीं।' बीरसेनस्वामीकी यह विशेषता उठाई है। अत: द्रव्यस्त्री का ही विधायक ६३ वां सूत्र है।
कि जब तक किसी बातका साधक श्रागम प्रमाण रहता है यह बात स्पष्ट हो जाती है।" बहुत ही स्खलित और भूलोसे ।
तो पहले वे उसे ही उपस्थित करते हैं, हेतुको नहीं, अथवा भग हश्रा है। 'संजद' पदके विरोधी विद्वान् क्या उक्त सो
उसे पीछे भागमक समर्थन में करते हैं। विवेचनसे सहमत है ? यदि नहीं, तो उन्होंने अन्य लेखोकी
शंकाकार फिर कहता है कि द्रव्यस्त्रियों के भले ही तरह उक्त विवेचनका प्रतिवाद क्यों नहीं किया ? मुझे
द्रव्यसंयम न बने भावसंयम तो उनके सवस्त्र रहनेपर भो प्राश्चर्य है कि श्री पं. वर्धमानजीजैसे विचारक तटस्थ विद्वान् -
बन सकता है उसका कोई विरोध नहीं है? इसका वे पक्षमें कैसे वह गये और उसका पोषण करने लगे? पं० - माखनलालजीकी भूलोका श्राधार भावस्त्रीमें सम्यग्दृष्टिको पुनः उत्तर देते है कि नहीं, द्रव्यस्त्रियोंके भावासंयमीउत्पत्तिको मानदा है जो सर्वथा सिद्धान्त के विरुद्ध है। भावसंयम नहीं; क्योकि भावासंयमका अविनाभावी वस्त्रादि सम्यग्दृष्टि न द्रव्यस्त्रीमें पैदा होता है और न भावस्त्र में का ग्रहण भावासंयमके बिना नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह हम पहले विस्तारसे सप्रमाण बतला पाये हैं । श्राशा यह कि द्रव्यस्त्रियोंके वस्त्रादि ग्रहण होनेसे ही यह प्रतीत हे पांडतजी अपनी भूलका संशोधन कर लेंगे । और तब वे होता है कि उनके भावसंयम भी नहीं है-भावासंयम ही प्रस्तुत ६३ वे सूत्रको भावस्त्री विधायक ही समझेगे। है. क्योंकि वह उसका कारण है। वह फिर शंकाकरता है
दूसरी शंका यह उपस्थित की गई है कि यदि इसी 'फिर उनमें चउदह गुणस्थान कैसे प्रतिपादित किये हैं ! प्रार्प (प्रस्तुत भागमसूत्र) से यह जाना जाता है कि हुण्डा- अर्थात् प्रस्तुत सूत्रमें 'संजद' शब्दका प्रयोग क्यों किया है ? बसर्पिणीमें त्रयोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते जो हमीर्घ इसका वीरसेनस्वामी समाधान करते हैं कि नहीं, भावस्त्री (प्रस्तुत आगम सूत्र) से द्रव्यस्त्रियों की मुक्ति सिद्ध हो जाय, विशिष्ट मनुष्यगति में उक्त चउदह गुणस्थानोंका सत्त्व प्रतियह तो जाना जाता है ? शंकाकारके सामने ६३ वाँ सूत्र पादित किया है। अर्थात् ६३ वें सूत्र में जो संजद' शब्द है 'संजद' पदसे युक्त है और उसमें द्रव्य अथवा भाषका स्पष्ट वह भावस्त्री मनुष्यकी अपेक्षासे है, द्रव्यस्त्री मनुष्यकी उल्लेख न होनेसे उसे प्रस्तुत शंका उत्पन्न हुई । अपेक्षासे नहीं। (इस शंका-समाधानसे तो बिल्कुल स्पष्ट हो यह समझ रहा है कि वे सूत्रमें 'संजद' पदके होनेसे जाता है कि प्रस्तुत ३३ सूत्रमें 'संजद' पद है और
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किरण ६-७)
६३ वें सत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
छठेसे चउदा तकके गुणस्थानीका बोधक है। और इसी नहीं है। इस सब शंका-समाधानसे सर्वथा स्म्ट हो जाता लिये वीरसेनस्वामीने उसकी उपपत्ति एवं संगति भावस्त्री है कि टीकाद्वारा ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका निःसन्देह मनुष्यकी अपेक्षासे बैठाई है, जैसी कि राजवातिककार समर्थन है और वह भावस्त्री मनुष्यको अपेक्षासे है, अकलंकदेवने अपने राजवात्तिकमें बैठाई है। यदि उक्त द्रव्यस्त्री मनुष्यकी अपेक्षासे नहीं। सूत्र में 'संजद' पद न हो तो ऐसी न तो शंका उठती और पं. मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकागत उल्लिखित न उक्त प्रकारसे उसका समाधान होता। दोनोंका रूप भिन्न स्थलका कुछ प्राशय और दिया है लेकिन वे यहाँ भी हो होता । अर्थात प्रस्तुत सूत्र द्रास्त्रियों के ही ५ गुणस्थानों स्खलित हए हैं। भार लिखते है:-'अब आगेकी टीकाका का विधायक हो और उनकी मुक्ति का निषेधक हो तो श्राशय समझ लीजिये, भागे यह शंका उठाई है कि इसी "अस्मादेव पार्षाद द्रव्यस्त्रीणां निवृत्ति: मिद्धयेत्” ऐसी भागमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? उत्तरमें शंका कदापि न उठनी, बल्कि 'द्रव्यत्रीणां निवृत्तिः कथं
टीकाकार श्राचार्य वीरसेन कहते है कि नहीं, इसी श्रागम्से न भवति" इस प्रकारसे शंका उठती और उस दशामें यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो 'अस्मादेव आर्षाद' और 'निवृत्ति: सिद्धयेत्' ये शन्द भूल सकती है। यहाँ पण्डितजीने जो 'इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्रीके करके भी प्रयुक्त न किये जाते । अतः इन शब्दोंक प्रयोगसे मोच सिद्ध होती है क्या ? और इसी श्रागमसे यह बात भी स्पष्ट है कि ६३ वे सूत्रमें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो सकती विधान न होकर भावस्त्रियोंके १४ गुणस्थानोंका विधान है है।' लिखा है वह 'अस्मा देवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्ति: और वह 'संजद' पदके प्रयोगद्वारा अभिहित है। और यह सिद्धयेत इति चेत् नः सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थिताना तो माना ही नहीं जा सकता है कि उपयुक्त टीकाम चउदा संयमानपपत्तेः। इन वाक्योंका प्राशय केसे निकला ? इनका गुणस्थानोंका जो उल्लेख है वह किसी दूसरे प्रकरणके सूत्र
सीधा श्राशय तो यह है कि इसी श्रागमसूत्रसे द्रव्यस्त्रियों के से सम्बद्ध है क्योंकि 'अस्मादेवार्षाद द्रव्यस्त्रीणां निवृत्ति:
मोक्ष सिद्ध हो जाय? इसका उत्तर दिया ग1 कि 'नहीं, सिद्धयेत्' शन्दों द्वारा उसका सम्बन्ध प्रकृन सूत्रसे ही है,
क्योंकि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होने के कारण पंचम अप्रत्याख्यान यह सुदृढ) हे।
गुणस्थान में स्थित है और इसलिये उनके संयम नहीं बन ___ शंकाकार फिर शंका उठाता है कि भाववेद तो
सकता है। परन्तु पण्डितजीने 'क्या' तथा 'इमी भागमसे वादग्कषाय (नौवें गुणस्थान) से श्रागे नहीं है और इस यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं हो लिये भावस्त्रीमनुष्यगतिमें चउदह गुणस्थानोंका संभव मकत है।' शब्दोंको जोड़कर शंका और उसका उत्तर नहीं है ? इसका वे उत्तर देते हैं कि 'नहीं. यहाँ योगमार्ग- दोनों ही सर्वथा बदल दिये हैं। टीकाके उन दोनों वाक्योंमें णासम्बन्धी गतिप्रकरणामें वेदकी प्रधानता नहीं है किन्तु न तो ऐसी शंका है कि 'इसी श्रागमसे द्रव्यस्त्री के मोक्ष गतिकी प्रधानता है और वह शीघ्र नष्ट नहीं होती-मनुष्य
11 सिद्ध होती है क्या?' और न उसका ऐमा उत्तर है कि
'इमी आगमसे यह बात भी मिद्ध हो जाता है कि द्रव्यस्त्रीके गातकर्मका उदय तथा सत्व च उदहवें गुणस्थान तक रहता
मोक्ष नहीं हो सकती है। यदि इसी श्रागमसूत्रमे द्रव्यस्त्रीके है और इसलिये उसकी अपेक्षा भावस्त्राके चउदह गुण
मोक्षका निषेध प्रतिरादित होता तो वीरसेनसामी 'सवासस्थान उपपन्न हैं। इसपर पुनः शंका उठी कि 'वेदविशिष्ट
स्वात्' हेतु नहीं देते, उमी श्रागमसूत्रको ही प्रस्तुत करते. मनुष्यगतिम वे चउदह गुगास्थान संभव नहीं है ?' इसका
जैमा कि मम्यग्दृष्टिकास्त्रियोंमें उत्पत्तिनिषेध में उन्होंने प्रागम समाधान किया कि 'नहीं, वेदरून विशेषण यद्यपि (नौवें
कोही प्रस्तुत किया है, हेतुको नहीं । अतएव पंडितजीका यह गुणस्थानमें) नष्ट हो जाता है फिर भी उपचारसे उक्त व्य
लिखना भी सर्वथा भ्रमपूर्ण है कि 'यदि ६३ में सूत्रमें पदेशको धारण करनेवाली मनुष्यगति में, जो चउदहा 'संजद' पद होता तो श्राचार्य बीरसेन इस प्रकार टीका गुणस्थान तक रहती है, चउदा गुणस्थानोंका सत्त्व विरुद्ध नहीं करते कि इसी प्रार्षसे द्रध्यस्त्रीके मोक्ष नहीं द्धि होती
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भनेकान्त
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है। क्योंकि वीरसेन स्वामीने यह कहीं भी नहीं लिखा कि आरके मतसे प्रस्तुत सूत्रमें उक्त चउदा गुणस्थानों या 'इसी श्रार्षसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नहीं सिद्ध होती है।' पण्डित संजद' पदका उल्लेख नहीं है । जब सूत्रमें 'संजद' पद है जीसे अनुरोध करूँगा कि वे ऐसे गलत प्राशय कदापि और उसके द्वारा चउदह गुणस्थानोंका संकेत (निर्देश) है निकालनेकी कृपा न करें।
तभी यहाँ द्रवस्त्री मुक्ति विषयक शंका पैदा हुई है और पण्डितजीका यह लिखना भी संगत नहीं है कि उसका यही समाधान किया गया है। यद्यपि पालागधिकार वरसेनस्वामीने 'संयम'पदका अपनी टीकामें थोड़ा भी जिकर श्रादिमें पर्याप्त मनुष्यनियों के चउदह गुणस्थान बतलाये नहीं किया। यदि सूत्र में 'संयम' पद होता तो यहाँ संयम' है तथापि वहाँ गतिका प्रकरण नहीं है, यहां गतिका प्रकपद दिया गया है वह किस अपेक्षासे है ? इससे द्रव्यस्त्रीके रण है और इसलिये उक्त शंका-समाधानका यहीं होना संयम सिद्ध हो सकेगा क्या ? श्रादि शंका भी वे अवश्य सर्वथा संगत है। अतः१ और चउदह १४ गुणस्थानोके उठाते और समाधान करते।'
उल्लेखका सम्बन्ध प्रकृत सूत्रसे ही है, अन्य सूत्रोंसे नहीं। हम पण्डितजीसे पूछते हैं कि 'संयम' पदका क्या अर्थ अतएव सष्ट है कि टीकासे भी ६३ सूत्र में 'संजद' पदका है ? यदि छठेसे च उदह तकके गुणस्थानोंका ग्रहण उसका समथन होता है और उसकी उसमें चर्चा भी खुले तौरसे अर्थ है तो उनका टोकामें स्पष्ट तो उल्लेख है । यदि द्रव्य- की गई है। स्त्रियों के द्रव्यसंयम और भावसंयम दोनों ही नहीं बनते है
५-अब केवल पाँचवीं दलील रह जाती हे सो उसके तब उनमें चउदह गुणस्थान कैसे बतलाये ? नहीं भावस्त्री सम्बन्धमें बहत कुछ पहली और दूसरी दलीलकी चर्चा में विशिष्ट मनुष्यगतिकी अपेक्षासे इनक' सत्व बनलाया गया कथन कर पाये।। हमारा यह भय कि 'इस सूत्रको हे-कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानाति चेत्, न, द्रव्यस्त्रीके गणस्थानोंका विधायक न माना जायगा तो इस भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतो तत्सत्त्वाविरोधात्'-यह क्या है? सिद्धान्त ग्रंथसे उनके पांच गुणस्थानोंके कथनकी दिगम्बर आपकी उपयुक्त शंका और समाधान ही तो है । शंकाकार मान्यता सिद्ध न हो सकेगी और जो प्रो. हीरालालजी कह समझ रहा है कि प्रस्तुत सूत्र में जो 'संजद' पद है वह रहे हैं उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुप्रंग अावेगा।' द्रव्यस्त्रियोंके लिये श्राया है और उसके द्वारा छठेसे च उदह सर्वथा व्यर्थ है, क्योंकि विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणों, हेतुत्रों, तक के गुणस्थान उनके बतलाये गये है । वीरसेन स्वामी संगनियों, पुरातवक्के अवशेषो. ऐतिहासिक तथ्यों श्रादसे उसकी इस शंकाका उत्तर देते हैं कि चउदा गुणस्थान सिद्ध है कि द्रव्यस्त्रीका मोक्ष नहीं होता और इसलिये श्वेभावस्त्रीकी अपेक्षासे बताये गये हैं, द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे ताम्बर मान्यताका अनुषंग नहीं पा सकता । अाज तो नहीं। इससे साफ है कि सूत्रमें संजद' पद दिया हुआ है दिगम्बरमान्यताके पोषक और समर्थक इतने विपुल रूपमें और वह भावनीकी अपेक्षासे है।
प्राचीनतम प्रमाण मिल रहे हैं जो शायद पिछली शतापण्डितर्जने आगे चलकर एक बात और विचित्र लिखी ब्दियों में मो न मिले होगे । पुरातत्वका अबतक जितना कि प्रस्तुत सूत्रको टीकामें जो चउदह गुणस्थानों और अन्वेषण हो सका है और भूगर्भसे उसकी खुदाई हुई है भाववेद आदिका उल्लेख किया गया है उसका सम्बन्ध इस उस सबमें प्राचीनसे प्राचीन दिगम्बर नग्नपुरुष मूर्तियां ही सूत्रमे नहीं है-अन्य सूत्रोंसे है-इसी सिद्धान्तशास्त्रमें उपनब्ध हुई है और जो दो हजार वर्षसे भी पूर्व की है। जगह जगह और १४ गुणस्थान बतलाये गये हैं। किन्तु परन्तु सचेल मर्ति या स्त्रीमति, जो जैन निग्रन्थ हो, कहींसे पण्डितजी यदि गम्भीरतासे 'अस्मादेव आर्षाद्' इत्यादि भी प्राप्त नहीं हुई। हाँ, दशवीं शताब्दीके बादकी जरूर वास्योपर गौर करते तो वे उक्त बात न लिखते। यह एक कुछ सचेलपुरुष मूर्तियाँ मिलती बतलाई जाती है सो उस साधारण विवेकी भी जान सकता है कि यदि दूसरी जगहों समय दोनों ही परमरात्रोमें कार्फ। मतमेद हो चुका था तथा
णस्थानोंकी संगति यहाँ बेठाई गई होती तो खण्डन-मण्डन भी प्रापसमें चलने लगा था । सच पूछा 'अस्मादेव पार्षाद्' वाक्य कदापि न लिखा जाता, क्योंकि
(शेष पृष्ठ २६१ पर)
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कायरता घोर पाप है ! बङ्गाल और विहारके वे नारकीय दिन !
(ले०-श्री अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय')
उन्हीं दिनोंकी बात है जब पूर्वी बंगाल के हिन्दू भेडोंकी को हवाई जहाज नहीं मिला था । उन्होंने बंगाल जाना ही तरह मिमयाते और गायोंकी तरह डकराते हुए काटे जा रहे सिक्ख जातिका अपमान समझा। थे। और वंगमहिलाएँ आतताइयोंके साथ चुपचाप उसी सब जानते हैं सिक्खके बालको हाथ लगाना, सिंह की तरह जा रही थीं, जिस तरह बेगारमें पकड़ी हुई गाय घास ऍटकोना है। बड़े बड़े तीसमारखों, बादशाहों, सेनापतियों चरने सिपाहीके साथ जाती हैं।
और पेशेवर शिकारियोंके शिकार-कौशल पदे । मगर कहीं यह मेरा डेढ वर्षका बच्चा एकाएक जोरसे चीख उठा, और पदन
पढ़ने में न आया कि सिंकी मुंडका वाल तो क्या पूछका बदहवास होता हा मेरे पास आया तो उसकी अंगलीमें बाल ही छुनेका किसीने साहस किया हो । जहाँ सिंहकी चींटा चिपटा हुआ था। मेरे छुड़ानेपर चिउँटा मर कर ही
मूंछ या पूँछके बाल उखेड़नेकी घटना पढ़नेमें नहीं पाई, उँगलीसे अलग हुआ और मरते-मरते भी खूनकी धार बहा
वहाँ यह भी कभी पदने या सुनने में नहीं पाया कि किसी गया।
विधर्मी ने गुरुद्वारेपर आक्रमण किया हो, सिक्ख महिलाको
छेड़ा हो या सिक्खको तंग किया हो! बच्चा तो काफी देर सुवककर खेलने लगा, पर मैं अपने
इसका कारण यही है कि प्रत्येक पातताई इसके परिमें खो गया। सोचा बंगालके हिन्दुओंसे तो यह चिउँटा ही
रामपे परिचित है । इसलिये बंगालके प्रधानमन्त्रीको मुसलाख दर्जे श्रेष्ठ है, जिसने बच्चों के हृदयपर यह अङ्कित कर
लमानोंके लिये चेतावनी देनी पड़ी कि 'मुसलमान सिक्खों दिया कि "बच्च ! हमको छेड़ना कुछ अर्थ रखता है।" और
को न छेड़े, वे हमारे हितैषी हैं।' क्यों नहीं, १८५७ के अब भूलकर भी वह उन्हें नहीं छेड़ता।
विद्रोहमें अंग्रेजोका पक्ष लेकर जो मुसलमानी सल्तनतका एक चिउँटेने मरकर अपनी जातिकी सुरक्षाका बचन उस चिराग बुझायें, मुस्लिम मिनिस्ट्रीके होते हुए शहीदशरारती लड़केसे ले लिया। यदि वीरत्वकी कदर मेरे पास गज मस्जिदार अधिकार जमालें, जिन्हा जैसे कल्लेदराज होती तो ऐसे जानिसार चिउंटेका स्मारक मुझे बनवाना को दान शिकन जवाब दें । वे तो भाई और हितेषी ? चाहिए था । परन्तु जो कौम, लोक-हित-युद्धमें जूझ मरनेवाले और वे हिन्द जो मसलमानी सल्तनतको समाप्त कर देने और परोपकारार्थ सर्वस्व न्योछावर करनेवाले अपने सपूतों वाले अंग्रेजोंसे १५० वर्षसे लोहा लेते रहे, अपना सर्वस्व की तालिका तक न रख सकी भला उस कौममें जन्म देशहित न्योछावर कर दें, जनसंख्याके अनुपातसे अधिक लेकर मैं ऐसा साहस कर सकता था ? कसी मूर्खतापूर्ण बात बगैर कुछ हाथ पाँव हिलाये अधिकार दें, दिनरात ठोदियों थी, जो सुनता वही हँसता।
में हाथ डालते रहें, चुपचाप लुटते और पिटते रहें, वे शत्रु ! चोटकी बात आई गई । जब मैंने सुना कि महात्माजी देशक, कायरताका यही पुरस्कार हिन्दुश्रीको मिलना हिन्दुओंकी रक्षाको पूर्वी बंगाल दौडे गये हैं, और उड़ीसाके चाहिये था । प्रधानमन्त्री उबियोंकी खोपड़ियाँ गिपने कलकत्ते पहुँचे हैं। सिन्धकी मिनिस्टरी सत्यार्थप्रकाशपर तो प्रतिबन्ध लगातभी खयाल पाया कि बंगालमें सिक्ख भी तो रहते हैं, येगी, पर सिक्खोंके उस ग्रन्थसाहब जिसमें जहाँगीर भी उनकी रक्षार्थ सिक्ख लीडर नहीं पहुंचे । क्या सिक्ख लीडरों परिवर्तन न करा सका और जिसका हर एक अनुयायी दैनिक
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अनेकान्त
[वर्ष ८
प्रार्थनामें 'उठ गई सभा म्लेच्छकी' आदि कहकर मुसलमानों दोपाये भेड़-बकरियोंसे बदतर होगये हैं। वर्ना क्या कारण है के प्रति घृणा प्रगट करता है-प्रतिबन्ध तो क्या विरोधमें कि जो स्त्री एक बार अपहृत करली गई, वह कभी वापिस एक शब्द भी न कह सकी। इसका कारण निम्न उदाहरण न पाई और वह पातताइयों में घुलमिल एकाकार हो गई। से समझ में आयेगा।
और उन्हींको सन्तान अपनी माताओंके अपमानका बदला एक बार एक देशभकने व्याख्यान देते हुए कहा था- आतताइयोंसे लेने के बजाय निरन्तर हिन्दुओंकी जान-मालके
'चीनियों और जापानियोंकी शमोशयाहतमें यूं तो घातक बने रहते हैं। बकौल महात्मा गाँधी 'भारतीय मुसलकाफी फर्क होता है, पर हिन्दुस्तानियों के लिये यह मुश्किल मान ११ फीसदी ऐसी ही देवियोंकी सन्तान हैं।' है। उनकी पहचानका सरल उपाय यह है कि किसी चीनी सन २४ में जब साम्प्रदायिक उत्पात हो रहे थे एक के पाँवमें पीछेोठं.कर मार दी जाये तो वह पलटकर ठोकर हिन्दू नेताके यह कहनेपर कि मुसलमानी सल्तनतके जमाने में मा नेका कारण पूछेगा और जापानी ठोकरका जवाब ठोकरसे हिन्दुओंको बलात मुसलमान बनाया गया।' इसन निज़ामी दे चुकनेपर वजह दर्याफ्त करेगा । असावधानीके लिये ने कहा था कि ऐसा कहना हिन्दुओंका अपमान करना है। क्षमा मंगनेपर तो क्षमा करेगा, जानबूझकर शसारत की गई जो हिन्दू मुसलमानको छुअा पानी पीनेसे मरना बेहतर समतो फिर दुबारा प्रहार करेगा । तभी मेरे मुँहसे निकला झते हैं वह जबरन मुससमान क्योंकर बनाये जा सकते हैं। कि कोई यूरोपियन हिन्दुस्तानमें हिन्दू-मुसलमानको भी और यह जबर्दस्ती बनियों, ब्राह्मणोंपर तो मानी भी जा इसी तरह बाबासानी पहचान सकता है। हिन्दू ठोकर लगने सकती है, पर बे राजपूत जो बात-बातमें तलवार निकाल पर पूछेगा 'श्रापके चोट तो नहीं लगी, क्षमा करना ।' लेते थे, जबरन कैसे मुसलमान बनाये जा सकते थे। मुसलमान ठोकर लगानेवालेको कमजोर देखेगा तो हमला और नौ मुसलमानोंमें अधिकांश संख्य। राजपूतों की ही है करेगा, बलवान देखेगा तो ऊपरने हँसता हुया और मनमें ये कासके बाहर है कि वे कभी जबरन भी अपना धर्म खो गालियां देता हुश्रा बढ़ जायगा। सिक्ख इसी तरहके बल- सकते थे। वान लोगोंमें हैं।
बात चाहे हसन निजामी साहबने एक दम झूठ कही, जिन बंगलियोंने कलकरोसे उठकर अंग्रेजोंकी राजधानी पर हमारे पास इसका जवाब नहीं है। नेता कहते हैं-बंगदिल्ली फेंक दी। बंग भंगका नशा उतार कर जिन्होंने जूतेसे नारि को सीताका श्रादर्श उपस्थित करनेको । मै पूछता हूं नाक काटी, चटगांवके शस्त्रागारको लूटकर अंजोंके धाक सीताका वह कौन-सा श्रादर्श था, जो हिन्दु-ललनाएँ अमल की बुनियाद सु! दी, समूचे भारतमें बमों और पिस्तौलोंका में नहीं ला रही हैं। हिन्दु-नारियां तो आज उसी आदर्शपर आतंक फैलाकर शक्रिशाजी गवर्नमेण्टको छासी दहला की चल कर अपनी सन्तानका भक्षण कर रही हैं। और जिसके एक सपून 'सुभा' ने नाकों चने चबा दिये, सीताको हरण करनेके लिये रावण साधुका वेश बनाकर श्राज उन्हीं बंगवारों की माताएँ, बहनें और पुत्रियों क्यों प्राश तो वही मीता जो पर-पुरुषसे एकान्त में बात करना आतताइयों के बरोंमें चुपचाप आंसू बहा रही हैं । बलवान पाप समझती थी और अनेक घास दासियोंके समीप रहनेपर मार तो सकता है, पर जबरन बांधकर नहीं रख सकता। भी अशोक वाटिकामें तिनकेकी श्रोट देकर रावणको प्रत्युत्तर
मनुष्य तो मनुष्य, भेड़-बकी भी जबरन बाँधकर नहीं देती है उसी सीताने निर्जन बनमें एक पर-पुरुषसे बात करने रखी जा सकती, उनके मनमें ही जब दासता समा जाती का श्रा:र्श उपस्थित किया ! लक्ष्मणको शंकित रष्टिसे देखने है, तभी वह बँधी रहती है, अन्यथा वह ऐसा शोर मचाती वाली सीता उसकी बनाई रेखाके बाहर पाई । और रावण हैं कि बाँधनेवाला तो क्या, उसके पड़ौसियोंकी भी नींद के हरण करनेपर मौन सत्याग्रहका श्रादर्श उपस्थित किया। हराम हो जाती है। मनुष्य तो आखिर मनुष्य है। बचपनसे ग्रही आदर्श तो आज हिन्दू मारियां उपस्थित कर रही हैं सुनते आये हैं कि चौपाया तो बाँधकर रखा भीजा सकता है, फिर भी उन्हें उपदेश दिया जाता है! दोपाया नहीं। मगर अब तो इसके विपरीत हो रहा है। सीता शरीरसे अवश्य निर्बल थी, परन्तु उसके पास
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किरण ६-७]
कायरता घोर पाप है
[२५६
दांत और नख दोनों थे, चाहती तो रावणकी मांख बचाकर, होती और तब आतताई उनके पास मानेमें उसी तरह नोचकर काटकर, छीना-झपटी करके देर अवश्य लगा सकती भय खाते जैसे छान्दरके पास मानेमें सांप भय खाता है। थी। तनिक भी इस तरहका साहस दिखाया होता तो शायद एक बार बनारस गया तो विश्वनाथजीका मन्दिर इतनेमें राम ही पा जाते। वनोंसे भील वगैरह ही रक्षार्थ दिखाते हुए पण्डा वहां ले गया जहां औरंगजेब द्वारा हिन्दू श्रा जाते और कोई भी न पाता तो एक श्रा.शं तो बन मन्दिर तोड़ कर बनवाई हुई मस्जिद प्राज भी जाता ताकि गुड़िों की तरह हिन्द नारियोंको उठाकर कोई हिन्दु जातिके सीनोंपर मेखकी तरह जमी हुई मौजूद नहीं ले जा सकता । परन्तु सीता तो उस कायरताबह- है। पण्डेने एक कृथा दिखाकर कहा, 'धर्मावतार ! यह रूपिणी के चकमे में आगई जो हमेशा अहिंसाकासा रूप बना- वही कुया है जिसमें बाबा विश्वनाथ मुसलमानों के छूने के कर लोगोंको बुद्विभ्रष्ट करके आपदायोंमें डालती रहती है। भयसे कूद गये थे और आज तक वहीं मौजूद हैं। मैंने यदि उसके घरेमें सीता न आई होती तो सीता लंकामें कुढ़कर कहा 'और तुम लोग उनके साथ क्यों नहीं गये, क्या जाकर भी अवसर पाकर रावएका बध कर सकती थी, महलों तुम्हें मुसलमानोंके जानेका भय नहीं था।' भला जिस में आग लगाकर अपहरणका स्वाः चखा सकती थी। पर, जातिको यह पाठ पढ़ाया जाता हो कि उनके ईश्वर भी नहीं वह गायकी तरह बधिकके कब्जे में रहकर केवल प्रांम् धातताइयोंसे भागते रहते हैं वह उनका डटकर कैसा बहाती रही।
मुकाबिला करेंगे, सोचनेकी जरूरत नहीं। एक हिन्दु हैं __ मगर सीताका यह श्रादर्श जटायुको पसन्द न पाया जो हजारों मन्दिरोंकी बनी मस्जिदोंको बड़े चावसे अपने शाय। इसीलिए सममादार लोगोंने इसे पक्षी तक कह दिया है। महमानीको दिखाते हैं और एक सिक्ख . हैं जो मुस्लिम जो भी हो, यन्त्र अन्याय उसके पुरुषत्वके लिये चुनौतीथा।यू मिनिस्ट्रीके होते हुए भी मस्जिदको गुरुद्वारा बना बैठे। सीतारामसे कोई राग और रावणसे उसे द्वेष न था । उसके जब हम चलें तो साया भी अपना न साथ दे। सामने तो प्रश्न था किधर्म क्या है और अधर्म क्या है ? चुप- जब वह चले तो जमीन चले श्रास्मां चले ॥-जलील चाप आतताईके अन्यायको सहन करना उसने श्रधर्म, और सीताका दूसरा श्रादर्श ये था कि वे साध्वी रहीं। प्राप्तताईको दण्ड देना, अत्याचारके विरोधमें उठना, नारीको श्राज भी हिन्दू नारियाँ उसी आदर्शपर चल रही हैं। परन्तु रक्षा करना धर्म समझ कर वह रावणसे भिड़ गया! सीता और आजकी नारियोंके युगमें बहुत बड़ा अन्तर ये भिड़नेसे पूर्व जटायु भी यह जानता था कि हाथी और है कि रावण बलात्कारी नहीं था। भाजके मातताई बलामच्छरकी लड़ाई है ? सीताको छडाना तो दर किनार अपना कारी हैं। रावण बलात्कारी होता तब इस श्रादर्शकी भी सफाया हो जायगा । फिर भी वह जाँबाज रावणपर रूपरेखा क्या हुई होती, कुछ कहा नहीं जा सकता। टूट पड़ा। मरा तो, पर रावणको क्षत विक्षत करके। बंगालके उपद्रवोंपर जिन्होंने कहा था कि हिन्दु-मुस्लिम पुरुषोंको यह पाठ पढ़ा गया कि खबरदार ! आततायी झगड़े ठीक नहीं। ताली दोनों हाथसे बजती हैं, अत: दोनों कितना ही बलवान हो उसके अत्याचारका विरोध अवश्य सम्प्रदायोंके लोगोंको शांत रहना चाहिये । इस शरारत भरे करना । श्राज शायद जटायुके उस पाठका ही परिणाम है कन्यसे बदनमें श्रा-सी लग गई। घरको डाकू लूटते कि लोग शांति शान्ति क्षमा-क्षमाके शोरमें भी अध्याचारका . रहें और रोते बिलखते घरवालोंको यह कहकर साधना विरोध करके अपना रन बहाकर जटायुका तर्पण करते दी जाय कि 'भाई अापसमें मत लदो, मेल मिलापसे रहो।' रहते हैं।
पूछता हूँ डाकुओका क्या बिगड़ा जो हाथ लगा ले भागे. यदि सीताने भी हरण होते हुए समय बल-प्रयोग मकान मालिक लुट गया और झगडालू भी करार दिया किया होता या लंकामें जाकर रावणको सोते हुए बध कर गया सो मुफ्तमें। दिया होता या महलोंमें भाग लगा दी होती तो निश्चय यह तो वही बात हुई जैसे कई मूर्ख पत्रकार बैलगाड़ीही श्राज हिन्दु-नारियोंके सामने एक निश्चित रूप रखा हुई कोनसे किरचा-किरचा होती देख रेल-बैलगादी भिना
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२६०
अनेकान्त
[वर्ष ८
लिख देते हैं।
कर दिये गये। बिहारके शहीदोंके लिये कहा जा रहा है:क्या खुब?
'जुबेंगे हर बरस मेले शहीदोंके मजारोंपर' जब कोई जुल्म नया करते हैं फर्माते हैं।
और पूर्वी बङ्गालके लिए:- . अगले पक्रोंके हमें तर्जे सितम याद नहीं॥
'जल मरे परवाने शमापर कोई पुसा न था।'
-चकबस्त मैं भी इस वक्रज्यका कायल हूँ, जो लबते हुए मरता बंगालकी प्रतिक्रिया स्वरूप जटायुका आदर्श समझने है सचमुच बह शहीद होकर वीर-गतिको प्राप्त होता है। धाले विहारमें उपद्रव हुए तो जिन्दा फौरन पैतरा बदल- एक ऐतिहासिक घटना है :कर बोले, 'नहीं, बाज़ दफा एक हाथ दूसरे हाथपर अपने औरंगजेबके हक्मपर जब उसके भाई दाराको बधिक आप पड़कर ताली बजा देता है।' पूर्वी बङ्गालमें हिन्दुओंका लोग करल करने पहुंचे तो दारा उस समय चाकूसे सेव छील नाश कर दिया गया, तब भी जिन्हाकी नजरोंमें उस तबाहीमें रहा था। बधिकोंको देखकर वह चाकू लेकर खड़ा हो गया स्वयं बङ्गाली हिन्दुओं ही का दोष था। और बिहारमें पटने, और बोला-'श्राश्रो जालिमों ! तैमूरका वंशज कुत्तोंकी बिहार शरीफ वगैरहमें महीनों पहलेसे मुसलमानोंकी तैयारी तरह न मरकर अपने पूर्वजोंकी तरह लबते हुए मरेगा।' हो रही थी, तो भी वहाँ केवल हिन्दुओंका अपराध धा। दारा घायल करता हुआ मर गया। हपारे शास्त्रों और मुसलमान तो चाहे बङ्गालके हों या बिहारके बिचारे सीधे इतिहासमें इस तरह के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। मगर साधे हैं। क्या खूब 'दूसरेके घरमें लगे तो आग, अपने उनको इस तरहसे ढक या विकृत कर दिया गया है कि यहाँ हो तो बैसन्धर'
कुछ भी तो स्पष्ट नहीं मालूम होता । और जो हमारे और जबानकी सफाई देखिये मुस्लिमलीगी 'पत्र डान' उपदेशक या दार्शनिक हैं वे न जाने कहाँ से ऐसे कायरताके लिखता है-बिहारमें मुसलमान घायल बहुत कम हुए हैं, उदाहरण निकाल लाते हैं कि मानो इन्होंने अवतारही मरने वालोंकी तादाद कयाससे बाहर है। क्योंकि बिहारके हमारा नाश करनेको लिया है। मुसलमान जालिम हिन्दुओंका मुकाबला करते हुए इस्लामपर महात्मा गाँधीने पूर्वी बङ्गालके अपहरण की घटनाओंशहीद हए हैं। इन मरने वाले मुसलमानोंने हमें बतला पर वक्तव्य दिया कि जबर्दस्ती परिवर्तनसे तो जहर खाकर दिया है कि इस्लामपर इस तरह जान कुर्बान किया करते मर जाना अच्छा है ? क्यों जहर खा लेना अच्छा है ? यही हैं। एक एक मुसलमान हजारों हिन्दुओंका मुकाबला करके तो आतताई चाहते हैं। काफिरोंसे पाक 'पाकिस्तान' और शहीद हुआ है।
उनकी धन दौलत । जहर खानेके बजाय उनके घरमें घुसअब देखिये मरनेवालोंका भाग्य । बिहार र जो हिन्दु. कर वह कृत्य क्यों नहीं करना चाहिए, जो रावणके घर मोको मारते-पखारते मरे वह तो सब शहीद हो गये। सीताको करना था। मगर बङ्गालके हिन्दु बगैर किसी मुसलमानको मारे उनके बिल्लीके भयसे कबूतर अांखें बन्द करले या श्रात्महाथसे मर गये वह जिबह हुए । मरे दोनों ही, मगर मृत्यु- हत्या बिल्लीका दोनों तरह लाभ है ! वह बाजकी तरह मृत्युमें अन्तर है। वे युद्धमें मरकर वीर-गतिको प्राप्त हुए, झपट कर उसकी ऑख्ने जबतक नहीं फोड़ देता खतरे में ये कसाइयों के हायसे जिबह होकर कीड़े-मकोड़ोंमें शामिल ही रहेगा।
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किरण ६-७]
बङ्गालके कुछ प्राचीन जैनस्थल
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(पृ० २५६ का शेषांश)
। (३) 'पर्याप्त शन्दका द्रव्य अर्थ विवक्षित नहीं है जाय तो उस समय दोनों ही परम्पराएँ अपनी अपनी उसका भाव अर्थ विवक्षित है। पर्याप्तकर्म जीतविपाकी प्रगति करने में अग्रसर थीं । अतः उस समय यदि सचेल प्रकृति है और उसके उदय होनेपर ही जीव पर्याप्तक कहा पुरुष मूर्तियां भी निर्मित कराई गई हो तो आश्चर्य ही नहीं जाता है। है। दुर्भाग्यसे आज भी हम अलग है और अपने में अधिक- (४) पं० माखनलालजी शास्त्रीने जो भावस्त्र में तम दूरी ला रहे है और लाते जा रहे हैं। समय सम्यग्दृष्टिके उत्पन्न होनेकी मान्यता प्रकट की है वह स्वलित आये और हम तथ्यको स्वीकार करें, यही अपनी भावना और सिद्धान्तविरुद्ध है। स्त्रीवेदकी उदय व्युग्छित्ति दूमरे है। और यदि सम्भव हो तो हम पुन: आपसमें एक हो जावें ही गुणस्थानमें हो जाती है और इसलिये अपर्याप्त अवस्थामें तथा भगवान महावीरके अहिंसा और स्याद्वादमय शासन- भावस्त्री चौथा गुणस्थान कदापि संभव नहीं है। . को विश्वव्यापी बनाये।
(५) वीरसेन स्वामीके 'अस्मादेवार्षाद' इत्यादि कथनसे उपसंहार
सूत्रमें 'संजद' पदका टीकाद्वारा स्पष्टतया समर्थन होता है। उपरोक्त विवेचनके प्रकाश में निम्न परिणाम सामने - (६) द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका कथन मुख्यतया चरणापाते हैं :
नुयोगसे सम्बन्ध रखता है और षटखण्डागम करणानुगोग (१) षट्खण्डागममें समय कथन भावकी अपेक्षासे है, इसलिये उसमें उनके गुणस्थानोंका प्रतिपादन नहीं किया गया है और इसलिये उसमें द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंकी किया गया है । द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध विभिन्न शास्त्रीय चर्चा नहीं पाई।
प्रमाणों, हेतुत्रों, पुरातत्वके अवशेषों, ऐतिहासिक तथ्यो . (२)६३वे सूत्र में संजद' पदका होना न श्रागमसे विरुद्ध प्रादिसे सिद्ध है और इसलिये षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियों के है और न युक्तिसे । बल्कि न होने में इस योगमार्गणा गुणस्थानोंका विधान न मिलनेसे श्वेताम्बर मान्यताका सम्बन्धी मनुष्यनियों में १४ गुणस्थानोंके कथनके प्रभावका अनुषंग नहीं प्रासकता। प्रसंग, वीरसेन स्वामीके टोकागत संजद पदके समर्थनकी आशा हैसूत्रमें वें 'संजद' पदका विरोध न किया असंगति और राजवातिककार प्रकलंकदेवके पर्याप्त. जायगा और उसमें उसकी स्थिति अवश्य स्वीकार की मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंको बतलानेकी प्रसंगति आदि जाएगी। कितने ही अनिवार्य दोष सम्प्राप्त होते हैं।
वीरसेवामन्दिर, ता. ६-६-१६४६ |
बंगालके कुछ प्राचीन जैनस्थल (ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.)
> =
एनल्प श्राफ दी भंडारकर भोरियंटल रिसर्च इस्टी-व्य. वरन कुछएक विशेष महत्वपूर्ण स्थानोंके इतिहासपर ही की जिलद नं० २६का भाग ३-४ (संयुक्त) अभी हालमें संक्षिप्त प्रकाश डाला है। ही प्रकाशित हुमा है। उसके पृष्ठ 100 पर विमका खेखपरसे, प्राचीन काल में निम्न लिखित स्थानों के चरण लाका एक लेख "बंगालके प्राचीन ऐतिहासिक साथ जैनधर्मका सम्बन्ध प्या होता है:स्थम" नामका प्रकट हुआ है। इस लेखमें विद्वान देखकने पहाइपरवंगदेशके सभी प्राचीन स्थानोंका विवेचन नहीं किया है, इस मगरके ध्वंसावशेष बंगालके शिले राजशाहीमें,
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भनेकान्त
[वर्ष ८
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बी. ए. रेलवेद जमालगंज स्टेशनसे सीन मील पश्चिमकी किंपुरुषों गंधवों, विद्याधरों, किचरों मादिकी मूर्तियाँ भी अं.र अवस्थित है। इसका प्राचीन नाम सोमपुर था। बंगालके खुदी हुई मिलती है। पाल नरेशोंके समय, 5 वीं शताब्दी ईस्वीमें, यहाँ बौद्ध- सुन्दरबनविहार तथा तारादेवी मन्दिर निर्माण हुए बताये जाते हैं। सुन्दरवनका धन्य प्रदेश, प्राचीनकालमें समतट अथवा
रोकी दीवारोंपर पंचतन्त्र व हितोपदेशकी बागडी (यात्रतटी) राज्यमें सम्मिलित था।सन की सातवीं कथाएँ, रामायण और महाभारतके दृश्य तथा कृष्ण राधा शताब्दीमें, चीनी यात्री झेनसांगने इस 'समतट' प्रान में मादिकी मूर्तियों भी अंकित हुई पाई जाती हैं।
अनेक जैनमन्दिर देखे थे। किन्तु अभी तक उन प्राचीन ५वीं "शताब्दी स्वीमें इस स्थान पहाडपुर अपर मन्दिरोंका वहाँ कोई चिन्ह नहीं मिला है। नाम सोमपुरमें एक विशाल जैन मन्दिर अवस्थित था। कुछ चित्रित इंट, खण्डित पाषाण मूर्तियोंके टुकड़े, महास्थानगढ़
।
स्कन्दगुप्त व कुशान राजा हुविकके सिके आदि फुटकर इसके ध्वंसावशेष माधुनिक कस्बे बोगराने ७ मील वस्तुएँ उपलब्ध हुई है। उत्तरकी ओर पाये जाते हैं। कनिंघम साहबने इस स्थानको ताम्रलिप्तिप्राचीन नगर पुणवर्धनके रूपमें चीन्हा था, जिसका कि इसका प्रचलित नाम तामलुक है और यह स्थान नाम एक मौर्यकालीन जैन शिलालेखमें भी मिलता है। मिदनापुर जिलेमें अवस्थित है। महाकाव्यों, पुराणों तथा ४थीसे ६ठी शताब्दी ईस्वी तक यह स्थान गुप्त-साम्राज्यके बौद्ध प्रन्यों में इस नगरके उल्लेख पाये हैं। ४ थी शताब्दी एक प्रधान सबेकी राजधानी था। वीं शताब्दीमें चीनी ईस्वीपूर्वसे १२ वीं शताब्दी ईस्वी तक यह स्थान एक यात्री हुनसांग यहाँ प्राया था, और १२ वीं शताब्दीके प्रसिद्ध बन्दरगाह तथा व्यापारका भारी केन्द्र रहा था। पश्चात यह नगर गौणताको प्राप्त होगया।
चीनी यात्रियों-फ्राधान, इत्सिंग तथा नसांगने यहाँकी .', इस स्थानसे जो पुरातत्त्व-संबंधी महत्वपूर्ण वस्तएँ यात्रायें की थीं। प्राप्त हो हैं उनमें एक प्राचीन खरिडत जैन मूर्ति भी . यद्यपि विद्वान लेखकसे यह बात छुट गई है, परन्तु है। (यह स्थान अन्तिम श्रतकेवली भद्रवाह स्वामीकी प्राचीन जैन साहित्यमें भी इसी ताम्रलिप्ति (ताममिति. जन्मभूमि थी)।
तामलिस्तिका, तामखिन्तिपुर) नगरके उल्लेख अनेक स्थलोंमैनामती तथा लालभाईकी पहाड़यां-
में आये हैं; जैसेकि प्राचार्य हरिषेणके वृहत् कथाकोषको ये पूर्वी बंगालके तिप्पेरा जिलेमें, कमिशा नगरसे कई कथाओंमें, जैनश्वेताम्बर भागोंमें, प्राचीन कालके ६ मील पश्रिमकी ओर स्थित है। इस स्थानका प्राचीन २५३ देशोंकी सूचीके अन्तर्गत वंगदेशकी राजधानीके रूप में, नाम (७वीं की शताब्दी स्वीमें) पहिरा था और यह इत्यादि । इन उलेखोंसे यह स्पष्ट सूचित होता है कि प्रसिद्ध 'समतद' प्रान्तकी राजधानी थी। उस काल में बर्मा प्राचीन कालमें जैनधर्मके साथ भी इस स्थानका विशेष और अराकानसे भी इस स्थानका गहरा सम्बन्ध था। संबंध रहा है। यहाँके राजा चन्द्रवंशी थे। पाख्यायिकाओंके प्रसिद्ध-सिद्ध- .. चन्द्रनाथराजा गोपीचन्द्रकी माता तथा गुरु गोरखनाथकी चेली रानी चिटगाँव जिलेमें सीताकुडके निकट 'चन्द्रनाथ' और मैनावतीके नामपर ही इस स्थानका नामकरण हुआ 'सम्भवनाथ' के प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर हैं। इस समय ये प्रतीत होता है।
दोनों मन्दिर शिवके माने जाते है और इस प्रदेशमें शैवमतडा. खॉ महाशयके शब्दों में-"मैनावती स्थानसे का जोर है। किन्तु उपर्युक दोनों माम क्रमसे तथा प्राप्त जैन तीर्थकरकी पाषाणमयी दिगम्बर प्रतिमा ऐसारे जैन तीर्थरोंके है , जिनकी कि अनेक प्राचीन मूर्तियाँ सूचित करती है कि इस प्रान्त में जैनधर्मका विशेष प्रभाव भी मिलती हैं। क्या आश्चर्य है यदि मूलमें इन जैनरहा है।" यहाँक मन्दिरोंके खंबरोंकी दीवारोंपर यों, तीर्थयारोंसे ही उन स्थानका संबंध रहा हो।
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चारिष्यका आधार [संयम और निष्ठा ]
(ले० - श्री काका कालेलकर)
अपने जीवनको शुद्ध और समृद्ध बनानेकी साधना जिन्होंने की है, वे अनुभवसे कहते आये हैं कि " श्राहारशुद्धो सम्पवि:" इस सूत्र के दो अर्थ हो सकते हैं, क्योंकि सबके दो माने हैं--शरीरका संगठन और चारित्र्य । अगर आहार शुद्ध है, याने स्वच्छ है, ताजा है, परिपक्च है, सुपाच्य है, प्रमाणयुक्त है और उसके घटक परस्परानुकूल हैं तो उसके सेवनसे शरीर के रक्त, मज्जा, शुक्र आदि सब घटक शुद्ध होते हैं। वात, पित्त, कफ धादिकी मध्यावस्था रहती है और सप्तधातु परिपुष्ट होकर शरीर निरोगी, सुदृढ, कार्यक्षम तथा सब तरहके श्राघात सहन करनेके योग्य बनता है और इस आरोग्यका मनपर भी अच्छा असर होता है। "आहारशुद्धो शुद्धिः” का दूसरा और व्यापक अर्थ यह है कि आहार अगर प्रामाणिक है, हिंसाशून्य है, दोहरान्य है और यश, दान, तपकी फर्ज अदा करनेके बाद प्राप्त किया है तो उससे धारिष्यशुद्धिको पूरी-पूरी मदद मिलती है । चारित्र्यशुद्धिका आधार ही इस प्रकारकी आहार पर है।
"
अगर यह बात सही है. आहारका चारिम्यपर इतना असर है, तो विहारका यानी लैंगिक शुद्धिका चारित्र्यपर कितना असर हो सकता है, उसका अनुमान कठिन नहीं होना चाहिये।
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जिसे हम काम-विकार कहते हैं अथवा लैंगिक आकर्षया कहते हैं, वह केवल शारीरिक भावना नहीं है। मनुष्यके व्यक्तित्वके सारे के सारे पहलू उसमें उत्तेजित हो जाते हैं, और अपना-अपना काम करते हैं। इसीलिये जिसमें शरीर, मन, हृदयकी भावनाएँ और धामिक निष्ठा सबका सहयोग अपरिहार्य है, ऐसी प्रवृत्तिका विचार एकांगी दृष्टिसे नहीं होना चाहिये। जीवन के सार्व
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भौम और सर्वोत्तन मूलसे ही उसका विचार करना चाहिये । जिस भाचरणमें शारीरिक प्रेरणाके वश होकर बाकी सब तच्चोंका अपमान किया जाता है, वह आचरण समाजम तो करता ही है; लेकिन उससे भी अधिक अपने व्यक्तित्वका महान द्रोह करता है 1
लोग जिसे वैवाहिक प्रेम कहते हैं, उसके तीन पहलू हैं। एक भोगसे संबंध रखता है, दूसरा प्रजातन्तुसे और तीसरा भावनाकी उकरता। पहला प्रधानतया शारीरिक है, दूसरा मुख्यतः सामाजिक और तीसरा व्यापक में अध्यात्मिक । यह तीसरा तत्व सबसे महत्वका सार्वभौम है और उसी का असर जब पहले दोनोंके ऊपर पूरा-पूरा पड़ता है, सभी वे दोनों उत्कट तृसिदायक और पवित्र बनते हैं। इन तीन तच्चसे पहल। तस्य बिकुल पार्थिव होनेसे उसकी स्वाभाविक मर्यादाएँ भी होती हैं। भोगसे शरीर चीया होता है। अतिसेवनसे भोग-शक्ति भी सीख होती है, और भोग भी नीरस हो जाते हैं। भोगमें संयमका प्रमाण जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक उसकी उत्कटता होगी। भोगमै संयमका तच्च आनेसे ही उसमें अध्यामिकता का सकती है। संयमपूर्ण भोग में ही निष्ठा और परस्पर आदर टिक सकते हैं और संयम और निष्ठाके बिना वैवाहिकजीवनका सामाजिक पहलू कृतार्थ हो ही नहीं सकता।
केवल लाभ-हानिकी दृष्टिसे देखा जाय तो भी वैवाहिक जीवनका परमोत्कर्य संगम और अन्योन्यनिष्टामें ही है। भोगसत्य पार्थिव है और इसीलिये परिमित है भावना-च हार्दिक और आत्मिक होनेसे उसके विकासकी कोई मर्यादा ही नहीं है।
आजकल लोग जब कभी लैंगिक नीतिकेन्द का पुरस्कार करते हैं, तब वे केवल भोग-प्रधान पार्थिव अंशको ही ध्यानमें लेते हैं। जीवनकी इतनी पुव कल्पना
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भनेकान्त
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ले बैठे हैं कि थोडे ही दिनों में उन्हें अनुभव हो जाता इस सब विवेचनका सार यह निकला कि "व्यक्रिगत है कि ऐसी स्वतन्त्रतामें किसी किस्मकी सिद्धि नहीं है और विकासके लिये, कौटुम्बिक समाधानके लिये, सामाजिक न सच्ची तृप्ति । ऐसे लोगोंने अगर उच्च प्रादर्श ही छोर कल्याणके लिये और आध्यात्मिक प्रगतिके लिये संयम और दिया तो फिर उनमें तारक असन्तोष भी नहीं बच पाता। निष्टा अत्यन्त आवश्यक हैं", और इसीलिये सामाजिक विवाह-सम्बन्धमें केवल भोग-संबंधका विचार करने वाले जीवनमें लैंगिक सदाचारका इतना महत्व है। सोोंने भी अपना अनुभव जाहिर किया है
एतत्कामफल लोके यव्योः एक चेत्तता। कौनसा स्वरूप ताविक है और कौनसा सॉकेतिक, यह
अन्यचित्तकृते कामे शवयोरिव संगमः॥ विचार समय-समयपर करना पड़ता है। उसमें चन्द बातोंमें - यह एकचित्तता पानी हायकी एकता प्रथवा स्नेह परिवर्तन भी आवश्यक हो. लेकिन इतना तो समझ ही प्रन्थी अन्योन्यनिया और अपत्य निष्टाके बिना किसी लेना चाहिये कि लैंगिक सदाचारके बिना समाज-सेवा नहीं सकती। बढ़नेकी बात दूर ही रही।
निष्ठाके साथ हो नहीं सकती। - संयम और निष्ठा ही सामाजिक जीवनकी सच्ची
जिनका विकास एकांगी हा अथवा जिनके जीवन में बुनियाद है। संयमसे जो शति पैदा होती है. वही चारित्र्य- विकृति श्री गई है, उनसे भी कुछ-न-कुछ. सेवा ली जा का आधार है। जो आदमी कहता है-Jcan resist सकती है। लेकिन वे समाजके विश्वासपात्र सदस्य नहीं onything but temptatiun-वह चास्थिकी बन सकते । समाज निर्भयतासे उनकी सेवा नहीं ले सकता छोटी-मोटी एक भी परीक्षा उत्तीयं न हो सकेगा। और ऐसे आदमीका विकास अशक्यप्राय होता है। इसीलिए संयम ही चारिस्यका मुख्य प्राधार है।
उसकी प्रतिष्ठा नाममात्रकी रहती है। चारित्र्यका दूसरा आधार है निष्ठा । व्यक्ति के जीवनकी
विषय गम्भीर है। उसके पहलू भी असंख्य है और कृतार्थता तभी हो सकती है जब वह स्वतन्त्रतापूर्वक इनका शुद्ध विचार करनेकी पात्रता प्राजके अपूर्ण समाजमें समष्टिके साथ श्रोत-प्रोत हो जाता है। व्यक्रि-स्वातन्यको पूरी-पूरी है भी नहीं, तो भी इस विषयको हम छोर भी सम्हालते हुये अगर समाज-परायणता सिद्ध करनी हो तो नहीं सकते । लीपा-पोतीसे काम नहीं चलता । केवल वह अन्योन्यनिष्ठाके बिना ही नहीं सकती और अखिल रूढिको सम्हालकर हम समाजको सुरक्षित नहीं रख सकते समाजके प्रति एकसी अनन्यनिष्ठा तभी सिद्ध होती है और अनेक रूढियोंका तुलनात्मक अध्ययन किये बिना और अब आदमी ब्रह्मचर्यका पालन करता है, अथवा कम-से-कम उमका सार्वभौम समन्वय किये बिना हम सामाजिक प्रगति वैवाहिक जीवन परस्पर दनिष्ठासे प्रारम्भ करता । भी नहीं कर सकते । इसीलिये समय-समयपर मनुष्य-जातिअन्योन्यनिष्ठा जब प्रादर्श कोटिको पहंचती है तब वहीसे को इस सवालकी चर्चा करनी ही पाती। संधी समाज-सेवा शुरू होती है।
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स्त्री
धर्म और नारी
(लेखक:-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०, एल-एल० बी)
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और पुरुष दोनों मिलकर ही मानवसमाजकी सुष्ट करते हैं, दोनों ही उसके प्राकृतिक, अनिवार्य, अभिन्न अङ्ग है। एकसे दूसरे की पूर्णता और अस्तित्व है । दोनों ही समानरूपसे मनस्वी होनेके कारण प्राणि वर्ग में सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं।
किन्तु जब मनुष्यजातिके सामाजिकजीवन, और विशेतया स्त्रीपुरुष संबंधपर दृष्टिपत किया जाता है तो यह बात सहज ही स्पष्ट होजाती है कि जीवन के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक श्रादि विविध क्षेत्रों में प्रायः सर्वत्र और सर्व समयों में अधिकांशतः पुरुषवर्गका ही प्राधान्य एवं नेतृत्व रहा है । इस बातका सर्वमान्य कारण भी सामूहिक रूपमें पुरुषजातिके शारीरिक एवं मानसिक शक्ति संगठनका स्त्री जाति की अपेक्षा श्रेष्ठतर होना है। इस स्वाभाविक विषमता के फलस्वरूप जहाँ एक ओर पुरुष के श्रात्मविश्वास में महती वृद्धि हुई, उसकी उद्यमशीलता और कार्यक्षमताको प्रोत्साहन मिला तथा उसका उत्तरदायित्व बढ़ा, वहाँ दूसरी ओर उसने अपनी सामूहिक, और जब श्रवसर मिला तब व्यक्तिगत शक्तिविशेषका भरसक अनुचित लाभ उठाया तथा स्वोजातिपर मनमाने अन्याय एवं श्रत्याचार किये। उसके मस्तिष्क में यह टू सनेका अथक प्रयत्न किया कि वह पुरुषकी अपेक्षा हीन है, उसका स्थान गौण है, वह पुरुष के श्राधीन है- श्राश्रित है, उसकी विषयतृति की – ऐहिक सुख भोगकी- एक सामग्री है, उसकी भोगेषणा की पूर्तिका साधनमात्र है अथवा उसका अपना निजी स्वतंत्र व्यक्तित्व और तिल है ही नहीं, जो कुछ याद है तो वह पुरुष के ही व्यक्तित्व और अस्तित्वमें लीन हो जाना चाहिये ।
पुरुषकी नारी-विषयक इस जघन्य स्वार्थपरता में उसका सबसे बड़ा सहायक रहा है धर्म ! मनुष्य के जीवन में धार्मिक विश्वासका प्रमुख स्थान रहता आया है। और जब जब, जाति विशेष के दुर्भाग्य से, संयोगवश अथवा किन्हीं राजने
तिक, सामाजिक, धार्थिक कारणोंसे उक्त जाति में बुद्धिमानों का प्रभाव, ज्ञान और विवेककी शिथिलता, तज्जम्य अज्ञान, अविषेक, रूढ़िवादिता एवं वहमोंका प्रस्तार प्रभाष बढ़ जाता है तो उस आतिके नैतिक पतनके साथ साथ धर्मके गौण बाह्य क्रियाकाण्डों और दोगोका प्रारूप भी हो जाता है । विवेकहीन, विषयलोलुपी स्वार्थी धर्मगुरु और धर्मात्मा कहलाने वाले समाज-मान्य मुखिया समाजका नियन्त्रण और शासन करने लगते हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे अपनी टाँग अड़ाते हैं और मदाखलत बेजा करते हैं । उनके श्रादेश ही धर्माशा होते हैं, वे जो छवस्था दे देते हैं उसका कोई अपील नहीं । धर्मके वास्तविक कल्याणकारी तत्वों एवं मूलसिद्धान्तोंकी वे तनिक भी पर्वाह नहीं करते, जानबूझकर अक्सर उनकी अवहेलना ही करते हैं और दुर्बल समाज मानसिक पराधीनता की बेड़ियों में भी जकड़ घाता है । स्वजाति पुरुषों की अपेक्षा अधिक भावप्रवण होने और स्वयं में हीन का हढ़ विश्वास ( Inferiority complex) होनेके कारण, अपने ही लिये अधिक अपमानजनक, कष्टकर एवं कल्याणकार ऐसी उन धर्मगुरुश्रोंकी श्राशाश्रोको श्रद्धापूर्वक बिना चूँ चरा किये शिरोधार्य करने में सबसे अधिक उत्साह दिखाती है । और इसीलिये एक पाश्चात्य विद्वान् ने ठीक ही कहा है कि-'clergy have been the worst enemies of women, whmen are their best friends.” अर्थात् धर्मगुरु स्त्रियोंके सबसे बड़े शत्रु रहे हैं और स्त्रियाँ उनकी सबसे बड़ी मित्र रही है'। फलस्वरूप किसी भी सभ्य, अर्धमभ्य, असभ्य, पाश्चात्य पौर्वात्य, प्राचीन, अर्वाचीन मनुष्य समाजका इतिहास उठाकर देखिये, किसी न किसी समाजकी थोड़े वा अधिक काल तक, उसके पुरुषवर्ग तथा वैसे धर्मगुरुनोने, चाहे किसी भी धर्मविशेष से उनका संबंध क्यों न रहा हो. स्त्रीजाति के प्रति अपनी तीव्र श्रमहिष्णुताका परिचय दिया ही है। उन सबने ही अपने अपने धर्मामुरूश्रोकी आड़ लेकर
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भनेकान्त
[वर्ष
उसके प्रति अपना विष और उसपर परुषजातिका सर्वा- बौद्ध भिक्ष सुमन वात्स्यायनके अनुमार बुद्धकालीन धिकार चरितार्थ किया है। उदाहरणार्थ:
समाज स्त्रियों को इतनी हेय और नीच दृष्टसे देखता था कि ईसाइयोंकी बाइबिल में नारीको सारी बुराइयोंकी जड़ सर्व प्रथम जब बुद्ध की मौसी और मातृवत् पालन पोषण (root of all evil) कहा है, ईसाई धर्मयाजकोंने उसे करने वाली प्रजापति गौतमीके नेतृत्व में स्त्रियोंने संघमें शेतानका दरवाजा (Thou art the devii's शामिल होनेकी बुद्धमे प्रार्थना की तो उन्हें हिचकिचाहट gate!) कहकर पुकारा। छठी शताब्दी ईश्वी में ईसाई हुई। इसे स्त्रियोंके प्रति वुद्धकी दुर्भावना ही समझा जाना धर्मसंघने यह निश्चित किया था कि स्त्रियों में प्रात्मा नहीं होती। है। बुद्धने उन्हें पहले गृहस्थ ही में रहकर ब्रह्मचर्य और
इस्लाम धर्मकी कुरानमें स्त्रियोका ठीक ठीक क्या निर्मल-जीवन द्वारा अन्तिम फल पाने के लिये उत्साहित स्थान है, यह बात समझाकर बनलाना कठिन है।हानवेक किया। बादको जब परिस्थिीियोसे विवश होकर भिक्षुणी
और रिकाट (Hornbeck. Ricaut) आदि ग्रंथ- संघ बनानेका आदेश भी दि।। तो उसके नियमोंमें भिक्ष कारोंका तो यह कहना है कि मुसल्मानोंके मतसे भी नारीके संघरे मेद भी किये, जिन्हें देशकाल और परिस्थितियोंके अात्मा नहीं होती और नारियों को वे लोग पशुत्रोंकी तरह कारण आवश्यक बताया जाता है । बुद्ध ने भी स्त्रियोंकी समझते हैं। उत्तर कालीन वैदिक धर्ममें स्त्रियों को शास्त्र निन्दा की ही है और पुरुषोंको उनसे सचेत रहनेका श्रादेश सुनने तकका अधिकार नहीं है (यी न श्र तिमोचरा), दिया है । वस्तुतः, श्रीमती सत्यवती मल्लिकके शब्दोंमेंx मनु श्रादि स्मृतिकाराने स्पष्ट कथन किया है कि स्त्रियाँ "जातक ग्रन्थों एवं अन्य बौद्ध साहित्यमें अनेक स्थलोर, जनने और मानव-सन्तान उत्पन्न करनेके लिये ही बनाई नारीके प्रति सर्वथा अवांछनीय मनोवृत्तिका उल्देख है।" गई हैं। अन्य हिन्दु पौराणिक ग्रन्थों में भी नारीको पतिकी बौद्धप्रधान चीनदेशकी स्त्रियोंकी दुर्दशाकी कोई सीमा नहीं है दासी, अनुगामिनी, पूर्णत: प्राज्ञाकारिणी रहने और और उन्हीं जैसी अवस्था नापानकी स्त्री जातिकी थी, किन्तु मन-वचन-कायसे उसकी भक्ति करने तथा उसकी भृ युपर जापान अपनी स्त्रियोंका स्थान उसी दिनसे उन्नत कर मका जीवित ही चितापर जलकर सहमरण करनेका विधान किया जिस दिनसे अपनी सामाजिक रीति-नीतिके अच्छे बुरेका गया है। मध्यकालीन प्रसिद्ध हिन्दु धर्माध्यक्ष शंकराचार्यने विचार वह धर्म और धर्म-व्यवसाइयोंके चंगुल से बाहिर नरकका द्वार (द्वारं किमेकं नरकस्य नारी) घोषित किया निकाल सका।। है। और नीतिकागेने तो स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं जैन धार्मिक साहित्यकी भी. चाहे वह श्वेताम्बर हो देवा न जानन्ति कुतो मनुष्याः कह कर उसके चारित्र- अथका दिगम्बर, प्राय: ऐसी ही दशा है । श्वेताम्बर आगमको यहाँ तक संदिग्ध, रहस्मय अथवा अगम्य बतलाया साहित्य के प्राचीन प्रतिष्ठित 'उत्तराध्ययन' सूत्र में एक कि उसे मनुप्योंकी तो बात ही क्या, देवता भी जान स्थानपर लिखा है कि स्त्रियाँ राक्षसनियाँ हैं, जिनकी छातीपर नहीं पाते!
दो मामपिण्ड उगे रहते है, जो हमेशा अपने विचारोंको * प्रजानर्थ स्त्रियः सष्टा: सम्तानार्थ च मानवां: (मनु ह.६६) बदलती र ती है, और जो मनुष्यको ललचाकर उसे गुलाम उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम् ।
बनाती है। इस सम्प्रदाय के अन्य ग्रन्यों में भी एसे अनेक प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्रिनिवन्धनम् ॥ (मनु०६.२७) उल्लेख मिलते हैं। पांचवें अङ्गसूत्र भगवतीके (शतक ३-७) + वृद्ध रोगबस जड़ धनहीना, अंध बधिर क्रोधी अति दीना। देवानन्द-संगमें चीनांशुक, चिंलात और पारसीक देशकी
ऐसे हु पतिकर किये अरमाना, नारि पाव जमपुर दुख नाना। दासियों का, ज्ञाताधर्मकथानके .. मेघकुमार-प्रसंगमें १७ एक धर्म एक व्रत नेमा, काय बचन मन पति-पद प्रेमा । विभिन्न देशोंकी दासियोंका तथा उहवाइ सूत्रमें भी अनेक
. (रामचरितमानस)
देशोंकी दासियोंका उल्लेख है। इसी भाँति दिगम्बर २ विशीन: कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः।
साहित्य मी स्त्री निन्दा-परक कथनोंसे अछूत नहीं रहा है। उपचर्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः ॥(मनु०५-१५४) x प्रेमाअभिनन्दनग्रंथ पृ० ६७२-(भारतीय नारीकी बौद्धिकदेन
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किरण ६-७]
धर्म और नारी
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वासवमें संसारके प्रत्येक देश, जाति धर्म संस्कृति मनोवृत्ति से अभिभूत महाशयकी प्रेरणापर, श्वेताम्बर दृष्टऔर सभ्यताके प्रतीन इतिहास एवं वर्तमान वस्तुस्थित कोणसे लिखा है। इस लेख में यह सिद्ध करनेको चेष्टा की परसे ऐसे अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे गई है कि जैनधर्मके श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा दिगम्बर कि उनमें स्त्रीजातिपर पुरुष जाति के अत्याचार और अन्याय- सम्प्रदाय बहुत अनुदार, संकीर्ण और अविवेकी है; क्योंकि का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। क्या ..चीन भारत, चीन. उसमें स्त्रीमुक्तिका निषेध किया है, जबकि श्वेताम्बर संप्रदाय मिश्र, बेबिलोनिया, सुमेरिया, यूनान और रोम, क्या अवी- में उसका विधान है। लेखकने दिगम्बर सम्प्रदायके संबंध चीन युरोप, अमेरिका और एशिया अथवा अफ्रीका, कितनी ही अमपूर्ण, निस्सार एवं अयथार्थ बातें लिम्वकर अमेरिका, पूर्वी पश्चिमी द्वीपसमूहों तथा अन्य स्थानोंकी अपने मतकी पुष्टि करनी चाही है । और प्रसंगवश, हिन्दअर्धसभ्य, असभ्य जातियाँ सभीने धर्मत:, कानूनन अथवा धर्ममें नारीकी सम्मानपूर्ण श्रेष्ठताका भी प्रतिपादन कर रिवाजन, न्यूनाधिकरूपमें नारीको पुरुषको सम्पत्ति, उसके दिया है !! स्वत्वाधिकारकी वस्तु और एक उपभोग्य सामग्री समझा है। और कोई भी धर्म इस बातका दावा नहीं कर सकता कि
वास्तव में स्त्रीमुक्ति का प्रश्न जैनधर्मकी एक गौण उसके किसी भी धर्मगुरुने कभी भी स्त्रियोंको परुषोकी अपेक्षा
सैद्धान्तिक मान्यतामात्र है इम मान्यताका प्रारम्भ और हीन नहीं समझा, उसकी उपेक्षा और निन्दा नहीं की।
इतिहास बहुत कुछ अंधकारमें है, और वर्तमान स्तुस्थिति
पर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ता । किन्तु फिर भी इसी किन्तु इतनेपर भी यह प्राय: देखनेमें आता है कि
प्रश्न को लेकर दोनों सम्प्रदायोंके बीच काफ़ी खींचतान और प्रत्येक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्मोकी निन्दा इस बातको
और एक प्रकारका कल्पित भेद खड़ा किया जाना है। लेकर करते हैं कि उनमें स्त्री जाति के प्रति अन्याय किया
दोनों ही सम्प्रदायोंके कितने ही विद्वान इस प्रश्न के पक्षनया है । अपने धर्मकी विशेषताओं, अच्छाइयों और
विपक्षका प्रतिपादन करनेमें अपनी शक्ति और समयका व्यर्थ
दुरुपयोग करते देखे जाते हैं। युगेपीय तथा भारतीय अजैन खूबियोंको संसारके सामने रखनेमें कोई दोष नहीं है. किन्तु यदि दूमरोंकी कोरी निन्दा और छीछालेदर करके मुकाबले में
विद्वानोंको. जैनधर्मका. जो परिचय दिया गया और प्रारंभ स्वधर्मकी श्रेष्ठता स्थापित करनेका प्रयत्न किया जाता है तो
में तथा अधिकांश में वह परिचय श्वेताम्बर बंधुओं द्वाग वह अवश्य ही अनुचित एवं निन्दास्पद कहा जायगा, और
दिया गया-उसमें भी उन्होने प्रायः इमी बातपर जोर दिया
कि श्वेताम्बर स्त्री मुक्ति मानते हैं दिगम्बर नहीं मानते, दोनों विशेषकर जबकि वैसी बुराइयोंसे अपना वह धर्म अथवा उसका साहित्य और संस्कृति भी अछूती न बची हो! परन्तु
सम्प्रदायोंमें यही मुख्य भेद है । अत: अजैन विद्वानोंकी हो यही रहा है। इस विज्ञापन-प्रधान युगकी विज्ञापनवानी
जैनधर्म-सम्बन्धी रचनात्रोंमें इसी मान्यताका विशेष रूपसे
उल्लेख मिलता है। जैनमिद्धान्त और साहित्यका गम्भीर का प्रवेश धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्रमें भी खूब कराया
अध्ययन करने के उपयुक्त साधनों और अवकाशके प्रभावमें जारहा है। 'धर्मदूत' वर्ष ११ अंक २-३ पृष्ठ २३ पर एक
वे इन संक्षिप्त संकेनोपर ही संतोष कर बैठे हैं। बौद्धविद्वान्का लेख 'बुद्ध और नारीममाज' शीर्षक से प्रका. शित हुआ है, जिसमें बौद्ध तर हिन्दु, जैन श्रादि धर्मों में
वस्तुन: दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इस विषयमें नारीको हीनावस्थाका दिग्दर्शन कराते हुए चौद्धधर्ममें उसका बिल्कुल एकमत हैं कि भगवान महावीर के निर्माणके ३-४ स्थान अपेक्षाकृत श्रेष्ठ एवं न्यायपूर्ण सिद्ध करनेका प्रयत्न वर्ष बाद ही, जैनकालगणनानुमार, चौथे कालकी समाप्ति किया गया है। इसी प्रकार 'प्राचीनभारत' चैत्र. १६६७ होगई थी। इसके बाद पंचक.ल शुरू हुश्रा जिसकी प्र. १५४ पर डा. एम. मुकर्जीका लेख 'जैनधर्ममें नारी अवधि २१००० वर्ष है. उसके बाद २१००० वर्षका छठा का स्थान' शीर्षकसे प्रकट हुआ था। विद्वान् लेखकने स्वयं
काल पायेगा, फिर उतने ही वर्षोंका उत्सरिणीका छठाक.ल अजैन होते हुए भी यह लेख, संभवतया किसी साम्प्रदायिक पायेगा, उसके पश्चात् उतने ही वर्षांका पंचमकाल
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भनेकान्त
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[वर्ष ८
पायेगा और तत्पश्चात् चौथा काल चलेगा। अर्थात् गत लगभग एक हजार वर्ष बाद (५ वीं शताब्दी ईस्वीके चतुथकालकी समाप्ति और मावी चतुर्थकालके प्रारम्भके अन्तमें ) हो गया था। उसके पश्चात विभिन्न भाषाबीच में ८४... वर्षका अन्तर है और मोक्ष चौये काल में प्रोंमें विविध-विषयक उच्चको टके विपुल जनसाहित्यकी ही होती है। इसका यह अर्थ है कि पिछले कोई दाई हजार रचना हुई, जिसके प्रणयन और प्रचारमें जैनस्त्रियों और वर्षों में (ठक ठीक २४१० वर्ष में) किसी भी स्त्री या पुरुष पुरुषों सभीने योग दिया है। ने परममुक्ति प्राप्त नहीं की और न ागे करीब ८१५.. बमुक्तिको मानने या न माननेसे भी उभय सम्पदायोमें वर्ष तक वैसा करना संभव है। प्राज कोई भी व्यक्ति ऐसा नारीकी स्थितिपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। श्राम्नाय-भेद नहीं है कि जो गत २५०० वर्षकी अपनी प्रमाणिक शृङ्खला रहते हुए भी श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंका बद्ध वंश परम्परा बता सके अथवा इस बातकी गारंटी कर सके सामाजिक जीवन, प्राचारविचार. रहन-सहन, रीति-रिवाज कि आगामी८१५०० वर्षतक उसकी वंशजपरम्परा अविच्छिन्न प्राय: एकसे हैं दोनोंके अनुयायियोंमें परस्पर श्रादानचलेगा । दोनों ही बातें मानवक सीमित शानकी परिधि प्रदान, रोटी बेटी व्यवहार भी होता है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें के बाहर है, प्रागऐतिहासिकता, २अनागत सुदूर भविष्यकी। नारीकी स्थिति और अवस्था दिगम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा अतएव कोई भी व्यक्ति वर्तमानमें यह कह ही नहीं सकता किसी अंशमें भी श्रेष्ठतर नहीं रही है और न है। बल्कि है कि उसके अमुक निजी पूर्वजने मुक्ति प्राप्त की या वह दिगम्बर सम्प्रदायकी स्त्रियाँ ही ग्रायः करके अधिक सुशिस्वयं कर सकता है, अथवा उमका कोई भी निजी वंशज क्षित, सुसंस्कृत और धर्मपालनमें स्वतन्त्र रहती श्राई है. कर सकेगा । तब विवाद किस बातका? और स्त्रीमुक्ति के और आज भी है। जबकि श्वेताम्बर गृहस्थ पुरुषों को भी प्रश्नको लेकर व्यर्थकी माथापची किस लिये ?
आगम ग्रन्योंके अंध्ययन करनेकी मनाई है दिगम्बर जहाँ तक प्रश्न प्रात्मकल्याएका है, आत्मोन्नति और समाजकी स्त्रियाँ सभी सभी शास्त्रोका अभ्यास करती है. आत्मीय गुणोंके विकासका है अथवा सच्चारित्र, सदाचार,
शास्त्रोपदेश भी देती है। भवण बेलगोलके शिलालेखोसे शील-संयम श्रादिके पालन, धर्मका साधन और धार्मिक
पता चलता है कि वे मुनिसंघों की अध्यापिका तक रही उसलोपर आचरण करके अपने और दूसरोंके लिये इहलो
है+। श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध दार्शनिक रत्नप्रभाचार्यने किक सुख-शान्ति प्राप्त करने-कराने तथा अपना परमार्थ ।
. अपनी समकालीन दिगम्बर साध्वियोंके सम्बन्धमें स्वयं कहा सुधारने और अपने लिये मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करनेका * कर्णाटककी कान्ति नामक दि० जन-महिला-कवि छन्द, वह जैनधर्मके अनुसार, प्राज भी प्रत्येक व्यक्ति, चाहे अलङ्कार, काव्य, कोष व्याकर आदि नाना ग्रन्थोंमें वह स्त्री हो या पुरुष दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, जैन हो या कुशल थी। बाहुबलि कविने इसको बहुत बहुत प्रशंशा अजैन, समान रूपसे अपनी अपनी शक्ति और रुचिके करके इसे 'अभिनव वाग्देवी' की पदवी दी थी। द्वारअनुसार पूरी तरह कर सकता है। कोई भी धार्मिक मान्यता समुद्रके वल्लालराजा विष्णुवर्धनकी सभामें महाकवि पंप उसमें वाषक नहीं. और न धर्मानुकूल कोई रिवाज या और कान्तिका विवाद हुआ था। कन्नड़-कवि-चक्रवर्ती सामाजिक नियम ही उसमें किसी प्रकारकी रुकावट डालता रमकी पुत्री अतिमम्बे भी परम विदुषी थी. उसीके लिये है। जैनधर्मका इतिहास, जैन समाजकी जीवनचर्या और रन्नने अजित पुराणकी रचनाकी थी। सेनापति मल्लपकी जैनसाहित्य इसके साक्षी । दिगम्बर जैनागम प्रन्योंका पत्री अत्तिमन्बेने उस युगमें जबकि छापेका अधिकार नहीं संकलन और लिपिबद्ध होना तथा उनके स्वतंत्र धार्मिक हुआ था, पोन्मकृत शान्तिपुराणकी १००.हस्त लखित गहित्यकी रचनाका प्रारंभ भगवान महावीरके निर्माणके प्रतिलिपियें कराकर वितरणकी थीं। इस प्रकारके और भी लगभग ५०० वर्षके भीतर ही (प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व में) अनेक उदाहरण जैन इतिहासपरसे दिये जा सकते हैं। होगया था और श्वे. जैनागम साहित्यका भी संकलन व + प्रेमी अभिनन्दन ग्रं० पृ. ६८६ तथा जैन शिलालेखलिपिबद्ध होना तथा स्वतन्त्र ग्रन्थरचनाका प्रारम्भ उनके संग्रह २३, २७, २८, २९, ३५.
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किरण ६-७]
धर्म और नारी
२६६
है कि कई पारवा नकाएँ सिर मुंडन कर, मोरपंख बना सकता है । और ये बातें स्त्री तथा पुरुष दोनोंके लिये और कमंइल लिये तस्या किया करती थीं। उनके पर्यटन समान रूपसे लाग होती है । जैनाचायोंने 'वस्तु के स्वभाव' और स्वतंत्र विहार में कोई रुकावट न थी, जबकि श्वेताम्बर को धर्म कहा है अर्थात् जो जिम चीनका स्वभाव होग आर्थिकाएँ प्राय: उपाश्रयाम ही रहती हैं ।
है-उमा निज गुण होता है-यही उमका धर्म है। वास्तवमें, आज जितना धर्मसाधन, श्रात्मकल्याण आत्माकी जो असलियन है, उसके जो पगनपेक्ष वास्तविक और अपने पक्तत्वका विकास एक पुरुष कर सकता है निजी गुण है वही सब उसका धर्म है, उसकी मौजूदगी में उतना हे' एक स्त्री भी कर सकती है, इस विषयमें दोनों ही ही उसे एचा सुग्व, शान्ति और स्वतन्त्रता प्राप्त होती है । सम्प्रदायोमें कोई मतभेद नहीं है। और साथ ही एक जिन नरियोके द्वारा या जिम मार्गपर चलकर अात्मा पुरुष भी यदि वह कुशल है, चाव्यहीन है । अपन अपने उम अमली स्वभावको प्राप्त होता है व्यवहारमें, अपाहज या शक्ति-सामर्थ्यहीन है तो वह भी की सर्वोच्च उस मार्ग या नरियोंको ही धर्म कहते हैं। स्वामी समन्तपदकी प्राप्ति उमी जीवन में नहीं करसकता. इस कार्यकी भद्राचार्यकै अनुमार इस धर्मका कार्य प्राणियोश्रो दुःखसे सफलताके लिये तो सर्वाङ्ग सर्वश्रेष्ठ शारीरिक मानसिक निकालकर सुखमें धारण करना * । स्त्री और पुरुष संगठन तथा सर्वोत्तम चारित्र, पूर्ण वीतरागताका होना दोनोंकी ही श्रात्माएँ समान हैं, उनके श्रात्मक गुण और अत्यन्त श्राश्यक है
स्वभाव बिल्कुल यकों हैं, उन्म नानकसा भी अन् र जहाँ तक धर्मसाधन और स्त्री-पुरुष सम्बन्धका प्रश्न
नहीं होता । दुःख और सुखका अनुभव तथा दुःखसे बचने है, उस विषयमें किसी अन्य कमेने स्त्री पुरुष के बीच कई
और सुख प्राप्त करने की इच्छा भ दोनोमे बर बर हे अपने भेद भले ही किया हो, किन्तु जैनतीर्थरों और धर्माचार्योका ।
धर्म अर्थात् स्वभावको हासिल करने का दानों को ममान हाटकोण सदेवसे बहुत ही उदार एवं साम्यवादी रहा है। अधिकार है, और उस धमके साधनमें दोना है। समान
रूपसे स्वतन्त्र है । ऐसी जेनमान्यता है और इसमें दिगम्बर उन्होंने मोक्ष प्राप्तिका श्रधार किसी व्याक्त या शक्ति विशेष की अनुकम्पा. अनुग्रह अथवा प्रसन्नताबो नहीं रखवा.
और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय पूर्णतया एकमत हैं । वरन् प्रत्येक व्यक्ति के अपने स्वयं के किये को, पुरुषों
धमके श्रादिप्रवर्तक प्रथम जैन तथंकर भगवान और प्राचरणोके ऊपर उसे अवलम्बित किया है । इस
ऋषभदे ने भागप्रधान अज्ञानी मानव समासमें सभ्यताका सिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति स्वोपान्ति कर्मफे अनुरूप
सर्व प्रथम संचार किया था, उन्होने उसे कर्म करने के लिये हो अपनी भावी अवस्था और स्थितिका स्वयं ही निर्माण
प्रोत्साहित कया, विविध शिल्पों और कला श्रीकी शिक्षा करता है। उसका भविष्य और उस भविष्यका बनना
दी, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था स्थापतकी। उन बिगाडना उसके अपने श्रार्धन है, मरे वि.सका उसमें
श्रादिपुर पने अपने अनेक पत्रोके माथ साथ अपनी दोनों कोई दखल नहीं । इतना ही नहीं, वह मद्धर्माचरण पुत्रिया वाही और दर्गको भी विशेषरूपसे शिक्षा-दीक्षा तप-संयम, तथा कंधादि क.पायांकी मन्दतारूप अपने
दी थी। कुमारी वहां के लिये ही सर्वप्रथम लिपिकालाका वर्तमानमें किये सदुद्योगो द्वारा घोजित दुष्का शुभ
प्रकार किया ६. और इसीलिये भारतका प्राचीनतम फलमें भी परिवर्तन कर सकता है. कभी कभीके पिछले
लिपि 'बाही' कहलाई-ऐसी जैन अनुभूति है । दिगम्बर बंधे कौका भी नाश कर सकता है, और अपने लिये
ग्रन्थों में उल्लेखित चयति नरेशीकी बलियाँ इन शक्तिमुक्तिका मार्ग प्रशस्त कर सकता है। हिसाक स्व-पर- मताहता था कि वे अपनी कोमल अंगगियोसे वज्रमश हितकारी श्राचरणसे और स्यादादात्मक अनेकान्त पिसे रत्नी (हार जवाहगत आदि) को नणं कर देती थीं और उत्पन्न सहिष्णुता और सहनशीलतासे वह न सिफ़ अपने अपने पात्योंकी विजययात्राके उपलक्षमें उस चणे से व्यक्तिगत जीवनको दी वरन् समस्त सामाजिक एवं राष्ट्रीय
र
चार
चौंक पृरती थीं। ब्राझी, अंजना, सीता, मैना, राजुल, 'अन्तरराष्ट्रीय जीवनको भी सुख और शान्ति पूर्ण अवश्य ही * संसार दुःखतः सत्त्वान् योपरत्युत्तमे सुखे।-र.क.श्र.१.२
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२७०
भनेकान्त
[वर्ष ८
.
सुलोचना, चन्दना, चेलना आदि अनेक मती साध्वी, उनकी समवसरण सभामें स्त्री पुरषोको साथ साथ बैठकर श्रादर्श गृहस्थ तथा दीक्षा के पश्चात् परम तपस्विनियोकी धर्मोपदेश सुनने और अपना २ प्रात्मकल्याण करनेका यशोगाथासे जैनपराण व चारित्र ग्रन्थ भरे पड़े हैं। इन समान अवसर प्राप्त था। देवियोंने अपना स्वयंका तो कल्याण किया ही, अपने व्यवहारिक दृष्टसे. जैनस्त्रियांने धार्मिक तथा लौकिक सम्पर्कमे अानेवाले अनेक पुरुषोंका भी उद्धार किया है। दोनों ही क्षेत्रोमें, अपनी हीनताका अनुभव कमसेकम जब उन्हें वैराग्य हुश्रा और उन्होंने प्रात्मसाधन करने की जैनधर्मक कारण कभी नहीं किया । मध्यकालीन भारत में, ठानी तबही पति, पत्र, परिजन, घर सम्पत्ति, भोग ऐश्वर्य विशेषकर दक्षिण प्रान्त में जहाँकि उस युगमें जैनधर्मका सब ठुकराकर, तपस्विनी बन वनका माग लिया; पतिका अत्यधिक प्रभाव एवं प्रचार था जैनस्त्रियोने स्वयं राज्य कोई अधिकार या राज्य अथवा समाजका कोई कानून उन्हें किया, राज्यकार्यमें अपने पति पुत्रादिकोको सक्रिय सहयोग ऐमा करनेसे न रोक सका।
दिया, सैन्यसन्चालन किया, ग्रन्थ निर्माण किये कराये, एतिहासिक काल में ही, जैसा कि एक विद्वानका कथन साहित्य प्रचार किया, धर्मप्रचार किया, मन्दिर श्रादि * हमारे देशमें जब उन्नति हो रही थी तब स्त्रियोका निर्माण कगये. धर्मोत्सव और प्रतिष्ठ ये कराई, श्राविका खब श्रादर था और वे शिाक्षता थी। भगवान महावीर के और प्रायिका संघोका नेतृत्व किया. अध्या'न किया, पिता अपनी पत्नीका केमा श्रादर करते थे यह निम्न श्लोक- उपदेश दिये, तपस्या की, समाधिमरण किये इत्यादि। सेस्ट है:
जैनधर्म के अनुसार, पत्नी अपने पति के धर्मकार्यों और आगच्छन्ती नृपो वीक्ष्य प्रियां संभाष्य स्नेहतः। पण्य प्रवृत्तियोंमें तो सहायक हो सकती हैं किन्तु वह उसके मधुरैवचनेस्तस्यै ददो स्वार्धासनं मुदा ॥ अधर्माचरण और पाय प्रवृत्तियोमें सहयोग देने या उनमें
अर्थात्-राजा (सिद्धार्थ) ने अपनी प्रियाको दरिमं उसका अनुगमन करनेके लिये कतई बाध्य नहीं है। श्रात देखकर उनसे मधुर वाक्याम प्रेमपूर्वक भालाय किया बिल्वमंगल जैसे उदाहरण जैन संस्कृति में नहीं मिलेंगे और और प्रसन्न होते हुए उन्हें अपना प्राधा सिंहासन बैठनेको
" x (i) Dr. Saletore-Mediaeval Jainism, दिया, जिसपर वे जाकर बैठी।
ch. V-'Women as defenders of स्वयं भगवान महावीरने अपने ६ महानेके उपवासके
the Faith'. पश्चात् जो पारणा किया (पाहार ग्रहण किया) वह
(ii) Dr. B. C. Law-Distinguished बेड़योंमें जकड़ी अति दान हान चन्दनाके अधकचरे साबुत
men and women in Jainism'उड़दों जैसे तुच्छ खाद्यका था। अनेक राजा एवं धनिक
Indian Culture Vol. II & III. श्रेष्ठी उन्हें उस समय श्रेष्ठ सुस्वादु भोजन कराने के लिये
(iii) श्री त्रिवेणी प्रसाद-'जैन महिलायोंकी धर्मसेवा'लालायित थे ! भ. महावीरने स्त्रियोंको जिनदीक्षा देने में
जै० सि० भा० ८-२ पृ०६१ म बुद्ध जैसी हिचकिचाहट नहींकी सती चन्दनबालाके
पंडित चन्दाबाई जैन-'धर्मसेविका प्राचीन जैननेतृत्वम, मुनिसंघके साथ ही साथ, आर्यिकासंघका भी
देवियाँ'-प्रे० अ० ग्रंथ पृ०६८४ निर्माण किया । वास्तवमें जैनायिकासंघका यह निर्माण
(v) मथुगके प्राचीन जैनपुगतवमें अनेक जैनमहिलायोबौद्ध भिक्षणी संघसे पहिले हो चुका था। भ. महावीर के
की जिनमें गणिकाये तक भी सम्मिलित है, धर्मअनुयायियों में मुनियोकी अपेक्षा प्रायिकाप्रोकी और भावको
सेवाके उल्लेख मिलते हैं। की अपेक्षा भाविकायोंकी संख्या कई गुनी अधिक थी+।
i) सागर और मलयाचल के बीच, दक्षिणस्थ वेणूर * जैन हितैषी वर्ष ११ अंक ३ पृ० १८६
देशमें अजिलवंशकी जैनरानी पदुमला देवीने सन् + अनेकान्त वर्ष ३कि. १पृ. ४५ सौ. इन्दुकुमारीका १६८३ से १७२१ तक राज्य किया- अनेकान्त लेख 'वीरशासनमें स्त्रियोंका स्थान'।
२-७ पृ. ३८४
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किरण ६-७]
धर्म और नारी
पति के लिये सहमरण करनेको तो जैनधर्म में महापातक में मन् ईस्त्री पूर्वक प्रथम शताब्दीमें होने वाले प्राचार्य माना है। यहाँ स्त्री पतिकी सम्पत्ति नहीं है और न उसके शिवार्यने स्पष्ट कथन किया है किभोगकी सामग्री मात्र ही. उसका स्वयंका दायित्व भी है
कर कहे हुए दोष स्त्रियोंमें है, उनका यदि पुरुष और उमका उत्तराधिकार भी स्वतन्त्र है। वह अपने
विचार करेगा तो वे उसे भयानक दीखेंगी और उसका घरकी स्वामिनी है, और अपना नैतिक उत्कर्ष एवं श्रात्म-चित्त उनसे लौटेगा ही। किन नीच स्त्रि में ओ दोष हैं कल्याण करने में किसीकी अपेक्षा नहीं रखती। जैनधर्ममें वे ही दोष नीच परुषोंमें भी रहते हैं, इतना ही नहीं, कन्या हिन्दु धर्म की भाँति दान देनेकी वस्तु भी नहीं है। स्त्रियों की अपेक्षा उनकी अनादिकोंसे उत्पन्न हुई शक्ति जैन विवादपद्धतिके अनुमार कन्यादान नहीं किया जाता, अधिक रहनेसे उनमें स्त्रियांसे भी अधिक दोष रहते है। उममें कन्या द्वारा पतिका वरण ही होता है, और उमके
शीलका रक्षण करनेवाले पुरुषोंको स्त्री जैम निदनीय अर्थात् माथ सप्तपदीके रूपमें कुछ शर्ते भी होती हैं जिनके पालन
त्याग करने योग्य है वैसे ही शीलका रक्षण करने वाली करने की वरको प्रतिज्ञा करनी पड़ती है। इसप्रकार जैन
स्त्रियोंको भी पुरुष निदनीय अर्थात् त्याज्य हैं । संमार संस्कृति में नारीका स्थान सुनिश्चित् एवं सम्मानपूर्ण है।
शरीर भोगोंसे विरक्त मुनियों के द्वारा स्त्रियाँ निन्दन य मानी
गई है, तथापि जगतमें कितनी ही स्त्रियौं गुणातिशयसे श्रात्मसाधनके हित संसार शरीर और भीगोंसे विरक्त
शोभायुक्त होने के कारण मुनियोके द्वार। भी स्तुति योग्य हुई होनेका उपदेश सभी धोके श्राचार्योने दिया है, और
है. उनका यश जगतमें फैला है, ऐसी स्त्रियाँ मनुष्य स्त्री जाति के भी पुरुषके इन्द्रिय भागोंका एक प्रधान साधन
लोकमें देवताके समान पूज्य हुई है, देव उनको नमस्कार होने तथा नारीके प्रति उसकी विषयासक्तिके उसकी श्रात्म
करते हैं। तीर्थकर चक्रवर्ती नारायण बलभद्र और गणधराकल्याण में रुचि होने के मार्गमें एक भारी रुकावट होने के
दिकोंको जन्म देने वाली स्त्रियाँ देव और मनुष्योंमें जो कारण आत्मार्थी पुरुषके लिये उसे घणित. निन्दनीय एवं
प्रधान व्यक्ति हैं उनके द्वारा बन्दनीय होगई हैं। कितनी त्याज्य प्रदर्शित किया है। ठीक इसी वृत्तिसे प्रेरित होकर,
ही स्त्रियाँ एक पतिव्रत धारण करती है, कितनी ही श्राजन्म निवृति प्रधान जैनधर्मके ब्रह्मचर्यव्रतधाग. निस्पृह. अपरि
अविवाहित रहकर निर्मल ब्रह्मचर्यव्रत धारण करती हैं, ग्रही, शानध्यानतप लीन निग्रंथ साधुओने प्रात्मकल्याण
'कोई कोई स्त्रियाँ वैधव्यका तीव्र दुःख भी आजन्म धारण साधनमें स्त्रीप्रसंग द्वारा होने वाले दोषों और बाधाओंपर
करती हैं। शीलवत धारण करनसे कितनी स्त्रियोंमें शाप प्रकाश डाला है, और प्रसंगवश स्त्री जातिकी बहुत
देने अोर अनुगृह करने की भी शक्ति प्राप्त होगई थी, ऐसा कुछ निन्दा भी की है। किन्तु इमपर भी. इन जैनाचार्योकी
शास्त्रोंमें वर्णन है देवताओंके द्वारा ऐमी स्त्रियो । अनेक एक भारी विशेषता यह रही है कि कथन करनेकी भाषा
प्रकारसे महात्म्य भी दिखाया गया है। ऐसी महाशीलवती संबंधी सुविधा के लिये ही ऐसे कथन प्रायः पुरुषपक्षसे
स्त्रियोंको जलप्रवाह भी बहाने में असमर्थ हैं. अग्नि भी किये गये हैं और इसीलिये उनमें विपक्षी स्त्रीजाति के
उनको जला नहीं सकती, शीतल हो जाती है, ऐसी स्त्रियोंक संसर्गकी निन्दा की गई है, किन्तु उक्त कथन समान रूपसे
सर्प व्याघ्रादि प्राणी भी नहीं खा सकते और न अन्य स्त्रोपक्षमें पुरुष जाति के लिये भी उपयुक्त समझने चाहिये।
स्थानमें उठाकर फेंक सकते हैं। सम्पूर्ण गुणांसे परिपूर्ण उदाहरणार्थ, दिगम्बर जैनाचारके प्रसिद्ध प्राचीन ग्रंथ
श्रेष्ठ पुरुषों में भी श्रेष्ठ तद्भवमोक्षगामी पुरुषोंको कितनी ही 'भगवती पाराधना' (अाश्वास ६, गाथा ६६१-१००२)
शीलवती स्त्रियांने जन्म दिया है । मोहके उदयसे जीव • Also see Prof. Satkori Mukerji's कुशील बनते हैं, मलिन स्वभावके धारक बनते हैं, और
article-The status of women in यह मोहका उदय सब स्त्रीपुरुषों में समान रीतिसे है। जो पीछे Jain religion" और जैनधर्मेर नारी'स्थान, रूपनन्दा स्त्रियों के दोषोंका वर्णन किया है वह श्रेष्ठ शीलवती स्त्रियोंपौष १३४४
के साथ सम्बंध नहीं रखता अर्थात् वह सब वर्णन कुर्शल
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अनेकान्त
[वष
स्त्रियोंके विषयमें ही समझना चाहिये, क्योंकि शीलवती इतनेपर भी. इस विषय में सन्देह नहीं है कि पुरुषजाति स्त्रियाँ गुणोंका पञ्ज स्वरूप ही हैं, उनकी दोष के छ ने धम जैसी पवित्र और सर्व कल्याणकारी वस्तु के नामपर सकते हैं।"
भी स्त्र जाति के साथ अन्याय किये ही हैं । वस्तुतः, जैमा श्राराजित सूर (E वी शतान्दा ), श्राचार्य कि वंगीय साहित्य महारथी स्व० शरत् बाबूने कहा हैजयन्दि (१०वीं शनाब्दी) पं० श्राशाधरजी (१३ वी 'समाज में नारीका स्थान नीचे गिरनेसे नर और नाग दोनों शताब्दी) इत्यादि विद्वानांने शिवार्यके उपयुक्त कथनका का ही अनिष्ट होता है और इस अनिष्टका अनुसरण करनेसे समथन किया है। जैन योगके प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानार्णवमें समाजमें नागका जो स्थान निर्दिष्ठ हो सकता है. उसे श्राचार्य शुभचन्द्र ने कहा है. अाह! इस समारमें अनेक समझना भी कोई कठिन काम नहीं है । समाजका अर्थ है स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जो शमभाव (मन्दकपायरूप परिणाम)
नर और नार्ग। उसका अर्थ न तो केवल नर ही है और न और शीलसंयमसे भूपित हैं तथ अपने वंशमें तिलक भूत
केवल नारी ही है।" तथा "सुमभ्य मनुष्यको स्वस्थ संयत हैं, उसे शोभायमान करती हैं तथा शास्त्राध्ययन और तथा शुभबुद्धि नारीको जो अधिकार अर्पित करने के लिये मत्यभाषणसे अलंकृत है।' तथा 'अनेक स्त्रियाँ ऐमीर कहता है वही मनुष्यकी सामाजिक नीति है, और इसे जो अपने सतीत्व, महल, चारित्र, विनय और विवेकसे समाजका कल्याण होता है। समाजका कल्याण ६ इस पृथ्वंतलको भाषत करती महापराण में जिनसेन नहीं होता कि किसी जातिकी धर्मपुस्तक में क्या लिखा स्वामं ने गुणवती नारीको स्त्री सरिम प्रमुखपद प्राप्त करने हे और क्या नहीं लिखा है।” सामाजिक मानव के संबंध में गली बताया है (नारी गुणवती धत्तं स्त्रीसृष्टिर ग्रिमं पदम)। एक अग्रेज विद्वानकी उक्ति हैगुणभद्राचार्य कृत 'श्रात्मानुशासन' की टीकामें, अनुदार
"Perhaps in no way is the moral एवं स्थितिपालक कहे नाने वाले दल के एक श्राधु नक
progress of mankind more clearly
shown than by contrasting the posiविद्वानका कथन है कि+-'... पुरुषों को मुख्य मानकर tion of women among savages with उनको संबोधन कर यह उपदेश दिया गया है किन्तु स्त्रीके their position among the most लिये जब यह उपदेश समझना हो तब ऐमा अथ करना advanced of the civilized." अर्थात् असभ्य चाहिये कि स्त्रियाँ कुत्सित व्यभिचारी पुरुषों के संबंधसे वहशी लोगोंमें स्त्रियोंकी जो श्रवस्था तथा समाजके व्यसनोंमें आसक्त होकर आत्मदिनसे वंचित रहती हुई सर्वाधिक उन्नत लोगों में स्त्रं जातिकी जो स्थिति है, उसकी अनेक पाप संचत करके क्या नरकाम नहीं पड़ती ? अवश्य तुलना करनेसे मानव जातिकी नैतिक उन्नतिका जितना पड़ती है, और उनको नरकोंमें दुलनेमें निमित्त वे पुख्य स्पष्ट और अच्छा पता चलता है उतना शायद किसी अन्य होते हैं। इमानये वे पुरुष उन्हें नरक घोर दुःखोंम प्रवेश प्रकारसे नहीं हो सकता । अस्तु, मानवकी सभ्यता, सुसंस्कृति कराने के लिये उघड़े हुए विशाल द्वारके समान है। ....... शिष्टता और विवेककी कसोटी स्त्रीजानिके प्रति उसका गृधर्मम स्त्रियोंके द्वारा परुषोंको जो अनेक उपकार मिलते व्यवहार और परिणामस्वरूप स्त्रीजातिकी सुदशा है। हैं उनके बदलेमें वे पापी परुष हैं कि जो उनको नरक में वर्तमानमें, मनुष्यके लिये अपनी २ समाज, जाति और डालकर उनका अपकार करने वाले हैं।'
वगकी अवस्थाको इस मापदण्डसे ही जाँचना और श्रादर्श इस कार स्त्री जाति के संबंध में जैनधर्म और जैनाचार्यो
प्राप्तिकेलिये प्रयत्नशल होना ही सर्वप्रकार श्रेयस्कर होगा। को नीति एवं विचार सष्ट हैं और वे किसी भी अन्य धर्म वीरसेवामन्दिर
ता०६१-४७ की अपेक्षा श्रेष्ठतर है।
* शरत्वाबूका निबंध 'नारीर मूल्य' (नारीका मूल्य) + जै० म० ए० कार्यालय बम्बई से प्रकाशित-श्रात्मा- -पृ.६७, ७४, ६४ नुशासनकी पं. वंशीधर कृत हिन्दी टीका पृ.६५
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अपभ्रंश भाषाका जैनकथा साहित्य
(ले०-५० परमानन्द जैन, शास्त्री)
कथा साहित्यकी महत्ता
पाया जाता है जो प्रत्येक व्यनिक जीवनको सफल बनानेके
लिये हावश्यक होता है। सलमें सत्पुरुषोंका उच्चतर भारतीय वाङमयमें कथा पुराण और चरित ग्रन्थोंका
जीवन दूसरोंके लिये श्रादर्श रूप होता है, उसपर चलनेसे उल्लेखनीय बाहुल्य है। प्रायः सभी सम्प्रदायोंके साहित्यक
ही जीवन में विकास और मैतिक चरितमें वृद्धि होती है, एवं विद्वानोंने विविध भाषाओं में पुराणों चरितों और काव्य चम्पू
स्वयंका पादर्श जीवन बनता है। इससे पाठक सहजहीमें आदि ग्रंथोंका निर्माण किया है। जहाँ जैनेतर विद्वानों ने
कथाकी उपयोगिता और महत्ताका र नुभव कर सकते हैं। अपभ्रंशको गौणकर संस्कृत प्रादि दूसरी भाषाओं में कथा
अपभ्रंश भाषाके इन स्थानों में अनेक विद्वान साहित्यकी सृष्टि की है। वहाँ जैनविद्वानोंने प्राकृत और
कवियोंने प्रतोंका धनुष्टान अथवा हाचरण करनेवाले भव्यसंस्कृतके साथ अपभ्रंश, भाषामें भी कथा, चरित, और
श्रारकोंके जीवन-परिचयके साथ व्रतका स्वरूप. विधान और पुराण ग्रंथ निबद्ध किये हैं। इतना ही नहीं किन्तु भारतकी
फलप्रालिका संरक वर्णन किया है । साथ ही, इतका पूरा विविध प्रान्तीय भाषाओं मराठी, गुजराती और हिन्दी श्रादिमें
अनुष्ठान करनेके पश्चात उसका उद्यापन करनेकी विधि, भी कथा साहित्य रचा गया है। प्रस्तु, आज मैं इस लेख
तथा उद्यापनकी सामर्थ्य न होमेपर दुगना बत करनेकी द्वारा पाठकोंको अपभ्रंशभाषाके कुछ अप्रकाशित कथा
श्रावश्यकता और उसके महत्वपर भी प्रकाश डाला है। साहित्य और उनके कर्तायोंके सम्बन्धमें प्रकाश डालना
प्रोका उद्यापन करते समय उस भव्य-श्रावककी धर्मनिष्ठा, चाहता , जिसपे पाटक उनके विषयमें विशेष जानकारी
कर्तव्यपालना, धार्मिक द्धा, साधमिवासल्य, निदोपताप्राप्त करसकें।
चरणकी क्षमता और उदारताका अच्छा चित्रण किया गया कथाएँ कई प्रकारकी होती हैं परन्तु उनके दो भेद है और उससे जैनियोंकी तत्तत् समयों में होनेवाली प्रवृत्तियों • मुख्य है-लौकिक और आध्याम्भिक । इन दोनों में सभी लोकसेवाश्री, श्राहार औषधि, ज्ञान और अभयरूप चारदानों कथाओंका समावेश हो जाता है, अथवा धार्मिक और की प्रवृत्ति, तपस्वी-संयमीका वैध्यावृस्य तथा दीनदुखियोंकी लौकिकके भेदसे वे दो प्रकारकी हैं उनमें धार्मिक कथाओंमें समय समयपर की जानेवाली सहायताका उल्लेख पाया तो प्राध्यारिमकताकी पुट रहती है और लौकिक कथाओंमें जाता है। इस तरह पह कथासाहित्य और पौराणिक पशु-पक्षियों राजनीति, लोकनीति श्रादि बाह्य लौकिक मनो- चरित्रग्रंथ ऐतिहासिक व्यत्रियोंके पुरातन प्राण्यानों, बतारंजक आख्यानोंका सम्मिश्रण रहता है। इनमें प्राध्या- चरणों अथवा नीच-उंच व्यवहारोंकी एक कसौटी है। यद्यपि स्मिकतासे ओत-प्रोत धार्मिक कथाओंका श्रांतरिक जीवन उनमें स्तुस्थितिको अलंकारिक रूपसे बहुत कुछ बढ़ाचढ़ा घटनााके साथ घनिष्ट सम्बन्ध रहता है और उनमें व्रतोंका कर भी लिखा गया है। परन्तु तो भी उनमें केवल कविकी सदनुष्ठान करने वाले भव्यश्रावकोंकी धार्मिक मर्यादाके कल्पनामात्र ही नहीं है, किन्तु उनमें कितनी ही ऐतिहासिक साथ नैतिक जीवनचर्याका भी अच्छा चित्रण पाया जाता आख्यायिकाएँ (घटनाएँ) भी मौजूद हैं जो समय समयपर है। साथही भारी संकट समुपस्थित होनेपर धीरतासे विजय वास्तविक रूपसे घटित हुई हैं । इत: उनके ऐतिहासिक प्राप्त करने, अपने पुरुषार्थको सुदृढ़ रूपमें कायम रखने तथा तथ्योंको यों ही नहीं भुलाया जा सकता । जो ऐतिहासिक धार्मिक श्रद्धा अडोल रहनेका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है, विद्वान इन कथाग्रन्थों और पुराणोंको कोरी गप्प या असत्य जिससे उन्हें सुनकर तथा जीवनमें उतार कर उनकी महत्ता- कल्पकाओंक गढ़ कहते हैं वे वास्तविक वस्तुस्थितिका मूल्य का यथार्थ अनुभव किया जा सकता है। कितनी ही कथाओं आँकने में असमर्थ रहते हैं। अतः उनकी यह कल्पना समुमें जीवनोपयोगी प्रावश्यक तत्त्वका संकलन यथेष्ठ रूपमें चित नहीं कही जा सकती।
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७४
अनेकान्त
[वष ८
कथाग्रंथोंके निर्माणका उद्देश्य रखकरण्डश्रावकाचार पद्धबिया छंद २६ संधियों और चारहजार . जैनाचार्यों अथवा जैन विद्वानों द्वारा कथाप्रन्थोंके बनाये
चारसौ तेईस श्लोकोंमें समाप्त हुकाहै। इसका रचनाकाल
विक्रम संवत् ११२६१ जब कि श्रीवालपुरमें नरेन्द्रका जानेका समुद्देश्य केयज यह प्रतीत होता है कि जनता सं. यमसे बचे और प्रतादिके अनुष्ठान द्वारा शरीर और प्रारमा
राज्य था। इस ग्रन्थ में भी सन्याशन के निशंकितादि अंगों की शुद्धिकी ओर प्रसर हो । साथ ही. दुर्व्यसनों और
में प्र सन्द होनेवालीकी कथाएँ बीच बीचमें दी हुई हैं। अन्याय अत्याचारोंके दुरे परिणामोंको दिखाने अभिप्राय
धम्मपरिक्खा-इस पंथके कर्ता मेवाडवासी केवल उनसे अपनी रक्षा करना है और इस तरह जीवनकी धमवंशी कविवर हरिषेण हैं जो गोवर्द्धन और गुर वतीके कमियों एवं श्रुटियोंको दूर करते हुए जीवनको शुद्ध एवं पुत्र थे । यह चितौलको छोड़कर अचलपुरमें लाए थे और सात्विक बनाना है। और द्रताचरण-उन्म पुण्य-फलको वहाँ ही इन्होंने वि. सं. १८४४ में धर्मपरीक्षाको पद्धडिया दिखानेका प्रयोजन यह है कि जनता अधिसे अधिक अपना चंदमें रचा था। इसमें मनोवंगकेद्वारा अनेक रोचक कथानको जीवन संयत और पवित्र बनावे, मादजनक, अनिष्ट, अनु
तथा सैद्धान्तिक उपदेशों श्रादिसे पवनवेगकी द्वाको पसेव्य, अपघात और बहुघातस्प प्रभच्य वस्तुओंके व्यव- परिवर्तित कर जैनधर्ममें सुदृढ़ करनेका प्रयत्न किया गया है। वहारसे अपनेको निरंतर दूर रक्खे। ऐसा करनेसे ही मानव ग्रंथमें अपनेसे पूर्ववर्ती बनी हुई जयरामकी प्राकृत गाथाबद्ध अपने जीवनको सफल बना सकता है। इससे प्रकट है कि धमपरीक्षाका भी उल्लेख हुपा है जो अभी तक अप्राप्य है। जैन विद्वानोंका यह दृष्टिकोण कितना उच्च और लोको साथही, अपनेसे पूर्ववर्ती तीन महा कवियोंका-चतुर्मुख, पयोगी है।
स्वयंभू श्रीर पुष्पदन्तका-भीप्रशंसात्मक समुल्लेख किया है। कथाग्रन्थ और ग्रन्थकार
भविसयत्तकहा-सपलब्ध कथाग्रंथोंमें कविवर अब तक इस अपभ्रंश भाषामें दो कथाकेश, दो बड़ी धनपाल को भयिप्यदत्तपंचमी कथा ही सबसे प्राचीन मालूम कथा और उनतीस छोटी छोटी कथाएँ मेरे देखने में आई होती है। यह ग्रंथ २२ संधियोंमें पूर्ण हुआ है ग्रंथका हैं। पुराण और चरितग्रंथोंकी संख्या तो बहुत अधिक है कथाभाग बड़ा ही सुन्दर है। इस पंचमी प्रतके फत.की जिसपर फिर कभी प्रकाश डालनेका विचार है। इस समय निदर्शक कथाएँ कई विद्वान कवियोंने रची है जिनका तो प्रस्तुत कथाग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका ही संक्षिप्त परिचय परिचय फिर किसी स्वतंत्र लेख द्वारा करानेका विचार है। नीचे दिया जाता है:
यह धनपाल धर्व नामके वैश्य वंश में उत्पन्न हुए थे। कथाकाश-अपभ्रंश भाषाका यह सबसे बड़ा कथा
उनके पिताका नाम माएसर और माताका धनश्री देवी था। कोष है इसमें विविध तोंके प्राचरण द्वारा फल प्राप्त करने
कविको सरस्वतीका वरदान प्राप्त था। यद्यपि कदिने प्रथमें वालोंकी कथाओंका रोचक ढंगस संकलन किया गया है।
कहीं भी उसका रचनाकाल नहीं दिया, फिर भी यह ग्रंथ इसमें प्रायः वे ही कथाएँ.दी हुई हैं जिनका उदाहरणस्वरूप
विक्रमकी दशमी शताब्दीका बतलाया जाता है। उल्लेख प्राचार्य शिवार्यकी भगवती पाराधनाकी गाथाओंमें पुरंदरविहाण कहा-इस कथाके कर्ता भट्टारक पाया जाता है। इससे इन कथाओंकी ऐतिहासिक तथ्यतामें अमरकीति है जिन्होंने गुजरात देशके 'महीयड' प्रदेश वर्ती कोई सन्देह नहीं रहता। प्रस्तुत कथाकं शके रचयिता मनि गौदह (गोध्रा) नामके नगरमें ऋषभजिन चैत्यालयमें श्रीचन्द्र हैं जो सहरूकीर्तिके प्रशिष्य और बीरचन्द्र के विक्रम संवत् १२४७ की भादों शुक्ला चतुर्दशी गुर वारके प्रथम शिष्य थे। यह ग्रन्थ तिरेपन संधियों में पूर्ण हश्रा दिन 'एटकर्मापदेश' की रचना की है। उस समय घालुक्य है। ग्रंथकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि इसे कविने प्रण. वंशी वंदिगदेवके पुत्र कर्णका राज्य था। ग्रंथमें कदिने अपनेहिलपुरके प्राग्वट वंशी सजनके पुत्र और मूलराजनरेशके * विशेष परिचयके लिये देखो, 'श्रीचन्द्र नामके तीन विद्वान' गोष्ठिक कृष्णके लिये बनाया था। इनकी दूसरी कृति शीर्षक मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ७ किरण इ.१०।
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किरण ६-७]
२७५
को 'मुनि' 'गणि' और 'सरि' आदि विशेषणोंके साथ दूसरे कवि लक्ष्मण या लखमदेव घे हैं जो रसनदेव उल्लेखित किया है। इससे मालूम होता है कि वे गृहस्थ नामक वणिकके पुत्र थे और जो मालवदेशके 'गोणंद' अवस्था छोड़ कर यादको मुनि बनगए थे। यह माथुरसंघी नगरके निवासी थे। उस समय यह नगर धन, जन, कन चन्द्रकीर्तिके शिष्य थे। इन्होंने अपनी जो गुरुपरम्परा दी और कंचनसे समृद्ध तथा उत्तंग जिनालयोंसे विभूषित था। है उससे मालूम होता है कि यह अमरकीर्ति प्राचार्य अमित- यह पुराण वंशके तिलक थे और रातदिन जिनवाणीके अध्यगांतकी परम्परामें हुए हैं। अमितगति काप्टासंघके विद्वान यनमें लगे रहते थे। उनकी एकमात्र रचना 'नमिनाथथे, जो माथुर संघकी एक शाखा है। भ० अमरकीर्तिने चरिउ उपलब्ध है जिसमें तेरासी कडवकों और चार षट्कर्मोपदेशमें निम्न ग्रंथोंके रचे जानेकी सूचना की है- संधियों में जैनियोंके बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथका नेमिनाथचरिउ, महावीरचरिउ, टिप्पणधर्मचरित, चरित चित्रित किया गया है । ग्रंथमें रचनाकाल दिया हुमा सुभाषितरत्ननिधि, धर्मोपदेशचूडामणि और भाण- नहीं है किन्तु सिर्फ इतना ही उल्लेख मिलता है कि ग्रंथ पईव।
भाषाकी त्रयोदशीको प्रारम्भ किया गया और चैत्रकी खेद है कि ये ग्रंथ अभीतक किसी भी शास्त्रभंडारमें त्रयोदशीको पूर्ण हुआ था। अत: निश्चित समयका समुल्लेख उपलब्ध नहीं हुए हैं। प्रस्तुत ग्रंथकर्ताने अपना 'षट्कर्मों करना कठिन है इन दोनों लक्ष्मण नामके विद्वानों में से कौनसे पदेश' और 'पुरंदविधानकथा' ये दोनों ग्रंथ अम्बाप्रसादके लक्ष्मण कवि चन,नषष्ठी कथाके कर्ता हैं अथवा इन दोनों से निमित्तसे बनाये हैं यह अम्बाप्रसाद अमरकीर्तिके लघु भिन्न कोई तीसरे ही लक्ष्मण या लाखू व उनकथाके बाँधव थे।
कर्ता हैं, इसके अनुसंधान होनेकी जरूरत है। चंदणछट्ठीकहा-इस कथाके कर्ता कविलक्ष्मण णिज्झरपंचमी विहाण कहाणक-इस कथा अथवा लाख है। इनकी गुरुपरम्पराका कोई विवरण प्राप्त के कर्ता भट्टारक विनयचन्द्र हैं जो माथुरसंघीय भट्टारक नहीं हुया । अतएव यह कहना अत्यंत कठिन है कि पडित बालचन्द्र के शिष्य थे। विनर चंद्रके गुरु मुनि बालचम्दने भी लाखू अथवा लक्ष्मण किस वंशके थे और उनके गुरुका जो उदयचन्दके शिष्य थे. दो कथाएं रची हैं जिनका परिचय क्या नाम था ? लक्ष्मण नामके दो अपभ्रंश माए।के प्रागे दिया जाएगा। प्रस्तुत विनयचन्द विक्रमकी तेरहवीं कवियोंका संक्षिप्त परिचय मेरी नोटदुकमें दर्ज है। उनमें शताब्दीके प्राचार्य कल्प विद्वान पं० श्राशावरजीके समकालीन प्रथम लक्ष्मण कवि वे हैं जो जायस अथवा जैसवाल वंशमें विनयश्चन्द्रसे. जिनकीरणा एवं प्राग्रहसे उन पंडितजीने उत्पन्न हुए थे। इनके पिताका नाम श्रीसाहुल था । यह प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के इष्टोपदेश ग्रंथकी संस्कृत त्रिभुवनगिरिके निवासी थे, उसके विनष्ट होने पर वे टीका बनाई थी. भिन्न हैं। क्योंकि पंडित श्राशाधरजीने यत्र-तत्र परिभ्रमण करते हुए विलरामपुरमें भाए थे, यह उन्हें सागरचन्द्र मुनिका शिष्य बतलाया है जैसाकि उनकी विलरामपुर एटा जिलेमें आज भी दसा हुआ है। वहांके टीका प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है:सेठ 'विल्हणके पौत्र और जिनधरके' पुत्र श्रीधर थे, जो
उपशम इव मूर्तः सागरेन्दुमुनीन्द्रापुरवाढवंशरूपी कमलोंको विकसित करने वाले दिवाकर थे।
दजनिदिनयचन्द्रः सच्चकोरेकचन्द्रः। इन्हीं साहू श्रीधरकी प्रेरणा एवं श्राग्रहसे लक्ष्मण ने
जगदमतसगर्भाशास्त्रसंदर्भगर्भः । 'जिदत्तचरित' की रचना विक्रम संवत २७५ की पौष
शुचिचरितवरिष्णोय य धिन्वंति वाचः।।२।। कृष्णा षष्टी रविवारके दिन की थं+। इनका विशेष परिचय स्वतंत्र लेखमें दिया जायगा।
इस पदकी रोशनीमें दोनों विनयचन्द्रोंकी भिन्नतामें + बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विकमकाल वियत्तउ।
विनये दुमुनेर्वाक्यानव्यानुग्रहहेतुना । पडमपक्खि रविवारह छठि सहारह पूसमासे सम्मत्तउ ॥
इष्टोपदेशटीकेयं कृताशाधरधीमता ॥१॥ -जिनदत्तचरितप्रशस्ति
-इष्टोपदेश टीकापशस्ति ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
सन्देहको कोई गुंजायश नहीं रहती; क्योंकि उन दोनोंकी गुरुपरम्परा भिन्न भिन्न है। और समय भी मित्र है। सागर इन दोनों स्थानों के कर्ता मनिवालचंद्र हैं जो मुनिटदर चन्दके चन्द्र के शिष्य बिनयचन्द्रका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी
शिष्यथे, इन्हीं बालचन्, मुनिके शिष्य विनयचन्द्रमुनिका ऊपर मुनिश्चित है तथा उक्र. निसरपंचमी कथाके कर्ता विनयचन्द्र
परिचय दिया गया है । प्रस्तुत बालचन्द्र मुनि श्राचार्य इनसे बादके विद्वान मालूम होते हैं, इनकी दो कृतियाँ और
कुं कुंदके प्राभृसत्रयके टीफार मनि बालचन्द्रसे मित्र हैं; भी समुपलब्ध हैं। एक 'चूनडी' और दूसरी कल्याणकरासु'
किरासु क्योंकि वे नयकीर्तिके शिष्य थे, जो सिद्धान्त चक्रवर्तीकी
भी है। इन दोनों मेंसे प्रथम रचनामें तेतीम पद्य हैं और उपाधिसे अलंकत थे। उन कथात्रोंके कर्ता मुनि बालचन्द्र द्वितीय रचना 'कल्याणकरासु' में जैनियों चतुर्विशति
कब हुए, यह यथेष्ठ साधन सामग्रीके अभाव में निश्चितरूपसे तीर्थकरोंकी पंचकल्याणक तिथियोंका वर्णन दिया हुआ है।
कहना कठिन है। ये दोनों रचनाएं जिस गुटकेमें लिखी हुई हैं वह विक्रम
जिनत्तिकहा और रविवउकहा- दोनों संवत् १५७६ में सुनपत नगरमें सिकन्दरशाहके पुत्र इब्राहीमके राज्यमें लिखा गया है। इससे विनयचन्द्र अनमानतःसी कथाश्रोंके कर्ता यशकीर्ति महा. गुरु कार्तिके लघुभ्राता व शिष्य या वेदसौ वर्ष पूर्व ही हुए होंगे अत: इनका समय
थे। गुए कीति महातपस्वी थे, उनका तपश्चरण से शार विक्रमकी १४ वीं या पंद्रवीं शताब्दी होगा।
अत्यंत क्षीण होगया था। इनकोशिष्य यश:कीति अपने समय
के एक अच्छे विद्वान कवि थे । इन्होंने संवत् १४८६ में x अनेकान्त वर्ष ५ किरण ६-७ पृष्ठ २५८ से ६१ तक जो विबुधश्रीधरके संस्कृत भविष्यात रित्र और अपभ्रंश विनयचन्द्र मुनिकी चूनहीन,मकी रचना प्रकाशित हुई है। भाषाके 'सुकमालचरिउ' की प्रतियाँ अपने ज्ञानावरणी उसके मुद्रित पाठका नया मन्दिर धर्मपुरा देहलीकी कर्मके क्षया लिखवाई थीं । महाकवि रइने अपने हस्तलिखित प्रतिपरसे ता. -५-४५ को मैने संशोधन 'सन्मह जिनचरित' की प्रशस्तिम यश:कीर्तिका निम्न शब्दों किया था उसके फलस्वरूप मालूम हुआ कि मुद्रित पाठमें में उल्लेख किया है:प्रथम-द्वितीय पद्य तथा अन्तिम पद्यकी कुछ पंक्रियों लेखकों
"भव्व-कमल-सर-बह-पयंगो, की कृपासे छूट गई हैं जिससे चूनहीके ३१ पद्य शेष
वंदि वि सिरिजसकित्ति असंगो।" रहगए हैं। असलमें उक्र चूनदी ३३ पोंमें समाप्त हुई कवि रहधूने रश:कीति तथा इनके शिष्योंकी प्रेरणासे है. उसका वह आदि और अन्तिम भाम इस प्रकार है:- कितने ही ग्रंथ की रचना की है । यशःकीर्तिने स्वयं अपना आदिभाग
'पाण्डवपुराण' वि० सं० १५४७ में अग्रवालवंशी साह विणएं वंदिवि पंचगुरु
वील्हा के पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे बनाया था, यह पहले मोह-महातम-तोडण-दिए.यर, बंदिवि वीरणाह गुण गणहर। हिसारके निवासी थे और बादको उदयवश देहलीमें रहने तिहुवण सामिय गुण गिलड, मोक्खह,मग्गु पयासण जगगुर। लगे थे, और जो देहलीके बादशाह मुबारकशाहके मंत्री थे, णाह लिहावहि चूनडिया,मुद्धड पभाइ पिठ जो डिविकर। वहाँ इन्होंने एक चैस्यालय भी बनवाया था और उसकी पणविवि कोमल-कुवलय-ए.यणी लोयालय पासण-वयणी। प्रतिष्ठा भी कराई थी। इनकी दूसरी कृति 'हरिवंशपुराण' पसरि वि सारद जोयह जिमा, जा अंधारउ सयल विणासह। है जिसकी रचना इन्होंने वि० सं० १५०० में हिसारके सा महु णिवसड माणुसहि, हंसवर् जिम देवी सरासह ॥२ साहु दिवढाकी प्रेरणासे की थी । साहुदिवढा अग्रवाल अन्तिम
कुल में उत्पन्न हुए थे और उनका गोत्र गोयल था। वे बड़े इह चूनडीय मुनिंद पयासी, संपुरण। जिण भागमभासी।
धर्मात्मा. और श्रावकोचित द्वादश व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले पढहिं गुणहिं जेसाहहिं, तेन सिव.सह लहहिं पयत्तें। थे। इनकी तीसरी कृति आदित्यवार कथा है, जिसे रविव्रतविणएं वंदिवि पंचगुरु ॥३३॥
* देखो, उन दोनों ग्रंथोंकी लेखक पुप्पिका।
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किरण ६-७ ]
कथा भी कहते हैं। और चौथी रचना जिनरात्रि कथा है जिसमें शिवरात्रि कथाके ढंगपर जिनरात्रिके प्रतका फल बतलाया गया है । इनके सिवाय 'चन्द्रप्पह चरिउ' नामका अपभ्रंशभाषाका एक ग्रन्थ और है उसके कर्ता भी यशः कीर्ति हैं । वे प्रस्तुत यशःकीर्ति हैं या कि अन्य कोई यशःकीर्ति है इसका ठीक निश्चय नहीं; क्योकि इस नामके अनेक विद्वान् होगए हैं +1
' भाषाका जैनकथा-साहित्य
अथनी कथा - इस कथा के कर्ता प्रसिद्ध कवि र हैं जो भ० यशकीर्तिके समकालीन विक्रमकी १५ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और सोलहवीं सदीके प्रारम्भके विद्वान् हैं। पद्मावती पुरवालकुल में समुत्पन्न हुए थे, उदयराजके anta और हरिसिह के पुत्र थे, ग्वालियरके निवासी थे । इन्होंने वि० सं० १४६६ में सुकौशलचरितकी रचना की है, यह श्राशुकवि थे और जल्दी ही सरल भाषामें कविता करते थे । कवि रद्दधूने ग्वालियरके तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह के और उनके पुत्र कीर्ति सिंहके राजकालमें धनेक ग्रंथों की रचना की है और मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी कराई है। वे प्रतिष्ठाचार्य नामसे प्रसिद्ध भी थे । कविने प्रस्तुत 'प्रथमी' कथा में रात्रिभोजन के दोषों श्रौर उससे होनेवाली व्याधियोंका उल्लेख करते हुए लिखा है कि दो बड़ी दिनके रहनेपर धावक लोग भोजन करें; क्योंकि सूर्य के तेज मंद होने पर हृदयकमल संकुचित हो जाता है, श्रतः रात्रिभोजनका धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टिसे त्यागका विधान किया है, जैसा कि उसके निम्न दो पद्योंसे प्रकट है
"
जि रोय दलदिय दीण श्ररणाद, जि कुट्ठ गलिय कर करण सवाह । दुग्गु जि परियण वग्गु हु सु-रयरिहिं भोय फत्तु जि मुहु ॥ = ॥ घड़ी दुइ वासरु थक्कइ जाम, सुभोय सावय भुजहि ताम । दियायरु उ उजि मंदर होइ सकुकुच्चइ चित्तहु कमलु जि सोइ ॥ ६ ॥
+ विशेष परिचत्रके लिये देखो, जैन सिद्धान्तभास्कर भाग ११ किर २ में मेरा भ० यशः कीर्ति नामका लेख ।
૨૭
ने
पुण्यासव कहा इस कथा ग्रंथ में कविवर रह पुण्यका श्राश्रव करनेवाली व्रतों की कथाएँ दी हैं । ग्रंथ में कुल तेरह संधियाँ हैं । इस ग्रंथ की रचना कविवर रहधने महाभव्य साहू ने मिदास की प्रेरणा की है, और इसलिये यह ग्रंथ भी उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रंथप्रशस्तिमें साहू ने मिदास के परिवारका विस्तृत परिचय निहित है । कविवर रहने अपभ्रंशभाषामें २३-२४ ग्रंथोंकी रचना की है + |
. थमी कथा (द्वितीय) - इस कथाके कर्ता कवि हरिचन्द्र हैं जो अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुए थे। इसके सिवाय इनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता । प्रस्तुत कथा पं० रद्दधूकी उल्लिखित कथासे बढ़ी है, यह १६ कड़वकोंमें समाप्त हुई है । और उसमें रात्रिभोजनके शेषका उल्लेख करते हुए उसके त्यागकी प्रेरणा की गई है । inter आदि १५ कथाएँ — इन कथाओंके कर्ता भट्टारक गुणभद्र हैं। यद्यपि गुणभद्र नामके अनेक विद्वान श्राचार्य और भट्टारक प्रसिद्ध हैं । परन्तु ये भट्टारक गुणभद्र उन सबसे भिन्न हैं। यह माधुरसंधी भट्टाकमलकीर्तिके शिष्य थे और अपने उन गुरुके बाद गोपाचल के पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे। इनकी रची हुई निम्न पन्द्रह कथाएँ पंचायती मन्दिर देहलीके गुटका नं० १३ १४ में दी हुई हैं, जो संवत् १६०२ में श्रावण सुदी एकादशी सोमवार के दिन रोहतकनगर में पातिसाह जलालुद्दीन के राज्यकाल में लिखा गया है* । उन कथाओंके नाम इस प्रकार हैं :1
१ अतवयकहा २ सवरणबार सिवि कहा ३ पकड़ा ४ हपंचमी कहा ५ चंद्रायण वयकहा ६ चंद्रट्ठी कहा ७ गरयउतारी दुद्धार सकहा गिद्दहसतमी कहा मउडसत्तमी कहा १० पुष्कं जलि - वयका ११ रयरणत्तयविहारका १२ दहलक्खण् वयका १३ लद्धिवर्या वहाण कहा १४ + देखो, अनेकान्त वर्ष ५ किरण ६-७ ।
८
* श्रथ संवासरे स्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यराज्यात् संवत् १६०२ वर्षे श्रावणसुदि ११ सोमवासरे रोहितासशुभस्थाने पातिसाह जलाली, (अलालुद्दीन) राज्यप्रवर्तमाने ॥ छ ॥
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अनेकान्त
सोलह कारणवयविहि १५ सुदसमी कहा।
इन कथाओंसे नं० १ १० और १२ नंवरकी तीनों कथाएँ ग्वालियरके जैसवाल वंशी चौधरी लक्ष्मण सिंहके पुत्र पंडित भीमसेनके अनुरोधसे रची गई हैं। और नं० २ तथा नं० १३ की ये दोनों कथाएँ ग्वालियरवासी संघपति साहू उद्धरणके जिनमन्दिरमें निवास करते हुए साहु सारंगदेवके के पुत्र देवदासकी प्रेरणाको पाकर बनाई गई हैं । नं० ० की कथा उक्र गोपालवासी साहु यीधाके पुत्र सहजपाल के अनुरोधसे लिखी गई है। शेष नौ कथाओंके सम्बन्धमें निर्मापक भव्य श्रावकका कोई परिचय दिया हुआ नहीं है।
[ वर्ष म
सांखयई विहाण कहा- इस कथा के रचयिता विमलकीर्ति हैं, इनकी गुरुपरम्परा आदिका कोई परिचय प्राप्त नहीं हो सका |
भट्टारक गुणभद्रका समय भी विक्रमकी १६ वीं शताउदीका पूर्वार्ध है; क्योंकि संवत् १५०६ की धनपाल पंचमी कथाकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि उस समय ग्वालियर के पट्टपर भट्टारक हेमकीर्ति विराजमान थे और संपत् १५२१ में राजा कीर्तिसिंहके राज्य में गुणभद्र मौजूद थे, जब ज्ञानार्णवकी प्रति लिखी गई थी । इन्होंने अपनी कथाओं में रचना समय नहीं दिया है। इसीसे निश्चित समय मालूम करने में बड़ी कठिनाई हो जाती है।
देवदत्त हैं। इनकी गुरुपरम्परा और समयादि भी प्राप्त नहीं सुगंधदसमी कहा इस कथा कर्ता कविर
हो सका ।
रविवउकहा और अणन्तवयकहा
इन दोनों कथाथोंके रचयिता मुनि नेमिचन्द्र हैं जो माधुर संघ में प्रख्यात थे । नेमिचन्द्र नामके श्रनेक विद्वान हो गए है अतः सामग्री के अभावसे प्रस्तुत नेमिचन्द्र की गुरुपरम्परा और समयादिके सम्बन्ध में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता इनके अतिरिक्त 'अणं तवयकहा' और 'मुत्तावली विहायकहा' इन दोनों कथायोंके कर्ता अभी अज्ञात हैं, प्रस्तुत कथाओं में कर्ता कोई परिचय दिया हुआ नहीं है।
1
इस तरह इस लेखमें दो कथाकोपों, दो बड़ी कथाओं और छोटी छोटी तीस कथाओंका परिचय दिया गया है। आशा है अन्वेषक विद्वान इन कथाओं के अतिरिक जो और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर कथा साहित्य हो उसपर भी प्रकाश
* देखो, धनपाल पंचमी कथाकी लेखक प्रशस्ति, कारंजाप्रति । डालने का यत करेंगे, जिससे इस कथा साहित्यके सम्बन्धमें जनताकी विशेष जानकारी प्राप्त हो सके। ता० २० । १० । ४६ ]
और लोग सं० प्रा० सी० पी० एड बरार ।
x देखो, 'ज्ञानार्णव' श्रारा प्रतिकी लेखक प्रशस्ति ।
वीरसेवामन्दिर, सरसावा
1
'मेरा यह विश्वास है कि श्रहिंसा हमेशा के लिये है । वह आत्माका गुण है; इसलिये वह व्यापक है; क्योंकि आमती सभीके होती है अहिंसा सबके लिये है, सब जगहोंके लिये है, सब समयोंके लिये है। अगर दरसल आमाका गुण है. तो हमारे लिये वह सहज हो जाना चाहिये । श्राज कहा जाता है कि सत्य व्यापार में नहीं चलता, राजकाजमें नहीं चलता । तो भिर वह कहाँ चलता है ? अगर सत्य जीवनके सभी क्षेत्रो में और सभी व्यवहारोंमें नहीं चल सकता तो वह कौड़ी कीमत की चीज नहीं है। जीवनमें उसका उपयोग ही क्या रहा? मै तो जीवन हरएक व्यवहारमें उसके उपयोगका नित्य नया दर्शन पाता हूँ !'
-महात्मा गांधी
"दुनियामें जितने लोग दुखी हुए हैं, वे अपने सुखके पीछे पड़े, इसीलिये दुखी हुए और जो दुनिणमें सुखी पाये जाते हैं, ये सब औरोंको सुखी करनेकी कोशिशके कारण ही सुखी हैं।
I
समझ लेते । "
काश, केवल हमारे धर्मोपदेशक ही नहीं, किन्तु दुनिया के राजनैतिक नेतागण भी इस सिद्धान्तको - काका कालेलकर
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प्राचीन जैनमन्दिरोंके ध्वंसावशेषोंसे निर्मित मस्जिदें
पुरानी दिल्लीकी मस्जिदसर्वप्रथम तो मुसलिम विजेताओंकी और जाय कि उनका स्थान परिवतन नहीं किया गया तो
भी यह तो प्रत्यक्ष है कि मुसलमानोंने र नके चौगिर्द मन्दिरके स्तंभपूर्ण सभामंडपों में वह सर्व सामग्री प्राप्त
दीवारें खड़ी करदी, क्यों कि सभी सूत्रपथ' उनकी होगई जो कि एक बनी बनाई मस्जिदके लिये आव
अपनी शैलीकी सजावटसे ढके हुये हैं अंर उनके श्यक होती। जो कुछ करना था वह केवल इतना ही
समस्त खुले (उघड़े) हुए भागों में नुकीली महरायें कि भवनके बीच में स्थित जैन मन्दिर ( वेदीगृह )
___ बनी हुई हैं जिनका कि भारतीय कभी उपयोग को हटा दिया जाय और पश्चिमी दिशामें महराबों
नहीं करते । सब बातो को ध्यानमें रखते हुए सभासे अलंकृत एक नई दीवार खडी करदी जाय. जो
वना यही प्रतीत होती है कि मुसलमानों ने समूची कि खुदाके बंदों (मुसलनानों) को उस दिशाका निर्देश
इमारतको पुनः संयोजित करके उसे उसका वर्तमान करती रहे जिसमें कि मक्का अवस्थित है, और
अवस्थित रूप दिया है। कनोगे' की प्रख्यात मस्जिद जिसकी ओर, जैसा कि सब प्रसिद्ध है, नमाजके
प्राचीन काहिरामें स्थित अमरूकी मस्जिदकी योजना वक्त मुह करके खड़े होनेकी कुरानमें उनके लिये
के बिल्कुल समकक्ष ढंगपर पुनः संयोजित एक जैन आज्ञा है। किन्त यह निश्चयमे नहीं कहा जा सकता
मन्दिर ही है, इम में तनिक भी सन्देह नहीं है । छत कि भारतवर्ष में वे कभी मात्र इतनेसे ही सन्तुष्ट रहे
और गुम्बद सय जैन स्थापत्यकलाके हैं जिससे कि हों । कमसे कम इन दो उदाहरणों में जिनका हम
अन्दरूनी हिस्सेमें मूर (मुसलमानी-अरबी) शैलीका उल्लेख करने जा रहे हैं, उन्होंने, उपयुक्त परिवतन कोई भी चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होता; किन्तु बाहरी के अतिरिक्त, जैन स्तंभोंके आगे महराबोंका एक
भाग उतना ही विशुद्ध मुसल्मानी कलाका है । मडू परदा उठानेका और उसे अति यत्नपूर्वक निर्मित के निकट धार स्थानमें एक अन्य मस्जिद है जो तथा सर्वप्रकार सम्पन्न प्रचुर खुदाई-कटाईकी कारी- अपेक्षाकत अर्वाचीन है और निश्चय ही एक जैन गरीसे जो कि उनकी भारतीय प्रजा निमाण कर मन्दिरका पनोजित रूप है। एक दूसरी मस्जिद सकती थी, अलकृत करनेका भी निश्चय किया। जानपरके किलमें तथा अहमदाबाद व अन्य स्थानो ___ यह निणय करना तनिक कठिन है कि किस हद को अनेक दूसरी मस्जिदें-सब ही, जैनमन्दिरों तक ये स्तंभ उसी रूप और क्रममें अवस्थित हैं जिसमें को तोड़ फोड़कर और उनसे प्राप्त सामग्रीकी एक कि भारतीयोंने उनकी मूलतः योजनाकी थी, अथवा विभिन्न योजनानुसार पुनर्योजना करनेके ढंगको किस हद तक विजेताओंने उन्हें स्थानभ्रष्ट करके सूचित करती हैं। अस्तु, यदि कुतुबकी मस्जिदवाले पुनः संयोजित किया । यदि यह मान भी लिया स्तंभ पूर्ववत् अवस्थित रहते तो यह एक अपवाद
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२८०
अनेकान्त
[वर्ष ८
-
होता, किन्तु फिर भी मैं यह सन्देह किये बिना है अतः इसी प्रसंगमें उसका उल्लेख करना सर्वोपनहीं रह सकता कि कोनों में स्थित दुमंजिले भवन युक्त है। ये स्तंभ उसी श्रेणीके हैं जैसे कि श्राबू
और अन्य इमारतों में से भी कुछएक अपने मूलरूप पर्वतपर ( देलवाड़ाके जैनमन्दिरों में ) प्रयुक्त हुए में ही अवस्थित हैं; किन्तु इसपर हम अजमेरी हैं-सिवाय इसके कि देहलीवाले स्तंभ उनकी अपेक्षा मस्जिद के प्रकरणमें जिस मरिंजद में कि जैनस्तंभ अधिक समद्ध और अधिक श्रमपूर्वक निर्मित हैं। प्रायः निश्चयतः अपनी प्राथमिक योजनानसार इनमेंसे अधिकाँश तो संभवतः ११ वीं या १२ वीं स्थित हैं. पुनः विचा करेंगे । तथापि यह पूर्णतः शताब्दीके हैं और भारतवर्ष में उपलब्ध उन थोड़ेसे निश्चित है कि कुतुबके कितने ही स्तंभ वैसे ही खंडों नमूनों में से हैं जो कि अलङ्कारों ( सजावट ) से से निर्मित हैं, और वे मस्जिदके निर्माताओं द्वारा अत्यधिक लदे हुए हैं। इनमें, सिवाय परदेके पोछ उन स्थानों में स्थापित किये गये हैं जहां वे आज भी वाले स्तंभो के तथा उनसे कुछ एकके जिनका
संबंध अधिक प्राचीनतर भवनों से था, सबमें ही ___ वह भाग अर्थात् प्रधान स्तंभश्रेणीका अधभाग शिरोभाग (चोटी) से लगाकर मूल तक एक इंच (जो कि महराबों की विशाल शृंखलाके सन्मुख पड़ता स्थान भी कहीं सजावटने खाली नहीं है । तिसपर है) अपने रूपको स्वयं शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक भी इनकी सजावट इतनी तीक्ष्ण है और इतनी चतु- . भले प्रकार स्पष्ट करता है । वह इतना विशुद्ध राई एवं कुशलतासे अङ्कित की गई है और उसका जैन है कि उक्त शैलीका कथन करते हुए उसका प्रभाव उनकी जीणशीर्ण अवस्थामें भी इतना चित्रोकथन शायद वहीं करना चाहिये था; किन्तु वह पम है कि ऐसी अत्यधिक सौन्दर्यपूर्ण वस्तुमें कोई भारतवर्षकी चूंकि सबसे प्राचीन मस्जिदका एक अंग भी दोप ढूढ निकालना अत्यन्त कठिन है । कुछ
स्तंभोमस उनक
-माटा ' जनरल कनेवमको उसकी दीवारपर एक अभिलेख अङ्कित । मिला था जिसमें लिखा था कि इस मस्जिदके वास्ते काट-तोड़ कर निकाल दिया गया है जो कि मुसलसामग्री प्रदान करनेके लिये २७ भारतीय मन्दिर नष्ट म
च.रती किये गये थे (पार्कोलोजिकल रिपोटस, जिल्द १ ५० थीं। किन्तु छतमें तथा कम दीख पड़ने वाले भागों १७६) । तथापि इसपरसे विशेष कुछ सिद्ध नहीं होता में जैन अहंतो की पद्मासनस्थ मूर्तियाँ और उस जब तक कि किसीको यह मालूम न हो कि इस कार्यके लिये जो मन्दिर ध्वंस किये गये वे कैसे थे। खजराहो से धर्मके अन्य चिन्ह-धार्मिक प्रतीक-आदि अब भी २७ मन्दिर, गन्थई मन्दिरको छोड़कर, इसके अन्दरूनी लक्षित किये जा सकते हैं। मंडपोंके प्राधेके लिये भी स्तंभ प्रदान नहीं कर सकते, और सादरी जैसा एक ही मन्दिर पुरी मस्जि के लिये
यह स्पष्ट नहीं होता कि मीनारकी खड़ी बांसुरी पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करदेता, यद्यपि यह मन्दिर बहुत अर्वाचीन है तथापि यह मानलेनेका भी कोई कारण नहीं नुमा कोनियें कहाँसे नकल की गई हैं-खरासान है कि मुस्लिमकालसे पूर्व ऐसे मन्दिर अवस्थित ही नहीं तथा और सुदूर पश्चिममें पाई जानेवाली मीनारों की हो सकते थे।
किसी प्रकल्पक विशेषतासे, या कि वे जनमन्दिरों की
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कित ।
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किरण ६-७]
प्राचीन जैनमन्दिरोंके ध्वंसावशेषोंसे निर्मित मस्जिदें ।
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आकृतियों परसे लीगई हैं ? गजनीकी मीनारो के है। पूर्वी द्वारके बीचसे जो दृश्य दीख पड़ता है वह तलभागों को आकृतियों को देखते हुए प्रथम निष्कर्ष बड़ा ही मनोहर है और मध्य गुम्बदके दोनों ओर की संभावना सी प्रतीत होती है; किन्तु अनको स्थित क्रमबद्ध स्तंभावलीका जो दृश्य छोरपरसे मन्दिरों, विशेषकर मैसूर तथा अन्य स्थानों के जैन दीख पड़ता है वह अत्यन्त कमनीय है । यह गूढ़मन्दिरों की ताराकृति (सितारेनुमा शकल) से यही छन्नपथ (Corridor) प्रायः पूर्ण है, किन्तु उत्तर प्रतीत होता है कि वे मूलतः भारतीय ही हैं। ओर वाले ऐसे पथका तीन चौथाई भाग तथा
दक्षिणी पक्ष एवं अपेक्षाकृत अधिक सादे स्तंभोंका कुतुबकी मस्जिद
अत्यल्पश ही अब अवशेष रह गया है। सर्वाधिक कुतुबुद्दीनकी मस्जिद, जो कि सारे 'कुठवतुल सुन्दर स्तंभ पूर्वी आच्छादित पथकी उत्तर दिशामें इस्लाम' (इस्लामकी शक्ति) कहलाती है, सामनेसे स्थित हैं; उनके ऊपर अंकित पुष्पपात्रों (फूलदान, पीछकी ओर, स्थूल रूपसे १५० फीट लम्बी है और गमले) जिनमें से फूल पत्तियाँ बाहर को लटक रही हैं, आजू बाजू उसकी श्राधी (लगभग ४५ फीट) चौड़ी प्रथानुसारी पुष्पमालायुक्त व्याघ्रमुग्वों, गुच्छेदार है। उस्म के मध्यका खुला प्रांगन १४२ फीट लम्बा और रस्सियों, जंजीरोंसे लटकती घंटियों और अनेक १०८ चौड़ा है। पूर्वी और उत्तरी दिशाके द्वार अभी कौसुमी (फूलदार) रचनाओंका उत्कीर्णीकर ग ध्यानभी समूचे हैं और उनपर मस्जिदकी स्थापना-संबंधी पूवक परीक्षण करने योग्य हैं । दीवारसे दूसरी अभिलेख अंकित हैं। दक्षिणी दिशाका द्वार और पंक्तिमें, मध्यस्थलसे उत्तरकी आर पांचवें स्तंभपर उसके साथ ही पश्चिमी सिरेका बहभाग तथा एक वत्सयुक्त गौ (गाय-बछड़ा) अङ्कित है, और उमी दक्षिणी दीवार की सम्पूर्ण पश्चिमी संभावली अदृस्य पंक्तिमें आंगनके सिरेपर पांचवाँ स्तंभ समस्त हो चुकी हैं। यद्यपि यह मस्जिद पूर्णतः भारतीय स्तंभों में शायद सर्वाधिक सुन्दर स्तंभ है । अनेकों बल्कि वस्तुतः जैनमंदिरों की सामग्रीसे निर्मित है अधखंडित जैनमूर्तियाँ और कितनी ही अखंडित तथापि इसका प्रत्येक भाग दुबारा ही निमित हुआ भी, जो कि मास्टर द्वारा पूर्णतया छिपाई जा सकती है। ये मत भी, कि आंगनका प्राकार मूल तथा विस्तृत थीं, इन स्तंभोंपर उत्कीणे हुई देख पड़ेंगी। महराबदार परदेके पीछे वाले स्तंभ उसी प्रकार नोट-प्रस्तुत लेख, ला. पन्नालालजी जैन अग्रवाल अवस्थित हैं जैसे कि वे भारतीयों द्वारा निर्मित देहली द्वारा प्रेषित 'All about Delhi' (सब कुछ किये गये थे, वैसे ही भ्रमपूर्ण हैं। इसमें शक नहीं देतली सम्बन्धी) नामक पुस्तक के पृ० ४१, ४४-४५, ४६. कि प्रारंभमें दीयारों का बाहिरी भाग उसी प्रकार ४७, ११, १८७ परसे लिये गये अंग्रेजी उद्धरणोंका प्लास्टरसे पूर्णतया ढका हुआ था जैसा कि अन्दरूनी अनुवाद है। भागके खंभे; किन्तु यह सब प्लास्टर अब उतर का
-ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.
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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक-फर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
(ले०–न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
गत किरणसे श्रागे]
- - सरागी और वीतरागी देवोंकी समानता-अस- असाधारण'-उसी मात्रमें रहनेवाला और तदतिरिक्रमें न
रहने वाला-धर्म होता है वही उनका व्यावर्तक लक्षण मानतापर विचार
(भेदक) माना जाता है। पर जो धर्म उभयत्र दोनों में हमने प्राप्तमीमांसाके 'अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहा- पाया जाता है वह लक्षण नहीं होता-उपलक्षण हो सकता
यः' इस द्वितीय कारिका-वाक्य ार उसक है । अत: मानवीय क्षुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव किसी प्राचार्य विद्यानन्द तथा बसुनन्दिकृत टीकागत व्याख्यानसे अपेक्षासे समानता रखने वाले सरागी और वीतरागी देवगन यह प्रमाणित एवं प्रतिपादित किया था कि प्राप्तमीमांसा- बतलानेसे वे अभिन्न नहीं हो जाते-सकषाय और अकषाय
सुधादि प्रवृत्तियाक अभावका कवलाम आभ्यन्तर का भेद उनमें स्पष्टत: मौजूद है। विग्रादि-महोदय (शारीरिक अतिशय) के रूपमें स्वीकार
अब प्रश्न सिर्फ यह रह जाता है कि फिर उसे (सुधादि किया-उसे छोदा नहीं है। किन्तु वह रागादिमान् प्रवृत्तियोंके अभावको) घातिकर्म-क्षय-न्य वा महिनीयकमस्वर्गवासी देवतालों में भी पाया जानेसे लक्षण नहीं है- जय-जन्य कसे माना जा सकता है क्योंकि इन कर्मोंसे विशिष्ट उपलक्षणमात्र है।
सरागी देवोंमें भी वह पाया जाता है ? इसपर प्रो. सा. ने यह आपत्ति उपस्थित की है कि वास्तव में सम यहीं भूल करते हैं कि सधादि प्रवृत्तियोंके यदि धादि-प्रवृत्तियोंका प्रभाव सरागी देवोंमें भी हो, तो प्रभावको सर्वथा घातिकर्मक्षय-जन्य अथवा मोहनीय कर्मसरागी और वीतरागी देवों में कोई भेद नहीं रहेगा। साथमें क्षय-जन्य ही समझ लेते हैं। पर बात यह नहीं है। क्षधादि चुधादि प्रवृत्तिोंके प्रभावको घातिकर्म-क्षय-जन्य या मोहनीय- प्रवृत्तियोंका अभाव घातिया कोंके अथवा मोहनीय कर्म के कर्म-क्षय-जन्य नहीं माना जा सकेगा; क्योंकि सरागी देवोके सर्वथा सयसे भी होता है और उनके विशिष्ट क्षयोपशमसे. घातिकर्म और मोहनीयकर्म मौजूद हैं ?
भी होता है। कोई भी गुण अथवा दोषाभाव हो वह दो इसका उत्तर यह है कि सरागी और वीतरागी देवोंमें तरहस हाता ।'-कमकि क्षयसे अथवा कोंके योपसमजो भेद है वह क्षुधादि प्रवृत्तियोंके प्रभावको लेकर नहीं है, १ 'तदितरावृत्तित्वे सति तन्मात्रवृत्तित्वमसाधारणत्वम्'।-त.। किन्तु सरागता और वीतरागताको लेकर है जैसाकि उनके २ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार नामोंसे और स्वयं प्राप्तमीमांसाकारके 'रागादिमत्सु सः कर्म घातिकर्म कहलाते हैं। इनमें मोहनीर का तो अभाव इस प्रतिपादनसे ही प्रकट है। अर्थात् जो स्वर्गबासी देव हैं तीन तरहसे होता है-उपशमसे, क्षयोपशमसे और सयसे। वे तो राग, द्वेष, मोह प्रादि दोसे विशिष्ट हैं और जो शेष तीन कर्मोका अभाव दो ही तरहसे होता है-योवीतरागी देव हैं वे उन दोषोंसे सर्वथा रहित हैं-निष पशमसे और क्षयसे । उपशम, क्षयोपशम और क्षय तीनों हैं। अत एव क्षुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव दोनों में रहनेपर हालोंमें दोषाभाव और गुण का आविर्भाव होता है। भी सरागता और वीतरागता-कृत भेद उनमें स्पष्ट है। उपशमकी हालतमें दोषभाव और गुणका काविर्भाव कितनी ही बातोंमें समानता और कितनी हीमें असमानता अन्तर्मुहूर्त जितने काल के लिये ही होता है। अत: वह दोनों हर एकमें रहती हैं। इतना ही है कि जो उनका यहाँ गौण है। क्षयोपशम अवस्थामें दोषाभाव और गुण.का
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किरण ६-७]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
२८३
से । कर्मों के सर्वथा क्षयसे जो दोषाभाव अथवा गुण होता चार-चार महीने और एक एक वर्ष तक प्रतिमायोग धारण है वह अपने परिपूर्ण रूपमें और सदाके लिये होता है। करनेपर भी कभी थकते नही हैं और न उन्हें पसीना ही उस नष्ट शेषके अथवा उत्पा गुणके अभावके पुन: होनेकी पाता है। राजवार्तिषका यह उद्धरण इस प्रकार है:किसी भी काल, किसी भी क्षेत्र और किसी भी पर्याय में वीर्यान्तगय . योपशमाविभूतासाधारणकायबसम्भावना नहीं रहती। एक बार उत्पन्न हुया फिर वह सदैव लत्वान्मासिकचातौमिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायो - अनन्त कालतक वैसा ही बना रहता है-उसकी प्रच्युति फिर नहीं होती। पर फर्मों के क्षयोपशमसे जो दोषाभाव।
: नधारणेऽपि श्रम-लमविरहिताःकायबलिनः "पृ.१४४ अथवा गुण होता है वह न्यूनाधिक और किसी निश्चित
देवोंके आयुकर्म और पतिकर्मका उदय मौजूद है और काल तक के लिये ही होता है और इसीलिये तयोपशमिक श्रापुकर्म तो प्रतिक्षण गलता भी रहता है फिर भी उनके गुण अथवा दं.षाभाव तरतमता-न्यूनाधिकताको लिये हुए पये
झरा नहीं पाती- उसका प्रभाव है और इसीलिये उन्हें जाते हैं और असंख्यातरूपसे वे घटते बढ़ते रहते हैं--एक 'निर्जर" कहा गया है। यदि पूछा जाय कि उनके जराका बार उत्पन्न हश्रा क्षयोपशमिक गुण अथवा दोषाभाव प्रभाव किस कर्मके क्षयसे है या किस तरहसे है ? तो इसका कालान्तर, देशान्तर और पर्यायान्तमें नष्ट होकर पुनः भी उत्तर यही दिया जायगा कि यद्यपि उनके वीर्यान्तरायकर्मका उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणस्वरूप एक वीर्यान्तरायकर्मके उदय है- क्षय नहीं है फिर भी उसका उनके भवनि मत्तक क्षयोपशमको ही लीजिये, वह सर्वतो न्यून सूक्ष्म निगोदिया विशिष्ट क्षयोपशम है और उससे उन्हें ऐसा बल प्राप्त रहता लब्ध्यपर्याप्तकके होता है और सर्वतो अधिक तेरहवें गुण- है कि जिसकी वजहसे वे बुढापाको प्राप्त नहीं होते। इसी स्थ नके उन्मुख हए बारहवें गुणस्थानवी महायोगी क्षयोपशमके :भावसे पसीनका भी उनके प्रभाव है। तात्पर्य निर्ग्रन्थक और सर्वार्थसिद्धिके देव है। मध्यवर्ती संख्यात यह कि इस फर्मके क्षयोपशमका बड़ा अचिन्त्य प्रभाव है। भेदसरे अनन्त प्राणियोंके हैं। एक ही जीवके विभिन्न इसी प्रकार मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोकालों में वह संख्यातीत प्रकारसे हो सकता है। इस वीर्यान्स- पशमको भी समझना चाहिये । निद्रादर्शनाचरण कर्मका रायकर्मके क्षयोपशमका ही प्रभाव है कि दोनो छह-छह उदय उनके विद्यमान है-उसका उनके क्षय नहीं है फिर महीने और यहाँ तक कि बारह वर्ष तक भी मानवशरीरमें भी जो उनके निद्राका अभाव है और वे सदैव 'निनिमेष भूख-प्यासादिकी वेदना नह हो पाती। यह बात तो श्राज अथवा 'अस्वप्न' बने रहते हैं वह उस कर्मके भावनिमित्तक भी अनुभव सिद्ध है कि वीर्यन्तरायकर्म के क्षयोपशमकी विशिष्ट क्षयोपशमकी ही कृपा है। अन्तम तमें समग्र न्यूनाधिकतासे कोई एक ही उपवास कर पाता है या मामली द्वादशाङ्ग श्रुतका पारायण करने वाले श्रुतकेवलीको कौन ही परिश्रम कर पाता है और दूसरा स-स बीस-बीस नहीं जानता ? अत: यही बात प्रकृतमें समझिये । फेवली उपवास कर लेता है या बड़ा-सा पहा परिश्रम करके भी भगवानके चूकि वानिकर्मोंका सर्वथा क्षय हो चुका है. थकानको प्राप्त नहीं होता। अकलंकदेवने राजवार्तिकमें एक इसलिये उनके सुधादि प्रवृत्तियोंका प्रभाव उन कायबलअद्धिधारी योगी मनिका वर्णन किया है जिसमें कोक सर्वथा क्षयजन्य है और सरागी देवोंके कि वातकहा गया है कि उन्हें वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे असा
कर्मोका एक खास तरहका क्षयोपशम है और इसलिये उनके धारण काय-बल प्राप्त होता है जिससे वे एक एक महीने,
उन प्रवृत्ति का खास तरह का अभाव है और वह क्षयं पशम
जन्य है, जो क्षयोपशम उनकी आयु पर्यन्त ही रहता है प्राविर्भाव कुछ अधिक ६६ सागर तक बना रहता है।
तथा मा के समाप्त होनेपर पर्यायान्तर-मानव या तियंचऔर तय-अवस्थामें दोषाभव और गुरु का आविर्भाव सादि होता हश्रा अनन्त काल तक स्र्थात सदैव रहता १ "प्रमरा निजरा देवास्त्रिदशा विबुधाः।"-मरकोष १-७ है-फिर उसकी प्रच्युति नहीं होती। इन दोनोंपर ही २ "प्रादित्या ऋभयोऽस्वप्ना भमा अमृतान्धसः।" प्रकृतमें विचार किया गया है।
-अमरकोष १-८॥
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अनेकान्त
1
की पर्याय - ग्रहण करते ही उस पर्यायानुकूल भूख-प्यासारिकी प्रवृत्ति होने लगती है अपनी पर्याय तो उन मानव साधारण प्रवृत्तियका अभाव ही है। तान्पर्य यह हुआ कि सुधारिवृत्तिका प्रभाव घातिया कर्मोंके मेकर उनके क्षयोपशमये दोनोंसे होता है। उनका सर्वथा श्रात्यन्तिक प्रभाव तो केवली के होता है जो घातिकर्मों के दाय-अन्य है और दैशिक फालिक और पाकि उनका अभाव सरागी देवों या विशिष्ट योगियों के होता है जो घातिकमों के योपशमय है और इसलिये पानिया था क्षत्रीपशम और तुषा प्रवृत्तियों के प्रभावमें कारण-कार्यभाव सोपपत्र है - इसमें कोई बाधादिदोष नहीं हैं ।
,
हमारे इस विवेचनका समर्थन आचार्य विद्यानन्दके अपहरवीगत महत्वपूर्ण शंका समाधान भी हो जाता है,
जो इस प्रकार है
-
[ वर्ष =
विद्यानन्दके इस शंका-समाधानसे स्पष्ट है कि केली सुधादि प्रवृत्तियों का प्रभावरूप महोदय घातिया कर्मण्य-अन्य है और सरागी देवोंके पतियाकर्मजन्य न होकर उनके क्षयोपशम-जन्य है। यही कारण है कि उम्र महोदय को श्रतिशयमात्र ही बतलाया गया है- उसे लक्षण को में नहीं रखा और इसलिये यह उपलक्षण हो सकता है। यहाँ हम यह भी प्रकट कर देना चाहते हैं कि सचापि प्रवृत्तियों यथासम्भवप्रवृत्तियोंका ही प्रभाव देवों में है, जैसे पसीनाका अभाव, अराका अभाव मानवीय सुधा पिपासाका प्रभाव श्रातंक (रोग) का अभाव, अकाल मृत्युका अभाव आदि । और इनकी अपेक्षा सरागी तथा बीउरागी देवोंमे समानता है और राग, द्वेष, मोट, चिन्ता, भय आादिके अभावकी । अपेक्षा उनमें असमानता है। आप्तमीमांसामै चूँकि हेतुवाइ आसका निर्याय अभी है, इसलिये यहाँ वह केवल समा मता (रागा, सर्वज्ञता और हितोपदेशकता) ही शिक्षित हुई है और इसीके द्वारा भरहन्तको कपिलादिसे व्यवच्छेद करके प्राप्त सिद्ध किया गया है। पर, स्नकरण्ड श्रावकाचार चूंकि अचानक धर्मका प्रतिपादक ग्रंथ है, अतः वहाँ हेतुवाद और श्रहेतुवाद (श्राज्ञावार श्रागमवाद) दोनों द्वारा स्वीकृति अतिशयदि भी भाप्तका स्वरूप वर्णित किया गया है। इससे रूष्ट है कि आप्तमीमांसा बुधादि प्रवृत्तियोंका प्रभाव भी केवली में विवक्षित है। पर, लक्षणरूपसे नहीं, किन्तु उपलक्षण अथवा प्रतिश रूपसे ।
।
लक्षण और उपलक्षयका विवेक
मैंने अपने इसी लेखमें श्रागे चलकर यह बतलाया था कि 'नकरण्ड (श्लोक ५) में आप्तका स्वरूप तो सामान्यतः चाप्तमीमांसाकी ही तरह “आमेनोत्सन्नदोषेण" इत्यादि किया है। हाँ, आप्तके उक्त स्वरूपमें आये 'उत्सन्नदोष' के स्पष्टीकरणार्थ जो वहाँ क्षुत्पिपासा आदि पद्म दिया है उसमें लप- राग पादिका अभाव और उपलक्षण सुचादिका अभाव दोनोंको 'उत्सन्नदोप के स्वरूपकोटि में प्रविष्ट किया गया है।' और फुटनोटमें न्यायकोप तथा संक्षिप्तहिन्दीशब्दसागरके आधारसे लक्षण कर उपलक्षणमें भेद दिखाया था। इसपर प्रो० सा० मे उपलचणके दो-तीन और खा अपने मूल लेख में
। स
“अथ यादृशो घातियजः स (विग्रहादिमहो दयः) भगवति न तादृशो देवे येनानैकान्तिकः स्थान दिवोकस्वप्यस्ति रागादिमत्सु नैवास्तीति व्याख्यानादभिधीयते । तथाप्यागमाश्रयत्वाद देतु: पूर्ववन । पृ० ४ ।
विद्यानन्द पहले शंकाकार बन कर कहते हैं कि जैसा धारियाकर्मण्यम्य वह निःस्वेदम्यादि महोब भगवान में पाया जाता है वैसा देवोंमें नहीं है, उनके तो घातकर्म मौजू हैं— मात्र उनका क्षयोपशम है और इसलिये उनका मदन कोंके उयजन्य नहीं है— उपोपजन्य ही है। अतः हेतु अनेकाधिक नहीं है और इसलिये यह महोदय ( वातिकर्मक्षय-जन्य) श्राप्तपनेका निर्णायक होसकता है । इसका वे फिर उत्तरकार बनकर उत्तर देते हैं कि फिर भी (उ प्रकार हेतु व्यभिचार पारित हाँ जानेपर भी) हेतु आगाम श्रय है, पहलेकी तरह । श्रर्थात् वह श्रागमपर निर्भर है— श्रागमकी अपेक्षा लेकर ही साध्य सिद्धि कर सकेगा; क्योंकि श्रागममें ही भगवान के निःस्वेदत्यादि मह को घातियाकमंहय-अन्य बतलाया गया है और इसलिये यहाँ हेतुवादसे आप्तका निर्णय करने में वह विधि है।
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किरण ६-७]
एक प्राचीन ताम्रशासन
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ही-फुटनोटमें नहीं-उपस्थित किये हैं, मानों वे मेरी ५२ भाव उपलक्षण हैं। प्रकृतमें सुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव दृष्टि में न हों और अन्त में मुझसे पूछा है कि 'मेरे मता- प्राप्तमें अर्थपरक उपलक्षण है और उससे रत्नकरण्ड नुसार धादिवेदनाओंका प्रभाव प्राप्तका किस प्रकारका श्रावकाचारका कर्ता प्राप्तको मानवाकृतिसे भी इतीत उपलक्षण है और रत्नकरण्डकार उसके द्वारा प्राप्तकी का बतलाना चाहता है। अर्थात् 'वे (केवली भगवान) लोकोत्तर विशेषता बतलाना चाहता है ? उसके द्वारा प्राप्तको सरागी परम-ग्रामा है' यह उसके द्वारा प्रकट करमा उन्हें अभीष्ट देवोंके सदृश बतलाना उन्हें अभीष्ट है या उनसे पृथक ।' है। सरागी देव मानवप्रकृतिसे अतीत (अमानव) होते मेरे द्वारा लक्षण और पलक्षणमें सप्रमाण दिखाये गये हुए भी वे प्राप्तसे पृथक हैं, प्राप्त तो मानवप्रकृतिरहित अन्तरमें अापने कोई दोष नहीं बतलाया और जब उसमें और देवाधिदेव है एवं धार्मिक्षयजन्य अपरिमित विशेषकोई दोप नहीं है तो उपलक्षणके लांगल पुच्छकी तरह तात्रोंसे युक्त है, पर सरागीदेव केवल मानव प्रकृतिरहित अन्यथासिद्ध और लक्षणों को प्रस्तुत करना सर्वथा अनावश्यक ही हैं एवं कर्मों के विशिष्ट क्षयोपशमजन्य सीमित और है उनसे सिद्ध-प्रसिद्ध कुछ भी नहीं होता। शब्दस्तोम- अल्पकालिक विशेषताओं-महादरोंसे ही युक्त हैं- वे महानिधिगत उपलक्षणके स्वरूपको प्रस्तुत करते हुए तो वे देवाधिदेव वीतरागदेव नहीं हैं, यह रत्नकरडश्रावकाचारके उपलक्षण और अजह स्वार्था लक्षणामें भेद ही नहीं समझ ६ ठवें पद्यमें उसके कर्ताने बतलाया है और यह स्वयं सके । श्रस्तु, हम पुनः दोहराते हैं कि हमने जो लक्षण प्राप्तमीमांसाकारकी ही द्वितीय रचना स्वयम्भूस्तोत्रके मानुषीं और उपलक्षणके मध्यमें न्यायकोप और हिन्दीशब्दसागरके प्रकृतिमभ्यतीतवान्' श्रादि ७५ वें पद्य के सर्वथा अनुकूल है। श्राधारसे अन्तर दिखाया है वह निर्दोष है और इसलिये श्रत: सरागी और वीतरागी देवोंके कुछ सादृश्यको लेकर वही हमारे लिये वह। विवक्षित है। वास्तवमें उपलक्षण उन्हें सर्वथा एक समझना या बतलाना भारी भूल है। कहीं तो शब्दपरक होता है, जैसे "काभ्यो दधि रक्ष्य- इस सम्बन्धमें पीछे पर्याप्त विचार किया जा चुका है अत: ताम्" में काक पद उपलक्षण है और कहीं अर्थपरक और अधिक विस्तार अनावश्यक है। होता है, जैसे प्रात्माके ५३ भावों में जीवत्वभावके अलावा
(क्रमश:)
एक प्राचीन ताम्र-शासन अर्सा हुआ भारत सरकारके अभिलेख-वेत्ता डा. हीरानन्दजी शास्त्री एम० ए० ने ऊटकरण्ड (मद्रास) से एक प्राचीन ताम्रशासनकी प्रतिलिपि (कापी), कुछ प्रश्नों के साथ, मुनि पुण्य विजय के पास पाटन भेजी थी और उनके पाससे, तत्सम्बन्धी जानकारीके लिये, मुझे प्राप्त हुई थी; क्योंकि ताम्रशासन का सम्बन्ध आर्यनन्दि नामके दिगम्बराचायरी है, जिन्हें इस शासनपत्रमें 'जम्बूखण्ड' गणका श्राचार्य लिखा है और विस्तृत ज्ञान-दर्शन-तपसे सम्पन्न बतलाया है । ये आचार्य उस समय ‘जलार' ग्राममें जो कि कण्माण्डी देशके अन्तर्गत पर्वत-निकटवर्ती ग्राम था, अपने गण अथवा संघ-सहित स्थित थे। इनके नामपर इस शासनपत्रमें ग्रामके उत्तर में स्थित पूर्विण ग्रामका ५० निवर्तन क्षेत्र, भगवान अहंन्तकी प्रतिमा अथवा प्रतिमाओंकी नित्यपूजाके लिये और शिक्षक (शैक्ष्य-शिष्य ?), ग्लान (रोगी) तथा वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्ति (सेवा) के लिये, दान किया गया है, जिसकी सीमाओं का दानपत्रमें स्पष्ट उल्लेख है। यह दान उन श्रीमान् इन्द्रणन्द अधिराजकी ओरसे, अपने वंशजोंकी और अपनी धर्मवृद्धिके लिये,
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अनेकान्त
[वर्ष ८
दिया गया है जो कि विजयानन्द मध्यमराजाके पुत्र थे, सेन्द्रक नामक निर्मल कुलरूप आकाशके उदित दीप्त-दिवाकर थे और राष्ट्रकूट वंशमें उत्पन्न हुए श्री देढ महाराजके द्वारा अभिमत (माने हुए राजा) थे।
और यह दान उन आगुप्तायिक राजाओंके ८४५ वर्ष बीतनेपर दिया गया है जो कि इस अवसर्पिणी कालके २४ वें तीर्थकर सन्मति श्रीवर्द्धमानकी वृद्धिंगत त र्थसन्ततिमें हुए हैं-अथात् भगवान वर्द्धमान (महावार) के तीर्थानुयायी थे। उन्ही वर्द्धमान तीर्थकरके शासनकी आदिमें एक श्लोकद्वारा मंगलाचरणरूपसे वृद्धि-कामना की गई है-लिखा है कि जिन्होंने रिपुओं-कर्मशत्रवोंका नाश किया है उन वर्द्धमान गण-समुद्रके वद्धमानरूप चन्द्रमाका दैदीप्यमान शासन (तीथे) वृद्धिको प्राप्त होवे, जो कि मोह के शासनवम्प है-मोहपर कंट्रोल रखने अथव विजय प्राप्त करनेकी एकनिष्ठाको लिये हए है ।
और दानपत्रके अन्त में यह घोषणा की गई है कि 'जो इस दानका अपहरण करता है वह पंच महापातकों से युक्त होता है हिंसादि पांच धोरपापोंका भागी होता है।' दानपत्र में कुल १६ पंक्तियाँ हैं और इसलिये उसे पंक्तिक्रमसे ही आज अनेकान्त-पाठकों के सामने रखा जाता है :। वर्द्धतां वर्द्धमानेन्दोवर्द्धमानगणोदधेः शासनं नाशित2 रिपार्भासुरं मोहनाशनम् ।। इहास्यामवमपिण्यान्तीथ3 कराणां चतुर्विंशतितमस्य सन्मतेः श्रीवर्द्धमानस्य बर्द्धमा4 नायां तीत्थमन्ततावागुप्तायिकानां राज्ञामष्टासु वर्षशते5 पु पंचचत्वारिंशदग्रेषु गतेषु राष्ट्रकूटान्वयजातश्रीदे6 ढच (स्य ?) महाराजस्याभिमतः श्रीसेन्द्रकामलकुलाम्बरोदितदी7 प्रदिपाकरा विजयानन्दमद्धयमराजात्मजः श्रीमानिन्द्रणन्दाधि8 राजः स्ववंश्यानामात्मनश्च धर्मवृद्धये कण्माण्डीविषये 9 पर्वतप्रत्यासन्तजलारग्रामे जम्बुरखण्डगणस्यायज्ञान10 दर्शनतपस्सम्पन्नाय प्राय॑णन्द्याचार्याय भगवदह|| प्रतिमानवरतपूजार्थ शिक्षकग्लानवृद्धानां च तपस्विनां वै12 यावृत्त्यार्थं ग्रामस्योत्तरतः पूर्विणग्रामविरेयसीमकं द13 क्षिणेण मुञ्जलमार्गपर्यन्तं अपरतः एन्दाविरुत्स14 हितवल्लीकं तस्मादुत्तरतः पुष्करणी ततश्च यावत्पूर्वविश्य15 के राजमानेन पंचाशन्निवर्तनप्रमाणक्षेत्रन्द16 त्तवानेतद्यो हरति स पंचमहापातकसंयुक्ता भवति [1]
इस शासनपत्रमें उल्लेखित आगुप्तायिक राजाओं, उनके संवत् , राष्ट्रकूटवंशी देढ महाराज, सेन्द्रककुल, विजयानन्द राजा, उसके पुत्र इन्द्रनन्द आधिराजा, कण्माण्डी देश, जलार ग्राम, पूर्बिण
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किरण ७-८
भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना
ग्राम, जम्बूखण्ड गण, और आर्यनन्दि आचार्यके विषय में विशेष अनुसन्धानकी जरूरत है, उससे इतिहास-विपयपर कितना ही नवीन प्रकाश पड़ेगा। अतः विद्वानोंको इस विषय में अवश्य प्रयत्न करना चाहिये और उसके नतीजेसे अनेकान्तको सूचित करके अनुगृहीत करना चाहिये। -सम्पादक
भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना
स समय भट्टारकोंका स्वेच्छाचार अनुवादित करके उनपर टीकाएं लिखकर उन्हें MAM बहुत बढ़ गया था-उनके आचार सवत्र प्रचारित करनेका बीडा उठाया गया था,
विचार शास्त्रमर्यादाका उल्लंघन जिससे गृहस्थजन धम एवं तत्त्वज्ञानके विषयको
IR करके यथेच्छ रूप धारण कर रहे स्वयं समझकर ठीक आचरण करें और उसके लिये NAYAK और उनकी निरंकुश, दपित गृहस्थों से गये बीते मठाधीश और महापरिग्रही
..' एवं अवांछनीय प्रवृत्तियोंसे जैन भट्टारकों के मुखापेक्षी न रहें, इसका नतीजा बड़ा सुन्दर जनता कराह उठी थी और बहुत कुछ कष्ट तथा निकला---गृहस्थों में विवेक जागृत हो उठा, धर्मका पोड़ाका अनुभव करती करती ऊब गई थी, उस जोश फैल गया, गृहस्थ विद्वानों द्वारा शास्त्रसभाएं समय कुछ विवेकी महान पुरुषोंने भट्टारकोंके चंगुल होने लगीं, भट्टारको की शास्त्रसभाएं फीकी पड़ गई, से अपना पिण्ड छुड़ाने, भविष्य में उनकी कुत्सित स्वतंत्र पाठशालाओं द्वारा च्चों की धार्मिक शिक्षा प्रवृत्तियोंका शिकार न बनने, उनके द्वारा किये जाने का प्रारम्भ हुआ और जैनमन्दिरों में सर्वत्र शास्त्रों वाले नित्यके तिरस्कारों-अपमानों तथा अनुचित के संग्रह, स्वाध्याय तथा नित्यवाचनकी परिपाटी कर-विधानोंसे बचने और शास्त्रविहित प्राचीन मार्ग चली। और इन सबके फलस्वरूप श्रावक जन धर्मसे धर्मका ठीक अनुष्ठान अथवा आचरण करनेके कम में पहलेसे अधिक सावधान होगये—वे नित्य लिये दिगम्बर तेरहपन्थ सम्प्रदायको जन्म दिया स्वाध्याय, देवदर्शन, शास्त्रश्रवण, शील-संयमके था। और इस तरह साहसके साथ भट्टारकीय जूए पालन तथा जप-तपके अनुष्ठानमें पूरी दिलचस्पी को अपनी गदनोंपरसे उतार फेंका था तथा धर्म के लेने लगे और शास्त्रों को लिखा लिखा कर मन्दिरों मामलेमें भट्टारकोंपर निर्भर न रहकर-उन्हें ठीक में विराजमान किया जाने लगा । इन सब बातों में अथमें गुरु न मानकर-विवेकपूर्वक स्वावलम्बनके स्त्रियों ने पुरुषों का पूरा साथ दिया और अधिक प्रशस्त मार्गको अपनाया था। इसके लिये भट्टारकों तत्परतासे काम किया, जिससे तेरह पन्थको उत्तरोको शास्त्रसभामें जाना, उनसे धर्मकी व्यवस्था लेना तर सफलताकी प्राप्ति हुई और वह मूलजैनाम्नाय आदि कार्य बन्द किये गये थे । साथ ही संस्कृत- का संरक्षक बना । यह सब देखकर धर्मासनसे च्युत प्राकृतके मूल धर्मग्रंथोंको हिन्दी आदि भापाओं में हुए भट्टारक लोग बहुत कुढ़ते थे और उन तेरह
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अनेकान्त
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पन्थमें रात दिन रत रहनेवाले श्रावकों पर दूपित मिश्रित खिचड़ी भाषामें लिखे गये हैं और बहुत मनोवृत्तिको लिये हुए वचन-वाणों का प्रहार करते कुछ अशुद्ध पाये जाते हैं इनके ऊपर "हृदे(दय)बोध थे-उन्हें 'निष्ठुर' कहते थे, 'काठिया' (धर्मकी हानि ग्रंथ कथनीयः" लिखा है । संभव है 'हदयबोध' करनेवाले) बतलाते थे और 'गुरु विवेकसे शून्य' नामका कोई और ग्रंथ हो, जिसे वास्तवमें 'हदयवेध' बतलाते थे। साथ ही उनके जप-तप और शील- कहना चाहिये, और वह ऐसे ही दूपित मनोवृत्ति संयमादिरूप धर्माचरणको निष्फल ठहराते थे और वाले पद्योंसे भरा हो और ये पद्य ( जिनमें से केटका यहाँ तक कहनेकी धृष्टता करते थे कि तेरहपंथी पाठ अपना है) उसीके अंश हो :वनिकपुत्रकी उत्पत्तिपर देवतागण रौरव-नरकका "सत उत्पत्यं (सतोत्पत्ती) जगत्सव हर्षमानं प्रजायतेः(ते) अथवा घोर दुःखका अनुभव करते हैं, जब कि तेरापंथी वन्क(वनिक) पुत्रं (त्रे) रोरवं देवतागणाः। पुत्रकी उत्पत्तिपर सारा जगत हर्प मनाता है। इसके त्रिदश१३पंथरतौ (ता) निशिवासराः। सिवाय वे पतितात्मा उन धर्मप्राण एवं शील-संय- गुरुविवेक न जानति निष्ठुराः मादिसे विभूपित स्त्रियोंको, जो धमके विषय में जप-तपे कुरुते बह निफलां (ला) अपने पुरुषोंका पूरा अनुसरण करती थीं और नित्य .कमपि ये व (?) जना सम काठया ॥२॥ मन्दिरजीमें जाती थीं किन्तु भट्टारक गुरुके मुखसे पुर्प(रूप) रीत लपै निजकामिनी शास्त्र नहीं सुनती थीं, 'वेश्या' बतलाते थे !-उनपर प्रतिदिन चलिजात जी (जि) नालये। व्यंग्य कसते थे कि वे प्रतिदिन जिनालय (जैन गुरुमुखं नहि धर्मकथा श्रुणं मंदिर ) को इस तरह चली जाती हैं जिस तरह कि नृपगृहे जिम जाति वरांगना ॥३॥" राजाके घर वारांगना (रण्डी) जाती है !!
इन विपबुझे वाग बाणोंसे जिनका हदय व्यथित हालमें इस भट्टारकीय मनोवृत्तिके परिचायक एवं विचलित नहीं हुआ और जो बराबर अपने तीन पद्य मुझे एक गुटकेपरसे उपलब्ध हुए हैं, जो लक्ष्यकी ओर अग्रसर होते रहे वे स्त्रीपुरुष धन्य हैं। गत भादों मासमें श्री वैद्य कन्हैयालालजी कानपुरक और यह सब उन्हींकी तपस्या, एकनिष्ठा एवं कर्तपास मझे देखनेको मिला था और जिसे सिवनीका व्य परायणताका फल है, जो पिछले जमाने में भी बतलाया गया है। यह गुटका २०० वपसे ऊपरका धर्मका कुछ प्रकाश फैल सका और विश्वको जैनधर्म लिखा हुआ है। इसमें संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं एवं तत्वज्ञानविषयक साहित्यका ठीक परिचय मिल के अनेक वैद्यक, ज्योतिप, निमित्तशास्त्र और जंत्र- सका । अन्यथा, उस भट्टारकीय अन्धकारके प्रसार मंत्र-तंत्रादि विषयक ग्रंथ तथा पाठ हैं। अस्तु; उक्त में सब कुछ विलीन हो जाता। तोनों पच नीचे दिये जाते हैं, जो संस्कृत-हिन्दी
सम्पादक
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विविध-विषय
अतःकालान सरकार सामान्यतः मस्लिम दो दलों में विभक हो जायगी और तब उसके बायपरायके लीग केन्द्रस्थ कांग्रेसी साकारमें सम्मिलित होने का देशमें प्राधीन रहने और उसके द्वारा नियन्त्रित होनेकी ही सर्वत्र सहर्ष स्वागत किया जाता किन्तु इस नवीन सम्मि- सम्भावना
सम्भावना है किन्तु इस परिस्थितिको काँग्रेस कभी भी लनके प्रति देश वस्तुतः अत्यन्त उ.मीन एवं निरूमाह ही स्वीकार नही
स्वीकार नहीं करेगी। इस राजनैतिक समझौते के -- या इसे रहा। मि० जिन्ना द्वारा प्रस्तुन समस्या हल करने के प्रयानको जो कुछ भी नाम दिया जाय उसके-फलस्वरूप साम्प्रदायिक 'अत्यन्त रूखा' कहकर ठीक ही बयान किया गया है।
खींचतानके भी कम होमेके कोई लक्षण नहीं दीम्ब पड़ते। उनके स्वयं के अनुयायिकाम भी, छोटे बड़े सब ही इससे नोभावोलीकी भयङ्कर दुरवस्था किमी भी भारतीय देशभत्रको माखुश रहे । उन्होंने अन्त:कालीन सरकारसे अलग रहनेकी यह महसूस करने नहीं दे सकती कि देशने अपनी कठिनाइयों अपनी मूर्खताको भो महसस किया और उसका प्रतिकार और संकटोंमे मुक्ति पानी । एक मात्र यही सन्तोषकी यात करना चाहा। कांग्रेस और लीगके बीच समझौता कराने के है कि (अन्तःकालीन सरकारके) कांग्रेसी दल में देशके लिये नवाब भोपाल द्वारा किया गया हस्तक्षेप भी विफल विद्यमान सर्वश्रेषु व्यकि ही सम्मिलित हैं: श्रीर संभव है रहा, अन्तमें, परिणामस्वरूप, मि. जिन्नाको वासरायके वे ऐसी स्थिति भी सामजस्पकी भावनायें मचारित हाथोंसे वही स्वीकार करना पड़ा जोकि नेहरु सरकार उन्हें करनेमें सफल हो जाय जहाँ उसकी कोई पाशा नहीं है। पहले ही स्वयं दे रही थी। उन्होंने नेहरू सरकारको अपेक्षा किन्तु यह मात्र एक श्राशा ही है, यदि अभिलापा नहीं।' चायसरायके हाथों वे ही पांच स्थान लेने पसन्द किये।
-के. एम. मुन्शी इस बातसे उनके मस्तिष्कका मित्रता अथवा सहायता पूर्ण
कांग्रेस सभापतिका सन्देश-गत २२-२३.२४ होना सूचित नहीं होता। उन पांच स्थानों से एक स्थान
नवम्बरको मेरठ में अ. भा० राष्ट्रीय महासभाका ५४ वों उन्होंने एक कांग्रेस-विरोधी हरिजनको इमाशा देदिया कि उससे भारतीय हरिजनों में फूट पड़ जायन। । इस बातसे
अधिवेशन सफलता पूर्वक सम्पन्न हश्रा। उन अवसरपर भी उनके इरादोंमें मित्रभावका अभाव झलका है। प्रात
देश के मनोनीत राष्ट्रपति प्रागर्य कृपलानीने जनताको
स्वावलम्बी बनने के लिये प्रेरित किया। आपने कहा-'श्राप इसके, यह भारतकी गष्टीय एकताको भंग करनेका उनका
लोगोंको .पनी रक्षाके लिये अन्तःकालीन सरकार, प्रान्तीय एक साहसिक प्रयत्न था। नेहरू सरकारने पहिले ही अपने
सरकार, फौज या पुलिसकी ओर न देखकर अपनी शक्ति, ऊपर संयुक्त उत्तरदायित्व लेकर शनि और सामजस्यकी एक
अपने संगठन तथा अपनीब हादुरीपर निर्भर रहना चाहिये। पाश्वर्यजनक प्रथा डाल दी थी। इस सरकारके लिये यह
भार लोगोंको जातिपातके बंधन त्याग देने चाहिये, अच्छे एक आसान बात थी, क्योंकि इसके सदस्य या तो कांग्रेसी
पड़ोसियों के साथ मित्रता कायम करनी चाहिये और साहस थे या एके राष्ट्रवादी । क्या ये नये पाँच सस्प. जो श्रय
तथा संगठनके साथ गुण्हेपनका विरोध करना चाहिये।' पाकिस्तान प्राप्त करनेकी याशा लगाये बैठे हैं इस संयुक्त उत्तरदायित्वको अपनायेंगे अथवा नहीं, यह एक अत्यन्त पं. नेहरूजाका जन्मदिवस-ता. १४ नवम्बसन्दिग्ध प्रश्न है, यदि वे ऐसा नहीं करते तो नेहरू सरकार रको देश विदेशमें, भारतीय राष्ट्र के शिरमौर पं० जवाहरलाल
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अनेकान्त
[वर्ष ८
नेहरुका जन्मदिन सोसाह मनाया गया। न्यूयार्क (अमेरिका) हस्तक्षेप नहीं कर सकती। भारतका विधान बनानेके लिये में स्थित भारतीय स्वातव्य सभाकी राष्ट्रीय समिति द्वारा विधान परिषद अपने ऊपर लगाई पाबन्दियोंको तर दंगी। इस उत्सवका प्रायोजन विशेष महत्वपूर्ण रहा। उसमें अन्य देशोंने भी जब विधान परिषदें चुनकर उन्हें विधान अमेरिका, रूस, चीन, इंगलिस्तान, फिलीपाइन द्वीपसमूह, बनानेका काम सोपा तो उन्हें भी इस प्रकारकी कठिनाइका अफगानिस्तान, लेबिनन श्रादि राष्ट्रोंके प्रतिनिधि सरकारी सामना करना पड़ा था। हम भी अन्त में उन्हीं देशोंकी भाँति तौरपर सम्मिलित हुए थे। भारतीय प्रतिनिधिमंडलकी नेत्री कठिनाइयोंपर विजय प्राप्त कर लेंगे।' जीमती विजयलक्ष्मी पंडित भी उपस्थित थीं। चीनी राजदूत स्वर्गीय मालवीयजी-भारतभूषण महामना पं.. डा. विलिङ्गटन कृ उत्सवके प्रमुख वक्रा थे, आपने कहा कि
मदनमोहन मालवीयका ८५ वर्षकी श्रायमें गत १२ नवम्बर 'यह वर्षगांठ उन (पं०नेहरू)के लिये तथा उस देशके लिये
को काशीस्थ अपने निवास स्थानपर स्वर्गवास गया. उनकी जिसके कि वे श्राज वास्तविक कायिक्ष हैं, नवजीवनकी
मृत्युका निकट कारण नोग्राग्वालीमें हिन्दीपर किये गये सूचक है।' श्रीत कृष्ण मेननने कहा 'उन्होंने अन्तराष्ट्रीय
भीषण अत्याचारोंका धक्का था जिसे ये हिन्दुप्राण महामना, संपारमें भारतवर्षको एक स्वतन्त्र राष्टकी भाँति कार्य करने
अत्यन्त बृद्ध तो थे ही, सहन न कर सके। स्व. मालवीयजी योग्य बन दिया है। यहां न्यूयार्क में हम अब 'अपने मालिकों
अपने समयके सबसे पुराने देशभ, जातिभक सार्वजनिक की प्रतिध्वनि मात्र' नहीं रहगये हैं जैसा कि हम वर्सेह तथा
कार्यकर्ता थे । अापने लगभग ६० वर्ष पर्यन्त निरन्तर जनवा रहे थे।' विलियम फिलिप्पने कहा कि 'सर्वोच्च
स्वदेश और स्वजातिकी अथक सेवाकी, चार बार अ. भा० भारतीय नेताकी वन्दना करना में अपना सौभाग्य समझता
कांग्रेपके सभापति हुए, काशी हिन्दु विश्वविद्यालय जैसी हैं।' हेनरी वेलेसने नेहरूजीको संसारके सर्वोच्च नेताओंमेंसे
महान संस्थाकी स्थापना की और उसे अपने वर्तमान उसात एक माना । और सुमनेर वेल्सने उनकी हृदयमे प्रशंसाकी।
रूपको पहुंचा दिया । धारापभानोंमें दी गई श्रापकी लंदनमें इंडिया लीगकी पोरसे प्रो० हल्दानेके सभा
भोजपूर्ण लम्बी २ वताएँ स्मरणातीत रहेंगी। कटर पतित्यमें यह उत्सव मनाया गया जिसमें पार्लमेंटके सदस्य
सन तनी होते हुए भी श्राप उत्कट समाज सुधारक थे। मि. जुलियस सिलवरमेनने कहाकि 'नेहस्की राजनैतिक
महात्मागांधी श्रादि सभी राष्ट्रीय तथा जातीय नेताओं और दृष्टि विश्वभरमें सर्वाधिक प्रशस्त है। उन्होंने जीवनभर
भारतीय तथा विदेशी राजनीतिज्ञोंके श्राप जीवनभर श्रद्धाभारतके लिये कष्ट सहन किरे, किन्तु उनसे उनमें कटुता
भाजन बने रहे। श्राप सच्चे अर्थों में भारतभूषण और नहीं आई ।' स्वर.ज्य हाउस द्वारा भी यह उत्सव मनाया
महामना थे। श्रापके निधनमे भारतवर्षमें सर्वत्र शोककी गया था और उसमें वकार ने कहा कि 'नेहरू जी हमारे
लहर व्याप्त होगई । हमारी हार्दिक भावना है कि स्वर्गीय युगके सर्वश्रेष्ठ समाजवा. विचारक हैं।'
श्रामाको शान्ति एवं सद्गति प्राप्त हो। विधान परिसदके अध्यक्ष-विहार रग्न डा० श्रद्धेय मालवीयजीके निधनपर देशके विभिन्न नेताओंने राजेन्द्रप्रसाःजीने ३ सम्बरको अपने जीवनके ६३ ३ वर्ष अपने २ जो उद्गार व्यक्त किये हैं उनमेंसे कुछ इस प्रकार में प्रवेश किया है। इस इपलक्षमें देशने सर्वत्र श्रापका अभि- हैंनन्दन किया है अाप भारतीय विधानपरिषद के प्रथम स्थान पं. जवाहरलाल नेहरू-' पृ.ब हमें वह रमकता अध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं जिसका कि कार्य प्रारंभ होगया है, हा सितारा और नहीं देख पड़ेगा जि.सने कि हमारे यपि लीगकी अनिश्चित नीति और सम्राटकी सरकारके जीवनको प्रकाशित किया था श्री हमारे बचपनसे ही हमें अप्रत्याशित हस्तक्षेपोंके कारण उसके भविष्य के संबंधमें सदप्रेरणायें दी थीं। वे (मालवीयजी) अब स्वतन्त्र भारत के अभी निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता तथापि अध्यक्ष पद उस प्रतिष्टित भव्य भवनमें रहेंगे जिसे नींक्से शिखर पर्यंत का भार संभालते समा डा. राजेन्द्रप्रसादजीने स्पष्ट बोषणा उन्होंने निर्मित किया है। मुझे उसदिनकी सजीव स्मृति करदी है कि विधानपरिषदकी कार्यवाही में कोई बाह्य सत्ता है जब, कितने ही वर्ष हुए, मैं पुरानी साम्राज्य-व्यवस्था
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किरण ६-७]
विविध-विषय
२११
पिका-सभाकी दर्शक गैलरीमें बैठा हुश्रा मूक प्रशंसाके साथ यह सब उस समय हुआ जब कि लगभग श्राधी शताब्दीके पं. मालवीयकी प्रभावशाली वरता सुन रहा था। वह निरन्तर त्याग तपस्या कष्टमहन तथा विविध प्रा.लनोंके अपने अंगके राजनैतिक महापुरुष थे।'
फलस्वरूप देश स्वतन्त्रताके द्वारपर श्रा खड़ा हुश्रा था, और रा. राजेन्द्रप्रसाद-'उनका नाम भावी सन्ततिको दूसरी ओर सप्तवय महाभयकर विश्वयुद्ध समाप्त हो यह याद लिाने रहने के लिये सदैव अमर रहेगा कि एक चुका था। व्यक्ति अपनी दृढ़ एवं सतत् लगन द्वारा कितना कुछ
इन दंगोंके शिकार. पीड़ित त्रस्त, धन जन गृहीन कर सकता है।'
मानवोंकी सहायतार्थ अनेक संस्थाएँ एवं सेवाभावी सजन ____डा. भगवानदास - 'भारतका एक सूर्य अस्त होगया।
प्रयत्नशील हुए। पूर्वी बंगालमें जहाँ यह विनाशकारी व युवावस्थाने ही हिन्दी और अंगरेजी में समानरूपसे दक्ष
विभीषिका खूब खुलकर खेली थी महात्मा गांधी स्वयं पहुंचे लेखक एवं वक्ता थे और अपने इन्हीं गुणों के कारण अपये
और गांव गांवका पैदल दौरा करके शान्ति और सद्भावन का ६० वर्ष पूर्व कांग्रेसके पिता द्वारा प्रशंसित किये गये थे।'
संचार कर रहे हैं। कितने ही जैनी महानुभावाने भी इस श्री कृष्ण सिंह-वे एक ऋषि थे और अपने अत्यन्त
कार्यमें सक्रिय सहयोग दिया: विशेषकर कलकत्ते के बा. धार्मिक, निर्धन एवं त्यागपूर्ण जीवनके कारण वे अपने
छोटेलालजी, जो वीरसेवामरिकी प्रबन्धममिति के सभापति करोड़ों देशवासियों के स्ने भाजम बन गये।'
भी हैं, स्वयं उन स्थानों में गये, महात्माजीसे भी मिले, श्रीयुत श्रीप्रकाश-पं० म.नमोहन मालवीयकी मृयुके
और प्रशंसनीय सेवाकार्य किया। श्रापकी अोरमे, विभिन्न
पत्रों में जैनसमाजसे सहायतार्थ अपीलें भी निकली हैं, उनके साथ साथ हमारे राष्ट्रीय रङ्गमञ्चसे १६ वीं शताब का अन्तिम
उत्तरमें समाजने अभीतक जी सहायता की है यद्यपि वह राष्ट्रनिर्माता अदृश्य होगया। वह एक अपूर्व व्यक्ति थे और
पर्याप्त नहीं है, तथापि उसमें दा० वी० साहू शान्तिप्रसादउनके जीवनसे हमें, छ.टे बड़े मभीको, अनेक शिक्षा मिलती हैं। उनकी जिह्मासे कभी कोई कटुशब्द नहीं निकला
जीका नाम खासतौरसे उल्लेखनीय है जिन्होंने इस हेतु और उहोंने कभी किसीकी निन्दा नहीं की। एकरसता एवं
पचास हजार रुपये प्रदान किये हैं। स्वयं बा. छोटेलालजीने
भी इस कार्य में हजारों रुपये व्यय किये हैं। 'वीर' श्रादि सतत् लगन उनके महान गुण थे। अपने दीर्व एवं घटनापूर्ण जीवनमें उन्होंने न अपना परिधान ही कभी ब.ला
पत्रोंने भी कुछ द्रव्य एकत्रित करके उनके पास भेजा है। और न अपने विचार ही।'
हम आशा करते हैं कि दानी और उदार जैनसमाज
लोकहितके इस कार्य में अपना समुचित योग देने से मुंह विधानपरिषदका उद्देश्य-भारतीय विधान न मोड़ेगी। सहायता भेजनेका पता-या. छ.टेलाल न, परिपके प्रारंभिक अधिवेशनमें जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण १७४-चितरंजन एवेन्यू, कलकत्ता है। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ वह पं. नेहरूजी द्वारा उपस्थित किया
अणुबम-अगस्त सन ४५ में जापानके. हिरोशामा गया था और उसमें उक्त परिषदका उद्देश्य भारतवर्ष के लिये
तथा नागासाकी स्थानों र १.गु बमके स्फोटसे जो विनाशकारी एक सर्वतन्त्र स्वतंत्र प्रजातन्त्रात्मक विधान निर्माण करना
दुष्परिणाम हुए वह सर्वविदित है, तथापि अाजके अन्तर्रानिश्चित हुधा है।
ष्ट्रीय जगतके प्रमुख राहीनं इस बम सम्बन्धी मोह एवं उसके साम्प्रदायिक दंगे-राजनैतिक अधिकारोंकी प्राप्तिके बनाने और संग्रह करने का प्रयत्न कम हुअा नहीं दीख "दता । मिस कतिपय स्वार्थी एवं अविवेकी दलों के इशारेपर देशके परिणामस्वरूप उसका मुकाबला करनेकी समस्या मानवविभिन्न भागोंमें अन्तःसाम्प्रदायिक विद्वेष तथा तज्जन्य दंगे हितैषी विचारकोंके लिये चिन्ताका विषय बनी हुई है। फसाद, रक्तपात व रोमाञ्चकारी अमानुषी अपराधोंकी एक प्रख्यात दया प्रचारक एवं सामाजिक कार्यकर्ती अंग्रेज़ महिला बाइपी श्राई. फलस्वरूप शान्तिप्रिय जनमाधारणकी इज्जत मिस मरयल लिस्टरने अक्तुबरमें ईसाइयों के एक अन्तराष्ट्रीय श्राबरू, जन धन सा अरक्षित और आक्रान्त हुए । और सम्मेलनमें भाषण देते हुए कहा था कि-'अणुशत्रिका
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२६२
अनेकान्त
वर्ष
मुकाबला करनेके लिये हम सबको उस नैनिक एवं श्रामिक समाउका भविष्य सामान्यत: अखिल भारतीय जनताके शनिको मुन्द्र तथा प्रकट करना होगा जो हमारे भीतर दी गजनैतिक उका के साथ घनिष्टतया संबंधित है। पड़ी है। पाामाकी यह शनि पौद्गलिक ऋणुकी श कसे उम मीटिंग में यह भी निश्चय हश्रा था कि इस योजना कहीं अधिक और बलवती है। में अपनी प्रात्माओंको को सफलीभूत बनाने के लिये उपर चारों अधिकारी नयोन्मुख प्रयत्नशील रखना चाहिये। विश्व ६मंड और राष्ट्रीय नेताओं डेपुटेशनके रूपमें साक्षात मिला जाय। रहंडताकी अपेक्षा सत्यं शिवं-सन्दरम्ये ही अंत प्रोत है।' फलत: अभी तक वह जैन डेपुटेशन डा. राजेन्द्रप्रसादजीसे
जनाधिकार संरक्षण-बत सयमसमातिषी में कर चुका है और उन्होंने उसके साथ ! सुत विषयपर जैन-विचारकों और नेतायोंको भी अन्य अल्पसंख्यक बड़े ही सौहाई एवं सौजन्यपूर्वक चर्चा की बताई जाती है जातियोंकी भौति यह चिन्ता बनी रही है कि कही विविध तथा अन्तमें यह श्राश्वासन भी दिलाया बताया जाता है कि राजनैतिक हलचलों परिवर्तनोंके फलस्वरूप अथवा स्वतन्त्र वे प्रकरण प्रस्तुत होनेपर इस बातका प्र.वश्य ध्यान रखगे। भारतके नवनिर्मित विधानमें, जिसकी सफलताके हित उन्होंने किन्तु गत २४ जनवरीको विधानसभा अधिवेशनमें सदैव यथाशनि पूर्ण सहयोग एवं बलिदान दिया है. उनकी पं. गोविन्दवह्नभ पन्त द्वारा प्रस्तुत उन सलाहकार समितिसंस्कृति और न्याय्य अधिकारोंकी उपेक्षा न की जाय, उनके निर्माण विषयक जो प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे पास हुश्रा है उस साथ अन्याय न किया जाय । कई बार विभिन्न व्यक्रियों तथा में उस समितिके सदस्योंकी संख्या यह पि ७२ निश्चित की कतिपय संस्थानों द्वारा इस प्रकारकी अावाजें उठाई गई गई है तथापि फिलहाल विधानसभा द्वारा केवल ५० किन्तु वे सब नक्कारखानेमें तूतीकी आवाज़ होकर ही रहगई। सदस्य चुने जाने निश्चित हुए हैं, जो इस प्रकार हैंमाद्ध समाप्त होगया, अधिकांश प्रान्तों में सार्वजनिक बंगाल, पंजाब, उप सीमाप्रान्त, बिलोचिस्तान और सिन्धके राष्ट्रीय सरकारें स्थापित होगई, केबिनेट मिशन ाया और हिन्दू ; संयुन प्रान्त, विहार, मध्यप्रान्त, मद्रास, बबई, चलागया, उसके अनुसार केन्द्र में भी अन्त:कालीन राष्ट्रीय सर प्रभासाम और उदीमाके मुसलमान ७; परिगणित जातियोंके कारने कार्यभार संभाल लिया श्रीरस्वतंत्रभारतका विधान बनाने ७; सिक्ख ६; भारतीय ईसाई, पारसी ३: ग्ले इंडियन के लिये विधाननिमंत्री लोक परिषदका भी निर्वाचन एवं कार्य ३; कबायली व बहिष्कृत प्रदेश १३-इस तालिक में प्रारंभ होगया-किन्तु जैन नता कानाम तेल डाले ड़े सोते प्रत्यक्ष ही जैनोंका नाम नहीं है जो कि पारसियों और ग्लो ही रहे, और स्वभावतः जैनियों का कहीं ध्यान भी नहीं रक्या इण्डियनोंकी अपेक्षा संख्यामें कहीं अधिक हैं और हिन्द्र गया। अन्त में, लगभग एक मास हुश्रा, देहली में श्र० भा० मुसलमान, सिक्ख, पारसी, ईसाई श्रादिकी अपेक्षा कहीं 1. जैन परिपदके प्रधान मन्त्री बा. राजेन्द्रकुमारजीके अधिक प्राचीन, स्वतन्त्र एवं विशिष्ट धर्म और संस्कृतिसे संयोजक वमें विभिन्न न नेताकी एक मीटिंग हुई और संबंधित है। ता० २५ जनवरीके 'वीर' की सूचनानुसार उसमें इस विषयका एक प्रस्ताव पास किया गया कि विधानपरिषदके कांग्रेसी सदस्योंने उक्र सलाहकार समिरिके 'केबिनेटमिशन' के १६ मई के दयान पैरा २० के अनुसार लिये अपने प्रतिनिधि चुन लिये हैं जिनमें एक प्रो० के. टी. निर्मित होनेवाली 'नागरिक अधिकारों, अल्पसंख्यक जातियों शाह भी हैं जो जैन हैं। किन्तु जहाँ तक हम समझते हैं तथा आदिवासी एवं बहिष्कृत क्षेत्रों संबंधी सलाहकार प्रो० शाह जैनप्रतिनिधिके रूपमें नहीं चुने गये वरन वे वहाँ समिति' में तो कम कम नियोंका प्रतिनिधित्व स्वीकार एक कांसी:तिनिधिकी है सिर.तसे हैं । अत: उनके निर्वाकर लिया जाय। इस प्रस्तावकी नकलें राष्ट ति प्राचार्य चन द्वारा जैनोंके इस दिशाम किये गये प्रयत्नोंकी सफलता कृालानी, विधान परिषद के अध्यक्ष डा. राजेन्द्रप्रसाद, मानकर सन्तोष कर लेना एक भूल है। अन्तःक लीन सरकारके उपाध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू जैनियोंके अपने सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्वत्वाधिकारोंके तथा गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के पास भेजी गई। संरक्षण के हित किये गये इन नगण्य प्रयत्नों से भी कतिपय इस प्रस्तावमें यह भी स्पष्ट कह दिया गया था कि 'जैन अतिशय उग्रगामी जैन सज्जनोंको ही बग़ावत और पूट
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किरण ६-७]
विविध-विषय
२६३
डालनेवाली घृणित जातिकी साम्प्रदायिकता तथा व्यकिगत का अाधार मनुष्यका पाचरण है । जैन या जितेन्द्रियको स्वार्थसाधनकी भावनाकी गंध पाती प्रतीत होती है। अपनी सफलताके संबंधमें विचार करते समय सोचना हमारी समझमें तो यह उनका एक भ्रम ही है, इससे ऐसी चाहिये कि उसने संयमधर्मका कितना पालन किया ? यह कोई बात फलित नहीं होती। प्रथम तो, इन प्रयत्नों और प्रामानुभवकी चीज़ है: वाद्याडंबर तो बहत दीखता है, इनके बलको देखते हुए इनकी सफलता और महत्व भी तिलक छापे करना, मन्दिरों में जाना, जात्रायें करना आदि बहुत कुल सन्दिग्ध ही है, और यदि इनमें कुछ सफलता सब धर्मकी मर्यादा कहलाती हैं, ये सब धर्मको समझने के मिलती भी है और उसका जैनी कुछ यथोचित लाभ भी लिये हैं. लेकिन प्रात्मानुभव या संयमको छोड़कर यदि उठा पाते हैं तो उसमे सम्पूर्ण राष्ट्र अथवा राष्ट्रीय महासभा केवल बाह्य आडंबरोंको ही जो धर्म मानता है वह केवल के हितों और उद्देश्योंका विरोधी होनेकी तो कोई संभावना नामाका ही जैन है, वह सच्चा जैन नहीं कहला सकता। ही नहीं है । हो, उनके स्वाभिमान एवं प्रारमविश्वासमें 'अहिंसा परमोधर्मः' यह तो जैनोंका सर्वोपरि सिद्धान्त है; अवश्य ही वृद्धि होजायगी और वे भी अपने आपको नव- इसका जिये अच्छी तरह ज्ञान हो वह भी दुकानपर कार्य निर्मित सर्वतंत्र स्वतन्त्र प्रजातन्त्रात्मक भारतीय राष्ट्र के स्वतंत्र करते समय अावाज़ सुने कि 'हुल्लड़ हुश्रा गुण्डे भारहे हैं' सम्मानित नागरिक एवं श्रङ्ग अनुभव करेंगे।
और मनते ही माला क फांक कर भागने लगे, उसे जैन
नहीं कह सकते। सने तो अपने पासके परिग्रहको सस्यरूप सच्चे साधु और सामान्य भिक्षुक-कुछ प्रान्तीय
समझा और भर की वजहसे भागा, इसको ही भीस्ता कहते सरकारों द्वारा पास किये गये भिक्षावृत्तिनिरंधक कानूनों के
हैं। किसी भी धर्ममें कायरता नहीं हो सकती है, जैन धर्ममें संबंधमें एक जैन डेपुटेशनसे भेंट करते हुए, विधानपरिषदके
तो हरगिज़ नहीं। डनी कोई भी हिंसा भले ही न करे, सदस्य श्रीयुत् रघुनाथ वि० धुलेकर एम. एल. ए. ने
परन्तु उसमें स्वयंको होमदेनेकी शनि तो होनी चाहिये । श्राश्वासन दिया कि-'जैनसाधु अथवा सनातनी सन्यासी
इसके बिना सिद्धान्तकी क्या कीमत ? जैनमें तपश्चर्या और कोई भी सामान्य भिक्षुक नहीं है। मुझे यह विश्व स है कि
श्रामशुद्धि की वह शक्री होनी चाहिये कि जिसे देखकर प्रान्तीय सरकारें ऐसे साधुओं और सन्यासियोंको जो हिन्दू
गुरुदेक हाथ से हथियार नीचे गिरजाय । श्राज तो महात्माजी समाजका एक श्रावश्यक भाग है, बाधा पहुंचाने वाला
अहिंसा धर्मका सेवन कर रहे हैं और हिंदके समक्ष सन्य कानन न तो बनावेंगी और न बना सकती हैं। इन साधुओं
पदार्थका पाठ रख रहे हैं। अपनी दृष्टि दूषित हो जीभको की परम्परा कई सहस्र वर्षसे चली आती है, जिनके अनुसार
झूठ बोलनेकी आदत हो, हृदय मलिन विकारोंसे परिपूर्ण हिन्दू परिवारोंमे भिक्षा मांगना भिक्षावृत्ति नहीं, वरन धार्मिक
हो, तो बाह्य आचरण भाररूप हो जायगा, बाह्य शुद्धिके अधिकार एवं कर्तव्य है। मैं श्राको विश्वास ला सकता
साथ साथ अन्तरङ्ग शुद्धि भी करनी चाहिये।' हूँ कि कांग्रेस सरकार हिन्दू संस्कृतिको सामान रूपसे तथा जैन संस्कृतिको विशेष रूपसे नष्ट करनेवाली नहीं है, वह
-२३ जनवरीको भारतवर्ष में सर्वत्र इन कान नोंको लागू करने में इस बातकी वरय व्यवस्था तथा लन्दन श्रादि विदेशों में भी नेताजी श्री सुभाषचन्द्रकरेगी कि साधारण भिखमंगों तथा सच्चे साधुओं एवं बोसका ५१ वा जन्मदिवस सोसाह मनाया गया। स्वयं सन्यासियों में विभेद किया जा सके । श्राप प्रान्तीय सेम्बली गांधीजीने भी नेताजीके प्रति अपनी श्रद्धांजली अर्पितकी। तथा विधान परिषद में इस विषय में मेरे समर्थनका विश्वास किन्तु अभीतक यह प्रश्न एक विकट पहेली ही बना हश्रा रक्खें ।'
है कि सुभाष बाबू जीवित हैं अथवा नहीं?
सरदार पटेलका उदाधन-गत २६ दिसम्बरको स्वतन्त्रता दिवस-२६ जनवरीको समस्त भारतमें अहमदाबा.में एक जैन विद्यालयका उद्घाटन करते हुए स्वाधीनता दिवस मनाया गया जो सन् १९३० से निरन्तर सरदार बल्लभभाई पटेलने कहा था कि-"जनोंकी परीक्षा प्रतिवर्ष भारतीयोंको अपनी स्वतन्त्रता प्राप्तिके ध्येयकी याद
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
दिलाने तथा तत्संबंधित प्रतिज्ञाको दुहरवाने के लिये आता स्वार्थ साधन किया है. अपने नामों के प्रागे लम्बी २ उरचरहा है। इस प्रतिज्ञापत्रका मूलमंत्र है स्व. लोकमान्य तिलक बोला उपाधियें लगाती हैं. और विभिन्न संस्थानोंकी का प्रसिद्ध सूत्र 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' सम्पत्तिपर अपना श्राधिपत्र जमा लिया है। और इसका सार है कि कि अंग्रेजी राज्य-द्वारा भारतका
क्या हम अाशा करें कि जैनी लोग अपने दानके श्रार्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और अधारिमक दृष्टिसे प्रवाहको सरमावेके 'वीरसेवामंदिर' तथा बम्बई में प्रेमीजी विनाश हया है, अत: शान्तिपूर्ण एवं वैधानिक उपायों द्वारा सम्पादित संचालित 'मानिक्यचन्द्र ग्रन्थमाला की ओर द्वारा अंग्रेजोसे संबंध विच्छेद करके पूर्ण स्वराज्य और देशकी प्रवाहित करदेंगे। स्वाधीनता प्राप्त करना तथा लक्ष्य प्राप्ति तक उसके हित
प्राचार्य जुगलकिशोरजी तथा प्रेमीजी दोनोंकी ही एक अहिंसक रीतिसे लड़ाई जारी रखना. और उसके अन्तर्गत
प्रेसकी अावश्यकता है जिसपर उनका पूरापूग निर्बाध अधिकार खादी, साम्प्रदायिक एकता, प्रस.श्यता निवारण, जातिएवं
हो और जो सर्वोत्तम एवं उन्नत छापेकी तथा लीनोटाइपकी धर्मगत भेदभाव बिना देशवासियों में प्रत्येक अवसरपर
मेशिनोंसे तथा सुयोग्य कुशल कर्मचारियों एवं अन्य साधनसद्भावनाका प्रचार करना, उपेक्षितों, प्रज्ञानियों. दीन
सामग्रीसे युक्र हो। ऐसे प्रेसके लिये कई लाख रुपये की दरिद्रयो तथा पिछड़े हुए देशवासियोंका उद्धार करना तथा
श्रावश्यकता है; और ईमानदार निस्पृह कार्यकर्त्ता तो बिना देशव्यापी मान्यसुधार, घरेलु उद्योग धंधाको प्रोत्साहन देना,
कठिनाई के मिल जायेंगे।' देशके लिये त्याग एवं कष्ट सहने तथा बलिदान होने वाले
भारतजैन महामंडल-इसका २७ वौं वार्षिक देशभनोंके प्रति श्रद्धांजली भेंट करते हुए कांग्रेसके सिद्धांतों और नीतियोंका अनुशासनके साथ पालन करने और उसके
अधिवेशन आगामी मार्च सन् ४७ में बम्बई प्रान्तीय । आहानपर बाज़ादीकी लड़ाई चलाने के लिये तैयार रहनेकी
व्यवस्थापिका सभाके अध्यक्ष श्री कुन्दनमल सोभागचन्द्र
फिरोदिया एडवोकेट अहमदनगरके सभापतित्वमें, दक्षिण प्रतिज्ञा करना।
हैदराबादमें होना निश्चित हुआ है। पं० अजितप्रसादजी एडवोकेटके विचार- वीरसेवामंदिरमें हाकिमइलाका-ता. २३-१जैनगज़ट भाग ४३ न० ११.१२ पृ० १५३ पर उसके विद्वान ४७ को ठाकुर मुन्शीसिंहजी मेजिस्टेट, हाकिमइलाका, सम्पादक पं. अजि.तप्रसादजी एडवोकेट, लखनऊ प्रेमी वीरसेवामन्दिरमें पधारे। अापने मन्दिर के कार्यालय, पुस्तअभिनन्दनग्रन्थकी समालोचना करते हुए लिखते हैं- कालय तथा भवनका निरीक्षण किया, 'अनेकान्त पत्र' को "जैन समाजमें कोदियों पंडित हैं, किन्तु उनमेंसे केवल दो जनताके लिये हितप्रद और मन्दिरकी लाइब्रेरीको अनुपम ही ऐसे हैं जिनका उल्लेख हम जैन साहिसिक अनुसंधानके बताया; अधिष्ठाताजी तथा अन्य कार्यकत्ताओंके कार्यकी सेगमें निस्वार्थ कार्यकर्तायोंके रूपमे कर सकते हैं। श्राचार्य सराहनाकी, जनताका और विशेषकर जैन जनताका ध्यान जुगलकिशोरजी मुख्तार, जिनके सम्मानका दो वर्ष पूर्व प्राश्रमकी सहायता करनेकी ओर आकर्षित किया। कलकत्तेमें प्रायोजन किया गया था और जिन्होंने सरसावा, स्वामी माधवानन्दजीका संदेश-भारतीय जि. सहारनपुर, में वीर सेवा मन्दिरकी स्थाना करनेमें संस्कृतिको गँवाकर स्वराज्य प्राप्त करना हेय है। भारतीय अपना सर्वस्व बलिदान करदिया है, मात्र एकही ऐसे विद्वान संस्कृतिका संरक्षण करते हुए स्वराज्य प्राप्त करना प्रत्येक हैं जिनने प्रेमीजीकी भौति साहस, निर्भीकता एवं लगन भारतीयका कर्तव्य है। भारतीय धर्म ही सच्ची शान्तिका पर्वका धार्मिक साहित्यरूपी महासागरकी गहराइयों में सचा उपाय है। भारतीय संस्कृति दैवी संपदाका प्रतीक इबकी लगाकर वहाँसे अमूल्य श्राबदार मोती निकाल संसार है। यूरोप आदि देशोकी संस्कृति प्रासुरी संपदाका प्रतीक को प्रदान किये हैं और, जबकि दूसरोंने केवल किनारकी सिवार है। जिस स्वराज्यभवनकी नींव अभारतीय संस्कृतिपर मेंसे सीपियें ही एकत्रित की हैं और उन्हें भी विक्रय करके अवलम्बित हो, उसका ध्वस्त होजाना निश्चित है।' J. P.
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साहित्य-परिचय और समालोचन
प्रेमी अभिनन्द ग्रन्थ-श्रद्धेय पं० नाथरामजी प्रेमी यथेष्ट परिश्रम किया है । लेखों के अतिरिक्त ३४ की चिरकालीन एवं महत्वपूर्ण साहित्यिक सेवाओं के विविध चित्रों से भी ग्रन्थ सुसज्जित किया गया है। उपलक्षमें उनका अभिनन्दन करनेके लिये, ता. इन चित्रों मेंम २८ फोटो चित्र हैं और शेप ६ कला२० अक्तूबरको नागपुर विश्वविद्यालयमें होने वाले कार श्री सुधीर वास्तगीर द्वारा निर्मित काल्पनिक अ. भा० प्राच्यविद्यासम्मेलनके अवसर पर एक चित्र हैं जो यद्यपि कलापूर्ण हैं तथापि विशेष आकउपयुक्त समारोह किया गया था, और उसमें प्रसिद्ध पक नहीं प्रतीत होते. फोटोचित्रों में भी, व्यक्तिगत नेता एवं साहित्यसेवी काका कालेलकरके हाथों प्रेमी चित्रों को छोड़कर अन्य चित्रों में जैनकला एवं जोको यह अल्य ग्रंथ समर्पित किया गया था। पुरातत्त्व संबंधी चित्रों का प्रायः अभाव है जो ग्रंथ समपण तथा अभिनन्दन समारोहका आयोजन खटकता है। लेखों में भी जेनसाहित्य इतिहास कला प्रेसो अभिनन्दन समितिको योरसे हा था, जिसके आदिपर अपेक्षाकृत बहुत कम लेख हैं और जो हैं प्रेरक श्रद्धेय पं० बनारसीदासजी चतुर्वेदी, अध्यक्ष उनमें भी इन विषयों पर पयाप्त एवं समुचित डा. वासुदेवशरण जो अग्रवाल, तथा मन्त्री श्री प्रकाश नहीं पड़ पाया। ग्रंथकी छपाई आदि तैयारी यशपाल जैन बो० ए० एल-एल० बी० थे। ला जरनल प्रेस, इलाहाबाद, में हुई है। अतएवं
उत्तम तथा निर्दोप है; हाँ प्रफ आदिकी कुछ अशु__ ग्रंथके सम्पादक मंडलमें जैन अजैन, स्त्री-पुरुष, द्धियें फिर भी रह गई हैं। कुछ लेखो में अनावश्यक चोटीके ४६ साहित्यसेवी विद्वान थे और उक्त गंडलके काट छाँट भी की गई प्रतीत होती है जो उन लेखो अध्यक्ष भी डा० अप्रपालजी ही थे। ग्रंथको १८ के लेखकों की स्वीकृतिक बिना कुछ उचित नहीं उपयुक्त विभागों में विभक्त करनेकी योजना थी जान पड़ती। इसपर भी ग्रंथ सवप्रकार सुन्दर, और इन विभागों की अलग अलग कुशल सम्पादन महत्वपूर्ण, पठनीय एवं संग्रहणीय है, और इसका समितियाँ संयोजित कर दी गई थीं । किन्तु वा दमें मूल्य भी मात्र दश रुपये है जो संस्करणकी सुन्दरता उक्त १८ विभागों को सकुचित करके : ही विभाग विपुलता तथा ठोस सानग्रीको देखते हुए अत्यल्प है। रक्खे गये नो इस प्रकार हैं
अनित्य-भावना–वीरसेवामन्दिरकी प्रकीर्णक पुअभिनन्दन, भाषाविज्ञान और हिन्दीसाहित्य,
स्तकमालाके अन्तर्गत प्रकाशित यह पुस्तक श्री पद्मभारतीय संस्कृति पुरातत्त्व ओर इतिहास, जैनदर्शन, संस्कृत प्राकृत और जैनसाहित्य, मराठी न
नन्द्याचार्य-विरचित संस्कृत 'अनित्यपञ्चाशत' और गुजराती साहित्य, बुन्देलखण्ड, समाजसेवा का पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकृत ललित हिन्दी और नारीजगत तथा विविध । इन विभागों के पद्यानुवाद, भावार्थ, उपयोगी प्रस्तावना एवं पद्याअन्तर्गत १२७ विभिन्न अधिकृत विद्वान लेखको नुक्रमणिका सहित तथा मुख्तार साहब द्वारा ही द्वारा प्रणीत १३३ महत्वपूर्ण लेख संगृहीत हैं । प्रायः सम्पादित, संशोधित परिवद्धित तृतीय संस्करण सब ही लेख मौलिक, गवेपणापूर्ण एवं स्थायी मूल्य के हैं। इनमेंसे ४० लेख जैनदर्शन साहित्य इतिहास है। पुस्तक बहुत लोकोपयोगी, उपदेशप्रद एवं पठसमाज आदिके सम्बन्धमें हैं । लेखों के सम्मादनमें नीय है और जनसाधारणमें वितरण करने योय सम्पादकाध्यक्ष तथा अन्य संपादक महोदयों ने भी है। छपाई सफाई सन्तोपजनक है ।मू० चार आने है।
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२९६
अनेकान्त
[वर्ष ८
जैनसन्देशका राष्ट्रीय अंक-निसरी जनता चिर- श्रा पाया, मुश्किल से ऐसे प्राधे ब्यक्रियोंका ही उल्लेख इसमें कालसे प्रतीक्षा कर रही थी. पारिखर जनवरीके अन्तिम होगा। जिन व्यक्रियों का परिचय दिया गया है उनकी एक सप्ताहमें प्रकट होगया। अंक पुस्तकाकार २०४३० अठपेजी संक्षिप्त परिचयात्मक नामानुक्रमणिका भी साथमें लगी होती साइजके १०० पृष्टोंमें राष्टीपता विश्यक ३ महत्वपूर्ण लेख. तो अच्छा था। क्योंकि पं० पन्तके शब्दों में यह कहने में ५ कविताएँ ४-५ राष्ट्रीय नेताओंके सन्देश तथा सैकडी जैन- तनिक भी संदेह नहीं कि जैनसमाजने स्वतन्त्रता आन्दोलनमें राष्ट्रीयकार्यकत्ताओं और उनकी देशसेवाओंके संक्षिप्त परिचय बहुत बड़ा भाग लिया है और कितने ही कार्यकत्रिोंका सहित बहुतसी समयोपयोगी पठनीय एवं ज्ञातव्य सामग्रीये
र राजनैतिक क्षेत्र में प्रमुख स्थान है।
रा युक्र है। कितने ही जनराष्ट्रीय कायकत्ताप्राक ब्लाक चित्रास भिर भी ऐसे अंकोंकी भारी आवश्यकता थी और थोड़े मी अलंकृत है। सम्पादक महोदयका प्रयत्न सराहनीय है। अंशमें ही सही इससे उसकी पूर्ति अवश्य होती है. अतः किन्तु जैसाकि लगभग एक वर्ष पहिलेसे जैनसन्देश साप्ता-
सा- इस दृष्टि से इसका प्रकाशन समयोपयुक्त एवं श्रावश्यक ही
. हिकमें बार बार प्रकाशित सूचनाओं, और विज्ञापित योजनाओं है।पाठकोंको इसमें पर्याप्त उपयोगी जानकारी मिलेगी। के आधारपर इस अंकमे अाशा की जाती थी वैसा यह नहीं बनपाया । पूर्वसूचित १७ विषयविभागोमेग्ये मुश्किलसे ४.५ धर्म क्या है-कुंवर श्री नेमिचन्द्रजी पाटनी द्वारा विषयोंके संबंधकी सामग्री ही इसमें संकलित हो पाई है। लिखित तथा श्र मगनमल हीरालाल पाटनी दि. जैन अल्पसंख्यक समस्या और जैन, भारतके भावीविधानमें पारमार्थिक ट्रस्ट, मदनगञ्ज (किशनगढ़) द्वारा प्रकाशित यह जैनसमाजका स्थान, अहिंसा और राजनी.ते, धर्म और ५७ पृष्टका एक उपयोगी टैक्ट है । साथमें श्रेयांसकुमार जैन राष्ट यता, क्या एकतन्त्र जैनधर्म सम्मत है, जैनसंस्कृतिकी शास्त्री न्यायतीर्थकी संक्षिप्त भूमिका है तथा पूज्यवर्णाजी दृष्टिये भारतकी अखंडता, जैनोंकी स्वतन्त्र शिक्षाप्रणाली एवं न्यायाचार्य पं० मागिकचन्दजीके अभिमत भी हैं। हिन्दी और हिन्दुस्तानी क्षेत्रमें जैनोंकी सेवाएँ, इत्यादि ऐसे विषय थे जिनपर लिखे गये प्रमाणित लेखोंका संकलन इस
इस पुस्तिकामें लेखकने 'धर्म क्या है' इस विषयपर अंको अवश्य ही होना चाहिये था। अंकके संबंध में जिन सरल ले.कोपयोगी भाषामें जनदृष्टि से श्रीशिक प्रकाश डाला पाशाको जेकर माननीय बा० सम्पूर्णानन्दजीने अपनी है। वस्तुत: इसमें स्वामी समन्तभद्राचार्यकृत धर्मके सुप्रसिद्ध यह सम्मति दी है कि वह अंक 'इस दृष्टिसे बहुत मामयिक स्वरूपश्लोकहै कि उसमें उन कई महत्वपूर्ण समस्यायोंपर विचार होगा
'देशयामि समीचीनं, धर्मकर्मनिवर्हणम् । जो इस समय राष्टके विचारशील व्यक्रियों के सामने हैं.' उन प्राशाओंकी पूर्ति यह नहीं कर सका है। उसमें जैनराष्ट्रीय
संसारदुःरुत: सत्वान यः धरत्युत्तमे सुखे ॥ कार्यकर्ताओं द्वारा लिखे गये अपने संस्मरणों, अनुभवों तथा
(र. क. श्रावकाचार) सामयिक राजनीतिक समस्याओंपर अपने विच.र उक्त समस्याश्रओं एवं वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थियियोंका जैनसमाजके साथ
की स्वतन्त्र विस्तृत व्याख्या की गई है। पुस्तक पठनीय
है। छपाई सफाई साधारण है. प्रत श्रादि की ग़लतिये हैं संबंध या उसपर पड़ने वाले प्रभावके दिग्दर्शनका भी
ही। मूल्य मात्र मनन है। वितरण करने के लिये मंगाने प्रभाव है जो खटकता है। राष्ट्रीय यज्ञमें योग देने वाले
वालों को २५) सैंकड़ों मूल्यपर प्रकाशकों से मिल सकती है। और स्वदेश स्वातन्त्र्यकी वलिवेदीपर अपने आपको न्योछावर
ज्योतिप्रसाद जैन करदेने वाले सब ही जैन महानुभावोंका परिचय भी नहीं
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वीरसेवामन्दिरको सहायता वीरसेवामन्दिमें पं० वंशीधरजी न्यायालंकार गत किरण (४-५) में प्रकाशित सहायता के बाद वीरसेवामन्दिरको सदस्य फीस के अलावा जो सहायता प्राप्त गत अक्तूबर मासमें विद्वद्वर्य श्रीमान् पं० वंशीधरजी हुई है वह निम्न प्रकार है, जिसके लिये दातार महानुभाव न्यायालंकार, इन्दौर, अपने साथ श्री पं० मनोहरलालजी धन्यवादके पात्र हैं
वर्णी, श्री चम्पालालजी सेठी तथा बा० नेमीचन्दजी २५०) श्रीमती जयवन्ती देवी, नानौता जि. सहारनपुर (श्री
वकीला सहारनपुरको लेकर वीरसेवामन्दिर सरसावामें पधारे । दादीजीके स्वर्गवाससे पहले निकाले हुए १००१) के दानमेंसे ग्रन्थप्रकाशनार्थ)।।
श्रापने मन्दिर के पुस्तकालय और कार्यालयका निरीक्षण १५०) सकल दिगम्बर जैन पंचान कलकत्ता ( दशलक्षण किया श्रद्धेय मुख्तार साहिब तथा मन्दिरके अन्य विद्वानोंके
पर्व के उपलक्षमें ) मार्फत सेठ बलदेवदासजी साथ तात्त्विक एवं साहित्यिक विषयोपर चर्चा की और सरावगी, कलकत्ता।
मन्दिरमें जो शोध खोज तथा ग्रन्थ-निर्माण सम्बन्धी कार्य ८०) श्रीमती विशल्यादेवी धर्मपत्नी साहू प्रकाशचन्दजी
चल रहे है उन्हें देखा। श्राप यहाँकी कार्यपद्धति और जैन, नजीवाबाद (लायब्रेरीमें अन्य मंगाने के लिये) मार्फत बा० नरेन्द्रप्रसादजी सहारनपुर ।
उसके महत्त्वसे बहुत प्रभावित हुए तथा समय निकालकर २१) जैनशास्त्रसभा नयामन्दिर देहली । मार्फत ला. कुछ दिनोंके लिये वीरसेवामन्दिर में श्रानेका वचन दिया। जुगलकिशोरजी कागजी, देहली।
साथ ही संस्थाकी निरीक्षणबुकमें अपनी शुभ सम्मति १५) ला. धवलकिरत मेहरचन्दजी जैन सहारनपुर (चि. निम्न प्रकारसे अंकित की
नरेशचन्द्र के विवाहकी खुशी में । १०) बा. पीताम्बरकिशोरजी जैन एजीक्यूटिव इंजीनियर, "अाज ता० १६१०-४६ को वीरसेवामन्दिर में पाया, रुड़को जि० सहारनपुर ।
श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजीके दर्शनसे बहुत ही प्रसन्नता १०) ला० पारसदासजी जैन स्यालकोट निवासी (पुत्री हई । मुख्तार साहबने इस युगमें जिस पद्धतिसे जैनदर्शन कान्तादेवीके विवाहकी खुशी में) मार्फत पं. रूपचन्द
जैनसाहित्य, जैनइतिहासके पर्यवेक्षण, अन्वेषण एवं जी जैन गार्गीय, पानीपत ।। ३||) ला० विमलप्रसादजी जैन, सदर बाजार, देहली।
मीमांसा करते हुए कितनी गम्भीरताके साथ विवेचन करते
हुए विविध ग्रन्योंका प्रकाश किया है, वह भूरिभूरि प्रशंसाके ५३६)
अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' योग्य है। मुझे तो वर्तमान दि. जैन समाज में एक मात्र अनेकान्तको सहायता
अद्वितीय विद्वद्रत्न प्रतीत होते हैं । आपकी जैनवाड्मयको गत चौथी-पाँचवी किरण में प्रकाशित सहायताके बाद सिलसिलेवार नवीन रूपसे लोगोंके सामने प्रकाशित करनेकी अनेकान्तको जो सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है, बहुत बड़ी लगन है । दि० जैन समाजके धनाढ्य पुरुषोंका जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं।।
1 कर्त्तव्य है कि वे पण्डितजीके मनोरथोको पूर्ण करने में मुक्त११) ला. देवीदास शंकरदासजी जैन, कलरमचेंन्ट चूड़ी सगय मुलतान (सेठ सुग्वानन्दजीके स्वर्गवास के समय
हम्त हो भरपूर सहायता दें । यदि वे ऐसा करेंगे तो निकाले हुए दानमें से)।
जैनाचार्योंके बहुत बड़े उपकारोसे उपकृत हुए कृतज्ञ कहे ५) मंत्री दि. जैन पंचायत कमेटी, गया।
जा सकेंगे। विशेष क्या लिग्यूँ वीरसेवामन्दिरमें वास्तविक ५) ला० बजलालजी जैन सौदागर संतर जि० मुरार (पिता और ठोस कार्य किया जा रहा है। इसके लिये पं० दरबारी
जी के स्वर्गवासके समय निकाले हुए दानर्मेसे)। लालजी एवं परमानन्दजी शास्त्रीका सहयोग सराहनीय है।"
२१)
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
J, P.
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Regd. No. A-736
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वीरसेवामान्दिरके प्रकाशन
TH
१ समाधितन्त्र-संस्कृत और हिन्दी टीका-सहित । २ बनारसी-नाममाला-(पद्यात्मक, हिन्दी-शब्दकोश, शब्दानु
क्रम-साहित)। ... ३ अनित्य-भावना-हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित। ।) ४ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा-ऐतिहासिक प्रस्तावनासहित।) ५ प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-अनुवाद तथा व्याख्या सहित । ।) ६ सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर-वर्द्धमान और उनके ।
बादके २१ महान प्राचार्योंके १३७ पुण्य स्मरणोंका महत्वका संग्रह, हिन्दी-अनुवादादि-सहित। ... ७ अध्यात्म-कमल-मातेण्ड-हिन्दी-अनुवाद तथा विस्तृत
प्रस्तावना सहित। ... = विवाह-समुद्देश्य–विवाहका मार्मिक और तात्त्विक विवेचन,
उसके अनेक विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियोंसे उत्पन्न हुई कठिन और जटिल समस्याओंको सुलझाता हुअा। ॥) ६ न्याय-दीपिका महत्वका नया संस्करण)-संस्कृत टिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी
परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द। . . ५) १० पुरातन-जैनवाक्य-सूचि (जैनप्राकृत-पद्यानुक्रमणी)-अनेक
उपयोगी परिशिष्टोंके साथ ६३ मृलग्रन्थों और ग्रन्थकारों के
परिचयको लिये हुए विस्तृत प्रस्तावनासे अलंकृत, सजिल्द । १५) ११ स्वयंभूस्तोत्र-समन्तभद्र-भारतीका प्रथम ग्रन्थ, विशिष्ट
हिन्दी अनुवाद और महत्वकी प्रस्तावना-सहित । (प्रेसमें) १) १२ जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह–संस्कृत और प्राकृतके कोई १५०
अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंका मंगलाचरण-सहित अपूर्व संग्रह, अनेक उपयोगी परिशिष्टों तथा विस्तृत प्रस्तावनासे युक्त । (प्रेसमें)
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मुद्रक, प्रकाशक पं० परमानन्दशास्त्री वीरसेवामन्दिरके लिये श्यामसुन्दरलाल द्वारा श्रीवास्तवप्रेम सहारनपुरमें मुद्रित ।
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बनेका
गणमुख्य-कल्पा
अनकान्तात्मिका
-
स्याद्वादमपिणी
सापेक्षवादिनी
P
A
Enम्यानस्यात
HERA
Sihot
NE
विविधनयापेक्षा
Aयद्यातत्त्वप्रपिक
तभगरुपा
सम्यग्वस्त-ग्राहिका
माचप्रल
वर्ष विर वाई चाउनभयमभय मिरि नशिप. प्रत्येक नियमविषयी पागमन कि. १०-११ मदान्यान्यात मानभवनन्यप्रगुरुगा त्वया गीत तत्व वहनय वियतनग्यशात ॥ सम्माद-
मुकाम
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विषय-सूची
१ - समन्तभद्र- भारती के कुछ नमूने ( युक्तयनुशासन ) - [ सम्पादक ] २ - ऐतिहासिक घटनाओंका एक संग्रह - [ सम्पादक ]
३६५
३६९
३७४
३७५
३७६
३८३
३८९
३९५
३९८
४००
४०२
४०८
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१२ – रक्षाबन्धनका प्रारम्भ - [पं० बालचन्द्र जैन, साहित्य-शास्त्री, बी० ए० ] १३ – रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है - [ न्या० पं० दरबारीलाल कोठिया ] ४१५ १४ – वीरमेवामन्दिर में वीर शासन - जयन्तीका उत्सव - [प० दरबारीलाल जैन, कोठिया ] १५ - साहित्यपरिचय और समालोचन - [पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया ]
४२८ ४२९
३ – आचार्य माणिक्यनन्दि० (परिशिष्ट ) - [पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया ] ४ - जैनगुण-दर्पण (कविता) - [ जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ]
५ – महाकवि हरिचन्दका समय - [प० कैलाशचन्द्र जैन, शास्त्री ] ६ – सम्पादकीय वक्तव्य - भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झण्डा और कर्तव्य ७ – महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित - [पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ] ८- तेरह काठिया - [ बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए० ]
९ - जोगिचर्या - [पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ]
१० – कविवर लक्ष्मण और जिनदत्तचरित - [पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ]
११ – कविवर बनारसीदास और उनके ग्रन्थोंकी हस्तलिखित प्रतियाँ - [ मुनि कान्तिसागर ]
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अनेकान्तको २००) की सहायता
श्रीमान् बाबू नन्दलालजी जैन, सुपुत्र सेठ रामजीवनजी सरावगी कलकत्ता, वरसेवामन्दिर और उसके 'अनेकान्त' पत्रसे बड़ा स्नेह रखते हैं – दोनों को ही समय समयपर अच्छी सहायता भेजते तथा भिजवाते रहते हैं, जिससे अनेकान्तके पाठक और वीर सेवामन्दिरके 'मत्साधुस्मरण - मङ्गलपाठ' तथा 'न्यायदीपिका' जैसे प्रकाशनोंको पढ़ने वाले भले प्रकार परिचित हैं। हाल में आपने बिना किसी प्रेरणाके अपने दो पुत्रोंकी
रसे 'अनेकान्त'को दोसौ रुपयेकी सहायता निम्नप्रकार भिजवाई है, जिसके लिये आप और आपके पुत्र दोनों ही हार्दिक धन्यवादके पात्र हैं। आप अपने पुत्रों आदिके हाथ से दान कराकर उनमें शुरू से ही दानकी भावना भर रहे हैं, यह बड़ी ही प्रसन्नताका विषय है और दूसरोंके लिये अनुकरणीय है । ऐसे ही सद्विचारों एवं सत्प्रवृत्तियोंसे समाज ऊंचा उठा करता है । हार्दिक भावना है कि आपके ऐसे शुभ विचारोंमें सदा प्रगति और दृढ़ताकी प्राप्ति होवे :
१०० चि० बाबू शान्तिनाथकी ओरसे ।
१००) चि० बाबू निर्मलकुमार की ओर से ।
- अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर'
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वार्षिक मूल्य ४)
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विश्व तत्त्व-प्रकाशक
अने
वर्ष
किरण १०-११
* ॐ अर्हम् *
नाका
नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वस्तु तत्त्व-संघोतक
वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर चैत्र वैशाख शुक्ल, वीरनिवारण सं० २४७३, विक्रम सं० २००४
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समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
इस किरणका मूल्य IIiy
मार्च, अप्रैल १९४७
न शास्त्र - शिष्यादि - विधि-व्यवस्था विकल्पबुद्धिर्वितथाऽखिला चेत् । तत्त्व-तत्त्वादि- विकल्प- मोहे निमज्जतां वीत-विकल्प-धीः का ? ||१७||
'(चित्तोंके प्रतिक्षण भंगुर अथवा निरन्वय-विनष्ट होने पर) शास्ता और शिष्यादिके स्वभावस्वरूपकी (भी) कोई व्यवस्था नहीं बनती – क्योंकि तब तत्त्वदर्शन, परानुग्रहको लेकर तत्त्व - प्रतिपादनकी इच्छा और तत्त्वप्रतिपादन, इन सब कालोंमें रहनेवाले किसी एक शासक ( उपदेष्टा ) का अस्तित्व नहीं बन सकता। और न ऐसे किसी एक शिष्यका ही अस्तित्व घटित हो सकता है जो कि शासन-श्रवण (उपदेश सुनने की इच्छा और शासनकं श्रवण, ग्रहण, धारण तथा अभ्यमनादि कालों में व्यापक हो । 'यह शास्ता है और मैं शिष्य हूँ' ऐसी प्रतिपत्ति भी किसीके नहीं बन सकती । और इसलिये बुद्ध-सुगतको
शास्त माना गया है और उनके शिष्योंकी जो व्यवस्था की गई है वह स्थिर नहीं रह सकती । इसी तरह ('आदि' शब्दसे) स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र और पौत्र - पितामह आदि की भी कोई विधि-व्यवस्था नहीं बैठ सकती, सारा लोक-व्यवहार लुप्त हो जाता अथवा मिथ्या ठहरता है ।'
' (यदि बौद्धोंकी ओरसे यह कहा जाय कि बाह्य तथा आभ्यन्तररूपसे प्रतिक्षण स्वलक्षणों( स्वपरमाणुओं) के विनश्वर होनेपर परमार्थसे तो मातृघानी आदि तथा शास्ता-शिप्यादिकी विधि
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३६६
अनेकान्त
[ वर्ष ८
व्यवस्थाका व्यवहार संभव नहीं हो सकता, तब ?) यह सब विकल्प-बुद्धि है (जो अनादि-वासनासे समुद्भूत होकर मातृघाती आदि तथा शास्ता-शिष्यादिरूप विधि-व्यवस्थाकी हेतु बनी हुई है) और विकल्प-बुद्धि सारी मिथ्या होती है, ऐसा कहने वालों (बौद्धों) के यहाँ, जो (स्वयं) अतत्त्व-तत्त्वादिके विकल्प-मोहमें डूबे हुए हैं, निर्विकल्प-बुद्धि बनती कौनसी है ?-कोई भी सार्थिका और सच्ची निर्विकल्पबुद्धि नहीं बनती; क्योंकि मातृघाती आदि सब विकल्प अतत्त्वरूप हैं और उनसे जो कुछ अन्य हैं वे तत्त्वरूप हैं यह व्यवस्थिति भी विकल्पवासनाके बलपर ही उत्पन्न होती है। इसी तरह 'संवृति' (व्यवहार) से 'अतत्व' की और परमार्थसे 'तत्त्व' की व्यवस्था भी विकल्प-शिल्पीके द्वारा ही घटित की जा सकती है-वस्तुबलसे नहीं। इस प्रकार विकल्प-मोह बौद्धोंके लिये महासमद्रकी तरह दुष्पार ठहरता है। इसपर यदि यह कहा जाय कि बुद्धोंकी धर्म-देशना ही दो सत्योंको लेकर हुई है-एक 'लोकमंवृति सत्य'
और दूसरा ‘परमार्थ सत्य' तो यह विभाग भी विकल्पमात्र होनेसे तात्त्विक नहीं बनता। संपूर्ण विकल्पोंसे रहित स्वलक्षणमात्र-विषया बुद्धिको जो तात्त्विकी कहा जाता है वह भी संभव नहीं हो सकती; क्योंकि उसके इन्द्रियप्रत्यक्ष-लक्षणा, मानसप्रत्यक्ष-लक्षणा, म्वसंवेदनप्रत्यक्ष-लक्षणा और योगिप्रत्यक्षलक्षणा ऐसे चार भेद माने गये हैं, जिनकी परमार्थसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । प्रत्यक्ष-मामान्य और प्रत्यक्ष-विशेषका लक्षण भी विकल्पमात्र होनेसे अवास्तविक ठहरता है। और अवास्तविक लक्षण वस्तुभूत लक्ष्यको लक्षित करनेके लिये समर्थ नहीं है। क्योंकि इससे 'अतिप्रसङ्ग' दीप आता है। तब किसको किससे लक्षित किया जायगा ? किसीको भी किमी लक्षित नहीं किया जा सकता।
अनर्थिका साधन-साध्य-धीश्चेद्विज्ञानमात्रस्य न हेतु-सिद्धिः ।
अथाऽर्थवत्वं व्यभिचार-दोषो न योगि-गम्यं परवादि-सिद्धम् ॥१८॥ '(यदि यह कहा जाय कि ऐसी कोई बुद्धि नहीं है जो बाह्य स्वलक्षणके आलम्बनमें कल्पनासे रहित हो; क्योंकि स्वप्नबुद्धिकी तरह समस्त बुद्धिसमूहके आलम्बनमें भ्रान्तपना हान कल्पना करनी पड़ती है, अतः अपने अंशमात्ररूप तक सीमित-विपय होनेसे विज्ञानमात्र तत्त्वकी ही प्रसिद्धि होती है उसीको मानना चाहिये । इसपर यह प्रश्न पैदा होता है कि विज्ञानमात्रकी सिद्धि ससाधना है या निःसाधना ? यदि ससाधना है तो साध्य-साधनकी बुद्धि सिद्ध हुई, विज्ञान-मात्रता न रही। और यदि सांध्य-साधनकी बुद्धिका नाम ही विज्ञान-मात्रता है तो फिर यह प्रश्न पैदा होता है कि वह बुद्धि अनथिंका है या अर्थवती ?) यदि साध्य-साधनको बुद्धि अनर्थिका है-उसका कोई अर्थ नहीं तो विज्ञानमात्र तत्त्वको सिद्ध करनेके लिये जो (प्रतिभासमानत्व) हेतु दिया जाता है उसकी (म्वप्नापलम्भ-साधनकी तरह) सिद्धि नहीं बनती और जब हेतु ही सिद्ध नहीं तब उससे (असिद्ध-साधनसे) विज्ञप्तिमात्ररूप साध्यकी सिद्धि भी नहीं बन सकती।
__ यदि साध्य-साधनकी बुद्धि अर्थवती है-अर्थालम्बनको लिये हुए है तो इसीसं प्रस्तुत हतुके 'व्यभिचार' दोष आता है-'सर्वज्ञान निरालम्बन है ज्ञान होनेसे' ऐसा दूसरोंके प्रति कहना तब युक्त नहीं ठहरता, वह महान् दोष है, जिसका निवारण नहीं किया जासकता; क्योंकि जैसे यह अनुमान-ज्ञान स्वसाध्यरूप आलम्बनके साथ सालम्बन है वैसे विवादापन्न (विज्ञानमात्र) ज्ञान भी सालम्बन क्यों नहीं? ऐसा संशय उत्पन्न होता है। जब भी सर्ववस्तुममूहको प्रतिभासमानत्व-हेतुसे विज्ञानमात्र सिद्ध किया जाता है तब भी यह अनुमान -परार्थप्रतिभासमान होते हुए भी वचनात्मक है-विज्ञानमात्रसे अन्य होने के कारण विज्ञानमात्र नहीं है-अत: प्रकृत हेतुके व्यभिचार-दोप सुघटित एवं अनिवार्य ही है। १ "टू सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्म-देशना । लोकसंवृति-सत्यं च सत्यं च परमार्थतः ।।"
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किरण १०-११ ]
समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
'यदि (निःसाधना सिद्धिका आश्रय लेकर) विज्ञानमात्र तत्त्वको योगिगम्य कहा जाय - यह बतलाया जाय कि साध्य के विज्ञानमात्रात्मकपना होनेपर साधनका साध्यतत्त्वके साथ अनुषङ्ग है - वह भी साध्यकी ही कोटि में स्थित है - इसलिये समाधि अवस्था में योगीको प्रतिभासमान होने वाला जो संवेदनाद्वैत है वही तत्त्व है; क्योंकि स्वरूपकी स्वतः गति (ज्ञप्ति) होती है- उसे अपने आपसे ही जाना जाता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यह बात परवादियोंको सिद्ध अथवा उनके द्वारा मान्य नहीं है- जो किसी योगी के गम्य हो वह परवादियोंके द्वारा मान्य ही हो ऐसी कोई बात भी नहीं है, यह तो अपनी घरेलू मान्यता ठहरी । अतः निःसाधना सिद्धिका आश्रय लेनेपर परवादियोंका विज्ञानमात्र अथवा संवेदनाद्वैत तत्त्वका प्रत्यय (बोध) नहीं कराया जासकता ।
तत्त्वं विशुद्ध सकलैर्विकल्पविश्वाऽभिलापाऽऽस्पदतामतीतम् ।
न स्वस्य वेद्य ं न च तन्निगद्यं सुपुप्त्यवस्थं भवदुक्ति-बाह्यम् ॥१९॥
'जो (विज्ञानाऽद्वैत) तत्व सकल विकल्पोंसे विशुद्ध (शून्य) है - कार्य-कारण, ग्राह्य-ग्राहक, वास्यवासक, साध्य-साधन, बाध्य बाधक, वाच्य वाचक भाव आदि कोई भी प्रकारका विकल्प जिसमें नहीं हैवह स्वसंवेद्य नहीं होमकता; क्योंकि संवेदनावस्था में योगीके अन्य सब विकल्पोंक दूर होनेपर भी ग्राह्य-ग्राहककं आकार विकल्पात्मक संवेदनका प्रतिभासन होता है, बिना इसके वह बनता ही नहीं, और जब विकल्पात्मक संवेदन हुआ तो सकल विकल्पोंसे शून्य विज्ञानाद्वैत तत्त्व न रहा ।
३६७
(इसी तरह) जो विज्ञानाद्वैत तत्त्व सम्पूर्ण अभिलापों ( कथन प्रकारों) की आम्पदता ( श्राश्रयता ) से रहित है - जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया और यच्छा (संकेत) की कल्पनाओंसे शून्य होनेके कारण उस प्रकार के किसी भी विकल्पात्मक शब्दका उसके लिये प्रयोग नहीं किया जासकता - वह निगद्य ( कथन के योग्य) भी नहीं होसकता- दूसरों को उसका प्रतिपादन नहीं किया जासकता ।
( अतः हे वीरजिन ! ) आपकी उक्तिसं अनेकान्तात्मक स्याद्वाद से - जो बाह्य है वह सर्वथा एकान्तरूप विज्ञानाद्वैत-तत्त्व (सर्वथा विकल्प और अभिलापसे शून्य होने के कारण) सुपुप्ति अवस्थाको प्राप्त हैं -- सुषुप्ति में संवेदनकी जो अवस्था होती है वहीं उसकी अवस्था है । और इससे यह भी फलित होता है कि स्याद्वादका आश्रय लेकर ऋजुसूत्र नयावलम्बियोंके द्वारा जो यह माना जाता है कि विज्ञानका तत्त्व विज्ञान के अर्थ पर्यायके आदेश ही सकल - विकल्पों तथा अभिलापोंसे रहित है और व्यवहारनयावलम्बियों के द्वारा जो उसे विकल्पों तथा अभिलापोंका आश्रय स्थान बतलाया जाता है वह सब आपकी उक्ति बाह्य नहीं है- आपके सब नियम - त्यागी स्याद्वादमत के अनुरूप है ।'
कात्म-संवेद्यवदात्म-वेद्य
तन्ग्लिष्ट-भाषा-प्रतिम - प्रलापम् । अनङ्ग-स ंज्ञं तदवेद्यमन्यैः स्यात् त्वद्विषां वाच्यमवाच्य तत्त्वम् ॥२०॥
' का स्वसंवेदन जिस प्रकार आत्मवेद्य है- अपने आपके द्वारा ही जाना जाता हैउसी प्रकार विज्ञानाद्वैततत्त्व भी श्रात्मवेय है-स्वयं के द्वारा ही जाना जाता है । आत्मवेद्य अथवा 'स्वसंवेद्य' जैसे शब्दोंके द्वारा भा उसका अभिलाप (कथन) नहीं बनता, उसका कथन गूङ्गेकी अस्पष्ट भाषाके समान प्रजाप-मात्र होनेसे निरर्थक है- वह अभिलापरूप नहीं है। साथ ही, वह अनङ्गसंज्ञ है— अभिलाप्य न होनेसे किसी भी अङ्गसंज्ञाके द्वारा उसका संकेतन ही किया जा सकता । और जब वह अनभिलाप्य तथा अनङ्गसंज्ञ है तब दूसरोंके द्वारा अवेद्य (अज्ञेय ) है -दूसरोंके प्रति उसका प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। ऐसा (हे वीरजिन !) आपसे आपके स्याद्वादमत से -द्वेष रखने वाले जिन ( संवेदना -
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३६८
अनेकान्त
[ वर्ष ८
द्वैतवादि-बौद्धों) का कहना है उनका सर्वथा अवाच्य-तत्त्व इससे वाच्य होजाता है ! जो इतना भी नहीं समझते और यही कहते हैं कि वच्य नहीं होता उनसे क्या बात की जाय ? -- उनके साथ तो मौनावलम्बन ही श्रेष्ठ है।'
अशासदजांसि वचांसि शास्ता शिष्याश्च शिष्टा वचनैर्न ते तैः ॥
अहो इदं दुर्गतमं तमोऽन्यत् त्वया विना श्रायसमायें ! कि तत् ॥२१॥ 'शास्ता–बुद्धदेवने ही (यथार्थदर्शनादि गुणोंसे युक्त होने कारण) अनवद्य वचनोंकी शिक्षा दी, परन्तु उन वचनोंके द्वारा उनके वे शिष्य शिक्षित नहीं हुए !' यह कथन (बौद्धोंका) अहो दूसरा दुर्गतम अन्धकार है-अतीव दुष्पार महामोह है !! क्योंकि गुणवान शाम्ताके होनेपर प्रतिपत्तियोग्य प्रतिपाद्योंशिष्योंके लिये सत्य-वचनोंके द्वारा ही तत्त्वानुशासनका होना प्रसिद्ध है। बौद्धोंके यहाँ बुद्धदेवके शाम्ता प्रसिद्ध होनेपर भी, बुद्धदेवके वचनोंको सत्यरूपमें स्वीकार करनेपर भी और (बुद्ध-प्रवचन सुनने के लिये) प्रणिहितमन (दत्तावधान) शिष्योंक मौजूद होते हुए भी वे शिष्य उन वचनोंसे शिक्षित नहीं हुए, यह कथन बौद्धोंका कैसे अमोह कहा जासकता है ?-नहीं कहा जासकता, और इस लिये बौद्धोंका यह दर्शन (सिद्धान्त) परीक्षावानोंके लिये उपहामास्पद जान पड़ता है।
(यदि यह कहा जाय कि इस शासनमें संवृतिसे-व्यवहारसे-शास्ता, शिप्य, शासन तथा शासनके उपायभूत वचनोंका सद्भाव स्वीकार किया जानेसे और परमार्थसे संवेदनाद्वैतकं निःश्रेयस-लक्षण कीनिर्वाणरूपकी-प्रसिद्धि होनसे यह दर्शन उपहासास्पद नहीं है, तो यह कहना भी ठीक हे आर्य-वीरजिन ! आपके बिना-आप जैसे स्याद्वादनायक शाम्ताके अभावम निःश्रेयस (कल्याण अथवा निर्वाण) बनता कौनसा है; जिससे संवेदनाद्वैतको निःश्रेयसरूप कहा जाय ?–सर्वथा एकान्त-वादका
आश्रय लेनेवाले शास्ताके द्वारा कुछ भी सम्भव नहीं है, ऐमा प्रमाणसे परीक्षा किये जानेपर जाना जाता है । सर्वथा एकान्तवादमें संवृति और परमार्थ ऐसे दो रूपसे कथन ही नहीं बनता और दो रूपसं कथनमें सर्वथा एकान्तवाद अथवा स्याद्वादमत-विरोध स्थिर नहीं रहता।'
प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्ग-गम्यं न तदर्थ-लिङ्गम् ।
वाचो न वा तद्विपयेण योगः का तद्गतिः ? कष्टमशृण्वतां ते॥२२॥ 'जिस (संवेदनाद्वैत) तत्त्वम प्रत्यक्षवुद्धि प्रवृत्त नहीं होती-प्रत्यक्षतः किमीके जिसका तद्प निश्चय बनता-उसे यदि (स्वग-प्रापणशक्ति आदिकी तरह) लिङ्गगम्य माना जाय तो उसमें अर्थरूप लिङ्ग सम्भव नहीं होसकता; क्योंकि वह स्वभावलिङ्ग उस तत्त्वकी तरह प्रत्यक्ष-बुद्धिसे अतिक्रान्त है, उसे लिङ्गान्तरसे गम्य माननेपर अनवम्था दोष आता है तथा कार्यलिङ्गका मंभव माननेपर द्रुतताका प्रसङ्ग आता है और (परार्थानुमानरूप) वचनका उसके संवेदनाद्वैतरूप विषयके साथ योग नहीं बैठता-परम्परासे भी सम्बन्ध नहीं बनता, उस संवेदनाद्वैततत्त्वकी क्या गति है ?—प्रत्यक्षा, लैङ्गिकी और शाब्दिकी कोई भी गति न होने से उसकी प्रतिपत्ति (बोधगम्यता) नहीं बनती, वह किसीके द्वारा जाना नहीं जासकता । अतः (हे वीरजिन !) आपको न सुननेवालोंका-आपके स्याद्वाद शासनपर ध्यान न देनेवाले बौद्धोंका-संवेदनाद्वैत दशन कष्टरूप है।'
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ऐतिहासिक घटनाओंका एक संग्रह
-
&
[सम्पादकीय ]
गत भादों मासमें, कानपुरके शास्त्र-भण्डारोंका हों और उन्होंने अनेक स्थलों परसे अपनी रुचि अवलोकन करते हुए, मुझे बाबू पद्मराजजीके पाससे, आदिके अनुसार यह संग्रह किया हो। और यह भी जो कि एक बड़े ही सजन-स्वभावके उदार-हृदय हो सकता है कि संग्रह किसी दूसरेका हो और व्यक्ति मालूम हए और जिन्होंने अपने शास्त्र- उन्होंने अपने उपयोगादिके लिये उसकी यह भण्डारको दिखलानेमें कई दिन तक मेरे साथ कई- प्रतिलिपि की हो । कुछ भी हो, इस संग्रहको लिखे कई घंटे परिश्रम भी किया है, दो एक छोटे-छोटे हुए १५० वर्षसे ऊपर हो चुके हैं। इसमें अनेक ग्रन्थोंकी प्राप्ति हुई थी, जिसके लिये मैं उनका बहत नगरों तथा गढ़-कोटों आदिके बनने-बनाने, बसने
आभारी हैं। उनमें से एक ग्रन्थ सात पत्रका है, बसाने अथवा हस्तान्तरित होने आदिके समयोंका जिसके प्रत्येक पृष्टपर १४ पंक्तियाँ और प्रत्येक उल्लेख है। अनेक राजाओंके जन्म लेने, राजगही पंक्तिमें ४० के करीब अक्षर हैं किन्तु अन्तिम पृष्ठपर प्राप्त करने, गद्दी छोड़न, लड़ने-झगड़ने, भागने तथा ३ ही पंक्तियाँ हैं, और इस तरह जिसका परिमाण मरने आदि सम्बन्धी समयोंके उल्लेखोंको भी यह लिये २३१ श्लोक जितना जान पड़ता है। इस ग्रन्थका हुए हैं। और भी राजा-प्रजा आदिसे सम्बन्ध रखने कोई खास नाम नहीं है। इसका प्रारम्भ "अथ वाली कितनी ही लौकिक घटनाओंके समयादिकका वाका लिप्यते” इस वाक्यसे होता है और उसके इमम समावेश है । सारे संग्रहमें विक्रम संवतादिका अनन्तर ही मंवतादिके उल्लेग्व-पूर्वक वाकात एक ही क्रम नहीं रखा गया है-कहीं-कहीं वे कुछ (घटनाओं) का निर्देश किया गया है, और इमलिये भिन्न क्रमसे भी पाये जाते हैं, जिसका एक उदाहरण इस एतहासिक घटनाओंका एक संग्रह कहना दिल्ली बसानेकी घटना है जिसे प्रथम स्थान चाहिये, जो हिन्दी गजगती आदि मिश्रित भाषा में गया है, तदनन्तर उज्जैन आदिको । अस्त, आज पाठकोंलिग्वा गया है। तोमर आदि अनेक राजवंशोंकी को इस संग्रहकी अधिकांश घटनाओंका (वंशावंशावली भी इसमें दी हुई है। अन्तकी चौहान वलियोंको छोड़कर) काल-क्रमसे, बिना किसी टीकावंशावली 'सीरोही देवडा' के नामसे दी है। यह टिप्पणके, परिचय कराया जाता है। विशेष विचार ग्रन्थ संवत १८४९ पोप बद। पञ्चमीका लिखा हुआ एवं जाँच-पड़तालका कार्य फिर किसी समय हो है और इसके लेखक हैं ऋषि रुघा; जैसाकि अन्तकी सकेगा:पंक्तिके निम्न अंशसे प्रकट है
संवत् और घटनाएँ __ "इति सीरोही देवडा ॥ सं० १८४६ पोस व ५ ७३१- राजा भोजने 'उज्जैन' बसाई । लि० ऋ रुघाः"
८०२–वैशाख सुदि ३ को चावडे वनवीरने बहुत सम्भव है कि ऋषि रुघा ही इसके संग्राहक 'पाटन' बसाई । १ इस भाषाका कुछ ज्ञान आगे परिचयमें उद्धृत किये ८०९-वैशाख सुदि १३ को राजा अनंगपाल हुए वाक्यांसे हो सकेगा।
तुबर (तोमर) ने 'दिल्ली' बसाई ।
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३७०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
९०२-चित्रांगदने 'चित्तौड़' कराया, 'मोरी' हथियार छोड़कर वीरमदे देवलोकको प्राप्त हुआ। बसाया और 'गढ़' कराया।
"माथो पादशाह जुरगयो" । पीछे बादशाहकी १०७०-नाहडरायने 'मँडावर' बसाया। बेटियोंने सत किया।
१०७७–भोजपरमारके बेटे वीरनारायणने १३५१-विहारिश्राको जालोरके मध्ये थानेमें 'गढ सिवाना' कराया, पहले वह 'कुम्भट' ग्राम डाला। कहलाता था।
१४०२-अहमद बादशाहने चंपानेरसे आकर १०८८-शत्रुजय (तीर्थ) पर 'विमलवस्ती' 'अहमदाबाद' बसाया । मणिकेसरनाथ योगी बनाई गई।
ब्रह्मचारीने गुरुकी आज्ञासे पहली 'लाहौर' बसाई । १११५–राजा पृथ्वीराजके मंत्रीश्वरने 'नागौर' १४ २(१४०२ या १४१२?)-अहमद बादशाहने बसाया । किंवारदाय (?) में गडरियेने सिंहोंको दक्षिणमें 'अहमदनगर' बसाया। इकट्ठे बैठे देखा था, यह देखकर बसाया।
१४५२-वैशाख वदि ७ को देवड सहसने ११८१-फलवधि-पार्श्वनाथजीकी स्थापना 'सिरोही' बसाई । उस समय ककचरा पेड़ लगाया। की गई।
“तिको कांकाहमाहो मिटै नहीं"(?) ११८४-सिद्धराय जयसिंहदेव हुआ।
१४९२-राणपुरके राणा कुम्भाने ४ स्तम्भ ११९९-कुमारपाल राजा पाटण (में) हुआ, बनवाए, जिनमें १ लाख २४ हजार फीराज लगे। हेमाचार्य जिसके गुरु।
१४९४(६?)-राणपुरमें मंदिरकी स्थापना की १२१२-श्रावण वदि १२ को राव जेसलने अपने नामपर 'जैसलमेर' बसाया। स्थानका पिछला नाम
गई, ९९ लाख रुपया लगा। (मंदिर की नींव वैशाख 'लोद्रवा' था।
मुदि ३ को रक्खी गई थी।) १२१३-कच्छमें जहाँ भद्रेश्वर है वहाँ झगडूया
१४९[६] -कुम्भा राणाने 'कुम्लमेर' बसाया। (झगडा या यज्ञ) हुआ । 'रायां सधार कहवाणो' (?)
१५१०-रावोड बीका जोधावतने अपने नाम १२२०-बीसलरावने अजमेरमें राज्य किया। पर जङ्गलम 'बीकानेर' बसाया।
१२२४-आबूजीके ऊपर तेजपाल वस्तपालने १५४(१५०४?)-जोधंजीन चौहानका मारकर 'अचलगढ़' कराया।
और मँडावरको भंगकर 'धाना' बसाया। १२३६-श्राबूजीके ऊपर तेजपाल वस्तुपालने १५१२-जोधपुरमें भगडूया (यज्ञ) हुआ। उस मन्दिर बनवाया । (बहुत) द्रव्य खर्च किया।
समय सवा लाख याचकोंको एक वक्त जिमाया गया। १३००-जालोरगढ़के राव कान्हडदेने 'सोनिगर
१५१५-जोधावत द्वितीयने 'मेडत' बसाया । गढ़' कराया। पहला राजस्थान भिनमालमें था। पहले मानधाताने बसाया था । सूना खेड़ा
१३३७-बादशाह अलाउद्दीन गौरी जालोरमें बसाया गया। पाया।
१५३५-राव हारन राउतने 'फलवधीका १३५१-अलाउद्दीनने गढ़ जालोर लिया। राव कोट' कराया। कान्हडदे सोनिगरके ऊपर विलुप्त हुआ । कुँवर १५८४-राणा सांगाने बेढि की, चैत्र वदी १३ वीरमदे अपघात कर मरा पेट कटारी मारी। पेटके को मुगल भागा, बादको जेठ वदिमें राणा सांगा ऊपर पाभणी और हथियार बाँधकर उसने मामला देवलोकको प्राप्त हुआ। (युद्ध) किया। पीछे जब वीरमदे पकड़ा गया तब १५९१-राव मालदेने 'नागौर' लिया (विजय उसने कहा मुझे सुस्ता तो होने दो, सुस्ताते समय किया)।
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किरण १०-११ ]
ऐतिहासिक घटनाओंका एक संग्रह
३७१
१५५६-राव मालदेने 'मेहवा' बसाया, पहले १६३४-चैत्र वदि ११को कुंभलनेर भागा । अमरकोट रहता था।
बादशाह अकबरकी फौज आई । फौज (दार) का १५९६-रावल जामने 'नवानगर' बसाया, नाम जादिसाहबखान खोजा। जब फौजें आने लगी पहले कच्छमें रहता था।
तब राणा उदयसिंहजी गढसे उतरा, तभी मुगल १२ १५२८-राव मालदेने 'बीकानेर' लिया। ऊपर चढ़े।
१६००-"बड़ी बेढ हुई, कृपा जैता, त्यांरी १६३५–महादुष्काल हुआ “परोजी १ पाली १ राणीनै राव मालदेनी सखा कोठड रह्या।" थान थयो"।
१६०१-राणा उदयसिंहजीसे चित्तौड़ छूटा, १६३७–श्रावण वदि ११को राव चन्द्रसेनका तब मेवाडमें पीछले तालाबके ऊपर उदयपुर बसाया; देश भागा। (बादको) उदयसागर बँधाया। “सो भागलीधो" । १६३९–कार्तिकमें राजा श्री उदयसिंहजीका
१६०२-राव मालदे वापिस जोधपुर आया. जोधपुर पर अधिकार हुआ। आकर दीवाली मनाई-शनी की।
१६४२-बादशाह अकबरने जमनाजीके ऊपर १६०४-(राव मालदेने) कुँवर श्रीरामको देश 'अकबराबाद'बसाया। पहला नाम 'पारकर'था। बांट दिया।
१६४२-श्री हीरविजयसूरी अकबर बादशाह १६१०-फागुन सुदी १०को राणाके चाकरोंने से मिला, धर्मचर्चा की और करामात दिखाई। गुजरातमें बादशाह मुहम्मदको मारा । उस समय
१६४८-शाहजहान बादशाहका जन्म हुआ। राणा उदयसिंहने चित्तौड़ वापस लिया।
१६४९ (?)-अकबर बादशाहने गुजरात ली १६११–“वैशाप सुदि २ प्रहर १ चढतां जेता (फतह की)। वतनगो भारमलांत धनराज पंचोली भाभी घरो
१६५०-अकबर बादशाहने 'ब्राह्मणपुर' लिया।
१६५१-श्रावणमें, राजा उदयसिंह देवलोकको माथी काम आयो” (युद्धमें एक माथ मारे गय)।
प्राप्त हुआ। लाहौर में सूरसिंहजोको टीका (राजतिलक) ५६११-राव मालदने ‘मेडत' लिया और
हुआ। अपने नामपर शहरके बाहर 'गढ़' कराया।
१६५२-भट्टारक श्रीहीरविजयसृरि देवलोकको १६१३–फागुन दि ९को १ पहर दिनसे
प्राप्त हुआ। रीयामाली गाँवमें राणा उदयसिंहने हाजीखानसे
१६५६-पोष वदि दूज को सोजित (सोजित कलह (युद्ध) किया और फिर भागा।
की प्रजा) भागी। १६१९--परमारमालदेने 'मालपुरा' बसाया।
१६६२–कातिक सुदि २ को बादशाह अकबर १६२१–राव कल्याणमलजी नाडूलके थाने रहा। मौत (मृत्यको प्राप्त) हुआ। फागुन वदि ७को शख्न जालिमीका"चूककरीन" मारा। १६६२–मङ्गसिर वदि ७ को जहाँगीरको टीका
५६२३–मङ्गसिर वदि ११को सोजित (सोजित (राजतिलक) हुआ। की प्रजा) भागी। उदयपुर बसा।
१६६५-राजा वीरबल मोडने राजगढ़ बसाया । १६२३–मङ्गमिर में उदयसागर तालाब बँधा, १६६५-कार्तिक सुदि ५ को श्रीपूज्य जसवन्तजो भाग निकला।
सिंह जी हुआ, उसने जहाँगीर बादशाहको पर्चा १६२४-अकबर बादशाहने चित्तौड़ लिया। दिया, उससे धर्मचर्चा की, जजिया (टैक्स) का
१६२९-राव कल्याणमलको सीरीयारी गाँवमें निवारण किया और अकबराबाद शहरमें अग्रटीका (तिलक) हुआ।
वालोंक ९०००० घरोंको प्रतिबोधा (उपदेश दिया)।
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
१६६७-माघ सुदि ७ को राव चन्द्रसेन १७१५ (१७१४?) जेठमें राजा (जसवन्तसिंहजी) "देवीक" (देवलोकको प्राप्त) हुआ।
अपने मारवाड़ी घर आया। १६६९-राजा किसनसिंह उदयसिंहोतने अपने १७१४-धवलपुरमें दाराशाहने औरङ्ग-मुरादिसे नामपर 'किसनगढ़' बसाया।
लड़ाई की, दारा भागा, थटमें गया और औरङ्ग
मुरादि दिल्ली-आगरा गये। १६७०–पौष वदि १२ को राव अमरसिंहका जन्म हुआ।
१७१४-राणाजीने जमालपुरा मारा (विजय
किया)। १६७२–जेठ वदि को राव किसनसिंह अजमेरमें काम आया (मारा गया)।
१७१५-मुरादशाहको पकड़ा, पश्चात् बादशाह
ने राजा जसवन्तसिंहको बुलाया, परगने ५ हाथी १६७५--औरङ्गजेबका जन्म हुआ। १६७६-राजा सूरसिंह देवलोकको प्राप्त हुआ।
घोड़े सिरपाव १ और तलब दी और कंच करके खुद १६७६-राजा गजसिंहजीको टीका (राजतिलक)
बादशाह लाहौर गया और राजाजी तीन महीने
आगरा रहे । इधर शाह शुजाने सिर उठाया, बादशाह हुआ। - १६७७–श्रीपूज्य जसवन्तसिंहजीका स्वर्गवास
शुजाके मुकाबले को चला । “पछै राजा पातिशाह
जीवाण कनही तितरै पेलू मालूरा डेरा लंटीयाः।" हुआ। १६८३-राजा श्रीजसवन्तसिंहजीका जन्म हुआ।
१७१५-माह वदि ७को राजाजी मेडत आया, १६८४-बादशाह जहाँगीर फौत (मृत्युको प्राप्त)
दिन १८में जोधपुर आया। माघ सुदि ४को शाह दारा
२५०८० घोड़ांक साथ अहमदाबाद आया, तत्पश्चात हुआ। बादशाह शाहजहाँ गद्दीपर बैठा। १६८८-शाहजहाँ बादशाहने दौलताबाद लिया।
दिल्लीको आने लगा, महाराजा के पास खबर आई,
घोड़े १०००के माथ गाँव बाबीमें आया। माघ सुदि १६९५-आषाढ वदि ७ के दिन राजा जसवन्त
३को दारा सिरोही आया । घोड़े ६.०० साथ आए। मिहको आगगमें टीका (राजतिलक) हुआ। और
रावजीके बेटे उदयसिंहको साथमें लिया। फागन घरका टीका आषाढ़ सुदि ३को हुआ।
मुदिमें महाराजा और दारा मिगेहीमें इकटे हुए, १६९७-कातिक सुदि ११को रावकी सुलतान बाद को गाँव रावडायासे (दारा) वापिस आया। के साथ बेढ़ (लड़ाई) हुई; उसमें गव राइसिंह और १७१५ (१७१६?)-वैशाखमें, अजमेरकी लड़ाई जगमाल काम आप (मरणको प्राप्त हुए)।
हुई, जिसमें दाराशाह भागा, औरङ्गशाह बेटको शाह१७११-चैत्रमें लड़ाई हुई, दागशाह भागा और शुजाके मुकाबले भेजकर आगरा गया। राजा जयसिंह, औरङ्गजेब जीता।
राजा जसवंतसिंह और नवाब बादरखान तीनों दारा १७११-मेवाड व्याकुल हुआ, सादुल्लाखाँने शाहसे मिल गये । जाते हुए 'महाराजाने सिरोही चित्तौड़को हगया।
परणी'-सिरोहीको अपने आधीन किया अथवा १७१३-जालौर राजा जसवन्तसिंहका हआ। सिरोहीराजाकी कन्यासे विवाह किया?।
१७१४- असौज वदि ९के दिन शाहजहान १७१६-राजा जसवन्तसिंहका बेटा मोहणत बादशाह मरणको प्राप्त हुआ।
सुन्दरदास बादशाहजीके हजूरमें गया। १७१४ - चैत्रमें राजा जमवन्तसिहको शाहजादा १७१४ (१७१६?)-महाराजा (जसवंतसिंह?) औरङ्ग-मुरादिने २२०८० घोड़ों के साथ अपने सामने को नागौरकी पटी २३ प्राप्त हुई। विदा किया और जब वह उज्जैन पहुँचा तब वहाँ दो ५७१६-महाराजा (जसवंतसिंह ?) को 'अदाशाहजादे अहमदाबादसेआये २८००० घोड़ोंके साथ। बादी' का सूबा प्राप्त हुआ।
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किरण १०-११ ]
ऐतिहासिक घटनका एक संग्रह
३७३
१७१६-राव लक्खि महेदा सोउत गोढवाडसे १७३६–जालौर राठोड सुजानसिंहका हुआ । ५०० साँड ले आया।
और वर्ष १ अधिकारमें रहा। १७१७--राउ वेणीदास बलू उत चौहान देव- १७३६(१)-जालौर फतहखान दीवानका हश्रा। लोकको प्राप्त हुआ।
१७३६-सुजानसिंहने लड़कर सोजित जीता। १७१४ (७) मोहणत सुन्दरदासने सींधलावटी १७३७ - राणा राजसिंह देवलोकको प्राप्त हुआ। मारी, घने सिंधल काम आए (मारे गये) २७ १७३७-राणा जयसिंह, जिसका जन्म संवत 'कोटडी' उठी।
१७१० में हुआ था, गद्दीपर बैठा। १७१७-दीषणी (दक्षिणी) से
७३७-इन्द्रसिंहजी जोधपुरसे बेदखल हुए और १७१७-सलेमाने शूकर मारा ।
नवाब अनात (इनायत) खान उसपर काबिज हुए। १७२४-शिव बादशाह के कदमों (चरणों) में १७३७–'जालौर' रामसिंहका हुआ । गया।
५७३८-'जालौर' बहलोलखानका हुआ। १७३८-राव अक्षराम देवलोकको प्राप्त हुआ। १७३९-बहलोलखान जालौरकी गद्दीसे उतारा
१७३३-राव बैरीसाल गद्दीपर बैठा, जिसका गया और पाटणका सूबेदार हुआ। जन्म सं० १७२१ में हुआ था।
१७४३-सिरोहीमें उदयसिंह चंपाउत, मुंकदास १७३३-राजा रायसिंहोत देवकतने दक्षिणमें (?) खीची इनको महाराजाके बेटेंने सूबा (परगनेका मोहनत करमसीको मारा, मोहनत मोहनदास हाकिम) किया। तेजमाल और प्रतापसिंहको नागौर में मारा।
१७४८-माघ वदि १ को राजा जयसिंह घानोर १७३३-सिरोही वाला राव उदयसिंह देव- आया और वैशाग्वकं बाद वापिस गया । लोकको प्राप्त हुआ।
१७५२–सूर्यग्रहण बहुत जोरका हुआ, दिनमें १७३५--महाराजा (जमवंतसिंह ?) के माथ तारं दिग्बाई देने लगे। दिल्लीने लड़ाई की। रघुनाथ भाटी रिणछोडदाम १७५२-माघक महीनम भूकम्प हुआ। योद्धा दुर्गदास, आसकरणोत, इन्होंने मुख्य हो १७५२-"आषाढ वदी ९ उदैपुर राजा परथम करके लड़ाई की, जिसमें घने मुगल काम आए और परणी" (?) राठोड जीता।
१७५३- अकबर की बेटी आगरा गई। ___ १७३५-"मेवाड माहें विपी (झगड़ा-फिमाद ?)
१७५४-माघ वदि २ को अजितसिंह जोधपुर वर्ष २ रह्यो ।
गया, सुरसागरकं पाम डरा हुआ । माघ मासमें १७३५ -पौप वदिमें महाराज जसवंतसिंह ही बादको भांडवालमें डेरा हुआ। देवलोकको प्राप्त हुआ ।
१७५१-दुगदाम और आसकरणोत सुलतान १७३५-चैत्र वदि ४को महाराजाके कुंवर अजीत- बेगजी वादशाहके पास गय, बादशाह उनपर महेरमिह-छत्रसिहका जन्म हुआ।
बान हुआ और उन्हें सात हजारी मन्सब दिया। १७३५-जेठमें डीडूआना मारा, "नीवतरा १७५४--फागुनमें भूमि धड़धड़ कांपी। ठीहा किया" ।
१७५४–'जालौर' महाराजजी (?) को हुई। १७३५-जोधपुर इन्द्रसिंहजीका हुआ-उनके १७५५-आश्विनमें राणा जयसिंह देवलोकको अधिकार में पाया।
प्राप्त हुआ। १७३६-अंधी वाउल आई, 'खेरवा' (?) इकट्ठा १७५५-राणा अमरसिंह, जिसका जन्म संवत्
१७२९ में हुआ था, पाटपर बैठा (गद्दीनशीन हुआ)।
हुआ।
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३७४
अनेकान्त
१७५५ - उदयपुर में दिन के वक्त श्याल ( गीदड़ )
बोला ।
१७५८ - फागुन में एक अजीब ( ' डंगडियाला ' ) तारा उदित हुआ ।
१७६२ (१) — चैत्र में शाम के वक्त तारा सबल पड़ा ।
fro
[ वर्ष ८
१७६३ - महाराजा श्रजितसिंह जालौर में गद्दी पर बैठा ।
'अनेकान्त' की गत ८- ९वीं संयुक्त किरण में हमने उक्त शीर्षक के साथ एक खोजपूर्ण लेख लिखा था, जिसमें अनेक आधार- प्रमाणों और सङ्गतियोंसे यह सिद्ध किया था कि 'परीक्षामुखकार आचार्य माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र परस्पर साक्षात गुरुशिष्य थे । अतएव उनका समय विक्रम संवत् १०५० वि० सं० १९९० ( ई० सन् ९९३ से ई० १०५३) अनुमानित होता है ।"
प्राचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर ग्रभिनव प्रकाश
[ परिशिष्ट ]
मेरे इस मतसे सहमति प्रकट करते हुए श्रीन् भाई प्रो० दलसुखजी मालवणिया जैनदर्शनाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसने मुझे हाल में पत्र लिखा है । साथमें मेरे उक्त मतका समर्थक एक प्रमाण भी भेजा है । उनका वह पत्र निम्न प्रकार है
'अनेकान्तके अन्तिम में आपने आचार्य प्रभाचन्द्रको आचार्य माणिक्यनन्दिके शिष्यरूपसे बताया है वह ठीक ही हैं । उसके समर्थन में मैं आपको एक और भी प्रमाण देता हूँ । मार्त्तण्ड में ३ - ११ सूत्रकी व्याख्या ( नई आवृत्ति पृ० ३४८ पं० २२ ) में प्रभाचन्द्रने लिखा है “इत्यभिप्रायो गुरूणाम् ।" इसमे अब शङ्का न रहना चाहिए ।'
प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ३-११ सूत्रकी व्याख्या गत पूरा उद्धरण इस प्रकार है
१७६४ - आज़मका पुत्र दीदारबख्श काम आया ( मारा गया)। आलिमशाह गद्दी पर बैठा ।
" न च बालावस्थायां निश्चयानिश्चयाभ्यां प्रतिपन्नसाध्यसाधनस्वरूपस्य पुनवृद्धावस्थायां तद्विस्मृतौ तत्स्वरूपोपलम्भेऽप्यविनाभावप्रतिपत्तेरभावात्तयोस्तदहेतुत्वम्; स्मरणादेरपि तद्धं तुत्वात् । भूयां निश्चयानिश्चयौ हि स्मर्यमाण्प्रत्यभिज्ञायमानौ तत्कारणमिति स्मरणादेरपि तन्निमित्तत्वप्रसिद्धिः । मूलकारणत्वेन तूपलम्भादेरत्रोपदेशः, स्मरणादेस्तु प्रकृतत्वादेव तत्कारणत्वप्रसिद्ध ेरनुपदेश इत्यभिप्रायेो गुरूणाम"
यहाँ शङ्का की गई है कि स्मरण आदि भी व्याप्तिज्ञानमें कारण होते हैं उनका सूत्रमें उपदेश क्यों नहीं है ? उसका समाधान यह किया गया है। कि प्रधान कारण होनेसे उपलम्भादिकका तो सूत्र में उपदेश है किन्तु स्मरणादिकका प्रकरण होनेसे ही उनकी कारणता सिद्ध होजाती है और इसलिये उनका सूत्रमें अनुपदेश है उपदेश नहीं है, ऐसा अभिप्राय गुरुका है ।
यद्यपि जैन साहित्य में परम्परा गुरुके लिये भी 'गुरु' शब्दका प्रयोग किया गया है, परन्तु यहाँ ग्रन्थारम्भमें, ग्रन्थकी प्रशस्ति में और मध्य में जो बारबार तथा विशिष्ट शैली से प्रभाचन्द्रने माणिक्यनन्दिके लिये 'गुरु' शब्दका प्रयोग किया है वह साक्षात् गुरुके लिये ही स्पष्ट प्रतीत होता है ।
मैं उक्त प्रमाण के लिये प्रो० सा० का आभारी हूँ । आशा है अन्य विद्वान भी इसपर विचार करेंगे।
- दरबारीलाल जैन, कोठिया ।
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जैन-गुगा-दर्पणा
BUDAUncliahlish.linih.i
(संस्कृत मूलका हिन्दी रूपान्तर) कर्म-इन्द्रियोंको जीतै जो, 'जिन' का परम उपासक जो । हेयाऽऽदेय - विवेक - युक्त जो, लोक - हितैषी जैनी सो ॥१॥ अनेकान्त - अनुयायी हो स्याद्वाद - नीतिसे वतैं जो । बाध - विरोध - निवारण - ममरथ, ममता - युत हो जैनी सो ॥२॥ परम अहिंसक दया-दानमें तत्पर सत्य-परायण जो । धरै शील - सन्तोष अवंचक, नहीं कृतघ्नी जैनी सो ॥३॥ नहिं आसक्त परिग्रहमें जो, ईर्पा-द्रोह न रखता हो । न्याय-मार्गको कभी न तजता, सुख-दुग्वमें सम जैनी मो ॥४॥ लोभ · जयी निर्भय निशल्य जो, अहंकारसं रीता जो । सेवा-भावी गुण-ग्राही जो, विषय - विजित जैनी सो ॥५॥ राग-द्वेपके वशीभूत नहि, दूर मोहसे रहता जो । म्वात्म - ध्यानमें सावधान जो, रोप-रहित नित जैनी सो ॥६॥ सम्यग्दशन- ज्ञान-चरण - मय, शान्ति-विधायि मुमुक्ष जो । मन-वच-काय-प्रवृत्ति एक हो जिमकी निश्चय जैनी सो ॥७॥
आत्म - ज्ञानी सध्यानी जो, सुप्रसन्न गुण - पूजक जो । नहि हठग्राही शुची सदा संक्लेश-रहित-चित जैनी मो ॥८॥ परिपह - उपसर्गोको जीतै, धीर - शिरोमणि बनकर जो । नहीं प्रसादी मत्संकल्पों में महान् दृढ जैनी सो ॥९॥ जो अपने प्रतिकूल दूसरोंके प्रति उसे न करता जो । सर्वलोकका अग्रिम सेवक, प्रिय कहलाता जैनी सो ॥१०॥ पर-उपकृतिमें लीन हुआ भी स्वात्मा नहीं भुलाता जो । युग-धर्मी 'युग-वीर' प्रवर है, मचा धार्मिक जैनी सो ॥१शा वीरसेवामन्दिर ।
जुगलकिशोर मुख्तार सरमावा (सहारनपुर)
विज्ञप्ति-प्रत्येक जैनीको प्रतिदिन इस आदर्शरूप दर्पण में अपना मुम्ब देखना
चाहिए और यह मालूम करना चाहिए कि वह कहाँ तक-कितने अंशोंमें-जैन है । साथ ही, सच्चा तथा पूर्ण जैन बननेके लिये, अपनेमें जैन-गुणोंके विकामका बगबर दृढताके साथ प्रयत्न करना चाहिए । यही इस दर्पण के निर्माणका उद्देश्य है।
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महाककि हरिचन्दका समय
(ले०–६० कैलाशचन्द्रजी जैन, शास्त्री)
महाकवि हरिचन्दके दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं एक “इस कायस्थ-कुल-भूषण, दिगम्बर जैन मताधर्मशर्माभ्युदय और दूसरा जीवन्धरचम्पू । कुछ नुयायी, आद्रदेवकं पुत्र, महाकवि हरिचन्दका समय विद्वानोंका मत है कि जीवन्धरचम्पू किसी अज्ञात- ठीक रीतिसे नहीं ज्ञात होता। हरिचन्द नामके दो नामा विद्वानकी कृति है। श्रीयुत प्रेमीजीने लिखा कवि प्रसिद्ध हैं-एक, जिनका उल्लेख हर्षचरितके है-“यद्यपि' जीवन्धरचम्यूमें धर्मशर्माभ्युदयके प्रारम्भमें महाकवि वाणभट्टने किया है । दूसरे, विश्वभावों और शब्दों तकमें बहुत कुछ समानता है, प्रकाशकोपके रचयिता महेश्वरके पूर्वज, चरकसंहिता इससे दोनोंको एक ही कर्ताकी कृति कहा जा मकता के टीकाकार जो राजा साहसाङ्कके प्रसिद्ध वैद्य थे। है, परन्तु साथ ही यह भी तो कह सकते हैं कि किसी ये हरिचन्द इन दोनोंमेंसे ही कोई एक हैं या तीसरे अन्यने ही धर्मशर्माभ्युदयसे वे भावादि ले लिये हों।" हैं, यह सन्देह है । किन्तु यह भी अपने प्रौढ़ कवित्व
प्रेमीजीकी सम्भावना ठीक है, किन्तु ग्रन्थके के कारण माघ आदि प्राचीन कवियोंकी कक्षामें ही अन्तमें ग्रन्थकारका नाम होते हुए भी और धर्म- बैठते हैं, इसलिये अर्वाचीन तो नहीं हैं। कर्परमञ्जरीशर्माभ्युदयके भावों और शब्दों तकसे समानता में प्रथम यवनिकाके अनन्तर एक जगह विदूपकके हांत हए किस आधारपर जीवन्धरचम्पको धर्मशर्मा द्वारा महाकवि राजशेग्बर भी हरिचन्द कविका भ्युदय के रचयिता महाकवि हरिचन्दजीकी कृति न स्मरण करता है।" मानकर किसी अज्ञातनामा कविकी कृति माना जाता इसके आधारपर प्रेमीजीने लिखा है कि यदि है, यह हम नहीं जान सके। अभी तक तो हमारा ये हरिचन्द धर्मशर्माभ्युदयके ही कर्ता हों तो इन्हें यही मत है कि दोनों महाकवि हरिचन्दकी रचनाएँ राजशेखरसे पहले का (वि सं. ९६से पहलेका) मानना हैं और सम्भवतः दोनोंका रचयिता एक ही है। फिर चाहिये । तथा पाटण (गुजरात) के सजवी पाडाक भी इसमें सन्देह नहीं कि इस विषयमें अधिक पुस्तक भण्डारमें धर्मशर्माभ्युदयकी जो हस्तलिखित विचारकी आवश्यकता है और इलिये एक स्वतत्र प्रति हे वह वि० १२८७की लिखी हुई है और इलिये लेखके द्वारा ही इसपर ऊहापोह करना उचित है। उमस यह निश्चय होजाता है कि महाकवि हरिचन्द यहाँ तो हम धर्मशर्माभ्युदयके रचयिता महाकवि उक्त संवत्से बादके तो किमा तरह हो ही नहीं हरिचन्दक समयके सम्बन्धमें कुछ नई सामग्री सकते, पूर्वक ही हैं। कितन पूर्वक है, यह दूसरे उपस्थित करना चाहते हैं इसी उद्देश्यसे यह लेख प्रमारणों की अपेक्षा रखता है। लिखा जाता है।
मैं यहाँ उन्हीं दृमरं प्रमाणोंको रखता हूँ। ____धर्मशर्माभ्युदयके तीसरे संस्करणमें प्रथम पृष्ठकी
में इधर कुछ समयसे श्रावकाचारोंका तुलनात्मक टिप्पणी में उसके सम्पादक महामहोपाध्याय पण्डित
अध्ययन करने में लगा था। उसीकी खोज-चीन करते दुर्गाप्रसादने संस्कृतमें उसके रचयिताके सम्बन्धमें
मैंन महाकवि वीरनन्दिके चन्द्रप्रभचरित और कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं। उनका भाव यह है:
महाकवि हरिचन्दके धर्मशर्माभ्युदयको भी खाजा ।
चन्द्रप्रभचरितमें १८ सग हैं और धमशर्माभ्युदयमें १ जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४७२ ।
२१ । दोनों ग्रन्थोंक अन्तिम सर्गों के अपने अपने
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किरण १०-११ ]
चरित नायक तीर्थङ्करोंके मुखसे धर्मोपदेश कराया गया है । जब मैं दोनों ग्रन्थोंके अन्तिम सर्गों का मिलान करने बैठा तो मुझे यह देखकर साार्य हर्प हुआ कि दोनों में अत्यधक साम्य है । प्रारम्भ से ही आप मिलान करते चले जाइये दोनोंमें एक ही अविच्छिन्न धारा बहती हुई मिलती है ।
चन्द्रप्रभ में पहला श्लोक (सर्ग १८) इस प्रकार हैसर्वभापास्वभावेन ध्वनिनाऽथ जगद्गुरुः । जगाद गणिनः प्रश्नादिति तत्त्वं जिनेश्वरः ||५||
महाकवि हरिचन्दका समय
अर्थात 'गणधर के प्रश्न करनेपर जगद्गुरु जिनेश्वरने सर्व भाषात्मक ध्वनिके द्वारा इस प्रकार तत्त्वका वर्णन किया ।"
यही बात थोड़े शाब्दिक हेरफेर के साथ धर्मशर्माभ्युदय में भी कही गई है । अन्तर केवल इतना है कि जो बात चन्द्रप्रभ में एक श्लोक के द्वारा कही गई है उसे धर्मशर्माभ्युदय में ७ श्लोकोंके द्वारा कहा है । पहले लोक में गणी भगवानसं प्रश्न करते हैं। शेप ६ लोकों में ध्वनिकी तारीफ़ करते हुए भगवानके उत्तर देनेका कथन है । पहला लोक ही देखियेतत्त्वं जगत्त्रयस्यापि बोधाय त्रिजगद्गुरुम् । तमापृच्छदथातुच्छज्ञानपण्यापरणं गणी ॥१॥
दोनोंकी शैली और शब्दसाम्यको देखिये | आगे तो अक्षरशः साम्य हैं । तुलनाके लिये दोनों के कुछ लोक देते हैं
चन्द्रप्रभचरितजीवाजीवास्रवा बन्धसंवरावथ निर्जरा । मोक्षचेति जिनेन्द्राणां सप्ततत्त्वानि शासने ||२|| बन्ध एवं प्रविष्टत्वादनुक्तिः पुण्यपापयोः । तयोः पृथत्वपक्षे च पदार्था नव कीर्तिताः ||३|| चेतनालक्षणे जीवः कर्ता भोक्ता स्वकर्मणाम् । स्थितः शरीरमानेन स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः ||४|| भव्यभव्यप्रभेदेन द्विप्रकारोऽप्यसौ पुनः । नरकादिगतेर्भेदाच्चतुर्धा भेदमभूते ||५|| सप्तधा पृथिवीभेदान्नारकोऽपि प्रभिद्यते । अधोलोकस्थिताः सप्त पृथिव्याः परिकीर्तिताः ||६||
*
X
३७७
प्रथमायां पृथिव्यां ये नारकास्तेषु कीर्तिताः । उत्सेधः सप्त चापानि त्रयो हस्ताः षडंगुलाः ||९|| द्विगुणो द्विगुणोऽन्यासु पृथिवीषु यथाक्रमम् । द्वितीयादिपु विज्ञेयो यावत्पचधनुः शतीम् ||१०||
*
*
इति नारकभेदेन कृता जीवस्य वर्णना । तिर्यग्गतिकृतो भेद: साम्प्रतं वर्णयिष्यते ||१६|| १ धर्मशर्माभ्युदय
जीवाजीवास्स्रवा बन्धसंवरावपि निर्जरा । मोक्षश्वतीह तत्त्वानि सप्त स्युजिनशासने || बन्धान्तर्भाविनोः पुण्यपापयोः पृथगुक्तितः । पदार्था नव जायन्ते तान्येव भुवनत्रये ॥ ९ ॥ अमूर्तश्चंतनाचिह्नः कर्ता भोक्ता तनुप्रमः । ऊर्ध्वगामी स्मृतो जीवः स्थित्युत्पत्ति व्ययात्मकः || १०|| सिद्धसंसारिभेदेन द्विप्रकारः स कीर्तितः । नरकादिगतेर्भेदात्संसारी स्याच्चतुविधः || ११|| नारक: सप्तधा सप्तपृथिवीभेदेन भिद्यते । अधिकाऽधिकसंक्लेशप्रमाणायुर्विशेषतः ॥१२॥
*
*
*
पडङ्गलायो हस्ताः सप्त चापानि विग्रहे । इयत्येव प्रमा ज्ञेया प्राणिनां प्रथमक्षितौ || १७ जा द्वितीयादिष्वतोऽन्यासु द्विगुणद्विगुणोदयः । उत्सेधः स्याद्धरित्रीपु यावत्पश्वधनुःशतीम् ||१८||
*
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कृता
श्रभ्रगतेर्भेदात्तत्स्वरूपनिरूपणा । व्यावर्ण्यते कियानस्या भेदस्तिर्यग्गतेरपि ||३२|| और आगे देखिये
चन्द्रप्रभ
तिर्यगादिप्रभेदस्य क्रमोऽयं संप्रदर्शितः । कीर्त्यन्ते साम्प्रतं केचिद्भेदा नरगतेरपि ||२७|| भोगकर्मभुवो भेदान्मानुषा द्विविधाः स्मृताः । देवकुर्वादिभेदेन स्युस्त्रिंशद्धोगभूमयः ||२८|| मध्यांत्तमजघन्येन क्रमात्त्रेधा व्यवस्थिताः । पटू सहस्राणि चापानामुत्तमासु नृणां प्रमा ॥||२९|| मध्यमासु च चत्वारि द्वे जघन्यासु कीर्तिते । चीणि पल्योपगान्यायुद्धे चैकं तास्वनुक्रमात् ||३०||
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३७८
अनेकान्त
[ वर्ष ८
आर्य-म्लेच्छप्रभेदेन द्विविधाः कर्मभूमिजाः । वर्णितेति गतिर्नृणां देवानामपि सम्प्रति । भरतादिभिदा पञ्चदश स्युः कर्मभूमयः ||३२|| कियाप म्मरानन्दोजीविनी वर्णयिष्यते ॥५९।। शतानि पञ्च चापानां कर्मभूमिनिवासिनाम् ।
यहाँ हमने बीचमें छोड़ छोड़कर जो श्लोक लिखे पञ्चविंशतियुक्तानि मानमुत्कृष्टवृत्तितः ॥३३।।
हैं सो विस्तार के भयसे दिये हैं, इसका यह मतलब पूर्वकोटिप्रमाणं च तेपामायुः प्रकीर्तितम् ।।
है नहीं है कि इन्हीं श्लोकोंमें साम्य है, अपितु पूरे वृद्धिहासौ विदेहे न भरतैरावतेष्विव ॥३४।।
अध्यायमें ऐसी ही समानता है। उदाहरणके लिये
कुछ श्लोक और देते हैं। सुषमोपपदा प्रोक्ता सुपमा सुषमा ततः ।। दुषमा सुषमाद्यान्या सुषमान्ता च दुःपमा ॥३७॥
चन्द्रप्रभ-सेपश्चमी दुषमा ज्ञेया षष्ठी चात्यन्तदुःपमा ।
इति गत्यादिभेदेन कृता जीवनिरूपणा । प्रत्यकर्माित पडभेदास्तयोरुक्ता द्वयोरपि ॥३८॥
कुर्व सम्प्रत्यजीवस्य किञ्चिद्रपनिरूपणाम ॥६६||
धर्माधर्मावथाकाशं काल: पुद्गल इत्यपि । आर्या पट्कर्मभेदेन पोढा भेदमुपागताः ।
अजीवः पञ्चधा ज्ञेयो जिनागमविशारदैः ॥६७। ते गुणस्थानभेदेन स्युश्चतुर्दशधा पुनः ।।३।।
एतान्येव सजीवानि षट् द्रव्याणि प्रचक्षते ।
कालहीनानि पश्चास्तिकायास्तान्येव कीर्तिताः ॥६८।। इति मानुषभेदेन कृता जीवनिरूपणा । साम्प्रतं देवभेदेन कुर्वे किश्चित्प्रपञ्चनम् ॥४७॥
क्रियां दिनकरादिनामुदयास्तमयादिकाम । धर्मशर्माभ्युदय
प्रविहायापरः कालो नास्तीत्येके प्रचक्षते ।।७।। इति तिर्यग्गते दो यथागममुदीरितः । केवलिश्रुतधर्माणां देवस्य च गणम्य च । मानवानां गतेः कोऽपि प्रकार: कथ्यतेऽधुना ॥४॥ अवर्णवदनं दृष्टिमोहनीयस्य कीर्तितम ॥७॥ द्विप्रकारा नराः भोग-कर्मभूभेदतः स्मृताः । यः कपायोदयात्तीव्रः परिणामः प्रजायते । देवकुर्वादयस्त्रिंशत्प्रसिद्धा भोगभूमयः ||४४|| चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः सोऽनुवर्णितः ।।८।। जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्तास्त्रिविधाः कृमात् ।
* *
* द्विचतुःषड्धनुर्दण्डसहस्रोत्तुङ्गमानवाः ॥४॥ एवमेप चतुर्भेदभिन्नो बन्धो निरूपितः । तास्वेकद्वित्रिपल्यायु विनो भुलते नराः ।। संवरस्याधुना रूपं किश्चिदुद्योतयिष्यते ॥१०॥ दशानां कल्पवृक्षाणां पात्रदानार्जितं फलम ॥४६॥ आम्रवस्य निरोधो यः मंवरः स निगदाते ।
कर्म संवियते येनत्येवं व्युत्पत्तिसंश्रयात ॥१८६।। सुखमासुखमा प्रोक्ता सुखमा च तो बधः ।
इति मंवरतत्त्वस्य रूपं मंक्षिप्य कीर्तितम् । मुखमादुखमान्यापि दुखमासुखमा क्रमात ।।५।। इदानी क्रियते किञ्चिन्निर्जराया निरूपणम् ॥१०८।। पश्चमी दुखमा पष्ठी दुखमादुखमा मता । प्रत्येकमिति भिद्यन्ते ते पोढा कालभेदतः ।।२।।
धर्मशर्माभ्युदयसे
इति व्यावणितो जीवश्चतुर्गत्यादिभेदतः । षोढा षटकर्मभेदेन ते गुणस्थानभेदतः । सम्प्रत्यजीवतत्त्वम्य किश्चिद्रपं निरूप्यते ।।८।। स्युश्चतुर्दशधात्रार्या म्लेच्छाः पश्च प्रकीर्तिताः ॥५६॥ धर्माधर्मों नभः कालः पुद्गलश्चेति पञ्चधा ।।
अजीवः कथ्यते सम्यग्जिनैस्तत्त्वार्थदर्शिभिः ।।८।।
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किरण १०-११ ]
महाकवि हरिचन्दका समय
पद्रव्याणीति वर्ण्यन्ते समं जीवेन तान्यपि । सारांश यह है कि दोनों सोंमें इतना अधिक विना कालेन तान्येव यान्ति पञ्चास्तिकायताम || साम्य है कि बिना एक दूसरेको देखे इतना साम्य
आ नहीं सकता। इस तरह जब मुझे यह लगा कि कालो दिनकरादिनामुदयास्तक्रियात्मकः । दोनों कवियोंमेंसे किसी एकने दूसरेका काव्य देखा है औपचारिक एवासौ मुख्यकालस्य सूचकः ।।८९|| तो फिर मैंने प्रारम्भसे दोनोंको मिलाकर देखा । केवलिश्रतमंघाहद्धर्माणाविवेकतः । उससे भी मुझे कुछ बातोंमें साम्य प्रतीत हुआ। अवर्णवाद एवाद्यो दृष्टिमोहस्य संभवः ।।९८॥ १-दोनोंमें क्रमशः पहले, आठवें, मोलहवें कषायोदयतस्तीत्रपरिणामो मनम्विनाम । और चौबीसवें तीर्थङ्करको प्रारम्भमें नमस्कार किया चारित्रमोहनीयग्य कर्मणः कारणं परम् ॥१९॥ गया है । धर्मशर्माभ्युदयमें बीचमें धर्मनाथको भी
नमस्कार किया है जो ग्रन्थका नायक होनेके कारण इत्येप बन्धतत्त्वस्य चतुर्धा वर्णितः क्रमः । उचित ही है। पदैः संहियते कैश्चित्मवरस्यापि डम्बर: ॥११६|| २-दोनों' ही अपने अपने चरितोंको दुरूह
आस्रवाणामशेषाणां निरोध: मंवरः स्मृतः । बतलाकर अपनी शक्तिसे उसमें प्रवेश करनका उल्लेख कर्म संत्रियते यनेत्यन्वयम्यावलोकनान ॥१७॥ लगभग एक ही रूपमें करते हैं।
३-चन्द्रप्रभके दूसरे सगम राजाके प्रश्नके उत्तरमें मंवरो विवृतः मैष सम्प्रति प्रतिपाद्यते । मुनिके मुखसे चार्वाक आदि दर्शनोंका निरसन जर्जरीकृतकर्मायःपञ्जरा निजरा मया ॥१२शा कराया गया है जो दार्शनिकोंके ही योग्य है। धम
निर्जरा पर्यन्त दोनों काव्योंमें एक धारा प्रवाहित शर्माभ्युदयकं भी चतुर्थ सर्गमें जब राजा दीक्षा लेनके होती है। इसके बाद थोड़ा अन्तर पड़ गया है। लिये तैयार होता है तो सुमन्त्र नामका मन्त्री चार्वाक धर्मशर्माभ्युदयमें गृहस्थके बारह व्रतोंका वणन भी दर्शनका पक्ष लेकर आत्माका श्राभाव बतलाता है किया गया है जो चन्द्रप्रभमें नहीं है। उसके बाद राजा उसका समाधान करता है। १०, १२ श्लोकोंमें फिर दोनों में एक धारा प्रवाहित होने लगी है । दोनों ही यह चर्चा यहाँ समाप्त होजाती है। में एक ही रूपमें भगवानके उपदेशकी समापिकं बाद पूरा मिलान करनेपर और भी साम्य मिल विहारका वर्णन है । यथा
सकता है। परन्तु कवित्वकी दृष्टिसे एकका दूसरेपर इति तत्त्वोपदेशेन प्रह्लाद्य सकलां सभाम ।
कोई ऋण प्रतीत नहीं होता। दोनों ही अपने अपने भव्यपुण्यसमाकृष्णा व्यहरद्भगवान्भुवि ॥१३२।।चन्द्र० रूपमें स्वतन्त्र प्रतीत होते हैं।
अब प्रश्न यह है कि किसने किसको देखा है ? इति तत्त्वप्रकाशेन निःशेषामपि तां सभाम । __ अब तकके अवगाहनसे तो मैं इसी निर्णयपर प्रभुः प्रह्लादयामास विवास्वनिव पद्मिनीम् ॥१६६।। पहुँचा हूँ कि धर्मशाभ्युदयकारने चन्द्रप्रभकाव्य अथ पुण्यैः समाकृष्टोमव्यानां निम्पृहः प्रभुः । अवश्य देखा है। और उसमें निम्न उपपत्तियाँ हैंदेशे देशे तमश्छेनु व्यचरद्भानुमानिव ।।१६७॥ धर्म १ जैन साहित्यके ज्ञाताओंसे यह बात छिपी नहीं
विहारके वर्णन के बाद दोनोंमें एक ही से शब्दोंमें है कि चन्द्रप्रभकाव्यकं र यताका नाम वीरनन्दि है। अपने अपने तीर्थडगेंके गणधर वगैरहकी संख्या इन्होंन इस काव्यकी प्रशस्तिमें लिखा है कि मेरे गमबतलाई है। दोनोंमें अन्तर केवल संख्याका है। का नाम अभयनन्दि था, जो देशीयगगाके श्राचार्य उसके बाद दोनों में सम्मेदाचलपर पधारनेका और १ देग्यो, चन्द्रप्रभ० श्लो० ६, १० और धर्मशा० श्लो. वहाँसे मुक्तिलाभ करनेका वर्णन है।
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३८०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
थे। सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रने लिखा है भयभीत थे। इसी लिये उन्होंने उक्त विषयमें चन्द्रकि जिनके चरणोंके प्रसादसे वीरनन्दि और प्रभका अनुसरण करना उचित समझा। इन्द्रनन्दि शिष्य संसार समुद्रसे पार होगये उन २ श्रीवादिराज सूरिन अपना पार्श्वनाथचरित अभयनन्दि गुरुको मैं नमस्कार करता हूँ।
श० सं० ९४७ (वि० सं० १०८२) में समाप्त किया श्रीयुत प्रेमीजी ने इन अभयनन्दिके शिष्य था। उन्होंने उसके प्रारम्भमें अपनेसे पूर्वके कवियों वीरनन्दिको ही चन्द्रप्रभकाव्यका कर्ता सिद्ध किया का स्मरण करते हुए वीरनन्दिक चन्द्रप्रभकाव्यका है। तथा इन वीरनन्दिको नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती- भी स्मरण किया है। इससे स्पष्ट है कि वि० सं० ने गारूपसे भी स्मरण किया है। इससे सिद्ध है कि १०८२ तक वीरनन्दिक उक्त काव्यकी ख्याति होचकी चन्द्रप्रभके रचयिता वीरनन्दि जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ
थी। तथा इससे इस बातकी भी पुष्टि होती है कि विद्वान थे। अतः वे अपने काव्यमें जैन सिद्धान्तका नामचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीक द्वारा स्मृत अभयनन्दिवर्णन करनेके लिये किसी दूसरे काव्यके वर्णनको
के शिष्य वीरनन्दि ही चन्द्रप्रभकाव्यके रचयिता हैं देखें, इस बातकी स्वप्नमें भी आशा नहीं की क्योंकि चामुण्डरायने, जिसके लिये आचार्य नेमिचन्द्रजा सकती ।
ने गोम्मटसारकी रचना की थी, वि० सं० १०३५में दूसरी ओर धर्मशर्माभ्यदयके रचयिता महाकवि अपना चामुण्डरायपुराण ममाप्त किया था। अतः
वीरनन्दिने विक्रमकी ११वीं शताब्दीक पूर्वाधमें या हरिचन्द्र ग्रन्थकी प्रशास्तम अपनेको कायस्थ बतलाते हैं और लिखते हैं कि हरिचन्द्र अपने भाई लक्ष्मण
दसवीं शताब्दीके अन्तमें अपने काव्यकी रचना की की भक्ति और शक्तिसे वैसे ही शास्त्र-समुद्रके पार
होगी। इस तरह चन्द्रप्रभकाव्यका समय सुनिश्चित होगये जैसे राम लक्ष्मणके द्वारा सेत पार होगये थे। हाजाता है। किन्तु धमशर्माभ्युदयका रचनाकाल अतः यह बहुत सम्भव है कि कायस्थ कुलजन्मा
अभी तक भी सुनिश्चित नहीं होमका है। और अर्हन्त भगवानके चरण कमलोंके भ्रमर पं० अशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतकी महाकवि हरिचन्दने इस भयसे कि जैन सिद्धान्तका टीकामें अनेक ग्रन्थकारों और ग्रन्थोंका उल्लेख किया वर्णन करनेमें कुछ त्रुटि न होजाये, अपने पूर्ववर्ती है तथा बहुतसे ग्रन्थोंसे उद्धरण दिये हैं। उनमें जैन महाकवि और सिद्धान्तशास्त्रके पारगामी वीरनन्दिके और जैनेतर अनेक कवियोंके काव्योंसे भी उद्धरण चन्द्रप्रभकाव्यका अनुसरण जैनधर्मके सिद्धान्तोंके लिये गये है। चन्द्रप्रभकाव्यसे (अ० श्लो० ) भी एक वर्णनमें किया है।
उद्धरण लिया है। किन्तु धर्मशर्माभ्युदयका एक भी यह हम पहले ही लिख आये हैं कि काव्यकी उद्धरण खोजनेपर भी हमें नहीं मिल सका। इससे दृष्टिसे हमें चन्द्रप्रभका धर्मशर्माभ्युदयपर कोई ऋण ह
" हमें लगता है कि धर्मशर्माभ्युदयको पं० आशाधरजीप्रतीत नहीं होता, क्योंकि महाकवि हरिचन्द माघ न
ने नहीं देखा, अन्यथा उससे भी वे एक दो उद्धरण आदिकी टक्करके कवि हैं। किन्तु एक तो उनका अवश्य देते । और इमपरसे यह निष्कप निकाला जा कायस्थकुलमें जन्म लेना और दसरे अपनेको सकता है कि धर्मशाभ्युदय चन्द्रप्रभके बाद की 'अहत्पदाम्भोरुहचञ्चरीक' बतलाना यह सूचित
रचना है। करता है कि वे जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ नहीं थे-ज्ञाता
३ चन्द्रप्रभकाव्यके अन्तिम सर्गके साथ अवश्य होंगे, किन्तु श्रद्धावश आगमकी विराधनासे धर्मशमाभ्युदयके अन्तिम सर्गका मिलान करते हए
हम लिख आये हैं कि 'निर्जरा' पर्यन्त दोनों काव्योंमें १ कर्मकाण्ड गा० ४३६ ।
एक धारा प्रवाहित होती है । इसके बाद थोड़ा २ देखो, जैनसा० और इतिहास पृ० २६८ ।
अन्तर पड़ गया है । धर्मशर्माभ्युदयमें गृहस्थके बारह
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किरण १०-११ ]
महाकवि हरिचन्दका समय
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व्रतोंका वर्णन भी किया गया है। उस वर्णनमें निम्न पुस्तकभण्डारमें धर्मशर्माभ्युदयकी जो हस्तलिखित श्लोक भी हैं
प्रति है वह वि० १२८७ की लिखी हुई है। और मुहूर्तद्वितयादृर्ध्व भूयस्तोयमगालितम् । इलिये उससे यह निश्चय हो जाता है कि महाकवि शीलयेनवनीतं च न देशविरतिः कचित् ।।१३।। हरिचन्द उक्त मंवतसे बादके तो किसी भी तरह दिनद्वयोपितं तवं दधि वा पुष्पितौदनम । हो नहीं सकते।
आमगोरसमंपृक्तं द्विदलं चाद्यान्न शुद्धधीः ॥१६६।। पं० आशाधरने अपने सागारधर्मामृतकी टीका विद्धं विलितम्वादं धान्यमद्विमढकम । वि० सं० १२९६ में बनाकर सम्पूर्ण की है। और नेलम्भोऽथवाज्यं वा चापात्रापवित्रतम ।।१३७।। जिनयज्ञकल्प वि० सं० १२८५ में । उसकी प्रशस्तिमें आद्रकन्दं कलिङ्गं वा मृलक कुसमानि च । जिन दस ग्रन्थोंक नाम दिये हैं, उनमें धर्मामृत भी अनन्तकायमज्ञातफलं मंधानकान्यपि ॥१३८॥ है, जिसका ही एक भाग सार
अतः य श्शाक देखते ही हम पं. आशाधरके निम्न यह तो सुनिश्चित है कि सागारधमामृतकी रचना श्लोकोंका ध्यान हो आया
वि. मं०१२८५ से पहले हो चुकी थी। किन्तु कितने मधुवन्नवनीतं च मुञ्चेनत्रापि भूरिशः । पहले हो चुकी थी, यह निश्चित नहीं है। द्विगुहात्पर शश्वत्ममजन्त्यंगिराशयः ॥१२ अ.
पं० आशाधरकी प्रशस्तिके आधारपर श्रीयुत
प्रेमीजीने लिखा हैगत्रिभक्तं तथा युयान्न पानीयमगालितम ।।
___वि० सं० १२९४ में लगभग जब शहाबुद्दीन
गौरीनं पृथ्वीराजको कैद करके दिल्लीको अपनी मन्धानकं त्यजेत्सर्व दधि तक्रं द्वयहोपिनम। राजधानी बनाया था और अजमेरपर भी अधिकार काञ्जिकं पुप्पिनर्माप मद्यव्रतमलोऽन्यथा ।।११ अ.३ कर लिया था, तभी पं० आशाधर माडलगढ चमम्थमम्भ: म्हश्च हिग्वमंहतचर्म च । छोड़कर धारामें आये होंगे। उस समय वे किशोर मर्व च भोज्यं व्यापन्नं दोपः स्यादामिपत्रत ॥१२॥ हांगे, क्योंकि उन्होंने व्याकरण और यायशास्त्र सर्व फलमविज्ञातं .
वहीं आकर पढ़ा था, यदि उस समय उनकी उम्र
५५-५६ वर्षकी रही हो तो उनका जन्म वि० संवत् अनन्तकायाः सर्वेऽपि सदा या
५२३५ के आम पाम हुआ होगा।' श्रामगारमसम्पृक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवम ॥ अ. ५। इस हिसाबसे वि० म० १२८५ में पं० श्राशाधर
प० अाशाधरजीके ग्रन्थों धर्मशाभ्युदयका की उम्र ५. वपकी ठहरती है, उस समय तक वे एक भी उद्धरण न होने और
१. ग्रन्थ निर्माण कर चुके थे, जिनमें भरतेश्वरा
दय और मागारधर्मामृतक उक्त पद्योंके मिलानसं हमें यह भ्युदयकाव्य, प्रमयरत्नाकार और धर्मामृत जैसे विश्वास हो चला कि धर्मशर्माभ्यदय अवश्य ही उच्चकोटिक ग्रन्थ थे। यदि इन ग्रन्थोंक निर्माणके मागारधर्मामृत के बाद की रचना है और धर्मशर्मा- लिय बीस वर्षका ममय रख लिया जाय तो कहना यदयकं कर्ता कवि हरिचन्दन जो वान चन्द्रप्रभ होगा कि पं० श्राशाधरने वि. मवन १२६५ से अन्तिम सग नहीं पाया उस सागारधर्मामतसं लिया यानी ३० वपकी उम्रम ग्रन्थरचना करना प्रारम्भ है। किन्तु इसमें एक बाधा आती थी।
किया । अब यदि उन्होंने १२६७ में भी मागारप्रमीजीने पनी जैन साहित्य और इतिहास, धर्मामृन रचा हो तो धर्मशमाभ्युदयकी उक्त प्रति उससे नामक पुस्तक 'महाकवि हरिचन्द्र' नामक निबन्ध- २० वर्ष बादकी ठटरती है। वीम वपमें कोई नया में लिखा है कि पाटण (गुजरात) के संघवी पाड़ाके १ जैन माहित्य और इतिहास पृष्ठ १३३ ।
धमशम
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
प्रन्थ प्रसिद्ध हो जाये और उसे देखकर कोई 'दन्तकेशनखास्थित्वग्रोम्णां निन्धरसस्य च । धर्म. ग्रन्थकार अपने ग्रन्थमें उसके उद्धरण भी ले ले 'दन्तकेशनखास्थित्वग्रोम्णो ग्रहणमाकरे ।' यो. शा. और उसके उस ग्रन्थकी प्रतियाँ भी हो जायें, ये सब *
*
* उस समयकी कठिनाइयोंको देखते हुए सम्मव 'अङ्गारशकटारामभाटकस्फोटजीवनम्' । धर्म, प्रतीत नहीं होता। अतः हमें अपने इस विचारमें- 'अङ्गारवनशकटभाटकस्फोटजीविकाः ।' यो. शा. कि धर्मशर्माभ्युदयके रचयिताने सागारधर्मामृतसे उक्त बातें ली है, ब्रेक लगाना पड़ा, और तब हमने 'तिलतोयेचुयंत्राणां रोपण दवदीपनम् ।' धर्म. उन ग्रन्थोंकी ओर दृष्टि डाली जिनके आधारपर 'तिलेक्षुसर्षपैरण्डजलयन्त्रादिपीडनम् ।' यो. शा. सागारधर्मामृतकी रचना हुई है। खोजते खोजते * * हमें श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्रमें उक्त बातें 'ताम्रचूडश्वमार्जारशारिकाशुकपोषणम् ।' धर्म. मिलीं। नीचे हम योगशास्त्र के उन पद्योंको उद्धृत 'सारिकाशुकमार्जारश्वकुर्कुटकलापिनाम् ।' यो. शा. करते हैं
___ इन चीजोंको अनर्थदण्डरूपसे किसी भी अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम ॥६॥
दिगम्बर श्रावकाचारमें नहीं गिनाया गया है । अत: श्रामगोरसमंपृक्तं द्विदलं पुष्पितौदनम् ।।
यह स्पष्ट है कि धर्मशर्माभ्युदयके रचयिताके सामने दध्यहतियानीत कुथितान्न च वर्जयेत् ॥७॥
चन्द्रप्रभकी तरह योगशास्त्र भी अवश्य मौजूद था। इसके साथमें जरा धर्मशर्माभ्युदयके निम्न ।
किन्तु उसका उपयोग उन्होंने अपने ढंगसे किया श्लोकोंकी तुलना कीजिये
अर्थात् योगशास्त्रमें जिन वस्तुओंका त्याग भोगोपदिनद्वयोषितं तक दधि वा पुप्पितौदनम् । भोगपरिमाणव्रतमें क्रूरकर्मके मलरूपसे कराया गया श्रामगोरस सम्पृक्तं द्विदलं चाद्यान्न शुद्धधीः ॥१३६।। था उन चीजोंको धर्मशर्माभ्युदयके रचयिताने अनन्तकायमज्ञातफलं मंधानकायपि ।
अनर्थदण्डरूपसे वजनीय बतलायाः क्योंकि __ योगशास्त्रका श्लोक न० ७ घरणोंके हेरफेरसे दिगम्बर शास्त्रोंमें वैसा विधान नहीं है। इसी तरह ज्योंका त्यों धर्मशर्माभ्युदयमें वतमान है। नीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतके भेद भी योग
इसके सिवा कुछ अन्य भी मादृश्य है । मागार- शास्त्र के अनुसार न गिनाकर तत्त्वार्थसूत्रके अनुमार धर्मामृत अ० ५ में भोगोपभोगपरिमाण व्रतका ही बताये हैं। वर्णन करते हुए पं. आशाधरने लिखा है कि इस विस्तृत विवेचनसे हम इस निष्कपपर भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें खरकमका भी व्रत लेना पहुँचते हैं कि धर्मशर्माभ्युदय न केवल चन्द्रप्रभचाहिये और उसके ५५ अतिचार छोड़ने चाहिये काव्यके बादकी, अपितु योगशास्त्रके भी बादकी ऐसा कोई कहते हैं, सो ठीक नहीं है। टीकामें यह कृति है। मत उन्होंने श्वेताम्बराचार्यका बतलाया है । वे योगशास्त्रके रचियता आचार्य हेमचन्द्रका श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ही हैं। उन्होंने योगशास्त्रमें
स्वर्गवास वि० सं० १२२९ में हुआ था। प्रेमीजीने भोगोपभोगपरिमाणवतके कथनमें भी खरकर्मकं
लिखा है कि योगशास्त्र महाराजा कुमारपालके १५ अतिचार बतलाये हैं।
कहनेमे रचा गया था । और हेमचन्द्राचार्यका ____धर्मशर्माभ्युदयमें भी अनर्थदण्डव्रतका वर्णन
कुमारपालसे अधिक निकटका परिचय वि०स० १२८७ करते हुए उन मलोंको अनर्थदण्ड बतलाकर उसके कुमार छोड़नेका विधान किया है। उसके भी कुछ पद्यांश १ जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ४४८ । योगशास्त्रसे बिल्कुल मिलते हैं । यथा
(शेषांष पृष्ठ ३८८ पर)
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सम्पादकीय वक्तव्य
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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झण्डा और कर्तव्य
को
ई एक हजार वर्षकी गुलामी के बाद भारत १५ अगस्त सन् १९४७ को स्वतन्त्र हुआ— उसकी गर्दनपर से अवांछनीय विदेशी शासनका जूश्र उतरा, उसके पैरोंकी बेडियाँ- हाथोंकी हथकडियाँ कटीं और शरीर तथा मनपरके दूसरे बन्धन भी टूटे, जिन सबके कारण वह पराधीन था, स्वेच्छा से कहीं जा श्री नहीं सकता था, बोल नहीं सकता था, यथेष्टरूपमें कुछ कर नहीं सकता था और न उसे कहीं सम्मान ही प्राप्त था । उसमें अनेक उपायोंसे फूटके बीज बोए जाते थे और उनके द्वारा अपना उल्लू सीधा किया जाता था। साथ ही उसपर करों श्रादिका मनमाना बोझा लादा जाता था, तरह तरह के अन्याय-अत्याचार किये जाते थे, अप मानों - तिरस्कारों की बौछारें पड़ती थीं और उन सबके विरोधमें जुबान खोलने तकका उसे कोई अधिकार नहीं था। उसके लिये सत्य बोलना ही अपराध था । और इसलिये वह मजबूर था झूठ, चोरी, बेईमानी, घूसखोरी और ब्लेकमार्केट जैसे कुकर्मोंक लिये । इसीसे उसका नैतिक और धार्मिक पतन बड़ी तेजीके साथ होरहा था, सारा वातावरण गंदा एवं दूषित होगया था और कहीं भी सुखपूर्वक मांस लेनेके लिये स्थान नहीं था ।
धन्य है भारत की उन विभूतियों को जिन्होंने परतन्त्रताके इस दोषको समझा, स्वतन्त्रताका मूल्य
का और उस मूल्यको चुकानेके लिये अहिंसा के साथ तप, त्याग तथा बलिदानका मार्ग अपनाया । परिणामस्वरूप जिन्हें घोर यातनाएँ सहनी पड़ीं, महीनों वर्षो जेलोंकी कालकोठरियों में सड़ना पड़ा
सारे सुख-चैन और आरामको तिलाञ्जलि देनी पड़ी, सम्पत्तिका अपहरण देखना पड़ा और हृदयको व्यथित करने वाली देशीय तथा आत्मीय जनोंकी करुण पुकारों एवं कष्ट- कहानियोंको सुनना पड़ा । साथ ही, देशसे निर्वासित होना पड़ा, गोलियाँ खानी पड़ीं और फाँसी के तख्तोंपर भी लटकना पड़ा । परन्तु इन सब अवस्थाओं से गुज़रते हुए जो कभी अपने लक्ष्यसे विचलित नहीं हुए, वेदनाओं तथा प्रलोभनोंके सामने जिन्होंने कभी सिर नहीं झुकाया, हिंसाकी नीतिको नहीं छोड़ा, सतानेवालोंके प्रति भी उनके हृदय परिवर्तन तथा उनमें मानवताके सवार के लिये सदा शुभ कामनाएँ ही कीं, और जो अपने प्ररणके पक्के, वचनके सच्चे तथा संकल्प में अडोल रहे और जिन्होंने सब कुछ गंवाकर भी अपनी तथा देशकी प्रतिष्ठाको कायम रक्खा । यहाँ उन विभूतियों के नामोंको गिनानकी जरूरत नहीं और न उन्हें गिनाया ही जा सकता है; क्योंकि जो सुप्रसिद्ध विभूतियाँ हैं उनके नामोंसे तो सभी परिचित हैं, दूसरी विभूतियोंमें कितनी ही ऐसी विभूतियाँ भी हैं जो गुप्तरूपसे काम करती रही हैं और जिनका तपत्याग एवं बलिदान किसी भी प्रसिद्ध बड़ी विभूतिसं कम नहीं है । अकसर बड़ी विभूतियों को तो जेल में बन्द रहते हुए भी उतने कष्ट सहन नहीं करने पड़े हैं जितने कि किसी-किसी छोटी विभूतिको सहन करने पड़े हैं । अतः यहाँपर किसीका भो नाम न देकर उन सभी छोटी-बड़ी, प्रसिद्ध - श्रप्रसिद्ध विभूतियोंको सादर प्रणामाञ्जलि समर्पित है जो भारतकी मुक्तिकं लिये बराबर प्रयत्न करती रही हैं और जिनके सत्प्रयत्नोंके फलस्वरूप ही देशको आज वह स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है जिसके कारण भारतवासी अब आजादी के साथ
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खुले वातावरणमें सांस ले सकेंगे, यथेच्छ रूपमें चल- हुए नज़र आते थे और उनकी सारे देशमें एक बाढ़ फिर सकेंगे, खुली आवाजसे बोल सकेंगे, बिना सी आगई थी। जहाँ कहीं भी किसी खास स्थानपर संकोचके लिख-पढ़ सकेंगे, बिना किसी रोक-टोकके समूहके मध्यमें झण्डेको लहरानेकी रस्म अदा की गई अपनी उन्नति एवं प्रगतिक साधनोंको जुटा सकेंगे वहाँ हिन्दू , गुमलमान, मिख, जैन, पारमी और ईसाई
और दूसरोंके सामने ऊँचा मुख करके खड़े हो यादि सभीन मिलकर बिना किसी भेद-भावक सकेंगे। ऐसी स्वतन्त्रता किसे प्यारी नहीं होगी? कौन भण्डेका गुणगान किया, उसे सिर झुकाकर उसका अभिनन्दन नहीं करेगा ? कौन उसे पाकर प्रणाम किया और सलामी दी। उस वक्तका यह प्रसन्न नहीं होगा ? और कौन उसके लिये आनन्दो- सार्वजनिक और सार्वभौमिक मूर्तिपूजाका दृश्य बड़ा त्सव नहीं मनाएगा?
ही सुन्दर जान पड़ता था । और हृदयमें रह-रहकर यही वजह है कि उस दिन १५ अगस्तको स्व- ये विचार तरङ्गित होरहे थे कि जो लोग मूर्तिपूजाके तन्त्रता-दिवस मनानेके लिये जगह-जगह-नगर- सर्वथा विरोधी हैं-उसमें कृत्रिमता और जड़ता जैसे नगर और ग्रामग्राममें-जन-समृह उत्सवकं लिय उमड़ दोष देकर उसका निपंध किया करते हैं वे समयपड़ा था, जनतामें एक अभूतपूर्व उत्माह दिखाई पर इस बातको भूल जाते हैं कि 'हम भी किमी न पड़ता था, लम्बे-लम्बे जलूस निकाले गये थे, तरह- किसी रूपमें मूर्तिपूजक हैं'; क्योंकि राष्ट्रका झण्डा भी, तरहक बाजे बज रहे थे, नेताओं और शहीदोंकी जिसकी वे उपामना करते हैं, एक प्रकारकी जड़मूर्ति जयघोषके नारे लग रहे थे, बालकों को मिठाइयाँ है और राष्ट्रकं प्रतिनिधि नेताओं-द्वारा निर्मित होनस बंट रही थीं, कहीं कहीं दीन-दुःखित जनोंको अन्न- कृत्रिम भी है। परन्तु देवमूर्ति जिस प्रकार कुछ वस्त्र भी बाँट जारहे थे, घर-द्वार सरकारी इमारतें भावांकी प्रतीक होती है, जिनकी उसमें प्रतिष्टा की
और मन्दिर बाजारादिक मब मजाय गये थे, उनपर जाती है, उसी प्रकार यह राष्ट्रपताका भी उन राष्ट्रीय रोशनी की गई थी–दीपावलि मनाई गई थी और भावनाांकी प्रतीक है जिनकी कुछ रङ्गों तथा चिह्नों हजारो कैदी जलांस मुक्त होकर इन उत्सवाम भाग श्रादिक द्वारा इसम प्रतिष्ठा की गई है, और इसीसे ले रहे थे और अपने ननाओंकी इस भारी मफलनापर देवमृतिक अपमानकी तरह इस प्रतिष्ठित राष्ट्रमूर्तिके गर्व कर रहे थे और उन्हें हृदयमं धन्यवाद दे रहे थे। अपमानको भी इसका कोई उपासक सहन नहीं कर
इन उत्सवांकी सबसे बड़ी विशेषता भारतके सकता । इसी बातको लेकर 'झण्डेको सदा ऊंचा उस तिरङ्गे झण्डेकी थी, जिसका अशोकचक्र माथ रखने और प्राण देकर भी उसकी प्रतिष्ठाको बराबर नव-निर्माण हुआ है । घरघर, गलीगली और दुकान- कायम रखनेकी' सामूहिक तथा व्यक्तिगत प्रतिज्ञाएँ दुकानपर उसे फहराया गया था। कोई भी सरकारी कराई गई थीं। अतः झण्डेकी पूजा-वन्दना करने इमारत, सार्वजनिक संस्था और मन्दिर-मस्जिदकी वालोंको भूलकर भी मूर्तिपूजाका सर्वथा विरोध नहीं बिल्डिङ्ग ऐसी दिखाई नहीं पड़ती थी, जो इस करना चाहिये-वैसा करके वे अपना विरोध आप राष्ट्रीय पताकाको अपने सिरपर अथवा अपनी गाद- घटित करेंगे । उन्हें दूमरोंकी भावनाओंको भी में धारण किये हुए न हो । जलूसोंमें बहुत लोग समझना चाहिये और अनुचित आक्षेपादिकं द्वारा अपने-अपने हाथोंमें इस झण्डेको थामे हुए थे, जिन्हें किसी भी मर्मको नहीं दुखाना चाहिये; बल्कि ; हाथोंमें लेनके लिये झण्डे नहीं मिल सके व इस राष्ट्रीय झण्डेकी इस सामूहिक वन्दनासे पदार्थ-पाठ झण्डकी मूर्तियों अथवा चित्रांको अपनी-अपनी लेकर सबके साथ प्रेमका व्यवहार करना चाहिये टोपियों अथवा छातियोंपर धारण किये हुए थे । और कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिये जिससे जिधर देखो उधर ये राष्ट्रीय झण्डे ही भण्डे फहराते राष्ट्रकी एकता भङ्ग हो अथवा उसके हितको बाधा
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पहुँचे। साथ ही. यह भी समझ लेना चाहिये कि भारतफी प्राचीन संस्कृतिका द्योतक है और उसकी संसारमें ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो किसी न विजयका चिह्न है । इसीसे विजयके अवसरपर उसे किसी रूप में मूर्तिकी पूजा-उपासना न करता हो- राष्ट्रीय पताकामें धारण किया गया है। वह जहाँ बिना मृति-पूजाके अथवा आदरके साथ मूर्तिको धार्मिक चक्रवर्तियोंकी धर्म-विजयका और लौकिक अपनाये बिना किसीका भी काम नहीं चलता । शब्द चक्रवतियोंकी लोक-विजयका चिह्न रहा है वहाँ और अक्षर भी एक प्रकारकी मृतियाँ -पोद्गलिक वर्तमान मशीन-युगके भी वह अनुरूप ही है और आकृतियाँ-हैं, जिनमे हमारे धर्मग्रन्थ निर्मित हैं और उसका प्रधान अङ्ग है। नई पुरानी अधिकांश मशीनें जिनके आगे हम मदा ही सिर झुकाया करते हैं। चक्रोंसे ही चलती है-चक्रके बिना उनकी गति नहीं। यह सिर झुकाना, वन्दना करना और आदर-सत्कार- यदि चक्रका उपयोग बिल्कुल बन्द कर दिया जाय रूप प्रवृत्त होना ही 'पूजा' है; पूजाके और कोई तो प्रायः सारा यातायात और उत्पादन एकदम रुक मींग नहीं होते।
जाय । क्योंकि रथ, गाड़ी, ताङ्गा, मोटर, साईकिल, झण्डेम जिस अशोकचक्रकी स्थापना की गई है रेल, ऐंजिन, जहाज, हवाई जहाज, रहट, चाक, उसका रहस्य अभी बहुत कुछ गुप्त है। भारतके चखो, चीं, को और कल-मिल आदि सभी प्रधान मन्त्री माननीय पं. जवाहरलालजी नेहमने उस साधनाम प्रायः चक्रका उपयोग होता है. और इस दिन वर्तमान राष्ट्रीय झण्डेका रूप उपस्थित करते लिये चक्रको श्रमजीवन तथा श्रमोन्नतिका प्रधान
और उसे पास कराते हुए जो कुछ कहा है वह बहत प्रतीक भी समझना चाहिये, जिसके बिना साग कुछ सामान्य, मंक्षिप्त तथा रहस्यके गाम्मीर्यकी संसार बेकार है । अतः जबतक अशोकचक्रका, सूचना-मात्र है-उससे अशोकचक्रको अपनानका जिसमें थाड़ासा परिवर्तन भी किया जान पड़ता है, पूरा रहस्य खुलता नहीं है। सम्भव है सरकारकी प्रतिष्ठित करने वाले अधिकारियों द्वारा इमके रहस्य
ओरमे किसी ममय उसपर विशेष प्रकाश डाला का उद्घाटन नहीं किया जाता तबतक सवसाधारण जाय । जैनकुलोत्पन्न सम्राट अशोक किन मंस्कारों में जन इस चक्रमें सूर्यकी, सुदर्शनचक्रकी, जैन तथा पले थे, कौनसी परिस्थियाँ उनके सामने थीं, उन्होंने बौद्धोंके धर्मचक्रोंमेंसे किसीकी, वर्ततान युग मशीनी किन-किन भावोंको लेकर इस चक्रकी रचना की थी, चक्रकी अथवा सभीके समावेशकी कल्पना कर सकते हैं चक्रका कौन कौन अङ्ग किस-किस भावका प्रति- और तदनुकूल उसका दर्शन भी कर सकते हैं। निधित्व करता है-खासकर उसके आगेकी २४ परन्तु मुझे तो अशोककी दृष्टिसे इस चक्रका मध्यवृत्त संख्या किस भावका द्योतन करती है, जैन तीर्थङ्करोंके (बीचका गोला) समता (शान्ति) और ज्योति (ज्ञान) 'धर्मचक्र' और बुद्ध भगवानके धर्मचक्रके साथ इसका का प्रतीक जान पड़ता है, बाह्यवृत्त संसारकी-मध्यक्या तथा कितना सम्बन्ध है और भारतकं भरतादि लोककी अथवा जम्बूद्वीपकी परिधिके रूपमें प्रतीत चक्रवतियों तथा कृष्णादि नारायणोंके 'सुदर्शन चक्र' होता है, संसारमें समता और ज्योतिका प्रसार जिन के साथ इस चक्रका कहाँ तक सादृश्य है अथवा २४ किरणां-द्वारा हुआ तथा होरहा है वे मुख्यत: उसके किस किस रूपको किस दृष्टिसे इसमें ऋषभादि महावीर पर्यन्त २४ जैन तीर्थङ्कर मालूम अपनाया गया है, ये सब बातें प्रकट होनेके योग्य होते है- दूसरों द्वारा बादको माने गये २४ अवतारों हैं। कितनी ही बातें इनमें ऐसी भी हो सकती हैं का भी उनमें समावेश है-और परिधिकं पास तथा जो अभी इतिहासके गर्भमें हैं और जिन्हें आगे चल- किरणोंके मध्यमें जो छोटे छोटे स्तूपाकार उभार हैं कर किसी समय इतिहास प्रकट करेगा। परन्तु इसमें वे इस लोककी आबादी (नगरादि) के प्रतीक जान सन्देह नहीं कि यह चक्र बड़ा ही महत्वपूर्ण है, पड़ते हैं और उनके शिरोभाग जो मध्यवृत्तकी कुछ
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गुलाईको लिये हुए हैं वे इस बातको सूचित करते हैं जिस दिनसे यह स्वतन्त्रता मिली है उस कि उनपर मध्यवृत्तका असर पड़ा है और वे उसकी दिनसे भीतरी शत्रओंने और भी जोरके साथ समता तथा ज्योतिक प्रभावसे प्रभावित हैं। साथ सिर उठाया है-जिधर देखो उधर मार-काट, ही, विजय-चिह्नके रूपमें सुदर्शनचक्रका भी उसमें लूट-खसोट, मन्दिर-मूर्तियोंकी तोड़-फोड़ और समावेश हो सकता है और प्रकारान्तरसे सूर्यका भी, आग लगानकी घटनाएं हो रही हैं । इन जो सबपर समामरूपसे अपना प्रकाश डालता है, घटनाओंकी पहल पाकिस्तानने की, पाकिस्तान गैरस्फूर्ति-उत्साह-प्रदायक है और सबकी उन्नति-प्रगतिम मुसलिमोंकी संपत्तिको छीनकर अथवा उसे नष्ट-भ्रष्ट सहायक है।
करके ही सन्तुष्ट रहना नहीं चाहता बल्कि उनकी ___ झण्डेके तीन रङ्गोंमें एक सफेद रङ्ग भी है जो युवास्त्रियों तथा लड़कियोंसे बलात्कार करने और शुद्धिका प्रतीक है। वह यदि आत्मशुद्धिका प्रतीक उन्हें घरमें डालने तकमें प्रवृत्त होरहा है, शेष सबको होता तो उसे सर्वोपरि स्थान दिया जाता, मध्यमें बच्चों समेत कतल कर देने अथवा जबरन उनका धर्मस्थान दिया जानेसे वह हृदय-शुद्धिका द्योतक जान परिवर्तन करने के लिये उतारू है। और इस तरह गैर पड़ता है-हृदयका स्थान भी शरीरके मध्यमें है। मुसलमानोंकी अथवा अपनी बोलीमें काफिरोंकी इस मफेद रङ्गके मध्यमें ही अशोकचक्र अथवा संख्याको एक दम कम कर देना चाहता है ! चुनाँचे विजयचक्रकी स्थापना की गई है, जिसका स्पष्ट अगर कोई किमी तरह भाग-बचकर किसीकी शरण आशय यह जान पड़ता है कि विजय अथवा अशोक में अथवा शरणार्थी शिविरमें पहुँच जाता है तो वहाँ का सम्बन्ध चिनशुद्धिसे है-चित्तशुद्धिके विना न तक उसका पीछा किया जाता है और हिन्दुस्तानमें तो स्थायी विजय मिलती है और न अशोक-दशाकी आने वाले शरणार्थियोंकी ट्रेनों, बसों तथा हवाई ही प्राप्ति होती है । अस्तु ।
जहजों तक पर हमला किया जाता है और कितने ही ___ अब मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि एसे मुसीबतज़दा बेघरबार एवं निरपराधी भारत को यह जो कुछ स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है वह शरणाथियोंको भी मौतके घाट उतार दिया जाता है !! अभी तक बाह्य शत्रुओंसे ही प्राप्त हुई है--अन्तरङ्ग इस घोर अन्याय-अत्याचार और अमानुषिक व्यवहार (भीतरी) शत्रओस नहीं और वह भी एक समझौते की खबरोंसे सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है, बदलेकी के रूप में । समझौतेके रूपमें इतनी बड़ी स्वतन्त्रताका भावनाएं दिनपर दिन जोर पकड़ती जा रही है और मिलना इतिहासमें अभूतपूर्व समझा जाता है और लोग 'जैमेको तैसा' की नीतिपर अमल करने के लिए उसका प्रधान श्रेय महात्मा गाँधीजी द्वारा राजनीति मजबूर होरहे हैं, सारा वातावरण क्षुब्ध और सशंक में अहिंसाके प्रवेशको प्राप्त है । इस विषय महात्मा बना हुआ है, कहीं भी अपनेको कोई सुरक्षित नहीं जीका कहना है कि जनताने अहिसाको एक नीतिक समझता । कहॉपर किस समय क्या हो जाय, यही रूपमें ऊपरी तौरपर अपनाया है, उसका इतना फल आशङ्का लोगोंके हृदयोंमें घर किये हुए है। सारा है। यदि अहिंसाको हृदयसे पूरी तौरपर अपनाया व्यापार चौपट है और किमीको भी जरा चैन नहीं होता तो स्वराज्य कभीका मिल जाता और वह स्थिर है। इस तरह यह स्वतन्त्रता एक प्रकारकी अभिशाप रहने वाला स्वराज्य होता। यदि अहिंसाको छोड़ बन रही है और साधारण अदूरदर्शी एवं अविवेकी दिया और हिंसाको अपनाया गया तो जो स्वराज्य लोगोंको यह कहनेका अवसर मिल रहा है कि इस आज प्राप्त हुआ है वह कल हाथसे निकल जायगा। स्वतन्त्रतासे तो परतन्त्रता ही अच्छी थी। इधर पाम अतः इस समय सर्वोपरि प्रश्न प्राप्त हुई स्वतन्त्रता खड़े कुछ बाहरी शत्रु भी आगमें ईधन डालकर उसे अथवा स्वराज्यकी सुरक्षा तथा स्थिरताका है। भड़का रहे हैं और इस बातकी फिकरमें हैं कि इन
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भारतवासियोंको स्वराज्यके अयोग्य करार देकर मारनेसे नहीं होगा बल्कि उनकी शत्रुताको मारनेसे फिरसे इनकी गर्दनपर सवारी की जाय-अपने होगा, जिसके लिये देशमें परस्पर प्रेम, सद्भाव और निरङ्कुश शासनका जूआ उसपर रक्खा जाय । विश्वासकी भावनाओंके प्रचारकी और उसके द्वारा
ऐसी हालतमें नेताओंका कार्य बड़ा ही कठिन विद्वेषके उस विषको निकाल देनेकी अत्यन्त आवऔर जटिल होरहा है। उन्हें सुख की नींद सोना तो श्यकता है जो अधिकांश व्यक्तियोंकी रगोंमें समाया दूर रहा, सुखपूर्वक सांस लेनेका भी अवसर नहीं हुआ है। इसीके लिये नेताओंको जनताका सहयोग मिल रहा है। उनकी जो शक्ति रचनात्मक, व्यवस्था- वाञ्छनीय है। वे चाहते है कि जनता प्रतिहिमा त्मक और देशको ऊपर उठानेके कार्यों में लगती और अथवा बदलेकी भावनासे प्रेरित होकर कोई काम न जिनसे उनकी असाधारण काबलियत (योग्यता) करे और दण्डादिके कानूनको अपने हाथमें न लेवे। जानी जाती वह आज इम व्यर्थकी गह-कलहके पीछे उसे आतताइयोसे अपनी जान और माताकी रक्षाका उलझी हुई है । इसमें सन्देह नहीं कि पाकिस्तानने खुला अधिकार प्राप्त है और उस अधिकारको अमल हिन्दुस्तान (भारत) के साथ विश्वासघात किया है में लाते हुए, जरूरत पड़नेपर, वह आतताहयोंकी
और नेताओंको सख्त धोखा हा है परन्त इसमें जान भी ले सकती हैं, परन्तु किसी आततायीके भी सन्देह नहीं है कि भारतके पं० जवाहरलाल नेहरू अन्याय-अत्याचारका बदला उसकी जातिके निरपऔर सरदार पटेल जैसे नेता बडी तत्परताके साथ राध व्यक्तियों-बालबच्चों तथा स्त्रियों आदिको मारकर काम कर रहे हैं और उन्होंने दिन रात एक करके चुकाना उन्हें किसी तरह भी सहन नहीं होसकता । थोडे ही समयमें वह काम करके दिखलाया है जो बदलेका एसी कारवाइयास शत्रुताको आग उत्तरात्तर अच्छे-अच्छे राजनीतिज्ञ और कार्य-कुशल व्यक्तियों के बढ़ती है, नेताओंका कार्य कठिनसे कठिनतम लिये इषांकी वस्तु हो सकती है। इस समय उनकी होजाता है और कभी शान्ति तथा सुव्यवस्था नहीं मारी शक्ति हिन्दू, सिख आदि शरणार्थियोंको हो पाती । बदलेकी ऐसी कारवाई करनेवाले एक पाकिस्तानसे निकालने और पर्वी पञ्जाबसे मसलमान प्रकारसे अपने ही दूसर भाइयाको हत्या आर शरणार्थियोंको सुरक्षितरूपमें पाकिस्तान भिजवाने में मुसीबतके कारण बनते हैं। लगी हुई है । वे हिन्दुस्तानमें पाकिस्तानकी पक्षपात- अतः भारतकी स्वतन्त्रताको स्थिर सुरक्षित रखने पूर्ण और धर्मान्ध साम्प्रदायिक विद्वेषकी नीतिको और उसके भविष्यको समुज्वल बनाने के लिये इस किसी तरह भी अपनाना नहीं चाहते। उनकी दृष्टि में समय जनता तथा भारतहितैपियोंका यह मुख्य सारी प्रजा-चाहे वह हिन्दू, मुसलमान, सिख, जैन कर्तव्य है कि वे अपने नेताओंको उनके कार्यो में पृण ईसाई, पारसी आदि कोई भी क्यों न हो-समान है सहयोग प्रदान करें और ऐसा कोई भी कार्य न करें और वह सभीके हितके लिये काम करके दुनिया में एक जिससे नेताओंका कार्य कठिन तथा जटिल बने । आदर्श उपस्थित करना चाहते हैं। परन्तु इस गृह-कलह- इसके लिये सबसे बड़ा प्रयत्न देशमं धर्मान्धता कं, जिसके विष-बीज विदेशियोंन चिरकालसे बो अथवा मजहबी पागलपनको दूर करके पारम्परिक रक्खे हैं, दूर हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता। इसके प्रेम, सद्भाव, विश्वास और महयोगकी भावनाओंको लिये अब अन्तरङ्ग शत्रुओंसे युद्ध करके उनका नाश उत्पन्न करनेका है। इसीसे अन्नरङ्ग शत्रुओंका नाश करना होगा । जबतक अन्तरङ्गशत्रओंका नाश नहीं होकर देशमें शान्ति एवं मुव्यवस्थाकी प्रतिष्टा हो होगा तबतक भारतको सच्ची स्वाधीनताकी प्राप्ति नहीं सकेगी और मिली हुई स्वतन्त्रता स्थिर रह सकेगो ? कही जा सकती और न उसे सुख-शान्तिकी प्राप्ति ही देशमें ऐसी सद्भावनाांको उत्पन्न करने और फैलाने हो सकती है। परन्तु इन शत्रुओंका नाश उनके का काम, मेरी रायमें, उन सच्चे साधुओंको अपने
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हाथमें लेना चाहिये जो सभी सम्प्रदायोंमें थोड़े
(पृष्ठ ३८२ का शेषांश) बहत रूपमें पाये जाते हैं। उनके ऊपर देशका बहत के बाद हुआ था । अतएव योगशास्त्र विक्रम बड़ा ऋण है, जिसे उनको इस प्रकारकी सेवाओं- संवत १२८७ से लेकर १२२९ तकके बीचके किसी द्वारा अब चुकाना चाहिये । इस समय उनकी समयमें रचा गया है। सेवाओंकी खास ज़रूरत है, जिससे धर्माधि-गुरुओं यदि योगशास्त्रको वि० सं० १२१७की रचना मान
और बहके हुए स्वार्थपरायण मौलवी-मुल्लाओं के लिया जाये तो उसमें और धर्मशर्माभ्युदयकी उक्त गलत प्रचारसे व्याप्त हुए विषको देशकी रगोंसे प्रतिके समयमें ७० वर्षका अन्तर ठहरता है । इतने निकाला जासके। उन्हें वर्तमानमें आत्म-साधनाको भी समयमें योगशास्त्रकी ख्यातिका होना, महाकवि गौण करके लोकसेवाके मैदानमें उतर आना चाहिये, हरिचन्दके सामने उसका पहुँचना और धर्मशर्मामहात्मा गांधीकी तरह सच्चे दिलसे निर्भय होकर भ्युदयकी प्रतिका होना श्रादि कार्य सम्पन्न हो सकते अपेक्षित सेवाकार्यों में प्रवृत्त होजाना चाहिये और यह हैं। हमारे मतसे इसी समयमें महाकवि हरिचन्द हुए ममझ लेना चाहिये कि देशका वातावरण शान्त हुए हैं। उनका जन्म वि० सं० १२०० के लगभग हुआ बिना वे आत्म-साधना तोक्या, कोई भी धर्मसाधनका होगा । जब आशाधर मारवाड़म भागकर मालवामें कार्य नहीं कर सकेंगे। अपनी सेवाओं द्वारा वे लोक आये उसी समयके लगभग उन्होंने अपना धर्मशर्माके धर्मसाधनमें तथा आजकलकी हवाम सच्चे भ्युदय रचा होगा। यही वजह है जो अशाधरके धर्मस च्युत हुए प्राणियोंको मन्मामार्ग दिखानेमें ग्रन्थों में उसका एक भी उद्धरण नहीं मिलता, किन्तु बहुत कुछ सहायक हो सकेंगे। और इस लिये यह आशाधरके धर्मामृतका पान करनेवाले कवि उनका इस समय सर्वोपरि कर्तव्य है । यदि ऐमे अहंदास के पुरुदेवचम्पूपर धर्मशर्माभ्युदयकी गहरी कर्तव्यपरायण सत्साधुओंकी टोलियाँकी टोलियाँ छाप पद-पदपर मिलती है देशमें घूमने लगें तो देशका दूपित वातावरण शीघ्र पाटणके भण्डारमें धर्मशर्माभ्युदयकी १२८७ की ही शुद्ध तथा स्वच्छ हो सकता है । आशा है प्रतिका पाया जाना भी स्थितिपर बहुत प्रकाश सत्साधुओंका ध्यान जरूर इस ओर जायगा और वे डालता है। यदि उस प्रतिको देखा जाये तो सम्भव अपने वतमान कतव्यको समझकर नेताओंको है उससे और भी प्रकाश पड़ सके । सम्भव है वही अपना वास्तविक महयोग प्रदान करनेमें कोई बात प्रति आद्य प्रति हो और महाकवि गुजरातके आमठा नहीं रक्खेंगे।
पासके रहने वाले हों। पाटण उस समय गुजरातकी
राजधानी थी और राजा कुमारपाल उसमें राज्य वीरसेवा मन्दिर, सरमावा
करता था। आचार्य हेमचन्द्र भी वहीं रहते थे। योगशास्त्र भी सम्भवतः वहीं रचा गया था जिसे
महाकवि हरिचन्दने देखा था। संशोधनकी सूचना-गत किरणमें युगवीरजी (मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी) की एक संस्कृत कविता 'जैनादश (जैनगुण-दर्पण)' नामसे मुद्रित हुई है, उसमें निम्न पद्य छूट गया है अतः पाठक उसे ८वें पद्य के बाद अपनी २ प्रतिमें बढ़ा लेवें और तदनुसार अगले पद्योंके क्रमाङ्क भी क्रमशः १८, ११ बना लेवें। साथ ही, तीसरे पद्यमें 'सशीलो' के स्थानपर 'कृतज्ञो', शान्ति' के स्थानपर 'शील' और सातवें पद्यमें 'जैनोनीति' की जगह 'जैनः शान्ति' बना लेनेकी भी कृपा करें। परीपहोपसर्गाणां विजेता धीर-सत्तमः । अप्रमादी सदा जैनः सत्संकल्पे दृढो महान् ।।५।।
-व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित
[ ले०-५० परमानन्द जैन शास्त्री ]
महाकवि सिंह विक्रमकी १२वीं १३वीं शताब्दीके जाता है कि कविका सम्प्रदाय दिगम्बर था। ग्रन्थकी विद्वान थे। यह प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और उत्थानिका और वनशैली भी उक्त सम्प्रदायके देशी भापाके पण्डित थे। इनकी एक मात्र कृति कथा-काव्यों जैसी ही है :रूपमें प्रद्युम्नचरित (पज्जुएणचरिउ) नामका एक
विउलगिरिहि जिह हयभवकंदहो, खण्डकाव्य उपलब्ध है, जिसकी मंधियोंके पूर्वमें पाये जानेवाले संस्कृत पद्योंसे, जिनमें कविने अपना
समवसरगु, सिरिवीरजिाणंदहो। परिचय भी अङ्कित किया है, उनके संस्कृत विद्वान
गारवरखयरामरसमवाए, गगाहरुहानकी स्वतः सूचना मिल जाती है। उक्त ग्रन्थमें पुच्छिउ सेगियराए। प्राकृत और देशी भापाके शब्दोंका भी प्रयोग किया
मयरद्धयहो विणिज्जियमारहो, गया है और अपभ्रंश भाषाका तो वह ग्रन्थ है ही, जिसका परिचय आगे दिया जायगा। कविने स्वयं
कहहि चरिउ पज्जुगणकुमारहो। अपनको चार भाषाओं के विद्वान् होनेकी सूचना तं णिसुणे वि भगाइ गणेसरु, तेरहवीं मंधिक शुरूम पाय जानेवाले निम्न संस्कृत गियुगइ मेणिउ मगहगरेसरु ॥ पद्यम की है :
कविने अन्य किसी सुविकी सहायताके बिना जातः श्रीजिनधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थसप्रियो, ही इस काव्यकी रचना की है और अपनेको भवभाषाभिः प्रवगाश्चतुर्भिरभवच्छीसिंहनामा कविः । भेदनमें समर्थ, शमी तथा कवित्वगर्व सहित भी पुत्रो रल्हण-पण्डितस्य मतिमान् श्रीगूर्जरागोमिह प्रकट किया है । कविता करनेमें जिसकी कोई
समानता न कर सके, ऐसा असाधारण काव्य-प्रतिभादृष्टि - ज्ञान - चरित्रभूषिततनुवंशे विशाले ऽवनौ ॥ वाला विद्वान व्यक्त किया है। साथ ही यह व्यक्त ___ इस पद्यमें बतलाया है कि कवि सिंह जैनधर्म किया है कि वह वस्तुके सार-असार विचार करने में और कर्ममें अनरक्त थे और शास्त्रार्थ में सर्वप्रिय थे। सुन्दर बुद्धिवाला, समीचीन विद्वानाम अग्रणी. चार भापाओं (संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशी) सर्व विद्वानोंकी विद्वत्ताका सम्पादक, सत्कवि था; में निपुण थे। यह रल्हण पण्डितके, जो संस्कृत- उसीने शांतरस और आनन्दप्रद इस काव्य-ग्रन्थका प्राकृतरूप भापाद्वयमें निष्णात थे, बुद्धिमान पुत्र निर्माण किया है । इस समुल्लेखपरसे कविकी थे। और लोकमें विशाल गुर्जर कुलमें उत्पन्न हए प्रतिभाका सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है। थे। इनका शरीर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और १ साहाय्यं समवाप्य नात्र सुकवेः प्रद्यग्नकाव्यस्य यः । सम्यक्चरित्रसे विभूषित था।
कर्ताऽभूद् भवभेदनकचतुरः श्रीसिंहनामा शमो । यद्यपि ग्रन्थकर्ताने अपने सम्प्रदायका कोई उल्लेख साम्यं तस्य कवित्वगर्वसहितः को नाम जातोऽवनौ । नहीं किया। किन्तु ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण और उसकी श्रीमज्जैनमतप्रणीतमुपथ सार्थः प्रवृत्तं : क्षमः ।। गुरुपरम्परापर विचार करनेसे यह स्पष्ट मालूम हो
-चौदहवीं संधिके अन्त में ।
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३९२
अनेकान्त
[ वर्ष ८
ता मलधारिदेउ मुणिपुंगमु,
समय बतलानेका प्रयत्न किया जाता है । ग्रंथप्रशस्तिपच्चक्ख धम्मु उवसमु दमु ।
में 'बम्हणवाड' नगरका वर्णन करते हुए लिखा है
कि उस समय वहाँ रणधोरी या रणधीरका पुत्र माहवचंद आसि सुपसिद्धउ,
बल्लाल था जो अर्णोराजका क्षय करनेके लिये जो खम-दम-जम-गिणयम-समिद्धउ । कालस्वरूप था और जिसका मांडलिक भृत्य अथवा 'मलधारी' यह एक उपाधि थी जो उस समयके सामन्त गुहिलवंशीय क्षत्री भुल्लण उस समय किसी किसी साध सम्प्रदायमें प्रचलित थी । इस बम्हणवाडका शासक था' । परन्तु इस उल्लेखपरसे उपाधिके धारक अनेक विद्वान श्राचार्य होगये हैं। उक्त राजाओंका राज्यकाल ज्ञात नहीं होता। अतः वस्तुतः यह उपाधि उन मुनिपुङ्गवोंको प्राप्त होती उसे अन्य साधनोंसे जाननेका प्रयत्न किया जाता है। थी जो दुर्धरपरीपहों, विविध उपसर्गों और शीत मन्त्री तेजपालके आबके लणवसति गत उप्ण तथा वर्षाकी वाधा महते हुए भी कष्टका सं० १२८७ के लेखमें मालवाके राजा वल्लालको अनुभव नहीं करते थे, और पसीनेसे तर शरीर यशोधवलके द्वारा मारे जानेका उल्लेख है। यह होनेपर धूलिकणोंके संसर्गसे 'मलिन' शरीरको साफ़ यशोधवल विक्रमसिंहका भतीजा था और उसके न करने तथा पानीसे न धोने या न नहाने जैसी कैद हो जाने के बाद गद्दी पर बैठा था। यह कुमारघोर वाधाको भी हसते हुए सह लेते थे। ऐसे ऋषि- पालका मांडलिक मामन्त अथवा भृत्य था, मेरे इस पुङ्गव ही उक्त उपाधिसे अलकृत किये जाते थे। कथनकी पुष्टि अचलेश्वर मन्दिरके शिलालेख गत कविवर देवसेनने भी अपने गुरु विमलसेनको निम्न पाम भी होती है :मलधारी सूचित किया है। इन्हीं गुरु अमृतचन्द्रके "तम्मान्मही.."विदितान्यकलत्रपात्र, आदेशसे कवि सिंहने प्रद्युम्नचरितकी रचना की है।
स्पर्शो यशोधवल इत्यवलम्बते स्म । ग्रन्थ और उसका रचना समय
यो गुर्जरक्षितिपतिप्रतिपक्षमाजौ, प्रस्तुत ग्रंथमें श्रीकृष्णके पुत्र प्रद्यम्नकुमारका जीवन वलालमालभत मालवमेदिनीन्द्रम् ॥" परिचय १५ संधियोंमें दिया हश्रा है, जिसकी शोक
यशोधवलका वि० सं० १२०२ (११४५ AD.) संख्या साढ़े तीन हज़ारसे कम नहीं है। मारा ग्रंथ
का एक शिलालेख अजरी गांवसे मिला है जिसमें अपभ्रंश भाषामें रचा गया है। प्रथका चारतभाग बड़ा ही सुन्दर और शिक्षाप्रद है। कविन उसे १ सरि-सर-गंदण-वण-संछण्णउ, प्रत्येक संधिकी पुष्पिकामें धर्म, अर्थ, काम और मठ-विहार-जिरण-भवणरवगण उ । मोक्षरूप पुरुषार्थ चतुष्टयस भूषित बतलाया है। बम्हणवाडउ णामें पट्टण,
अपभ्रंश भाषा स्वभावत: माधुय एवं पदलालित्यको । अरिणरणाह-सेण दलवदृणु । लिये हुए है, कविने उसे विविध छन्दाम गूंथकर जो भुजइ अरिणखयकालहो,
और भी सरस तथा मनोहर बना दिया है। रणधोरियहो सुअहो बल्लालहो । __ यद्यपि ग्रंथमें रचनाकाल दिया हुश्रा नहीं है, जासु भिच्चु दुजण-मणसल्लणु, फिर भी अन्य प्रमाणोंके आधारपर ग्रन्थका रचना __ खत्तिउ गुहिल उत्तु जहिं भुल्लण ॥
-प्रद्युम्नचरित प्रशस्ति । १ देखो, सुलोचनाचरित और देवसेन नामका लेख, २ यश्चौलुक्यकुमारपालनृपतिः प्रत्यथितामागतं । अनेकान्त वर्ष ७ किरण
मत्वा सत्वर मेव मालवपति बल्लालमालब्धवान् ।।
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किरण १०-११]
महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित
३९३
'प्रमारवंशोद्भवमहामण्डलेश्वरश्रीयशोधवलराज्ये न कि कुमारपालका राज्यकाल वि० सं० ११९९ से वाक्य द्वारा यशोधवलको परमारवंशका मण्डलेश्वर वि० सं० १२२९ तक पाया जाता है और इस सचिन किया है। यशोधवल रामदेवका पुत्र था, बड़नगर प्रशस्तिकाकाल सन् १५५१ (वि०सं०१२०८) इसकी रानीका नाम सौभाग्यदेवी था। इसके दा है। अत: बल्लालकी मत्यु ११५१ A. D. (वि० सं० पुत्र थे, जिनमें एक का नाम धारावर्ष और दूसरे १२०८) से पूर्व हुई है। का नाम प्रसाद देव था। इनमें यशाधवलके बाद ऊपरके इस कथनसे यह स्पष्ट मालूम होता है राज्यका उत्तराधिकारी धाराव था। यह बहुत ही कि कुमारपाल. यशोधवल, बल्लाल और अराज वीर और प्रतापी था, इसकी प्रशंसा वस्तुपाल- ये सब राजा समकालीन हैं। श्रतः ग्रन्थ-प्रशस्ति तेजपाल प्रशस्तिके ३६वें पद्यमें पाई जाती है। गत कथनको दृष्टिमें रखते हुए यह प्रतीत होता है धारावर्षका मं० १२२० का एक लेख 'कायद्रा' गांवके कि प्रस्तुत प्रद्यम्नरितकी रचना वि० सं० १२०० बाहर, काशी, विश्वेश्वरके मन्दिरसे प्राप्त हुआ है। से पूर्व हो चुकी थी। अत: इम ग्रंथका रचनाकाल यद्यपि इसकी मृत्युका काई पट उल्लेख नहीं मिला, विक्रमकी १३वीं शताब्दीका प्रारम्भिक भाग जानना फिर भी उसकी मृत्यु उक्त मं० १२२० के समय तक चाहिये। या उसके अन्तर्गत जानना चाहिये।
प्रद्यम्नचरितकी अधिकांश प्रतियोग अन्तिम __ जब कुमारपाल गुजगतकी गद्दी पर बैठा तब प्रशस्ति ही दी हुई नहीं हैं, और जिन प्रतियों में प्राप्त मालवाका राजा बल्लाल, चन्द्रावतीका परमार थी उनमें वह टित एवं खण्डितरूपमें ही प्राप्त हुई विक्रमसिंह और सपादलक्ष सांभरका चौहान थी; किन्तु यह लिम्बते हा प्रसन्नता होती है कि श्रर्णाराज ये नीनों गजा परम्परमें मिल गए, और भ महन्दीनि आमेरक शास्त्र भण्डारकी कई इन्हनि कुमारपालक विरुद्ध जबरदस्त प्रतिक्रिया की; प्रतियों में यह प्रशस्ति पूर्णपर्म उपलब्ध है। उक्त परन्तु उनका यह सब प्रयत्न निष्फल हुआ। भण्डार में इम ग्रन्थकी छह प्रतियाँ पाई जाती है। कमारपालने विक्रमसिंहका राज्य उसके भतीजे जो विविध समयों में लिखी गई हैं उनमे सं० ११७७ यशाधवलका दे दिया, जिसने बल्लालको माग था, की प्रतिपरसे उक्त ग्रन्थकी अन्त प्रशस्ति पाठकोंकी
और इस तरह मालवाका गुजरातमें मिलानेका जानकारीके लिये ज्यांकी त्यों रुपमं नीचे दी प्रयत्न किया गया।
जाती हैं:बल्लालको मृत्युका उल्लेख अनेक प्रशस्तियांम
कृतं कल्प वृक्षम्य शास्त्रं शम्नं मधीमता । मिलता है । बड़नगरसे प्राप्त कुमारपाल प्रशस्तिक सिंहन मिहभूतन पापतामस भंजनं ।।। १५ श्लोकोंमें बल्लाल और कुमारपालकी विजयका काम्यम्य काम्यं कमनीयवृत्तउल्लेख किया गया है और लिखा है कि कुमारपालने वृत्तं कृत कीनिमतां कवीनां । बल्लालका मम्तक महल के द्वारपर लटका दिया था। भव्यन सिंहन कवित्व भाजां, ५ शवभंगीगलविदलनान्निद्रनिस्त्रिंशधारी,
लाभाय तम्यर्थ मदैवकीनिः ।।२।। भागवः समजनि मुतस्तन्य विश्वप्रशस्यः ।
सव्वण्टु मव्वदंसी भव-वण-दहणो क्रोधानान्तप्रधनवसुधा निश्चले यत्र जाता,
मव्वमारम्स मारो, ५चात त्रोत्पलजलकणः कोकणाधीश पत्न्यः ।।३६।। मव्वाणं भव्ययाणं समयमणगद्दो २ देखो, भारतके प्राचीन राजवंश भा० १ पृ० ७६-७७ ।
मवलोयाण मामी । ३ Epigraphic IndicnV.I.VIII P. 200. १ देग्यो, मन ५१५१ की लिग्विन बड़नगर प्रशस्ति ।
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३९४
अनेकान्त
[ वर्ष ८
सव्वेसिं वत्थरूवं पयडण कुसलो सव्वणाणावलोई, सव्वेसिं भूययाणं करुण विरयणो सव्वपावं जो सो ॥३॥ जं देवं देव देवं अइसय सहिद अंगदाराणिहतं, सुद्धं सिद्धि हरत्थं कलि-मल-रहितं भव्व-भावाणुमुक्कं । णाणायारं अणतं वसुगुणगणिणं अंसहीणं सुणिच्चं, अम्हाणं तं अणिदं पविमलसहिद देउ संसारपारं ॥४॥ जादं मोहाणुबंधं सारुहणिलए किं तवत्थ अणत्त्थं, सं तं संदेहयारं विबुह विरमणं खिजदेदीवमाणं । वाएसीए पवित्तं विजयभुवणे कव्ववित्तं विचित्तं, दिज्जं तं जं अणंतं विरयदि सुदरं
णाणलाहं विदितं ॥५॥ पत्ता-जं इह हीणाउ काइमि साहिउ
अमुणिय सत्त्थ - परंपरई । तं खमहु भडारी तिहुवरणसारी
वाएसरि सत्थरई ॥१॥ दुवई-जा णिरु सत्तभंगि-जिणवयण
विणिग्गय दुह-विणासणी, होउ पसरण मज्म महु ? सुहयरि इयरण-कुमइ-रणासणी ॥छ।। पर - वाइय - वाया - हरुश्र-छम्मु, सय केवलिजो पञ्चक्खु धम्मु । सो जयउ महामुणि अमियचंदु, जो भव्वणिवहकइरवहं चंदु । मलधारिदेव - पय - पोम - भसलु, जंगम सरसइ सव्वत्थ कुसलु । तहपय-रउणिरुउएणयअमइयमाणु, गुज्जर-कुल-णह-उज्जोय भाणु ।
जो उहय पवरवाणी विलासु, एयं विह विउसहो रल्हणासु । तहो पणइणि जिणमइ सुहय-सील, सम्मत्त-वंत णं धम्मलील । कइसीहु ताहि गभंतरंभि, संभविउ कमलु जह सुर-सरंमि । जणवच्छलु सजण-जणियहरिसु, सुइवतु तिविह वइ-राय सरिसु । उप्पण्णु सहोयरु तासुअ वर, नामेण सुहंकर गुणहं पवरु । साहारण लघुवउ तासु जाउ, धम्माणुरत्त अइदिव्वकाउ । तहु अणुवमह एउवि सु-सारु, संविणोउ वि णं कुसुमसरधारु ? जा वच्छहिं चत्तारि वि सुभाय, परउवयारिय जण जणियराय । एकहिं दिणि गुरुणाभणइ वत्थ, णिसुणहिं छप्पय कइराय दच्छ । भोबाल-सरासइ गुणसमीह, किं अविणोयई दिण गमहि सीह । चविह पुरिसत्त्थ-रसोह भरिउ, णिव्वाहहि एउ पज्जुण्णचरिउ । कद सिद्धहो विरयंतहो विणासु, संपत्तउ कम्मवसेण तासु । महु वयणु करहिं कि तुव गुरणेण,
संतेण हूय छाया समेण । घत्ता-किं तेण पहवई चउधणई
ज विहलिय हं णउ वयर (ण?)इ। कव्वेण तेण किं कइयणहो
जं ण छइल्लह मणु हरइ । गुरुणापुणोपउत्तं पवियप्प धरमपुत्त मा चित्ते । गुणिणो गुणं लहेविणु जइ लोओ दूसणं थवइ ॥११॥ को वारइ सविसेसं खुद्दो खुद्दत्तणं पि विरयंतो । मुवणो छुडु मन्भत्थो अमुवतो णिय सहाव वा ॥२॥ संभव इव हुअ विग्ध मणुयाणं सेय मग्गोलगाणं । मा होहि कज्ज सिदिलो विरयहि कव्वं तुरंतो वि ॥३॥
चन्ता विहलिया कि
हर
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किरण १०-११ ]
तेरह काठिया
३९५
सुह असुहं ण वियप्पहि चित्तं धीरे वि ते जए वरुणा। को लेक्खइ सत्त्थम्में दुज्जीह दुजणं पि असुहयरं । परकज्जे परकव्वं विहडंतं जेहिं उद्धरियं ॥४|| मुवणं सुद्ध सहावं करमउलि रइवि पच्छामि ॥६॥ अमियमयंदगुरूणं आएसं लहे वि झत्तिइय कव्वं । जंकिंपिहीण अहियं विउसासोहंतु तं पि इय कव्वे। णियमइणा णिम्मवियं णंदउ ससीदिणमणी जाम ॥धिट्त्तणेण रइयं खमंतु सव्व पि मह गुरुणो ||७||
इय पज्जुरणचरिय सम्मत्त ।
तेरह काठिया
लेखक-बा. ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.]
या बालम शोक भय कथा कौतक कोट ।
अनेकान्तकी गत किरण ६-७ पृ० २८७ पर की एक कविता दी हुई है, जिसका प्रारम्भ इस विद्वद्वर्य सम्पादक जीने, उन्हें प्राप्त एक प्राचीन प्रकार हुआ है:गुटकेमें स्फुटरूपसे उल्लेखित तीन पद्योंके आधारसे, जे वटपारै वाटमें, करहिं उपद्रव जोर । तत्कालीन भट्टारकोंकी तेरह पन्थ शुद्धाम्नायके प्रति विदेश
तिन्हें देश गुजरातमें, कहहिं काठिया चोर ॥१॥ विद्वेष पूर्ण एवं घृणित मनोवृत्तिका अच्छा दिग्दर्शन कराया है। उक्त पद्योंमेंसे पद्य न० २ में 'काठया'
त्यों यह तेरह काठिया, करहिं धर्मकी हानि । शब्द आया है। वह पद्य इस प्रकार है
तातें कुछ इनकी कथा, कहहुँ विशेष बखानि ॥२॥ "त्रिदश १३ पन्थरतौ निशिवासराः
जूना अ गुरुविवेक न जानति निप्टुराः
कृपगबुद्धि अज्ञानता, भ्रम निद्रा मद मोह ॥३॥ जपतपे कुरुते बहु निप्फलां
इससे आगे १ से १६ तक, १३ चौपाइयों में किमपि येव जना सम काठया"॥ इन तेरहों काठियांका स्वरूप वर्णन किया गया है इसका स्पष्ट अर्थ है कि-'ये (तेरह पन्थी लोग) और अन्तमें १७वें पद्य (दाह)रातदिन तेरह पन्थमें रत रहते हैं, ये निष्ठुर गुरु 'ये ही तेरह करम ठग, लेहिं रतन त्रय छीन । विवेक-गुरुका आदर मानादि करना नहीं जानते, यात संसारी दशा. कहिये तेरह तीन' ॥ इनके किये जप तप सब निष्फल हैं, और ये लोग
में कविताका उपसंहार किया गया है । इसके मानो काठिया ही हैं ।' श्रद्धेय मुख्तार साहिबने
- उपरांत 'इति त्रयोदश काठिया' लिखकर कथनकी 'काठिया' का अर्थ धर्मकी हानि करने वाला किया है.
___ समाप्ति की है। इस कवितासे स्पष्ट विदित होता है सो ठीक ही है। किन्तु इस शब्दका और इसके इस
कि 'काठिया' शब्द गुजराती भाषाका है जिसके स्थानमें पद्यके रचयिता द्वारा प्रयुक्त होनेका वास्तविक
अर्थ बटमार, लुटेरे अथवा चोरकं हैं और जिसका रहस्य अभी हाल में ही बनारसी-विलासका अव
उपयोग इस कविताके रचियता विद्वद्वर्य पण्डित लोकन करते हुए स्पष्ट हुआ । उक्त ग्रंथ' के पृ० १६१
बनारसीदासजीन अलङ्कारिक रूपमें किया है अर्थात पर 'अथ तेरह काठिया लिख्यते' शीर्षकसे १७ पद्यों
जिस प्रकार काठिया लोग राहचलतोंके धन सर्वस्व १ बनारसी विलास-जैनग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई। का अपहरण कर लेते हैं उसी प्रकार ये जुआ.
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३९६
अनेकान्त
[ वर्ष ८
आलस्य, शोक, भय, कुकथा, कौतुक (मज़ाक), युगमें जैन समाजकी भी कुछ विचित्र स्थिति थी। क्रोध, कंजूसी, अज्ञान, भ्रम, निद्रा (ग़फ़लत), श्वेताम्बर आम्नायमें यतियों और श्रीपूज्यांका तथा मद (ग़रूर) और मोह रूप १३ ठग मनुष्यके दिगम्बर सम्प्रदायमें भट्टारकोंका प्रभुत्व था। अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप स्वार्थके लिये ये भट्टारक और यति जन साधारणको रत्नत्रय धर्मको लूट लेते हैं, इन दोषोंकी उपस्थितिमें अन्धकारमें रखते थे। प्राकृत संस्कृत आदिका ज्ञान उसका धर्मरूपी धन नहीं टिक पाता, वे उसकी न होने और शिक्षा की व्यापक कमीके कारण मद्धम हानि ही करते हैं। ज्ञात नहीं कि इन दोपोंके लिय के सच्चे प्ररूपक प्राचीन श्राप ग्रन्थोंके पठन-पाठन काठिया शब्दका प्रयोग करने में कोई और प्राचीन का अभाव-मा था, और ये भट्टारक यति आदि
आधार था या नहीं, और इस प्रकार के 'त्रयोदश अपने उपदेशों, व्याख्यानों और धर्माज्ञाओंम धर्मका काठिया' या 'तेरह काठिया' शीर्पकसे अन्य प्राचीन- जैसा कुछ स्वरूप वर्णन करते. जो कुछ विधितर पाठ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती विधान बनाते और जनताको जैसा कुछ आदेश
सी भाषाम इसी विपयक प्रतिपादक देते वही उसके लिये 'बाबा वाक्यं प्रमाणम' उपलब्ध हैं या नहीं ? यदि ऐसा नहीं है, और यह होता था। कविवर बनारसीदासजीकी ही मौलिक सूझ है तो पण्डितवर्य बनारसीदामजी एक अत्यन्त उनकी प्रतिभाकी बलिहारी है और उनकी कल्पना प्रतिभाशाली कवि तो थे ही, वे एक सुशिक्षित अद्भत होने के माथ ही माथ प्रशंसनीय है। बहुभाषाविद् गम्भीर विद्वान और उत्कट समाज
कविवर पं० बनारसीदासजीका जन्म विक्रम सुधारक भी थे। सौभाग्यसे इन्हें पं० रूपचन्दजी, मं० १६४३ (मन १५८६ ई०) में जौनपुरमें हुआ अर्थमल्लजी, भगवतीदासजी, चतुभुजजी, कंवरपालथा। इनके. जीवनका अधिकांश आगराम व्यतीत जी, धर्मदासजी, आदि विद्वानों और शास्त्रज्ञोंका हा था, इन्होंने अपनी ५५ वर्ष तककी श्रायुका सम्पर्क भी मिला । समाजकं अज्ञान, धर्मकी दुर्गति हिन्दी पद्यबद्ध आत्मचरित 'अद्धकथानक'' के और भट्टारकों व यतियोंके अन्याय अत्याचारसं नामसे लिखा है । अतः हिन्दीके इम अनुपम और इनका चित्त बेचैन होगया । इन्होंने समयमार, उतने प्राचीन एकमात्र आत्मचरित्रम कविवरका प्रवचनसार, गोमदसारादि आप-ग्रंथांका अध्ययन सन १६४१ ३० (वि० सं० १६९८) तकका जीवन मनन किया, धमक वास्तविक स्वरूपको हृदयङ्ग वत्तान्त दिया हश्रा है, उसके पश्चात् वह कितने दिन किया और उसीका जोरोंक माथ प्रचार किया। जीवित रहे और क्या क्या कार्य किये कुछ लोकभाषा हिन्दीमें उन प्राचीन ग्रंथोंका अनुवाद ज्ञात नहीं। उनकी मृत्यु संभवतया सन् १६४४ ई० करनेका आन्दोलन उठाया, स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दक में हो गई थी।
प्रसिद्ध अथ समयसारका सरस छन्दबद्ध हिन्दीमें पण्डितजीके पूर्वज श्वेताम्बर सम्प्रदायके ललित और भावपूर्ण अपूर्व अनुवाद 'नाटक अनुयायी थे, ऐसा प्रतीत होता है; किन्तु इनके होश समयमार' के रूपमें किया। नवरस, अर्द्धकथानक, संभालनेके बाद तक इनके कुटुम्बमं धर्म शैथिल्य, बनारसी पद्धति, मोहविवक जुद्ध श्रीर नाममालाके मिथ्यात्व और वहमोका काफी प्रभाव था। उम अतिरिक्त ४७-४८ फुटकर उपयोगी पद्यबद्ध रचनाएं १ डा० माताप्रसादगुप्त द्वारा संपादित व प्रयाग वि०वि० की जिनमेंसे कुछ प्राचीन संस्कृत प्राकृत पाठों परसे
की हिन्दी सा० समिति द्वारा प्रकाशित । तथा पण्डित अनुदित हैं और कुछ उनकी स्वयं की मौलिक हैं, नाथूराम प्रेमी द्वारा संपादित और जैन ग्रन्थरत्नाकर और जो सब उपर्युक्त बनारसी-विलासमें मंग्रहीत कार्यालय बम्बईमें प्रकाशित ।
हैं। इनकी सभी रचनाओं में प्राचीन प्रमाणीक
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किरण १०-११ ]
तेरह काठिया
३९७
आर्ष-ग्रन्थोंका अनुकरण और शुद्ध सच्चे जैनधर्मका पण्डित बनारसीदास पक्के परीक्षाप्रधानी, स्वतन्त्र प्रतिपादन है। पं० बनारसीदासजीके प्रचार और विचार एवं मौलिक सूझके व्यक्ति थे । स्वयं
आन्दोलनका यह प्रभाव हुआ कि जैन जनता अनुभव करके अथवा अपनेपर ही प्रयोग करके, शिथिलाचारी भट्टारकों और यतियोंके चंगुलमेंसे आशयको भलीभाँति बुद्धि और मनसे ग्राह्य होनेपर निकलकर शुद्ध जैन श्राम्नायकी ओर प्रवृत्त हुई, ही वे किसी बातको माननेके लिये प्रवृत्त होते थे।
और इसी कारण इन पण्डितप्रवरको दिगम्बर एकबार अध्यात्मिक ग्रन्थोंके तथ्यको न समझ सकने सम्प्रदायके मध्यकालीन शुद्धआम्नायका प्रवतक के कारण वे और उनके तीन अन्य मित्र बहक गये, कहा जाता है। इस शुद्ध आम्नायके अनुयायी ही उनकी इस बहकी हुई अवस्थाका जो लोगोंने मजाक दिगम्बर तेरह-पन्थी कहलाते हैं । पण्डितजीक उड़ाया वह स्वयं पं० जीके शब्दोंमें इस प्रकार हैसमकालीन अथवा थोड़े ही पीछे होने वाले "कहहि लोग श्रावक अरुजती, श्वेताम्बर यति मेघविजयने अपने प्राकृत ग्रन्थ बानारसी 'खामरामती''-अर्द्धकथानक पद्य ६०८ 'युक्तिप्रबोध' तथा उसकी स्वोपज्ञ संस्कृत टीकामं
क्या आश्चर्य है कि उपरिवर्णित 'त्रयोदश उनके इम समयोपयोगी सुधारको 'बनारसिया पन्थ' काठिया' पण्डितजीकी अपनी निजी सूझ हो और
और उसके समर्थकों एवं अनुयायियोंको 'बनरसिया उसमें उन्होंन शिथिलाचारी भट्रारकों और यतियों के पन्थी' कहकर मजाक उड़ाया है । और इस तथा उनके अनुयायियोंके प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाले 'बनारसी मत' की उत्पत्ति वि० सं० १६८ में हुई तरह मांट दापोंका चित्रण किया हो जोकि स्पष्टतया बनाई है । पं० बखतरामजीन अपने 'बुद्धि विलास' वास्तविक धर्मकी हानि करने वाले हैं, रत्नत्रयरूप ग्रन्थम दिगम्बर तेरह पंथकी उत्पत्ति वि० सं० १६८३ आत्मीक धनको लूटने वाले वटमार डाक हैं तथा में हुई बताई है। पं० बनारसीदासजीके सम- मंसारी मनुष्यकी दशाको तेरह तीन करने वाले हैं, कालीन आगरा निवासी सुप्रसिद्ध श्वेताम्बराचाय और जनताको इन तेरह दोपांस सदैव मावधान यशोविजयजीने उनके मतको 'माम्प्रतिक अध्यात्म- रहने, बचने एवं उनका निराकरण करते रहकर सच्चे मत' अर्थात हालका ही पैदा हुआ अध्यात्ममत कहा अर्थीम धार्मिक और वास्तविक जैन बननेका अर्थात है, और उसके खण्डनमें 'अध्यात्ममतपरीक्षा' दिगम्बर शुद्ध आम्नाय अथवा उपयुक्त तेरह दोपोंव 'अध्यात्ममत खण्डन' लिखे। स्वयं पण्डितजीन को टालने वाले तेरहपन्थका अनुयायी बननेका अपने आपको तथा अपने साथियोंको 'अध्यात्मी' प्रचार किया हो। इममें उन्हें आशातीत सफलता कहा है ! अत: जैसी कि श्रद्धेय प्रेमीजीकी राय हे,' भी मिली। अनेक दिगम्बर और श्वेताम्बर गृहस्थ भट्रारक विरोधी दिगम्बर तेरहपंथ अथवा शुद्ध उनके अनुयायी होगय, किन्तु शिथिलाचारियोंको यह आम्नायके मुख्य प्रवर्तक कविवर पं० बनारमीदास- कैसे सहन होसकता था। उनसे कुछ और तो बन जा ही थे और उस समय इसे 'बानारसी मत' या नहीं पड़ा, उन्होंने इन शुद्ध श्राम्नायी तेरह पंथियोंअध्यात्ममत नाम दिया गया था । वास्तव में के विरुद्ध विष वमन करना शुरु कर दिया, उनके १ प्रेमी-जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३६७.६८। मतकं ग्वण्डनमें ग्रन्थ लिग्वे, उन्ह 'काठिया' अपशब्द २ वही-पृ. ३६६ ।
से सम्बोधित किया, और पण्डितजी द्वारा गिनाये ३ अद्ध कथानक-जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय बम्बई- गये त्याज्य तेरह दोषांका उन्हीं के अनुयायियोम म. पृ. १७,१६ ।
आरोप किया । प्रस्तुत भट्टारकीय मनोवृत्ति वाले ४ अद्ध कथानक-पद्य ६७१ ।
पद्य इस बातकं ज्वलन्त उदाहरण हैं, और बहुत ५ प्रेमी-जै. भा. इ. पृ. ३६७ ।
(शेष पृष्ठ ४०१ पर )
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अनेकान्त
[वर्ष ८
जोगिचर्या
[ इस जोगिचर्या' नामकी कविताको मैंने सन् १९४४ में एक गुटके परसे नोट किया था। इसके कर्ता मुनि ज्ञानचन्द्र हैं । इसमें अध्यात्म दृष्टिसे योगी अथवा साधुकी चर्याका सुन्दर एवं चित्ताकर्षक कथन किया गया है। चूँकि यह संसारी आत्मा अनादिकालसे अलख निरञ्जन
आत्माको भूल गया है, भ्रमवश चौरासी लाग्न योनियोंमें भटकता फिर रहा है भार राग-द्वेष अहङ्कार आदि विभाव परिणतियोंमें रत होकर स्वस्वरूपकी ओर अांख उठाकर भी नहीं देखता, इसीसे मुनि ज्ञानचन्द्र लिखते हैं कि-ग्रन्थ (परिग्रह) की इच्छा न करो, मोहकी वांछा भी मत करो, शुद्ध दिगम्बर बन जाओ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रय निधिसे वंटा खेलो और अन्तरात्माकी अोर देखो। इस आत्माका परमतत्त्व ही आधार है और शिवनगरी ही घर है श्रादि । इस प्रकार बहुत ही सरल शब्दोंमें उस सच्चिदानन्दरूप विज्ञान घन अात्माका ध्यान और उसकी प्राप्ति करनेकी प्रेरणा की गई है। साथ ही यह बतलाया गया है कि चित्परिचयके बिना केवल बाह्य तपश्चरणादिसे मुक्ति नहीं मिलती, वह तो स्वस्वरूपका ध्यान, चिन्तन एवं अनुधावन करनेसे सहज ही प्राप्त हो जाती है। इसी भावको व्यक्त करते हुए एक जगह लिखा है कि 'हे अात्मन् ! तू कायाका शोषण कर अात्मा पोषण कर, पूर्वीगोंका व्याख्यान कर, इंद्रियोंको दण्डित कर तथा इच्छानिरोधरूप तपसे शरीरको अलंकृत कर, जिन शासनको जान, तीर्थोंको जा, पूजा कर, जिस-तिसको मीस झुका, शरीरको क्षीण कर, बनमें निवास कर एवं निरन्तर ही भावना भा, परन्तु जब तक तू परमब्रह्म परमात्माका समभावोंसे अवलोकन नहीं करेगा। तब तक तुझे शिवपुर की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अस्तु, पुरातन हिन्दीकी यह कविता, अाशा है, अनेकान्तके पाटकोको रुचिकर होगी इसीसे आज इसे उनके सामने रखा जा रहा है।
-परमानन्द जैन]
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बूझहु हो तुम बूझहु भाई, बूझहु रयण-कहाणी । अलख निरंजणु जोईयउ हो, जागत रयणि विहाणी ।। १ ।। अप्पा झावहु आणु ण भावहु, चित्तपडल संसारू । समरसि होइ श्रादगुण जोवहु, जिम पावहु भव-पारू |॥ २ ॥ मण सुन्नउ करि काय सुण्णु करि, वयणु न बोलहि भाई ।। जोगु धरहि अप्पाणउ जोवहि, जिम कम्मक्खउ होई ॥ ३ ॥ सीस जटा अणुवेहा बारह, सीलदण्डु मुझ भावइ । सुद्ध भाव जोगउटा पहर उ, दुरिउ न नियडउ श्रावइ ।। ४ ।। जीव-दया नित कंथा पहरउ, आगम-विषय वषा (खा) णउ । वारह-विह-तउ-भस्म चडावहु, जोगु झाणु जिम जाणउ ॥ ५ ॥ दह-लक्खणमय वीणु बजावउ, तिसहि जग गुरु गावउ । पुण्ण-पाप-हेउ-नियडु न जाउ, इह मनुवउ मनि लावउ ।। ६ ।। सञ्चरु मंजमु दो मुझ भावहि, समकित सींगी वावउ । णाणु-माणु-दुइ-मुद्दा पहरउ, अलखु निरंजनु जोवउ ।। ७ ॥
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किरण १०-११ ]
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जोगिचर्या
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खप्पर दुइ-कर मुझ बुहु भावहि, भोयगु लेडं उडंडी । तीन पंच- दुय घर फिर आवहु, हउ न होउ पाखंडी ॥ ८ ॥ मूलु उत्तरगुण मुझ महि चेतन, सुमरइ देवलिवासू । रयरिण ण सोवहु विसय न जोवउ, सुमरि न हाव-विलासु ॥ ९ ॥ कंच समभावें परखड, सत्तु- मित्तु न वि कोई । घट घट वस लक्ख चउरामी, अलख निरंजगु सोई ॥ १० ॥ गंधु न इच्छउ मोहु न वंछउ, हूवर सुद्ध दिगंबरु । तिहु-ग्यरिणहि नित वंटा खेलउ, हउं नित देखउ अंदरु || ११ || परमतत्त्व आधारी चेतन, शिवनगरी घर मेरा । जम कहु दंड मीचु विहडउ, वाहुडि करउ न फेरा || १२ || परमाराहरण कंथा पहरउ, मुकति त उ मनु वीधा । इव हउं शिवनयरी पयसेवउं, जोगु झाणु महु सीधा ॥ १३ ॥ जहि जहिं जोवउ तहिं तर्हि अप्पा, किस रूम किस भावउँ । महज सुद्ध हमु लीग अत्थर, पुग्गु संसार न आवउँ ॥ १४ ॥ दहहु न गुग्गल हुतहु न तिल घिउ, फिरहु न पाव- संसारू । देह मज्झिमुगुहु परमप्पा. जो कम्मह कम्मेधरणई करहि झारणानलु, देहमूमि मणु सहज सुद्ध मन निम्मलु किज्जइ, होइ न बाहिर माहें जगगुरु देखउ, सो रहियउ छह दंसण धंधइ पडि भूले, पुरिसु छाँह पिंडि न जोवउ रूव न पेखउ, पांथा ले ग वग्वाणउ । सुद्ध भाव मरइ वरु जीतउ ( ? ), इम जोवउ अप्पाराउ || १८ | पाती तोडि म पूजि रे मूढा देवलि देउ 'न' होई । देहा देवल वसइ सिउं विरला बूझइ कोइ ।। १९ ।। बहु न संकरु कन्हु न सोई तिसु न सकइ लखि कोई | गुरु पयासि मइ मग्गु पयासिउ सहजि सुपरगटु होई || २० || काया सोस अप्पा पोसउ पुव्वंगई वक्खाणउ । इन्द्रिय दण्डर रु तर मंडउ जिग-सासरण सबु जाउ || २१ || तित्थ य धावड पूज करावउ जिण तिन सीस चढावर | ary सरी कर वरण निवस अरु भावरण नित भावउ ।। २२ ।। जाम न परम बंभु परमप्पा सम भावरण अवलोयइ | " बोधसोमु " मुणिवरु इम जंपइ ताम न सिवपुरि पावइ || २३ || किसकर रावलु किसकउ देवल किसकउ इहु जगु धंधा । किसकी संपइ किसकी वाड़ी मूढ न जाइ अंधा ॥ २४ ॥ आदिनाथसुत गोरष (ख) मुझ गुरु तिन यहु कहिउ विचारू || चरचा गाव मो सिउ पावइ लहू पावइ भव पारू || २५ ||
खयकारू ।। १५ ।। पवणें । वागवणें ।। १६ । भरि पूरी ।
तहि दूरी || १७ ||
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कविवर लक्ष्मणा और जिनदत्तचरित
(लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
| रतीय साहित्यमें अपभ्रंश भाषा वंशमें उत्पन्न हुए थे । इस वंशके लिये ग्रंथमें
कितनी लोकप्रिय रही है यह उसके 'जायस' और 'जायव' जैसे शब्दोंका प्रयोग किया साहित्यके अध्ययनसे स्पष्ट जाना
हो गया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि इस वंशका
यादव अथवा यदुवंशसे भी कोई सम्बन्ध रहा है; जाता है । इस भाषामें विक्रम क्योंकि यादववंश प्रसिद्ध क्षत्रियवंश है जिसमें श्रीकृष्ण सं० १७०० तक ग्रंथ रचना होता रहा है। वतमानम श्रादि महापरुषोंने जन्म लिया है। यह हो सकता है अपभ्रंश भापाका साहित्य इसाकी सातवीं सदीसे कि दोनों वश एक हो और यह भी सम्भव है कि १७वी सदी तकका उपलब्ध है। यद्यपि इस भापामें
लेखकने ही 'स' को 'व' पढ़ा हो। कुछ भी हो, इस अधिकतर चरित, पुराण और कथा ग्रन्थोंकी ही
सम्बन्धमें खोज होने की जरूरत है। रचना की गई है, किन्तु रासा, स्तुति-पूजा विषयक साहित्य तथा आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक और कविने अपने पूर्वजोंका परिचय कराते हुए श्रीपदेशिक साहित्यकी भी कमी नहीं है जो मुमुक्षु लिखा है कि जायस अथवा जायववंशके नरनाथ जीवोंके लिये विशेष उपयोगी है। इस भापाकी कोसवाल थे जिनके यशरूपी रससे दिक चक्र मुद्रित सबसे बड़ी विशेषता उसका सहज
अथवा बंद हो गया था। यह कविके बाबा थे। इनकी जनताको अपनी ओर आकृष्ट करता है। चौपाई, पत्नीका नाम जिनमती था, उनके सात पुत्र थे, पड़िया, दोहा, घत्ता आदि छन्द भी इस भाषाकी अल्हण, गाहल, साहुल, सोहण, मइल्ल, रतन और खास देन हैं। जैन विद्वानोंने इस भाषाको खूब मदन । ये सातों ही पुत्र कामदेवके समान सुन्दर पल्लवित किया है और उसे जनताके हृदयका हार रूप वाले और महामति थे । इनमेंसे कवि लक्ष्मणके अथवा कण्ठका भूपण बनानेका प्रयत्न किया है। पिता श्री साहुल श्रेष्ठी थे। ये सातों भाई और कवि आज अनेकान्तके पाठकोंको विक्रमकी १३वीं शताब्दी लक्ष्मण अपने परिवार सहित पहले त्रिभुवन गिरि के एक ऐसे ही अपभ्रंश भाषाके चरित ग्रंथ और पर निवास करते थे। उस समय त्रिभूवनगिरि जन उसके कर्ताका परिचय दे रहा हूँ जो अब तक धनसे समृद्ध तथा वैभवसे युक्त था; परन्तु कुछ अप्रकाशित है।
समय बाद त्रिभुवन गरि विनष्ट होगया था--उसे प्रस्तुत ग्रन्थका नाम 'जिनदत्तचरिउ' अर्थात म्लेच्छाधिपने बलपूर्वक घेरा डालकर नष्ट भ्रष्ट कर जिनदत्तचरित है। इसमें अरुहदत्त (अहहत्त) श्रेष्ठी आत्मसात् कर लिया था। परन्तु प्रशस्तिपरसे यह के सुपुत्र जिनदत्त नामके एक सेठकी जीवन मालूम नहीं होता कि यह स्थान कहाँ था और किस किरणोंका परिचय कराया गया है । ग्रन्थमें छः म्लेच्छाधिपने वहाँ कब्जा किया था, उस समय सन्धियाँ हैं और वह चार हजार श्लोकों जितनी पद्य- संवत् क्या था और उससे पूर्व वहाँ किसका राज्य था संख्याको लिये हुए है। इस ग्रन्थके कर्ता कवि आदि। और न अन्यत्रसे ही इसका कोई समर्थन होता लक्ष्मण या लाग्खू हैं, जो जायस अथवा जैसवाल है। अस्तु, कविवर लक्ष्मण त्रिभुवन गरिसे भागकर
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किरण १८-११ ]
कविवर लक्ष्मण और जिनदत्तचरित
यत्र तत्र भ्रमण करते हुए विलरामपुरमें आय। यह तथा महाधवल और जयधवल नामके सिद्धान्त नगर आज भी अपने इसी नामसं एटा जिलेमें बसा ग्रन्थोंको भी न देखने वाला लिखा है। उन विद्वानोंहा है। उक्त त्रिभुवनगिरिके विनष्ट होनेकी यह के नाम इस प्रकार हैंघटना वि० सं० १२७५से पूर्वकी है, क्योंकि इस अकलङ्क, चतुर्मुख, कालिदाम, भीहर्प, वृत्तग्रन्थकी रचना विलरामपुरमें ही उक्त समय की गई विलास, द्रोण, वाण, ईशान, हरिस (हर्ष) पुष्पदन्त, है जब ग्रन्थकर्ता वहाँसे भागकर आये थे। इससे स्वयंभ, बाल्मीकि और सन्मति । जैसा कि उनके यह स्पष्ट है कि यह घटना सं० १२७०से १२७५के निम्न वाक्योंसे प्रकट है:मध्यमें किसी समय घटित हुई है। उस समय विलरामपुरमें सेठ विल्हणक पौत्र और जिनधरके पुत्र
निक्कलंकु. अकलंकु. चउमुहो, श्रीधर निवास करते थे। इन्होंने कविवरको स्थानादि
कालियासु सिरिहरिसकयसुहो । की सुविधा प्रदान की, और ये कविवरके परममित्र
वयविलासु कइवास असरिमु (?), बन गये। साह विल्हणका वंश पुरवाड था और श्रीधर उस वंशरूपी कमलाको विकसित करने वाले
दाणु वाणु ईसाणु सहरिसो । मृर्य थे। और इस तरह कविवर उनके प्रेम और पुप्पयंतु, मुसयंभु भलओ, महयोगसे मुग्ध पूर्वक रहने लगे।
बाल्मीउ सम्मइ रसिला ॥ ___एक दिन श्रीधरने अवसर पाकर कवि लक्ष्मणसे
प्रन्थकर्ताने ग्रन्थ पूर्ण करते हुए सबकी मङ्गलकहा कि हे कविवर तुम जिनदत्तचरितकी रचना
कामना की है और ग्रन्थको पढ़ने पढ़ाने, लिग्यनेकरा, तब कविने श्रीधर श्रेष्ठीकी प्रेरणा एवं अनुराधसे
लिखाने और देने दिलानकी भी प्रेरणा की है। जिनदत्तचरित बनाया, और उसे वि० सं० १९७५ के पृस वदी षष्ठी रविवार के दिन ममान किया, जैमा कि उसके निम्न वाक्यांस प्रकट है:--
( पृष्ठ ३६७ का शेष) घत्ता
मम्भव है कि पूरी कवितामें इन तीनसे अधिक बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कमकालु विइत्तउ।।
पा हां जिनमें तेरह पन्थियोंमें उक्त मभी तेरहों पढमपविख रविवारइछ ट्ठिसहारइ पूसमासे सम्मत्त॥ दोपांक होनका वर्णन एमी ही गन्दी और
ग्रन्थमें स्मृत पूर्ववर्ती कविगण अशिष्ट भाषा में किया गया हो। उपरलिखित कवि लक्ष्मणने अपने इस ग्रन्थकी श्राद्य प्रशस्तिके भट्टारकीय पद्य शुद्धाम्नायियोंके 'गतदिन तेरह वें कडवकके बाद निम्न विद्वानोंका स्मरण किया है पन्थमें रत' रहनकी जो बात कही है उमका itr माथ दी. अपनी लघता व्यक्त करते हए. श्राशय भी मंकेतरूपमें यही प्रतीत होता है कि अपनेको धातु, लिङ्ग, कारक, कर्म, समाम, सन्धि, व काठिया नामक तेरह दोषीमें ही गत दिन छन्द, व्याकरण शादिसे भी अनभिज्ञ बतलाया है लीन रहते है।
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कविवर बनारसीदास और उनके अन्धोंकी
हस्तलिखित प्रतियाँ
[ मुनि कान्तिसागर
त्रहवीं शताब्दी के ग्रन्थ-प्रणेताओं और साधनाके बलपर आत्म-तत्त्वके निगूढ़तम रहस्यको HATI दार्शनिक विद्वानोंमें आगराके कविवर पहचाननेके प्रयासमें भी सदैव दत्तचित्त रहते थे।
बनारसीदासजीका स्थान अत्यन्त उच्च एवं वे केवल भौतिक जौहरी ही नहीं थे, वरन् आध्या
'कई दृष्टियोंस महत्त्वपूर्ण है। आपने त्मिक दृष्टिकोणसे आत्मिक सुखके तत्त्वको भी हिन्दी-भाषामें दार्शनिक साहित्य, मौलिक रचनाएँ पहचानते थे । यदि उनके बृहत्तर एवं लघुत्तम तथा अनुवाद-कार्यकर, तत्कालीन सामाजिक, ऐति- ग्रन्थोंका मार्मिक अध्ययन-मनन किया जाय, तो हासिक और सांस्कृतिक परिस्थितियोंका यथार्थ तत्कालीन मानव-समाजकी उच्चताका एक प्रखर चित्रण कर, हिन्दी-भाषाके माहित्यिक भण्डारको ही आलोक हमें मिलेगा । तत्कालीन मानव-समाज केवल पुष्ट नहीं किया, वरन आध्यात्मिक चिन्तनकी केवल भौतिक साधनोंके पीछे ही जीवन नहीं गंवाता अपूर्व सामग्री भी प्रदान की है, जैसाकि इनके गंभीर था, वरन् उसने शान्तिके वास्तविक प्रशस्त पथ पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ-रलोक परिशीलनसे ज्ञात होता खोज भी की थी। कविवर बनारसीदासजीने भी है । मार्ग शुक्ला एकादशी, शनिवार, विक्रम संवत अपनी एक ऐसी मण्डली बना रखी थी, जिसके १६४३ को आपने ऐतिहासिक कुल-श्रीमाल कुल में सदस्यों के नाम 'अर्द्ध-कथानक', 'समयसार' आदि शरीर धारण किया । इम कुलने भारतीय वाङ्मयकी ग्रन्थों में बड़े आदरके माथ उल्लिग्वित हैं । बनारसीविभिन्न शाखाओंके ज्ञान-भण्डारको परिपुष्ट करने दासजोने अपनी जीवन-यात्राम कई सुखद एवं वाले एव उसके गौरवको उच्च स्थान प्रदान करनेवाले दुखद अनुभूतियोंका प्रत्यक्षीकरण किया था। उनका अनेक विद्वद्रत्न उत्पन्न किए हैं, जिनमें अनेक जीवन एक आदर्श साधककी भांति शुद्ध था । भीषण विपयोंके ज्ञाता कवि आसड और अलाउद्दीन आपत्तियोंके पड़नेपर भी उन्होंने पीछे कदम नहीं खिजलीके मन्त्री ठक्कुर फेक एवं साहित्य, सङ्गीत, लौटाया, बल्कि उनको धैर्यपूर्वक सहन किया और कला आदि विभिन्न विषयोंक मर्मज्ञ विद्वान मन्त्रीश्वर अभिलषित कार्यमें उन्हें साधक बनाया। बड़ी-बड़ी मण्डन आदि प्रमुख हैं । भारतीय माहित्यकं कठिनाइयाँ उन्हें अपने कर्तव्य-पथसे विचलित नहीं श्रध्ययनस ज्ञात होता है कि इम वशके अधिकतर कर सकी । मंसारमें एक नियम देखा जाता है कि लाग रत्नों और मांग क्याको पहचाननम निपुण मान जब कभी नई विचारधाराका श्रागमन होता हैजाते थे। इसी कलाके बलपर राजसभाओंमें इनका भले इसके बीज परम्पगमें ही क्यों न अन्तनिहित बड़ा अादरणीय स्थान था। वर्तमान समयमें भी हों-तब धर्म एवं समाजमें खलबली मचना इम कुलमं परम्परागत कार्यको निभाया जा रहा है। स्वाभाविक है। कविवरपर यह बात सोलहों आने ___ बनारसीदासजी अपने कुल-परम्परागत कार्यमें चरितार्थ होती है, जैसा कि तत्कालीन समालोचकों तो कुशल थे ही; पर साथ ही अपनी आध्यात्मिक द्वारा निर्मित ग्रन्थोंसे विदित है। जैन धर्मावलम्बी
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किरण १०-११ ]
कविवर बनारसीदास और उनके ग्रन्थोंकी हस्तलिखित प्रतियाँ
४०३
होनेपर भी फवि बनारसीदासजीका क्षेत्र असीम दिया जा रहा है, जिनका निरीक्षण लेखकने स्वयं था। उनके साहित्यकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह किया है :-- है कि मानव-मात्र अपनी प्यास उनके आध्यात्मिक १-नाटक समयसार (१०' x ४"), पत्र संख्या संस्कृति-प्रवाहसे बुझा सकता है । साहित्य यदि ४२, पंक्ति १७, अक्षर ४७ । "इति श्री (प) रमागम
आत्म-कर्तव्यच्यूत मानबोंके धरातलको उच्च स्थान समैसारनाटक सिद्धान्त समाप्तं सम्पूर्णम ॥श्रीरस्तु।। प्रदान करनेमें सहायक नहीं होता, तो वह अपनी कल्याणमस्तु ॥ संवत् १७१७ वर्षे शाके १५८२ साहित्य संज्ञा ही खो बैठता है । कविवरने साहित्य- प्रर्वतमान अश्विन मासै कृष्ण पक्षे सप्तम्याम पुण्य के इस रूप पर विशेष तौरस ध्यान दिया है। हिन्दी- तिथौ शनिवामरे श्रीमचन्दगच्ले भटारिक श्री १०८ साहित्यका यह दभोग्य है कि कविवर बनारसीदास- शान्तिसरि विजैराज्य: ॥ श्रीयंमयात || श्रीमच्चं० जीका उचित आदर नहीं हो सका। हमारे चरित- पण्डित प्रवर गणि गजेन्द्र श्री श्री श्री श्री श्री श्री १०८ नायकने भारतीय दर्शनकी उच्चतम विचारधाराका
वम्तपालजी तत्मिक्ष (शिष्य) ऋष सदारङ्ग लिखितं प्रवाह तत्कालीन लोकभाषामें प्रवाहित कर संस्कृतान- श्री उदयपर मध्ये लिपित्वा ।। गुरु श्री वस्तपालजी भिज्ञ मानव-समाजको वास्तविक ज्ञान करानेका
प्रमादा ।। श्रीयंभूयात ।' प्रस्तुत प्रति ग्रन्थ-निर्माणके अनकरणीय प्रयास किया। कविवरने आप्त पुरुषा ४ वर्ष बाद लिखी गई है। अतः पाठोंकी दृष्टिसे द्वारा निर्मित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि आय शुद्ध और महत्वपूर्ण है । इसमें छन्द संख्या ७१८ दी भाषाओंके आप ग्रन्थोंको जनसाधारणकं लाभाथ गई है। यद्यपि उपर्युक्त ग्रन्थ बनारसीदासजीकी लोकभापामें प्रस्तुत किए एवं अपनी मौलिक विचार- रचना नहीं है. अपित श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-निमित धाराको लिपिबद्ध कर साढ़े चार दर्जनसे ऊपर ग्रन्थ 'समयपाहट तदपरि अमृतचन्द्राचार्य कृत आत्मख्याति निर्मित किए, जो हिन्दी-भापाकं भण्डारको
वृत्ति' एवं गजमल्लकृत बालावबोध' इन तीनोंको गौरवान्वित कर रहे हैं।
हृदयङ्गम करने के बाद इसे दोहा-सोरठा-अडिल्ल आदि बनारसीदासजीके ग्रन्थोंका प्रचार थोड़े समयमें
डि समयम हिन्दीके सुप्रसिद्ध छन्दों में लिखा है, तथापि कविवरने ही भारतके विभिन्न प्रान्ताम हो चुका था। यह अपना जो पाण्डित्य इस रचनामें व्यक्त किया है, वह उनकी लोकप्रियताका बहुत बड़ा प्रमाण
अपूर्व है । अतः मामान्यतया यह ज्ञात नहीं होता कि प्रतियाँ पाठ-भेद और तात्कालिक भापा-विज्ञानक ।
यह अनुवाद है । इसकी रचना शाहजहाँके समयमें गौलिक स्वरूपको समझनेमें बहुत सहायक होंगी।
आश्विन सुदि १३, सं० १६९३को आगरामें हुई । जिम कविके अस्तित्त्व-समयके बहुत वषों बादकी।
प्रस्तुत प्रति बद्रीदाम म्यूजियम कलकत्तामें सुरक्षित है। लिखित प्रतियोंमें यदि भाषा-विषयक विकृतियाँ दृध्रिगोचर हो, तो उनके मूल रूपको भापा-विज्ञानकी इस वृत्तिकी एक प्रति रॉयल एशियाटिक सोमाइटी, दृष्टिसे समझना कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव भी बंगाल, कलकत्ता (ग्र० सं० १५००) सुरक्षित है । है। लोक-साहित्य जनताका साहित्य है। अतः जो इसमें लेग्वन-काल सूचक संवत्का लेख तो नहीं है, फिर कृतियाँ जिन प्रान्तोंमें प्रचलित होंगी, उनपर प्रान्तीय
भी लिपिसे अनुमान किया जासकता है कि इसका लेखन भाषाओंका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता, ममय १७वीं शताब्दीके बादका नहीं होमकता। इसमें जैसा कि मीरा, तुलसी, कबीर, दादू, नरसी, बहुनसे महत्वपूर्ण विषयोपर जो नोटम दिये हैं, वे बड़े विद्यापति आदिकी प्रचलित रचनाओंसे स्पष्ट है। मूल्यवान हानेके साथ-साथ ज्ञानवद्धक भी हैं। विद्वानोंको प्रस्तुत प्रबन्धमें बनारसीदासजोकं निमित समस्त चाहिए कि वे ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थोंका सम्पादन करके प्रन्थोंकी उन प्रतियोंका अति संक्षिप्त परिचय नीचे अवश्य ही उपयोग करें।
-लेखक
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४०४
अनेकान्त
२ - समयसार (१०" × ४"), पत्र ६७, पंक्ति १३, अक्षर ४५ । “मंवत् १७४० वर्षे फाल्गुन मासे कृष्ण पक्ष द्वादशी तिथौ लिखितम् शास्त्रम् ॥" इस प्रतिमें प्रत्येक द्वारकी इस प्रकारकी गाथाओं की सूची दी गई है । प्रथम द्वार - गाथा ८६: द्वितीय ३४; तृतीय ३४; चतुर्थ १६ प १५ षष्ठ ११: सप्तम ६० अम ५८; नवम ५४; दशम १२७: एकादश ४१; द्वादश ५३;
गुनस्थानं १५६ | लिपि अतीव सुन्दर होनेसे सुपाठ्य है । यह प्रति हमारे पास है ।
३- समयसार (१०' x ४”), पत्र ४५, पंक्ति १५, ताकै शिष्य दयासिंघ गणि गुगावन्त मेरे अक्षर ५३ | "श्रीनाटक समैमार सम्पूर्णम् मंत्रन
१८६९ प्रथम वशाख द्वादश्यां गुरौ दिने पूर्णी कृतम् लिखित जिनदत्तर्षिणा नजीबाबाद नगरे ।" यह प्रति ताकौ परसाद पाइ रूपचन्द आनन्दसौं बङ्गालकी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ( प्रन्थ- संख्या ६८४५) में सुरक्षित है। इसकी लिपि साधारण है ।
४ - समयमार (१०||" x ७), पत्र ५९, पंक्ति २५, " इतिश्री नाटक समयसार सिद्धान्त सम्पूणम । माह मेघराजजी पठनार्थम ।।" यह प्रति भी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ( ग्रन्थ संख्या ६७०१ ) में सुरक्षित है। इस प्रतिमें यद्यपि लेखन-संवत-सूचक उल्लेख नहीं है, पर अनुमानसे मालूम होता है कि यह अठारहवीं सदी के बादकी नहीं हो सकती ।
[ वर्ष ८
जो पैं यहु भाषा ग्रंथ सबद सुबोध याकौ
तौहू बिनु सम्प्रदाय नावे तत्व स मैं, यातें ज्ञान लाभ जानि संतनिका वैन
मांनि वातरूप ग्रंथ लिप्यौ महाशांतरस मैं ॥ १ ॥ खरतरगच्छ नाथ विद्यमान भट्टारक
जिन भक्तिसूरिजू के धर्मराजधुर मैं, षेमसाप मांझि जिनहर्षजू वैरागी कवि
शिष्य सुखवर्द्धन शिरोमनि सुधर मैं,
धरम आचारिज विख्यात श्रुतघर मैं ;
पुस्तक बनायौ यह सोनगिरिपुर मैं ||२|| मोदी थापि महाराज जाकौं सनमांन दीन्हों
फतैचन्द्र पृथ्वीराज पुत्र नथमालके, फतैचन्दजूके पुत्र जसरूप जगन्नाथ
गोत गनधर मैं धरैया शुभचालके, तामें जगन्नाथजूके बूझिक हेतु हम
यौरिके सुगम कीन्हें वचन दयाल के यांचत पढ़त अब आनन्द सदा एकरौ
संगि ताराचन्द अरु रूपचन्द्र बालके ॥ ३ ॥ दोहा देशी भाषा को कहौं, अरथ विपर्यय कीन । ताकौ मिच्छा टुक्कडुं, सिद्ध साखि हम दीन ||४||
५- समयसार टीका (९|||" × ४||"), मूल--- बनारसीदास, टीकाकार रूपचन्द्र, पृष्ठ १४३, पंक्ति १५, अक्षर ४६ । आदि
दोधक श्री जिन बचन समुद्रकौं, कौं लगि होई बखान | रूपचन्द तौहू लिखै, अपनी मति अनुमान | अन्त भाग- सवैया
|| श्री ग्रन्थः सम्पूर्णः ॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥
नन्दवहादुत्सरे विक्रमस्य च । पौपे सितेतर पचमी तिथौ । धरणीसुत वासरे । श्रीशुद्धि
पृथ्वीपति विक्रमके राजमरजाद लीन्हें
सत्रह बीते परिवांनुआ वरस मैं, दन्तीपत्तनं । श्रीमति विजयसिंहाख्यसुराज्ये । बृहतखरतरगणे । निखिल शास्त्रौघपारगामिनो महीयांसः आसूमास आदि द्यौं सु सम्पूरन ग्रंथ किन्हौ श्री क्षेमकीर्तिशाखोद्ववाः । पाठकोत्तमपाठकः । वारतिक करि उदार वा रससि मैं, श्रीमद्रूपचन्द्रजिद्गण तच्छिष्य । पं० विद्याशाल मुनि
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किरण १०.११]
कविवा बनारमीदास और उनके ग्रन्थोंकी हस्तलिखित प्रतियाँ
ना...
नच्छिष्य गजसार मुनिस्समयसार नाटक ग्रन्थ ही आत्मतत्वचिन्तक मनुष्योंकी एक मण्डली भी लिखित श्रीमद् गवड़ीपुराधीश प्रसादात्भावकं होगी, जिनकी आध्यात्मिक क्षुधा-पृतिक फल-म्वरूप भूयात्पाठकानां श्रोतृणां छात्राणां शश्वत् । श्रीरस्तु ।। ही रूपचन्द्र द्वारा प्रस्तुत वृत्ति निमित हुई हो, तो ___ यह प्रति अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसके रचयिता कोई आश्चर्य नहीं । अठारहवीं शताब्दीमें माम्प्रदायिक श्वेताम्बर जैन होनेके कारण मूल ग्रन्थमें जहाँ कहीं संगठन कितना बढ़ा चढ़ा था, रूपचन्द्रकी यह टीका भी धार्मिक और साम्प्रदायिक मतभेदोंका उल्लेख इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस टीकाकी विद्वत्ताहै, उन उल्लेखोंको उभय सम्प्रदायोंके भिन्न-भिन्न पूर्ण शैलीकं विषयमें इतना ही लिखना है कि इसके मतभेदोंका वर्णन करते हुए समन्वयात्मक ढङ्गसे गृढ मननके बिना बनारसीदासजीकी उनात्त विचारकाम लिया गया है । इसीसे रूपचन्द्रकी गहनतम धागको हृदयङ्गम करना असम्भव नहीं तो काटन विचारशैलीका आभास मिलता है । इमकी प्रनियाँ अवश्य है । मूल प्रति लेग्वक मंग्राम है। कम मिलती हैं । दिगम्बर जैन ग्रन्थोंपर उपलब्ध ६ बनारसी-विलास (पत्र ६९, पंक्ति १४, होने वाली श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा रचित हिन्दी टीकाओंमें इसका स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। इसके
__ अक्षर ४५)
मवैया लखक गजमार मुनि रूपचन्द्रक प्रशिष्य है। __ हालहीमें प्रकाशित 'अर्द्धकथानक परिशिप्रमं प्रथम सहप्रनाम सिंदरप्रकरधाम श्रीनाथरामजी प्रेमीनं 'ममयसार' के टीकाकार
बांनारसी सवैया बदनिनायपंचासिका म.पचन्द्रकं विषयमें भीमसिंह माणिक द्वारा प्रकाशित साटिशिलाका मारगना कर्मकीप्रकृति अनुवादकं आधारपर लिखा है-"ममयमारकी यह
साधुवन्दन
सुवासिका रूपचन्द्रकृत टीका अभी तक हमने नहीं देवी, परन्तु
पैटी कर्मकीछतीसी पछि ध्यानकी हमारा अनुमान है कि यह बनारमीदासके माथी रूपचन्द्रकी होगी, गुरु रूपचन्द्र नहीं ।” (पृष्ठ ७९) बतीसी अध्यात्म छतीसी पचीसीज्ञानरासिका प्रमीजीका यह कथन भ्रमपूर्ण है, क्योंकि ये रूपचन्द्र शि कीपचीसी भवसिन्धुकी चतुहमी न बनारसीदासजीक साथी हैं, न गुरु ही। ये तो अध्यातमफाग तिथि षोडस नियासिका ॥१॥ खरतरगच्छानुयायी श्रीजिनभक्तमूरिजीके विजयराजमें विचरण करते हुए जिन-हर्प-शिष्य सम्बवर्धन उनके तरः काठीया मेरे मनका सुप्पारागीत शिप्य दयामिह और उनके शिष्य पं० रूपचन्द्र थे, पंचपद विधान सुमतिदवी सन हैं जिन्होंने विक्रम संवत १७९२ आश्विन कृष्ण प्रतिपदा सारदा बड़ाई नवदर्गा निरनै पनाम । रविवारको मोनगिरिम मोदी जगन्नाथके ज्ञानवृद्धयर्थ
नौरतन कवित्त मु पूजा दानदत है. इसका निर्माण किया । इसमें वहाँक राजा द्वारा
दस बाल पहेली प्रसन्न उत्तरकी माला मांदी-पदपर स्थापित फतहचन्द, पृथ्वीराज, नथमल जसरूप, जगन्नाथ आदिके जो नाम आए हैं, वे
आस्थाम तांत दोहा दर्शा बरगत है ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। बुन्देलखण्डमें अजितकं छन्द सान्तिनाथ छन्द सेना उच्च गृहस्थको राजद्वारा पद दिया जाता था । नवनाटिक कवित्त च्यारि मिथ्या मत है ॥२॥ मालूम होता है कि बनारसीदास द्वारा प्रचाग्नि ।
आध्यात्मिक मतानुयायियोंकी संख्या सोनगिरि पटक सबैया बनाए वचनगारम्बकं वेद (ग्वालियर)में अवश्य ही अधिक रही होगी। साथ
आदि भेद परमारथ बचनिका
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उपादाननिमित्तकी चीठी इनहींके दोहे
सिथल बन्ध जल तेलतेः, अरु मूरिष करसारः भैरूँ रामकली और बिलावल गचनिका पगिडत सो पुस्तक कहै:, इनसे रापु विचार ॥६॥ श्रासाउरी बरच धन्यासिरी सारंग गोरी
जैसे देख्यो मै ग्रन्थ मैंः, तैसो लिग्यो बनाय काफी ओर हिंडोलनां मलार यो मचनिका जे समुकेंगे ग्रन्थ मैंः, तिन्हकुं अति सुखदाय ॥७॥ पर उदोत करो भन्यनिकै हिरदै मैं बरधों
॥ श्रीरक्त ॥ कल्यांगामस्तु ।। शुभं भवतु ॥श्री।। बनारसीबिलास की रचनिका ॥३॥ यापि बनारसी-विलास, कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ दोहग
नहीं है, पर कविवरके स्वर्गवासके ठीक २५ दिनके ए बरने संपप सो, नाम भदे बिरतन्त । पश्चात उनकी वाणीके परम भक्त श्रीजगवीवनजीने इन्ह मैं गर्भित भेद बहू, तिनकी कथा अनन्त || वि० सं० १७०१ चैत्र सुदि ७ को सब रचनाओंको
एकत्रितकर इस नामसे घोषित किया है । प्रस्तुत महिमा जिनके वचनकी, कहीं कहां लों कोय।।
प्रतिमें आदि भागमें संगृहीत मभी ग्रन्थोंकी विस्तृत ज्यों-ज्यों मत विम्तारिये, त्यों-त्यो अधिकी होय ॥ सूची सवैयों में दी गई है। ये मवैये भी अनुमानतः
अन्त भाग--"इति श्री बनारसीदास कृत जगजीवनजीक ही बनाये हुए हांगे, क्योंकि बनारमीबनारमी-विलाम भाषा सम्पूर्ण ।। संवत् १७३८ वर्ष दास जैसे मार्मिक कवि इतने भ्रष्ट पद्योंकी रचना कार्तिक मासे शुक्ल पक्ष तिथि अष्टम्यां कर्मवाट्यां तो कदापि न करते। जिम प्रतिका परिचय यहाँ मोमवामरे लिखितोयं ग्रन्थ ममाप्तति समापोयं ग्रन्थ दिया जा रहा है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण और पाठों श्रीरामपुरा मध्ये भट्टार्काधिराज भट्टाक श्री पूज्य १०८ की दृष्टिस अध्ययनकी वस्तु है । इमकी नकल कीर्तिसागरसूरिन्द्रजी मुप्रसादता लिखितं गिप दिगम्बर मम्प्रदायक ही पण्डित द्वारा ग्रन्थ-संग्रहक दीपचन्द । शुभं भवतु श्रीरस्तु ।। कल्याणमस्तु ।" ठीक ३७ वर्ष बाद हुई है। प्रति बड़ी सुन्दर और
लिपि स्पष्ट तथा आकर्षक है । आदि और अन्त जलाद्रक्षे तैलाद्रक्षः, रक्ष सिथन बंधगातः
के पत्रोंपर सुन्दर नथा विभिन्न प्रकारके बेल-बृटे बने परहस्ते न दातव्यः, एवं बदति पुस्तिका ॥१॥ हुए हैं, जो इसके मौन्दर्यमें वृद्धि करते हैं। मालूम संबत सत्रहसै वरपः, अटतीसा परमानः । होता है कि यह प्रति किसीकी म्वाध्याय-पुस्तिका रही
है होगी, जैमाकि इसके चारों ओरके घिसे हुए पत्रोंसे कार्तिक शुदि तिथि अष्टमी, निसिपतिवार बखानि ॥२॥
विदित होता है। कहीं-कहींपर पाठ शुद्धि भी कर ना दिन यह पूरन भया, बानारसीबिलास दी है । मूल प्रति हमारे संग्रहमें है। मुनत श्रवन सुख उपजै, उपजै मन उल्लास ॥३॥
७-बनारमी-विलास (पत्र १०१;गुटका माइज़)आतम संमभावन कथा, करी बनारसीदास "संवत १७४१ वर्षे शाके १६०६ प्रवर्त्तमाने चैत्र मासे अध्यातम सेली प्रवीना, समझ नहीं विलास सित पक्ष प्रतिपदा तिथौ प्रहर्षण वामरे श्रीमतो रामपुराबरपुरन मैं लिग्वि, पूरन कीय चन्दः श्री म्तम्भतीर्थ सुतीर्थे (खम्बात बिन्दर) लिग्वितमिदं नाटिक सुनत बनारसी, होत अनन्द अनन्द ॥४॥ पुस्तकं ।। चिरंनन्दतु यावचन्द्राक्क मिति भद्रं भवतु ।। अति आनन्द विनोद में : पूरन कीनो ग्रन्थ यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा, तादृशं लिखितं मया सहअतीन संग्व्या सबैः, परमागम की पन्थ ॥५॥ यदि शुद्धम-शुद्धंवा मम दोषो न दीयते ॥१॥
दाहग
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किरण १० ११ ]
महाकवि बनारसीदास और उनके ग्रन्थोंकी हम्नलिखित प्रतियाँ
भन्न पृष्टिकटिग्रीवा बद्धमुष्टिरघो मुखम् हैं, जो प्रेमीजी-जैसे विद्वानके लिये क्षम्य नहीं । कप्टन लिखितं शास्त्रं. यत्नेन परिपालयेत ॥२॥ उदाहरणार्थ, प्रेमीजीने लिखा है-"हीरानन्द मकिम.
ये ओसवाल जैन और जगत सेठके वंशज थे" इसमें भी बनारसीदासजीके समस्त ग्रंथोंका (पृ.८२)। हीरानन्दको जगतसेठका वंशज लिखना सङ्कलन है। इस प्रतिमें 'समयसार' नाटक भी लिखा किसी भी दृधिसे उचित नहीं। न कोई ऐसा प्रमाण गया है। इसकी लिपि बड़ी सुन्दर और मोड़पर ही मिलता है, जो इन्हें जगतसेठका वंशज प्रमाणित गजरातीका स्पष्ट प्रभाव है, जो स्वाभाविक ही है, कर सके। आज तक प्रकाशित सभी ऐतिहासिक क्योंकि गुजरात देशम खम्भातम यह लिखी गई है। एतद्विषयक साधनासं भलीभाँति मिद्ध किया जाचका इमसे यह भी मालूम होता है कि गुजरातम भी है कि हीरानन्दके पौत्र और माणिकचन्दके पत्र बनारसीदासजीके मतका प्रचार ग्वब जागेपर रहा फतहचन्दको दिल्लीक बादशाहने जगतसंठकी उत्तम होगा । मुल गुटका कलकत्ताके विख्यात नाहर- पदवीस विभूषित किया। हमसे तो हीरानन्द जगतमंग्रहालयम मुरक्षित है । इसकी दो प्रतियाँ रॉयल संठकं वशज न होकर पूर्वज हए, जो यथार्थ है। हम एशियाटिक सोसाइटी और ९६ केनिङ्ग स्ट्रीट, अभी हाल ही में एक एसा एतिहासिक पा मिला है, कलकत्ता-स्थित जैन-संग्रहालयमं भी विद्यमान है। जिसमें जगतसंठकी माता और जगतसंठका इतिहास पर हमने उनका निरीक्षण नहीं किया।
वर्णिन है । इसे निहाल नामक एक जैन यतिने, जो ८-अद्ध कथानक (१." . ६|" इञ्च)- "इति इनके माथ बहुत वर्षों तक रहा था, पौष कृष्णा श्रीअद्धकथानक अधिकार सम्पूर्ण ।। श्रीबनारसीदास त्रयोदशी वि० सं०१७५८को मक्सदाबादमें लिखा। जी कृतिरियं । शोक मख्या एक १००० ।। श्रीस्ताल्लेखक इममें जगतमंट-विपयक उल्लेग्व इस प्रकार है:पाठकोम्मदा ।। कल्याण भवतु॥" भारतीय महिन्य देश बंगाल उत्तम दंश, आप मागिाकचन्द नरेश में, और ग्वामकर हिन्दी-भापाके मध्यकालीन माहित्य में 'अर्द्धकथानक' बहुत ही मूल्यवान कति मानी जाती नाग नगर मकसूदाबाद, कर काटी कीनों आबाद।। है। जैनोंकी यह हिन्दी-साहित्यको सबसे बड़ी दन गजा प्रजा अर उमरा प, फोजदार मृबा निवाब कहा जाय, तो अनुचित न होगा। इसका प्रकाशन सहकामाने हुकुमममांगा, दिल्ली पनि अति सनमान ।१० डा० माताप्रमादजी गुप्त और श्रीनाथूरामजी द्वारा पातम्याह श्री फरक साह, संट पदस्थ दीया उछाह हुआ है । इसकी एक प्रति रॉयल एशियाटिक मोमाइटीक मंग्रहालयमें (ग्रन्थ मंख्या ७१७६) सुरक्षित मा"
माणिकचन्द सटन नाम, फिरी दुहाई ठांमोटांम ।११ है। आश्चर्य तो इस बातका है कि उपर्यक्त दोनों देश बंगाला कग चगी. दिन-दिन संतति सम्पति धी मंम्कर गोंक मम्पादक महोदयोंन इसका उपयोग न जाके पत्र मुन्द्रि समान. प्रगटै फतचन्द म ग्यांन ।१२ जाने क्यों नहीं किया। यह प्रति गुटकाकार है। दिली जाय दिलीपति भट, नाम किताब दिया जगसेट लेग्वन-काल-सूचक संवन इसमें भी नहीं है, तथापि
१३ लिपिके आधारपर निश्चित रूपसे कहा जा सकता है जगतगट जगान अवतार, कि यह १९वीं शताब्दीकी होनी चाहिए । प्रति बड़ी इस उल्लेग्यम स्पष्ट प्रकट है कि फतै चन्द ही, जो सुन्दर है।
हीरानन्दकं वंशज थे, प्रथम जगतशेठ थे । वि. मं० श्रीनाथूरामजी प्रेमी द्वाग प्रकाशित ग्रन्थ बडा १८९० की रघुनाथ द्वाग निमित लौकागच्छीय सुन्दर और परिशिष्टादिस इतिहामके अभ्यासियोंके पदावलीसे जाना जाता है कि दिल्लीके बादशाहने लिये तो अपूर्व होगया है । पर इसमें कुछ भूलें ऐसी हीगनन्दको शंठकी उपाधि दी थी, जगनशेठकी
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नहीं । यह आमतौर से देखा जाता है कि राजामहाराजा बड़े धनी गृहस्थोंको शेठकी पदवी दे दिया करते थे ।
इस प्रकार बनारसीदासजी - निर्मित ग्रन्थ जैन ज्ञान-भण्डारोंमें बहुतायत से प्राप्त होते हैं, क्योंकि किसी भी सम्प्रदायका तत्त्वेच्छुक इनसे बहुत लाभ उठा सकता है। यदि उन और प्रस्तुत निबन्धमें उल्लिखित आदर्श प्रतियों के आधारपर सम्पूर्ण बनारसीग्रन्थावलीका वैज्ञानिक ढङ्गसे सम्पादन किया जाय, तो हिन्दी भाषाका मुख उज्ज्वल हुए बिना न रहेगा । यद्यपि श्री नाथूरामजी प्रेमीने बहुत वर्ष पूर्व ' बनारसी - विलास' का प्रकाशन किया था,
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पर अब तो उसका मिलना ही असम्भव हो गया है। हमें आशा है, जैन समाज अपने इस अद्वितीय महाकवि और आध्यात्मिक संस्कृति के रक्षकके द्वारा निर्मित समस्त ग्रन्थोंका विस्तृत भूमिका सहित उत्तम संस्करण प्रकाशित करेगा ।
हिन्दी के बहुसंख्यक उत्कृष्ट कवियों द्वारा निर्मित विभिन्न कविताओं की प्राचीन प्रतियाँ पुराने ज्ञानभण्डारोंमें प्राप्त होती हैं; उन सभीका अध्ययनकर इस प्रकार प्रकाश डाला जाना अत्यावश्यक है । इनका महत्व भाषा - विज्ञान की दृष्टिसे बहुत बड़ा है । अस्तु । - विशाल भारतमे उद्धत
रक्षा बंधनका प्रारम्भ
( लेखक - पं० बालचन्द्र जैन, साहित्यशास्त्री, बी० ए०, विशारद )
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लका-सी श्रवन्तीपुरी अरुणोदयके साथ ही तरुण हो गई । शयनकक्षमे निकलते ही राजा श्रीवर्माको उपवनके मालीने झुककर महाराजकी जय' कहकर अभिवादन किया । विविध पुष्पफलादि भेंटकर उसने निवेदन किया | महाराज ! सातमौ दिगम्बर मुनियोंके साथ आचार्य अकम्पन नगरके उपवन में पधारे हैं। राजाके हर्षका ठिकाना न रहा, 'साधु-सन्तोंके दर्शन सौभाग्य से ही मिलते हैं' आज्ञा दी - मन्त्रिको भी इसकी सूचना दो और निवेदन करो कि मैं साधुयोंके दर्शनकर सुख-लाभ करूंगा । माली 'जो यज्ञ।' कहकर चल दिया ।
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मन्त्रियोंने जब यह आज्ञा सुनी तो सन्न रह गए । 'नग्न मुनियोंके दर्शन ! नहीं, यह तो महापाप
है' 'घृणा और विवशता के विषम थपेड़ों में बेचारोंकी दुर्गात हो गई। उन्हें कोई अवलम्ब ही न सृता था जिसके सहारे इस महापापकी नदीके विकट प्रवाह में बहने से अपने को बचा सकें । आखिर क्या करते, गजाज्ञा ही तो ठहरी । 'पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं' हाथ बाँधे दौड़े आए।
'आप उन नंगोंके दर्शन करने जायेंगे महाराज !" प्रधानसचिव बलिने नाक-भौं सिकोड़ी। 'हां मन्त्रिमहोदय ! माधु कभी प्रदर्शनीय नहीं होते' राजाने सरल उत्तर दिया । 'पर वे तो नङ्ग-धड़ङ्ग रहते हैं महाराज ! निरे निर्लज्ज हैं, वे साधु कैसे हो सकते हैं ?' दूसरे मन्त्रीने आपत्ति की । मन्त्री के ये वाक्य राजाको अनुचित ऊँचे पर इसे प्रकट न करते हुए उसने शान्त स्वर में इसका उत्तर दिया 'नङ्गा वही रह सकता है जिसके मनोविकार प्रशान्त हो चुके हैं, जिसकी दृढ़ इच्छा शक्ति के सन्मुख वे टिक नहीं
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किरण १०-११ ]
सके और भाग खड़े हैं। क्या आप बतला सकते हैं कि बालक नग्न रहने पर भी किसीके मनमें विकार क्यों नहीं उत्पन्न करता ? इसलिए कि वह स्वयं निर्विकार है । एक पागलको नग्न देखकर आपके मनमें कामोत्तेजना क्यों नहीं होती ? इसलिए कि उसकी कामाभिलाषा नष्ट हो चुकी है। नङ्गा रहना सरल काम नहीं है मन्त्री महोदय ! यह बिरले योगियोंसे ही साध्य है। हमें ऐसे योगियोंके दर्शन अवश्य करना चाहिए ।"
'पर यह तो आपके धर्मके विरुद्ध है महाराज !" अन्य किसी तर्कके अभाव में बलिने धर्म की दुहाई दी । 'राजाका कोई धर्म नहीं होता मन्त्री महोदय ! प्रजाका धर्म राजाका धर्म है । मेरा वही धर्म जो मेरी प्रजाका है, मैं हर धर्म और हर जातिका संरक्षक है' राजाने मगर्व उत्तर दिया । राजाके इस दृढ़ उत्तरने मन्त्रियोंको निरुत्तर कर दिया। वे चुप खड़े एक दूसरे की ओर निहार ही रहे थे कि राजाने फिर कहा 'कुछ भी हो, आप लोगोंको मेरे साथ 'चलना होगा ।' और वह स्वयं चल दिया । मन्त्री भी अपना सा मुँह लिए राजाके पीछे पीछे चल दिए ।
रक्षाबन्धनका प्रारम्भ
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उपवनका सुहावना और शान्त वातावरण किसी भी सहृदय के मनको मोह सकता है। पशुगण जहाँ निर्द्वन्द्व यथेच्छ विचरण कर रहे हो, पक्षी जहाँ मधुस्वर में प्रेमालाप कर रहे हो, सरोवरांमं मछलियां निर्भय किलोल कर रही हो, स्नेह और वात्सल्यकी जहाँ धारा बह रही हो, द्वेष और ईपा जहाँ दृष्टिगोचर तो क्या कर्णगोचर भी न होते हो, ऐसे स्थान में यदि आप पहुँच जाएँ तो आपका चित्त सचमुच स्वस्थ हो जावेगा, हृदय प्रफुल्लित हो उठेगा | सांसारिक जञ्जालोंकी जञ्जीरॉक बन्धन अपने आप खुल जाएँगे और आप अपने को स्वतन्त्र अनुभव करेंगे। उपवन में पहुँचते ही वहाँकी शान्त सुन्दरताने राजाके मनको तो मोह लिया ही था फिर शान्तिकी मूर्ति वनके देवता आचार्यको देखकर तो वह श्रद्धासे नम्र हो गया । सुखकी सच्ची अनुभूतिका
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उसने साक्षात्कार किया । आचार्यको मस्तक झुकाकर वहीं बैठ गया ।
राजाके आनेके पूर्व ही आचार्यने अपने विशिष्ट ज्ञानसे जान लिया था कि इस नगरी में अनेक अप्रत्याशित उत्पान खड़े होमकते हैं, इसलिये सङ्घ सदस्यों सहित वे आहार, निद्रा, भय आदि वृत्तियोंसे निरपेक्ष हो ध्यानस्थ होगये थे । उनके इस मौनसे भी दुष्टप्रकृति मन्त्रियोंने अनुचित लाभ उठाना चाहा । मुनियोंके विरुद्ध राजाको भड़काने की चेष्टा करते हुए बलि बोला 'महाराज ये पक्के ढोंगा हैं' । राजाने बलिकं कथनपर कुछ ध्यान न दिया, चुप रहा । मन्त्री भला क्यों मानने चले, राजाको चुप देख वे और भी क्षुब्ध हो उठे, बलिने दुबारा आग उगली 'महाराज ये निरं अज्ञानी हैं और इसलिये वाकशून्य हैं | अपने अज्ञानको मौनके परिधानमं छिपानेका यत्न करनेपर भी ये बुद्धिमानोंकी आँखोंको धोखा नहीं दे सकते। आप जैसे नृपति इन्हें प्रणाम करें और इनके मुखसे 'आशीर्वाद के दो शब्द भी न निकले। इन्हें लोकव्यवहारका तो जरामा भी ज्ञान नहीं है श्रतएव मौन हैं।' राजाने सब शान्त चित्तमे सुन लिया पर जवाब कुछ न दिया । मुनियोंके प्रति वह इतना अधिक आकृष्ट होचुका था कि उनके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं सुन सकता था किन्तु साथ ही मन्त्रियोंको दुःख नहीं पहुँचाना चाहता था । चुपचाप वहांसे उठा और वापिस चल दिया ।
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"तुम्हारा कार्य अनुचित हुया बन्धु !" आचार्यने सौम्य स्वर में कहा ।
"कैसे देव ?" युवकमुनिने जिज्ञासा प्रकट की । "इसलिये कि दुर्जनोंके साथ विवाद किया" आचार्यने उत्तर दिया ।
"पर मैन अपने लिये ऐसा नहीं किया समाज और धर्मपर किए गए अनुचित आक्षेपोंका उचित उत्तर ही तो दिया है" युवक मुनिने सफाई दी । “मागमे दिवार उपस्थित होजानेपर उससे टकराने में
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अनकान्त
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टकराने वालेका ही अलाभ" आचार्यने तर्क मौदा करनको तैयार ।" शिष्यकी वाणीम दृढ़ता थी। उपस्थित किया।
___"साधु वत्स ! तुम मच्च साधु हो, साधु वह "पर कुदालीकी सहायतासे उसपर विजय पाई नहीं जो सांसारिक कष्टोंसे भयभीत हो जङ्गलकी जा सकती है देव !” युवक मुनिने तर्कका उत्तर एकान्त कन्दराओंमें तपके बहाने श्रा छिपता है, साधु तकसे ही दिया।
वह है जो कष्ट सहनेका अभ्यास करता है। अवसर ___ "ठीक कहते हो बन्धु ! तुम्हारा तर्क गलत नहीं आजानेपर सीना अड़ा देता है। मुझे प्रसन्नता है है। समाज और धर्मकी रक्षाके लिये हर वैध उपायका तुमनं साधुत्वका परिचय दिया, मुझे गर्व है तुम आलम्बन लेना प्रत्येक सामाजिकका कर्तव्य है पर मेरे शिष्य हो।" आचार्य गद्गद हो उठे। हमारा मुनिसमाज इससे भिन्न है। हमारे उद्देश्यकी "देव ! शीघ्र कहिये, में मडकी रक्षा किस प्रकार पृति सहनशीलतामें है। मान-अपमानका विचार हमारे कर सकता हूँ" शिष्यकी आँखोंसे आँसू वह निकले। लिये नहीं है। किसी धर्म विशेषके प्रति आग्रह न तो ठीक है। वादस्थानपर ही आजकी रात फर महिनैपी सिद्धान्तोंको ही हमें अपना धर्म बिताओ । स्मरण रहे कि मन्त्रजन बदला अवश्य मानना चाहिय" आचार्यने उपदेशका महाग लिया। लेगे और यह भी स्मरण रहे कि तुम्ही उनके प्रधान ___ "मैं आपकी शिक्षाके आगे मस्तक झुकाता हूँ, लक्ष्य हा ” आचायन युवक मुनिको स्थितिकी मुझे दण्ड मिलना चाहिय" शिष्यने अपराधीकी विकटतासे पूर्ण परिचित कर दिया। भाँति निवेदन किया।
"मुझे स्वीकार हैं देव ! सङ्घक कल्याणमें मेरा ___ "दण्ड ! नहीं, तुम्हें दण्ड नहीं दिया जासकता। कल्याण निहित है, मङ्घकी रक्षा धर्मकी रक्षा है। मैं अपराधी ही दण्डका पात्र है पर ..... . " आचार्य अपनी महनशक्तिका सञ्चा परिचय दूंगा, साधु वृत्तिबीचमं ही रुक गय।
का मच्चारूप उपस्थित करूंगा। मुझे विश्वास है मैं __“पर क्या देव ! स्पष्ट कहिय" युवक मुनिने आपत्तिके सम्मुख दृढ अवस्थित रहूँगा, क्योंकि प्रार्थना की।
आपका आशीवाद मेरे साथ रहेगा” युवक शिष्य ___ "तुम्हारी इस अकिश्चित उत्तेजनासे मङ्घका अन्तिम नमस्कार कर चल दिया। भारी अकल्याण संभावित है" श्राचायन धीमे "यह दण्ड नहीं प्रायश्चित्त है बन्धु, इस म्मरण स्वरम कह।।
रग्बना” चलते-चलत आचार्यन सूचना दी। “मा कैसे देव ?" शिष्यकी वाणीमें दीनता और कम्पन था।
मावनकी अंधेरी रात ! नीरव, निस्पंद ! तमकी "मन्त्रीजन अपने अपमानको महज ही सहन मघनता ऐमी कि हाथको हाथ नहीं सूझता था । सर्वत्र नहीं करेंगे और वे इसका अवश्य प्रतिशाध लेंगे। सूनापन छाया हुआ था । एकाकिनी वायुके माँय-माँय मुझे जान पड़ता है आज ही गतको वे....... शब्दकं सिवाय कहीं भी कोई आहट तक न होती अपना बदला हमारे प्राणांसे चुकावंगे ?" आचार्यका थी। चपला विद्युत क्षणभरके लिये चमककर अँधम्वर क्रमशः धीमा हो चला था।
कारकी सघनता और भयावहताको और भी बढ़ा "इसके निराकरणका कोई उपाय नहीं है देव ? देती थी। यदि वहाँ कोई व्यक्ति होता तो विद्युतके शिप्यकी आँखों में आँसू भर आय।"
इस क्षणिक प्रकाशमें देखता कि चार व्यक्ति दबे पैर "उपाय कष्टसाध्य है" श्राचार्यने दृढ़तासे नगरीके बहिर्मागकी ओर बढ़े जारहे हैं, वे बार-बार उत्तर दिया ।
पीछे फिरकर देखते हैं जिससे उनके शङ्कित चित्तका "अाज्ञा दीजिये, मैं प्राणोंके मूल्यसे भी उसका अनुमान लगाया जासकता है। भूवेश-पासे वे उच्च
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किरण १०-१५ ]
रक्षा बन्धनका प्रारम्भ
कुल के मालूम होते हैं, कमरमें लटकती हुई उनकी यह न हो कि रहस्य खुन जाय और वधिकको अपने तलवारें उनकी वीरताका परिचय देती हैं पर उनका प्राणोंकी बलि देनी पड़े' एक साथ ही सबके मनमें इस प्रकार आधी रातमें सकम्प दबे पैरों चलना यही शङ्का उपस्थित होगई । 'इसे मारे कौन' अन्तमें किसी अनिष्टकी आशङ्का उत्पन्न कर देता है । या तो निश्चय हुआ कि चारों एक माथ ही प्रहार करें ताकि इन्हें गप्तचर होना चाहिये या डाकू अथवा इन्हींसे बदला चारोंका चूक सके और पापमें भी मब मिलते-जुलते कोई अन्य।
समभागी रहें। आगे चलकर तो ये चारों रुक गये और फुस- बिजलीके प्रकाशमें चार तलवारें चमक उठी । फुसाहट भी करने लगे। अरे यह क्या ! इन्होंने तो बम एक छपाकेका शब्द और मुनिका मुण्ड पृथ्वीपर अपनी तलवारें म्यानके बाहर निकाल लीं, तो क्या होगा पर यह क्या ? अरे उनके हाथ रुक क्यों गये ! ये किसीका वध करना चाहते हैं ? सम्भव है, लिये अरे वे तो हिलते डुलते भी नहीं, उनकी नमें तन गई आगे देखें, क्या होता है।
और किंकर्तव्य विमढस वे एक दमरको क्यों देख ___ आप समझ गये होंगे कि ये चारों व्यक्ति और रह है। अरं वे तो कीलित जैसे कर दिय गये हैं। कोई नहीं वही चार मन्त्री हैं जिनकी प्रतिशोधभावना ठीक है 'जाको रखे साइयाँ मार न मकता काय' । की प्राचार्य अकंपनने आशङ्का की थी । अपने पर बंचार समझ ही नहीं पाये कि उन्हें हा क्या गया अपमानका बदला अपमान करने वाले के प्राणोंसे है, उनका सामथ्य कहाँ लुन होगया? क्या वे स्वप्न चुकाने के लिये ही ये दुष्ट आधी रातमें इस प्रकार देख रहे हैं ? मामन खड़ा व्यक्ति पूर्ववत शान्त छिपते-छिपत यहाँ आपहुच है। राम राम ! उन ज्यांका त्यांनिश्चष्ट था। निरीह भाले तपस्वियोंपर ये अस्त्र कैसे चलेंगे। क्या उनकी रक्षा हो सकेगी। सुना ता है 'जाको गवे दिनभरकी गहरी वर्षा के अनन्तर मायङ्कालसे ही साइयाँ मार न सकता कोय' । और सामने यह कौन मेघ हट चुके थे। वर्षाकी काई सम्भावना नहीं रही निश्चल ठंठकी भाँति निश्चेष्ट खड़ा हुआ है, प्राकृति थी। राकाका पूर्णचन्द्र अपने माथियों को माथ लिये तो मनुष्य जैसी प्रतीत होती है। हाँ याद आया यह गगनकं विशाल क्रीडाङ्गणमें कीड़ा कर निकला था। तो वही युवक मुनि है । ओहो कैसी शान्ति और पृथ्वी दृधसे धाई जान पड़ती थी, आकाश-मण्डल मौम्यता झलक रही है इसके वदनपर । इसे जरा भी ज्योत्स्ना-ज्योतित था । आशङ्का नहीं, किञ्चित भय नहीं । केसा निर्भय ग्बड़ा वनप्रान्तम आचार्य सागरचन्द्र शयनका उपक्रम है, इसे नहीं मालूम कि इसके बधिक इससे दूर नहीं कर रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि अाकाशकी और
और मालूम भी हो तो वह डरने क्यों चला। जब दौड़ी। सर्वत्र शान्ति थी, शीतलता थी और थी कान्ति शरीरसे मोह नहीं तो डर काहे का।
माना आचार्यकं हृदयका प्रतिविम्ब ही विम्ब बन ___एकाकी मागमें ही अपने शत्रुको पाकर मन्त्रियों- गया था ऐस शान्त कान्तवातावरणम श्रवण नक्षत्र के हर्षका ठिकाना न रहा । उनका शत्रु उनके मामने की ओर दृष्टि जातं ही आचार्यके नत्रनक्षत्र काँप निःसहाय खड़ा हुआ है, उसके प्राण उनके उठे। 'श्रवण नक्षत्रका कम्पन किमा भारी अनिष्टकी हाथोंमें है, मरी मक्खीकी भाँति उसे मसल दिया सुचना है' यह विचार आते ही श्राचार्यकं सामने एक जासकता है। वे फूल उठे । 'हमारे अपमानका बदला करुण दृश्य सा उपस्थित होगया । चारों ओर अग्नि इसीके प्राण हैं' एकने उत्तेजित हो कहा और सबके धधक रही है, सड़े मांस, हड्डी श्रादि अपावन और सब आगे बढ़ आये । पर चोरका दिल होता कितना घृणित वस्तुओंको ईंधन बनाया जारहा है । वनके है? अपने साथीपर भी उसे शङ्का होती है। कहीं पशु-पक्षी त्रस्त हो यहाँ-वहाँ भाग रहे हैं और अग्निक
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४१२
अनेकान्त
[ वर्ष ८
इस घेरेमें घिरे हैं ७८८ दिगम्बर मुनि । अपना हैं तो अवश्य ही इमसे मुंह न मोड़ेंगे। यदि वे प्राणान्त सन्निकट जान जो साधनारत होकर आत्मा- तपस्याक लोभसे ऐसा नहीं करते तो वे साधु नहीं को परमात्मामें परिणत करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। पर साधुवेशको कङ्कित करने वाले महास्वार्थी हैं। इसे नरमेध यज्ञके नामसे प्रख्यात किया जारहा है। मुझे विश्वास है विष्णुकुमार ऐसे नहीं हैं" प्राचार्य "मातसौ मुनियोंका करुण वध !" श्राचार्यकी श्रात्मा चुप होगये । कराह उठी। स्वयं उच्चरित दो शब्दोंमें उनकी इस विश्वस्त क्षुल्लक पुष्पदन्त चर आचार्यको मस्तक पीडाको प्रगट किया वे चीख उठे 'हा ! कष्ट !' झुका गगनमार्गमे चल दिये ।
आकम्मिक और करुणाई स्वरसे कहे गये इन आप न भूलें होंगे कि मुनिवधका प्रयत्न करते दो शब्दोंने ही अर्धसुप्त क्षुल्लक पुष्पदन्तको चोंका हुए चारों मन्त्री वनदेवता द्वारा कील दिये गये थे। दिया । आश्चयकी सीमा न रही उनके । आचार्य प्रातः होते ही नगरकी जनताने उन्हें उसी अवस्था में प्राणान्त तक भी रात्रिभाषण नहीं करते । "अवश्य देखा और धिक्कारा । राजा तो उन्हें प्राणदण्ड देने फाई अमाधारण कारण है" सोचते हुए वे आचार्यके को तैयार होगया था पर प्राचायने उन्हें क्षमा पास दोड़े आये । “देव यह कैमा कष्ट है जिसने करा दिया । आपको इतनी पीड़ा पहुँचाई ?"
मुनियोंके चरणों में गिरकर राजाने नगरीकी क्षुल्लकके प्रश्नके उत्तरमं आचायन मारी कथा ओरसं क्षमा माँगी। आचायन ममझाया 'राजन यह सुना दी । क्षुल्लककी आँखोंमें आँसू आगय, वे अातुर तो होनहार थी होगई । होनी होकर ही रहेगी हो उटं कुछ कर मकनेको । “देव कोई उपाय है अनहोनी होगी नहीं।' आचार्यके शीतल अमृततुल्य इसके निवारणका" उन्होंने प्रार्थना की। आचार्यकं उपदेशसे राजाको शान्ति मिली, उसकी आत्मग्लानि नेत्र दो क्षणके लिये मुंद गये, वे ध्यानस्थ बैठ गये। दूर होगई । हर्पकी लाली उनके मुग्वपर प्रस्फुटित होगई, नगर्गनकामिन मन्त्रीगण अवन्तीसे हस्तिनापुर बोले "है।"
पहुँच । अपने चातुर्य और पाण्डित्यके बलपर उन्होंने तुल्लककी आतुरता बढ़ रही थी बोले “श्राज्ञा वहाँके राजा पद्मकं अव्यवस्थित राजकार्यको व्यवस्थित दीजिय देव ! कैसे सातमौ मुनियोंक. प्राण बचाय कर, शत्रुओंका दमनकर उसका विश्वास प्राप्त कर जा मकत हैं ?"
लिया। व म.त्री तो बना ही दिए गए माथ ही साथ "विष्णुकुमार यागी समर्थ है" आचायने प्रशान्त राजान उन्हें यथेच्छित वस्तु प्राप्त कर मकने की घोषणा म्वरमें उत्तर दिया।
भी की थी। मन्त्रियांने यह वचन-दान उपयुक्त अवसर "दव ! कस" क्षुल्लकन प्रश्न किय।। "उन्ह विक्रिया के लिए रख छोड़ा था। पूर्व भुनिमंघक हस्तिनापुरम शक्ति प्राप्त हे" आचायन उत्तर दिया।
आ पहुँचनपर मन्त्रियांका प्रतिशाध-ज्वाला पुन: __ "पर वे तो दीक्षित हैं, इस रात्रिमें क्या कर प्रज्वलित हो उठी । बदला लेनेका उपयुक्त अवसर सकते हैं" क्षुल्लकन निराशा दिखाई।
और माधना सलभ देख उन्होंने राजासे सात दिनका ___ "वं सब कर सकते हैं, मातसौ मुनियोंकी रक्षा राज माँगकर नरमेध यज्ञके नाम पर मुनियोंको एक मुनिके चरित्रसं लाखगुनी आवश्यक है। उनकी जीवित जला डालनेकी योजना बनाई। राजा इम करुण दशाका स्मरण आते ही जब मैं एक विशाल दुरभिमधिसे सर्वथा अनजान था, प्रसन्नतापूर्वक मङ्घका प्राचार्य करणाद्र हा नियमच्युत हो सकता हूँ उसने मन्त्रियोंकी इच्छानुसार उन्हें मात दिनके तो उनकी रक्षामें ममर्थ योगी विष्णुकुमार अपनी राज्याधिकार सौंप दिए । मन्त्रियोंने शासनके बलपर तपस्याकी बलि नहीं दे सकते। यदि व सच्च योगी अपनी योजनाको कार्यान्वित कर दिया। सवत्र
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किरण १०-११ ]
रक्षाबन्धनका प्रारम्भ
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त्राहि-त्राहि मच गई । मुनियों के इस असह्य उपसर्ग विष्णुकुमार अपनी ही पुरीमें, अपने भाईके को देख मनुष्य तो क्या पशु भी विकल हो रहे थे। राज्यकालमें मुनियोंके इस महान उपसर्गसे पीड़ित श्रवण नक्षत्र उसी दृश्यको देख तड़प उठा था। हो उठे ! उनकी आँखोंसे धारा बह चली ! आजतक
के इतिहासमें इस पुण्यनगरीमें मुनियोंके विरुद्ध "योगिश्रेष्ठ ! मुनियोंका कष्ट निवारण कीजिये" ऐसा उत्पात कभी नहीं हुआ। उन्होंने देखा जनता शिलासमान निश्चल योगी विष्णुकुमारके सम्मुख मुनियोंके उपसर्गसे त्रस्त है, वचनबद्ध राजा अपनेको क्षुल्लक पुष्पदन्तने दीन पुकार की। योगीकी आँखें असमर्थ मान महलोंमें छिपा है और दुष्ट बलि आश्चर्यसे खुल गई । "रक्षा महायोगिन !' क्षुल्लकने अनुकूल अवसर पा अपने विरोधका बदला ले दुहराया । "कैसी रक्षा बन्धु ! किसकी रक्षा ?" रहा है। योगीने सरलतासे प्रश्न किया। उत्तरमें क्षुल्लकने क्षण-क्षण युग-सा बीन रहा है। योगी विष्णुसारी कथा उन्हें सुना दी।
कुमार एक क्षण भी न ठहर सके। झट वे बौने "पर मैं क्या कर सकता हूँ,” अपनेको असमर्थ
ब्राह्मणका रूप धारणकर दानशालाके द्वारपर जान विष्णुकुमार दुःखी हुए।
उपस्थित हुए। वेदमन्त्रों और स्वस्तिवचनोंका वे "आप विक्रियाशक्ति सम्पन्न हैं, हे योगिवर !"
उच्चारण कर रहे थे, गम्भीर पाण्डित्यका प्रदर्शन
उनके दीप्त चेहरेसे हो रहा था । बलि इम क्षुल्लकने अचकचाते हुए निवेदन किया।
असाधारण व्यक्तिसे प्रभावित हुए बिना न रह ___ विक्रियाशक्ति ?” विष्णुकुमार चौंक उठे । उन्हें सका । झट उठ खड़ा हुआ । “महाराज श्राज्ञा पता भी न था कि यह महाऋद्धि उन्हें सिद्ध होगई दीजिए" बलिने प्रणामपूर्वक प्रार्थना की । अपने है । और मच भी तो है दिगम्बर मुनि सांसारिक कार्यको इतनी आसानी सम्पन्न होते हुए देख ऋद्धि और विभवके लिए अपने शरीरको नहीं ब्राह्मण अति हर्षित हुआ, किन्तु अपनी उत्सुकताको तपाते। उन्हें तो आत्म-मिद्धि चाहिए। वही एक यथासाध्य-कृत्रिम गंभीरता और उपेक्षामें छिपाते अभिलाषा है, वहीं एक लक्ष्य है। शक्तिकी परीक्षा हुए बोला-“एक छोटी-सी कुटियाके लिए तीन पैर कर विश्वस्त योगी प्रसन्न हो आधी रातको मुनियोंकी पृथ्वी"। बलि अचम्भमें डूब गया। उसकी दानरक्षाके लिए चल पड़े।
शालामें आजतक किमीन इतनी अल्प याचना नहीं
की । बलिने सोचा, याचक निर्लोभ तपस्वी है। वह अब हम राजधानी हस्तिनापुर चलते हैं। जहाँ मुग्ध हो गया, हाथ बाँध बोला-"महाराज और नरमेध यज्ञ हो रहा है, बड़े-बड़े पण्डित और कुछ माँगिए मैं सब दूंगा।" ब्राह्मणकी भौंहें तन ब्राह्मण एकत्र हैं। वेद-पाठ हो रहा है, मन्त्रों और गई, क्रोधमुद्रा धारण करली, वह तीक्ष्ण-स्वरमें स्वाहाकी ध्वनिसे आकाश गूंज उठा है । यज्ञशालाकं बोला-“बलि ! तुझे अपने राज्य और विभवका द्वारपर ही दानशाला है, राजा बलि स्वयं अपने घमण्ड है तू मुझे साधारण लोभी समझता है। हाथों याचकोंको यथेच्छित लुटा रहा है। इच्छाओं- मुझे नहीं चाहिए तेरा दान" पैर फट फटाते ब्राह्मण का अन्त नहीं, कोई रुपए माँगता है तो कोई मणि- वहाँसे चल दिया । राजा भयसे भीत हो गया, ऐसा मक्ता । किसीको हाथी-घोडे प्रिय हैं तो अन्यको असाधारण ब्राह्मण कहीं श्राप दे दे तो उसका बड़ी-बड़ी जागीरें । बलि हर एककी इच्छापूति मस्तिष्क त्रस्त हो उठा। नंगे पैरों ही ब्राह्मणके पीछे करता है आजतक कोई याचक असन्तुष्ट नहीं दौड़ा, चरणोंमें गिर क्षमा-याचना करने लगा, हुआ। सबने अपनी इच्छानुसार पाया।
क्षमा कीजिए महाराज ! मैं सर्वथा तैयार हूँ।'
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
ब्राह्मणका बनावटी क्रोध धीरे-धीरे शान्त हुआ। रख ही तो दिया अपना पहाड़सा तीसरा पैर बलिकी "मैं स्वयं ही नाइँ गा' ब्राह्मणने याचनामें परिवर्धन असहाय पीठपर । कराह उठा बलि, चरमरा गई किया । बलि स्वयं परेशान था, ऐसे योग्य ब्राह्मणको उसकी पार्थिव हड़ियाँ । पृथ्वी काँप उठी, आकाश वह कुछ विशिष्ट देना चाहता था, पर यह ब्राह्मण भी डोलने लगा, वायु स्थिर होगई । चारों ओरसे ऐसा विचित्र कि कुछ लेनेका नाम ही नहीं लेता, 'दया-दया, रक्षा-रक्षा' की पुकारें आने लगीं। हाथ तीन पैर पृथ्वी और वह भी इन छोटे पैरों द्वारा बाँध लोग प्रार्थना करने लगे योगीसे । योगी आखिर नापी जाए। पर क्या करे वह विवश था, कहीं योगी ही था, उसका क्रोध क्षणभरमें ही शान्त होगया। ब्राह्मण फिर विमुख न हो जाए। पर "आप हर उसकी आँखें करुणासे आर्द्र होगई, शीघ्र ही अपनी प्रकार समर्थ हैं महाराज" कह गङ्गाजलसे उसने माया समेट कर अपने सच्चे रूपमें उपस्थित होकर संकल्प कर ही तो दिया।
बलिको क्षमा किया। उपस्थित जनताने धन्य-धन्य और संकल्प हुआ नहीं कि वह बौना शरीर अमं- जय-जयके नारे लगाये । उपकारग्रस्त बलि भी योगी भावित रूपसे बढ़ने लगा और इतना बढ़ा कि के चरणों में गिर फूट फूट कर रोने लगा। उसका सिर बादलोंसे टकराने लगा । उपस्थित यज्ञका तो कुछ मत पूछिये । उसका तो नामो
भयाक्रान्त होगय, बालका आख फिर निशान भी नहीं रह गया था। योगी विष्णकुमारके गई, वह चकित हो चित्र-लिखितसा रह गया ! नेतृत्वमें मुनियोंकी सुश्रुषा होने लगी । जनताकी मृर्छित होते-होते वह धीर किसी प्रकार सँभल गया। आन्तरिक पुकारें और सेवासे उन्हें स्वास्थ्य भीड़ यहाँसे वहाँ दौड़ने लगी, यज्ञकार्य रुक गया। लाभ हुआ।
महाकाय अपन कायम व्यस्त था, उसने अपना पहिला पैर उठाकर मेरुपर रखा और दूसरेसे
नगरीकी सारी जनता दसरे दिन वनमें एकत्र मनुष्यलोककी सीमाको नाप लिया अब तीसरे पैरको जगह कहाँ ! बलिके राज्यकी तो बात ही नहीं सारा हुइ
हुई। योगी विष्णुकुमारका अभिनन्दन किया गया।
योगाने भी अपनी इस परम तपस्याके अनन्तर पुनः मनुष्यलोक ही नप चुका था। "बोल, अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार तीसरे पैरकी भूमिका प्रबन्ध करो" महाकाय
आचार्य अकम्पनसे मुनिकी दोक्षा ली । इस शुभ ने महागजना की।
अवसरपर अकम्पनका अमृततुल्य उपदेश हुआ । बलिको कुछ सूझता ही न था कि मैं क्या
उन्होंने योगो विष्णुकुमारकी हृदयमे प्रशंसा की । उसे यह सब स्वप्न-जैसा प्रतिभासित होता था। हरएकका आदेश दिया कि वे धर्म और समाजकी महाकायकी महागर्जनासे उसकी चेतना सचेत हुई। विपत्ति निवारणार्थ अपने वैयक्तिक स्वार्थोंको उसका धैर्य और शौर्य एक साथ ही उद्दीप्त तिलाञ्जलि दें । उनके अन्तिम शब्द थे 'सच्चा हो उठे, दृढ़तासे उसने जवाब दिया “मेरा शरीर वात्सल्य स्वार्थकी अपेक्षा नहीं करता, माता अपने शेष है" बलि वचनका पक्का था, 'प्राण जायँ पर पुत्रकी रक्षार्थ अपनी शक्ति या प्राणोंका मोह वचन न जाहीं' उसका सिद्धान्त था। कहनेके साथ नहीं करती ।' ही उसने अपने शरीरको पृथ्वीपर बिछा दिया। वात्सल्य-दीक्षाके साक्षी स्वरूप जनसमूहने अपनी योगीका क्रोध अन्तिम सीमा तक पहुँच चुका था। कलाईमें एक बन्धन-सूत्र बाँधा जो आगे रक्षाबन्धन बलिकी हठने उसे और भी उद्दीप्त कर दिया उसने कहलाया ।
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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
(लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
[गत किरणसे आगे प्रो० सा० का विक्षोभ
गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्तिके समय पंडित विज्ञ पाठकोंको मालूम है कि मैंने अपने पिछले परमानन्दजी शास्त्रीको भी उन्होंने ऐसे ही विशेषणोंसे लेखोंम वादिराजके पार्श्वनाथचरितका रत्नकरण्डक सत्कृत किया था ! दूसरी बात यह कि वे तत्त्वचचोंके सम्बन्धी उल्लेख विवेचन-सहित उपस्थित किया था समयमै भी क्षोभयुक्त होजाते हैं, और इससे उनकी और उसके द्वारा यह प्रमाणित किया था कि रत्न- कमजोरी साफ जान पड़ती है। ऐसी हालतमें उनसे करण्डक पार्श्वनाथचरितके रचनाकाल (वि० सं०
तात्त्विक विचारकी आशा करना अथवा तथ्यरे बदन पहलेकी चना और उसका ग्रहणकी उम्मीद रखना व्यर्थ है। फिर भी हम उनके कत्ता उसमें 'यागिन्द्र' उपाधि द्वारा स्वामी समन्तभद लेखकी शेष बातोपर विचार करना अपना आवश्यक (आप्तमीमांसाकार) को बतलाया गया है। इस पर कत्तव्य समझकर निम्न पंक्तियाँ लिख रहे हैंप्रो० साल अपने उत्तर-लेखमें बहुत ही विक्षुब्ध हो इसके बाद अपनी प्रस्तुत चर्चाको समाप्त कर देंगे। उठे हैं और अपनी मर्यादासे बाहर हो गये हैं। हाँ, सौम्य और निष्पक्ष चचाके लिये हम सदैव लोकमें एक कहावत प्रसिद्ध है, कि 'खिसयानी बिल्ली प्रस्तुत रहगे। खम्भा नाचे' ठीक इसी कहावतको उन्होंने चरितार्थ
पार्श्वनाथचरितके उल्लेखपर विस्तृत विचारकिया है । जब उनसे मेरे लेखके मुद्दोंका युक्तिसंगत समाधान नहीं बन पड़ा तो वे कोसनेपर उतारू हो प्राचार्य वादिराजने अपना पाश्वनाथचरित शक गये और उन्होंने मुझे 'एक घोर पक्षपाती', 'न्यायके सं० ९४७ (वि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया क्षेत्रमें बड़ा अयोग्य विचारक', 'न्यायशास्त्रका है। इसमें उन्होंने अपने पूर्ववर्ती गृपिच्छादि अनेक दुरुपयोग करने वाला', 'बौद्धिक ईमानदारीमें विश्वास प्रसिद्ध आचार्यों और उनकी कुछ खास कृतियोंका का अपात्र', 'अनुमानके उत्कृष्ट नियमोंसे हीन- पद्य नं० १६ से ३० तक उल्लेख किया है। इन पद्योंमें व्यवसाय करने वाला', 'विक्षिप्तताकी ओर बढ़ने 'देव' और 'योगीन्द्र' के उल्लेखोंको छोड़कर शेप वाला,' 'भ्रान्तिरूपी अन्धकार वाला' जैसे स्वरुचि- उल्लेख तो प्रायः स्पष्ट है और इसलिये उनमें कोई विरचित सुन्दर विशेषणोंसे सत्कृत किया है ! मैं इन विवाद नहीं है। परन्तु 'देव' और 'योगीन्द्र'के दो विशेषणोंका पात्र हूँ या नहीं, यह विद्वान् पाठक उल्लेख ऐसे हैं जो कुछ अस्पष्ट हैं और इसलिये विद्वानोंजानते हैं। मैंने जो कुछ लिखा है वह और प्रो. सा. में उनके वाच्यार्थमें विवाद है। जैन-स हित्य और ने उसका जो उत्तर दिया है वह, दोनों विज्ञ पाठकोंके इतिहासके प्रसिद्ध विद्वान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार सामने हैं और इसलिये वे निर्णय कर सकते हैं कि उनका वाच्यार्थ स्वामी समन्तभद्र (देवागमकार) को कौन कैसा है ? परन्तु प्रो. सा. की उक्त प्रवृत्तिसे दो मानते हैं और अपनी इस मान्यताके समर्थनमें वे बातें स्पष्ट हैं, एक तो यह कि उनका इस प्रकारसे प्रमाण देते हुए कहते हैं कि 'समन्तभद्र के साथ 'देव' कोसनेका यह कुछ चिरन्तनाभ्याससा जान पड़ता है- उपपद भी जुड़ा हुआ पाया जाता है, जिसका एक
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४१६
अनेकान्त
उदाहरण देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिके अन्त्यमङ्गलका निम्न पद्य है :
समन्तभद्रदेवा परमार्थविकल्पिने । समन्तभद्रदेवाय नमोऽस्तु परमात्मने || और इसलिये उक्त (पार्श्वनाथ चरितगत ) मध्यवर्ती (१८वें श्लोक में आये हुए 'देव' पदके वाच्य समन्तभद्र भी होसकते हैं, इसमें कोई बाधा नहीं है।' ब्रह्म नेमिदत्तने अपने 'आराधना कथाकोश' में समन्तभद्रकी कथाका वर्णन करते हुए, जब योगिचमत्कार के अनन्तर समन्तभद्रके मुखसे उनके परिचय के दो पद्य कहलाये हैं तब उन्हें स्पष्ट शब्दों में 'योगीन्द्र' लिखा है', जैसा कि निम्न वाक्यसे प्रकट है
[ वर्ष ८
करण्डश्रावकाचार' की टीका के कर्ता हैं । अतः स्वामी समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' विशेषरण के प्रयोगका अनुसंधान प्रमेयकमलमार्त्तण्डकी रचनाके समय अथवा वादिराजसूरिके पार्श्वनाथचरितको रचना से कुछ पहले तक पहुँच जाता है ।'
" स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः समुवाच सः ।" ब्रह्म मित्तका यह कथाकोश आचार्य प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशके आधारपर निर्मित हुआ है, और इसलिये स्वामी समन्तभद्रका इतिहास लिखते समय मैंने प्रेमीजीको उक्त गद्यकथाकोशपर से ब्रह्म नेमिदत्त वर्णित कथाका मिलान करके विशेषताओंका नोट कर देनेकी प्रेरणा की थी । तदनुसार उन्होंने मिलान करके मुझे जो पत्र लिखा था उसका तुलनात्मक वाक्योंके साथ उल्लेख मैंने एक फुटनोटमें उक्त इतिहास के पृ० १०५, १०६पर कर दिया था । उसपर से मालूम होता है कि— “ दोनों कथाओं में कोई विशेष फर्क नहीं है । नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद है ।" और जो साधारणसा फर्क हैं वह उक्त फुटनोट में पत्रकी पंक्तियोंके उद्धरण द्वारा व्यक्त है । अत: उस परसे यह कहने में कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रको ‘योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित किया है। चूंकि प्रेमीजी के कथनानुसार ये गद्यकथाकोशके कर्ता प्रभाचन्द्र भी वे ही प्रभाचन्द्र हैं जो प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और 'रत्न१ इसके अलावा इस ग्रन्थमें और भी अनेक जगह 'योगीन्द्र' का प्रयोग है । देखो, वही ग्रन्थ ।
मुख्तार सा. के इस सप्रमाण कथनसे अपनी सहमति प्रकट करते हुए हमने पिछले (द्वितीय) लेख में लिखा था
'मुख्तार साहबका यह प्रमाणसहित किया गया कथन जी को लगता है और अब यदि इन तीनों लोकोंके यथास्थित आधारसे भी यह कहा जाय कि वादिराज देवागम और रत्नकरण्डकका एक ही कर्ता - स्वामी समन्तभद्र मानते थे तो कोई बाधा नहीं है— दो श्लोकोंके मध्यका व्यवधान भी अब नहीं रहता ।'
इसपर प्रो. सा. लिखते हैं- 'किन्तु मेरा पण्डितजी से कहना है कि उक्त बात उनके जी को भले ही लगे, परन्तु बुद्धि और विवेक से काम लेने पर आपका निर्णय बहुत कच्चा सिद्ध होता है । पार्श्वनाथ चरितके जिस मध्यवर्ती लोकमें देवकृत शब्दशास्त्रका उल्लेख आया है उसे समन्तभद्रपरक मान लेने में केवल वसुनन्दि वृत्तिका 'ममन्तभद्रदेव' मात्र उल्लेख पर्याप्त प्रमाण नहीं है। एक तो यह उल्लेख अपेक्षाकृत बहुत पीछे का है । दूसरे, उक्त वृत्तिके अन्त्य मङ्गलमें जा वह पद दो बार आगया है उससे यह सिद्ध नहीं होता कि स्वामी समन्तभद्र 'देव' उपनाम से भी साहित्यिकोंमें प्रसिद्ध थे । वहाँ परमात्मदेवके साथ लेपका कुछ चमत्कार दिखलानेतो उस पदको दो बार प्रयुक्त कर यमक और का प्रयत्न किया गया है। तीसरे, समन्तभद्रको उक्त 'देव' का वाच्य बना लेनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस श्लोक में वादिराजने उनके कौनसे शब्दशास्त्रका संकेत किया है ?"
१ 'अनेकान्त' वर्ष ७, किरण ५-६ ।
२ पार्श्वनाथ चरित -१ सर्ग, १७, १८, १६ श्लोक ।
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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
आगे चलकर 'योगीन्द्र' के सम्बन्धमें आप विद्वानों-प्रेमीजी' और मुख्तार सा.२–ने वसुनन्दिकहते हैं-'मुख्तार मा. तथा न्यायाचार्यजीने जिस का समय विक्रमकी ११वीं शताब्दी अनुमानित किया आधारपर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्रकृत है; क्योंकि मं० १०५० (सुभाषितरत्न मं०) के आचार्य स्वीकार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने अमितगतिने भगवती आराधनाके अन्तमें अपनी जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं उनसे जान आराधनाको वसुनन्दि योगीसे महित (सत्कृत) पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानोंमेंसे किसी एकने भी बतलाया है और इन वसुनन्दि योगी तथा देवागम अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोश स्वयं देखा है वृत्तिके कर्ता वसुनन्दिको प्रेमीजी और मुख्तार सा. और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किसीसे सुना कि ने अभिन्न सम्भावित किया है और इसलिये प्रभाचन्द्रकृत कथाकोशमें समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' देवागमवृत्तिकार वसुनन्दि अमितगति (वि० सं० शब्द आया है । केवल प्रेमीजीने कोई बीम वर्ष पूर्व १०५०, ई० ९९३) के समकालीन सिद्ध होते हैं। यह लिख भेजा था कि 'दोनों कथाओं में कोई विशेष ऐसी हालतमें वसुनन्दि (वि० सं० १८५०) के उक्त फर्क नहीं है, नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्य- उल्लेखको, जो वादिराजकं पार्श्वनाथचरित (वि० मं० कथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद है।' उमीके आधारपर १०८२) से पूर्वका है, वादिराज (वि० १८८२) के आज उक्त दोनों विद्वानांको “यह कहने में कोई आपत्ति पीछे ढकेलना अतिसाहस है। मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्य (ख) दूसरा हेतु भी मवथा अयुक्त एवं प्रसिद्ध कथाकाशमें स्वामी समन्तभन्द्रको 'योगीन्द्र' रूपमें है, क्योंकि स्वामी समन्तभद्र माहित्यिकोंमें 'देव' उल्लेखित किया है।
उपनामसे भी प्रसिद्ध रहे हैं। इसके लिये मैं 'देव' और 'योगीन्द्र' पदपर विचार
वसुनन्दिके उक्त उल्लेखके अलावा चार उल्लेखोंको प्रो. सा. की उक्त दोनों बातों पर हम नीचे और यहाँ उपस्थित करता हैं :विचार करते हैं
(१) पं० श्राशाधरजीने मागारधर्मामृत-टीका (१) सबसे पहले हम उनकी 'देव' शब्द वाली (पृ०८२)में समंतभद्र के लिये 'देव' पदका उल्लेख निम्न पहली बातको लेते हैं-'देव' शब्दका 'समन्तभद्रदेव' प्रकार किया है:अर्थ करने में आप केवल वसुनन्दि वृत्तिका 'समन्त- "एतेन यदुक्तं स्वामिसमन्तभद्रदेवैः-'दनिकस्तत्त्वपथभद्रदेव' मात्र उल्लेख पर्याप्त प्रमाण नहीं मानते। गृह्यः' इति दर्शनप्रतिमालक्षणं तदपि संगृहीतम् ।" इसमें आपने जो तीन हेतु दिये हैं उनमें पहला हेतु
(२) आचार्य जयसेनने 'समयमार' की अपनी तो बहुत ही कमजोर और बेदम है क्योंकि किसी
तात्पर्यवृत्तिमें स्याद्वादका स्वरूप बतलानेके लिए उल्लेग्वकं केवल पश्चाद्वर्ती होनेसे ही उसकी
'समन्तभद्राचार्यदेवः' पदके साथ समन्तभद्रके तीन प्रामाणिकता नष्ट नहीं होती और पूर्ववर्ती होनेसे
पद्योंको उद्धृत करते हुए लिखा हैही उसकी प्रामाणिकता नहीं पाती। प्रामाणिकताक लिये तो विरोधादि दोषोंका अभाव होना ही
__ "तदव स्याद्वादस्वरूपं तु समन्तभद्राचार्यदेवैरपि आवश्यक है और वसनन्दिके उक्त उल्लेख में भागतमाम्त ।" (पृष्ठ २११) विरोधादि कोई दोष नहीं है। तब उनके उस उल्लेख- (३) आचार्य श्रीनरेन्द्र मेनने भी अपने सिद्धान्तमें अस्वरस एवं सन्देह व्यक्त करना अनुचित है। सारसंग्रहमें स्वामी समन्तभद्रका 'देव' उपनामके दूसरे, वसुनन्दिके उक्त उल्लेखको वादिराजके साथ निम्नप्रकार स्मरण किया हैपार्श्वनाथचरितसे पीछेका बतलाना एक बड़ा भ्रम १ 'जैन साहित्य और इतिहाम'-पृप ४६३ । है । जैन साहित्य और इतिहासके दो महान २ पुरातन जैन-वाक्य-सूचीकी 'प्रस्तावना' ।
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अनेकान्त
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"श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघम् । परमात्मदेवकी तरह स्वामी समन्तभद्रदेवके लिए भी प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्वं तथा पुनः ॥" ।
। नमन करना इट है। वास्तवमें 'देव' शब्द पूज्य
अर्थका वाची है और उसका स्वामी समन्तभद्र जैसे (४) डा. ए. एन. उपाध्ये कोल्हापुरके अनुग्रह- महान पूज्याचार्य के लिये साहित्यिकों द्वारा प्रयुक्त से मुझे Bhandarkar Oriental Rescarch होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । अकलङ्क, Institute पूनासे 'आप्तमीमांसा' मूलकी कुछ विद्यानन्द जैसे महान आचार्योंने भी अष्टशती, प्रतियाँ प्राप्त हुई थी
अष्टसहस्री आदि अपनी टीकाओंमें 'येनाचायई० सन १६९५) की लिखी हुई एक अढ़ाई सौ वष समन्तभद्रयतिना। तस्मै नमःसन्ततम्'आदि शब्दों द्वारा प्राचीन प्रति भी है। इस प्रतिके अन्तिम पुष्पिका स्वामी समन्तभदको सश्रद्ध नमस्कार करके उनकी वाक्यमें भी 'समन्तभद्र' के साथ 'देव' उपपद जुड़ा पूज्यता व्यक्त की है। अतः प्रो. सा. का दूसरा हेतु हुआ है । वह पुष्पिका वाक्य निम्न प्रकार है:- भी असिद्ध और युक्तिहीन है। __ "इति फेणामंडलालंकारस्योरुगपुरस्याधिपमूनाश्च (ग) तीसरे हेतुके सम्बन्धमें हम भी यह प्रश्न स्वामिसमन्तभद्रदेवस्य मुनेः कृतावाप्तमीमांसालंकृतौ उठा सकते हैं कि वादिराजने अपने उक्त पार्श्वनाथदशमः परिच्छेदः ॥१०॥"*
चरितमें ही उसके २९वें पद्य विशेपवादीके कौनसे
विशेषाभ्युदय ग्रन्थका मङ्कत किया है ? यदि आप इन उल्लेखोंसे प्रकट है कि स्वामी समन्तभद्र कह कि वह आज अनुपलब्ध है तो हम भी कह साहित्यकारोंमें 'देव' उपनामसे भी प्रसिद्ध थे और सकते हैं कि वादिराजन स्वामी समन्तभदक जिस इसलिये साहित्यकार उन्हें 'समन्तभद्रदेव' 'समन्त
शब्दशास्त्रका उल्लेख किया है वह आज अनुपलब्ध भद्राचार्यदे कंवल 'देव' रूपमें उल्लेखित
| उल्लाखत है। पूज्यपाद-देवनन्दिने तो अपन जैनेन्द्र व्याकरणमें
यामिन नाप जैन या करते पाये जाते हैं। ऐसी हालतमें प्रो. मा. का यह 'लङः शाकटायनम्य' इस सूत्रकी तरह 'चतुष्टयं कहना कि 'म्वामा समन्तभद्र माहात्यका म दव समन्तभद्रस्य' इस सुत्रद्वारा उनके शब्दशास्त्रका उपनामसे प्रसिद्ध नहीं है' सर्वथा भ्रांत और उलेख भी किया है। वादीसिंहकी गदचिन्तार्माणम निगधार है-उसका अनुसन्धान एवं खाजसे काई उन्हें 'सरस्वतीकी स्वच्छन्द विहारभूमि' और समन्तमम्बन्ध नहीं है। वसनन्दिकी उक्त देवागमवृत्तिम भद्रके एक परिचय-पद्य सिद्धसारस्वत' भी कहा आया हुश्रा 'समन्तभद्रदेव' शब्द भी प्रो. मा. के सभी
गया है, जिनके प्रकाशमें यदि हम वादिराजमूरि के मतानुसार जब यमक और परमात्मदेवक माथ 'अचिन्त्यमहिमा देवः शब्दाश्च येन सिद्धान्त' श्लेषका सूचक है तो वह स्वामी समन्तभद्रका भी पद्यको पढें तो स्पट्र ज्ञात होजाता है कि स्वामी बोधक है-उसका निराकरण नहीं हो सकता है। समन्तभद्र अलौकिक शब्दशास्त्री भी थे और उनका हाँ, यदि देवागमवृत्तिसे भिन्न दूसरे प्रथम उक्त पद कोई शनशास्त्र जरूर रहा है। वादिराजका यह एक
आता और वहाँ केवल 'देव' पद ही होता- चमत्कारपूर्ण कला भी हो सकती है कि उन्हान 'ममन्तभद्रदेव' नहीं तो सम्भव था कि उससे समन्त- 'स्वामिनश्चरित' और 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' पद्यांक भद्रस्वामीका बाध न किया जाता । चूँकि उक्त मध्यमें उक्त पद्यको रखकर उसमें 'देव' पद द्वारा स्वामी 'समन्तभद्रदेव' पद स्वामीसमन्तभद्रके 'देवागम' समन्तभद्रकी सूचना की है, जिसके द्वारा प्रकारान्तरसे पर लिखी गई टीकामें उसके टीकाकारने दिया है देवर्नान्दका भी सूचन होजाता है । इसके सिवाय, उनके इसलिये यह पूर्णतः निश्चय है कि उसके द्वारा उन्हें द्वारा कोई व्याकरणशास्त्र (प्राकृत अथवा संस्कृत) के .यह पुष्पिकावाक्य ज्यों का त्यों दिया गया है।
बनाये जाने की अनु ति भी विद्वानों में प्रचलित है। यदि
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किरण १०.११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
आप कहें कि फिर उन्हें साहित्यिकोंने तार्किक, वादी, 'देव' पदसे उन्हींका उल्लेख पार्श्वनाथचरितमें किया कवि और वाग्मीरूपसे ही क्यों उल्लेखित किया- है, निर्बाध प्रतीत नहीं होता; क्योंकि वादिराजने वैयाकरणम्पसे भी क्यों उल्लेखित नहीं किया ? प्रमाणनिर्णय और न्यायविनिश्चयविवरणमें 'देव' पदप्रो. सा. मुझे माफ करें, यदि आपने खोज की होती का प्रयोग अकलङ्कदेवके लिये भी अनेक जगह किया तो आपको वह उल्लेख भी मिल जाता जहाँ है और इसलिये विनिगमनाविरहसे उक्त 'देव' पदका साहित्यिकोंने स्वामी समन्तभद्रको 'वैयाकरण' भी वाच्य देवनन्दि (पूज्यपाद) को नहीं बतलाया जा सकता बतलाया है। नीचे मैं आचार्य प्रभाचन्दके गद्यकथा- है। हाँ, यह प्रश्न होसकता है कि फिर पार्श्वनाथकोशका वह उद्धरण उपस्थित करता हूँ जहाँ उन्होंने चरितमें देवनन्दिका उल्लेख किस पद द्वारा ज्ञात स्वामी समन्तभद्रको 'व्याकरणशास्त्रव्याख्याता' रूप किया जाय? इसका उत्तर यह है कि किसी ग्रन्थकारसे भी स्पप्रत: उल्लेखित किया है।
के लिये यह कैद नहीं है कि उसे अपने पूर्ववर्ती समस्त "दक्षिणका-यां तर्क-व्याकरणादि-समस्तशात्र
आचार्योंका उल्लेख करना ही चाहिये । अन्यथा,
यह भी प्रश्न होसकता है कि जिस प्रकार जैन व्याख्याता दुर्द्धरानेकानुष्टानानुष्ठाता श्रीसमन्तभद्र- साहित्यके दो महारथियों-हरिवशपुराणके कर्ता म्वामिनाममहामुनिस्तीव्रतरदु : ग्वादप्रबलासद्वद्यकर्मोद- तथा आदिपुराणके कर्ताने देवनन्दिके उल्लेख के माथ यात्सनुत्पन्नभस्मकन्याविना अहर्निशं सम्पीड्यमान- प्रख्यात आचार्य सिद्धसन और वीरसेनका उल्लेख श्चिन्तयति
किया है उसी तरह यदि वादिराजने देवनन्दिका
उल्लेख किया है तो उन्होंने उनके साथ इन प्रख्यान यह ध्यान रहे कि इस उल्लेखमं तकशास्त्र- दो आचार्यों-सिद्धसेन और वीरसेनका उल्लेख क्यों व्याख्याताके तकशात्र-निमाता अर्थकी तरह व्याकरण- नहीं किया ? देवनन्दिकी तरह इनका भी उल्लेख शास्त्रव्याख्याताका भी व्याकरणशास्त्र-निमाता अथ है। होना आवश्यक था? अतएव अपने पर्ववर्ती किसी प्रभाचन्द्रके अनुमा ब्रह्म नमिदत्तने भी उन्हें प्राचार्यका उल्लेख करना न करना ग्रन्थकारकी रुचि वैयाकरण प्रकट किया है । और इसलिये इन उल्लेखोंसे पर निर्भर है। अतः वादिराजने 'देव' पदकं द्वारा स्पष्ट है कि साहित्यिकांन स्वामी समन्तभद्रको स्वामी समन्तभद्रका ही उल्लेख किया है। क्योंकि आगे वैयाकरणरूपसे भी उल्लेखित किया है।
पीछेक दानों पद्य उन्हींस सम्बन्धित हैं और यह ___ अतः वादिराजकृत पार्श्वनाथचरितमें 'देव' अन्य प्रमाणांसे सिद्ध है तथा एकसं ज्यादा-दो और पदका वाच्य स्वामी समन्तभद्रको माननमें तीसरा तीन आदि पद्योंमें किमी आचार्यविशेषका स्मरण हेतु भी बाधक नहीं है और इमलिये मेरा और करना अयुक्त एवं असङ्गत भी नहीं है। आचार्य मुख्तार साहबका उक्त निर्णय न नो कच्चा है और न जिनसेनने आदिपुराणम, वीरसेनका कवि हस्तिमल्लने केवल वसुनन्दिवृत्तिका 'समन्तभद्रदेव' मात्र उल्लेख विक्रान्तकौरवमें और अय्यपायने अपने जिनेन्द्रही उसमें प्रमाण है; क्योंकि उपयुक्त विवेचन तथा कल्याणाभ्युदयमें स्वामी ममन्तभद्रका एकसे अधिक पं० आशाधरजी, आचार्य जयसेन, नरेन्द्रसेन आदिके पद्योंमें म्मरण तथा यशोगान किया है । अतः प्रो. सा. सुस्पष्ट अन्य उल्लेख भी उसमें प्रमाण है।
का 'देव' पद-सम्बन्धी उक्त कथन बहुत ही शिथिल ___ यह दूसरी बात है कि जैन साहित्यमें 'देव' पद और गम्भीर विचारसे शून्य प्रमाणित होता है । सं देवनन्दि पूज्यपादका भी एक दो जगह उल्लेख किया (२) अब हम उनकी 'योगीन्द्र' पदवाली दूसरी गया है, परन्तु 'जैनेन्द्र' व्याकरणका स्पष्ट नामोल्लेख बातको भी लेते हैं। उसमें निम्न दो बातें साथमे न होने के कारण यह कहना कि वादिराजने भी विचारणीय हैं
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__(क) एक तो यह कि हमने और मुख्तार सा. पदका उल्लेख स्पष्टत: आया है जैसा कि आगे ने जिस आधारसे योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख बतलाया जा रहा है। ऐसी हालतमें प्रो. सा. का प्रभाचन्द्रकृत (गद्य-कथाकोश-गत) स्वीकार किया यह लिखना कि 'उक्त दोनों विद्वानों में से किसी है वह आधार प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय है एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोश स्वयं अथवा नहीं ?
देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किसीसे (ख) दूसरी यह कि प्रभाचन्द्रके गद्यकथाकोश- सुना आदि' बिल्कुल वाहियात है और उससे उनके में उक्त उल्लेख वस्तुतः मौजूद है या नहीं ? प्रयोजनका जरा भी साधन नहीं होता। प्रत्युत
(क) पहली बातके सम्बन्धमें मेरा निवेदन है कि इससे उनकी अविचारताका प्रदर्शन होता है । अतः प्रेमीजी जब ब्रह्म नेमिदत्तकी कथाको प्रभाचन्द्रक हमारा आधार कच्चा नहीं है-वह पूर्णतः सुदृढ़ है गद्यकथाकोश परसे स्वयं-दूसरोंके द्वारा भी नहीं- और इसलिये वह प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय है। मिलान करके पूर्ण असन्दिग्ध शब्दों में यह लिखें कि यह श्रागेके प्रमाणसे भी सिद्ध और सुस्पष्ट है। "दोनों कथाओंमें कोई विशेष फर्क नहीं है, नेमिदत्तकी (ख) यद्यपि प्रेमीजीके उक्त लेखपर हमारा दृढ कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनवाद विश्वास था, परन्तु प्रो. सा. के आग्रह और वहमहै।" तो उनके कथनको प्रमाणभत एवं विश्वसनीय को देखते हुए उनके सन्तोषार्थ हमने गत जनवरी कैसे नहीं माना जा सकता है ? हम नहीं समझते सन् १९४६ में ही श्रद्धेय प्रेमीजीसे प्रभाचन्द्रक उक्त कि प्रो. सा. बिना किसी विरोध-प्रदशनके प्रेमीजीके गद्यकथाकोशको भेजनेकी प्रार्थना की और उन्होंने उक्त लेखको क्यों अप्रमाण, अविश्वसनीय अथवा उसी समय उस हमारं पाम भेज दिया। जैसाकि सन्दिग्ध प्रकट कर रहे हैं ? केवल वह लेख बीस वर्ष निश्चित किया गया था, इस ग्रथम प्रभाचंद्रने पुराना हो जानेसे ही अप्रमाण एवं अविश्वसनीय योगीन्द्र' शब्दका म्वामी समन्तभद्रके लिये स्पष्टतः
और सन्देहका कारण नहीं बन सकता है। अन्यथा प्रयोग किया है वह भी एक ही जगह नहीं, बल्कि काई भी पुराना लेख अथवा ग्रन्थ प्रमाण और दो जगह और १४ जगह तो उनके लिये 'योगी' विश्वसनीय नहीं हो सकेगा। मान लीजिये कि उक्त शब्दका भी प्रयोग किया है । यथाप्रभाचन्द्रका गद्यकथाकोश हमने अथवा मुख्तार मा. 'योगी' पदके उल्लेखने स्वयं नहीं देखा। पर उसे एक प्रामाणिक व्यक्तिने (१) 'योगिलिंगं धृत्वा वाणारस्या...-प. ९। स्वयं अच्छी तरह देखा, जाँचा, पढ़ा और पारायण (२) 'योगिना चोक्तमस्त्येव...'-पत्र १८ पं. ४। किया है और वह हमें लिखे कि नेमिदत्तका (३) 'ततस्तत्रत्यलोक राज्ञः कथितं देव ! कथाकोश प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशका प्रायः पर्ण योगिनैकेन भवदीय...-पत्र १० । अनुवाद है और हम इस आधारसे यह निष्कर्ष (४) 'ततो योगी भणितो...-पत्र १०, पं.८ । निकालें कि 'जब प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशपरसे (५) 'योगी न किंचिद्देवमवतीर्य भोजयति...पूर्णतः (शब्दशः और अर्थशः) अनुवादित नेमिदत्तकं प. १० उ. पं. ७। । कथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' (६) 'योगिनोक्तं मदीयनमस्कारमसौ सोदु न पद उपलब्ध होता है तो वह प्रभाचन्द्रके गद्य- शक्नोति"'-प. १०, उ. पं. ९। कथाकोशमें भी उनके लिये आया है, यह कहनमें (७) 'ततो योगिनोक्तं प्रभाते सामथ्र्य..." कोई आपत्ति नहीं है तो इसमें क्या अनहोनी और पत्र ११ पृ. पं.२। कच्चापन है ? जब कि हम देख रहे हैं कि प्रभाचन्द्रके () 'योगिनं देवग्रहमध्य प्रक्षिप्प...'-प. ११, गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रकं लिय 'योगीन्द्र' पू. पं. ३।
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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककतृत्व प्रमाणसिद्ध है
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(९) 'योगिनश्व...'-पत्र ११, पृ. पं. ४। १८८२में रचा है तथा शेष रचनाएँ आगे पीछे रची (१०) 'योगी बहिराकारितः । '-प. ११, उ. पं. १। होंगी। और प्रभाचन्द्र उक्त धारानरेश भोजदेव एवं
(११) 'योगिनोऽद्यापूर्वा मूर्तिर्वर्त्तते .......... - उनके उत्तराधिकारी परमारवंशी जयसिंह (वि० मं० प. ११, उ. पं. २।
१११२) दोनोंके राज्यकालमें हुए हैं तथा अपनी (१२) 'भो योगिन'प. ११, उ. पं. ८ । रचनाएँ इन्हींके राज्य-समयमें बनाई हैं। अतः ये
(१३) 'योगी द्वारं दत्त्वा स्वयमेव भंजानो... दोनों प्राचार्य प्रायः समकालिक ही हैं—यदि दस प. १०, उ. पं. ६।
बीस वर्षका अन्तर हो भी तो उससे दोनोंके (१४) 'भो योगिन मृषावादीत्वं' प. १० उ. पं.७। 'योगीन्द्र' पदके उल्लेखोंपर कोई असर नहीं पड़ता। 'योगीन्द्र' पदके उल्लेख
और इसलिये प्रभाचन्द्र जिन पूर्व प्राचार्य-अनुश्रुति (१) 'भो योगीन्द्र ! किमिति रमवती तथैवो
आदि प्रमाणोंके आधारपर उक्त 'योगीन्द्र' पदका
उल्लेख अपने गद्यकथाकोशमं स्वामी समन्तभद्रकं लिये ध्रियते -प. १०, उ. पं. ३।
करते हैं और रत्नकरण्डकको उमकी अपनी रत्न(२) 'भो योगीन्द्र ! कुरु देवस्य नमस्कारं .'
करण्डक-टीकामें 'योगीन्द्र' उपनाम विशिष्ट स्वामी प. ११ उ. पं. ४।
समन्तभद्रकी रचना बतलाते हैं तो उनके समकालीन ऐसी दशामें प्रो. सा. के उक्त कथनका कुछ भी
वादिराज भी अपने पार्श्वनाथचरितमें उन्हीं पूर्व महत्व नहीं रहता। अत: यह भलीभाँति प्रमाणित है
आचार्य-अनुश्रुति आदि प्रमाणों के आधारपर 'योगीन्द्र' कि प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रके
पदका प्रयोग स्वामी समन्तभद्रके लिये क्यों नहीं कर लिये 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग हुआ है और इसलिये
सकते हैं ? और उसके द्वारा रत्नकरण्डकको उनकी मुख्तार मा. के पूर्वोक्त प्रतिपादन और हमारे उसके
कृति क्यों नहीं बतला सकते हैं ? इससे साफ है कि ममथनम जरा भा सन्दहक लिय स्थान नहीं है। प्रभाचन्द्रकी तरह वादिराजने भी 'योगीन्द्र' पदका वादिराज और प्रभाचन्द्र प्रायः समकालीन हैं- प्रयोग स्वामी समन्तभद्रके लिये ही किया है-अन्यके
प्रो. सा. ने आगे चलकर अपने इसी लेखमें लिये नहीं । वादिराजस प्रभाचन्द्रको उत्तरकालीन बतलाया है
यदि प्रो. सा. का यही आग्रह अथवा मत हो कि और पार्श्वनाथचारत तथा रत्नकरण्डकटीकामें तीम वादिराजको उक्त 'योगीन्द्र' पदसे प्राप्तमीमांसाकार पैंतीस वर्षका अन्तर प्रकट किया है। जहाँ तक इन स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न ही दूसरा व्यक्ति रनरचनाओंके पौर्वापर्यका प्रश्न है उसे हम मान सकते
करण्डकका कर्ता विवक्षित है, जिनकी योगीन्द्र' हैं. पर यह तथ्य भी अस्वीकार नहीं किया जासकता उपाधि थी और समन्तभद्र कहलाते थे तथा जो
कि योगीन्द्र' पदका प्रयोग करने वाले ये दोनों ही रत्नमालाकार शिवकोटिके गुरु थे तो मेरा उनसे आचार्य प्रायः समकालीन है'-आचार्य वादिराज अनुरोध है कि वे ऐसे व्यक्तिका जैन साहित्यमें प्रो. सा. के मतानुसार ही धारानरेश भोजदेव अस्तित्व दिखलावें । मैं इस बारेमें पहले भी उनसे (वि.सं०१८७५-१११०) को पराजित करने वाले
ले अनुरोध कर चुका हूँ और 'योगीन्द्र' उपनामके चालुक्यवंशी जयसिंह (वि० सं० १८८०) के समयमें धारक कतिपय विद्वानोंको प्रदर्शित भी कर चुका हूँ, हुए हैं और उन्होंने अपना पाश्वनाथचरित वि० सं० जिनमें एक भी रत्नकरण्डका कर्ता सिद्ध नहीं होता। १ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने भी न्यायकुमुद द्वितीय परन्तु प्रो. सा. ने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया । भागकी अपनी प्रस्तावना (प्र०५७) में इन दोनों प्राचार्यो- सबसे बडी मजेकी बात यह है कि वे विद्यानन्द और को समकालीन और समव्यक्तित्वशाली बतलाया है। वादिराजके मध्य में उक्त व्यक्तिका सीमा-निर्धारण तो
TI
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___(क) एक तो यह कि हमने और मुख्तार मा. पदका उल्लेख स्पष्टत: आया है जैमा कि आगे ने जिस आधारसे 'योगीन्द्र' शब्द का उल्लेख बतलाया जा रहा है। ऐसी हालतमें प्रो. मा. का प्रभाचन्द्रकृत (गद्य-कथाकोश-गत) स्वीकार किया यह लिखना कि 'उक्त दोनों विद्वानों में में किसी है वह आधार प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय है एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोश स्वयं अथवा नहीं?
देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किमीमे (ख) दूसरी यह कि प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोश- मुना आदि' बिल्कुल वाहियात है और उमसे उनके में उक्त उल्लेख वस्तुतः मौजूद है या नहीं ? प्रयोजनका जरा भी साधन नहीं होता। प्रत्युत
(क) पहली बातके सम्बन्धमें मेरा निवेदन है कि इससे उनकी अविचारताका प्रदर्शन होता है। अतः प्रमीजी जब ब्रह्म नेमिदत्तकी कथाको प्रभाचन्दक हमारा आधार कच्चा नहीं है-वह पृणतः सहद है गदाकथाकोश परसे स्वयं-दूसरोंके द्वारा भी नहीं- और इमलिये वह प्रमाणभूत एवं विश्वमनीय है । मिलान करके पूर्ण अमन्दिग्ध शब्दों में यह लिखें कि यह आगेके प्रमाणसे भा सिद्ध और मुम्पए है। "दोनों कथाओं में कोई विशेष फर्क नहीं है, नमिदत्तकी (ख) यद्यपि प्रमीजीके उक्त लेग्यपर हमाग दृढ़ कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद विश्वास था, परन्तु प्रो. मा. के श्राग्रह और वहमहै।" तो उनके कथनको प्रमाणभूत एवं विश्वसनीय का दबते हुए उनके मन्तापार्थ हमने गत जनवरी कैसे नहीं माना जा सकता है? हम नहीं समझने मन १९४६ में ही श्रद्धय प्रमीजीस प्रभाचन्द्र के उक्त कि प्रो. मा. बिना किसी विरोध-प्रदशन प्रेमीजीक गद्यकथाकाशको भेजनकी प्रार्थना की और उन्होंने उक्त लेग्बको क्यों अप्रमाण, अविश्वसनीय अथवा
उमी ममय उस हमारं पाम भेज दिया। जैमाकि सन्दिग्ध प्रकट कर रहे हैं ? केवल वह लेख बीस वर्ष निश्चित किया गया था. इस प्रथम प्रभाचद्रने पुराना हो जानेसे ही अप्रमाण एवं अविश्वमनीय 'यागीन्द्र' शब्दका स्वामी समन्तभद्रके लिय म्परतः
और सन्देहका कारण नहीं बन सकता है। अन्यथा प्रयोग किया है वह भी एक ही जगह नहीं, बल्कि कोई भी पुराना लेख अथवा ग्रन्थ प्रमाण और दो जगह और १४ जगह तो उनके लिये 'योगी' विश्वसनीय नहीं हो सकेगा। मान लीजिये कि उक्त शब्दका भी प्रयोग किया है । यथाप्रभाचन्द्रका गद्यकथाकोश हमने अथवा मुख्तार मा. 'योगी' पदक उल्लेखने स्वयं नहीं देखा । पर उसे एक प्रामाणिक व्यक्तिन (१) 'यागिलिंगं धृत्वा वारणारम्या....'.--प. ५। स्वयं अच्छी तरह देखा, जाँचा, पढ़ा और पारायण (२) योगिना चोक्तमस्त्येव...' पत्र १८ पं.४। किया है और वह हमें लिग्वे कि नमिदत्तका (३) 'ततस्तत्रत्यलोक राज्ञः कथिनं देव ! कथाकोश प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशका प्रायः पूर्ण योगिनैकन भवदीय...'-पत्र १० । अनुवाद है और हम इस आधारसे यह निष्कर्ष (४) 'नना योगी भरिणती...' पत्र १०, पं.८ । निकालं कि 'जब प्रभाचन्द्रक गद्यकथाकोशपरसे (५) 'योगी न किंचिद्देवमवतीय भोजन....'पूर्णतः (शब्दशः और अर्थशः) अनुवादिन नमिदत्तक प. १० उ. पं. ७ । कथाकोशमं स्वामी ममन्तभद्रकं लिये 'योगीन्द्र' (६) योगिनोक्तं मदीयनमस्कारममौ मोदन पद उपलब्ध होता है तो वह प्रभाचन्द्रके गद्य- शक्नोति...'.--प. १०, उ. पं. ९। कथाकोशमें भी उनके लिये आया है, यह कहनमें (७) 'ततो योगिनोक्तं प्रभाते सामथ्र्य..." कोई आपत्ति नहीं है तो इसमें क्या अनहोनी और पत्र ११ पू. पं. २। कशापन है ? जब कि हम देख रहे हैं कि प्रभाचन्द्र के (८) योगिनं देवग्रहमध्य प्रक्षिप्प..."-प. ११, गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्र के लिये 'योगीन्द्र' ५. पं.३।
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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
( ९ ) 'योगिनश्च' – पत्र १९, पृ. पं. ४ । (१०) 'योगी बहिराकारितः १ प. ११, उ. पं. १ । (११) 'योगिनोऽद्यापूर्वा मूर्तिर्वर्त्तते
"_
प. ४१, उ. पं. २ ।
(१२) 'भो योगिन ... प. ११, उ. पं. ८ । (१३) 'योगी द्वारं दत्त्वा स्वयमेव भंजानो ... प. १०, उ. पं. ६ ।
(१४) 'भो योगिन मृपावादीत्वं' प. १० उ. पं. ७ । 'योगीन्द्र' पदके उल्लेख
(१) 'भो योगीन्द्र ! किमिति रसवती तथैवोदक्षियते प १०, उ. पं. ३ |
'
(२) 'भो योगीन्द्र ! कुरु देवस्य नमस्कार - प. ११३. पं. ४ |
ऐसी दशा में प्रो. सा. के उक्त कथनका कुछ भी महत्व नहीं रहता | अतः यह भलीभाँति प्रमाणित है कि प्रभाचन्द्रकं गद्यकथाकाशमें स्वामी समन्तभद्रके लिये ‘योगीन्द्र' पदका प्रयोग हुआ है और इसलिये मुख्तार मा. के पूर्वोक्त प्रतिपादन और हमारे उसके समर्थनमें जरा भी सन्देहके लिये स्थान नहीं 1 वादिराज और प्रभाचन्द्र प्रायः समकालीन हैं
प्रो. सा. ने आगे चलकर अपने इसी लेख में वादिराज से प्रभाचन्द्रको उत्तरकालीन बतलाया है और पार्श्वनाथचरित तथा रत्नकरण्डकटीकामें तीस पैंतीस वर्षका अन्तर प्रकट किया है। जहाँ तक इन रचनाओं के पौर्वापर्यका प्रश्न है उसे हम मान सकते हैं, पर यह तथ्य भी अस्वीकार नहीं किया जासकता है कि 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग करने वाले ये दोनों ही आचार्य प्रायः समकालीन हैं' - श्राचार्य वादिराज प्रो. सा. के मतानुसार ही धारानरेश भोजदेव (वि० सं० १०७५-१११०) को पराजित करने वाले चालुक्यवंशी जयसिंह (वि० सं० १०८०) के समयमें हुए हैं और उन्होंने अपना पार्श्वनाथचरित वि० सं० ५ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने भी न्यायकुमुद द्वितीय भागकी अपनी प्रस्तावना ( पृ०५७) में इन दोनों श्राचायको समकालीन और समव्यक्तित्वशाली बतलाया है ।
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१०८२में रचा है तथा शेष रचनाएँ आगे पीछे रची होंगी । और प्रभाचन्द्र उक्त धारा नरेश भोजदेव एवं उनके उत्तराधिकारी परमारवंशी जयसिंह (वि० सं० १११२) दोनोंके राज्यकाल में हुए हैं तथा अपनी रचनाएँ इन्हींके राज्य- समय में बनाई हैं । अतः ये दोनों आचार्य प्रायः समकालिक ही हैं-यदि दस बीस वर्षका अन्तर हो भी तो उससे दोनोंके 'योगीन्द्र' पदके उल्लेखोंपर कोई असर नहीं पड़ता । और इसलिये प्रभाचन्द्र जिन पूर्व आचार्य अनुश्रुति आदि प्रमाणों के आधारपर उक्त 'योगीन्द्र' पदका उल्लेख अपने गद्यकथाकोशमें स्वामी समन्तभद्रके लिये करते हैं और रत्नकरण्डकको उसकी अपनी रत्नकरण्डक- टीका में 'योगीन्द्र' उपनाम विशिष्ट स्वामी समन्तभद्रकी रचना बतलाते हैं तो उनके समकालीन वादिराज भी अपने पार्श्वनाथ चरित आचार्य अनुश्रुति आदि प्रमाणों के आधारपर 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग स्वामी समन्तभद्रके लिये क्यों नहीं कर
सकते हैं ? और उसके द्वारा रत्नकरण्डकको उनकी कृति क्यों नहीं बतला सकते हैं ? इससे साफ़ है कि प्रभाचन्द्र की तरह वादिराजने भी 'योगीन्द्र' पदका प्रयोग स्वामी समन्तभद्र के लिये ही किया है-अन्यके लिये नहीं ।
यदि प्रो. सा. का यही आग्रह अथवा मत हो कि वादिराजको उक्त 'योगीन्द्र' पदसे आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र से भिन्न ही दूसरा व्यक्ति रत्नकरडका कर्ता विवक्षित है, जिनकी योगीन्द्र' उपाधि थी और समन्तभद्र कहलाते तथा जो रत्नमालाकार शिवकोटिके गुरु थे तो मेरा उनसे अनुरोध है कि वे ऐसे व्यक्तिका जैन साहित्य में अस्तित्व दिखलावें । मैं इस बारे में पहले भी उनसे अनुरोध कर चुका हूँ और 'योगीन्द्र' उपनामके धारक कतिपय विद्वानोंको प्रदर्शित भी कर चुका हूँ, जिनमें एक भी रत्नकरण्डका कर्ता सिद्ध नहीं होता । परन्तु प्रो. सा. ने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया । सबसे बड़ी मजेकी बात यह है कि वे विद्यानन्द और वादिराज के मध्य में उक्त व्यक्तिका सीमा निर्धारण तो
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अनेकान्त
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कर देते हैं परन्तु उसके अस्तित्वका साधक एक है कि 'इन दोनों अवतरणोंकी प्रभाचन्द्र-कृत भी प्रमाण उपस्थित नहीं करते । ऐसी स्थितिमें शब्दाम्भोजभास्करके निम्नलिखित अवतरणसे म्वपक्षस्थापनाविहीन और परपक्षालोचनमात्र चर्चा तुलना करने पर स्पष्ट मालूम हो जाता है कि (वितण्डा )से किसी भी वस्तुकी सिद्धि नहीं शब्दाम्भोजभास्करके कर्त्ताने ही उक्त टीकाओंको हो सकती है।
बनाया है।' इसके आगे शब्दाम्भोजभास्करका अवरत्नकरण्ड-टीकाके कत्वपर सन्देह और भ्रान्त
तरण देकर पण्डितजीने पुनः लिखा है कि 'प्रभाचन्द्र
कृत गद्यकथाकोशमें पाई जानेवाली अञ्जनचोर उल्लेख
आदिकी कथाओंसे रत्नकरण्डटीकागत कथाओंका इसी सिलसिलेमें प्रो. सा. ने रत्नकरण्ड-टीकाके अक्षरशः सादृश्य है ।' इन उद्धरणोंसे प्रकट है कि प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र कतृ कत्वमें सन्देह प्रकट करते हुए न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीका रत्नकरण्डटीकाको एक भ्रान्त उल्लेग्व भी किया है। आप लिखते हैं कि उन्हीं प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत माननेका स्पष्ट मत है। 'इसीसे न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीके मतानुसार गद्यकथाकोश और रत्नकरण्ड-टीकामें दी गई तो रत्नकरण्ड-टीकाके उन्हीं (प्रेमयकमलमार्तण्ड, अञ्जनचोर आदिकी कथाएँ तो अक्षरशः एकसी है ही, गद्यकथाकोश आदिक रचयिता) प्रभाचन्द्र कृत होने पर दोनोंकी साहित्यिक रचना भी एकसी है'-वही की सम्भावना अभी भी खासतौरसे विचारणीय है सरलता और वही विशदता दोनों में है । अतएव जब (न्या. कु. भा. २ प्रस्ता. पृ. ६७)।' परन्तु जब हमने गद्यकथाकोशको प्रो. सा. प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी कृति उनके निर्दिष्ट ग्रन्थको खोलकर उनके वक्तव्यके साथ मानते हैं तो रत्नकरण्डटीकाको भी उन्हींकी कृति उसका मिलान किया तो हमें आश्चर्य हुआ कि वे उन्हें मानना चाहिए । मैं इन ग्रन्थोंको प्रसिद्ध इतना भ्रमोत्पादक अधूग उल्लेख क्यों करते हैं और प्रभाचन्द्रकृत ही अन्य लेखमें सिद्ध करनेवाला हूँ। किसीक अपूर्ण मतको प्रकट करके पाठकोंको धोखेमें
प्रभाचन्द्रका उल्लेख सर्वथा असन्दिग्ध हैक्यों डाल रहे हैं ? पण्डितजीने वहाँ अपना क्या
प्रभाचन्द्रने रत्नकरण्डककी अपनी टीकाके मत दिया है, उसे देखनके लिये मैं पाठकोंसे प्रेरणा
प्रत्येक परिच्छेद के अन्तमें जो पुष्पिकावाक्य दिये हैं करता हूँ। उन्होंने उक्त प्रस्तावनाके पृ०६६ के नीचे
उन सबमें उन्होंने रत्नकरण्डकको स्वामीसमन्तभद्रनं०२ की टिप्पणीमें 'रत्नकरण्ड' पर जो विस्तृत
कृत बतलाया है । इसके सिवाय, उन्होंने ग्रन्थारम्भमें फुटनोट दिया है और जिसकी ओरसे प्रो. सा. ने
भी प्रथम पद्यकी उत्थानिकामें 'श्रीसमन्तभद्रस्वामी... बिल्कुल आँख मींच ली है, उसीमें पण्डितजीने
रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तकामो....................) अपना स्पष्ट मत प्रकट किया है। मुख्तार साहबकी
इत्यादि शब्दों द्वारा रत्नकरण्डकको स्वामी समन्तआलोचना करते हुए वहाँ उन्होंने लिखा है कि 'मुख्तार सा. ने इन टीकाओं (समाधितन्त्र और १ नमूनेके तौरपर इन ग्रन्थोंके निम्न मंगलाचरण पद्योंकी रत्नकरण्डकी टीकाओं) के प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत न परस्पर तुलना कीजियेहोनेम जो प्रमाण दिये हैं वे दृढ़ नहीं हैं। रत्न- 'प्रणम्य मोक्षप्रदमस्त दोषं प्रकृष्ट-पुण्य प्रभवं जिनेन्द्रम् । करण्ड-टीका तथा समाधितंत्र-टीकामें प्रमेयकमल- वक्ष्येऽत्र भव्य-प्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सुकथाप्रबन्धम् ॥१॥' मात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्ट
-गद्यकथाकोश लि. प. १ । शैलीसे उल्लेख होना इसकी सूचना करता है कि ये 'समन्तभद्र निखिलात्मबोधनं जिनं प्रणम्याखिलकमशोधनम्। टीकाएँ भी प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी ही होनी चाहिए।' निबन्धनं रत्नकरण्डके परं करोमि भव्यप्रतिबोधनाकरम् ।।१।।' आगे ग्रन्थोल्लेग्वोंको उपस्थित करके उन्होंने और लिखा
-रत्नकरण्ड-टीका पृ. १ ।
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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमांसाका एककतृत्व प्रमाणसिद्ध है
४२३
भद्रकी ही रचना बतलाई है। अतएव मैंने पिछले चरितमें जहाँ रत्नकरण्डको अप्रसिद्ध और अज्ञात लेखमें लिखा था कि 'प्रो. सा. ने वादिराजके उल्लेख योगीन्द्रकृत कहा है वहाँ रत्नकरण्ड-टीकामें उसे पर जहाँ जोर दिया है वहाँ प्रभाचन्द्र के सुस्पष्ट एवं अनेक जगह (प्रारम्भमें, मध्यमें और अन्तमें) स्पष्ट अभ्रान्त ऐतिहासिक उल्लेखकी सवेथा उपेक्षा की है।' शब्दाम प्रसिद्ध और सुज्ञात स्वामी समन इसपर अब आप लिखते हैं कि 'प्रभाचन्द्रका उल्लेख रचना कही है। ऐसी हालतमें पाठक जान सकते हैं केवल इतना ही तो है कि रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी कि वादिराजका उल्लेख स्पष्ट और अभ्रान्त है या समन्तभद्र हैं, उन्होंने यह तो कहीं प्रकट किया ही प्रभाचन्द्रका ? और मैं यह पहले कह आया हूँ कि नहीं कि ये ही रत्नकरण्डके कर्ता प्राप्तमीमांसाके ये दोनों विद्वान प्रायः समकालिक है और इसलिये भी कर्ता हैं।
पार्श्वनाथ-चरितमें उसका रचनाकाल होनेसे उसका इस सम्बन्धमें ज्यादा कुछ न कहकर इतना ही उल्लेख स्पष्ट और अभ्रान्त तथा रत्नकरण्ड टीकामें कह देना पर्याप्त है कि स्वामी समन्तभद्र और आप्त- रचनाकाल न होनेसे उसके उल्लेख अस्पष्ट और मीमांसाकार दोनों अभिन्न हैं। इस बातको स्वयं भ्रान्त नहीं कहे अथवा बतलाये जा सकते हैं । प्रो० सा० भी अपने विलुप्त अध्यायमें स्वीकार कर अन्यथा ९० प्रतिशत ग्रंथ बिना रचनाकालके हैं और चुके हैं और जैन-साहित्यमें स्वामी समन्तभद्रसे तब उनके उल्लेख भी अम्पष्ट और भ्रान्त कहे जायेंगे। आप्तमीमांसाकारका ही सर्वत्र ग्रहण किया गया है। दूसरी बात यह है कि प्रभाच-द्रके उल्लेखोंके पोषक ऐसा एक भी उदाहरण जैन-साहित्यमें नहीं मिलता और समर्थक तो उत्तरवर्ती बीसियों उल्लेख प्रमाण अथवा प्रो० सा० ने उपस्थित किया है जहाँ 'स्वामी मौजूद हैं और जिनमें भी रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्र' से दूसरे (आप्तमीमांसाकारसे भिन्न ) समन्तभद्रकी कृति बतलाई है । परन्तु वादिराजके ग्रन्थकारका ग्रहण किया गया हो अथवा दूसरेका उल्लेखका पापक एवं समर्थक एक भी उल्लेख उत्तरभी वह नाम हो । अतएव स्वामी समन्तभद्रके कालीन प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसमें रत्नकरण्डको नामोल्लेखसे ग्रन्थकारोंका अभिप्राय आप्तमीमांसा- योगीन्द्रकृत बतलाया गया हो । यदि हो तो प्रो० सा० कारका ही स्पष्टतः रहा है और इसलिये प्रभाचन्द्र उसे उपस्थित करें। इससे साफ है कि प्रभाचन्द्रका जब रत्नकरण्डका कर्ता स्वामी समन्तभद्रको बतला उल्लेख वस्तुतः अभ्रान्त, स्पष्ट और ऐतिहासिक रहे हैं तब स्पष्ट है कि वे उसे प्राप्तमीमांसाकारकी महत्व युक्त है । अतः प्रोः सा० का यह लिखना कि ही कृति स्वीकार करते हैं क्योंकि वे दोनों एक हैं- 'प्रभाचन्द्रके जिस उल्लेखपर पण्डितजीने जोर दिया अलग-अलग नहीं ।
है व न तो सुस्पष्ट है, अभ्रान्त है और न उसका आगे चलकर आप कहते हैं कि वादिराजके कोई ऐतिहासिक महत्व है।' सर्वथा असङ्गत है और पार्श्वनाथचरितमें उमका रचनाकाल दिया हुआ है, वह केवल बदलेकी भावनाका प्रकाशन मात्र है। इसलिये उसका रत्नकरण्डको योगीन्द्रकृत बतलाने वाला रत्नकरण्डके उपान्त्य पद्यके श्लेषार्थपर विचारउल्लेख तो स्पष्ट और अभ्रान्त है । परन्तु रत्नकरण्ड- रत्नकरण्डके अन्तिम (१५८ वें) पद्यके पूर्व एक टीकामें उसका रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, अतः निम्न पद्य आया है जिसमें ग्रन्थकारने उपसंहारउसका उल्लेख 'न तो सुस्पष्ट है, न अभ्रान्त है और रूपसे ग्रन्थमें वर्णित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और न उसका काई एतिहासिक महत्व है। मुझे उनके सम्यक चारित्र इन तीन रत्नोंके लिये आत्माके इस अतथ्य पक्षपातपूर्ण कथनपर कोई आश्चर्य नहीं है। पिटारी बना लेनेकी प्रेरणा की है और उसका फल परन्तु खेद है कि उन्होंने अपने पक्षकी पुष्टिमें सचाई तीनों लोकोंमें सब अर्थोकी सिद्धिरूप बतलाया है। और न्यायको भी तिलाञ्जलि दे दी है। पार्श्वनाथ- यह पद्य इस प्रकार है :
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कर देते हैं परन्तु उसके अस्तित्वका साधक एक है कि इन दोनों अवतरणोंकी प्रभाचन्द्र-कृत भी प्रमाण उपस्थित नहीं करते । ऐसी स्थितिमें शब्दाम्भोजभास्करके निम्नलिखित स्वपक्षस्थापनाविहीन और परपक्षालोचनमात्र चर्चा तुलना करने पर स्पष्ट मालूम हो जाता है कि (वितण्डा )से किसी भी वस्तुकी सिद्धि नहीं शब्दाम्भोजभास्करके कर्त्ताने ही उक्त टीकाओंको हो सकती है।
बनाया है।' इसके आगे शब्दाम्भोजभास्करका अवरत्नकरण्ड-टीकाके कतृत्वपर सन्देह और भ्रान्त
न तरण देकर पण्डितजीने पुनः लिखा है कि 'प्रभाचन्द्र
कृत गद्यकथाकोशमें पाई जानेवाली अञ्जनचोर उल्लेख
आदिकी कथाओंसे रत्नकरण्डटीकागत कथाओंका इसी सिलसिलेमें प्रो. सा. ने रत्नकरण्ड-टीकाके अक्षरशः सादृश्य है।' इन उद्धरणोंसे प्रकट है कि प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र कर्तृ कत्वमें सन्देह प्रकट करते हुए न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीका रत्नकरण्डटीकाको एक भ्रान्त उल्लेख भी किया है। आप लिखते हैं कि उन्हीं प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत माननेका स्पष्ट मत है।। 'इसीसे न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीके मतानुसार गद्यकथाकोश और रत्नकरण्ड-टीकामं दी गई तो रत्नकरण्ड-टीकाके उन्हीं (प्रेमयकमलमार्तण्ड, अञ्जनचोर आदिकी कथाएँ तो अक्षरशः एकसी है ही, गद्यकथाकोश आदिके रचयिता) प्रभाचन्द्र कृत होने पर दोनोंकी साहित्यिक रचना भी एकसी है'-वही की सम्भावना अभी भी खासतौरसे विचारणीय है सरलता और वही विशदता दोनोंमें है । अतएव जब (न्या. कु. भा. २ प्रस्ता. पृ. ६७)। परन्तु जब हमने गद्यकथाकोशको प्रो. सा. प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र की कृति उनके निर्दिष्ट ग्रन्थको खोलकर उनके वक्तव्य के साथ मानते हैं तो रत्नकरण्डटीकाको भी उन्हींकी कृति उसका मिलान किया तो हमें आश्चर्य हुआ कि वे उन्हें मानना चाहिए । मैं इन ग्रन्थोंको प्रसिद्ध इतना भ्रमोत्पादक अधूग उल्लेख क्यों करते हैं और प्रभाचन्द्रकृत ही अन्य लेखमें सिद्ध करनेवाला हूँ। किसीके अपूर्ण मतको प्रकट करके पाठकोंको धाखेम प्रभाचन्टका उल्लेख सर्वथा असन्दिग्ध हैक्यों डाल रहे हैं ? पण्डितजीने वहाँ अपना क्या
प्रभाचन्द्रने रत्नकरण्डककी अपनी टीकाके मत दिया है, उसे देखनके लिये मैं पाठकोंसे प्रेरणा
प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमें जो पुष्पिकावाक्य दिये हैं करता हूँ । उन्होंने उक्त प्रस्तावनाके पृ० ६६ के नीचे
उन सबमें उन्होंने रत्नकरण्डकको स्वामीसमन्तभद्रनं०२ की टिप्पणीमें 'रत्नकरण्ड' पर जो विस्तृत
कृत बतलाया है । इसके सिवाय. उन्होंने ग्रन्थारम्भम फुटनोट दिया है और जिसकी ओरसे प्रो. सा. ने
भी प्रथम पद्यकी उत्थानिकामें 'श्रीसमन्तभद्रस्वामी"" बिल्कुल आँख मीच लो है, उसीमें पण्डितजीने अपना स्पष्ट मत प्रकट किया है। मुख्तार साहबकी
रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तकामी...................'
इत्यादि शब्दों द्वारा रत्नकरण्डकको स्वामी समन्तआलोचना करते हुए वहाँ उन्होंने लिखा है कि 'मुख्तार सा. ने इन टीकाओं (समाधितन्त्र और १ नमूनेके तौरपर इन ग्रन्थोंके निम्न मंगलाचरण पद्योंकी रत्नकरण्डकी टीकाओं) के प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत न परस्पर तुलना कीजियेहोने जो प्रमाण दिये हैं वे दृढ़ नहीं हैं। रत्न- 'प्रणम्य मोक्षप्रदमस्त-दोषं प्रकृष्ट-पुण्य प्रभवं जिनेन्द्रम । करण्ड-टीका तथा समाधितंत्र-टीकामें प्रमेयकमल- वक्ष्येऽत्र भव्य-प्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सुकथाप्रबन्धम् ||१|| मात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्ट
-गद्यकथाकोश लि. प. १ । शैलीसे उल्लेख होना इसकी सूचना करता है कि ये 'समन्तभद्र निखिलात्मबोधनं जिनं प्रणम्याखिलकर्मशोधनम्। टीकाएँ भी प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र की ही होनी चाहिए।' निबन्धनं रत्नकरण्डके परं करोमि भव्यप्रतिबोधनाकरम् ॥१॥' आगे ग्रन्थोल्लेखोंको उपस्थित करके उन्होंने और लिग्वा
-रत्नकरण्ड-टीका पृ. १ ।
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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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भद्रकी ही रचना बतलाई है। अतएव मैंने पिछले चरितमें जहाँ रत्नकरण्डको अप्रसिद्ध और अज्ञात लेखमें लिखा था कि 'प्रो. सा. ने वादिराजके उल्लेख योगीन्द्रकृत कहा है वहाँ रत्नकरण्ड-टीकामें उसे पर जहाँ जोर दिया है वहाँ प्रभाचन्द्र के सुस्पष्ट एवं अनेक जगह (प्रारम्भमें, मध्यमें और अन्तमें) स्पष्ट अभ्रान्त ऐतिहासिक उल्लेखकी सर्वथा उपेक्षा की है।' शब्दोंमें प्रसिद्ध और सुज्ञात स्वामी समन्तभद्रकी इसपर अब आप लिखते हैं कि 'प्रभाचन्द्रका उल्लेख रचना कही है । ऐसी हालतमें पाठक जान सकते हैं केवल इतना ही तो है कि रत्नकरण्डके का स्वामी कि वादिराजका उल्लेख स्पष्ट और अभ्रान्त हे या समन्तभद्र हैं, उन्होंने यह तो कहीं प्रकट किया ही प्रभाचन्द्रका ? और मैं यह पहले कह आया हूँ कि नहीं कि ये ही रत्नकरण्डके कर्ता आप्तमीमांसाके ये दोनों विद्वान प्रायः समकालिक हैं और इसलिये भी कर्ता हैं।
पार्श्वनाथ-चरितमें उसका रचनाकाल होनेसे उसका इस सम्बन्धमें ज्यादा कुछ न कहकर इतना ही उल्लेख स्पष्ट और अभ्रान्त तथा रत्नकरण्ड टीकाम कह देना पर्याप्त है कि स्वामी समन्तभद्र और आप्त- रचनाकाल न होनेसे उसके उल्लेख अस्पष्ट और मीमांसाकार दोनों अभिन्न हैं। इस बातको स्वयं भ्रान्त नहीं कहे अथवा बतलाये जा सकते हैं। प्रो० सा० भी अपने विलुप्त अध्यायमें स्वीकार कर अन्यथा ९० प्रतिशत ग्रंथ बिना रचनाकालके हैं और चुके हैं और जैन-साहित्यमें स्वामी समन्तभद्रसे तब उनके उल्लेख भी अस्पष्ट और भ्रान्त कहे जायेंगे। आप्तमीमांसाकारका ही सर्वत्र ग्रहण किया गया है। दूसरी बात यह है कि प्रभाच-द्रके उल्लेखोंके पोषक ऐसा एक भी उदाहरण जैन-साहित्यमें नहीं मिलता और समर्थक तो उत्तरवर्ती बीसियों उल्लेख प्रमाण अथवा प्रो० सा० ने उपस्थित किया है जहाँ 'स्वामी मौजूद हैं और जिनमें भी रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्र' से दूसरे (आप्तमीमांसाकारसे भिन्न ) समन्तभद्रकी कृति बतलाई है । परन्तु वादिराजके ग्रन्थकारका ग्रहण किया गया हो अथवा दूसरेका उल्लेखका पोषक एवं समर्थक एक भी उल्लेख उत्तरभी वह नाम हो । अतएव स्वामी समन्तभद्रके कालीन प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसमें रत्नकरण्डको नामोल्लेखस ग्रन्थकारोंका अभिप्राय आप्तमीमांसा- योगीन्द्रकृत बतलाया गया हो । यदि हो तो प्रो० सा० कारका ही स्पष्टतः रहा है और इसलिये प्रभाचन्द्र उसे उपस्थित करें। इससे साफ है कि प्रभाचन्द्रका जब रत्नकरण्डका का स्वामी समन्तभद्रको बतला उल्लेख वस्तुतः अभ्रान्त, स्पष्ट और ऐतिहासिक रहे हैं तब स्पष्ट है कि वे उसे प्राप्तमीमांसाकारकी महत्व युक्त है। अतः प्रो० सा० का यह लिखना कि ही कृति स्वीकार करते हैं क्योंकि वे दोनों एक हैं- 'प्रभाचन्द्रके जिस उल्लेखपर पण्डितजीने जोर दिया अलग-अलग नहीं ।
है व न तो सुस्पष्ट है, अभ्रान्त है और न उसका आगे चलकर आप कहते हैं कि वादिराजके कोई ऐतिहासिक महत्व है।' सर्वथा असङ्गत है और पार्श्वनाथचरितमें उमका रचनाकाल दिया हुआ है, वह केवल बदलेकी भावनाका प्रकाशन मात्र है। इसलिये उसका रत्नकरण्डकोयोगीन्द्रकृत बतलाने वाला रत्नकरण्डके उपान्त्य पद्यके श्लेषार्थपर विचारउल्लेख तो स्पष्ट और अभ्रान्त है । परन्तु रत्नकरण्ड- रत्नकरण्डके अन्तिम (१५८ वें) पद्यके पूर्व एक टीकामें उसका रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, अतः निम्न पद्य आया है जिसमें ग्रन्थकारने उपसंहारउसका उल्लेख 'न तो सुस्पष्ट है, न अभ्रान्त है और रूपसे ग्रन्थमें वर्णित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और न उसका कोई ऐतिहासिक महत्व है। मुझे उनके सम्यक् चारित्र इन तीन रत्नोंके लिये आत्माके इम अतथ्य पक्षपातपूर्ण कथनपर कोई आश्चर्य नहीं है। पिटारी बना लेनेकी प्रेरणा की है और उसका फल परन्तु खेद है कि उन्होंने अपने पक्षकी पुष्टिमें सचाई तीनों लोकोंमें सब अर्थों की सिद्धिरूप बतलाया है। और न्यायको भी तिलाञ्जलि दे दी है। पार्श्वनाथ- यह पद्य इस प्रकार है:
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या
मैं प्रो. सा. से पूछता हूँ कि क्या यह मेरी दृष्टि - क्रिया - रत्नकरण्डभावम् ।
पहली आपत्तिका परिहार है ? यदि हाँ, तो मैं
कहूँगा कि यह मेरी आपत्तिका परिहार नहीं है । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव,
मेरी आपत्तिका परिहार तो तब होता जब अपने सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥ कल्पित उक्त श्लेषार्थको अन्य किसी शास्त्रमें भी इस पद्यको लेकर प्रो. सा. ने अपने पिछले दिखाते और उससे उसे प्रमाणित करते। सो ऐसा लेखमें यह कल्पना की थी कि यहाँ श्लेषरूपसे ।
कुछ न करके केवल पर्याय शब्दों द्वारा उसका
परिहार करना कदापि संगत नहीं है । यों तो 'विद्या' अकलंक, विद्यानन्द और पूज्यपादकी स्वार्थसिद्धिका
और 'वीतकलङ्क' शब्द स्वामी समन्तभद्रके उल्लेख है । आपने लिखा था कि 'यहाँ नि:सन्देहतः
स्वयम्भूस्तोत्रमें और 'सर्वार्थसिद्धि' पद तत्त्वार्थसूत्रमें रत्नकरण्डकारने तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों
भी उपलब्ध होते हैं तो क्या वहाँ 'विद्या'से विद्यानन्द टीकाओंका उल्लेख किया है। आदि।
और 'वीतकलङ्क' से अकलङ्क तथा 'सर्वार्थसिद्धि' से इस पर हमने यह आपत्ति की थी कि उक्त तन्नामक ग्रन्थका ग्रहण हो जायेगा? यदि नहीं तो श्लेपार्थ किसी भी शास्त्रसे प्रमाणित नहीं है। दूसरे, इन शब्दोंस रत्नकरण्डमें भी उक्त विद्यानन्दादिका उक्त श्लोकमें आये हुए 'त्रिपु' पदका श्लेषार्थ यदि ग्रहण कैसे किया जा सकता है। अतः प्रो. सा. को 'तीन टीकाप' हो तो उनमें एक तो स्वयं सर्वार्थसिद्धि यह दिखाना चाहिए था कि अमुक पूर्वाचार्यन भी इस ही है, जिसका ग्रहण तीन स्थलोंके अन्तर्गत किसी पद्यमें विद्या' से विद्यानन्द 'वीतकलङ्क' से अकलङ्कभी प्रकार नहीं आ सकता है; क्योंकि उसका श्लोकमे देव और 'सर्वार्थसिद्धि' से तन्नामक पूज्यवादका अलग ही उल्लेख है। तब तत्त्वार्थसूत्रकी दो ही ग्रन्थ अर्थ किया है । परन्तु उसे न दिखाकर अपनी टीकाएँ रहती हैं । एक तत्त्वार्थवार्तिक और दूसरी कल्पनाओंम ही उसका समर्थन करना कदापि विद्यानन्दकी श्लोकवातिक । लेकिन फिर श्लोकमें विद्वग्राह्य नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है 'त्रिपु' और 'विष्टपेषु' पद नहीं होने चाहिए- कि यदि उक्त पद्यका आपका कल्पित अर्थ होता तो 'द्वयोः' और 'विष्टपयोः' पद ही होने चाहिएं थे टीकाकार प्रभाचन्द्र उसे भी प्रदर्शित करते अथवा जो न छंदष्ठिसे संगत हैं और न ग्रन्थकार के अन्य दुसरं आचार्य भी वैसा लिखते । लेकिन आशयके अनुकूल हैं।'
ऐसा कुछ नहीं है। अतः आपकी उक्त कल्पना अब आप मेरी उक्त दोनों आपत्तियोंके परिहार- अप्रमाण है। का प्रयत्न करते हुए लिखते हैं कि 'मेरी उक्त दुसरी आपत्तिका परिहार करते हुए प्रो. सा. कल्पनामें कौनम शास्त्राधार व शास्त्रप्रमाणकी लिखते हैं कि 'मेरा ख्याल था कि वहां तो किसी आवश्यकता पण्डितजीको प्रतीत होती है ? वीत- नई कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वहाँ कलङ्क और अकलङ्क सर्वथा पर्यायवाची शब्द बहुधा उन्हीं तीन स्थलोंकी सङ्गति सुस्पष्ट है जो टीकाकार
और विशेषतः श्वेषकाव्यमें प्रयुक्त किये जाते हैं ।" ने बतला दिये हैं अर्थात् दर्शन, ज्ञान, और विद्यानन्दको 'विद्या' शब्दस व्यक्त किये जानमें तो चारित्र ।' कोई आपत्ति ही नहीं है । 'सर्वार्थसिद्धि' में यह ध्यान रहे कि प्रो. सा. पहले 'त्रिपु विष्टपेषु' तन्नामक ग्रन्थक उल्लेखको पहचानने में कौनसी का अर्थ तीन टीकाएँ करते थे। जब तीन टीकाओं विचित्रता है और उसके लिये किस शास्त्रका आधार रूप अर्थ मेरे द्वारा उक्त प्रकारसे दूषित कर दिया अपेक्षित है।
गया तो अब उसका अर्थ दर्शन, ज्ञान, और चारित्र
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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और आप्तमीमामाका एककतृत्व प्रमाणसिद्ध है
४२५
किया गया है । अब पाठक, उनके इस अर्थकी भी तभी वे उनपर अपना लक्ष्य देना उचित समझेंगे।' परीक्षा करें। वे इसे टीकाकार प्रभाचन्द्रका बतलाते आगे आपने आप्तमीमांसासम्मत प्राप्तका लक्षण हैं। अत: उनकी टीका देखनी चाहिए कि उसमें बतलानेके लिये अपनी दृष्टिसे प्राप्तमीमांसाकी प्रथम उन्होंने 'त्रिपु विष्टपेषु' का अर्थ दर्शन, ज्ञान और छह कारिकाओंका तात्पर्य देकर उनपरसे प्राप्तके चारित्र किया है या नहीं ? टीकागत 'त्रिपु विष्टपेषु' सम्बन्धमें आप्तमीमांसाकारकी निम्न मान्यतायें के अर्थ वाला अंश इस प्रकार है
फलित की हैं'क्व ? त्रिषु विष्टपेषु त्रिभुवनेषु ।' (१) देवागमन आदि विभूतियाँ, विग्रहादिइसके अतिरिक्त टीकाकारने कुछ नहीं लिखा।
महोदय तथा तीर्थस्थापन यं आप्तके लक्षण नहीं, मुझे आश्चर्य है कि प्रो. मा. अपनी भूल व गलती
क्योंकि ये बातें मायावियों आदिमें भी पाई जाती हैं।
चंकि मेरे मतानुसार क्षत्पिपासादिका अभाव को स्वीकार करनेके बजाय पाठकोंको और मुझे
विग्रहादिमहोदयमें ही सम्मिलित है अतएव श्राप्तधोखा देनेका जगह जगह असफल प्रयत्न करते हैं
मीमांमाकार उसे भी प्राप्तका लक्षण स्वीकार और अपने आग्रहका समर्थन करते जा रहे हैं,
नहीं करते । परन्तु उनकी यह प्रवृत्ति प्रशस्य नहीं है। दुसरे, यदि 'त्रिपु विष्टपेषु' का श्लेपार्थ दर्शन,
(२) आप्तका लक्षण निर्दोषता है, जिससे उनके ज्ञान और चारित्र हो तो 'विद्या-दृष्टि-क्रियारत्न
वचन युक्ति-शास्त्राविरोधी होते हैं। ऐसी निर्दोपता करण्डभावं' का उनके साथ कैसे सम्बन्ध बैठेगा ?
, सर्वज्ञके ही हो सकती है जो सूक्ष्मादि पदार्थोंको क्योंकि यहाँ भी तो वे ही तीन दर्शन, ज्ञान और
प्रत्यक्ष जानता है और वह सर्वज्ञ दोष और आवरण चारित्र प्रतिपादित हैं। और ऐसी हालतमें न तो
। इन दोनोंके आत्यन्तिक क्षयसे होता है । विभिन्न विभक्ति (सप्तमी और प्रथमा) बन सकेंगी (३) आचार्यने 'दोपावरणयोः हानिः' यहाँ
और न आधाराधेयभाव बन सकेगा। इसके द्विवचनका प्रयोग किया है-बहवचनका नहीं। अतः सिवाय, वहाँ पुनरुक्ति भी होती है । 'वीतकलंक' से उनकी दृष्टिमें एक ही दोष और एक ही आवरण अकलंक और 'विद्या' से विद्यानन्द श्लेषार्थ करनपर प्रधान है । वह दोप कौनसा और आवरण कौनसा दृष्टि और क्रियाका भी श्लेषार्थ बताना होगा, जो है ? जो हमारी समझदारीमें बाधक होता है वह किसी तरह भी नहीं बतलाया जा सकता है। इस दाप हैं अज्ञान और इसको उत्पन्न करने वाला तरह प्रो० सा० का उक्त पार्थ सर्वथा बाधित, पूर्वा- आवरण हे ज्ञानावरण कमे । इन्हीं दो का अभाव पर विरुद्ध और अशास्त्रीय हानेसे विद्वद्ग्राह्य नहीं है। होनेसे सर्वज्ञताकी सिद्धि होती है और प्राप्तता शेष वातोंपर विचार
उत्पन्न होती है। पिछले लेखमें मैंन प्रो० साल की उन तीन बातों (४) ज्ञानावरणके साथ दर्शनावरण व अन्तराय पर युक्तिपूर्वक विचार करके उनमें दपण दिये थे. कम क्षय हो ही जाते है और मोहनीयका उससे पर्व जिन्हें उन्होंने अपने लेखके अन्तमें चलती-सी लेखनी ही क्षय होजाता है। अतएव आप्तमीमांसाकारने में प्रस्तुत की थीं। अब वे अपने दूषणोंको स्वीकार उनका पृथक् निर्देश नहीं किया । न करके उन्हें (तीन बातोंको) विस्तारसे प्रकट करनेकी (५) अघातिया कर्मोका सद्भाव रहनेसे उनसे मेरी इच्छा बतलाते हुए लिखते हैं कि 'न्यायाचार्य- होने वाली वृत्तियों-वचन, शरीर, क्षुधा, तृषा, शीतजीकी इच्छा यह जान पड़ती है कि इस विषयपर उष्ण, दुःख-सुख, जीवन-मरण आदि-का आप्तमें मैं अपने विचार और भी कुछ विस्तारसे प्रकट करूँ आप्तमीमांसाकारने सद्भाव माना है। यह उन्होंने
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
कारिका ९३में वीतराग केवलीमें सुख-दुखकी बाधाके अब हम उनकी मान्यताओंपर क्रमशः विचार निर्देशसे स्वीकार कर ली है।
करते हैं:
(१) यह ठीक है कि देवागमन आदि विभूतियाँ अपनी ओरसे फलित की गई आप्तमीमांसाकारकी ,
का और विग्रहादिमहोदय आदि आप्तके लक्षण नहीं हैं, इन मान्यताओंको देकर प्रो० सा० आगे लिखते हैं
है परन्तु उसका मतलब यह नहीं कि वे प्राप्तमें नहीं हैं, कि 'आप्तमीमांसाकारका यह मत है और वह सर्वथा प्राप्तमें वे बातें जरूर हैं-आप्तमीमांसाकारने उन्हें जैनसिद्धान्तसम्मत है। अकलङ्क, विद्यानन्द आदि स्वयम्भस्तोत्रगत 'प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो' इत्यादि टीकाकार जहाँ तक इन मर्यादाओंके भीतर अर्थका
पद्य नं० ७३ द्वारा भी स्पष्टतः स्वीकार किया है। स्पष्टीकरण करते है वहाँ तक तो वह सर्वथा निरापद लेकिन वे साधारण होनेस लक्षण नहीं हैं क्योंकि है। किन्तु यदि वे कहीं अाप्तमीमांसाकारके निर्देशसे
लक्षण असाधारण होता है । हमें खुशी है कि मेरे बाहर व कर्म-सिद्धान्तकी सुस्पष्ट व्यवस्थाओंके
मतानुसार प्रो० सा० ने क्षुत्पिपासादिके अभाव को विपरीत प्रतिपादन करते पाये जाते हैं तो हमें मानना विग्रहादिमहोदय (अतिशयों के अन्तर्गत ही स्वीकार ही पड़ेगा कि वे एक दूसरी ही विचारधारासे
कर लिया है। और यह विग्रहादिमहोदय लक्षण न प्रभावित है जिसका पूर्णतः समीकरण उक्त होनेपर भी उपलक्षण रूपसे आपमें विद्यमान है। व्यवस्थाओंसे नहीं होता।'
अतः इस मान्यतास प्रो० सा० को जो आप्तमें क्षुधा प्रो० सा के द्वारा फलित की गई उक्त मान्यतायें तृपाकी वेदनाका सद्भाव सिद्ध करना इष्ट था वह अब आप्तमीमांसाकारका मत है या नहीं, इसपर विचार सिद्ध नहीं हो सकता। करनेके पहले हम उनकी अन्तिम पंक्तियोंके सम्बन्धमें (२) आप्तका लक्षण निर्दापता है, इसमें कोई कुछ कह देना उचित समझते हैं। आपने अपने विवाद नहीं, उसके वचन युक्ति-शास्त्राविरोधी होते हैं पिछले एक लेखमें आप्तमीमांसाकारका तात्त्विक और वह सर्वज्ञ होता है तथा उसकी सर्वज्ञता दापों अभिप्राय समझनेके लिये दो उपायोंकी सूचना करते और आवरणोंकी आत्यन्तिक निवृत्तिसे होती है, ये हुए लिखा था कि 'आप्तमीमांसाकारके पदोंका सब बातें भी ठीक हैं। आप्तमीमांसाकारके इम तात्त्विक अर्थ समझनेके हमें दो उपाय उपलब्ध हैं- अभिप्रायको हम भी पिछले लेखोंमें प्रकट कर एक तो स्वयं उसी ग्रन्थका मन्दर्भ और दूसरे उनका चुके हैं। टीकाकारों द्वारा स्पष्टीकरण ।' परन्तु उक्त पंक्तियोंसे (३, ४) जहाँ तक आपकी समझ है उस समझजान पड़ता है कि अब उनका टीकाकारोंके स्पष्टी- से आपने 'दोपावरणयोः हानिः' का अर्थ दिया है करणपर भी विश्वास नहीं रहा; क्योंकि वे उनके पक्ष- और इसलिये द्विवचनके प्रयोगसे यह कल्पना भी का समर्थन नहीं करते और इसलिये अब वे यह कर ली है कि वहाँ आप्तमीमांसाकारकी दृष्टिमें एक प्रतिपादन कर रहे हैं कि वे जो अर्थ कर रहे हैं वही ही दोप-अज्ञान और एक ही आवरण-ज्ञानावरण आप्तमीमांसाकारका मत है और उसीको जैनसिद्धांत प्रधान है-अन्य तो उन्हीं के साथ अविनाभूत हैं। बतलाते हैं। परन्तु यह सब स्वग्रहमान्य है और वे अत: उन्हीं दोका अभाव आप आसमें बतलाते है। किन्हीं मर्यादाओंसे बंधे हुए नहीं हैं। अतएव आज परन्तु इस कथनका आपके पूर्व कथनके साथ ही वे अकलंक, विद्यानन्द जैसे प्रामाणिक महान टीका- विरोध आता है । आप पहले 'दोषास्तावदज्ञान-रागकारोंके स्पष्टीकरणको सन्देहकी दृष्टिसे देखने लगे हैं द्वेषादय उक्ताः' आदि उद्धरण-प्रमाणके साथ लिख
और कल स्वयं प्राप्तमीमांसाकारके कथनको भी आये हैं कि 'यहाँ सर्वत्र उन्हीं ज्ञानावरणादि घातिया विपरीत बतला सकते हैं । अस्तु ।
कर्मों व तजन्य दोपोंका ग्रहण किया गया है।' यहाँ
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किरण १०-११ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एककतृत्व प्रमाणसिद्ध है
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आपने न एक दोषका ग्रहण और न एक आवरणका होने में प्राप्तमीमांसाकारके लिये कोई बाधा नहीं है। ग्रहण बतलाया है किन्तु अज्ञान, राग, द्वेष आदि इसके लिये उनकी दूसरी रचना स्वयम्भूम्तोत्र-गत बहुत दोषों और ज्ञानावरण आदि बहुत कर्मों का निम्न दो कारिकाएँ पढ़ लीजिये, उनसे आपका निर्देश किया है। वास्तवमें जिस प्रकार 'मनुष्य समाधान होजायगा। पदसे मनुष्य जाति--यावत मनुष्यों और 'पशु' पद- प्रतिहार्यविभवैः परिष्कृतो से पशुजाति-समस्त पशुओं का ग्रहण विवक्षित
देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । होता है उसी प्रकार 'दोष' पद और 'आवरण पद दोष-जाति-यावत दोषों और आवरण-जाति
मोक्षमार्गमशिषन्नरामरासमस्त आवरणों (घातिया कर्मों) के बोधक हैं । यह
नापि शासनफलेषणातुरः ॥७३॥ टीकाकारों, अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों और स्वयं प्राप्त- काय - वाक्य - मनसां प्रवृत्तयो मीमांसाकारके अन्य ग्रन्थोंसे भी प्रमाणित है । जैसा
नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । कि मैं पहले अनेक जगह म्वयंभूस्तोत्रके उल्लेखों द्वारा
नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो अठारह दोषोंका आप्तमीमांसाकार-सम्मत अभाव आप्तमें बतला आया हूँ और जिनमें १२ दोषोंका
धीर ! तावकमचिन्त्यमीहितम्॥७४।। अभाव तो केवलीमें प्रो. सा. ने भी स्वीकार किया है। यदि इतने पर भी आपका समाधान न हो तो इसके सिवाय, 'हत्वास्वकर्मकट्रकप्रकृतीश्चतस्रो'(स्वयं- हम उसके लिये लाचार हैं। ८४) यहाँ अाप्तमीमांसाकारने चार आवरणों (घातिया
उपस हारकर्मों)का और 'अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो' (स्वयं०६६) उपर्यत विवेचन से निम्न बातें मामने में अनन्त दोषोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। तब एक साती ही दोष और एक ही आवरण कहाँ रहा ? यदि हम (१) रत्नकरण्डश्रावकाचारके (छठे पद्य)में प्राप्नमें
आपके फलितको आप्तमीमांसाकारका मत मान ल तो जिन क्षुधादि अठारह दोषोंका अभाव बतलाया गया उसका उन्हींके आप्तमीमांसा (का. ९६, ९८) गत है उनका प्रभाव स्वयम्भूस्तोत्रमें भी वर्णित है। प्रतिपादनसं विरोध आवेगा । अतः आपको अतः रत्नकरण्डमें दोषका स्वरूप प्राप्तमीमांसाकारके टीकाकारांका अवलम्बन और आप्तमीमांमाकारक अभिप्रायसे भिन्न नहीं है और इसलिये वह उन्हीं की दूसरे ग्रन्थों का सहारा लेकर ही उनके अभिप्रायको कति है। समझने-समझानका प्रयत्न करना चाहिए।
(२) साहित्यकारोंने समन्तभद्रके लिये देव और (५) श्राप्तमें अघातिया कर्मोंका सद्भाव रहनेसे 'योगीन्द्र' पदके प्रयोग किये हैं और इसलिए देव वचन, शरीर आदि वृत्तियोंका होना सङ्गत है, पर और योगीन्द्र पदके वाच्य पार्श्वनाथरितमें स्वामी क्षुधा-तृपा, शीत-उष्ण और सुख-दुख व जीवन-मरणका समन्तभद्र विवक्षित हुए हैं। वादिराजके पूर्व अन्य सद्भाव आप्तमीमांसाकारने कहीं भी नहीं माना- 'योगीन्द्र' समन्तभद्रका साहित्यमें अस्तित्व नहीं है। उनका उसे मत बतलाना भ्रममात्र है । कारिका ९३वें (३) आ० प्रभाचन्द्र वादिराजके प्रायः सममें 'वीतरागो मुनिर्विद्वान्' का केवली अर्थ करना कालीन हैं । अतः जहाँ प्रभाचन्द्र द्वारा रत्नकरण्डको एक बड़ी भूल है, उसका साधु परमेष्ठी और उपाध्याय स्वामी समन्तभद्रकृत बतलाया गया है और अपने परमेष्ठी अर्थ है और उनके सुख-दुख होना ठीक है। आराधनाकथाकोषमें उन्होंने उनके लिये 'योगीन्द्र' इस सम्बन्धमें मैं विस्तारके साथ पहले खुलासा कर रूपसे उल्लेखित किया है वहाँ उनके ही प्रायः अाया हूँ। आप्तमें शरीर, वचन आदिकी वृत्तियोंके समकालीन वादिराजने रत्नकरण्डको 'योगीन्द्र'कृत
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अनेकान्त
बतलाया है । इसलिये वादिराजको भी प्रभाचन्द्रकी तरह 'योगीन्द्र' पदसे स्वामी समन्तभद्र ही विवक्षित हैं; क्योंकि रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न योगीन्द्र-कृत बतलाने वाला वादिराजका पोषक एक भी प्रमाण नहीं है और प्रभाचन्द्रके स्वामी समन्तभद्रकृत बतलाने वाले उल्लेखोंके पोषक एवं समर्थक बीसियों प्रमाण हैं ।
(४) रत्नकरण्डके उपान्त्य पद्य में अकलङ्क, विद्यानन्द और सर्वार्थसिद्धिकी कल्पना अशास्त्रीय
वीर सेवामन्दिर में वीरशासन जयन्तीका उत्सव
प्रथम श्रावण कृष्णा प्रतिपदा वीरनिर्वाण संवत् २४७३, ता० ४ जुलाई सन् १९४७ को वीरसेवामन्दिर के भव्य भवन में गत वर्षकी भाँति इस वर्ष भी वीरशासन जयन्तीका उत्सव अत्यन्त आनन्द और समारोहके साथ सम्पन्न हुआ । उत्सवके अध्यक्ष थे हमारे निकटवर्ती परमादरणीय धर्म- प्रेमी बा० नेमिचन्द्रजी जैन वकील सहारनपुर । आपका सौजन्य और तत्वज्ञान प्रत्येक जैनके लिये स्पर्धाकी वस्तु है और वही हमारे लिये उनके श्राकर्षणकी चीज थी । उत्सवमें स्थानीय धर्म-बन्धुत्रों तथा जैनेतर भाइयोंके लावा देहली, कानपुर, सहारनपुर, मल्हीपुर, तिस्सा, नानौता, अब्दुल्लापुर आदि विभिन्न स्थानांसे भी अनेक सज्जन सम्मिलित हुए थे । देहलीसे बा० पन्नालालजी अग्रवाल, बा० माईदयालजी बी० ए० ग्रॉनर्स, पण्डित चन्द्रमौलिजी शास्त्री व उनकी अनाथालय मंडली; कानपुर सेवेवर राष्ट्रसेवक हकीम कन्हैयालालजी; सहारनपुर से सभापतिजीके अलावा ला० जिनेश्वरदासजी उपाधिष्ठाता जैनगुरुकुल, पं० सुन्दरलालजी न्यायतीर्थ, पं० सुखनन्दनजी शास्त्री; मल्हीपुर से पुराने समाजसेवक वयोवृद्ध मा० चेतन दासजी बी० ए०; तिस्सा से पं० शोभारामजी; नानौतासे श्रीमती पं० जयवन्तीदेवी और अब्दुल्लापुरसे ला ० इन्द्रसेनजी पधारे थे ।
[ वर्ष ८
और असङ्गत है और इसलिये उक्त कल्पना रत्नकरण्डको विद्यानन्दके बाद की रचना सिद्ध नहीं कर सकती है । विद्यानन्द से पूर्व ७-८वीं शताब्दीके न्यायावतारमें रत्नकरण्डका 'आप्तोपज्ञ' पद्य पाया जाता है । अतः वह विद्यानन्दके बादकी रचना कदापि नहीं है ।
अतः रत्नकरण्ड अपने मौलिक प्रौढ साहित्य, विभिन्न उल्लेख- प्रमाणों और प्रामाणिक साहित्यिक अनुश्रुतियों व स्रोतों आदि से आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकी ही कृति प्रमाणित होती है ।
प्रातः प्रभातफेरी और झण्डारोहण हुए । मध्याह्न में गाजे बाजेके साथ जुलूस निकाला गया, जिसमें भजनोपदेश
हुए। ढाई बजेमे जलसेकी कार्रवाई शुरू की गई । सर्वप्रथम पं० परमानन्दजीने मंगलाचरण किया । उसके बाद मुख्तार सा० के प्रस्ताव और बा० नानकचन्दजी ग्रादिके समर्थनके साथ बा० नेमिचन्दजी वकील सभाध्यक्ष चुने गये । तदनन्तर जैन कन्या पाठशालाकी छात्राओं और मास्टर गोपीचन्दजी जैन अनाथाश्रम देहलीके स्वागतगान हुए। उसके बाद ग्राये हुए पत्रों और शुभकामनाओं को सुनाया गया । तत्पश्चात् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार अधिष्ठाता वीर सेवामन्दिरने अपने विवेचनके साथ 'महावीर - सन्देश' पढ़ा। इसके बाद पं० चन्द्रमौलिजी, बा० माईदयालजी, मा० चेतनदासजी, वैद्य रत्न हकीम कन्हैयालालजी, अध्यापिका क्षमाबाईजी और मेरे भाषण तथा बीच-बीचमें देहली अनाथाश्रमके छात्रों और कन्या पाठशालाकी छात्राओंके गायन हुए । मुख्यतः सबके भाषणों और गायनोंमें भगवान् महावीर के इस वाणीके प्रथम अवतरण अथवा शासनतीर्थके प्रवर्तन दिवसकी महत्ता प्रकट की गई थी और बतलाया गया था कि उनके उपदेश और सिद्धान्त कितने लोक कल्याणकारी हैं । अन्तमें सभाध्यक्ष जीका अनुभव और ज्ञानपूर्ण भाषण होनेके बाद सभा रात्रिके लिये स्थगित कर दी गई। रात्रिमें वैद्यरत्न हकीम कन्हैयालालजीक सभानेतृत्व में पण्डित शोभारामजीका सुन्दर श्रापदेशिक भाषण और अनाथाश्रम( शेषांश टाइटिल पृष्ठ ३ पर )
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साहित्यपरिचय और समालोचन
१-मूलमें भूल-भगवान श्रीकुन्दकुन्द-कहान स्मृतिमें अपने द्रव्यसे जैन ट्रैक्ट सोसायटी हिसार जैन शास्त्रमाला'का १९वाँ पुप्प । प्रवक्ता, पूज्य द्वारा प्रकाशित कराई है। पुस्तक इतनी अशुद्ध, भद्दी श्रीकानजी स्वामी। अनवादक, पं० परमेष्टीदासजी और अव्यवस्थित छपी है कि पाठकका चित्त कर न्यायतीर्थ । प्राप्तिस्थान, श्रात्मधर्म कार्यालय मोटा पढ़नेके बाद उचटे बिना नहीं रह सकता। ऐसा आँकडिया (काठियावाड)। मूल्य ॥)।
। साहित्य अजैनोंके हाथमें जानेपर वे जैन-साहित्य
स
और जैनधर्मके प्रति क्या भाव बनायेंगे । मेरा ___ यह भैया भगवतीदासजी और विद्वद्वर्य पण्डित श्रीबनारसीदासजी द्वारा हिन्दीमें रचे गये उपादान
खयाल है कि पुस्तकके प्रकाशनमें ठीक विचारसे काम
नहीं लिया गया । यदि प्रकाशित करनेके पहले और निमित्त विपयक दोहोंपर पूज्य कानजी महाराज
सोसायटीने किसी योग्य विद्वान् द्वारा उसका के तर्कगर्भ और महत्वपूर्ण गुजराती प्रवचनोंका
मम्पादनादि कार्य करा लिया होता और छपाईकी योग्य अनुवादरूपमें संग्रह है। भैया भगवतीदासजीने ४७
व्यवस्था की गई होती तो अच्छा होता । फिर भी दोहामें उपादान और निमित्तका एक सुन्दर और
ला० शम्भूदयालजीकी शुभ भावना और उत्माह तत्त्वज्ञानपूर्ण संवाद लिखा है। इसी तरह विद्वद्वर्य
प्रशंसनीय है। पं० बनारसीदासजीन भी उपादान और निमित्तको लकर ७ दोहे रचे हैं। इन दोहोंमें उपादान और ३-माणिक्यचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमालाका निमित्नका भेद, उपादानकी मुख्यता दिखलाइ गइ काय-विवरण-प्रकाशक, प० नाथूरामजी प्रेमी, मन्त्री है। पूज्य कानजी महाराजका प्रत्येक दोहेपर मार्मिक
ग्रन्थमाला, हीराबाग, बम्बई ४ । मूल्य आदि पवचन है। निमित्ताधीन हो रहे जगतको पराश्रित
कुछ नहीं । और भ्रान्त बतलाकर उनकी मूलमें भूल बतलाई गई ह और उपादानपर दृष्टि रखना, अ
यह ग्रन्थमालाका सन १९१४से १९४६ तकका
संक्षिप्त कार्य-विवरण है । मुख पृष्ठपर दानवीर सेठ निभर होना तत्त्वज्ञान बतलाया है। इस तरह यह ग्रन्थ केवल अध्यात्म-प्रमियों के लिये ही उपयोगी नहीं है
माणिकचन्द्र जीका भव्य चित्र है, जिनकी स्मृतिमें उक्त वरन प्रत्यक तत्त्व-जिज्ञासु,मुमुक्षुकलिय भी अत्युपयोगी
ग्रन्थमाला कायम की गई थी। प्रारम्भमें बतलाया है । पुस्तकको उक्त स्थानसे मंगाकर प्रत्येक स्वाध्याय
गया है कि सन १९१४की १७ जुलाईको उक्त सेठजीप्रमीक लिये पढ़ना ही नहीं चाहिए अपितु उसका
का एकाएक स्वर्गवास होगया । उनकं शोकमें एक
सभा की गई, जिममें उनकी यादमें जैन-समाजकी खुब मनन और बारबार चिन्तन करना चाहिए।
आरस कोई ज्ञान प्रसारक काम किये जानेका निश्चय २-सरल सामायिक पाठ-संग्रह-(विधि सहित) किया गया । तदनुसार उसी समय एक स्मारक-फण्ड जैन ट्रैक्ट सोसायटी हिसारका दूसरा पुष्प, प्रकाशक खोला गया । इस फण्डमें लगभग चार हजार रुपया उक्त सोसायटी, मूल्य ।-) आना । सामायिकका इकट्ठा हुआ और उसे सेठ हीराचन्द गुमानजी जैन प्रतिज्ञापत्र भरकर मंगाने वालोंको बिना मूल्य । बोडिङ्ग हाउस बम्बईके ट्रस्टियोंको उक्त विवरणोक्त
प्रस्तुत पुस्तक एक गुटके के आकारमें ला शम्भू- चार शोंपर सौप दिया गया। उनमें एक शर्त यह दयाल जी हिसारने अपनी स्व० माता श्रीगोमतीदेवीकी थी कि इन रुपयांसे 'माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला' का
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४३०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
प्रकाशन किया जाय । आगे पुराने और नये मेम्बरों विदेशकी खबरें भी इन अड्डोंमें हैं। पत्रकी भाषा की नामावली है। इसके बाद चार परिशिष्ट हैं। सरल और प्राञ्जल है। सफाई छपाई उत्तम है। सब पहले परिशिष्टमें ग्रन्थमालाका आय-व्यय दिया गया मिलाकर पत्र लोकरुचिके अनुकूल है । हम पत्रहै । दूसरेमें एकसौ रुपयेसे ज्यादा देनेवालोंकी की हृदयसे प्रगतिकामना करते हैं। पाठकोंको ग्राहक नामावली दी गई है। तीसरेमें छपे ग्रन्थोंकी संख्या अवश्य बनना चाहिए।
और उनकी लागत मूल्य बतलाई गई है। चामें ५-श्वेताम्बर जैन- (पाक्षिक पत्र)-सम्पादक वर्तमानमें मौजद ग्रन्थोंकी प्रति, संख्या और उनका और प्रकाशक श्रीजवाहरलाल लोडा, मोती कटरा,
न्य क्रमशः दिया गया है। ग्रन्थमालाम अबतक आगरा वार्षिक मल्या ४२ ग्रन्थ छपे हैं। कुछ ग्रन्थ कई खण्डोंमें छपे हैं,
यह श्वेताम्बर जैन-समाजका मुख पत्र है । जिनकी कुल लागत ३६२६९।।।-)। पड़ी है और
हाल में इमका पुनः प्रकाशन प्रारम्भ हुआ है। इसका वर्तमानमें २८००२|||-)।। के ग्रन्थ मौजूद हैं। इससे
तीसरा अट्क हमारे सामने है। लेख पढ़ने योग्य हैं। मालूम होता है कि ग्रन्थमालाने बड़ी महूलियतसे।
देश-विदेशादि के समाचारोंका मङ्कलन है । 'श्री सन्दर और अधिक प्रकाशन प्रकाशित किय है। केशरियाजी तीर्थ और जैनम जैसे लेग्या द्वारा पत्र इसका श्रेय प्रेमीजीको है जिन्होंने ग्रन्थमालाका न
साम्प्रदायिकताको न उकमाकर उसके दूर करने में स्वतन्त्र ऑफिस रखा और न कोई स्थायी कर्मचारी। अ
अग्रसर हो, यही शुभ कामना है । ग्रन्थ छपानेकी व्यवस्था और पत्र व्यवहारादि भी अपने हिन्दी ग्रन्थ कार्यालय द्वारा ही ठीक कर लेते
६-आरोग्य (मासिक पत्र)-सम्पादक विट्ठलहै। ग्रन्थमालाकी जो सजन सौ रुपयास एकमुश्त दाम मोदी गारखपुर । मूल्य ४) । प्राप्तिस्थान, सहायता करते हैं उन्हें ग्रन्थमालाकं पहले वतमान 'आराग्य' कायालय, गोरखपुर ।
और आगेके सब प्रकाशन भेंट दिये जाते हैं। ऐमी प्रस्तुत पत्रका प्रकाशन जुलाईसे शुरू हुआ है। उपयोगी ग्रन्थमालाका प्रत्येक समर्थ सज्जनको सौ इसमें शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य-सम्बन्धी रुपये देकर अवश्य सहायक बनना चाहिए। लेखांका बहुत उत्तम संग्रह है। पत्रका ध्येय प्राकृतिक ४-वीर-वाणी (पाक्षिक पत्र) सम्पादक श्रीचन- चिकित्मा द्वारा जनमाधारणकं स्वास्थ्य को बनाना
और उसकी वृद्धि करना है। इसके सभी लेख उत्तम मुखदास न्यायतीर्थ व श्रीभवरलाल न्यायतीर्थ, प्रकाशक पं० भंवरलाल जैन, श्रीवीर-प्रेम मनिहारोंका
और प्रत्यकके लिये पठनीय हैं। आशा है ऐसे पत्रोंसे रास्ता जयपुर, वार्षिक मूल्य ३)।
भारतीयांको बड़ा लाभ पहुँचेगा । हम पत्रकी __ इस पत्रका गत महावीर-जयन्तीसे ही प्रकाशन
सफलताको कामना करते है और पाठकोंस अनुरोध प्रारम्भ हुआ है । इसके ३, ७ और ८-९ अङ्क हमारे
करते हैं कि वे उक्त पत्रसे अधिकसे अधिक सामने है। इनमें मख्यत: जयपरकं साहित्यकारों लान २० । और दीवानोंका प्रमाणपुरम्सर विस्तृत परिचय है ७-जैन-जगत (मासिक पत्र)-सम्पादक, जो प्रायः अबतक अप्रकाशित था। पत्रका ध्यय भी प्रकाशक, श्रीहीरामाव चवडे, वर्धा । कार्यवाहयही प्रतीत होता है कि इसमें जयपुरके उन समस्त सम्पादक, श्रीजमनालाल जैन माहित्यरत्न । सम्पादक साहित्यकारों और दीवानोंका क्रमशः प्रामाणिक मण्डल, भानुकुमार जैन, ताराचन्द कोठारी बम्बई, परिचय दिया जाय जिन्होंने साहित्य, जाति और बाबूलाल डेरिया बाबई, सौ. विद्यावती देवडिया, अपने राज्यकी अनुपम एवं आदर्श सेवा की है। नागपुर । वार्षिक मूल्य २) । संस्थाओं, छात्राओं सामाजिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियोंकी चर्चा तथा देश- तथा महिलाओंसे १)।
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किरण १०-११ ]
साहित्यपरिचय और समालोचन
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यह पत्र श्रीभारत जैन महामण्डलके गत पण्डित श्रीधर्मदेव शास्त्रीने कालसी, देहरादून
| उसके प्रमुख पत्रके रूपमें प्रकट हुआ और जौनसार आदिकी पहाड़ी जनताकी सेवा करने है। श्रीभारत जैन महामण्डलके ध्येयके अनुसार इस के लिये चार वर्ष पूर्व अशोक-श्राश्रमकी स्थापना की पत्रका भी ध्येय अखण्ड जैन जागृति तथा सामाजिक थी। उसीकी यह चतुर्थवर्षीय रिपार्ट है । इस रिपोर्टसे एवं साहित्यिक समन्वय करना है जैसाकि उसके मालूम होता है कि शास्त्रीजीने उक्त आश्रमके अन्तर्गत मुखपृष्टसे विदित है । हमारे सामने पत्रका ४-५ गान्धी गुरुकुल और माता कस्तूरवा गान्धी महिला संयुक्ताङ्क है । इसमें मुख्यतः डायरेक्टरी और उसका औषधालय ये दो संस्थाएँ खोल रखी हैं और उनके महत्व बतलाकर वर्धा जिलेकी जैन डायरेक्टरी द्वारा पहाड़ी जनताको शिक्षित, सुसंस्कृत और उन्नत दीगई है, जिसमें वर्धा जिले भरकी तीनों तहसीलोंका बना रहे हैं । हम उनके इस पवित्र सेवाकार्यकी गणनादिके साथ परिचय कराया गया है । कामना है. मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हुए उसकी प्रगतिकामना पत्र अपने उद्देश्यमें सफल हो।
करते हैं। ८-नया जीवन-प्रधान सम्पादक, श्रीकन्हैया- ११-लोक-जीवन (मासिक)-सम्पादक, श्री लाल मिश्र 'प्रभाकर' । प्रकाशक, विकाम लिमिटेड यशपाल जैन बी० ए०, एल-एल० बी० । संरक्षक, सहारनपुर । मूल्य, इस संख्याका बारह आना और श्रीजनेन्द्रकुमार । वाषिक मूल्य ६) । प्राप्तिस्थान, बारह संख्याओं (१०८० पृष्ठ)का एक साथ ५०) रु०। 'लोकजीवन' कार्यालय ७/८ दरियागञ्ज, दिल्ली। __ प्रभाकर जीकी चुभती लग्बनीस पाठक परिचत जैसाकि पत्रकं नामसे प्रकट है, यह लोकके हैं, उन्हीं के प्रधान सम्पादकत्वमें यह मासिक पत्र नैतिक जीवन के अध्युदयका प्रदर्शक मासिक पत्र है। हालमें प्रकट हुआ है, जिसका हमारे सामने दूसरा हमारे समक्ष वर्ष दोका दूसरा अङ्क है। इसमें अल है। इसमें साहित्यिक, समाज सुधारक और विख्यात उत्तम लेखोंका चयन है। एक परिचय दशकी वर्तमान दशाके प्रदर्शक है, पठनीय लेखोंका लेख तो बिल्कुल अनावश्यक है उसका सर्वसाधारण अच्छा सुन्दर संग्रह है । सफाई-छपाई भी अच्छी है। के लिये कोई उपयोग नहीं है। प्रमी अभिनन्दन
९-तरुण जैन-सम्पादक, भंवरलाल सिंधी व ग्रन्थकं यशस्वी सम्पादक बा० यशपालजीके सम्पाचन्दनमल भूतांडिया । मूल्य, ५) । प्राप्तिस्थान, दकत्वमें अब प्रकट हुआ है इसलिये आशा है कि 'तरुण जैन' ३, कामशियल विल्डिङ्गस, कलकत्ता। यह अपने उद्देश्यमें अवश्य सफल होगा। हमारी ___ तरुण जैन सङ्घ कलकत्ताका यह मामिक प्रमुग्न शुभ कामना है। पत्र है । इसमें जहाँ सुधार और अालोचनाकी १२-आत्म-धमे (मामिक पत्र)-सम्पादक श्री तीक्ष्णता है वहाँ व्यर्थकी छींटाकशी और पक्षकी भी रामजी माणकचन्द दोशी, वकील, प्रकाशक कमी नहीं है। हम चाहते हैं कि पत्र निप्पक्ष और श्रीजमनादास माणेकचन्द रवाणी, आत्मधर्म कार्याश्रनाक्षेपकी भाषामें जैन सामाजिक सुधारों और लय मांटा आँकडिया, काठियावाड, वार्षिक मूल्य ३) श्रालोचनाओंको प्रस्तुत करे । इमसे उसका क्षेत्र यह अध्यात्मका उच्चकोटिका मासिक पत्र है। व्याप्य न रहकर व्यापक बन सकता है। हम उसकी इसमें पूज्य कानजी स्वामीके अध्यात्मिक प्रवचनोंका इस दिशामें सफलता चाहते हैं ।
मंग्रह रहता है । जो लोग विद्वत्परिपके गत १०-अशोक-आश्रमका चतुर्थ वार्पिक विवरण अधिवेशनमें सुवर्णपुरी गये थे उन्हें मालूम है कि -प्रकाशक, श्रीधर्मदेव शास्त्री । व्यवस्थापक, अशोक- वहाँका साग वातावरण कितना आध्यात्मिक और श्राश्रम, कालसी, देहरादून ।
शान्त है। उसी वातावरणकी उद्दीप्त रश्मियाँ इस पत्र
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अनेकान्त
[ वर्ष
द्वारा विश्वमें प्रसारित की जारही हैं। जब विश्व पुष्प है । पाठक स्व० श्रीभगवतजीकी ओजपूर्ण भौतिकताकी ओर जारहा है तो ये रश्मियां उन्हें लेखनी और उनकी गदा-पद्य रचनाओंस सुपरिचित अवश्य प्रकाशदान करेंगी। हम पत्रकी सफलता है। उसी ओजपूगा लेखनीम यह पदयात्मक रचना चाहते हैं और चाहते हैं पुज्य कानजी स्वामीके लिखी गई है। भगवतीको प्रत्यक रचनामें नाति उपदेशोंका सार्वत्रिक प्रसार और प्रकाश।
और सुधारकी पुट निहित रहती है। इस रचनामें भी १३-मुक्तिका मार्ग-प्रवक्ता, श्रीकानजी म्वामी।
व दोनोंका जगह जगह प्रदशन हारहा है । इस
छोटीसी पुस्तकम इम पौराणिक कथाको चित्रित अनुवादक, पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ । मृल्य,
किया है जिसमें बताया गया है कि विष्णकमार दम आने । प्राप्तिस्थान, श्रीजैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट
मुनिने किम प्रकार बलिद्वारा उपमग किये गये सुवर्णपुरी-सोनगढ़ (काठियावाड)।
सातसी मुनियांकी रक्षा करकं रक्षाबन्धनका त्योहार __ यह 'भगवान श्रीकुन्दकुन्दवहान जैन-शास्त्रमाला' का तेरहवां पुष्प है । इसमें संस्कृत महावीगटक
प्रचलित किया और लोकम वात्मल्यका अमिट उदाआदि रचनाओंके रचयिता स्व. पं० भागचन्दजी
हरण प्रस्तुत किया। पुस्तक रोचक और पटनीय है। द्वारा हिन्दीमें चं गये 'सत्ताम्वरूप' नामक महत्त्व- १५ मधुग्म (छह खण्टु काव्य ) - नमक पूर्ण ग्रन्थपर अध्यात्मयोगी पूज्य श्रीकानजी स्वामी श्रीभगवत जैन । प्रकाशक उपयुक्त भवन । मृः ।) गुजरातीमें किये गये मार्मिक आध्यात्मिक प्रवचन- इसमें म्वाधीनताकी ज्योनि, स्वयम्बग, मिहायको संगृहीत किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक उसीका नन्द, जनकनन्दिनी. माध-गवी श्रीर पुजारी इन रह पं० परमेष्टीदामजी कृत हिन्दी अनुवाद है। मूल खण्ड काव्यांका सङ्कलन है । इनम का अन ग्रन्थमें आपका स्वरूप और उसकी मना सिद्ध की प्रकट भी होचकं है । यह सभी मधुर और श्रेष्ठता है है। पं० भागचन्दजीन अपनी जिम नकणापण पैनी ही पर उनम श्रीज, शिक्षा और काव्यगरिमा भी व बुद्धिस सच्चे आन-अरहन्तदेवका प्रसाधन किया है। श्रीभगवतजी यदि कुछ थाड़े दिन और जावित हे उसी तकरण तीक्ष्ण बुद्धिस श्रीकानजी महागजन रहने नी उनके द्वाग मालूम नहीं कितनी माग उसका अपने मृक्ष्म प्रवचनों द्वारा मवल भाग्य माहित्य और ममाजकी सेवा हानी । आज ना उनकी करके सम्पोपण किया है तथा बतलाया है कि तत्व- यं कृतियाँ ही हमारे लिय स्मारक है । भावना है कि निणय तत्त्वज्ञान ही मुक्तिकामाग है जो हरेक मुभुतु- उनकी इन कृतियोंका समम्न मंसारम मान और को सब जगह और सब कालम प्राम होमकता । इम आदर हो । तत्त्वज्ञानकं बिना ही जीव गृहात मिथ्यात्वी बने १६-धर्म क्या है ? लग्बक, कुवर श्रीनमिचद रहत है । अतः उसे प्रापकर जीवों को गृहीत मिथ्यात्व- जैन पाटनी । प्रकाशक, श्रीमगनमल हागलाल पाटनी का त्याग करना चाहिए। तत्त्वज्ञ नेच्छुकांक लिय यह दि जैन पारमार्थिक ट्रस्ट, मदनगञ्ज । मूल्य, मनन । पुस्तक बड़ी उपयोगी और कल्याण कारक है । इमक ढमम पाटनीजान वास्तविक धर्म गग और द्वपकी माथम मूल ग्रन्थ भी रहता ना उत्तम हाता। सफाइ- नितिको वतलाया है । इसी प्रमङ्गमं जीवादि तत्त्वां छपाई आदि सव सुन्दर है।
का स्वरूपनिर्देश भी किया है । जो केवल शुभ १४-रक्षाबन्धन (पौराणिक ग्वण्डका काव्य)- प्रवृत्तिको धर्म मानतं अथवा समझते हैं उसका निपध लेखक, स्व० श्रीभगवन जैन । प्रकाशक श्रीभगवत- करके निवृत्तिपरक ही धमकी व्याख्या की है। पुस्तक भवन फिन्मादपुर (आगग) । मृल्य, चार आने ।
उपयोग। है । पाटनीजाका प्रयत्न मराहनीय है। प्रस्तुत पुस्तक 'भगवत' पुस्तकमालाका नयाँ
-- दरबारीलाल जैन कोटिया, न्यायाचार्य
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(पृष्ठ ४२८ का शेषांश)
वीरसेवामन्दिरको सहायता के छात्रों तथा मा० गोपीचन्दजीके मधुर गायन एवं मा० जैनकुमारके, बेला, जलतरंग आदि होकर ग्यारह बजे सभा सानन्द समाप्त हो गई।
दूसरे दिन ता० ५ जुलाईको दिनमें जैन कन्या गत किरण (८-९) में प्रकाशित सहायताके पाटशालाके नूतनभवनमें श्री जयवन्तीदेवीकी अध्यक्षतामें बाद 'वीरसेवामन्दिर' सरसावाको जो सहायता महिलाओं को भी सभा हुई, जिसमें सभानेत्रीजीके अतिरिक्त प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है, जिसके लिये दातार श्री क्षमाबाई प्र० अ०, श्री गिरजाबाई, सौ० चमेलीदेवी, श्री भगवतीदेवी और बालिकाअोंके स्त्री-शिक्षा आदि
महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं। विषयोपर व्याख्यान हुए । रात्रिमें वैद्यरत्न कन्हैयालालजीके ५०) बाबू लालचन्दजी जैन एडवोकेट रोहतक सभापतित्वमें वहीं सार्वजनिक सभा की गई, जिसमें पण्डित
(वीरशासन-दिवसकी स्मृतिके उपलक्षमें) । चन्द्रमोलि जी, बा० ज्योतिप्रमाद, सभापतिजी और मेरे भापण ए तथा अनाथाश्रमके छात्रों एवं मास्टर १०) लाला सूरतरामजी जैन पानीपत जिला गोपीचन्दक, गायन और मा० जैनकुमारके बेला, जलतरंग करनाल (चि० पुत्र कुलभूषणके विवाहोआदि हुए । धन्यवाद अादि वितरण करनेके उपरान्त
पलक्षमें ) मार्फत पण्डित रूपचन्दजी जैन सरसावा गमाजकी योग्मे जैन अनाथालयके लिये करीब
गार्गीय, पानीपत । १०१) रुपये भेंट किये गये।
इस तरह वीरशासनजयन्तीका यह दोनों दिनका उत्सव बड़े अानन्द और सजन-ममागमके साथ निर्विघ्नतया ६०) पूर्ण हुआ। -दरबारीलाल जैन, कोठिया ।
-अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर'
जरूरी सूचना
JOE
इस किरणमें प्रकाशित 'जैन-गुण-दर्पण' की कुछ कापियां अच्छे बढ़िया कागजपर अलग भी छपाई गई हैं । जिन सज्जनोंको कांचमें जड़ाकर मन्दिर आदिमें लगाना हो वे अावश्यकतानुसार कापियां वीरसेवामन्दिरसे मंगा सकते हैं ।
-व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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४३०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
प्रकाशन किया जाय । आगे पुराने और नये मेम्बरों विदेशकी खबरें भी इन अटोंमें हैं। पत्रकी भाषा की नामावली है । इसके बाद चार परिशिष्ट हैं। सरल और प्राञ्जल है। सफाई छपाई उत्तम है। सब पहले परिशिष्टमें ग्रन्थमालाका आय-व्यय दिया गया मिलाकर पत्र लोकरुचिके अनुकूल है । हम पत्रहै । दूसरेमें एकसौ रुपयेसे ज्यादा देनेवालोंकी की हृदयसे प्रगतिकामना करते हैं। पाठकोंको ग्राहक नामावली दी गई है। तीसरेमें छपे ग्रन्थोंकी संख्या अवश्य बनना चाहिए।
और उनकी लागत मूल्य बतलाई गई है। चामें ५-श्वेताम्बर जैन-(पाक्षिक पत्र)–सम्पादक वर्तमानमें मौजद ग्रन्थोंकी प्रति, संख्या और उनका और प्रकाशक श्रीजवाहरलाल लोडा, मोती कटरा, कुल मूल्य क्रमशः दिया गया है। ग्रन्थमालामें अबतक ।
आगरा । वार्षिक मूल्य ४)। ४२ ग्रन्थ छपे हैं। कुछ ग्रन्थ कई खण्डोंमें छपे हैं,
यह श्वेताम्बर जैन-समाजका मुख पत्र है । जिनकी कुल लागत ३६२६९|||-)। पड़ी है और
हाल में इमका पुनः प्रकाशन प्रारम्भ हुआ है। इसका वर्तमानमें २८००२||--।। के ग्रन्थ मौजूद है। इससे तीसरा अल हमारे सामने है। लेख पढ़ने योग्य है। मालूम होता है कि ग्रन्थमालाने बड़ी महूलियतसे
स देश-विदेशादिकं समाचारोंका सङ्कलन है । 'श्री सुन्दर और अधिक प्रकाशन प्रकाशित किये हैं। केशरियाजी तीर्थ और जैनम जैस लेखों द्वारा पत्र इसका श्रेय प्रेमीजीको है जिन्होंने ग्रन्थमालाका न
साम्प्रदायिकताको न उकमाकर उसके दूर करनमें स्वतन्त्र ऑफिस रखा और न कोई स्थायी कर्मचारी।
अग्रसर हो, यही शुभ कामना है। ग्रन्थ छपानकी व्यवस्था और पत्र व्यवहादि भी। अपने हिन्दी ग्रन्थ कार्यालय द्वारा ही ठीक कर लेते ६-याराग्य (मामिक पत्र)-सम्पादक विटलहैं। ग्रन्थमालाकी जो सज्जन सौ रुपयासे एकमुश्त दास मोदी गोरखपुर । मूल्य ४) । प्राप्तिम्थान, सहायता करते हैं उन्हें ग्रन्थमालाकं पहले वर्तमान 'आरोग्य' कार्यालय, गोरखपुर ।
और आगे सब प्रकाशन भेंट दिये जाते हैं। ऐमी प्रस्तुत पत्रका प्रकाशन जुलाईसे शुरू हुआ है। उपयोगी ग्रन्थमालाका प्रत्येक समर्थ सज्जनको सौ इसमें शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य-सम्बन्धी रुपये देकर अवश्य सहायक बनना चाहिए । लेखांका बहुत उत्तम संग्रह है। पत्रका ध्यय प्राकृतिक ४-वीर-वाणी (पाक्षिक पत्र)-सम्पादक श्रीचैन
चिकित्मा द्वारा जनमाधारणके स्वास्थ्यको बनाना सुखदास न्यायतीर्थ व श्रीभंवरलाल न्यायतीर्थ,
और उसकी वृद्धि करना है। इसके सभी लेख उत्तम प्रकाशक पं० भंवरलाल जैन, श्रीवीर-प्रम मनिहारोंका
और प्रत्यकके लिय पठनीय हैं। आशा है ऐस पत्रोंस
भारतीयोंको बड़ा लाभ पहुंचेगा । हम पत्रकी रास्ता जयपुर, वाषिक मूल्य ३)।
मफलताको कामना करते है और पाठकोंसे अनुरोध _इस पत्रका गत महावीर-जयन्तीसे ही प्रकाशन
करते हैं कि वे उक्त पत्रसे अधिकसे अधिक प्रारम्भ हुआ है । इसके ३, ७ और ८-९ अङ्क हमारे सामने हैं। इनमें मुख्यतः जयपुरकं साहित्यकारों '
लाभ उठायें । और दीवानोंका प्रमाणपुरस्सर विस्तृत परिचय है ७-जैन-जगत (मासिक पत्र) सम्पादक, जो प्रायः अबतक अप्रकाशित था। पत्रका ध्येय भी प्रकाशक, श्रीहीरामाव चवडे, वर्धा । कार्यवाहयही प्रतीत होता है कि इसमें जयपुरके उन समस्त मम्पादक, श्रीजमनालाल जैन माहित्यरत्न । सम्पादक साहित्यकारों और दीवानोंका क्रमशः प्रामाणिक मण्डल, भानुकुमार जैन, ताराचन्द कोठारी बम्बई, परिचय दिया जाय जिन्होंने साहित्य, जाति और बाबूलाल डरिया बाबई, सौ. विद्यावती देवडिया, अपने राज्यकी अनुपम एवं आदर्श सेवा की है। नागपुर । वार्षिक मूल्य २) । संस्थाओं, छात्राओं सामाजिक और राष्ट्रीय प्रवृत्तियोंकी चर्चा तथा देश- तथा महिलाओंसे १)।
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किरण १०-११ ]
यह पत्र श्रीभारत जैन महामण्डलके गत अधिवेशनसे उसके प्रमुख पत्रके रूपमें प्रकट हुआ है । श्रीभारत जैन महामण्डल के ध्येयके अनुसार इस पत्रका भी ध्येय अखण्ड जैन जागृति तथा सामाजिक एवं साहित्यिक समन्वय करना है जैसाकि उसके मुखपृष्ठ से विदित है । हमारे सामने पत्रका ४-५ संयुक्ताङ्क है। इसमें मुख्यतः डायरेक्टरी और उसका महत्व बतलाकर वर्धा जिलेकी जैन डायरेक्टरी दीगई है, जिसमें वर्धा जिले भर की तीनों तहसीलोंका गरणनादिके साथ परिचय कराया गया है। कामना है पत्र अपने उद्देश्य में सफल 1
साहित्य परिचय और समालोचन
८ - नया जीवन - प्रधान सम्पादक, श्रीकन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' । प्रकाशक, विकास लिमिटेड सहारनपुर । मूल्य, इस संख्याका बारह श्राना और बारह संख्याओं (१००० पृष्ठ) का एक साथ १०) रु० ।
प्रभाकरजीकी चुभती लेखनी पाठक परिचित हैं, उन्हीं के प्रधान सम्पादकत्व में यह मासिक पत्र हाल में प्रकट हुआ है, जिसका हमारे सामने दूसरा अ है। इसमें साहित्यिक, समाज सुधारक और देशको वर्तमान दशाके प्रदर्शक है, पठनीय लेखोंका अच्छा सुन्दर संग्रह हैं । सफाई-छपाई भी अच्छी है ।
९–तरुण जैन-सम्पादक, भंवरलाल सिंधीव चन्दनमल भूतोंडिया । मूल्य, ५) । प्राप्तिस्थान, 'तरुण जैन' ३, कामर्शियल विल्डिङ्गस, कलकत्ता ।
तरुण जैन सङ्घ कलकत्ताका यह मासिक प्रमुख पत्र है । इसमें जहाँ सुधार और आलोचनाकी तीक्ष्णता है वहाँ व्यर्थकी छींटाकशी और पक्षकी भी कमी नहीं है । हम चाहते हैं कि पत्र निष्पक्ष और श्रनाक्षेपकी भाषा में जैन सामाजिक सुधारों और आलोचनाओं को प्रस्तुत करे । इससे उसका क्षेत्र व्याप्य न रहकर व्यापक बन सकता है । हम उसकी इस दिशा में सफलता चाहते हैं।
१० - अशोक - श्राश्रमका चतुर्थ वार्षिक विवरण - प्रकाशक, श्रीधर्मदेव शास्त्री । व्यवस्थापक, अशोकआश्रम, कालसी, देहरादून ।
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पण्डित श्रीधर्मदेव शास्त्रीने कालसी, देहरादून और जौनसार आदिकी पहाड़ी जनताकी सेवा करने के लिये चार वर्ष पूर्व अशोक - श्राश्रमकी स्थापना की थी । उसीकी यह चतुर्थवर्षीय रिपार्ट है। इस रिपोर्टसे मालूम होता है कि शास्त्रीजीने उक्त आश्रमके अन्तर्गत गान्धी गुरुकुल और माता कस्तूरवा गान्धी महिला औषधालय ये दो संस्थाएँ खोल रखी हैं और उनके द्वारा पहाड़ी जनताको शिक्षित, सुसंस्कृत और उन्नत बना रहे हैं । हम उनके इस पवित्र सेवाकार्य की मुक्तकण्ठले प्रशंसा करते हुए उसकी प्रगतिकामना करते हैं ।
११ - लोक-जीवन (मासिक) – सम्पादक, श्री यशपाल जैन बी० ए०, एल- एल० बी० । संरक्षक, श्रीजैनेन्द्रकुमार । वार्षिक मूल्य ६ ) | प्राप्तिस्थान, 'लोकजीवन' कार्यालय ७/८ दरियागञ्ज, दिल्ली ।
जैसाकि पत्रके नामसे प्रकट है, यह लोकके नैतिक जीवन के अध्युदयका प्रदर्शक मासिक पत्र है । हमारे समक्ष वर्ष दोका दूसरा श्र है । इसमें विख्यात उत्तम लेखों का चयन है। एक परिचय लेख तो बिल्कुल अनावश्यक है उसका सर्वसाधारण के लिये कोई उपयोग नहीं है। प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थकं यशस्वी सम्पादक बा० यशपालजीके सम्पादकत्व में अब प्रकट हुआ है इसलिये आशा है कि यह अपने उद्देश्य में अवश्य सफल होगा । हमारी शुभ कामना है ।
१२- आत्म-धर्म (मासिक पत्र ) – सम्पादक श्री रामजी माणेकचन्द दोशी, वकील, प्रकाशक श्री जमनादास मारणेकचन्द रवाणी, आत्मधर्म कार्यालय मांटा आँकडिया, काठियावाड, वार्षिक मूल्य ३)
यह अध्यात्मका उच्चकोटिका मासिक पत्र है । इसमें पूज्य कानजी स्वामीके अध्यात्मिक प्रवचनों संग्रह रहता है । जो लोग विद्वत्परिपके गत अधिवेशन में सुवर्णपुरी गये थे उन्हें मालूम है कि वहाँका सारा वातावरण कितना आध्यात्मिक और शान्त है । उसी वातावरणकी उद्दीप्त रश्मियाँ इस पत्र
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
द्वारा विश्वमें प्रसारित की जारही हैं। जब विश्व पुष्प है । पाठक स्व० श्रीभगवतजीकी ओजपूर्ण भौतिकताकी ओर जारहा है तो ये रश्मियाँ उन्हें लेखनी और उनकी गदा-पद्य रचनाओंसे सुपरिचित अवश्य प्रकाशदान करेंगी । हम पत्रकी सफलता हैं। उसी ओजपूर्ण लेखनीसे यह पद्यात्मक रचना चाहते हैं और चाहते हैं पूज्य कानजी स्वामीके लिखी गई है। भगवतजीकी प्रत्येक रचनामें नीति उपदेशोंका सार्वत्रिक प्रसार और प्रकाश। और सुधारकी पुट निहित रहती है। इस रचनामें भी १३-मुक्तिका मार्ग-प्रवक्ता, श्रीकानजी स्वामी।
वे दोनोंका जगह जगह प्रदर्शन होरहा है। इस अनुवादक, पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ । मूल्य,
छोटीसी पुस्तकमें इस पौराणिक कथाको चित्रित दस आने । प्राप्तिस्थान, श्रीजैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट
किया है जिसमें बताया गया है कि विष्णुकुमार
मुनिने किस प्रकार बलिद्वारा उपसग किये गये सुवर्णपुरी-सोनगढ़ (काठियावाड)।
सातसौ मुनियोंकी रक्षा करके रक्षाबन्धनका त्योहार ___ यह 'भगवान श्रीकुन्दकुन्दकहान जैन-शास्त्रमाला'
प्रचलित किया और लोकमें वात्सल्यका अमिट उदाका तेरहवाँ पुष्प है । इसमें संस्कृत महावीराष्टक आदि रचनाओंक रायता स्व. पं० भागचन्दजी
हरण प्रस्तुत किया। पुस्तक रोचक और पठनीय है। द्वारा हिन्दीमें रचे गये 'सत्तास्वरूप' नामक महत्व
१५-मधु-रस (छह खण्ड काव्य ) लेखक, पूर्ण ग्रन्थपर अध्यात्मयोगी पूज्य श्रीकानजी स्वामी श्रीभगवत जेन । प्रकाशक उपयुक्त भवन । मृ०-) गुजरातीमें किये गये मार्मिक आध्यात्मिक प्रवचनों- इसमें स्वाधीनताकी ज्योति, स्वयम्वरा, सिद्धाथको संगृहीत किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक उसीका नन्द, जनकनन्दिनी, साधु-सवी और पुजारी इन छह पं० परमेष्ठीदासजी कृत हिन्दी अनुवाद है। मल खण्ड काव्यांका सङ्कलन है। इनमें कई अनकान्तम ग्रन्थमें प्राप्तका म्वरूप और उसकी सत्ता सिद्ध की प्रकट भी होचुके हैं । यह सभी मधुर और श्रेष्ट तो हैं है । पं० भागचन्दजीन अपनी जिम तकरणापण पनी ही पर उनम ओज, शिक्षा और काव्यगारमा भी खूब बुद्धिस सच्चे आप्त-अरहन्तदेवका प्रसाधन किया है। श्रीभगवतजी यदि कुछ थोड़े दिन और जीवित है उसी तकपूण तीक्ष्ण बुद्धिस श्रीकानजी महाराजन रहते तो उनके द्वारा मालूम नहीं कितनी भारी उसका अपने सूक्ष्म प्रवचनों द्वारा सबल भाप्य साहित्य और समाजकी संवा होती । आज तो उनकी करके सम्पोपण किया है तथा बतलाया है कि तत्त्व- य कृतियाँ ही हमारे लिये स्मारक हैं। भावना है कि निणय-तत्त्वज्ञान ही मुक्तिकामाग है जो हरेक मुभुक्षु- उनकी इन कृतियोंका समस्त संसारमें मान और को सब जगह और सब कालमें प्राप्त होसकता । इस आदर हो । तत्त्वज्ञानकं बिना ही जीव गृहीत मिथ्यात्वी बन १६-धर्म क्या है ?-लेखक, कुवर श्रीनेमिचद रहते हैं। अतः उसे प्राप्तकर जीवों को गृहीत मिथ्यात्व- जैन पाटनी । प्रकाशक, श्रीमगनमल हीरालाल पाटनी का त्याग करना चाहिए । तत्त्वज्ञ नेच्छुकों के लिये यह दि. जैन पारमार्थिक ट्रम्प, मदनगञ्ज । मृल्य, मनन । पुस्तक बड़ी उपयोगी और कल्याण कारक है । इसके ममें पाटनीजीन वास्तविक धर्म राग और द्वपकी माथमें मूल ग्रन्थ भी रहता तो उत्तम होता। सफाई- निर्वात्तको बतलाया है। इसीक प्रसङ्गम जीवादि तत्त्वों छपाई श्रादि मब सुन्दर है।
का स्वरूपनिर्देश भी किया है । जो केवल शुभ १४-रक्षाबन्धन (पौराणिक खण्डका काव्य)- प्रवृत्तिको धर्म मानते अथवा समझते हैं उसका निपंध लेखक, स्व० श्रीभगवन जैन । प्रकाशक श्रीभगवत
करकं निवृत्तिपरक ही धमकी व्याख्या की है । पुस्तक भवन ऐत्मादपुर (आगरा)। मल्य, चार आनं। उपयोगी है । पाटनीजीका प्रयत्न मराहनीय है।। ल्या
उपयागा ह । पाटनीजीका प्रयत्न मराहनीय प्रस्तत
चार आन। प्रस्तुत पुस्तक 'भगवत' पुस्तकमालाका नवाँ
--- दरबारीलाल जैन कोठिया, न्यायाचार्य
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(पृष्ठ ४२८ का शेषांश)
वीरसेवामन्दिरको सहायता के छात्रों तथा मा० गोपीचन्दजीके मधर गायन एवं मा० जैनकुमारके बेला, जलतरंग आदि होकर ग्यारह बजे सभा सानन्द समाप्त हो गई। ___दूसरे दिन ता० ५ जुलाईको दिनमें जैन कन्या गत किरण (८-९) में प्रकाशित सहायताके पाठशालाके नूतनभवनमें श्री जयवन्तीदेवीकी अध्यक्षतामें बाद 'वीरसेवामन्दिर' सरसावाको जो सहायता महिलाअोंकी भी सभा हुई, जिसमें समानेत्रीजीके अतिरिक्त प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है, जिसके लिये दातार श्री क्षमाबाई प्र० अ०, श्री गिरजाबाई, सौ. चमेलीदेवी, श्री भगवतीदेवी और बालिकाओंके स्त्री-शिक्षा आदि
__ महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं। विषयोंपर व्याख्यान हुए । रात्रिमें वैद्यरत्न कन्हैयालालजीके ५०) बाबू लालचन्दजी जैन एडवोकेट रोहतक 'सभापतित्वमें वहीं सार्वजनिक सभा की गई, जिसमें पण्डित
(वीरशासन-दिवसकी स्मृतिके उपलक्षमें) । चन्द्रमोलिजी, बा० ज्योतिप्रसाद, सभापतिजी और मेरे भाषण हुए तथा अनाथाश्रमके छात्रों एवं मास्टर १०) लाला सूरतरामजी जैन पानीपत जिला गोपीचन्द के गायन और मा० जैनकुमारके बेला, जलतरंग करनाल (चि० पुत्र कुलभूषणके विवाहोश्रादि हुए । धन्यवाद अादि वितरण करनेके उपरान्त
पलक्षमें ) मार्फत पण्डित रूपचन्दजी जैन सरसावा समाजकी अोरसे जैन अनाथालयके लिये करीब
गार्गीय, पानीपत । १०१) रुपये भेंट किये गये। ... इस तरह वीरशासनजयन्तीका यह दोनों दिनका
उत्सव बड़े अानन्द और सजन-समागमके साथ निर्विघ्नतया ६०) पूर्ण हुआ। -दरबारीलाल जैन, कोठिया।
-अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर'
जरूरी सूचना
इस किरणमें प्रकाशित 'जैन-गुण-दर्पण' की कुछ कापियां अच्छे बढ़िया कागजपर अलग भी छपाई गई हैं। जिन सज्जनोंको कांचमें जड़ाकर मन्दिर आदिमें लगाना हो वे श्रावश्यकतानुसार कापियां वीरसेवामन्दिरसे मंगा सकते हैं ।
-व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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Regd. No. A-736.
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वीरसेनामन्दिरके नये कान नया मुख्तार श्री जुगलकिशोरके
(हान) हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित । इष्टवियोगादिके न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्याय-दीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण
बार पढ़ लेने से बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी खास विशेषता रखता है । अब तक प्रकाशित . इसके पाठ से उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तमें संस्करणोंमें जो अशुद्धियाँ चली श्रारही थीं उनके प्राचीन
प्रसन्नता और सरसता आजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोंपरसे संशोधनको लिए हुए यह संस्करण मूलग्रन्थ योग्य है। मू०)
और उसके हिंदी अनुवादके साथ प्राक्कथन, सम्पादकीय पाय 4 .1 नया
१०१ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई ८ प्राप्त संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी मानवाट परिशिष्टोंसे मङ्कलित है, साथमें सम्पादक द्वारा नवनिर्मित। व्याख्या सहित । मू०।)
'प्रकाशाख्य' नामका एक संस्कृतटिप्पण लगा हुआ है,
__ जो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोंका खुलासा करता ity
- मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी अनेक प्राचीन पोको लेकर नई योजना
हुया विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज मुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-सहित । इसमें श्रीवीर
है । लगभग ४०० पृष्ठोंके इस सजिल्द बृहत्संस्करणका वर्द्धमान और उनके बादके जिनसेनार्य पर्यन्त, २१
लागत मूल्य ५) रु० है । कागजकी कमीक कारण थोड़ी
ही प्रतियाँ छपी हैं । अतः इच्छकको शीघ्र ही मॅगा : महान् आचार्योंके अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा
लेना चाहिये । किये गये महत्वके १३६ पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और शुरूमें १ लोकमंगल कामना, २ नित्यकी श्रात्म प्रार्थना,
१
लेखक पं० जुगलकिशोर ३ साधुवेषनिदर्शक जिनस्तति, ४ परमसाधमखमदा और मुख्तार, हालमें प्रकाशित चतुर्थ संस्करण । ५ सत्साधुवन्धन नामके पाँच प्रकरण हैं । पस्तक पढ़ते
यह पुस्तक हिंदी माहित्यमें अपने दगकी एक ही ममय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होने हैं यार चीज़ है । इममें विवाह जम महत्वपूण विषयका बड़ा ही साथ ही प्राचायाँका कितना ही इतिहास सामने प्राजाता
मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है, अनेक है, नित्य पाठ करने योग्य है । मू०॥)
विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियांस उत्पन्न हुई htra ... यह पंचाध्यायी
विवाहकी कटिन और जटिल ममस्याको बड़ी युक्तिके तथा लाटीसंहिता आदि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमल
साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण द्वारा मुलझाया गया है श्रार इस
तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है । विवाह की अपूर्व रचना है । इसमें अध्यात्मममुद्रको कृजेमें बन्द किया गया है । साथम न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल कोटिया
क्यों किया जाता है ? उसकी अमली गरज और और पंडित परमानन्द शास्त्रीका सुन्दर अनुवाद,
मैद्धान्तिक स्थिति क्या है ? धर्मसे, समाजम, और गृहस्था
श्रमसे उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कर किया जाना विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी
चाहिए ? उसके लिये वर्ण और जातिका क्या नियम लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है । बड़ा ही उपयोगी ग्रंथ है। मू० ११॥)
हो सकता है ? विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि लाभ
होता है ? इत्यादि बातोंका इस पुस्तकमें बड़ा ही युति। माate.
in मुख्तार
पुरम्मर एवं हृदयग्राही वर्णन है । मू० ॥) श्रीजुगलकिशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षाश्रोंका प्रथम अंश, ग्रन्थ परीयाअोंके इतिहासको लिये हुए १४ पेजकी नई
प्रकाशन विभागप्रस्तावना महित । मू०।)
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विधयं पाये चाऽनुभयमुभय मिश्रमपि तहिशेषैः प्रत्येक नियमविषये या परिमिन किरण १२ मतान्योऽन्यापतेः सकल भुवनज्येष्टगुरुणा त्वया गीतं नवं बहनय विवक्षनग्यशान
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विषय-सूची
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१-समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक २-रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र-[सम्पादक ३-परख (कहानी)-[स्व० श्री 'भगवत्' जैन] ४-संस्कृत 'कर्मप्रकृति'-[सम्पादक ५-मेरी रणथंभौर-यात्रा-[श्रीवरलाल नाहटा] ६-रद्दीमें प्राप्त हस्तलिखित जैन-अजैन ग्रन्थ-[सम्पादक] ७-दिगम्बर जैन आगम-[आ० बलदेव उपाध्याय एम० ए०]
-त्रिभुवनगिरि व उसके विनाशके सम्बन्धमें विशेष प्रकाश-[श्रीअगरचन्द नाहटा] ९-तेरह काठिया-सम्बन्धी श्वे० साहित्य-[श्रीअगरचन्द नाहटा] १०--साहित्य-परिचय और समालोचन ११-श्रीधर और विवुध श्रीधर नामके विद्वान्-(पं० परमानन्द जैन, शास्त्री) १२-रत्नकरण्डक-टीकाकार प्रभाचन्द्रका समय-(न्या० पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया) १३-सम्पादकीय वक्तव्य (अनेकान्तकी वर्ष समाप्ति, आदि) १४-अनेकान्तके आठवें वर्षकी विषय-सूची
४३७ ४३९ ४४१ ४४४ ४४९ ४५३
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४५८
४६२
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विलम्बादिकी सूचना
इस वर्षमें एक बार पहले-किरण नम्बर ६-७ के अवसरपर-विलम्बकी शीघ्रपूर्ति होती हुई न देखकर महीनोंके पूर्वक्रमको छोड़कर नया क्रम अपनाया गया था इस बार भी उसी दृष्टिस वैसा किया गया है अर्थात पिछली संयुक्त किरण नम्बर १०-११, जिसपर मार्च-अप्रैल के महीने पड़े थे, जब २२ सितम्बरको प्रकाशित हुई और वह पाठकोंमें कुछ सन्देह उत्पन्न करने लगा तब इस किरणपर मईका महीना न डाल कर अक्तूबरका महीना डाला गया था और यह श्राशा की गई थी कि अक्तूबरमें यह किरण प्रकाशित होजायगी, क्योंकि मैटर २२ सितम्बरसे ही प्रेसको दे दिया था परन्तु खेद है कि एक फार्म ( पेज) का कम्पोज होनेके बाद ही सहारनपुरमें साम्प्रदायिक दङ्गा फिसाद शुरू होगया, काय लग गया, यातायात रुक गया और सारा वातावरण एकदम क्षुब्ध तथा सशङ्क होगया। इसमें अक्तबरमें किरण प्रकाशित नहीं हो सकी और इसलिये यह किरण दिसम्बरकं अन्तमें प्रकाशित होरही है, जिसका हमें खेद है । महीनोंका क्रम छोड़नेके दोनों अवसरोंपर किरणोंके क्रमको बराबर ज्यों का त्यों कायम रक्खा गया है । अतः पाठक एवं ग्राहक किरणांके क्रमसे ही इस वर्षकी गणना करें-महीनोंके क्रम भङ्ग अथवा उनके छूट जानेसे बीच में किसी किरणका छूट जाना न समझे। और उन महीनोंकी किरणें भेजनेको लिखने का कोई कष्ट न उठावें, किरणें पूरी १२ होगई हैं, जिनमें कुछ अलग अलग और कुछ मंयुक्त (दोदो मिली हुइ) हैं। अगले वर्षकी योजनाके सम्बन्ध में सम्पादकीय वक्तव्यको इसी किरणमें पढ़ना चाहिये।
-व्यवस्थापक
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* ॐ
अहम् *
7
वस्ततत्त्व-सघातक
विश्वतत्वप्रकाशक
वापिक मृल्य ४)
SEEEEEEEEEEEEE
इस किरणका मूल्य 1-)
नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
अक्तबर
वप८ किरण १.
वीरसेवान्दिर (ममन्तभद्राश्रम), सरसावा जिला महारनपुर आश्रिन शल. वीरनिवाण सं०.४७३, विक्रम सं. २००४
समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
गगाद्यविद्याऽनल-दीपनं च विमोक्ष विद्या मृत-शामनं च ।
न भिद्यते मंति-वादि-वाक्यं भवत्प्रतीपं परमार्थ शन्यम् ।।२३।। (यदि मंतिम संवेदनाऽद्वैन-नत्व की प्रतिपत्ति मानकर बौद्ध-दशनकी कष्टाएत का निषेध किया जाय तो वह भी ठीक नहीं बैठना: क्योंकि) मंवृत्त-वादियोंका गगादि-अविद्याऽनल-दीपन-वाक्य और विमोक्षविद्याऽमृत-शामन-वाक्य परमार्थ-शून्य-विपयम परम्पर भंदको लिये हुए नहीं बनना--अर्थात जिस प्रकार मंति-वादियों के यहाँ "अग्निष्टोमन यजेन गकाम:" इत्यादि गगादि-अविदयाऽनल के दीपक वाक्य-ममूहको परमाथ-शून्य बनलाया जाता है उमी प्रकार उनका "मम्याज्ञान-वैतृगा-भावनानी नि:श्रेयमम" इत्यादि विमोक्षविद्याऽमृमका शासनात्मक वाक्य-ममृह भी परमार्थ-शून्य ठहरता है, दोनोंमें परमार्थ-शून्यता-विषयक कोई भेद नहीं है। क्योंकि (हे वीर जिन !) उनमसे प्रत्यक वाक्य भवत्प्रतीप है---आपके अनेकान्त-शासनक प्रतिकूल मर्वथा एकान्त-विषयापमं ही अंगीकृत है- और (इम लिये) परमार्थ-शून्य है । (फलतः) आपके अनेकान्त-शामनका कोई भी वाक्य मर्वथा परमार्थ-शून्य नहीं हैं-मोक्ष-विद्यामृतकं शामनको लिये हुए वाक्य जिस प्रकार मोक्षकारगारूप परमार्थ मे शुन्य नहीं है उसी प्रकार गगाविद्यानलका दीपक वाक्य भी बन्धकारगारूप परमार्थसे-वास्तविकताम---शन्य नहीं है।
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अनकान्त
[ वर्ष
विद्या-प्रसूत्यै किल शील्यमाना भवत्यविद्या गुरुणोपदिष्टा ।
अहो त्वदीयोक्त्यनभिज्ञ-मोहो यजन्मने यत्तदजन्मने तत् ॥२४॥ '( हे वीर जिन ! ) आपकी उक्तिसे–स्याद्वादात्मककथन-शैलीसे अनभिज्ञका-बौद्धोंके एक सम्प्रदायका-यह कैमा मोह है-विपरीताभिनिवेश है—जो यह प्रतिपादन करता है कि 'गुरुके द्वारा उपदिष्ट अविद्या भाव्यमान हुई निश्चयस विद्याको जन्म देने में समर्थ होती है' ! (क्योंकि) इससे जो अविद्या अविद्यान्तरके जन्मका कारण सुप्रसिद्ध है वही उसके अजन्मका भी कारण होजाती है !!---और यह स्पष्ट विपरीताभिनिवेश है जो दर्शनमोहके उदयाऽभावमें नहीं बन सकता । जो मदिरापान मदजन्मक लिये प्रसिद्ध है वही मदकी अनुत्पत्तिका हेतु होने के योग्य नहीं होता।'
(यदि कोई कहे कि 'जिस प्रकार विपभक्षण विपविकारका कारण प्रसिद्ध होते हुए भी किंचिन विविकारके अजन्मका-उसे उत्पन्न न होने देनेका हेतु देखा जाता है, उसी प्रकार कोई अविद्या भी भाव्यमान (विशिष्ट भावनाको प्राप्त) हुई स्वयं अविद्या-जन्मके अभावकी हेतु होगी, इममें विरोधका कोई बात नहीं' तो उसका यह कथन अपर्यालोचित है; क्योंकि भ्रम-दाह-मृदादि विकारको जन्म देने वाला जङ्गमविप अन्य है और उस जन्म न देने वाला-प्रत्युन उम विकारको दूर कर दन वाला-- स्थावर्गवप अन्य ही है, जो कि उम विषका प्रतिपक्षभूत है, और इस लिये अमृत-कोटि में स्थित है, इमाम विपका 'अमृत' नाम भी प्रसिद्ध है । विप मर्वथा विप नहीं होता, उमं मवथा विप माननपर वह विपान्तरका निधनभूत नहीं बन सकता । अतः विषका यह उदाहरण विपम है। उसे यह कहकर माम्य उदाहरण नहीं बतलाया जासकता कि अविद्या भी जा संसारको हतु हे वह अनादि-वामनाम उत्पन्न हद अन्य ही है और विद्याक अनुकूल है, किन्तु मोक्षकी तुभूत अविद्या दूमरी है, जो अनादि अविद्याक जन्मकी निवृत्ति करने वाला तथा विद्याक अनुकूल है, और इमलिय मंसारकी हेतु अविद्या प्रतिपक्षभत है। क्योंकि जो मवथा अविदाके प्रतिपक्षभूत है उससे अविद्याका जन्म नहीं हो सकता, उसके लिये तो विद्यात्वका प्रमङ्ग उपस्थित होना है । यदि अनादिअविद्या प्रतिपक्षत्वके कारण उम अविद्याको कञ्चित् विद्या कहा जायगा तो उसने मंवृतिवादियांक मतका विरोध होकर स्याद्वादि-मतकं आश्रयका प्रसङ्ग आएगा । क्योंकि म्याद्वादियोक यहाँ कंवलज्ञानम्प परमाविद्याकी अपेक्षा मतिज्ञानादिरूप क्षायोपशमिकी अपकृष्ट विद्या भी अविदा माना गइ है-न कि अनादि-मिथ्याज्ञान-दशनम्प अविद्याकी अपक्षा; क्योंकि उमकं प्रतिपक्षभूत होनस मानज्ञानादिक विद्यापना सिद्ध है । अतः सवथा अविद्यात्मक भावना गुरुके द्वारा उपदिष्ट होती हुई भी विद्याको जन्म देनम समर्थ नहीं है। एमी अविद्याकं उपदशक गुरुको भी अगुरुत्वका प्रमग आता है, क्योंकि विद्याका उपदशी ही गुरु प्रसिद्ध है। और इमलिये पुम्पाद्वतकी तरह संवेदनाद्वैत तत्त्व भी अनुपाय ही है-किसी भी उपाय अथवा प्रमागर्म वह जाना नहीं जा सकता ।)
अभावमात्रं परमार्थवृत्त: सा संवृतिः मवे-विशेष-शून्या ।
तम्या विशेषौ किल बन्ध-मोक्षा हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ।।२५।। ‘परमार्थवृनिस तच्च अभावमात्र हैन ना बाह्याभ्यन्तरम्प निरन्वय क्षणिक परमाणुमात्र नच्व है, सौत्रान्निक मतका निराकरण हो जानसे; और न अन्तःवित्परमाणुमात्र या संवेदनाद्वैतमात्र नत्व है, योगाचारमतका निरसन हो जानसः किन्तु माध्यमिक मतकी मान्यतानुरूप शून्यतत्त्व ही तत्व है.- और वह परमार्थवृति संवृतिरूप है-तात्विकी नहीं: क्योंकि शून्यमंवित्ति नात्त्विकी होनपर मवथा शन्य तच्च नहीं रहना, उमका प्रतिषेध हो जाता है-और मंति मविशपोंमे शन्य है-पदार्थमद्धाव
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किरण १२ ]
ममन्तभद्र-भारतीक कुछ नमूने
वादियों के द्वारा जो तात्त्विक विशेष मान गये हैं उन मबस रहित है-तथा उस अविद्यात्मिका एवं सकलतात्त्विक-विशेप-शून्या संवृतिके भी जो बन्ध और मोक्ष विशंप हैं व हत्वात्मक हैं--सांवृतम्प हंतु स्वभावके द्वारा विधीयमान हैं अर्थात् आत्मीयाभिनिवेशके द्वारा बन्धका और नैगम्य-भावनाके अभ्यास-द्वारा मोक्षका विधान है, दोनोमसे कोई भी तात्त्विक नहीं है । और इस लिये दोनों विशेष विरुद्ध नहीं पड़ते ।' इस प्रकार (हे वीर जिन !) यह उनका वाक्य है-उन सर्वथा शून्यवादि-बौद्धांका कथन है-जिनके श्राप (अनेकान्तवादी) नाथ नहीं है । (फलतः) जिनके आप नाथ है उन अनेकान्तवादियोंका वाक्य ऐसा नहीं है किन्तु इस प्रकार है कि-स्वम्पादि चतुण्यकी अपक्षाम मतरूप पदाथ ही परर.पादि चतुष्टयकी अपेक्षासे अभाव (शून्य) रूप है । अभावमात्रके म्बम्पसे ही अमन होनेपर उममें परमार्थिकत्व नहीं बनता, तब परमार्थवृत्तिम अभावमात्र कहना ही अमङ्गन है।'
व्यतीन-सामान्य-विशेष-भावाद्विश्वाऽभिलापाऽर्थ-विकल्प-शुन्यम् ।
ग्व-पुप्पवम्यादमदेव तन्वं प्रबुद्ध तत्त्वाझ्यतः परंपाम् ॥२६॥ हे प्रबुद्ध-तत्त वीर जिन ! आप अनेकान्नवादीम भिन्न दृमगंका-अन्य एकान्तवादियोंका-जो सर्वथा सामान्यभावस गहन, मवथा विशेषभावसे रहित तथा (परम्पर मापेक्षम्प) सामान्य-विशेषभाव दोनोंमे रहिन जो तत्व है वह (प्रकटम्पमें शून्य तत्त्व न होते हुए भी) संपूण अभिलापी तथा अर्थविकल्पांम शुन्य होने के कारण आकाश-कुसुमकं समान अवस्तु ही है। भावार्थ-सामान्य और विशेषका परम्पर अविनाभाव सम्बन्ध है-सामान्यकं बिना विशेषका और विशेषकं बिना मामान्यका अस्तित्व बन नहीं सकता। और इस लिय जो भदवादी बौद्ध सामान्यको मानकर सवतः व्यावृतम्प विशेष पदार्थीको ही मानते हैं उनके व विशप पदार्थ भी नहीं बन सकते-मामान्यस विशेपके मवथा भिन्न न होनेके कारण मामान्य अभावम विशेष पदार्थो के भी अभावका प्रसङ्ग आना है और तत्त्व मवथा निम्पाख्य ठहरता है।
और जा अभंदवादी मांख्य मामान्यको ही एक प्रधान मानते हैं और कहते हैं कि महन-अहहादि विशेष चुकि मामान्यके बिना नहीं होते इस लिये वे अपना कोई अलग (पृथक ) व्यक्तित्व ( अस्तित्व ) नहीं रखत-अव्यक्त सामान्यक ही व्यक्तरूप है-उनके मकल विशंपांका अभाव होनेपर विशेषांक साथ अविनाभावी सामान्यके भी अभावका प्रसङ्ग आता है और व्यक्ताव्यक्तात्मक भाग्यकं अभाव होनपर भोक्ता आत्माका भी अमभव ठहरता है। और इस तरह उन माग्यांके, न चाहते हए भी. मवशन्यत्वकी सिद्धि टित होनी है। व्यक्त और अव्यक्त में कञ्चितभेद माननेपर स्याद्वाद-न्यायके अनुसार गणका प्रमङ्ग पाना है और तब वह वाक्य (वचन) उनका नहीं रहता जिनके आप वीजिनेन्द्र नायक नहीं है । इमी तरह परस्पर निरपेक्षम्पस सामान्य-विशेष भावको मानने वाले जो योग है-नैयायिक तथा वैशपिक हैं-वं कश्चन रूपसे (परस्पर मापेक्ष) मामान्य विशेषको न माननेके कारण व्यतीत-मःमान्य-विशेष-भाववादी प्रसिद्ध ही हैं और वीरशासनस बाह्य है, उनका भी तत्व वास्तवमै विश्वामिलाप और अर्थ-विकल्पसे शून्य होनक कारगण गगन-कुमुमकी तरह उसी प्रकार अवस्तु ठहरता है जिस प्रकार कि व्यतीत-सामान्य-भारवादियांका, व्यतीत-विशेष-भाववादियोंका अथवा मवथा शून्यवादियांका नच्च अवस्नु ठहरता है।
अतत्स्वभावेऽप्यनयोरुपायाद्गतिभवेत्ती वचनीय-गम्यौ ।
सम्बन्धिनी चेन्न विरोधि-दृष्ट वाच्यं यथार्थ न च दृपणं तत ॥२७॥ “यदि कोई कहे कि शून्यम्वभावकं अभावरूप मम्वभाव तत्वके माननवर भी इन (बन्ध और मोक्ष) दानांकी उपायम गति होती है.---उपाय-द्वारा बन्ध श्रीर मान दानां जान जान है.---, दानां वचनीय है
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भनेकान्त
[ वर्ष ८
और गम्य हैं-जब परार्थम्प वचन बन्ध-मोक्षकी गति (जानकारी) का उपाय होता है तब ये दोनों 'वचनीय' होते हैं और जब स्वार्थरूप प्रत्यक्ष या अनुमान बन्ध-मोक्षको गतिका उपाय होता है तब ये दोनों 'गम्य' होते हैं। साथ ही, दोनों सम्बन्धी है-परस्पर विनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए हैं, बन्धके बिना मोक्षकी और मोक्षके बिना बन्धकी संभावना नहीं; क्योंकि मोक्ष बन्ध-पूर्वक होता है । और मोक्षक अभाव. में बन्धको माननेपर जो पहलेसे अबद्ध है उसके पीछेसे बन्ध मानना पड़ेगा अथवा शाश्वतिक बन्धका प्रसङ्ग पाएगा। अनादि बन्ध-स.तानकी अपेक्षासे बन्धके बन्ध-पूर्वक होते हुए भी बनविशेपकी अपक्षासे बन्धकं अबन्ध-पूर्वकत्वकी सिद्धि होती है, प्राक् अबद्धके ही एकदेश मोक्षरूपता होनस बन्ध मोक्षक साथ अविनाभावी है और इस तरह दोनों अविनाभाव-सम्बन्धसे सम्बन्धित हैं तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकार सत्स्वभावरूप तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता, विरोध नजर आता है-मवथा क्षणिक (अनित्य) और सर्वथा अणिक (नित्य) आदिरूप मान्यताएँ विरोधको लिये हुए हैं । स्याद्वाद-शासनसे भिन्न परमतमें सत्तत्त्व बनता ही नहीं-सर्वथा क्षणिक और सवथा अक्षणिककी मान्यतामें दूसरी जातिक (परम्पर निरपेक्ष) अनेकान्तका दर्शन होता है, जो सदोष है अथवा वस्तुतः अनकान्त नहीं है । सत्तत्व मर्वथा एकान्तात्मक है ही नहीं; क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणांसे उसकी उपलब्धि नहीं होती।
(इस पर यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे भले ही सत्तत्त्वकी उपलब्धि (दर्शन-प्राप्ति) न होती हो, परन्तु परपक्षक दूषणसे तो उसकी सिद्धि होती ही है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि) जो यथार्थ वाक्य होता है वह दूषणरूप नहीं होता—जिसको क्षणिक-एकान्तवादी परपनमें स्वयं दूषण बतलाता है उसमें यथार्थ-वाच्यता होनेसे अथवा परपक्षकी तरह स्वपक्षां भी उसका सद्भाव होनस उसे दूषणरूप नहीं कह सकते, वह दृपणाभास है। और जो दृषण परपक्षकी तरह स्वपक्षका भी निराकरण करता हो वह यथाथ वाच्य नहीं हो सकता । वास्तवमें दोनों सर्वथा एकान्तांस, विरोधकं कारण, अनकान्तकी निवृत्ति होती है, अनेकान्तकी निवृत्तिसे क्रम और अक्रम निवृत्त होजाते हैं, क्रम-अक्रमकी निवृत्तिसे अर्थ-क्रियाकी निवृत्ति हो जाती है-क्रम-अक्रमके बिना कहीं भी अर्थ-क्रियाकी उपलब्धि नहीं होती और अर्थ-क्रियाकी निवृत्ति होनेपर वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था नहीं बनती: क्योंकि वस्तुतत्त्व अर्थ-क्रिया के साथ व्याप्त है। और इस लिये सर्वथा एकान्ताम सत्तत्वकी प्रतिष्ठा ही नहीं हो सकती ।'
उपेय-तत्त्वाऽनभिलाप्यता-वदुपाय-तत्त्वाऽनभिलाप्यता स्यात् ।
अशेष-तत्वाऽनभिलाप्यतायां द्विपां भवद्य क्तयभिलाप्यतायाः ॥२८॥
(हे वीर जिन !) आपकी युक्तिकी-म्याद्वादनीतिकी-अभिलाप्यताके जो द्वषी हैं-संपूर्ण वस्तुतत्त्व स्वरूपादि-चतुष्टयकी (म्वद्रव्यक्षेत्र-कालभावकी) अपेक्षा कश्चित सनरूप ही है, पररूपादिचतुष्टयकी (परद्रव्यक्षेत्र-कालभावकी) अपेक्षा कश्चित असनरूप ही है इत्यादि कथनीक साथ द्वेषभाव रखते हैं-उन द्वेषियोंकी इम मान्यतापर कि 'संपूण तत्त्व अनभिलाप्य (अवाच्य) है' उपयतत्त्वकी अवाच्यताके समान उपायतत्त्व भी सर्वथा अवाच्य (श्रवक्तव्य) होजाता है-जिस प्रकार निःश्रेयस (निर्वाण-मोक्ष) तत्त्वका कथन सर्वथा नहीं किया जा सकता उसी प्रकार उसकी प्राप्तिके उपायभूत निर्वाणमागका कथन भी सर्वथा नहीं किया जा सकता; क्योंकि दोनोंमें परस्पर तत्त्व-विषयक कोई विशेपता नहीं है।
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रावणा-पार्श्वनाथ स्तोत्र
कोई १५ वर्ष हुए, कैराना जि० मुजफ्फरनगरके बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुए, मुझे एक पटपत्रात्मक ग्रन्थसंग्रह पर से इस स्तोत्रकी प्राप्ति हुई थी और २० जनवरी सन् १६३३को मैंने इसकी प्रतिलिपि की थी। यह स्तोत्र श्रीपद्मनन्दी मुनिका रचा हुया है और रावण-पत्तनके अधिपति अर्थात वहाँ स्थित देवालयके मूलनायक श्रीपार्श्वनाजिनेन्द्र से सम्बन्धित है: जैसाकि अन्तिम पद्यसे प्रकट है। मालूम नहीं यह 'रावणपत्तन' कहाँ स्थित है और उसमें पार्श्वनाथका यह देवालय (जैनमन्दिर) अब भी मौजद है या कि नहीं, इसकी खोज होनी चाहिये । यह भी मालूम नहीं कि ये पद्मनन्दी कोनम पद्मनन्दी मुनि है: क्योंकि 'पद्मनन्दी' नामके अनेक मुनि, प्राचार्य और भहारक होगये हैं । हाँ, पद्मनन्दी मुनिका बनाया हया एक 'जीरापानी पाश्वनाथ स्तोत्र' भी उपलब्ध है, जिसकी गत फर्वरी (१६४७) माम में मुझे कानपुर पञ्चायती बड़े मन्दिरके एक गुटकपरमे प्रामि हुई है और उसके अन्तिम (१०) पद्यमें पानन्दीने अपने गुरुका नाम 'प्रभेन्दु (प्रभाचन्द्र) प्रकट किया है। बहुत संभव है कि ये दोनों स्तोत्र एक ही 'पद्मनन्दीकी रचना हो; क्योंकि दोनोंमें शब्दों और भावोंका कितना ही माम्य पाया जाता है। यदि मा है तो यह स्तोत्र विक्रमकी ५५वीं शताब्दीका-याजसे कोई ५५० वर्ष पहलेका बना हुआ होना चाहिए: क्योंकि प्रभाचन्द्र के पह-शिष्य पद्मनन्दी प्रतिमा लेखादिपरस इमी समयके जान पड़ते हैं। इन्होंने ग्रादिनाथकी ममवसरण महित धातुप्रतिमाकी प्रतिष्ठा संवत १४५० में कराई थी, जो इम ममय मैनपुरी मन्दिर कटरा में माजद है (जैन मि० भा० भाग २, कि० १)। यह स्तोत्र बड़ा सुन्दर तथा भावपृण है और अच्छे प्रोढ़ माहित्यका लिग हप है । दृम किसी भी शास्त्र भण्डारमें भी अभी तक यह स्तोत्र देखने को नहीं मिला। एक नई ही चीज जान पड़ता है। इसीम अाज इस प्रकाशित किया जाता है।
-समादक
( वसन्ततिलका)
यच्छुद्ध-बोध-जलधि समुपाम्य भाम्वदन-त्रयं शिव-सुखाय समासमाद । लोकं विलोकित-समस्त-पदार्थ-माथै श्रीपाश्वनाथमनघं तमहं नमामि ।।१।। उत्पत्तिभून जलधि: शशि-कौस्तुभाद्या नो बान्धवा मुर-रिपोवमतिन वक्षः । यस्याः कर न कमल कमला मुदं मा पाश्वप्रभाविशद-बोध-मयी विदध्यान ।।। यनात्मनात्मनि निवेश्य मुनिःप्रकम्पमालाकिनं गवांध-मयं म्वरूपम । व्यामोह-विभ्रम-भिदालम-शक्ति-धामा पार्श्वप्रभुः [प्रभवताइव-नाप-शान्त्य ।।शा अस्त्रं विनाऽपि मदनाऽरिमपाचकार यः शील-शैल-शिखिरासन-मंस्थितान्तः । अव्यात्स दिव्य-जनता-जनितीम-धम: मच्छम-हय॑मपहम्तिन-कम-घमः ।।४।। यम्याऽत्र विनिशनी रमना: प्रमिद्धाम्तम्याऽपि शक्तिरसती भुजगेश्वरम्य । यत्संम्तवे विबुध-संस्तुत-पाद-पद्मं तं संम्वन्कथमहं न हि हाम्य-धामा ||५|| वैयात्यमत्यजिननाथ तथाऽपि किंचिच्छक्ति-च्युतोऽपि नव भक्ति-भरे: करिष्य । कि वा न शैल-शिवराच-गृहाऽग्र-भाग नि:अंगिकाभिरधिरोहति वामनोऽपि ||| यम्त गणोघ-गणनां गुगा-रत्न-गश: मम्यचिकीपति हपीक-विका(घा)नकम्य । पार्थानिधेः स पयमां कलशेः प्रमाणमभ्यम्यतु प्रतिदिनं प्रयनान्तरङ्गः ।।७।। शान्तं पुरागा-पुरुपं परमाथ-सारमानन्द-मेदरमनन्त-सुखं विगगम । चिद्रपज्झित-समम्त-जगत्प्रपञ्चं त्वा नौमि नित्यमजरं प्रमरप्रतापम ।।।।
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मंसार-पारग महेश्वर विश्वरूप विश्वप्रकाश पुरुषोत्तम सिद्ध बुद्ध । ब्रह्मन्ननन्त महिमन भगवन् जिनार्क मां रक्ष रक्ष शरणागतमागम(माऽ)क्ष ।।९।। निःकाम निःक्रिय निरामय निःकलङ्क निर्द्वन्द्व निर्मल निरंजन निविकार । निर्माह नि:कल निरावरण-स्वभाव निर्वाण-कारण दयां कुरु देव-देव ।।१०।। वन्दारु-सुन्दर-सुरेन्द्र-शिर:-किरीट-माणिक्य-रश्मि-चय-विचाराहि-युग्मे । चित्तं प्रसीदति न यस्य भवत्यधीशे नृत्वेऽपि किं स जड-धीर्द्विपदः पशुन ।।११।। सत्वोपकारिणि जगतत्रितयक-नाथे सज्ञान-शालिनि निवेदित-तत्त्व-सार्थे । ये देवदेव विमुखास्त्वयि धर्मतीर्थे स्वर्ग-श्रियं जल(ड)धियो विमुखा न किं ते ॥१२॥ लोको यथाऽवहित-मानस-वृत्तिरेष चित्ते विचिन्तयति राज्य-कलत्र-पुत्रम् । त्वत्पाद-पद्म-युगलं विमलं तथा चेतिक स्यान्न मुक्ति-रमणी-रमणोऽतिवेगात् ॥१३।। रूपं जगन्नयन-नन्दनमंतरङ्गं नीरागमाऽऽम्यमभित: प्रमदोत्तरङ्गम् । लोकोपकारि वचनं चरणं च शुद्धं किं तेन तदिह विस्मय-कृन्न देव ॥१४॥ याऽगोचरा शशधरम्य च सप्तसप्तर्निलम-दृष्टिरसमा प्रशमैक-धाम । ध्वान्ताऽऽवलिजन-मनः शयने शयाना सा शुद्ध-बोध-महसा भवता निरस्ता ।।१५।। मित्रोदये समुपयामि न कालिमानं सचक्रमत्र नयसे न वियोगि-भावं । दोषाकरत्वमुग्रीकुरुप न यच्च तत्कोऽप्यमि त्रिभुवन त्वमपूर्व-चन्द्रः ।।१६।। नि:श्री-कृतं कुवलयं नयसे न देव शोभा-च्युतं च न कला-निधिमातनोपि । नापं करोति जगतो न कदाचिदत्र तत्काऽप्यसि क्षिति-तले त्वमशीतरश्मिः ।।१७।। स्थैर्येण देवगिरणा सहशस्त्वमीश सूर्येण भूरिमहसा शिना च कान्त्या । देवोपमानमिति यत्तदयुक्तमुक्तं तुल्यः किमम्ब-धिना जल-बिन्दरंकः ||१८|| संमार-सागरमपारमशेष-जन्तृन्याऽऽशा-नदी नर्यात निभर-राग-नक्रा । तम्या यियासुचिराजिननाथ पारमालम्बतां तव नवोक्ति-तरी मनुष्यः ॥१९।। वन्दयाम्त एव गुणिनो भुवने त एव नामाऽपि ये त्रिभुवनश्वर ते म्मरन्ति । ध्यायन्ति ये पुनरशेप-दृषीक-मौख्यं मुक्त्वा भवन्तमजरं किम् वच्मि तपाम ।।२०|| नृत्यद्धिगशुग-वशात्सरलेश्च शाखा-हस्तेमृदङ्ग-निनदे: श्रुति-सौख्य-कृद्धि: ।। भव्यानयं चलदलोभवत: पु(सु)रस्थ: पृजांकृते जिन समाह्वयतीव लोकान ॥२शा वल्गज्जलाऽनल-कगल-मृगारि-चौर-मातङ्ग-मारि-भुजगाऽऽमय-बन्धनोत्थम । सर्व भयं यदि विनाशमुपैति देव युष्मत्पद-स्मरणतोऽत्र किमद्भुतं तन ।।२२।। स्वम्त्यस्तु देव भवते भव-नाशनाय स्वम्त्यम्तु देव भवते वर-शामनाय । म्वम्त्यस्तु देव भवने विजित-स्मराय म्वस्त्यन्तु देव भवते परमेश्वराय ॥२॥ तुभ्यं नमः शम-मुग्वाऽमृत-सागराय तुभ्यं नमो भुवन-नीरज-भास्कराय । तुभ्यं नमो निहित-मोह-महा-ग्रहाय तुभ्यं नमो विमल-केवल-विग्रहाय २४||
(शार्दूलविक्रीडिन) वन्दाम-त्रिदशेन्द्र-सुन्दर-शिरः कोटीर-हीर-प्रभाभास्वत्पाद-पयोजमुज्ज्वल-लमत्कैवल्य-लक्ष्मी-गृहम । श्रीमद्रावण-पत्तनाधिपममुं श्रीपार्श्वनाथं जिनम भक्त्या संस्तु[स]वाननिन्दा-चरितः श्रीपद्मनन्दी मुनिः ॥२५।। इति श्रीमद्रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्रं भूयः श्रेयसे भूयात् ।।
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संस्कृत “कर्मप्रकृति'
[सम्पादकीय ]
अनेकान्तके पाठक और प्रायः दूसरे विद्वान भी इस ग्रन्थकी आदिमें और अन्तमें मङ्गलात्मक अभी तक अधिकांशम उस प्राकृत कर्मप्रकृनि ग्रन्थसे दो पदा है और वे क्रमशः इस प्रकार हैंही परिचित रहे हैं जो नामचन्द्रकी कृतिरूपसे प्रसिद्ध
प्रतीगगाऽऽ है, १६० गाथात्मक मंग्रहग्रन्थ है और जिमकी चर्चा अनकान्तके तीमा वर्षकी किरणों (८ से १२) में,
अनन्तानन्त-धी-दृष्टि-मुख-वीर्यात्मने नमः ॥१॥ गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति-विपयको लेकर,
जयन्ति विधुताऽशेष-पापाञ्जनसमुच्चयाः । महीनों तक हाती रही है तथा जिसका विशेप ऊहा- अनन्तानन्त-धी-दृष्टि-मुग्व-वीर्या जिनेश्वराः ॥१॥ पोहक माथ आलोचनात्मक परिचय मरे 'गाम्मटसार इन दोनों पद्योंको छोडकर शेष मारा ग्रन्थ और नेमिचन्द्र' नामक निबन्ध में-'प्रकृतिसमुत्कीतन
गद्यात्मक है और श्लोक-परिमाणसे ग्रन्थकी संख्या और कर्मप्रकृति' उपशीपकके नीचे दिया गया है, जो ३०० श्रीकांसे कम नहीं है क्योकि मतपत्रात्मकप्रति अनेकान्न (वप ८) की गत किरगा ८ ९ में प्रकाशित जो अपने सामने है उसमें पहला प्रत तो खाली है, हा है। आज अपने पाठकों को एक दुसरं कर्म
शेष १३ पृष्ठोमम ५ पर प्रति पृष्ठ १५.७ पर प्रति पृष्ठ प्रकृति ग्रन्थका परिचय कराता हैं, जो संस्कृत भाषाम १६.४वें पत्रक दमरं प्रपर १३ पंक्तियाँ हैं और निवद्ध है और जिमकी उपलब्धि मुझे गत फवरी प्रत्येक पंक्तिम अक्षरोंका औमत (पड़ता) प्रायः ४८ माम (सन १९४७) में, रा० ब० ला० रूपचन्दजीकी अक्षरांका अर्थात डढ नोक जितना है । ग्रन्थकी यह कृपास कानपुरक बड़े मन्दिरक शानभण्डारका प्रति अच्छी सन्दर प्रायः शद्ध तथा पुराना लिखी हुई निरीक्षण करने हए, हुई है। इमक कता अभयचन्द्र है.-एकार आकारकी मात्राएं इसमें नय और पुराने सिद्धान्तचक्रवती है, जेमा कि ग्रन्थकी इम अन्तिम दोनो ढङस दी हैं और कागज भी पुराना देशी पंक्तिमे प्रकट है:
लगा है। यार इमपर लिपि-संवन दिया हुआ नहीं “कृतिरियमभयचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्तिनः ।" है फिर भी अपनी वतमान जीरण-शीण स्थिति और मिद्धान्तचक्रवर्ती के सिवाय इन अभयचन्दका लिखावटपरसे यह दामी वपसे कमकी लिखी हुई दमग कोई परिचय ग्रन्थपरम उपलब्ध नहीं होता। मालूम नहा हाता। इस 'कामराज' नामक किमा संभवतः य 'अभयचन्द्र' व ही जान पडत है जो ब्रह्मचारीने लिखा है। जैसाकि ग्रन्थतिक अन्तिम गोम्मटमारकं जीवकाण्डकी 'मन्दप्रवाधिका' टीकाक वाक्य "ब्रह्म श्रीक्षेमराजन लिग्विता" में प्रकट है, जाकि कता है । यदि यह ठीक है तो इस ग्रन्थका रचना- उक्त प्रन्थकत त्व-मृचक वाक्यक अनन्तर स्थित है। काल ईसाका ३वीं शताब्दी* होना चाहिये।
मङ्गलाचरणके बाद ग्रन्थका प्रारम्भ निम्न . देवी, अनेकांत वर्ष८ कि०८-६ पृ. ३२२ पर 'मन्द
वाक्यम होता है-- पबाधिका' के समय मम्बंधी विचार, 'गोम्मटमार और
"प्रान्मनः प्रदेशप बद्धं कर्म द्रव्यकर्म भावकर्म नानेमिचद्र' शीर्षक लग्बके अन्तर्गत ।
कर्म चेति त्रिविधम "
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४४२
अनेकान्त
[वर्ष ८
___ इसमें बतलाया है कि 'आत्मप्रदेशोंमें बँधा हुआ परेषां मनसि वर्तमानमर्थं यज्जानाति तन्मनः जो कर्म है वह द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकमे ऐसे पर्ययज्ञानम्, तदावृणोतीति मनःपर्ययज्ञानावरणीयम् । तीन प्रकारका है।' इसके पश्चात द्रव्यकर्मका वर्णन करते हुए उसे प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश
इन्द्रियागि प्रकाशं मनश्चाऽनपेक्ष्य त्रिकालभेदसे चार प्रकारका बतलाया है और फिर प्रकृतिका गोचर-लोकाऽलोक - सकलपदार्थानां युगपदवभासक स्वरूप ज्ञानप्रच्छादनादिस्वभाव बतलाकर उमके केवलज्ञानम्, तदावृगोतीति केवलज्ञानावरणीयम् ।" तीन भेद किये हैं-मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति और
उत्तर प्रकृतियोंके यथाक्रम १५८ नामों और उनके उत्तरोत्तरप्रकृति । यथा:--
स्वरूपका निर्देश करने के बाद, एवं उत्तरप्रकृतिबन्धः "तत्र प्रकृति-स्थित्यनभाग-प्रदेश-भेदेन द्रव्यकर्म चत्- कथितः' इम वाक्यक माथ उत्तरप्रकृतिबन्धके कथन
को गमान करकं. उत्तरोनरप्रतिबन्धक सम्बन्धमें विधम् । तत्र ज्ञानप्रच्छादनादिम्वभाव(वा) प्रकृतिः ।
लिखा है:सा मूलप्रकृतिरुत्तरप्रकृतिरुत्तरात्तरप्रकृतिरिति त्रिधा ।" "उत्तरोत्तर-प्रकृति-बन्धों वाग्गोचरो न भवति ।" ___ इसके अनन्तर मृलप निको ज्ञानावरणीय, अर्थात-उत्तरोत्तरप्रकृतियोंका बन्ध वचनदर्शनावरणीय, वेदनीय, माहनीय, आयुष्य, नाम, गोचर नहीं है। गोत्र और अन्तगयरूप आठ प्रकारको वतला- परन्तु उत्तरोत्तर प्रकृतियोंका कथन मर्वथा वचनक कर प्रत्यकका अलग-अलग म्वरूप निर्दिष्ट किया है अगोचर तो नहीं होमकना; क्योकि आगमम मति
और तदनन्तर उत्तरप्रकृतयोऽप्रचत्वारिंशदुत्तरशतम' ज्ञानक ३३६ भेदोंका वणन, उनकी दस ज्ञानाइस वाक्यक द्वारा उनरप्रकृतियांकी संख्या १५८ का वरणकी ३३६ उत्तरोत्तम्पनियाँ तो कही ही जामकती निर्देश करके "तद्यथा" पाक्यक मात्र प्रत्यक मृल- हैं। इसी तरह श्रतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:प्रकृति की उत्तरप्रकृतियांका उनकी संख्या-सूचनाके पर्यज्ञानके भी कितने ही भदाका अलग अलग साथ नाम-निर्देश किया है और साथ ही एक-एक वणन है, उनकी दष्ट्रिय भा ज्ञानावरणकी कितनी ही वाक्य-द्वाग उनका स्वरूप भी दे दिया है । यहाँ उत्तरोत्तर प्रकृतियांका निर्देश किया जामकता है । तब नमूनक तौरपर ज्ञानावरणीयकर्मकी पांच उत्तर कृ- उत्तरोनर प्रकृनियाँको वचनकं अगोचर कहनेका नियोंक स्वरूप-निर्देशक वाक्याको नीच दिया। आशय यहाँ इतना ही लेना चाहिये कि संपूर्ण जाता है:
उत्तरोनरप्रतियोंकी मंग्याका निर्देश तथा उनके "तत्र पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च ज्ञानं मतिज्ञानम,
नामादिकका पूर्ण कथन नहीं किया जासकना-- उनके
मर्वथा अनिर्वचनीय हानका प्राशय नहीं लेना चाहिये। नदागोतीति मतिज्ञानावरणीयम् ।
द्रव्यकर्मक प्रकृति-भंदका वर्णन करनेके अनन्तर मतिज्ञान-गृहीताऽर्थादन्यस्याऽर्थस्य ज्ञानं श्रुत- उसके शंप स्थिति अनुभाग और प्रदेशबन्ध नामक
भेदोंक स्वरूपादिका क्रमश: चगान किया गया है, ज्ञानम्, तदावृगोतीति श्रुतज्ञानावरणीयम ।
जिमका एक नमूना स्थितिबन्धक स्वरूप-निर्देशवर्ग-गन्ध-रस-म्पर्श - युक्त-मामान्य - पुद्गलद्रव्यं विषयका इस प्रकार है-- तत्सम्बन्धि-संसारिजीवद्रव्यागि च द्रव्य-क्षेत्र-काल- "ज्ञानावरीयादि-प्रकृतीनां ज्ञानप्रच्छादनादिभव-भावानधिकृत्य यत्प्रत्यक्षं जानातीत्यवधिज्ञानम्, स्वस्वभावाऽपरित्यागेनाऽवस्थानं स्थितिः तत्कालश्चीतदावृणोतीन्यवधिज्ञानावरगगीयम् ।
पचारात् ।"
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रद्दीम प्राप्त हस्तलिरिक्त जैन-अजैन ग्रन्थ
अर्सा हुश्रा यहां सरसावामें श्रीपूज्यों (श्वेताम्बर यतियां) की, जोकि प्रायः सस्त्रीक रहते थे और वैद्यक-ज्योतिष तथा मन्त्र तन्त्रादि अनुष्ठानों द्वारा अपनी आजीविका चलाते थे, एक गद्दी थी। इस गद्दीके अन्तिम अधिकारी शङ्करलाल रिखके मरनेपर उसके चेले आदि उत्तराधिकारियों में परस्पर झगड़ा हुआ, मुकदमेबाजी चली और जंगम सम्पत्तिमेसे जो माल जिसके हाथ लगा उसने उसको इधर-उधर खुर्द-बुर्द किया । चुनाँचे एक उत्तराधिकारीके द्वारा कुछ हस्तलिखित
और मुद्रित ग्रन्थ बांगेम जैम में भरकर एक अजैन बोहरे बन्शीलालके यहाँ रखे गये। वर्षों तक ये ग्रन्थ बोरामें ही बन्द पड़े रहे और अनेक प्रकारके मर्दा-गर्मी तथा चूहो अादिके आधात सहते रहे । कई बार मैने इन ग्रन्थोंको देखना
और यह मालूम करना चाहा कि यदि इनमें कुछ ग्रन्थ अपने उपयोगके हों तो उन्हें खरीद लिया जाय; परन्तु वे देखने तकको नहीं मिल सके । कुछ अन्य भयके साथ यह भय भी दिग्वाने वालोको रहा है कि इन ग्रन्थोंम पृत्योंकी मंत्र-तंत्रादिविषयक न मालूम कानसी निभ छुपी पड़ी है, वह कहीं दूसरोक हाथ न लग जाय । अाखिर ये ग्रन्थोंके बारे किसी तरह उक्त बाहरे कुटुम्बके ही हारहे, जो संस्कृत प्राकृत तो क्या, हिन्दीका भी भले प्रकार जानकार नहीं था। उमक व्यक्तियोंकी और मे वैद्यकादि विषयकके मुद्रित ग्रन्थ तो कुछ बेचे गये पार कुछ वैसे भी किमी किमीको दिये गये सुने गये; परन्तु हस्तलिखित ग्रन्याको प्रायः गुम ही रक्खा गया और उनके साथ उस कृपण-जैसा व्यवहार किया गया जो सम्पत्तिका ननी स्वयं उपभोग करता है और न दुसराको करने ही देता है। उनकी को सुव्यवस्था भी उनमे नहीं बन सकी ग्रार व जैम नै गड्डा में बँधे हुए पड़े रहे तथा जीण-शीण होते रहे।
देवयोगस उक्त बाहरे कुटुम्बका दरिद्रताने आधेग बार फिर कुछ अर्मेके बाद कुटुम्बके प्रायः सभी युवक जन-.. हर कर्ट नो-जवान भाई-थोड़े ही समयमें आगे-पीछे चल बसे-कालकालत होगये !! ऐसी स्थितिम ग्रन्याक अवशिष्ट बोरे अन्तको रहीम त्रिके, जिन्हें एक जैन परिवारने ख़रीदा। यह परिवार भी मस्कृत-प्राकत मापाने अनमिज पार हिन्दीकसी यथेष्ट ज्ञानस अपरिचित था, इसीम इस परिवार के नवयुवक हकीम नानकचन्दने होममें निकले हुए कछ ग्रन्या को कई वर्ष हुए वीरसेवामन्दिरके एक विद्वान् पं० ताराचन्द जी जैन न्यायतीथको यह जानने के लिये दिखलाया था कि उनका नामादिक क्या है। उम ममय उनको यह प्रेरणा की गई थी कि जो वैद्यकादिक ग्रन्थ अापक मतलबक हा उन्हें तो श्राप रखलें, शेष ग्रन्थों को श्रीजिनमन्दिरजीमं विराजमान कर देखें अथवा वीरसेवामन्दिरको अर्पित कर देवः परन्तु उसपर उन्हों ने कल ध्यान नहीं दिया ! दुर्देवसे उक्त हकीम साहबका कुछ अर्से के बाद अचानक दहावमान होगया ! बादको उनके नाना-चाचा गुलशनरायजीने, जो अत्तार पंसारीकी दुकान करते है, कुछ ग्रन्या को ती फाडफादकर अपनी दुकान पर पड़िया बांधनेक काममं ले लिया पार कुलको रद्दीकी महँगाईके जमानमें हलवाइयाँ तथा पनवाटिया आदि को बन दिया, जिसका अपनको उस वक्त कोई पता नहीं चला। और इस तरह अनभिजा पानी के हाथ पर कितने ही ग्रन्थों की कमी दुर्दशा हुई ! इस विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है।
जब हकीम नानकचंदके देहावसानको कुछ महीने श्रीन गये तब इधरम गत वर्ष ला० गुलशनगयजीको उन ग्रयों को दिखलाने श्रादिकी प्रेरणा की गई जो हकीमजीको रहीम प्राप्त हुए थे। इसपर उन्हा ने ग्रंथा की अवशिण माग रहीको रद्दीके ही रूपमें वीरसेवामंदिरको दे देनेकी स्वीकारता दी और बदलेग दृमरी दी ले लेनेकी उदारता दिग्वलाई। इस कृपाके लिये श्राप धन्यवादक पात्र है।
___एक दिन वीरसेवामंदिरके सभी विद्वानों ने मिलकर इस रहीकी जांच-पड़ताल की, जी ग्रंथ पूर्ण पाये गये उन्हें अलग तथा अपूर्णको अलग रखा गया और दोनों को अलग-अलग बस्तों में बाधा गया। माथ ही वगिद्धत पत्रीका
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४५०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
एक गठ्ठा अलग किया गया और उसे फिर किमी समय विशेष जाचके लिये रख छोड़ा, जिमसे अपूर्ण ग्रंथों के पूरा होने आदिमें कछ महायता मिल सके। इन ग्रंथों का परिचय मैं उसी समय अनेकान्तमें निकालना चाहता था परन्तु परिचयको तयारीका किमीको भी अवसर नहीं मिल सका । हाल में पं० दरबारीलालजी कोठियाने कई दिन परिश्रम करके ग्रंथों परसे उनका एक संक्षिप्त परिचय तय्यार किया है, जिसे नीचे प्रकाशित किया जाता है । इस परिचयपरसे प्रकट है कि छोटे बड़े सभी ग्रंथों की प्रायः १०० प्रतियां पूर्ण और १७ ग्रंथतियाँ अपूर्ण हैं | पूर्ण ग्रंथों में संस्कृतक ५४, प्राकृतक ६, हिन्दीके ३५, और गुजगतीके दो ग्रंथ है । संस्कृत-प्राकृत ग्रंथों मेंस किमी-किमीके साथ हिन्दी अादिक भी लगा हुआ है। हिन्दी ग्रंथामें पञ्जाबी, राजस्थानी जैसी बोलीक ग्रंथ भी शामिल हैं । अपूर्ण ग्रंथों में ५.६ प्राकृतक, ६ संस्कृतके पार ३ हिन्दीके हैं। जैन ग्रंथों में अधिकांश ग्रंथ श्वताम्बर तथा स्थानकवासी मम्प्रदायक है, दिगम्बर ग्रंथ १२-१३ ही जान पड़ते हैं। वैद्यक-ज्योतिष जैसे विषयों के अधिकांश ग्रंथ अजैन मालम होते हैं। जिन ग्रंथा का कता तथा रचना संवत ग्रंथप्रतियों परसे उपलब्ध होसका है उसे ग्रंथपरिचय दे दिया गया है, शेषको ग्रंथ प्रतिपरसे अनुपलब्ध समझना चाहिये । अधिकांश प्रतियों अच्छी मुन्दर-साफ लिखी हुई है और कितनी ही प्रतिया जीर्ण-शीर्ण भी होरही हैं। इन ग्रंथों में जो ग्रंथ अभी तक प्रकाशित न हा हा सूचना मिलनेपर उसके प्रकाशनकी योजना की जा सकती है। प्रार जो पुगनी शुद्ध प्रतिया है व मम्पादनादिक अवमग पर मिलानके काममं ग्रामकती है।
-सम्पादका
संक्षिप्त ग्रन्थ परिचय
पृणं ग्रन्य
९ जम्वचरित्र (प्राकृत)---पत्र २८ । श्वेताम्बराय १ माधुगुगामाला (हिन्दी छन्दोबद्ध) हरजम
१. विपाकसूत्र (प्राकृत)---श्वेताम्बरीय, प्रतिगयकृत, रचना सं. १८६५ । विपय, स्थानकवासी लिपि मं० १७५.७, पत्र ६, विपय धामिक। सम्प्रदायानुसार माधुकं, २७ मुलगणोंका वर्णन ।
११ भक्तामरम्तात्र-टीका (मुग्बबाधिका) अमर२ कवली-प्रश्न (हिन्दी गदाात्मकः)-प्रतिलिपि प्रभरि कृत, मंस्कृत, पत्र १९।। मं० १८७१ है, विषय, प्रशास्त्र ।
५२ प्रश्नोत्तरीपासकाचार-आचार्य मकलकीति जम्बद्वीपप्रज्ञनियाकन)-निलिपिमं०१७५० कृत, संस्कृत (पद्यमय), प्रतिलिपि मं. १७५१. विषय ४ पडावश्यकमूत्र-शलावबांध (प्राकृत-हिन्दी)
श्रावकधर्म। वाचकाचाय रत्नमांनांगा शिघ्य श्रामेबसन्दगपाध्याय ।
१३ दशवैकालिकमत्र ( सहित )- भापा कृत । रचना मं० १५४३, विषय, धार्मिक ।
प्राकृत, विषय धामिक, प्रतिलिपिकाल म० १८१९, ५ पाश्वनाथचरित (संस्कृत पद्यमय)-भावदव (श्वे.)कृत । मात्र आदिका और अन्तका प्रशम्यान्मक
१४ कंवलीगग (सं. पद्यात्मक)--श्रीमद्रकृत, पत्र नहीं है । पत्र मंख्या १५५ ।
विषय प्रश्न पत्र १०. अजैन । ६ ऋपिमण्डलम्तोत्र (मं. पदामय...विपय, १५ प्रियमलकतीर्थ (सिहलसुतचौपई)-समयमन्त्रशास्त्र । पत्र।
सुन्दरकृत हिन्दी, (पञ्जाबी) रचनाकाल मं० १६७२, ७ हरिवंशपुराण (हिन्दी)-- शालवाहनकृत। विपय दानादि, पत्र ९, लिपिकाल संवत १६९०। जिनमनाचा यकृत संस्कृत हरिवंशपुराणाका हिन्दी १६ योगशास्त्र-हेमचन्द्राचार्यकृत, संस्कृत पद्यानुवाद, रचना म. १६९५ । पत्र १८० ।
(पद्यात्मक) प्रतिलिपि सं १६४३, पत्र । ८ उपामगदशा (श्वेल सप्रमाङ्ग)-प्राकृन, पत्र १७ सामुद्रिक शास्त्र--संस्कृत पद्यमय टिप्पणी ६० । विषय, श्रावक धर्म ।
प्रतिलिपि सं० १८६४, पत्र १७ ।
पत्र २८ ।
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किरण १२ ]
रहीम प्राप्त हस्तलिखित जैन-अजैन ग्रन्थ
४५१
१८ धर्मपरीक्षा-प्रा० अमितगतिकृत, संस्कृत ३५ नवतत्त्व (टिप्पणी महित)-प्राकृत गाथापद्यमय, रचनाकाल मं० १०७०, पत्र ४८।
बद्ध, विषय धम, पत्र ३। १९ उपासकाध्ययन सूत्र (सप्तभांग)-प्राकृत ३६ चडसरणा-भाषा प्राकृत और हिन्दी विषय श्रावकधर्म, पत्र ३३, स्थानकवासीसम्प्रदायका। विषय धर्म, (स्थानकवासी सम्प्रदाय) पत्र ११ ।। __ २० शालिभद्रधन्नानी चउत्पइ-कर्ता सिंहसृरि- ३७ कल्याणमन्दिर (भाषा)-कर्ता पण्डित शिष्य मतिसार, गुजराती, रचना सं० १६७८, प्रति- बनारसीदास, हिन्दी पद्यानुवाद, विषय स्तोत्र, पत्र३ लिपि सं० १७९९, पत्र २० ।
- चतुर्विशतिमी समाचारी-विषय धार्मिक, २१ श्रीमीलविषइपुरन्दर - कथा- भावदेवसरि- (दृष्टान्तसंग्रह), पत्र १४ । शिष्य मालदेवकृत, हिन्दी छन्दोबद्ध, पत्र।
३९ जाठादि मन्त्र-यन्त्र (मम्कृत)-विषय मन्त्र२२ श्रीहंसगजबच्छराज - कथा (पंचनमस्कार. शास्त्र, पत्र३। मंत्र माहात्म्य कथा)-श्रीसर्वसुन्दरमुनिकृत, संस्कृत ४० पासाकेबमी (हिन्दी) विषय प्रश्नशास्त्र-पत्र ३ (पद्यमय), रचना सं० १५१० प्रतिलिपि सं० १७२९, ४१ संधयणमत्र (प्राकृत) विपय धर्म, पत्र ३०, पत्र २०।
लिपि मं० १८६३। २३ बाराखडि-भाषा हिन्दी, पत्र।
४२ नवकार म्तोत्र (हिन्दी)-श्रीवल्लभसूरिकृत, २४ नेमजीका न्याहला-हिन्दी पदाबन्ध, विषय पत्र। धम । पत्र ।
१३ रोहिणीकथा (संस्कृत )--- दामोदर-शिष्य ५ श्रीजिनचैत्यस्तव- चम्पाराम दीवान-कृत, .
d, नरेन्द्र देवमुरिकृत, प्रतिलिपि मं० १८६६, पत्र । हिन्दी पद्यमय स्तोत्र, रचना सं०१८४२, पत्र २।।
४४ पिङ्गलशास्त्र(प्राकृत पिङ्गलानुमाग हिन्दी पद्या २६ मिथ्यात्व-विचार-भाषा संस्कृत-प्राकृत
नुवाद)-कर्ता कृपागम-शिष्य कुमर भवानीदाम, मिश्रित, लिपि सं. १८७८, पत्र २
रचना मं०१७७६, विपय छन्दशास्त्र, पत्र । २७ जुगबाइस्तवन-जिनचन्द्रमृरि कृत, हिन्दी,
४५ माघवानलकथा ( मंस्कृत ) पत्र ४, अतिपत्र ४।
जीगण प्रति । २८ वगाजागदिम्तवन-भापा हिन्दी, पत्र।
१६ समया विजयातन्त्र (संस्कृत) --पावती-परमे२९ बाराडि (हिन्दी) --भाषा हिन्दी, पत्र ।
घर-सम्बाद-विपयक, मन्त्र-तन्त्र-ग्रन्थ, पत्र, लिपि ३० सरसुन्दरीकथा ( दशमीव्रतकथा)-आदिमुनिकृत, हिन्दी पद्यमय, रचना मं० १७१४, प्रति
. म. १८६९ ।
४७ मुहूत्तमञ्जरी (संस्कृत)-पं० जदुनन्दनकृत, लिपि सं० १८६४, पत्र ३ ।
विषय ज्योतिष, लिपि मं. १८६६ । ३१ पड्दशन (दशनी मंक्षेपथी विचार)-भाषा
४८ बत्तीसजानिवणन-- नन्दलालकृन, हिन्दी गुजराती (गद्यमय), विषय दशन, पत्र । ३२ नाममाला (काष )-धनञ्जयकृत, संस्कृत
कवित्तबन्ध, विषय समाजशास्त्र, पत्र। (पद्यबन्ध), प्रतिलिपि मं० १८५५, पत्र।
४५ गजनीतिशास्त्र -चाणक्यकृन (?), मंस्कृत ३३ राहिणीकथा (शीलोपाख्यान)-दामोदर- पद्यबन्ध, पत्र १९, लिपि मं० १५०१ । शिष्य नरेन्द्र देवरि-कृन, संस्कृत (पद्यबन्ध) पत्र ९। ५० सिंहासनद्वात्रिशत्कथा (गापद्यात्मकप्रबंध)
३४ जोगचिन्तामांगा (हिन्दी-अर्थ-सहित)-श्री भाषा संस्कृत, विषय विनोद । लिपि म० १८५७ । मन्नागपुरीय-तपागच्छीय-भट्टारक श्रीहर्पकीर्ति-कृत, पत्र १२ । सस्कृत (पद्यबन्ध), विषय वैद्यक, लिपि सं० १८५२, ५१ उद्धारकोश- का दक्षिणामृति, भाषा संस्कृत पत्र ७४।
विषय मन्त्रशास्त्र, पत्र १२, लिपि म० १८७० ।
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४५२
अनेकान्त
५२. बत्तीसजातिवर्णन कवित्त (द्वितीय प्रति ) - नन्दलालकृत, हिन्दी ( कवित्तबन्ध), विषय समाजशास्त्र, पत्र ३, प्रतिलिपि मं० १८२८ ।
५३ मेघदूत (संस्कृत) - कवि कालिदासकृत, विषय काव्य, प्रतिलिपि सं० १६९५, पत्र ११ ।
५४ बालचिकित्सा (संस्कृत) - धन्वन्तरिकृत ( ? ), विषय वैद्यक, पत्र ९, प्रतिलिपि सं० १९७९ ।
५५ सूत्रपरीक्षा (हिन्दी) - विषय वैद्यक, पत्र २ । ५६ रसक्रिया (हिन्दी पद्यात्मक) – विषय वैद्यक, पत्र ९, लिपि सं० १९७२। इसकी एक नवपत्रात्मक प्रति अपूर्ण भी है ।
५७ वैद्यमहोत्सव वैद्य केशवदास - पुत्र नयनसुख कृत, हिन्दी पद्यबन्ध, रचना सं० १६४९, विषय वैद्यक, पत्र १८ । यह प्रति है तो पूर्ण, पर अशुद्ध ज्यादा है। इसकी दो प्रतियाँ अपूर्ण भी हैं जिनमें से एक १२ और दूसरी २८ पत्र वाली है । २८ पत्र वाली प्रतिम सिर्फ व पत्र ही त्रुटित है और वह काफी शुद्ध प्रति है ।
५८ सन्निपातकलिका (संस्कृत भाषा टीकामहित) - विषय वैद्यक, पत्र ८ |
४९ अजीणमञ्जरी ( संस्कृत )---काशीनाथकृत, विषय वैद्यक, पत्र ६ ।
६० बालचिकित्सा (संस्कृत हिन्दी अर्थ ) विषय वैद्यक, पत्र १ (पूर्ण) ।
६४ नेत्ररोगनिदान (मेघग्रन्थपर से हिन्दी में ) - विषय वैद्यक, पत्र ६ |
६२ द्वादशवर्गीचक्रम् (संस्कृत) विषय ज्यो तिप, पत्र २ ।
६३ कालकज्ञान (हिन्दी) - विपय वैद्यक, पत्र ५, प्रतिलिपि सं० १८७९ ।
६४ बालचिकित्सा ( संस्कृत ) विषय वैद्यक,
[ वर्ष ८
पद्यानुवाद) - कर्ता केशव पुत्र कवितरङ्ग अपरनाम सीताराम | रचना सं० १७६०, पत्र ६२, प्रतिलिपि मं० १८७६ | इसका नाम 'रसक्रिया' भी पाया जाता है।
पत्र ५ ।
६५ बालचिकित्सा (छन्दोबद्ध) - विपय वैद्यक, पत्र ३ (६८ तक) ।
ये दोनों संस्कृत हिन्दी के प्रन्थ संयुक्त हैं। ६६ रसक्रिया (फारसीके वैद्यक ग्रन्थका हिन्दी
६७ ग्रह भावप्रकाश ('भवनदीपक' ज्योतिष शास्त्र) - कर्ता पद्मप्रभसूरि, संस्कृत, विषय ज्योतिष,
पत्र १० ।
६८ सांवत्सरी (संस्कृत) — जैन जोतिष विषयक | ६९ केवलीप्रश्न (कंजपनीकेवलीप्रभ ) - भाषा हिन्दी, विषय प्रशास्त्र, पत्र ९ ।
७० जातक पद्धति ( सटीक ) - कर्ता श्री केशव - दैवज्ञ, भाषा संस्कृत, विषय ज्योतिष, पत्र २९ ।
७१ भमीपुराण ज्योतिष - हिन्दी ज्योतिषशास्त्र । ७२ ग्रहनिधि - हिन्दी, ज्योतिषका यन्त्रशास्त्र | ७३ योगिनीदिशा - ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत | ७४ जन्मशास्त्रप्रदीपक- ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत ! ७५ पासाकंवली - हिन्दी प्रश्न शास्त्र ।
७६ ताजिकभूपण - ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत, श्री ढुंढिराज शिष्य (आत्मज) गगणेशगणक कृत, पत्र २६ ७७ ताजिकसार ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत, श्रीहरिभद्रकृत | पत्र १४ ।
ढूंढिराजशिष्य (आत्मज) गणेशगणककृत | पत्र १९ । ७८ ताजिकभूपण - ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत, श्री ७९ लघुजातक टीका (संस्कृत) - महोत्पलकृत, ज्योतिपग्रन्थ, पत्र २४ ।
प्रश्नप्रदीपक (संस्कृत) काशीनाथकृत, ज्योतिपन्थ । दो प्रति, पत्र ११, १२ ।
ग्रहशान्ति--संस्कृत, ज्योतिष | पत्र १ । = योगिनीदिशा -- संस्कृत, ज्योतिष | पत्र = | = विंशोत्तरीदशा व अोत्तरी दशा - ज्योतिष, संस्कृत |
८५ भावप्रकाशान्तर्गत देहवर्ग-हिन्दी पद्यबन्ध पत्र १६ ।
८६ गुरु आचार और संवत्सर – ज्योतिष, हिन्दी कावली - संस्कृत, ज्योतिषशास्त्र ।
केरलशास्त्र - ( वारकष्टावली आदि) ज्योतिप शास्त्र, हिन्दी-संस्कृत-मिश्रित ।
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किरण १२ ]
८९ विष्णुवल्लभयोग – ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत । ९० मुहूर्तमुक्तावली - ज्योतिषशास्त्र, संस्कृत, पत्र ४ ९१ रमलशकुनावली - रमलशास्त्र, हिन्दी, पत्र ३ ९२ जातकसार ज्योतिष, संस्कृत, पत्र २० । ९३ प्रश्नसार - ज्योतिष, संस्कृत, पत्र ३ | ९४ कष्टावली - ज्योतिष, संस्कृत, पत्र ३ । ९५ वर्षदशा संवत्सरी - ज्योतिष, संस्कृत, पत्र ५ ९६ कर्मविपाक - ज्योतिष, संस्कृत, हिन्दी | ९७ भवनदीपक (संस्कृत ) - पद्मप्रभसूरि-कृत ज्योतिषशास्त्र ।
प्रश्नवैव संस्कृत ) - ब्रह्मदासात्मज नारायणकृत, ज्योतिपशास्त्र, पत्र ३६ ।
९९ ज्ञानत्तमी (प्राकृत) - उद्धारकर्ता ऋषि उत्तम, पत्र ५, प्रतिलिपि सं० १७२३ ।
१०० नारचन्द्रहोराचक्र (संस्कृत) - जैन ज्योतिष शास्त्र (सिर्फ पहला पत्र त्रुटित है ) |
दिगम्बर जैन आगम
अपूर्ण ग्रन्थ
१ ज्ञातासूत्र -- ( ज्ञातृधर्मकथाङ्गसूत्र ) प्राकृत |
२ अन्तगडांगसूत्र - प्राकृत |
३ रायपणीसूत्र - प्राकृत |
४ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र - प्राकृत ।
५ सर्वार्थसिद्धि ( उत्तराध्ययनटीका ) *कमलसंयमोपाध्याय विरचित संस्कृत |
A
आजकल जो ग्रन्थ जैन आगम के नाम से प्रसिद्ध हैं वे श्वेताम्बर मतानुयायी हैं। उनकी प्रामाणिकता - के विषय में दिगम्बर सम्प्रदाय तनिक भी आस्था नहीं
पंचम अध्ययनके टिप्पण में इन्हें 'खरतरगच्छाधिराज श्रीजिनभद्रसूरि-शिष्य' लिखा है ( पत्र ७३ ) और तीसरे तथा चाथमें मूलमें ही ऐसा सूचित किया है ( पत्र ६७) ।
४५३
६ भविष्यदत्त चरित्र (संस्कृत) - विबुध श्रीधर (दिगम्बर) - विरचित, आदि अन्त और मध्यमें कुछ पत्र त्रुटित हैं। जीर्ण शीर्ण ।
७ कल्पसूत्र ( प्राकृत ) - २ से १२ तकके पत्र त्रुटित और शेष १३२ तकके पत्र मौजूद हैं। प्रति अत्यन्त जीर्ण है । संवत् १७६७ की प्रतिलिपिसे यह सवत् १७ प्रतिलिपि की गई है।
८ प्रवचनसरोद्धार सवृत्ति - संस्कृत ।
९ जातक (संस्कृत) – ज्योतिष-विषयक ।
१० अश्वचिकित्सा संस्कृत ) - नकुलकृत । ११ सारस्वत व्याकरण - (विसर्गसन्ध्यन्त) २, ३ और १३ से आगे के सत्र नहीं हैं ।
१२ पञ्चसायक सूत्र - कविशेषराज ज्योतिश्वराचार्य विरचित । मूल संस्कृत हिन्दी अर्थ सहित | विषय कथा । पत्र २४, ६ और १०वाँ त्रुटित ।
दिगम्बर जैन ग्रागम
( लेखक - आचार्य बलदेव उपाध्याय, एम. ए. साहित्याचार्य हिन्दू विश्वविद्यालय )
१३ कुतूहलकरण ब्रह्मसिद्धान्ततुल्य - भास्करकृत, संस्कृत, विपय ज्योतिष, पत्र १० ।
१४ प्रद्युम्नचरित (संस्कृत ) – सोमकीर्ति· कृत, (दिगम्बर ) पत्र १३३, बीचमें १११ से ११७ तकके ७ पत्र त्रुटित हैं।
इसके सिवाय वैद्यमहोत्सवादि तीन अपूर्ण ग्रन्थप्रतियोंकी सूचना पूर्ण ग्रन्थ प्रतियोंके साथ की जा चुकी है।
रखता । इसके अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन पाटलीपुत्रसङ्घके अध्यक्ष भद्रबाहु ही अन्तिम श्रुतकंवली थे जिन्हें समस्त आगमोंका यथार्थ ज्ञान था । उनके अनन्तर पूर्व और अङ्गका ज्ञान धीरे धीरे विलुप्त होगया। ऐसी विषम स्थिति उपस्थित होगई कि जनतामें जैन सिद्धान्तोंके प्रचारकी बात तो दूर रही, प्राचीन मान्य ग्रन्थोंका विशेषज्ञ ढूंढ़नेपर भी
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
मिलना कठिन होगया।
थे। गुणभद्रने उन्हें तमाम वादियोंको त्रस्त करने प्राचार्य धरसेनके हम अत्यन्त कृतज्ञ रहेंगे वाला और उनके शरीरको ज्ञान और चारित्र्यकी जिन्होंने पूर्व ग्रन्थांके अवशिष्ट भागोंको एकत्र कर एक सामग्रीसे बना हश्रा बतलाया है। जिनसेन द्वितीयने नवीन ग्रन्थकी धारा प्रवर्तित की जो मध्ययुगम टीका उन्हें कविचक्रवर्ती कहा है। इन्होंने तीन ग्रन्थोंकी
और भाष्यांसे संलित होकर वृद्धिंगत होती गयी। रचना की थी, जिनमेंके दो ग्रन्थ आज उपलब्ध है। इन्हीं ग्रन्थोंका वर्णन यहाँ क्रमसे किया जाता है। इनमें प्रथम यही धवला टीका है तथा दूसरी
१ षटखण्डागम-आचार्य धरसेनका निवास जयधवला है। गिरनार पर्वतपर था । इनका स्थितिकाल वीनिर्वाण २ धवला टीका-इम ग्रन्थमें मल अगमोंके संवत् ६८३(?) है । इनके दो प्रधान शिप्य हुये आरम्भिक पाँच खण्डोंकी ही विस्तृत तथा विशालजिनका नाम पुष्पदन्त और भनलि था। पूर्वकि काय व्याख्या है । इस ग्रन्थकी समाप्ति शक संवत अन्तगत “महाकर्मप्रकृति" नामक एक पाहुड (प्राभृत) ७३८ (८१६ ई०) में हुई थी। उस समय कर्णाटकक था जिसमें कति, वेदना, आदि २४ अधिकार अथवा राप्रकूट वंशी नरेश जगत्तुङ्गादेव (गोविन्द तृतीय) ने खण्ड थे । पुष्पदन्त और भूतबालन आचार्य धरसेन राज्यांसहामन छोड़ दिया था और उनके पुत्र क निकट इस पाहडका अनशीलन किया तथा अमाघवप राज्यसिंहासनपर विराजमान थे। इस
आरम्भके ६ अधिकारों या खण्डोंपर सूत्ररूपमें प्रकार धवलाकी रचना नवम शताब्दीकं प्रारम्भ रचना की। ६ खण्डोंमें विभक्त होनेके कारण ही इस काल में हुई । टीकाकं धक्ला कहे जानेका कारण यह ग्रन्थका नाम · पटवण्डागम" है । इन ६हां खण्डों- जान पड़ना है कि जिस राप्रकूट नरश अमाधवपक के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं:
समयमें यह पुस्तक लिखी गई थी उनकी उपाधि (१) जीवम्थान (२) क्षुद्रकबन्ध (३) बन्ध- 'अतिशय धवला' थी । सम्भवत: इमी उपाधिक स्वामित्व (४) वंदना (५) वर्गणा और (६) महाबन्ध। कारण इम टीकाका नाम धवला रक्या गया है। इस आगमकी रचनाका काल विक्रमकी पहली धवलाका अथ है विशुद्ध । अतः अतिशय विशुद्ध नथा शताब्दी है। ये आगम ग्रन्थ कर्म तथा जीव मिद्धान्त- मृलग्रन्थक विशुद्ध प्रतिपादनक कारण इस टीकाका के विपय मामिक विवेचना करते हैं। इनके ऊपर ऐसा नामकरण होना उचित ही है। अनेक टाकायं इनके मारगभित अर्थको प्रकट करने ३ महाधवला पटखण्डागमक अन्तिम खण्ड लिये प्राचीन कालमें ही लिखी गई थीं । परन्तु मवसे का नाम है महाबन्ध । इसकी रचना भूतबलि विस्तृत, प्रामाणिक तथा उपयोगी टीका जी उपलब्ध स्वामीन की थी। वीरसेन स्वामीने लिखा है कि हई है उसका नाम है 'धवला' । विस्तार तथा स्वयं मूललेखक भूतबलिने महाबन्धको इतने विस्तार प्रामाण्यके कारण यह ग्रन्थ नहीं विराट् ग्रन्थराज के साथ लिखा है कि इसके ऊपर टीका लिखनकी कहा जा सकता है । इसके रचयिता हैं आचाय कोई आवश्यकता ही नहीं थी। वीरसेनम्वामी, जो अपने समयमें जैन आगमके सामान्यतया यह ममझा जाता है कि धवला बहुत बड़े विशेषज्ञ थे। उन्होंने अपनको सिद्धान्त. तथा जयधवलाके समान महाधवला भी एक टीकाछन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रोंमें १ अठतीसम्हि सतमए, विक्कमरायं किए सु-सगणामे । निपुण कहा है । जिनसेनने उन्हें वादिमुख्य, वाम सुतरसीए. भाणुविलग्गे धवलपक्ग्ये ॥ लोकवित्, वाग्मी और कविकं अतिरिक्त श्रुतकेवली ___इस धवला टीकाका सम्पादन अमगवतीमे डाक्टर तुल्य भी बतलाया है। सिद्धान्त-ममद्रकं जलमें धोई। हीरालाल जैनने किया है। इसके तीन खण्ड आठ हुई अपनी शुद्ध बुद्धिस वे प्रत्येकबुद्धीस स्पर्धा करते जिल्दोंमें प्रकाशित होचुके हैं ।
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दिगम्बर जैन आगम
ग्रन्थ ही है। परन्तु इन ग्रन्थोंके अनुशीलनसे यह जिसका अर्थ राग-द्वेष है। मोहनीय कर्मके ये ही दो बात स्पष्ट है कि महाधवलशाल टीका-ग्रन्थ न होकर प्रधान प्रकार हैं। तथा इन्हींका विस्तृत विवेचन मृलग्रन्थ है । 'पटखण्डागम' का अन्तिम खण्ड 'महा- ग्रन्थका प्रधान लक्ष्य है। यह ग्रन्थ १५ अधिकारोंमें बन्ध' ही विद्वत समाजमें महाधवलके नामसे विभक्त है जिनमें कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध नाना प्रकार प्रसिद्ध है। पटवण्डागमके प्रारम्भक १७७ सूत्रांकी की जैन प्ररूपणायें बडे विस्तारके साथ निरूपित रचना तो पुष्पदन्ताचार्यने की। इसके अनन्तरका की गई हैं। समग्र आगम शास्त्र आचार्य भूतबलि स्वामीकी रचना ५ चूर्णि ग्रन्थ-आचार्य यतिवृषभने इस कसायहै । यह समग्र महाबन्ध इन्हीं आचायवयेकी पाहड नामक ग्रन्थपर प्राकृतमें ही विशाल भाष्य चमत्कारपृण कति है। ये अपन ममयक बड़ ही लिखा है जो चर्णिसत्र कहलाता है। मलग्रन्थमें तो महनीय मन्त्रशास्त्रमें निपुण जैनाचाय थे । इनक केवल २३३ ही गाथायें हैं परन्तु इस चणि ग्रन्थका
पाण्डत्यका तथा दाशानक ज्ञानका जितना परिमाण ६००० छ: हजार श्लोक है । गुणधरकी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है। महाबन्धका विस्तार शिष्य परम्पराम आर्यमंक्ष तथा नागहस्ति दो प्रधान ४५,००० शोक परिमाण है। इसकी भाषा विशुद्ध आचार्य हए जिन्होंने कसायपाहुडका अनुशीलन बड़े प्राक़त हैं और इसम धवला तथा जयधवलाक ही अध्यवसायकं साथ किया था। इन्हींसं इस ग्रन्थममान संस्कृत तथा प्राकृत भाषाका मिश्रण नहीं है। का साङ्गोपाग अध्ययन कर आचार्य यतिवृपभने ___'महाबन्ध' का विपय जैन मतानुसार कर्मका मूल अर्थको विशदरूपसे प्रतिपादन करने के निमित्त सूक्ष्म विवचन है । कपायक सम्बन्धसे जीव कर्मके इन चूगिा-मूत्र की रचना की है। ये अपने समयके योग्य पुद्गलांको जो ग्रहण करता है उसे ही बन्ध महान दार्शनिक थे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । कहने । बन्धके चार प्रकार हैं (१) प्रति. इनका समय वीरनिवाण मंवत् १००० के आसपास (२) स्थिति, (३) अनुभाग तथा (४) प्रदेश। इन हैं। इस प्रकार इस वृणिग्रन्थकी रचना विक्रमके चारा प्रकारांका अवान्तर विभेदमे युक्त विवचन बडे पश्चम या पष्ठ शतकम हुई। विस्तारके माथ इस ग्रन्थरत्नमें किया गया है । बन्धका ६ जयधवला-मूल ग्रन्थ कमायपाइड और चरिणमाङ्गोपाङ्ग विवचन दोनेके कारण इस ग्रन्थका महा- सत्रक ऊपर यह विशालकाय व्याख्या ग्रन्थ है। बन्ध नाम यथार्थ है। पिछले दिगम्बर जैन परिमाणम यह चरिणग्रन्थसे दसगुणा बड़ा है अर्थात् दानिकान कर्मका विवेचन इमी ग्रन्थकं आधारपर ६८,८८० श्लोक जितना है। इसके लेखक आचार्य किया है । इस प्रकार विवचनकी सर्वाङ्गीणता, वीरसेन हैं जिन्होंने पट्खण्डागमकी पूर्वोक्त 'धवला' प्रतिपादन-शैलीकी विशदता, दानिक तत्त्वोंकी नामक पाण्डित्यपूण व्याख्या लिखी है। परन्तु इस गम्भीरता, प्रभावकी व्यापकता, इन सब दृष्टियांस ग्रन्थका केवल तृतीयांश भाग लिखकर ही ये निर्वाण समीक्षा करनेपर यह ग्रन्थ मामान्य ग्रन्थ न होकर (दहाक्सान) को प्राप्त होगये । तदनन्तर इनके शिष्य एक महान तथा विराट् ग्रन्थ है।
आचार्य जिनसनने ग्रन्थकं शेष भागको पूरा किया। ४कमायपाइड-दिगम्बर सम्प्रदायका यह इस ग्रन्थको रचना राप्रकूट नरेश अमाधवक समय भी एक मान्य ग्रन्थ है। इसके रचयिता आचार्य म की गई थी। जयधवलाकी समाप्ति शक संवत गुणधर पूर्वोक्त आचार्य भूतबलि के समकालीन थे। ७५९ (८३७ ई० में हुई' । धवलाकी समाप्ति शक इस प्रकार इस ग्रन्थका भी रचना काल विक्रमका १ अमोघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया । प्रथम शतक है। कसायका अभिप्राय कषायसे है निष्ठिता प्रचयं यायात् प्राकल्यमनल्पिका ॥
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
संवत् ७३८ में होचुकी थी। इस प्रकार जयधवला ही लेखकके द्वारा विरचित होनेपर भी धवला और धवलासे २१ वर्ष छोटी है।
जयधवलाम स्थान-स्थानपर पार्थक्य है। इन्हीं - इस टीकाकी रचना धवलाकी तरह मणिप्रवाल आगम ग्रन्थोंका आश्रय लेकर कालान्तरमें विद्वानोंने शैलीपर की गई है । इस ग्रन्थमें प्राकृत और संस्कृतका नवीन ग्रन्थोंकी रचना की। इन्हीं तीनों ग्रन्थोंका मिश्रण है । धवलाकी अपेक्षा यह टीका प्राकृतबहुल है। मारांश आचार्य नमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने अपने इसमें प्रायः दानिक चर्चाओं तथा व्युत्पत्ति आदिमें विख्यात ग्रन्थ “गोम्मटसार” तथा “लब्धिसारही मंस्कृत भाषाका उपयोग किया गया है । जैन क्षपणासार" में प्रस्तुत किया है । ये संग्रहग्रन्थ सिद्धान्तके प्रतिपादन के लिये प्राकृतका ही अवलम्बन प्राकृतगाथानिबद्ध हैं जिनमें जीव, कर्म तथा कर्मों के किया गया है। यह टीका इतनी प्रौढ़ तथा प्रमेय- क्षपण अथवा नाशका सुन्दर किन्तु गृढ वर्णन है । बहुला है कि लेखकोंका अमाधारण पाण्डित्य तथा इतने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अबतक मृडविद्रीके जैन अगाध विद्वत्ता किसी भी आलोचकको विस्मयमें भण्डारमें हस्तलिखित रूपमें पडे थे । यह जैन डाल देती है।
भण्डार कर्णाटक दशमें है। वहाँके अधिकारियोंकी ____ इस प्रकार दिगम्बर जैन आगमकी जीव और कृपासे अब ये प्रकाशमें प्रारह हैं । धवलाका प्रकाशन कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी दो धागये म्फुटतया अमरावतीस होरहा है। जयधवलाका मथुरासे तथा लक्षित होती हैं । पहली धारा पटखण्डागम- महाबन्धका काशी भारतीय ज्ञानपीठसे। इन ग्रन्थ मे लक्षित होती है और दृमरी कमायपाहुडमें । रनोंका प्रकाशन जैन आगमोकं अध्ययनके लिये मृलग्रन्थों में सिद्धान्तकी विभिन्नता होने के कारण एक नवयुगका सूचक है।
त्रिभवनगिरि क उसके विनाशके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश
(लेग्यक--- अगरचन्द नाहटा) अनेकान्तके गत १०-११वें अङ्क पं० परमानन्द होगया था उसे म्लेच्छाधिपने घेरा डालकर नष्ट भ्रष्ट जीका 'कविवर लक्ष्मण और जिनदत्त चरित्र' कर आत्मसात कर लिया था। परन्तु प्रशस्तिपरसे शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। उममें आपने कविके यह मालम नहीं होता कि यह स्थान कहाँ था और मूल निवास स्थान त्रिभुवनगिरि व उसके विनाश किम म्लेच्छाधिपने वहाँ कब्जा किया था उस समय सम्बन्धी कविके उल्लेखका निर्देश करते हुए लिखा है सम्वन क्या था और उससे पूर्व वहाँ किसका राज्य कि 'ये मातों भाई और कवि लक्ष्मण अपने परिवार था आदि । और न अन्यत्रसे इसका कोई समर्थन सहित पहले त्रिभवनगिरिपर निवास करते थे (उम होता है।" समय त्रिभुवनगिरि जन-धनसे समृद्ध तथा वैभवसे त्रिभुवनगिरिका उल्लेख श्वे. माहित्यमें भी आता युक्त था; परन्तु कुछ समय बाद त्रिभुवनगिरि विनष्ट है और खरतरगच्छके प्रभावक आचार्य जिनदत्तसूरि
जीन वहाँक राजा कुमारपालको प्रतिबोध दिया था एकोनषष्टिममधिकमप्तशताब्देसु शकनरेन्द्रस्य । इसका उल्लेख सं० १२९५ रचित गणधरसार्द्धशतक समतीतेसु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥ वृहद्धत्तिमें आता है अतः कई वर्ष पूर्व हमने अपने
-जयधवलाकी प्रशस्ति । ऐतिहासज्ञ मित्र डा० दशरथ M. A. महोदयको इस
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पर प्रकाश डालने का अनुरोध किया था। हमारी प्रेरणा से उन्होंने भारतीय विद्याके वर्ष २ अङ्क १ में "वया नगरी और त्रिभुवनगिर" शीर्षक लेख प्रकाशित किया था । उससे यह भलीभाँति निश्चित होजाता है कि त्रिभुवनगिरि वर्तमानमें तहनगढ़ नामसे प्रसिद्ध है जो कि करौली से उत्तर पूर्व २४ माइलपर अवस्थित है । १३वीं शताब्दी में यहाँ यादव वशीय महाराजा कुमारपाल राज्य करते थे जो सं० १२१०, ११के लगभग ही गद्दीपर बैठे थे और
तेरह काठिया सम्बन्धी श्रे० साहित्य
तेरह काटिया-सम्बन्धी ० साहित्य
( लेखक - अगरचन्द नाहटा )
अनेकान्तकी गत (१०-११वीं) किरण में बाबू ज्योतिप्रसाद जैन N. A. का 'तरह काठिया' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें आपने कविवर बनारसी दामजी रचित तेरह काठिया शीर्षक रचनाका निर्देश करते हुए लिखा है कि 'ज्ञान नहीं इन दोषोंके लिये काठिया शब्दका प्रयोग करनेमें कोई और प्राचीन आधार था या नहीं, और इस प्रकार के त्रयोदश काठिया या तेरह काठिया शीर्षक अन्यप्राचीनतर पाठ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती आदि भाषा में इसी विपयके प्रतिपादक उपलब्ध हैं या नहीं ? यदि ऐसा नहीं है और यह कविवर बनारसीदासजीका ही मौलिक सुभ है तो उनकी प्रतिभाकी बलिहारी है और उनकी कल्पना अद्भुत होनेके साथ ही साथ प्रशंसनीय है ।' आपके उपर्युक्त लेखनसे मालूम होता है कि दिन समाज में १३ काठिये प्रसिद्ध नहीं है। जैसा कि बनारसीदास जीने निर्देश किया है गुजरात में काठिया शब्द प्रसिद्ध था और वहाँ प्रायः श्वे० समाजका ही प्रभाव अधिक है कविवर पहले श्वे० सम्प्रदाय के खरतरगच्छके अनुयायी थे । अतः उन्होंने १३ काठियोंमें वे साहित्यसे लिया ज्ञात होता है । कविवर बनारसीदासजीस प्राचीन श्वे० साहित्य में तेरह काठियोंका
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१२४२ तक राज्य किया था । मुसलमानी तवारीख ता 'जुलमासीर में हसन निजामीन लिखा है कि ५७२ (वि० सं० १२५२) में मुहम्मद गौरीन तहनगर पर आक्रमणकर वहाँके राजा कुमारपालको हराकर अपने आधीन किया। तहनगरका राज्य बहाउद्दीन तुमरीतको दिया गया। इससे स्पष्ट है कि म० १२५२ में मुसलमानी राज्य होजानेपर लक्ष्मण कवि विलरामपुर चले गये व त्रिभुवनगिरि जयपुर राज्यका तहनगढ़ ही है ।
उल्लेख पाया जाता है । रत्नसमुच्चय नामक एक प्राचीन प्राकृत गाथाओं का सग्रह ग्रन्थ है जिसमें १३ काटियोंके नाम सूचक गाथा इस प्रकार पाई जाती है'आत्म' मोह 'वन्ना 'थंभा काहा माय " किविणत्ता । समय सांगा "अन्नारणा 'वक्स्वेव कुतुहला 'रमणा ।। यह ग्रंथ जैनधर्म प्रसारक सभासे छप भी चुका है। १७वीं शताब्दीकी इसकी प्रतिमें यह लिखित मिलती है । यह गाथा हरिभद्रसूरि आवश्यक वृत्तिकी होने से नवीं शताब्दीकी निश्रित होती । अतः बनारसीदामजीके ८००० वर्ष पूर्व भी वे साहित्य में १३ काठिये प्रसिद्ध थे ।
१६वीं शताब्दी के तपागच्छीय जैनाचार्य हेमविमलसूरिकी गा० १५की तरह काठिया सज्झाय जैन सत्यप्रकाशके क्रमांक १३६ में प्रकाशित हो चुकी है।
नवीन रचनाओं में तिलोक ऋषिकी तेरह काठिया समाय भी प्रकाशित है । ० सम्प्रदाय में आज भी १३ काठिये सर्व विदित हैं और इसलिये बनारसीदास जीकी मौलिक सुभ ज्ञात नहीं होती। अब में मेरी जानकारीको वे समाजकं १३ काठिया सम्बन्धी साहित्यका संक्षेप परिचय दे देता है ।
मैं मेरी जानकारी में श्वे समाज के तेरह काठिया सम्बन्धी साहित्यकृत मंक्षिप्त परिचय दे देता हूँ:
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
१ तेरह काठिया सज्झाय गा० १६
३ तेरह काठियोंकी १४ ढालें (शा० १४९) विशुद्ध२ तेरह काठिया मज्झाय गा० ७महिमाप्रभसरि विमल सं० १८०-मि-भु.३ पालणपुर
(प्र०१ विद्याशाला प्रकाशित सज्झायमाला (प्र० १ भीमसी माणिक प्रकाशित सज्झाय
पृ. १४९ नं०१ माला आ० १ तृ० ७७ । २०२
४ (प्र० १ हमारे मंप्रहमें अपूर्ण (प्रथमपत्र) प्र० २ बालाभाइ म. जैन सज्झायमालामें ५ तेरह काठिया नामक हिन्दी पुस्तक प्रकाशक
नं० १-२-३ तीनों प्रकाशित हैं) काशीनाथ जैन ।
साहित्य-परिचय और समालोचन
आत्मसमर्पण ( पौराणिक कहानियाँ -लेखक सुप्रसिद्ध माहित्यिक श्रीरायकृष्णदामजीके प्राककथन श्री बालचन्द्र जैन विशारद, एम. ए. (फाइनल)
काशी हिन्द विश्वविद्यालयकं प्रो० पं० पद्मनारायण साहित्यशास्त्री । प्रकाशक, हिन्दी-प्रकाशन-भवन,
आचाय और म्याद्वाद महाविद्यालय काशीक प्रधानाबाँम-फाटक, बनारस । मूल्य, ११॥) । प्राप्तिस्थान,
ध्यापक पं. कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्रीके अभिजैन साहित्य-सदन, भदेनीघाट, काशी।।
मतों तथा पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशात्रीक दाशब्द' यह पुस्तक अभी हालमें ही तिलक दिवसपर
वक्तव्यास पुस्तककी महत्ता, गौरव और लोकप्रकट हुई है । इसमें लखकन पन्द्रह पौराणिक सम्मान प्रकट है । लेखकक 'अपना बात' में लिखे कथाओंको आधुनिक कहानियाँक ढङसे सरल और निम्न शब्द किसी भी महदय व्यक्तिको ठेस पहुँचाय रोचक भाषाम चित्रित किया है। प्रत्येक कहानीम बिना नहीं रह सकते। वे लिखते हैं-कहानियाँके लेखककी प्रतिभा और कलाके दर्शन होते हैं। सबसे लिखे जानका शुद्ध प्रयोजन थाडेसे चाँदीके टुकड़ोंबड़ी विशेषता यह है कि लेखकने अपने सिद्धान्त की प्रत्याशा थी जा मेरे अध्ययनमें सहायक बन
और दशनका बडी कशलनासं प्रदर्शन किया है। जात । पर हाय र अभाग ! तृ यहाँ भी मचल पडा. 'आत्मसमपण' कहानीम जब राजल गिरनारपर पूरे वर्ष पुस्तककी प्रेस कापी भारतीय ज्ञानपीठमें पड़ी पहचकर भगवान नमिनाथसं दीक्षा लकर तप करती रही, पर अन्तम मुझे टकसा जवाब मिला।' हैं उस समयका लेखकने कितने सुन्दर ढङ्गस इन शब्दोंको पढ़कर किमका हृदय नहीं सैद्धान्तिक चित्र ग्वींचा है.---उनकी वे पंक्तियाँ ये है- पसीजेगा । साहित्यिक संस्थाओं को अपनी इस
"गिरनारके शिखरपर दो तपस्वी साधनारत थे। अशोभनीय मनोवृत्तिका परित्याग करना चाहिये एक ओर निर्वस्त्र नेमिकुमार और दूसरी ओर श्वेत- और उन्हें श्रीबालचन्द्रजी जैसे होनहार प्रतिभाशाली वरधारिणी आयिका राजल।"
नवादीयमान लेखकोंका अभिवादन और स्वागत सारी पुस्तक जहां कलापूर्ण है वहाँ नीति, करते हुए प्रोत्साहन देना चाहिये । हम इस उदीयसिद्धान्त, सुधार, शिक्षा और लोक-रुचिस भी परि- मान होनहार कहानी लेखकका अभिवादन करते हैं। पूर्ण है । भारत कलाभवन काशाके क्यूरेटर और उनकी यह ऋति हिन्दी साहित्य मंमार गौरव पृण काशी नागरी प्रचारिणा सभाकं भूतपूर्व मन्त्री स्थान प्राप्त करंगी, एमी आशा एव शुभकामना करते
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किरण १२ ]
माहित्य-परिचय और समालोचन
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हैं। मफाई-छपाई आदि मब उत्तम है। पाठक एक प्रगति-प्रवाह, ऊर्मियाँ, गीति-हिलोर और सीकर बार इसे अवश्य पढ़ें।
विभागोंमें विभाजित करके उनके संक्षिप्त परिचयके भारतीय ज्ञान-पीठके सात प्रकाशन
साथ उनकी कुछ कुछ सुन्दर सुन्दर कवितायें संग्रहीत
की गई हैं। कवियों और कवित्रियोंकी कुल संख्या १ जैन शासन-लेखक, पं० सुमेरचन्द्र दिवाकर, ९२ है। वस्तुतः सम्पादिकाजीकी सृभ और भारतीय शास्त्री, न्यायतीथ B. A., LL.BI प्रकाशक, श्री ज्ञान पीठका प्रयत्न दोनों मराहनीय हैं। यह पुस्तक अयाध्याप्रमाद गायलीय, मन्त्री भारतीय ज्ञान-पीठ, संसारक कविया और कविनियों समन जैन दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । मूल्य, ५\-)| कवियों और कवित्रियोंके गौरवको बढ़ाने वाली है,
यह साहू शान्तिप्रमादजी डालमियानगर द्वाग इसमें सन्देह नहीं । सफाइ-छपाई सुन्दर, शुद्ध और अपनी पुण्यश्नाका माता स्व. मृति देवीकी स्मृतिमें आकर्षक है । मूल्य अवश्य कुछ ज्यादा है। मंम्थापित ज्ञानपीट मृति देवी जैन ग्रन्थमालाका
३ पथ-चिह्न-लेखक, श्रीशान्तिप्रिय द्विवेदी। हिन्दी विभाग सम्बन्धी तीगग ग्रन्थ है । इसमें लखकन शान्तिकी ओर, धर्मके नामपर, धर्मकी
प्रकाशक, उत्त भारतीय ज्ञानपीठ काशी । मूल्य २) आवश्यकता, धमकी अाधार शिला आदि ५९ विपयों लखकन यह पुस्तक अपनी बहिनके बहाने द्वारा जैनशामनका परिचय कराया है। जैन धर्मका भारत माताका लक्ष्य करके भारतीय संस्कृति और परिचय करानमें य: पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी. भारतीय कलापर लिखा है । वतमान अर्थमंघर्ष एमी अाशा है। दिवाकरजीने अपनी कचिके अन- प्रधान भारतमं उसकी सप्त संस्कृति और कलाकी मार विपयोंको चुनकर पीढ और उदात्त भाषा तथा अन्तश्चतनाका जगानका प्र
अन्तश्चेतनाको जगानका प्रयत्न इसमें किया गया है। भावाद्वारा विपय-प्रतिपादन किया है। कहीं कहीं पुस्तक लोक-रुचिकं अनुकूल है। इसमें भावुकता आलङ्कारिक शब्द-प्राचुय भी है जो रोमी पुस्तकांम और श्रद्धाकं पर्याप्त दशन होते हैं । छपाई आदि सब भूपण न होकर दृपण है। विषयोंके कुछ शीर्षक उत्तम है । पुस्तक पठनीय है। 'पराक्रमकं प्राङ्गणम', 'मयम विन घडिय म इक्क ४ मुक्ति दूत-(एक पौराणिक रोमांस )जाद जैस अटपट और क्लिष्ट जान पड़ते है। सवे लेखक, श्रीवीरेन्द्रकुमार जैन एम. ए. । प्रकाशक, साधारणका जल्दी समझम आजान वाल शीपक उक्त ज्ञानपीठ । मल्य ४), पृष्ठ संख्या लगभग ३५०। होने चाहिए। इमगं मन्दह नहीं कि दिवाकरजीन
मव माधारणकी दृष्टिसे उक्त ज्ञानपीठद्वारा इसमें पर्याप परिश्रम किया है और एक कमीकी प्रति
प्रारम्भ की गई 'लोकोदय-ग्रन्थमाला' का प्रस्तुत की है । सफाई छपाई अच्छी है। जिल्द मजबूत है।
पुस्तक प्रथम पुष्प है । इसमें लेखकने उपन्यासके एस प्रकाशनके लिय दिवाकरजाक साथ ज्ञान पीठ
ढङ्गस पुराणणित अंजना और पवनंजयकी प्रेमभी धन्यवादाह है।
कथाको चित्रित किया है जो बहुत ही सुन्दर और २ आधुनिक जैन कवि-मम्पादिका, रमा जैन, लोमाहर्पक है। उपन्यासकं गसिक पाठकोंके लिय प्रकाशक, पृक्ति । मूल्य, )।
इसके पढ़ने में कहीं भी विरसनाका अनुभव न होगा ___ इस पुस्तक का एक मस्करण पहले प्रकट होचुका मंग खयाल है कि जैन पौराणिक आख्यानको है। यह दूम। संस्करण है, इसमें कितने ही नये उप-यामक ढङ्गसे प्रस्तुत करना हिन्दी जैन साहित्य कवि और कवित्रियांकी कविताओं का संग्रह और मंसारमें एक नई वस्तु है । हिन्दी ग्रन्थमालाके किया गया है। जैन संसारकं ममम्त कवियां और सम्पादक श्रीलक्ष्मीचन्द्र जैनने अपनी विद्वत्तापण कवित्रियोंको युग प्रवर्तक, युगानुगामी, प्रगतिप्रेरक, प्रस्तावना लिखकर तो इसपर सुवर्ण कलशका काम
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किया है। सफाई-छपाई सब उत्तम और जिल्द डा. जगदीशचन्द्र जैन, एम.ए., पी-एच.डी. । प्रकाशक मजबूत है । पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है। वही भारतीय ज्ञानपीठ । मूल्य, ३) । पृष्ठ २०२ । __ ५ हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास- श्वेताम्बर जैन श्रागमोंमें जो कथा-कहानियाँ लेखक, श्रीकामनाप्रसाद जैन D. L. 11. R. .A. S. I लिपिबद्ध पाई जाती है उन्हींका प्रस्तुत पुस्तकमें प्रकाशक उक्त ज्ञानपीठ मूल्य, २) । पृष्ठ सुन्दर सङ्कलन है । इसी लिये पुस्तकका दूसरा नाम लगभग २८५ ।
'जैनकथा कहानियाँ' भी दिया गया है। इसमें यह ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन गन्थमालाका हिन्दी डा०मा० ने बड़े रोचक डङ्ग और मरल एवं चालू सम्बन्धी दुसरा ग्रन्थ है । पाठक, बा० कामताप्रसाद भापामें कहानियांको दिया है । इन कहानियांका जीकी लेखनीसे सुपरिचित हैं उन्हीं की लेखनीमे यह उन्होंने तीन भागोंमें बाँट दिया है--पहले भागमें ग्रन्थ लिखा गया है। इसे मौलिक रचना कहनेकी लौकिक कहानियाँ हैं जिनकी संख्या ३४ है, दसरे अपेक्षा प्रायः मंग्रह रचना कहना ज्यादा उपयुक्त भागमें ऐतिहासिक हैं जो १७ हैं और तीसरे भागमें होगा; क्योंकि इसमें प्रेमीजी आदि विभिन्न लेखकों धार्मिक हैं जिनकी संख्या १३ है। इस तरह इस द्वारा कराये गये हिन्दी माहित्यके परिचयादिका ही पुस्तकमें कुल ६४ कहानियाँ हैं। इन कहानियोंका जगह जगह संकलन है । इममें सन्देह नहीं कि इस प्राधार वताम्बर जैन आगम हैं और इस लिग पुस्तकके द्वारा हिन्दी जैन साहित्यका अच्छा परिचय उनम-मुख्यतः धार्मिक कहानियाम-कहीं कहीं मिलता है और यह भी मालूम होजाता है कि वर्तमान दिगम्बर जैन साहित्यसे मतभेद है । जैसे 'राजीमती हिन्दीका मूल उदम स्थान जैनोंका अपभ्रंश साहित्य की दृढता' कहानीको लीजिये, उममें भगवान नमिहै। मम्पादकका यह लिखना कि 'इस पुस्तकमें-कैसे नाथक भाई रथमिकी कल्पना की गई है जा अपभ्रंशक माध्यम द्वारा जैन कवियोंने आजकी इस दिगम्बर साहित्यम नहीं है। और न उसमें राजीमती हिन्दीको अङ्करित किया और उस अङ्करको मीच तथा रथनमिका उक्त सम्बाद ही पाया जाता है सींचकर कैसे उन्होंने बालबृक्ष बना दिया-पायेगे' जिसमें रथमि भाभी राजुलको अपनसे शादी करने बिल्कुल ठीक है । पं० नाथूराम प्रमी और राहुल के लिय फमला रहे हैं।' यहाँ एक बात यह कहनेकी सांकृत्यायन प्रभृति विद्वानोंने यह सिद्ध कर दिया है है कि लखकन इन कहानियों को दो हजार वर्ष पुरानी कि महाकवि म्वयम्भू आदि जैन कवियोंकी अपभ्रंश बतलाई हैं परन्तु लेखन और मङ्कलनकी दृष्टिमं वह कृतियाँ ही वतमान हिन्दीकी प्रसवा हे। पुस्तकम कुछ ठीक नहीं जान पड़ता, क्योंकि इन कहानियांका हिन्दी जैन कवियों और उनकी रचनाआंका जा संग्रह श्वेताम्बर जैनागमांपरसे किया गया है और परिचय रनिङ्गम दिया गया है उससे पुस्तककी उनकी मदलना तथा परिवर्धन देवधिगणाने विक्रम साहित्यिक मनाज्ञता सवथा नष्ट होगइ है । एक एक की छठी शताब्दीमं किया है जिसे श्राज कंवल लगभग कवि और उसकी रचनाका अलग अलग उपशीर्षक च उदह-पन्द्रहमी वर्ष हुए हैं। लेबकने म्वयं देवधिदेकर उनका परिचय कराया जाता और फुटना टम गणीकी सङ्कलनाको वतमान आगम माने हैउसकी सूचना करदी जाती जहाँ जहास वह लिया (प्रस्तावना पृ०१६) । इमम सन्देह नहीं कि श्री गया है ता बहत उत्तम होता । 'अनेकान्त' में बहुत जगदीशचटजीन इन कहानियांक सहलन करने में अधिक मामग्री लीगई है पर उसका नल्लख कुछ ही काफी परिश्रम किया है और उन्हें लोकोपयोगी जगह किया गया है । यह सब हाते हुये भी पुस्तक बनानका पूरा प्रयत्न किया है। पाठकांक लिय ये संग्रहणीय है । मफाइ. छपाइ, जिल्द, मब उत्तम है। कहानियाँ अवश्य मचिकर होगी। सफाई, छपाई,
६ दो हजार वर्ष पुरानी कहानियां-सङ्घल यता जिल्द आदि सब मनोज्ञ है ।
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माहित्य-परिचय और समालोचन
७ महाबन्ध-मल रचयिता, भगवान भतबलि जो सब ३४८ पृष्ठ प्रमाण है। यह प्रकाशन जहाँ प्राचार्य । सम्पादक पण्डित सुमेरुचन्द्र दिवाकर ऊपरी मब बातोंसे सुन्दर है वहाँ भीतरी कुछ बातों शाली, न्यायतीथ, बी० ए०, एल-एल० बी० । से टिपूर्ण भी है। अनुवाद की भाषा वैसी नहीं प्रकाशक, उक्त भारतीय ज्ञानपीठ । मल्य. १२१ । जैसी धवला और जयधवलाक प्रकाशनोंकी है । पृ० सख्या, ५०० से कुछ ऊपर ।
शब्दोंकी लिष्टतासे अनुवाद सहज गम्य नहीं रहा । यह वही ग्रन्थराज है जिसे महाधवल सिद्धान्त इसके मिवाय जहाँ विशेषार्थोकी जरूरत थी वहाँ भी कहा जाता है । इसीको षटखण्डागमका छठा विशेषाथ नहीं है और जहाँ उनकी खास जरूरत ग्वण्ड भी माना जाता है। उसपर वीरसन स्वामीकी नहीं थी वहाँ वे है। ऐसा मालूम पड़ता है कि टीका नहीं है । प्रस्तुत पुस्तक समग्र महाबन्धका. दिवाकरजीन इस सिद्धान्त ग्रन्थमें भी औपदेशिक जिममें अनक अधिकार हैं. पहला प्रतिबन्धाधिकार ढङ्ग अपनाया है। कितनी ही जगह अनुवादमें है। यह प्राकृत भापामं निबद्ध मलागम ग्रन्थ है। मद्धान्तिक वाटया भा रह गई है,
7 सैद्धान्तिक त्राटयाँ भी रह गई हैं, जिन्हें किसी इम पहली पुस्तकम कर्मबन्धक प्रकृतिबन्धका सूक्ष्म
स्वतन्त्र लेखम ही प्रकट करना उचित है। बा० और विस्तृत निरूपण किया गया है । मर्व प्रथम नमीचन्दजी महारनपुरन ऐमी कुछ त्रुटियोंको जैन कवरक आद्य पृष्टपर भगवान बालिका आकर्षक सन्देशमं प्रकट किया है, जिन्हें दिवाकरजीन अपने भव्य चित्र। उसके बाद भीतर तीसरं पुपर स्पष्टीकरण द्वारा म्बीकार कर लिया है-उनका संट माह शान्तिप्रमादजीकी मानेवरी ग्वा मतिदवी उन्हान विरोध नहीं किया। मालूम होता है कि का, जिनकी स्मृतिम स्थापित ज्ञानपीट मनि देवी जैन नि ग्रन्थमालाकं याग्य सम्पादकों और अनुभवी ग्रन्थमालाका यह प्राकृत सम्बन्धी पहला ग्रन्थ है, विशिष्ट विद्वानों द्वारा यह अहट रहा है। मैद्धान्तिक चित्र है। तदनन्तर पाँचव पत्रपर बायीं और ग्रन्थाका प्रकाशन व मम्पादन एवं अनुवाद पूरी श्राचाय शान्निसागरजी महाराजका वीतगगता एवं मावधानीम होना चाहिए, क्योंकि म महान ग्रन्थों ध्यानमुद्रामय मनोज्ञ चित्र है, जिन्हें सम्पादकने उक्त का द्वारा प्रकाशन होना अशक्य है। अमावधानीग्रन्थ मगपंगा किया। सातवं पत्रकी बोया आर सजनताम बड़ी गलतफहमियाँ फेल जाती है। मटांबद्री तथा श्रवणबजगोलकं वनमान भट्रारको यहां हम यह भी कह देना चाहते है कि दिवा
और श्रीमान नागराज श्रेष्ठी मविद्रो, श्रीमान स्व. करजीन उन दा अपने सहयोगियां--पं० परमानन्दग्धुचन्द्रजी बल्लला मङ्गलर, श्री० मंजय्य हंगडे धर्म- जी साहित्याचाय और ५८ कुन्दनलालजी-की। म्थल नथा चन्द्रनाथ वर्माद मुडविद्रीक त्रिलोकः . निमम उपेक्षा की है, जिन्होंने उन्हें अपना पसीना चटामगि चैत्यालयकं चित्र हैं। इन लागांकी कृपा वहाकर महयोग दिया था और जिम महयोगकी
और प्रयत्नम ही यह ग्रन्थ दिवाकरजीको प्राप्त हो सका म्वीकृति दिवाकरजीन गुभ छिन्दवाड़ाम सिवनी बुला इसके बाद श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलय, मन्त्री कर मुझपर प्रकट की थी और मुझम अपने कायम भारतीय ज्ञानपीठका 'प्रकाशकीय', प्रोहीगलालजी. गय मांगी थी। प्रस्तुत प्रकाशनम उन दोनों विद्वानांके । सम्पादक प्राकृत ग्रन्थमाला विभागका प्रास्ताविक' नाम न देखकर मुझे दुख और आश्चर्य दोनों हए। (हिन्दी व अग्रजी) और दिवाकर जीके IPresence, हमें दिवाकर जाम एसी आशा नहीं थी । अस्तु। । प्राककथन एव प्रस्तावना वक्तव्य है। दिवाकरजीन पुस्तककी सफाई आदि अच्छी है। स्वाध्याय अपनी विस्तृत प्रस्तावनामें ग्रन्थ, ग्रन्थकार और प्रेमियोंको इसे मंगाकर इसके म्वाध्यायसे अपनी तत्सम्बन्धित विषयांपर प्रकाश डाला है । तत्पश्चात तत्त्वज्ञानवृद्धि अवश्य करना चाहिए। मृलग्रन्थ और उसके नीचे उसका हिन्दी अनुवाद है
-दरबारीलाल जैन कोठिया, न्यायाचार्य
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१ षटखण्डागम-(धवलाटीका और उसके हिंदी विशेप जिज्ञासा नहीं रहती । ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद अनुवाद सहित) मूल कर्ता,-आचार्य भूतबलि तथा पूर्ववत है । साथमें कुछ तुलनात्मक टिप्पण भी व्याख्याकार वीरसंनस्वामी। संपादक प्रो.हीरालाल जैन किया हुआ है। एम. ए., पी. एच. डी. मारिस कालेज, नागपुर और सह ग्रन्थके अन्त में ५ परिशिष्ट भी दिये हुए हैं जिनमंपादक पं. बालचंद्रजी सिद्धान्तशास्त्री अमरावती। से प्रस्तुत संस्करणकी विशेषता और भी बढ़ गई है। प्रकाशक श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहि- उनमें 'अवतरण-गाथा-सूची' नामके परिशिष्टके 'चदुत्योद्धारक फंड, अमरावती । पृष्ठ संख्या मब मिलाकर पञ्चइगो बंधा' उवरिल्लपंचए पुण, पणवण्ण्णा इर४४६ । मृल्य सजिल्द प्रनिका १०) शास्त्राकारका १२)। वण्णा, और 'दस अट्टारमदसयं' नामकी चारों
प्रस्तुत ग्रन्थ पटवण्डागमका तृतीय खण्ड 'बंध- गाथाएं प्राकृत पचमग्रह भाप्यकं चतुर्थ अधिकारमें सामिविचय' नामका है. जिसमें कर्मबंधके स्वामित्व- क्रमशः ७६, ७७, ७८ और ७९ नम्बर पर उपलब्ध का विचार किया गया है और यह बतलाया है कि होता है। कौन कौन कर्मप्रकृतियाँ किन किन गुणस्थानोंमें इस खण्डकं साथ पटवण्डागमके तीन खण्ड बंधको प्राप्त होती हैं । इस खण्डमें कुल ३२४ सूत्र हैं मुद्रित होचुके हैं, जो बहुत ही प्रमेय बहुल हैं । यद्यपि जिनम ४२ सूत्रां में गुग्णस्थानों के अनुमार कथन किया प्रस्तुत ग्रन्थका ३ पेजका शुद्धिपत्र खटकने वाली हे और अवांश २८२ सूत्रांमें मार्गणाओंके अनुसार वस्तु है, परंतु विश्वास है कि आगे इमकी और और भी गुणस्थानोंका विवेचन किया गया है । टीकाकार विशेष ध्यान रक्खा जावेगा। ऐसे सिद्धान्त ग्रन्थोंक सूक्ष्मप्रज्ञ आचार्य वीरसनने सूत्रोंको दशामर्पक प्रकाशनमें प्रेस सम्बन्धी इतनी अशुद्धियाँ नहीं रहनी बतलाते हुए, बन्धव्युच्छेद आदिक मम्बन्धमें तेईस चाहिये । इस तरह यह ग्बण्ड भी अपने पूर्व प्रकाशित प्रश्न उठाकर स्वयं ही उनका ममाधान करते हुए, खण्डोंके समान ही पठनीय तथा संग्रहणीय है। मादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, सांतर, निरंतर, स्वोदय, मूल्यमें भी इस मॅहगाईको देखते हुए कोई वृद्धि परोदय आदि बन्धाका व्यवस्थाका कथन किया है। नहीं हुई है। और उससे बन्धस्वामित्वकं मम्बन्धमे फिर कोई
-परमानन्द जैन
श्रीधर या विबुध श्रीधर नामके विद्वान
(लेखक--पं० परमानन्द जैन, शास्त्री)
भारतीय जैन वाङमयका आलोडन करनेमे जिम किमीका भी कुछ विशेष परिचय मालूम पड मालूम होता है कि एक नामकं अनेक विद्वान, ग्रन्थ- सं प्रकट कर दिया जाय । इसी दास श्राज में का श्राचार्य नथा भट्टारक होगा हैं: इममेरोनिहा- अपने पाठकोंको श्रीधर या विबुध श्रीधर नामकं कुछ सिक विद्वानीको एक नामकं विभिन्न व्यक्तियों के विद्वानोंका परिचय दे रहा हूँ। ममय, निर्णय करने में माधन-सामग्री के अभाव में बड़ी (१) श्रीधर या विबुध श्रीधर नामकं कई विद्वान दिक्कतें पेश आती है। उन दिनांको कम करनके हागए है। उनमें एक श्रीधर तो वे है जिन्ह विबुध लिये यह आवश्यक और उचित जान पड़ता है कि श्रीधर भी कहते थे और जो अग्रवाल कुलम समुत्पन्न
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हुए थे । इनकी माताका नाम 'वील्हा' देवी और पिताका नाम 'बुध गोल्ह' था' । उक्त कविने इससे अधिक और अपना परिचय देने की कृपा नहीं की, जिससे उनके सम्बन्धमें विशेष विचार किया जा सके। साथ ही, यह भी मालूम हो सके कि उनके गुरु कौन थे ? इनकी एक मात्र कृति 'पार्श्वनाथ चरित्र' उपलब्ध हैं, जिससे मालूम होता है कि कविने 'चन्द्रप्रभु चरित्र' नामका एक ग्रन्थ और भी बनाया था । इस प्रन्थ में कविने ग्रन्थ प्रणयनमें प्रेरक साहुनट्टल के परिवारका विस्तृत परिचय दिया है । साहुनल देहली (यांगिनीपुर) अथवा ढिल्लीकं निवासी थे, उस समय दिल्ली में तोमरवंशीय अनङ्गपाल तृतीयका शासन चल रहा था । यह अनङ्गपाल अपने पूर्वज दो श्रनङ्गपालोंसे भिन्न था और बड़ा प्रतापी एवं वीर था । इसने हम्मीरवारकी सहायता की थी । यह हम्मीरवीर कौन है ? और इसका अनङ्गपालके साथ क्या सम्बन्ध है ? यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । उस समय दिल्ली जण धनसे परिपूर्ण थी उसमें विविध जातियां के लोग सुखपूर्वक निवास करते थे। चुनांच उस समय दिल्लीके जैनियोंम प्रमुख नट्टलसाहु थे, जो व्यसनादिसे रहित श्रावककं व्रतोंका अनुष्ठान करते थे। नट्टलमाहु केवल धर्मात्मा ही नहीं थे; किन्तु उच्चकोटि के कुशल व्यापारी भी थे, और उस समय उनका व्यापार अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, कर्नाटक, १ सिरिग्रयरवालकुलसंभर्वण, जग्गी बील्हा (भ) वंगण अण्वस्य विराय पण्यारुहेणु, कदणा बुहगोल्ड-तरगुरुहरा पर्यायांवगुणभरंग, माहिं मिरिहरे
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श्रीधर या विबुध श्रीधर नामके विद्वान
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रजहिं असिवर तोडिय रिउ कवालु, गहु प्रसिद्ध अगुवालु दिल वहम्मीर वीर, वंदिया विद पचियरची | दुजर-हिय यावदिलणसीरु, दुरण्यणास्य रस- समीरु बालभर कंपावियायगड, भामिणियण मण-संजगियर उ - पार्श्वनाथ च० प्रशस्ति ये हम्मीर वीर अन्य कोई नहीं, ग्वालियर के परिहारवंश की द्वितीय शाखा के हम्मीरदेव जान पड़ते हैं जिन्होंने सं० १२१२ से १२२४ तक ग्वालियर में राज्य किया है 1
नेपाल, भोट्ट, पांचाल, चेदि, गौड़, ठक्क, केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुजर, सोरठ और हरियाना आदि देशोंमें चल रहा था। इन्हीं नट्टलसाहुकी प्रेरणा एवं अनुरोधसे कविने पार्श्वनाथ चरितकी रचना की थी । प्रस्तुत ग्रन्थका रचनाकाल वि० सं० १९८९ अगहनवदी अमी रविवार है । जैसा कि उसकी प्रशस्तिकं निम्न वाक्यसे प्रकट है:“विक्कमरिंद-सुपमिद्धकालि, दिल्ली-पट्टण-धरणकविसालि । स- वामी एयारहसएहि, परिवाडिए वरिपरिगएहिं । सिरिपासरणाहरिणम्मलचरित मयलामलग्यणोहदित्त ।
प्रस्तुत ग्रन्थका नाम 'पासनाहचरिउ ' है । इस ग्रन्थ में कविने जैनियोंक तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन परचिय दिया हुआ है। यह प्रन्थ अपभ्रंश भाषामं रचा गया है और १२ सन्धियों में समाप्त हुआ है, और जिसकी लोक संख्या ढाई हजार लोक प्रमाण है । सन्धिकी समाप्ति सूचक पुष्पिका गद्य में न देकर स्वयंभूदेव के समान पद्य में दी हुई है। वह संधि-वाक्य इस प्रकार है:इयसिरिपामचरित्त इयं बुहसिरिहरेण गुणभरियं अणुमिरणयं मणोज्जं ट्टलनामे भवे ||१|| विजयंत विमारणाओ वम्मादेवी गंदणो जाओ । पार्श्वनाथ च० कियप्पहु चविणं पढमी संधी परिममत्तो ||२||
माहुल पिताका नाम 'अ' साहू था, इनका वंश अग्रवाल था और यह सदा धर्मकर्मम सावधान रहते थे। इनकी मानाका नाम 'मेमडिय' था, जो शीलरूपी सतआभूषणों अलंकृत थी और बाँधवजनों को सुख प्रदान करती थी। साहुनलके दो ज्येष्ठ भाई और भी थे - राघव और सोढल | इनमें राघव बड़ा ही सुन्दर एवं रूपवान् था, उसे देखकर कामिनियों का मन द्रवित होजाता था ।
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और सोढल विद्वानोंको आनन्ददायक, गुरुभक्त, उखड़वाकर देखा जाय तो उनमें शिलालेखादि भी तथा अरहंतदेवकी स्तुति करने वाला था और मिलनेकी सम्भावना है। जिसका शरीर विनयरूपी आभूषणसे अलंकृत था, (२) दूसरे श्रीधर वे हैं जिन्होंने श्रवन्तीके मुनि तथा बड़ा बुद्धिवान और धीरवीर था । और नट्टल- मुकमालका जीवन-परिचय अङ्कित किया है। इस साहु इन सबमें पुण्यात्मा, सुन्दर तथा जनवल्लभ था। चरित्रग्रन्थकी रचना भी अपभ्रंश भाषाके पद्घाड़िया कुलरूपी कमलोंका आकर, पापरूपी पांशु (रज) का छन्दमें हुई है। यह ग्रन्थ छह सन्धियोंमें समाप्त हुआ नाशक, तीर्थङ्करका प्रतिष्ठापक, बन्दीजनोंको दान है जिसकी श्लोक संख्या १२००के लगभग है। इस देने वाला, परदोषोंके प्रकाशनसे विरक्त तथा सम्यक् ग्रन्थकी रचना विक्रम संवत् १२०८ मर्गासर कृष्णा दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप त्रिरत्न तीज सोमवारके दिन हुई है। आभूषणोंसे युक्त था, जो चतुर्विध संघको दान देनमें इन श्रीधरने इस प्रन्थमें अपना कोई परिचय सदा तत्पर था। साहू नट्टलने केवल पार्श्वनाथरित प्रस्तुत नहीं किया, जिससे यह निश्चय करना कठिन की रचना ही नहीं कराई थी; किन्तु उस बुद्धिवान है कि ये प्रथम श्रीधर ही इस ग्रन्थकं कर्ता हैं; क्योंकि धर्मात्माने दिल्ली में विशाल जैनचैत्य (जैनमन्दिर) यह ग्रन्थ उससे १८ वर्ष बाद बना है । अतः का निर्माण कराकर उसका प्रतिष्ठात्मव भी किया था यह होसकता है कि प्रथम श्रीधर ही इसके र यता जैमा कि उक्त ग्रन्थकी पाँचवी मंधिकं बादक निम्न हां, अथवा श्रीधर नामकं किमी दूमरे विद्वानकी यह पद्यमे प्रकट है:
कृति हो, कुछ भी हो इम सम्बन्ध विशेष अनु"येनाराध्य विशुद्धधीरमतिना देवाधिदेवं जिनं। सन्धान करनेकी पारूरत है। सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुणः संतोपिता बांधवाः॥
प्रस्तुत मुकमालरितकी रचना माहु पीथेके । सुपुत्र कुमारकी प्रेरणा या अनुरोधपर हुई है। ग्रन्थ
की पाद्यतप्रशस्तिम साह पीथे के वंशका विस्तृत स श्रीमान्विदितः सदेव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः॥" परिचय दिया हुआ है, जिसमे मालूम होता है कि ____ऊपरके उल्लेखमे यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह ग्रन्थ बलडइ (अहमदाबाद-गुजरात) गाँवम बना विक्रमकी १२ वीं शताब्दिक अन्तिमभाग (१९८९)में है जहाँ गोविन्दचन्द्र नामकं राजाका राज्य था और दिल्लीम दिगम्बर जैनमन्दिर मौजद थे और नटल- वहाँक जिनमन्दिरमं पद्मसन नामक मुनि प्रवचन साहन एक अन्य दिगम्बर जैनन्दिर बनवाकर किया करत थ । माह पाथ पुरवाड़वशक भूपण थ उसका प्रतिष्ठामहोत्सव भी कगया था। इसके सिवाय,
और मम्यक्त्वादि गुगाम अलकृत थे। साह पीथेक १४-१५ वीं शताब्दीमें भी दिल्लीम जैनमन्दिरीका
पिताका नाम 'माहर जग्ग' था और माताका नाम निर्माण होता रहा है। परन्तु वेद है कि आज उन
'गल्हा देवी । इनके सात भाई और थे, महेन्द्र, प्राचीन समयक मन्दिरोंकी कोई मतियाँ प्राप्त नहीं।
मणहरू, जालहणु, मलक्खा , मं पुण्ण(?), समुदपाल होती। पर इतना अवश्य ज्ञान होता है कि वे सब । मन्दिर मुसलमानी बादशाहनके समय धराशायी 'सुलक्षणा' था, जा बड़ी ही विचक्षगा धार कार्यपद कग दिये गये हैं और उन जैनन्दिरों आदिक था इसास कुमार नामक पुत्रका जन्म हुआ था, पाषाण कुतुबमीनारमें लगा दिये गये हैं। कतबमीनार जिसका प्ररणाका पाकर कविने उक्त ग्रन्थकी रचना में आज भी जैनन्दिक पापण पाए जाते हैं की है और वह उसीके नामाङ्कित भी किया गया है। जिनमें जैन मृतियाँ अङ्कित हैं। उनमें कितने ही बारहसयइं गयई कपहरिसइ अट्टोत्तरं महीयलिवरिसइं । पापाण पलटकर भी लगाये गये हैं। यदि उन्हें कसण पक्खिागहण होजायए तिम्णदिवसि समिवासरमायए
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श्रीधर या विवुध श्रीधर नामके विद्वान्
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कुमारकी पत्नीका नाम 'पद्मा' था उससे चार पुत्र साहु लक्ष्मणकी प्रेरणासे रचा गया है जैसा कि उसके उत्पन्न हुए थे, पाल्हणु, साल्हगु, बल्लं या बालचन्द्र निम्न पद्योंसे प्रकट है:और सुप्रभ' । ग्रन्थगत चरित भाग बड़ा ही श्रीमद्वदोमयतायां [?] स्थितेन नयशालिना। (३) तीसरे श्रीधर वे हैं जिनकी रची हुई भविष्यदत्त
__ श्रीलंबक चुकाऽन्क-नभोभूषण-भानुना ॥९॥ पञ्चमीकथा है जो संस्कृतमं रची गई है। यदपि ग्रन्थमें प्रसिद्धसाधुधामेकदनुजेन दयावता। कवि श्रीधरने अपना कोई परिचय नहीं दिया और प्रवरोपासकाचार - विचाराहित - चेतसा ॥१०॥ न उसका रचनाकाल ही दिया है जिससे यह कहना गुरुदेवाऽर्चना-दान-ध्यानाध्ययन-कर्मणा । कठिन है कि इस भविष्यदत्तपञ्चमीकथाके कत्ता साधना लक्ष्मणाख्येन प्रेरितो भक्तिसंयुतः॥११॥ कवि श्रीधर कब हुए हैं और उनके गुरुका क्या नाम था ? हाँ, उपलब्ध ग्रन्थकी प्रतिपरसे इतना जरूर तदहं शक्तितो वक्ष्ये चरितं दुरितापहं । कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थकी रचना विक्रमकी श्रीमद्भविष्यदत्तस्य कमलश्रीतनुभुवः ॥१२॥ १५वीं शताब्दीक उत्तराधसे पूर्व हाचुका था; क्याकि (४) चौथे कवि श्रीधर वे है जिनका रचा हा उक्त ग्रन्थकी एक प्रति वि० मं० १४८६की लिखवाई 'नानार्थमुक्तावली' कोप है जिसे 'विश्वलोचनकोष' हुई मौजूद है । प्रस्तुत ग्रन्थ लम्बकंचुक कुल के प्रसिद्ध भी कहते हैं। यह ग्रन्थ हिन्दी-टीका साथ मुद्रित १मिरि पुरवाड बंम मंडणचंधउ,णि यगुणणियराणंदियवंधउ होचुका है। ग्रन्थकर्ता सेनवंशकं विद्वान थे और गुरुभत्तिए परमिय मणीमा, णाम माह रजग्ग बणीमरु। इनक गुरुका नाम मुनिसन था। इन्हनि कवि नागेन्द्र नहीं गल्हा णामंग पियारी, गहिणि मगइच्छिय सहयारी। और अमरसिह आदिके कोपांका सार लेकर उक्त पविमल मीलाहरण बिहमिय, मुहि सजग बुद्दयाहं पसंमिय। ग्रन्थकी रचना की है। ये श्रीधर कब हए हैं यह अभी ताह तणुरुहु पीथ जायउ, जगमुहयरु महियले विक्वायउ। विचारणीय है, लेकिन यह श्रीधर उक्त तीनों श्रीधर अवतु महिंदे बुच्चा बीय उ, बुह्यण,मणहरु तिक्कउ तइयउ।
नामक विद्वानोंसे भिन्न जान पड़ते हैं। जल्हणुणामणि उन उत्थउ, पुणविसलकवणु दाण ममत्थउ (५) पाँचव श्रीधर वे है जिन्होंने श्रुतावतारकी छउ सुउ संपुरण हुग्रहु जह, ममुदपालु मत्तमउभाउ तह। रचना की है। य श्रीधर कब हुए और उनकी गुरु अहमु सुर ण्यपाल समामिउ,विराणाइय गुगागाह विहसिय परम्परा क्या है ? यह सब विचारणीय है । इस पदमही पियणामेण सलकवणु,लक्वण कलिय सरीरवियकवण श्रुतावतारके वणनाम कितनी ही ऐतिहासिक टियाँ ताह कुमार गामण तणुमहु, जायउ मुह पह पहम सरीरुह। पाई जाती है जो अनुसन्धानपरम ठीक नहीं उतरती। विण्य बिहमण भूमिट गत्तर,महियाल मय मिच्छत्त-परिचत्तर यह ग्रन्थ माणिकचन्द ग्रन्थमालाक अन्तर्गत सिद्धान्तघत्ता-णाण अवरु बीयउ पक युमरहा हय वर गहिणि। सारादिसंग्रह प्रकाशित होचुका है। पउमा भगिया मुअणहिं गणिय जिणमययर गहिगि ॥१६
(६) छठवें श्रीधर वे है जिन्होंने अपभ्रंशभापामें तहे पाल्हणु णामण पायउ, पढम्पत्त णं व्मयण सत्तवर। वधमानकाव्यकी रचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थमें कवि बीय उमाल्हणु जो जिणु पुजइ, जमु रुवेण ण मगाहरू पुजइ।
ने जैनियोंके अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरका
न तइयउ बले भरिण वि जाणिजइ, बंधव सयहिं सम्माणिजह । पुष्करगयो प्राचार्य श्रीसहस्रकीर्तिदेवास्तप्रदं प्राचार्य श्री तुरियउ जायउ सूपहु णाम, णावह गियर दरसिउ कामें। गुणकीतिदेवास्तच्छिण्य श्री यशःकातिदेवास्तन निजज्ञाना
सुकुमाल चरित प्रशस्ति वरगीकर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदान पंचमीकथा लिखापितं ।" २"संवत् १४८६ वर्षे आपाट बदि ७ गुरु दिने गोपाचलदुर्ग (यह लेखक पुष्पिका नया मन्दिर धर्मपुरा देहलीके राजा इंगर मीह राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघ माथुरान्वये शास्त्रभंडारकी जीर्ग प्रतिकी है।)
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४६६
अनेकान्त
जीवन परिचय दिया है । यह ग्रन्थ दस सन्धियोंमें समाप्त हुआ है । यह ग्रन्थ टोडा-दूची (जयपुर) के शास्त्र भण्डारमें मौजूद हैं | इसकी रचना जैसवालवंशी साहु नेमिचन्द्रकी प्रेरणा से हुई है । नेमिचन्द्रके पिताका नाम ' नरवर' और माताका नाम 'सोमा' देवी था । ग्रन्थके निम्न उल्लेख से मालूम होता है कि कवि श्रीधरने वर्धमानकाव्य से पूर्व दो ग्रन्थ और अपभ्रंश भाषा में बनाये थे - चन्द्रप्रभचरित और शान्तिनाथचरित' । इन ग्रन्थोंके अन्वेषण करने की आवश्यकता है । ग्रन्थ अन्तिम ७ पत्र नहीं मिलने के कारण ग्रन्थका रचनाकाल मालूम नहीं हो सका ।
(७) सातवें श्रीधर वे हैं, जिन्होंने अपभ्रंश भाषा में भविष्यदत्त पञ्चमी कथाकी रचना की है । यह ग्रन्थ चन्द्रवाडनगर में स्थित माहुर ( माथुर )
रत्नकरण्डक - टीकाकार प्रभाचन्द्रका समय
( लेखक - न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोटिया)
स्वामी समन्तभद्र विरचित रत्नकरण्डकश्रावकावारपर एक संस्कृत टीका पाई जाती है जो माणिक चन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बई से श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार की महत्वपूर्ण प्रस्तावना एवं 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहासके साथ प्रकट भी हो चुकी है । इस टीका में उसके कर्ताने अपना नाम प्रभाचन्द्र व प्रभेन्दु दिया है । अतः यह टीका आमतौरपर १ जिह विरइउ चरिउ दुहोहवारि, संसारुब्भव संतावहारि । चंदप्पह संति जिसराह, भव्वयण-सरोज-दियेसराह । तिवइ विरयहि वीर हो जिग्गासु, समण्या दिट्ठकं चतिगामु
- वर्धमान चरित २ 'रत्नकरण्डक-विषमपद व्याख्यान' नामका एक संस्कृतटिप्पण भी इस ग्रन्थपर उपलब्ध होता है जो चाराके जैन सिद्धान्त भवनमें मौजूद है ।
[ वर्ष
C
कुलीन और नारायणके पुत्र सुपट्टसाहुकी प्रेरणा से बनवाया गया है । इनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम वासुदेव था' । प्रस्तुत ग्रन्थ उक्त साहुनारायणकी धर्मपत्नी 'रूपिणी' के नामाङ्कित किया गया है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५३० है अर्थात् १६वीं शताब्दी के पूर्वाधमें बना है । अतः ये श्रीधर सबसे बादके विद्वान मालूम होते हैं । इन्होंने और किन ग्रन्थोंकी रचना की यह कुछ मालूम नहीं होता, बहुत सम्भव है कि नं० ६ और ७ के विद्वान् श्रीधर एक ही हों; इस विषय में अनुसन्धान होने की जरूरत है ।
इस प्रकार श्रीधर नामके सात विद्वानोंका यह संक्षिप्त परिचय है । आशा है अन्वेषक विद्वान् इनके सम्बन्ध में विशेष बातोंको प्रकाशमें लायेंगे । वीर सेवामन्दिर,
ता० १८१०४७
प्रभाचन्द्र कर्तृ के तो मानी जाती है; परन्तु प्रभाचन्द्र नामके धारक अनेक विद्वान हुए हैं और इस लिये विचारणीय है कि यह किन प्रभाचन्द्रकृत हैं और उनका समय क्या है ?
इस सम्बन्ध में मुख्तार साहबने अपनी उक्त ग्रन्थकी प्रस्तावना ( पृ० ५३- ८२ ) में यह विचार प्रकट किया था कि यह टीका प्रमेयकमलमात्तण्ड आदि प्रसिद्ध तर्क-ग्रन्थोंके कर्ताकी कृति मालूम नहीं होती, १सिरिचंदवारण्यरद्विरण, जिग्धम्मक रण्डक्कट्टिए । माहुरकुलनयगतमीहरे, विबुध्यसुयण मण्धहरे णारायणदेहसमुब्भवेणु, मण्यकारिदियभवेण । सिरिवामुएवगुरुभायरेण भवजलगि हिणिवडणकायरेश् णीसेंसबलक्ग्वगुग्णालए,
मइवर सुपट्टणामालए। - भविष्यदत्त पंचमी कथा
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किरण १२ ]
रत्नकरण्डक-टीकाकर प्रभाचंद्रका समय
४६७
किन्तु पं० आशाधरजीकी सागारधर्मामृत-टीकाके, और आप्तमीमांसाके एक कर्तृत्व-विषयक अपने लेख जिसका रचनाकाल उसमें वि० सं० १२९६ दिया में 'रत्नकरण्डक-टीकाके कतृत्वपर सन्देह और हुआ है, बादकी जान पड़ती है और वह रत्नकीर्तिक भ्रान्त उल्लेख' उपशीर्पकके नीचे स्पष्ट करके पट्टशिष्य प्रभाचन्द्रकी बनाई हुई होसकती है, जिनका बतलाया है । पटारोहण-समय पट्टावलीम वि० सं० १३१० दिया यदापि अब इम विषयमें दूसरे किसी विद्वान्का है और इस लिये रत्नकरण्डक-टीकाकार प्रभाचन्द्र- कोई खास मतभेद मालूम नहीं होता, फिर भी हम का समय विक्रमकी १३वीं शताब्दीसे पूर्व नहीं है। ,
___ यहाँपर कुछ ऐसे साधक प्रमाण उपस्थित करते हैं परन्त यह विचार उनका उस समयका था जबकि जिनसे यह विषय और भी स्पष्ट होजाता है अर्थात् आमतौरपर भगवजिनसेनाचायके आदिपुराणमें
रत्नकरण्डकी हय टीका प्रमेयकमलमार्तण्डकारकी ही उल्लिखित 'चन्द्रोदय' के कर्ता प्रभाचन्द्रको ही
हा कृति प्रसिद्ध होती है और उसपरसे उसका समय 'न्यायकुमुदचन्द्रोदय' अथवा 'न्यायकुमुदचन्द्र'का
भी निश्चित होजाता है:कर्ता समझा जाता था। बादको न्यायकुमुदचन्द्र'के प्रकाशित होनेपर जब उसकी प्रस्तावना-द्वारा नये १ ताकिक प्रभाचन्द्राचायने अपना प्रमेयकमलप्रमाण प्रकाशमें आए तथा मेरे द्वारा यह बात भी मात्तण्ड धारानरेश भाजदेव (वि० सं० १०७५मुख्तार साहबको सुझाई गई कि रत्नकरण्डक- १५१०) के राज्यकालम बनाया हे और न्यायकुमुदकी यह टीका वि० सं० १३००में निर्मित हई अनगार- चन्द्र आदि ग्रन्थ भोजदेवके उत्तराधिकारी जयसिंह धामृतकी टीकाकं अवसरपर ही नहीं किन्तु संवत नरेश (वि० सं० १११२) के राज्यसमयमें रचे हैं। ५२९६में रची जाने वाली सागारधर्मामतकी टीका जैसाकि उनकी प्रशस्तियोंम दिये गये निम्न समाप्तिसमय भी पं० आशाधरजीके सामने मौजूद थी; पुप्पिका-वाक्योंस सिद्ध हैक्योंकि पण्डित आशाधरने सागारधर्मामृत-टीका 'श्रीभाजदेवराज्य श्रीमद्धारानिवासिना परापरपर (पृ० १३७) में रत्नकरण्डक 'विषय-विपतोऽनुपेक्षा' मेष्टिपदप्रण.माजितामलपुण्यनिराकृत-निखिलमलकनामक पद्यका उद्धृत करके उसके उम समस्त पद- लईन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितन निखिल-प्रमाण-प्रमेयव्याख्यानको भी थोड़ेस शब्द-भंदके साथ प्रायः ज्यों- स्वरूपोद्यातपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति ।' का त्या उद्धृत किया है जो इस टीकाम उक्त पद्यक
-पृ०६९४ (प्र० मा० द्वि० श्रा०)। व्याख्यानाऽवसरपर प्रभाचन्द्र के द्वारा उपस्थित किया
'इति श्रीजयसिंह देवराज्यं श्रीमद्धारानिवासिना गया है, तब उन्हें अपनी पुरानी मान्यताका
परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामल पुण्यनिराकृनिखिलआग्रह नहीं रहा । अतः मुख्नार साहबकी उन युक्तियोंको यहाँ देकर उनपर विचार करनेकी जरूरत
मलकलङ्घन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन न्यायकुमुदचन्द्रो
लघीयन्त्रयालङ्कारः कृत इति मङ्गलम ।'-न्यायकुमुदनहीं रहती, जिनके आधारसे उन्होंने अपना उक्त
चन्द्र द्वि० भा० पृ०८८० विचार प्रस्तुत किया था। श्रीमान पं० नाथूरामजी प्रेमी पहले ही इस बात
ठीक इसी तरह (न्यायकुमुदचन्द्र जैसा) गद्यकथाको मान चुके हैं कि रत्नकरण्डकी यह टीका उन्हीं
कोशमं भी ८९वीं कथाकं बाद समाग्नि-पुष्पिका-वाक्य प्रभाचन्द्रकी कृति है जो प्रमंयकमलमार्तण्ड और पाया जाता है । यथान्यायकुमुदचन्द्रादिके कर्ता हैं । न्यायाचार्य पण्डित श्रीजयसिंहदेवराज्य श्रीमद्धारानिवासिना परापरमहेन्द्रकुमारजीकी भी यही मान्यता है, जैसाकि हमने परमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृनिखिलमलअनेकान्तकी गत किरणके पृष्ठ ४२२ पर रत्नकरण्ड कलङ्गेन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेनाराधनासत्कथा
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४६८
अनेकान्त
[ वर्ष ८
प्रबन्धः ' कृत इति ।'
एक स्थलको नीचे देते हैंइन समान समाप्ति-पुष्पिकावाक्योंसे सिद्ध होता 'धन्वन्तरि-विश्वानुलोमो स्वकृतकर्मवशात् अमितहै कि ये तीनों ग्रन्थ धारा-निवासी श्रीप्रभाचन्द्र प्रभ-विद्यत्प्रभी देवौ सञ्जातौ । तो चान्योन्यस्य धर्मपण्डितकी रचना हैं जो धारामें भोजदेव और परीक्षणार्थमत्रायातौ । ततो यमदग्निस्ताभ्यां तपसजयसिंह देवके राज्यसमयमें हुए हैं। गद्यकथाकोशकी श्चालितः । मगधदेशे राजगृहनगरे जिनदत्तश्रेष्ठी रचना इन्होंने सर्वसुखावबोधी अत्यन्त सरल पदों- स्वीकृतोपवासः कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ श्मशाने कायोद्वारा की है जिसकी सूचना उन्होंन 'सुकोमलैः सर्व- त्सर्गेण स्थिती दृष्टः । ततो अमितप्रभदेवेनोक्तं दूरे सुखावबोधैः पदैः प्रभाचन्द्रकृतः प्रबन्धः' इत्यादि तिष्ठन्तु मदीया मुनयोऽमुं गृहम्थं ध्यानाच्चालयति । ततो समाप्रिपद्यके द्वारा स्वयं की है।
विद्यत्प्रभदेवेनानकधा कृनोपसर्गाऽपि न चलितो हमारा मत है कि गद्यकथाकोशके रचयिता ध्यानात्ततः प्रभाते मायामुपसंहृत्य प्रशस्य च आकाशप्रभाचन्द्रपण्डितने ही रत्नकरण्डक-टीकाका बनाया गामिनी विद्या दत्ता तवेयं मिट्टा अन्यस्य च नमस्कार है। इसके आधार निम्न हैं:
विधिना सिध्यतीति । -गद्यकथाकोश लि० पत्र १५ (क) गद्यकथाकोश और रत्नकरण्डक दोनोंकी 'धन्वन्तरि विश्वलोमौ सुकृतकर्मवशामितप्रभसाहित्यिक रचना एकसी है। दोनोंके निम्न मङ्गला- विद्यत्प्रभदेवी साता चान्योन्यम्य धर्मपरीक्षणार्थचरणपद्योंकी तुलना कीजिये
मत्रायातौ । ततो यमदग्निम्ताभ्यां तपसश्चालितः । मगधप्रणम्य मोक्षप्रदमस्त-दापं प्रकृष्ट-पुण्य-प्रभवं जिनेन्द्रम। देशे राजगृहनगरे जिनदत्तश्रेष्ठी कृतोपवासः कृष्णवक्ष्येऽत्र भव्य-प्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सकथाप्रबंधम।। चतुर्दश्यां रात्रौ श्मशान कायोत्सर्गेण स्थितो दृष्टः।
-गद्यकथाकोश लि० पत्र १ ततोऽमितप्रभवनोक्तं दूरे तिष्ठन्तु मदीया मुनयाऽमु समन्तभद्रं निखिलात्म-बोधनं,
गृहस्थं ध्यानाचालयति । ततो विद्युत्पभदवेनानकधा जिनं प्रणम्याखिल-कर्म-शोधनम् । कृतोपसर्गाऽपि न लिता ध्यानात । ततः प्रभात निबन्धनं रत्नकरण्डे परं,
मायामुपसंहृत्य प्रशम्य चाकाशगामिनी विद्या दत्ता। करोमि भव्य-प्रतिबोधना-करम ॥शा तस्मै कथितं च तवयं सिद्धाऽन्यस्य च पश्चनमस्कारा
-रत्नकरण्ड-टीका पृ०१ चनाराधनविधिना सेत्स्यतीति । - रत्नक.-टीका पृ०१३ (ख) गद्यकथाकोशमें अञ्जनचोर आदिकी जो २ टीका पृष्ट ५-६में आप्पलक्षणके प्रसङ्गमें केवलीकथाएँ दी गई है वे प्राय: शब्दशः रत्नकरण्डक-टीका कवलाहार-मान्यताका संक्षेपमें युक्तिपुरस्सर निराकरण में भी उसी प्रकार पाई जाती हैं। नमूनेके तौरपर किया गया है और सूचना दी गई है कि विस्तारसे १ इस ग्रन्थका प्रभाचन्द्रोक्त शुद्ध नाम 'याराधना-सत्कथा- प्रमेयकमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें प्ररूपण प्रबन्ध' प्रतीत होता है। गद्यकथाकोश नाम तो पीछेसे करनेसे यहाँ इतना ही संक्षिप्त-कथन पयोत है । यथाइसलिये प्रसिद्ध होगया मालूम होता है कि वह गद्य में 'तदलमतिप्रसङ्गन प्रमेयकमलमात्तण्डे न्यायलिखा गया है और उनके बाद ब्रह्मनेमिदत्तने अपना कुमुदचन्द्र प्रपश्चत: प्रा.पणात ।' कथाकोश पद्यामं लिखा है। प्रभाचन्दके कथाकोशले एसा यहाँ यह खास तौरसे ध्यान देने योग्य है कि भी मालूम होता है कि उनके पहले संस्कृत अथवा पाकृत टीकाकारने अपनी इस टीकामें दूसरे विद्वानके एक या दोनोम रचित कोई पद्यमय भी कथाकोश रहा है और भी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं किया। अत: उपयुक्त जिसके पद्योंके प्रतीक-वाक्यांश इसमें देकर कथाए लिखी उल्लेविस प्रतीत होता है कि टीकाकारन अपने ही गई हैं । जो हो, उसकी पूरी जाँच करनेपर ही कुछ पूर्व रचित उक्त ग्रन्थांका निर्देश किया हैं। अर्थात् निश्चितरूपमं कहा जा सकता है। -लेखक। यह टीका प्रमंयकमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रक
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किरण १२ ]
रत्नकरण्डक-टीकाकार प्रभाचंद्रका समय
४६९
रचयिताकी कृति है। इसी प्रकारके उल्लेग्व समाधि- आहारिणः इत्यभ्युपगमात्-पृ० ८५६)। द्वितीय तन्त्रकी टीका और शब्दाम्भोजभास्करमें भी पाये विकल्पे तु त्रिदशादिभिर्व्यभिचारः तेषां कवलाहाराजाते हैं। जिन्हें न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने भावेऽपि देहस्थितिसंभवात।' –न्यायकु० पृ० ८५७ प्रमेयकमलमात्तण्डकारकी ही कृतियाँ सिद्ध की तथा हि। भगवतो देहस्थितिराहारपविका देहहै । इमसे भी यह टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड कारकी स्थितित्वात अस्मदादिदेहस्थितिवत् । जैनेनोच्यतेज्ञात होती है।
अत्र किमाहारमात्रं साध्यते कवलाहारो वा ? प्रथम३ टीकामें यत्र तत्र शैली और तकका प्रायः उसी पक्षे सिद्धमाधनता आसयोगकलिन आहारिणो प्रकारसे आश्रय लिया गया है जिस प्रकार प्रमेय- जीवा इत्यागमाभ्युपगमात् । द्वितीयपक्षे तु देवदेहकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदमें दृष्टिगोचर होता है। स्थित्या व्यभिचारः । देवानां सर्वदा कवलाहाराअन्तर सिर्फ इतना ही है कि वे दोनों यहाँ ग्रन्थानुरूप भावेऽपि अस्याः संभवात् ।'-रत्नकरण्डटीका पृ०५ और अतिसंक्षिप है। नमुनके तौरपर दोनांक तीन इन अवतरणोंसे जाना जाता है कि यह टीका प्रमेयउद्धरण नीचे दिये जाते
कमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके र यता प्रभा(क) अविघ्नेन शास्त्रपरिसमाप्त्यदिकं हि फल- चन्दाचार्यकी बनाई हुई है-रत्नकीर्तिके पट्टशिष्य मुद्दिश्यष्टदेवतानमस्कारं कुर्वाणाः शाप्रकृतः शास्त्रादी प्रभाचन्दकी, जिनका समय वि० की १३वीं, १४वीं प्रतीयन्ते ।
-प्रमेयः पृ०७ शताब्दी बतलाया जाता है, बनाई हुई नहीं है। यह निविघ्ननः शाम्रपरिसमाप्त्यादिक फलमभिलष- स्मरण रहे कि रत्नकीर्तिके पट्टशिष्य प्रभाचन्द्रका निष्टदेवताविशेष नमस्कुर्वन्नाह ।'- रत्नकरण्डटी. पृ२ पूर्वाल्लिम्वित पट्टारोहणसमय (वि०म० १३१० )
(ख) 'नन व्याप्तिप्रतीत्यर्थ तकलक्षणप्रमाणाभ्यु- अभ्रान्त नहीं मालूम होता; क्योंकि इन प्रभाचन्द्रके पगमोऽनुपपन्नः, प्रत्यक्षतोऽनुमानता वा तस्याः प्रतीति- एक शिष्य ब्रह्मनाथूरामने वि० सं० १४१६में सिद्धेः इत्याशङ्का निराकुर्वन्नाह ।' --न्यायकु. पृ. ४२६ 'आराधनापञ्जिका' की लिपि कराई थी' और इमसे ननु सम्यग्दर्शनस्याष्टभिरङ्गः प्रपितैः किं प्रयो
इन प्रभाचन्द्रका समय १४वीं शताब्दीका उत्तराध जनम् ?, तद्विकलस्याप्यस्य समारोच्छेदनसामर्थ्य
ज्ञात होता है। और इसं लिये पं० आशाधरजीकी मंभवात, इत्याशंक्याह ।' - रत्नकरण्डटीका पृ० २४
सागारधर्मामृतटीका (वि० सं० १२९६)से बहुत पूर्व (ग) 'तथा हि-"भगवती देहस्थिति: आहार
रची गई इस रत्नकरण्डक-टीकाके र यता ये प्रभापृविका देहस्तित्वात् अम्मदादि दहस्थितिवत"
चन्द्र कदापि सम्भव नहीं हैं। इत्यत्र प्रयोगे किम् आहारमात्रपूर्वकत्व तत्स्थित:
४ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने 'प्रवचनमारप्रमाध्येत, कवलाहारपूर्वकत्वं वा ? प्रथमपक्षे 'सिद्ध
सरोजभास्कर' को भी प्रमेयकमलमात्तण्डकारकी ही साध्यता' इत्युक्तम् (आ सयोगकेलिनो जीवा
रचना सिद्ध किया है । इस ग्रन्थकी और रत्नकरण्ड१ वे उल्लेख ये है:
टीकाकी प्रारम्भिक उत्थानिकाएँ समाधितन्त्रटीकाकी 'यैः पुनर्योगमाख्येमुक्ती तत्पच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता तरह बिल्कुल एकसी है । यथाते प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र च मोक्षविचारे
'श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः मकललोकोपकारकं मोक्षविस्तरतः प्रत्याख्याताः।' –समाधितंत्रटीका पृ० १५
मार्गमध्ययनरुचिविनेयाशयवशेनोपदर्शयितुकामो नि'तदात्मकत्वञ्च र्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा
विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलपन्निष्टसिद्धयति तथा पमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रं च परूपितमिह दृष्टव्यम् ।' -शब्दाम्भोजभास्कर १ देखो, जैन साहित्य और इतिहास पृ० ३२। २ देखो न्यायकुमुद नि० भा० की प्रस्तावना ।
२ देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० पस्तावना पृ० ६३-६४ ।
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४०७
अनेकान्त
वर्ष
]
देवताविशेष शास्त्रस्यादौ नमस्कुवन्नाह ।'
इन प्रमाणोंसे यही सिद्ध होता है कि यह टीका -प्रवचनसारसगेजभास्कर। प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि प्रसिद्ध ग्रन्थोंके कर्ता 'श्रीसमन्तभद्रस्वामी, रत्नाना रक्षणापायभूतरत्र- प्रभाचन्द्राचार्यकी बनाई हुई है और जिनका समय करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिग्नाना पालनोपायभूतं वि० सं० १८६७ से वि० सं० ११३७ (ई० सन १०१० रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्नकामो निविघ्नतः से १०८०) है।। शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेष नमस्कुर्वन्नाह ।' -रत्नकरण्ड-टीका पृ० १। वीरसेवामन्दिर, १९-१०-४७
सम्पादकीय बक्तव्य
१ अनेकान्तकी वर्ष-समाप्ति
जाती हैं और लच्छेदार बातोंमें ग्राहक बनाये जाते इस किरणकं माथ अनकान्तका आठवाँ वर्ष हैं पर सालमें ४-६ अङ्क देकर चन्दा खतम कर दिया समाप्त होरहा है। इस वर्ष अनेकान्तने पाठकोंकी जाता है ।" दूसरे एक विद्यार्थी महाशय यहांतक कितनी संवा की, कितने महत्वके लेख प्रस्तुत किये. कुपित हुए कि वे सम्पादक या प्रकाशकको कोसनके कितनी नई खोजें सामने रक्खी. क्या कळ विचार- बजाए सारे जेनसमाजको ही कोसने लगे और जाति उत्पन्न की और समाजके राग-द्रपस कितना आवशम आकर लिख गये-"ऐसी जैनसमाज, जा अलग रहकर यह ठोस सेवा-कार्य करता रहा, इन एक ऐसे उच्चकोटि के पत्रका प्रबन्ध नहीं कर सकती, सब बातोंको बतलानकी यहाँ जरूरत नहीं-नित्यकं याद वह संसारसे नष्ट होजाय, तो अच्छा है।" पाठक उनसे भलीभाँति परिचित हैं और जो परिचित
औरत और कुछने प्रबन्धादिकी भमना-द्वारा अन्य प्रकारसे न हों वे वापिक विषय-सूची आदिको देखकर उसका ही अपना रोष व्यक्त किया। ग्राहकोंका यह रोष कितना ही आभाम प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु म यद्यपि मुझे बुरा नहीं लगा, मैंने उसे अपने लिये एक यह प्रकट करते हुए खेद ज़रूर होता है कि इस वर्ष प्रकारकी चेतावनी समझा और साथ ही यह भी का कार्यकाल लम्बा अधिक होगया है-उसने १२ समझा कि पाठकका अनकान्तका समयपर न स्थानपर ४ मासका ममय ले लिया है और यह निकलना कितना अखर रहा है और वे उसके लिये अनेकान्तक इतिहाममें पहला ही अवसर है जब वर्ष कितने आतुर होरहे हैं । परन्तु फिर भी मैं का श्रारम्भ होजानेपर उमकी समाप्तिमें इतना समय मजबूर था। लगा हो । इस वर्षकी अनेक किरणोंक प्रकाशित मैंने पिछले वर्षके अन्तमें अपनी स्थिति और होनेमें प्रेस और काग़जकी गड़बड़ीके कारण जो असा- प्रसक कारण हानवाली अपनी परेशानीका स्पष्ट कर धारण विलम्ब हुआ उसकी वजहम पाठकों को भारी दिया था। मैं नहीं चाहता था कि प्रेसकी समुचित प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाना पड़ा है और यही मेरे लिये व्यवस्था हुए बिना पत्रको अगले सालके लिये जाग खेदका विषय है। प्रतीक्षा करते करते कुछ पाठकांक रक्खा जाय, और इम लिये वैसी व्यवस्थाके अभावतो धैर्यका बांध ही टूट गया और वे आक्षेपकी भाषा १देग्यो, हाल में लिखा गया 'श्रा० माणिक्यनन्दिके समयपर म यद्वा तद्वा जो जीमें आया लिख गये। एक अभिनव प्रकाश' नामका मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ८ मजनने लिखा--'साल शुरू होनपर नई स्कीमें रखी कि०८-६ ।
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किरण १२ ]
सम्पादकीय वक्तव्य
४७१
में मुझे पत्रका बन्द कर देना तक इष्ट था। परन्तु चार्य, पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य, प० कैलाशचन्द्र
जनों तथा मित्रोंका अनुरोध हा कि पत्रको जी शास्त्री, प० परमानन्द जी शास्त्री, प्रो० हीरालाल बन्द न करके बराबर जारी रखना चाहिये और जी एम० ए०, बाबू ज्योतिप्रसादजी एम० ए०, उधर श्रीवास्तव प्रेमकी ओरसे यह आश्वासन मिला श्रीकस्तूरसावजी बी.ए., डा.ए.एन. उपाध्याय एम.ए., कि 'अब हम जितने फार्मोंका कोई अङ्क होगा उसे श्री अगरचंदजी नाहटा, श्री भंवरलालजी नाहटा, उससे दगने अथवा अधिकसे अधिक ढाई गने दिनों आचाय बलदेवजी उपाध्याय एम० ए०, बाबू राजमें छापकर जरूर दे दिया करेंगे। इसी अनुगंध तथा कुमारजी, बाबू पन्नालालजी अग्रवाल, पं० बालचंद आश्वासनके बलपर आठवें वर्षका प्रारम्भ किया जी बी० एक, पं० के० भुजबलीजी शास्त्री, बाबू दशगया था । आठवें वर्षका प्रारम्भ करते हुए रथलाल जी कौशल, श्रीप्रफुल्लकुमारजी मादी एम. ए., कोई लच्छेदार बातें नहीं बनाई गई, न ऐसी बातोंके श्रीदौलतरामजी 'मित्र', पं० काशीरामजी शर्मा, द्वारा ग्राहक बनाने का कोई यत्न ही किया गया और पं० इन्द्रजीतजी, पं० रतनचंदजी मुख्तार, पण्डित न ऐसा कभी हुआ है कि ४-६ अङ्क निकालकर ही अजितकुमारजी शास्त्री, बाबू जयभगवानजी बी. ए., चन्दा खतम कर दिया गया हो। हमेशा यह ध्यान वकील और साहित्याचाय पं० राजकुमारजीकं नाम रक्खा जाता है कि ग्राहक मैटरकी दृष्टिस टोटमें न खासतौरसे उल्लेखनीय हैं। आशा है भविष्यम रहे और मैटर भी प्रायः स्थायी महत्वका होता है- अनकान्तको और भी मुलेखोंका सहयोग प्राप्त होगा सायिक समाचारों श्रादिक कपमं अस्थायी नहीं. और सभीक सहयागसे यह पत्र ऊँचा उठकर लाकजो पढ़कर फेंक दिया जाय अथवा विलम्बसे पहुँचने हितकी साधना-द्वारा अपने ध्येयको पूरा करने के कारण फीका, बासी या श्री-हीन होजाय। चुनांचे समथ होसकेगा। पिछले वर्षम मरकारी प्रतिबन्धोंके कारण यदि २२८ अब मैं उन सजनोंका भी खासतौरस अाभार पृष्ठका और उससे पहले छठे वर्षमें, जब कोई खाम प्रकट करता हूं और उन्हें धन्यवाद देता हूं जिन्हान प्रतिबन्ध नहीं था, ३८६ पृष्ठका मैटर ग्राहकोंका दिया इस वर्ष समय समयपर अनेकान्तको आर्थिक महागया तब इस वर्ष वह ४७२ पृष्टका दिया गया है यता भेजी तथा भिजवाई है और जिनके नाम और मैटर भी पहले के ममान उपयोगी तथा स्थायी अनेकान्तमें प्रकट होत रहे हैं। उनमें बाब नन्दलालजी महत्वका रहा है । साथ 1, मूल्य भा वहा गत वर्षों जैन कलकत्ता और उनक पुत्र बाबू शान्तिनाथजी वाला ४) का ही रहने दिया गया है; जबकि कागज तथा बाबू निमलकुमारजी, रायबहादुर हुलामरायजी
और छपाइकी मंहगाइक कारण प्रायः सभी पत्रांका सहारनपुर, बाबू नेमचंद बालचंदजी उस्मानाबाद, मूल्य बढ़ गया अथवा आकार घट गया है । इमसे संठ गुलाबचंदजी टोंग्या इंदौर, श्रीमंत सेठ लक्ष्मीस्पष्ट है कि मैटरकी दृष्टिसे इम वपके ग्राहक जरा भी चदजी भिलसा, ला० रुड़ामलजी शामियाने वाले घाटेमें नहीं रहे बल्कि पिछले वर्षों की अपेक्षा लाभ सहारनपुर, ला० उदयराम जिनश्वरदासजी सहारनमें ही अधिक रहे हैं । अस्तु ।।
पुर, ला० फेमल चतरसेनजी, मालिक वीरस्वदेशी वर्षकी समाप्तिक इस अवसरपर मैं अपने उन भण्डार सरधना और ला० प्रकाशचंदजी नानौताके विद्वान् बन्धुओंका धन्यवाद किये बिना नहीं रह नाम विशेष उल्लेखनीय है । सकता जिन्होंने अपने अच्छे अच्छे लेखों द्वारा इस इस वर्पके सम्पादन-कार्यमें मुझसे जो कोई भूलें पत्रकी सेवा की है और इसे उन्नत, उपादय तथा हुई हो अथवा सम्पादकीय कर्तव्यके अनुरोधवश स्मरणीय बनानमें मेरा हाथ बटाया है। उन सज्जनों किये गये मेरे किसी कार्य-व्यवहारसे या स्वतंत्र लेखमें मुनिकान्तिसागरजी, पं० वंशीधरजी व्याकरणा- से किमी भाईको कुछ चा हो तो उसके लिये
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
मैं हृदयसे क्षमा-प्रार्थी हूं; क्योंकि मेरा लक्ष्य जानबूझ के अधिकारी नहीं होंगे । इममें सन्देह नहीं कि शास्त्री कर किसीको भी व्यर्थ कष्ट पहुँचानेका नहीं रहा है जी समाजके एक कर्मठ विद्वान हैं, उसके पुराने सेवकोंमें
और न सम्पादकीय कर्तव्यसे उपेक्षा धारणा करना से हैं और उनके हृदयमें भी समाज-सेवाकी अपनीही मुझे कभी इष्ट रहा है।
जैसी ही लगन है। वे पहले कई पत्रोंको समयपर
निकालते भी आये हैं। अतः आशा है कि वे अपने प्रण २ अनेकान्तका अगला वर्ष
को जरूर पूरा करेंगे। उनके इस आश्वासनके बलपर __ श्रीवास्तव-प्रेसके आश्वासन-भङ्ग और गैरजिम्मे- ही पत्रको अगले वर्षकं लिये चालू रखा गया है । दाराना रवैये आदिके कारण जब अन्तको मई मासके अगला वर्ष जनवरी सन् १९४८ के मध्यसे प्रारम्भ शुरूमें रॉयल प्रेसकी शरण लेनी पड़ी तब यह निश्चित होगा। वाषिक चन्दा अगले वर्षसे.५) रु० रहेगा, हुआ था कि अनेकान्त के इस वर्षकी अवशिष्ट पाँच वतमान महंगाई और प्रसोंके बढ़ते हुए चाजको किरणोंको तीन महीनेमें निकाल दिया जावेगा, देखते हुए यह मूल्य भी कम ही है और इससे पत्रका परन्तु कुछ परिस्थितियांवश वैसा नहीं होसका और पूगखर्च नहीं निकल सकता; फिर भी चूंकि अपनी दृष्टिइसलिये इन किरणों के प्रकाशनमें तीनकी जगह आठ आर्थिक न होकर समाज-सेवाकी है इसीसे अपेक्षामहीनेका समय लग गया । इससे मेरा दिल टूट कृत कम मूल्य रक्खा जाता है। इस किरणके मिलते गया और मैं प्रेमसे आगेके लिये यथेष्ट आश्वासन न ही प्रेमी पाठकोंको अपना ५)रु.चन्दा मनीऑर्डरसे भे मिलनेके कारण इस पत्रको बन्द करना ही चाहता देना चाहिय, जिमसे अगली किरण प्रकाशित होते था कि प०अजितकुमारजी शास्त्रीने, जो हालमें अपना ही उनके पास ठीक समयपर पहुँच जाय–वी० पी० 'अकलङ्क प्रेस' मुलतानसे सहारनपुर ले आये हैं, से भेजनेमें अधिक समय लगता है। अगले वर्षसे मुझे वैमा करनेसे रोका और दृढताकं साथ यह पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य सहायक सम्पादकके श्रावामन दिया कि हम अनकान्तको अपना ही पत्र रूपमें काय करगे, इससे पाठकांका और भी कितनी ममझकर उस समयपर निकालेंगे, ममयपर निकालने ही बातोंका लाभ रहेगा। अगले वर्ष इस पत्रको कलिय जरूरत पड़नपर अन्य सबकार्योंको गौण कर देंगे सर्वसाधारणकी दृष्टि से भी अधिक लोकोपय गी और यदि समयपर न दे सकेंगे तो नियत चार्ज पाने बनानेका आयोजन हो रहा है।
बाबू छोटेलालजी कलकत्ताकी सहायता और मेरी कृतज्ञता
मेरी धर्मपत्नी तो बीमार चल ही रही थी, किन्तु जुलाईक अन्तम मैं भी महसा बीमार होगया और करीब तीन सप्ताह सख्त बीमार रहा । मेरी यह बीमारी टाइफाइडके ममान बड़ा भयङ्कर थी और मुझे अपने बचनेकी बहुत कम आशा रही थी; किन्तु मुख्तार साहबकी सद्भावना तथा मित्रवर पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाच.र्यकी समवेदना, सेवा और दवाई आदिकी व्यवस्थाने मुझं स्वस्थ्य कर दिया । इस स्वस्थ्यतामें मुझे जिनकी अधिक कृतज्ञता प्रकट करनी है वे हैं श्रीमान बाबू छोट जालजी रइस, कलकत्ता । आपने कोठियाजीक पत्र द्वारा मेरी और मेरी धर्मपत्नीकी बीमारी सम्बन्धी संकेत पाते हो मेरे इलाजके वास्ते हार्दिक महानुभूतिको लिये हुए दोसौ रुपयकी आर्थिक सहायता भेजी और बड़ी चिन्ता प्रकट की । मै बाबू साहबकी इस महानुभूतिपूर्ण उदारनाके लिये बहुत ही आभारी और कृतज्ञ हूँ। श्रीमान् प० कैलाशचन्दजी शास्त्री, बनारस आदिने भी मेरी बीमारीपर चिन्ता और सहानुभूति प्रकट की । मैं उनका और कोठियाजीका भी आभारी हूँ । यदि इन सबकी सहायता न मिलती तो शायद इतनी जल्दी पूर्ण स्वस्थ्य न हो पाता।
-परमानन्द जैन
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(लेखक- स्वर्गीय श्री भगवत' जैन)
त्राचार्य धरसेनने गम्भीर स्वरमें कहा- और यह देख उनका मन आनन्दसे भर गया।
" 'जानते हो, किस लिए बुलाया है अपनी कामनाके अनुकूल वस्तु पाकर कौन खुश तुम दोनोंको ?'
नहीं होता ? विनयसे झुकते हुए दोनों मुनियोंने एक स्वरमें कई दिन आचार्य-चरणोंमें बीत गए दोनोंके । उत्तर दिया-'सिर्फ इतना ही, कि हमें विशेष विद्या- नहीं कहा जा सकता-ज्ञानकोष आचार्यवर्यने क्यालाभ होगा और वीर-शामनकी सेवाकी योग्यता क्या अन्वेषण किया उन दोनोंके गुण-दोषोंका ? प्राप्त होगी।'
___ एक दिन बोले-'एक मन्त्र मैं तम दोनोंको ____ 'ठीक, यही बात है। मंग इच्छा है, मैं अपने देता हूँ। विधि-पूर्वक साधन करो। विद्या जब सिद्ध अन्तिम दिनोंमें किन्हीं योग्य शिष्योंको वह ज्ञान होजाय, तब मुझे आकर कहना-समझे ? साँप जाऊँ, जिसे मैंने परिश्रमसे अपने जीवनमें पुष्पदन्तने कहा- 'जैसी आज्ञा'। मञ्चय किया है, ताकि आने वाले कठोर-युगमें शास्त्र- मन्त्र उन्हें बतला दिया गया-सविधि । ........ ज्ञान-द्वारा वीर-शासन दुनियाका कल्याण कर सके। और उन्हें इजाजत दी, जाने की । वह चले गए। श्रुत-ज्ञानकी रक्षा होसके।'
भूत लकी बारी आई। उन्हें भी मन्त्र दे, विदा किया। पुष्पदन्त और भूतबर्बाल दोनों चुप, सुनतेभर रहे। अकंले आचार्य महाराज बैठे रहे मौन ! शायद फिर वे बोले (इसबार वाणीमें प्रसन्नताकी पुट सोच रहे थे-'बुद्धिवादकी परीक्षामें ये उत्तीर्ण होते थी)-'पर, इस सबके लिए योग्य शिष्योंकी जरूरत हैं, या अनुत्तीर्ण ? निजी पंजी भी कुछ है या रटन्तथी। शेरनीके दूधके लिए स्वर्णपात्रकी आवश्यकता विद्यार्थी बने हुए मार्गपर चलनेके आदी (अभ्यासी) होती ही है, उसके बिना वह दुर्लभ वस्तु ठहर नहीं हैं, या स्वयं अपना मार्ग निर्माण करनेकी भी क्षमता सकती। मैं चिन्तित था, मेरी निगाहमें वैसा कोई है इनके पास... . . . . . . . . . . . ?' शिप्य न था-प्रसन्नतापूर्वक विद्या-विभूति जिसके सुपद की जासकती । अतः तम्हारं ग आचार्य गिरनार-शेल के पावन क्षेत्रमें-भगवान नेमिनाथ महासनसे निवेदन किया गया कि वे अपने साहसी,
की निर्वाण-शिलापर बैठ गए-दोनों मन्त्र-साधनसूक्ष्मबुद्धि, विनम्र और ग्रहण-धारणमं ममर्थन के लिए।
अचल, सुमेरुकी तरह ! ध्यानस्थ !! नि:स्पृह !!! सुशील विद्यार्थी मुझे दें। मुझे प्रसन्नता है कि उन्होंने
नासाग्र-भागपर होष्ट ! एक दुसरेकी दृष्टि तुम्हारे जैसे नम्र और चतुर विद्यार्थी मुझे देकर मेरी
ओभल ! चिन्तास शुन्य ! अपने आपमें तन्मय ! सहायता की है । काश ! तुम्हारे द्वारा मेरी सद्
एकान्त-स्थान ! वैराग्यमय !! इच्छा सफलीभूत हो।'
मन्त्र-साधन जब ममाप्तिकी ओर बढ़ा, तो पुष्पदन्नन अविलम्ब श्रीपदोंमें सिर नवाते हुए कहा- भविष्यपर निर्भर है -गुरुवर्य ! ममयसे पूर्व
पुष्पदन्तकं सामने एक देवी आई-वस्त्राभूषणोंसे
अलंकृत, सुन्दर शरीर! . कुछ कहना अनधिकार चेष्टा होगी।
'पर, यह विकृति क्यों ?'-पुष्पदन्तके मनमें आचार्यने मन्दमुस्कानसे दोनों निम्रन्थ- प्रश्न उठा ! विद्यार्थियोंकी ओर देखा । देखा सचमुच अहङ्कारसे भर-नज़र देखा-देखा कि देवीके एक चक्षु रीते हैं दोनों विनम्रतासे पूर्ण विद्या-पात्र । है-कानी है !
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
सोचने लगे वह-'अचरजकी बात है कि स्वर्ग- किया, तो साधना सफल हुई ! सुन्दराकार देवी वासिनी बदसूरत दिखलाई दे रही है-मुझे ? क्या सामने आई ! देवी कानी हो सकती है ?-कदापि नहीं ! फिर · ? विद्याने दासीत्व स्वीकार किया। तब क्या मन्त्रमें कुछ हीनाधिकता है, अशुद्धि है, विकृति है ?'
' प्राचार्य महाराजकी प्रसन्नता सीमा लाँघ गई___ समाधानके लिए उन्होंने मन्त्रकी जाँच करना जब उन्होंने यह जाना, कि दोनोंने विद्या प्राप्त करली । तय किया ! व्याकरणकी कसौटीपर कसा तो सचमुच वे बोले-'अब मुझे विश्वास होगया, कि तुम एक अक्षर कम था उसमें ! अङ्ग-भङ्ग था वह ! दोनों सचमुच शास्त्रके ग्रहण, धारण और प्रचार
मन्त्र सुधार कर फिर साधन करने लगे। इस द्वारा वीर-शासन-सेवाकी योग्यता रखते हो। तुम बार जो देवी नज़र पड़ी, वह पूर्ण सुन्दरी थी! मेरी परीक्षा उत्तीर्ण हुए हो। और इससे मुझे जो और तभी उन्हें विद्या सिद्ध होगई !
खुशी मिल रही है, उसे प्रकट नहीं किया जा सकता।'
___ दोनोंकी गर्दने सङ्कोचसे झुक गई। दोनों मौन, भूतबलिके साथ भी करीब-करीब वैसी ही घटना निरुत्तर !! घटी, जैसी पुष्पदन्तक साथ ! फर्क सिर्फ इतना ही वे कहते गए- 'मैंने मोचा, असंख्य प्राणियों के रहा कि उन्हें कानी देवीके दर्शन हुए तो इन्हें उसके कल्याणका भार मैं जिनके ऊपर रखना चाहता है, स्थानपर एक दूसरे प्रकारकी बदशक्ल देवीके ! यो, युग-युगों तक जिनका मत्प्रयत्न संसारको मुख और वह देवी रङ्ग-रूपमें बुरी नहीं थी । तमाम शरीर शान्तिका माग बतानेके लिए अग्रमामी रहेगा, उनकी सुन्दर था-उसका ! लेकिन दाँत इतने बड़े थे कि परख होना अत्यन्त आवश्यक है, निहायत ज़रूरी है। अोठोंसे बाहर निकले हुए थे। सारी सुन्दरतापर सच है, कि मैंने कई दिनकं मम्पर्कम तुम्हें बहुत कुछ जिन्होंने पानी फेर दिया था। और वह देवी सचमुच जान लिया था कि तुम क्या हो। लेकिन मागमें भयानक राक्षसी-सी कुरूपा होगई थी। दाँतोंका निर्माणकी कितनी क्षमता रखते हो, गतिशील बुद्धिसौन्दयके साथ कितना गहरा सम्बन्ध है, यह उसकी में कितनी उग्रता है-सूक्ष्मता है, यह रहस्यमय ही शक्लसे साफ प्रकट होरहा था।
बना रहा। इसी सन्देहको मिटानेके लिए तुम दोनों भूतबलि चकराए !
को एक मन्त्र दिया, जिसके अक्षरोंमें कमी-वेशी थी। 'देवी और कुरूपा ? यह कैसे .... ?' बुद्धिने और तुमने उसका संशोधन कर माबित कर दिया, प्रश्न उठाया।
कि हमारे पास केवल रटन्त-विद्या ही नहीं है, ताकिक विवेकन कहा-'नहीं यह नहीं होता। देवियाँ बुद्धि एवं जाँचकी कसौटी भी है। लकीरकं फकीर कुरूप नहीं होती, हाँ बन ज़रूर र
* हैं, वरन् लकीर खींचकर फकीरोंको उसपर विक्रियासे ! फिर ?'
चलानकी ताकत रखते है। ___ 'मालूम होता है-मन्त्रमें कुछ गलती है । नहीं दोनोंने मुँह खोला-किस योग्य हैं हम तो फिर दूसरी वजह क्या हो सकती है, इस अवसर महाराज ? प्रशंसाकं योग्य हैं ये आपके चरण, पर ? शायद कोई नहीं !'
जिनकी शरणमें हम पाए हैं।' भूतबलिकी तीक्ष्ण-बुद्धिने विकृतिकी जड़को पकड़ लिया।
वन्दनीय प्राचार्य धरसेनने कितन:-क्या दिया मन्त्रकी शुद्धता परखी, तो उसे अशुद्ध रूपमें दोनोंको, यह इससे स्पष्ट होजाता है कि सिद्धान्त पाया। एक अक्षर अधिक!
शास्त्रके उद्धारका-आगम सूत्रोंकी रचनाका-प्रधान सुधारा! संशोधन-पूर्वक जब उसका पुनः साधन श्रेय पुष्पदन्त और भूतबलि दोनोंको प्राप्त हुआ है।
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श्रीजुगलकिशोर मुख्तार-सम्पादित
अनेकान्तके आठवें वर्षकी विषय-सूची
विषय और लेखक
पृष्ठ विषय और लेग्वक ? अतिशय क्षेत्र चन्द्रवाड-[पं. परमानन्द शास्त्री ३४५ क्या खाक वसन्त मनाऊँ मैं ?—(कविता)
अदृष्टवाद और होनहार- [श्रीदौलतराम 'मित्र' १९२ [पं. काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' अपभ्रंश भाषाका जैन कथा-साहित्य-[पं० क्या तीर्थकर प्रकृति चौथे भवमें तीर्थकर बनाती परमानन्द जैन शास्त्री
.... २७३ है ? -[बा. रतनचन्द मुख्तार .... अमृतचन्द्रमूरिका ममय [प० परमानन्द शास्त्री १७३ क्या मथुरा जम्बूस्वामीका निर्वाणस्थान है ?अहिमा और मामाहार-[प्रिम्प एक चक्रवर्ती १४८ पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ..... ६५ आचार्य अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनि- खजुराहाके मन्दिरोंसे (कविता)-[श्रीइकबाल
श्चयटीका-[न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल २ बहादुर प्राचार्य माणिक्यनन्दिकं समयपर अभिनव गदर में पूर्वकी लिखी हुई ५३ वर्षकी 'जंतरी
प्रकाश- [न्या. पं. दरबारीलाल जैन ३४९, ३७४ खाम'-[सम्पादक ... .... १० आत्मविश्वास हो सफलताका मल है- गोम्मटमार और नमिचन्द्र-[सम्पादक ३०१ [श्रीअखिलानन्द म्पराम शास्त्री ... १३८ ग्रन्थ और ग्रन्थकार (मृलाचार और कार्तिकेआत्मानुशासनका एक मन्दिग्ध पद्य-
यानुप्रक्षा)-[सम्पादक [श्रीलक्ष्मीनारायण जैन . २५ चारित्र्यका अाधार [श्रीकाका कालेलकर २६३ आधुनिक भाषाओंकी व्युत्पत्तिके लिये जैन चित्तौड़के जैन कीर्तिम्तम्भका निर्माणकाल एवं
माहित्यका महत्व-बा. ज्यातिप्रसाद एम.ए. ०२५ निर्माता-[श्रीअगरचन्द नाहटा .... १३९ श्राधुनिक माहित्यमें प्रगनि क्योंकर हो ?- जमलमके भंडागम प्राप्त कर नवीन ताडपत्रीय [मुनि कांतिसागर
प्रतियाँ-श्रीअगरचन्द भवरलाल नाहटा ४४ आध्यात्मिक पद्य-[कविवर दानतराय १३२ जैन - गुण - दपण (कविता)-[जुगलकिशोर एक ऐतिहासिक अन्तः साम्प्रदायिक निर्णय -- मुख्तार 'युगवीर' ...
[बा. ज्यातिप्रमाद जैन, एम. ए. १६९ जैनधर्मम वणव्यवस्था कर्मम ही है, जन्मस एक प्राचीन ताम्र-शासन-[सम्पादक ८५ ___ नहीं- [पं. इन्द्रजीन जैन, न्यायतीर्थ, शास्त्री २०५ ऐतिहासिक घटनाओंका एक संग्रह[सम्पादक ३६९ जैनवाङमयका प्रथमानुयोग-[बा. ज्योतिकविवर लक्ष्मण और जिनदत्तचरित-[ पं ग प्रमाद जैन, एम. ..
१६६ परमानन्द जैन शास्त्री
४.० जैन मरम्वती [वा. ज्यातिप्रमाद जैन, कविवर बनारसीदाम और उनके ग्रन्थांकी एम. ए., ए.एल. बी.
६१ हस्तलिखित प्रतियाँ-[मुनि कान्तिमागर ४०२ जैनमस्कृतिकी सातत्त्व और पद्व्यव्यवस्थाकायरता घोर पाप है-[श्रीअयोध्याप्रमाद ५७ पर प्रकाश [पं.वशीधर जैन, व्याकरणाचार्य १८० कौनसा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ?--[न्याया- जैनमस्कृति-मशोधन-मण्डलपर अभिप्राय
चार्य पं. दरबारीलाल जैन, कोठिया .... ११५,१६२ [पं० दरबारीलाल जैन
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विषय और लेखक
विपय और लेखक जैन स्थापत्यकी कुछ अद्वितीय विशंपताएं- बचांकी दर्दनाक दशा और प्राकृतिक चिकित्मा. [वा. ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए. .. ३४३ पिं. श्रेयांमकुमार जैन, शास्त्री . १३५ जैनादश (जैनगुगणदर्पण संस्कृत)-['युगीर' ५५ बौद्धाचाय बुद्धचोप और महावीरकालीन जैनजैनियांपर घोर अत्याचार--- [प्रो. हमुल्ट बा. ज्यातिप्रमाद जैन, एम. ए... ..... १०६ ___ ग्लाजेनाप
८० भगवत-शरणम कारगा-[सम्पादक ... ६ जोगिचा--[पं. परमानन्द जैन, शास्त्री ३९८ भगवान महावीर--[प. परमानन्द जैन, शास्त्री ११७ तरह काठिया-[बा. ज्योतिप्रमाद जैन, एम. ए. ३९५ भगवान महावीर और उनका सन्देश--[श्री तरह काठिया - सम्बन्धी श्वे. माहित्य
कस्तरमावजी जैन, वी. ए., बी. टी. १७,२३७ श्रीअगरचन्द नाहटा
भद्रारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना-[सम्पादक २८७ ५:च मृत्रम 'मजद' पदका विरोध क्यों ? - भविष्यवाणी (कविता)-[पं. काशीगम शमा १०८ न्या. पं. दरबारीलाल जैन, काठिया
मनुप्यनीक मंजद' पदक सम्बन्ध विचारणीय त्रिभुवनगिरि व उसके विनाश सम्बन्ध विशेप शेप प्रश्न- [डा. हीरालाल जैन, एम. ए. १६३
प्रकाश [श्रीअगरचन्द नाहटा .. ४५६ महाकवि मिह और प्रद्युम्नचरित- [पं. दक्षिण भारतकं गजवंशीम जैनधर्मका प्रभाव- परमानन्द जैन, शाम्।
[वा. ज्यातिप्रमाद जेन, एम. ए. . ५६ महाकवि हरिचन्द्रका सर - [पं. कैलाशचन्द दिगम्बर जैन आगम-आचार्य बलदेव जैन, शा उपाध्याय एम. p. ...
....
महावीर-उपदशावतार पं. अजितकुमार शास्त्री ११ दिल्ली और दिल्ली की गजावली-[पं. परमानन्द । महाशक्ति (कविता) 'शशि' .... १७२ जैन, शास्त्री
७१ मंग रणथभौर-यात्रा--[श्रीभवरलाल नाहटा ४५४ दहलाक जैनन्दिर और जैन मंस्था-- युग-गीन (कविता)-[पं. काशीराम शर्मा ३६२
चा. पन्नालाल जैन, अग्रवाल .... १७ रक्षावन्धनका प्रारम्न---पं बालचन्द्र बी.ए - देहली धर्मपुरका दि. जैनन्दिर-[वा. रत्नकरगद और आप्रमीमांसाका एक-कतृत्व __पन्नालाल जैन, अग्रवाल
१३३ अभी तक सिद्ध नहीं--[प्रा. हीरालाल जैन धर्म और नाग-[बा. ज्योतिप्रमाद जैन, एम.ए. २६५ एम ए.
२६,८६,१०५ धर्मरत्नाकर और जयसेन नामक आचाय--/ राजकारण्ड और प्राप्तमीमांमाका एक-कतृत्व [प. परमानन्द जेन, शास्त्री
२०० प्रमाणामन्याप. दरबारीलाल जैन. धवला प्रशस्निके गटकट नरंश-[वा. ज्योति
काठिया
१५४, ०८२, ३२८, - १५ प्रसाद जैन, एम. ए., एल-एल. बी. ... ९७ रत्नकरण्डक-टीकाकार प्रभाचन्द्र का समय परख (कहानी)-[स्व. श्रीभगवन जैन
न्या पं. दरबारीलाल जैन ..... ४६६ परमात्मवन्दन-[सम्पादक
रहीम प्राप्त हलिखित जैन-अजैन ग्रन्थपापभार-बहनकी मर्यादा--सिम्पादक ... १८५ मिम्पादक
.... १४९ प्रतिमामारका रचनास्थल [के. भुजबली शास्त्री ३६३ गज गृहकी यात्रा-न्या. पं. दरबारीलाल जैन ५७५ प्राचीन जैनन्दिगंक ध्वंमस निमित मस्जिदें..... गवगा-पार्श्वनाथ-म्नात्र-[सम्पादक ..... ४३७
बा. ज्यातिप्रमाद जैन, एम.ए. ... २७९ वनम्पति घी-[महात्मा गांधी फल (कहानी)- [बा. राजकुमार जैन .... ३२३ वानर-महाद्वीप (मंपादकीय नोट महिन)-[प्रो. बङ्गाल के कुछ प्राचीन जैन स्थल-बा. ज्वालाप्रमाद मिहल ... .... ५४
ज्यानिप्रसाद जैन, एम. ए . ६१ विविध विपय---[ज. पी.
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विषय और लेखक
विषय और लेखक वीतरागस्तोत्र (कल्याणकीर्तिकृत)-[संपादक २३३ सम्पादकीय वक्तव्य (भारतकी स्वतंत्रता, उसका वीतरागस्तोत्र (पद्मनन्दिकृत)-[सम्पादक ३५५ झण्डा और कर्त्तव्य)
३८३ वीरके सन्देशकी उपेक्षा-[प्रभुलाल जैन 'प्रेमी' १९३ सर राधाकृष्णनके विचार वीर-वाणीकी विशेषताएँ और संसारको उसकी "संजद" पदके सम्बन्धमें अकलकदेवका महत्व.
अलौकिक देन-[बा.दशरथलालजैन कौशल १२२ पूर्ण अभिमत-न्या. पं. दरबारीलाल जैन ८३ वीर-सन्देश-पं. व्रजलाल जैन, विशारद १९५ संस्कृत कमेप्रकृति-सम्पादक .... . वीरसेनस्वामीके स्वर्गारोहण - समयपर एक साम्प्रदायिक दंगे और अहिंसा-[बा. राज
दृष्टि-[पं. दरबारीलाल जैन, कोठिया १४४ कुमार जैन .... .... २३५ वीरसेवामन्दिरमें वीरशासनजयन्तीका उत्सव- साहित्य-परिचय और समालोचन[पं. दरबारीलाल जैन, कोठिया .... ४२८
१०४, २१३, २९५, ४२९, ४५८ वीरोपदेश-[पं. लोकमणि जैन .... १०२ साहित्यप्रेमी श्रीअगरचंदजी नाहटा-[श्री वैज्ञानिक युग और अहिंसा-[श्रीरतनजैन पहाड़ी ३२६ हजारीमल बाँठिया श्रीजम्बूजिनाष्टकम् (कविता)-[श्री पंडित स्व० बाबू सूरजभान जी वकील-[श्रीदौलतदरबारीलाल जैन, कोठिया ....
राम 'मित्र' श्रीधर या विबुध श्रीधर नामके विद्वान्-[पं. हम आजादीके द्वार खड़े हैं (कविता)-[पं.
परमानन्द जैन, शास्त्री .... ४६२ काशीराम शर्मा .... .... १५३ श्रीधवलका रचनाकाल-[श्री प्रफुल्लकुमार मोदी ३७ हमारी यह दुर्दशा क्यों ?-[सम्पादक १:९ सचा कर्मयोगी (कविता)-[श्रीमाधव शुक्ल ४७ हरिषेणकृत अपभ्रंश 'धर्मपरीक्षा'-[प्रो. ए. समन्तभद्रभारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनु
एन. उपाध्ये शासन)-[सम्पादक १४५,२२१,२९७,३६५,४३३ हृदय है बना हुआ फुटबाल (कविता)सम्पादकीय
__.. २१५, ४६९ ['युगवीर'
वीरसेवामन्दिरकी सहायता प्राप्ति गत किरण (१८-११) में प्रकाशित सहायताक बाद वीरसंवामन्दिर सरसावाको जो सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं:१०१) दि. जैन पुरुषसमाज व स्त्रीसमाज सरसावा (दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें) द्वारा पं० दरबारीलाल कोठिया। ५०) बाबू नन्दलालजी सोनी मालिक फर्म चम्पालाल छोगालालजी (फर्मके पिछले दानमेंसे)। ११) ला० विशेसुरनाथ मृलचंदजी, टिम्बरमर्चेटस, कानपुर (दशल उपलक्षमें संभवतः गोलकों द्वारा प्राप्त)। १०) श्रीदि० जैनसमाज बाराबड्की (संभवतः दशलक्षणपर्वके उपलक्ष में), द्वारा कन्हैयालालजी जैन, बाराबड्डी। ५) श्रीदि० जैन पञ्चायत गया (दशल के उपलक्षमें) द्वारा मंत्री मोहनलालजीके । -अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर'
मुख्तार साहबकी ७१वीं वर्षगांठ जैन-साहित्य और इतिहासके महान् सेवक तथा वीरसेवामन्दिरके संस्थापक व अधिष्ठाता श्रीमान् पं० जुगलकिशारजी मुख्तार अगहन (मङ्गसिर) शुक्ला एकादशी ता. २३ दिसम्बरको अपने ७०वें वर्षको पूर्ण करके ७१ वर्षमें प्रविष्ट हुए हैं। अपनी इस वर्षगाँठके अवसरपर मुख्तार साहबने जहाँ कुछ नियम लिये हैं वहाँ २५५) रु० का दान भी दिया है। यह दान १३ तीर्थादि धर्मस्थानों ११ जैन पत्रों और २६ जैनसंस्थाओंको समानरूपसे दिया गया है, जिनके नाम अगली किरणमें प्रकट किये जायेंगे । वर्षगाँठके इसअवसरपर दिये गये प्रीतिभोजके समय आपके दीर्घायुष्यकी शुभकामनाएँ की गई और कितनी ही शुभभावनाएँ गाई गई।
-दरबारीलाल जैन कोठिया
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arrierमन्दिरके नये प्रकाशन
१ अनित्यभावना- मुख्तार श्री जुगलकिशोरके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित इष्टवियोगादिके कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक बार पढ़ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है । इसके पाठ से उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तमें प्रसन्नता और सरसता श्राजाती है। सर्वत्र प्रचारके योग्य है । मू० ।)
२ त आचार्य प्रभावका नया प्राप्त संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर की सानुवाद व्याख्या सहित । मू०|)
३ सत्माधु - स्मरणमङ्गलपाठ- -मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि सहित । इसमें श्रीवीर वर्द्धमान और उनके मादके जिनसेनाचार्य पर्यन्त, २१ महान् श्राचायोंके अनेकों श्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा किये गये महत्वके १३६ पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और शुरू में १ लोकमंगल कामना, २ नित्यकी श्रात्म प्रार्थना, २ साधुवेश निदर्शक - जिनस्तुति, ४ परमसाधुमुखमुद्रा और ५ सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण हैं । पुस्तक पढ़ते समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और साथ ही प्राचार्यों का कितना ही इतिहास सामने श्राजाता है, नित्य पाठ करने योग्य है । मू० II)
Regd. No. A- 736.
अध्यात्म-मनमाड यह पश्चाध्यायी तथा लाटीसंहिता आदि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमल्लकी पूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कूजेगें बन्द किया गया है । साथमें न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल कोठिया श्रीर परिवत परमानन्द शास्त्रीका सुन्दर अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है । बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है। मू० १||)
६ न्याय दीपिका (महत्वका नया संस्करण) - न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित और अनुवादित न्याय - दीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण अपनी खास विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित संस्करणोंमें जो अशुद्धियाँ चली रही थीं उनके प्राचीन प्रतियपरसे संशोधनको लिये हुए यह संस्करण मूलग्रन्थ और उनके हिन्दी अनुवाद के साथ प्राक्कथन, सम्पादकीय १०१ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई ८ परिशिष्टोंसे सङ्कलित है, साथमें सम्पादक द्वारा नवनिर्मित 'काशाख्य' नामका एक संस्कृत टिप्पण लगा हुआ है, जो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोंका खुलासा करता हुआ विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज़ है। लगभग ४०० पृष्ठोंके इस सजिल्द बृहत्संस्करणका लागत मूल्य ५) रु० है । कागजकी कमी के कारण थोड़ी ही प्रतियाँ छपी हैं। अतः इन्दुकोंको शौभ ही मँगा लेना चाहिये।
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५ लेखक पं० जुगलकिशोर मुख्तार हाल में प्रकाशित चतुर्थं संस्करण ।
यह पुस्तक हिन्दी साहित्यमें अपने ढंगकी एक ही चीज है। इसमें विवाद जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही मार्मिक और तात्विक विवेचन किया गया है, अनेक विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियो से उत्पन्न हुई विवाह की कठिन और जटिल समस्याओं की बड़ी युक्ति साथ दृष्टि स्पष्टीकरण द्वारा सुलभाया गया है और इस तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है। विवाह क्यों किया जाता है ? उसकी असली गरज श्रीर सैद्धान्तिक स्थिति क्या है ? धर्मसे, समाजसे और गृहस्था भ्रमसे उसका क्या सम्बंध है ? वह कब किया जाना चाहिये ? उसके लिये वर्ण और जातिका क्या नियम हो सकता है ? विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है ? इत्यादि बातों का इस पुस्तकका बड़ा ही युक्तिपुरस्सर एवं हृदयग्राही वर्णन है । मू०|)
५ उसास्यामि श्रावकाचार परीक्षा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षाओं का प्रथम अंश, ग्रन्थ- परीक्षाओं के इतिहासको लिये हुए १४ पेजकी नई प्रस्तावना सहित । मू० 1)
प्रकाशनभिनाना---
atriaraन्दिर, सरसावा (सहारनपुर)
मुद्रक, प्रकाशक पं० परमानन्द शास्त्री समावाद लिये, आसाराम खत्री द्वारा रोयल प्रेस, सहारनपुर में मुद्रित
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-- सम्पादक- जुगल किशोर मुरतार :
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विषय-सूची
१ - समन्तभद्र भारती के कुछ नमृने ( युक्त्यनुशासन ) - [ सम्पादक ]
२ - गोम्मटसार और नेमिचन्द्र - [सम्पादकीय ]
२९७
३०१
३२३
३२६
५ – रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है - [न्या० पं० दरबारीलाल कोठिया ] ३२= ६–जैन स्थापत्यकी कुछ अद्वितीय विशेषताएँ - [ बाबू ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए० ]
३४३
७- अतिशय क्षेत्र चन्द्रवाड - [पण्डित परमानन्द जैन शास्त्री ]
३ - फल ( कहानी ) - [ बाबू राजकुमार ]
४ - वैज्ञानिक युग और अहिंसा - [श्रीरतन जैन पहाड़ी]
३४५
८- श्रा० माणिक्यनन्दिकं समयपर अभिनव प्रकाश - [ न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल कोठिया ] ३४९ ९ - जैनादर्श (जैन गुण-दर्पण ) - [ युगवीर ]
३५४
....
१० - वीतराग स्तोत्र ( पद्मनन्दिकृत ) - [ सम्पादक ]
३५५
११ – दक्षिण भारतके राजवंशों में जैनधर्मका प्रभाव - [बाबू ज्योतिप्रसाद जैन बी० ए० एल० एल० बी० ] ३५६ १२ – युग-गीत (कविता) - [पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' ]
३६२ ३६३
१३- प्रतिष्ठासारका रचनाम्थल- - [ के. भुजबली शास्त्री, विद्याभूषण ]
वीर शासन - जयन्तीकी
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श्री वीर शासन- जयन्तीकी पुण्यतिथि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा जो इस वर्ष शुक्रवार ताः ४ जुलाईको पड़ती हैं, इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है, और एक ऐसे सर्वोदय धर्मतीर्थ की जन्म तिथि है कि जिसका लक्ष्य सर्वप्राणी हित रहा है । इसी दिन अहिंसा अवतार भगवान महावीरका तीर्थ प्रवर्तित हुआ था, उनके धर्म-शासनका प्रारम्भ हुआ था, लोक हितार्थ उनका सर्व प्रथम दिव्य उपदेश हुआ था, उन्होंने सभी प्राणियों को उनके कल्याणका संदेश सुनाया था, दुखोंसे छूटनेका सहज सुगम मार्ग बताया था, लोगोंको उनकी भूलें सुझाई थीं, उनके हम छुटाये थे, और यह बताया था कि सच्चा सुख और श्री आजादी अहिंसामयी आचरण, अनेकान्तात्मक उदार दृष्टिकोण एवं समता रूप परिणामोंक अपना में ही है, इसीसे सर्व बन्धनोंका नाश, गुलामीका अन्त और परतन्त्रतासे वास्तविक मुक्ति मिल सकेगी | उन्होंने बताया कि सब ही प्राणियों की आत्माएँ समान हैं और अपना उत्थान एवं पतन प्रत्येक व्यक्ति के अपने ही हाथमें है, उसके लिये दूसरोंका महारा तकना या उन्हें दोप देना भूल हैं। भगवान महावीरद्वारा प्रतिपादित आत्म-विकास
पुण्यतिथि
एवं आत्म-कल्याणका मार्ग सीधा, सरल और वास्तविक है। उससे पीड़िति पतित, मार्गच्युत जनों को अपने उद्धारका आश्रासन मिला, स्त्री व शूद्रादिकोंपर होने वाले अत्याचारोंका अन्त हुआ, समाजगत ऊंचनीचके भेद-भाव धर्म-साधनमें बाधक न बने रह सके, जीवहिंमा, पशुबलि, अभक्ष्य भक्षण, कुव्यसनसेवन तथा अन्याय कार्योंसे जनताकी प्रवृत्ति हटने लगी । शान्ति, सदाचार, उदारता, सद्भावना और धार्मिकताका युग अवतीर्ण हुआ । प्राचीन भारत में उसी दिन वर्षका प्रारम्भ भी हुआ करता था । अस्तु, वीर-शासन जयन्तीकी यह पुण्यतिथि सर्वलोकहित, सर्वोत्थान, विश्वबन्धुत्व एवं सार्वजनिक स्वाधीनताकी प्रतीक है और इन उद्देश्योंमें आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह इस पुण्यपर्वको यथार्थ रूप में मनाये ।
वीर सेवामन्दिर ( सरसावा ) में यह उत्सव गत वर्षो की भांति इस वर्ष भी, शुक्रवार ४ जुलाईको मनाया जायगा । आशा है, सभी वीरशासन- प्रेमी अपने-अपने स्थान, नगर, प्रामादिकमें भी उसे मनानेका उपयुक्त आयोजन करेंगे ।
- जुगलकिशोर मुख्तार
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* ॐ अहम् *
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ४)
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इस किरणका मूल्य ।।।)
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नीतिविरोधवसीलोकव्यवहारवर्नकसम्यक परमागरची भुदनेकपाजयत्यनेकान्तः
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वर्ष किरण ८ ९
वीरमवान्दिर (मम-तभद्राश्रम) सरमावा जिला सहारनपुर जनवरी-फर्वरी माघ फाल्गण शुक्ल, वीरनिवाण सं०२४७३, विक्रम सं० २००३ ।।
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
तथा न तत्कारण-कार्य-भावो निरन्वयाः केन समानरूपाः ? ।
असत्खपुष्पं न हि हेत्वपेक्षं दृष्ट न सिद्धथत्युभयोरसिद्धम् ।।१२।।
(जिम प्रकार सन्तानभिन्न चित्तम वासना नहीं बन सकती) उमी प्रकार सन्तानभिन्न चित्तोंमें कारण-काय-भाव भी नहीं बन सकता--मन्तानभिन्न चिनांम भी कारण-कार्य-भाव माननेपर देवदत्त और जिनदत्तके चित्तीम भी कारण-कार्य-भावके प्रवर्तित होनता प्रसङ्ग आएगा, जो न तो दृष्ट है और न बौद्धोंके द्वारा इष्ट है।'
(यदि यह कहा जाय कि एक सन्तानवी समानरूप चित्तक्षणांक ही कारण-कार्य-भाव होता है, भिन्नमन्तानवर्ती असमानरुण चिनक्षणों के कारण-कार्य-भाव नहीं होता, तो यह कहना भी ठीक नहीं है: क्योंकि) जो चित्त-क्षा क्षणविनश्वर निरन्वय (सन्तान-परम्परासे रहित) माने गये हैं उन्हें किमके साथ समानम्प कहा जाय ?--किमी भी स्वभावके माथ वे ममानरूप नहीं है, और इलिये उनमें कारण-कायभाव घटित नहीं हो सकता। मत्स्वभाव अथवा चित्स्वभावकै माथ ममानम्प माननेपर भिन्नमन्तानवी देवदत्त और जिनदत्तक चित्त-क्षण भी मत्स्वभाव और चित्स्वभावकी दृष्टिने परम्परमें कोई विशेष न रखनेक कारण समानम्प ठहरेंगे और उनमें कारण-काय-भावकी उक्त आपत्ति बदस्तुर बनी रहेगी।'
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२९८
अनेकान्त
[ वर्ष
८
' (यदि हेत्वपेक्षि-स्वभाव के साथ समानरूप माना जाय अर्थात् यह कहा जाय कि जो चित्त उपादान- उपादेय-भावको लिये हुए हैं-पूर्व पूर्वका चित्त जिनमें उत्तरोत्तरवर्ती चित्तका उपादान कारण हैवे ही एक सन्तानवर्ति-चित्त परस्पर में समानरूप हैं और उन्हींके कारण कार्य-भाव घटित होता हैसन्तानान्तरवर्ति-चित्तोंके नहीं, तो इसमें यह विकल्प उत्पन्न होता है कि उत्तरवर्ती-चित्त उत्पन्न और सत् होकर अपने हेतुकी अपेक्षा करता है या अनुत्पन्न और असत होकर । प्रथम पक्ष तो बनता नहीं; क्योंकि सत्के सर्वथा निराशंसत्व (वक्तव्यपना) माननेसे उसे हेत्वपेक्षरूपमें नहीं कहा जा सकता । और उत्पन्न के हेत्वपेक्षत्वका विरोध है जो उत्पन्न हो चुका वह हेतुकी अपेक्षा नहीं रखता। दूसरा पक्ष माननेपर) जो (कार्यचित्त) असत् है - उत्पत्ति के पूर्व में जिसका सर्वथा अभाव है-वह आकाशकं पुष्प- समान हेत्वपेक्ष नहीं देखा जाता और न सिद्ध होता है; क्योंकि कोई भी असत्पदार्थ हेत्वपेक्षके रूपमें वादी प्रतिवादी दोनोंमेंसे किसी भी द्वारा सिद्ध (मान्य) नहीं हैं, जिससे उत्तरोत्तर चित्तको अनुत्पन्न होनेपर भी तद्धत्वपेक्ष मिद्ध किया जाता | हेतुकं अभाव में कैसे कोई एक सन्तानवर्ती चित्तक्षण हेत्वपेक्षत्वके साथ समानरूप सिद्ध किये जा सकते हैं, जिससे उनक उपादान- उपादेयरूपका कारण-कार्य-भाव घटित होसके ? नहीं किये जा सकते । वास्य-वासक-भावरूप हेतु भी नहीं बनता; क्योंकि एक सन्तानवर्ति-क्षरणविनश्वर - निरन्वय चित्तक्षणों में, भिन्नमन्तानवर्ति-चित्तक्षणोंकी तरह, वासनाका सम्भव नहीं होता ।'
वाsस्ति हेतु: क्षणिकात्मवादे न सन्नसन्वा विभवादकस्मात् । सन्तान - भिन्न-क्षणयोरभावात् ||१३||
नाशोदय कक्षरता च दुष्टा
(परमार्थ से तो) क्षणिकात्मवाद में हेतु बनता ही नहीं। क्योंकि हेतुको यदि सतरूप माना जायसतरूप ही पूर्वचित्तक्षण उत्तरचित्तक्षणका हेतु है ऐसा स्वीकार किया जाय तो इसमें विभवका प्रसङ्ग आता है। अर्थात एक क्षणवर्तीचित्त में चित्तान्तरकी उत्पत्ति होनेपर उस चित्तान्तर के कार्यकी भी उसी क्षण उत्पत्ति होगी, और इस तरह सकलचित्त और चैत्तक्षणोंक एकक्षणवती होजानेपर सकल जगत-व्यापी चित्तप्रकारोंकी युगपन सिद्धि ठहरेगी। और ऐसा होनेसे, जिसे क्षणिक कहा जाता है वह विभुत्वरूप ही है- सर्व व्यापक है - यह कैसे निवारण किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता। इसके सिवाय, एकक्षणवर्ती सतचित्तके पूर्वकाल तथा उत्तरकालमें जगत्चित्त शून्य ठहरता है और सन्तान - निर्वारण-रूप जो विभवमोक्ष है वह सबके अनुपाय (बिना प्रयत्नकं ही) सिद्ध होता है, और इस लिये सन हेतु नहीं बनता । (इस दोष से बचने के लिये) यदि हेतुको अमन ही कहा जाय तो अम्मान-बिना किसी कार एक ही - कार्योत्पतिका प्रसङ्ग आएगा । और इस लिये असत हेतु भी नहीं बनता ।'
' (यदि आकस्मिक कार्योत्पत्तिकं दोषसे बचने के लिये कारणके नाशके अनन्तर दूसरे क्षणमं कार्यका उदय उत्पादन मानकर नाश और उत्पादको एक क्षरणवर्ती माना जाय अर्थात यह कहा जाय कि जिसका नाश ही कार्यका उत्पाद है वह उस कार्यका हेतु हैं तो यह भी नहीं बनता; क्योंकि) सन्तानके भिन्न क्षणोंमें नाश और उदयकी एक क्षरणताका अभाव होनेसे नाशादयैकक्षणतारूप युक्ति संदीप है - जैसे सुत सन्तानमें जाग्रत चित्तका जो नाश- क्षण (-काल ) है वही प्रबुद्ध चित्तका उदय-क्षणा नहीं है, दोनों में अनेकक्षणरूप मुहूर्ताद कालका व्यवधान है, और इसलिये जाग्रत चित्तको प्रबुद्ध चित्तका हेतु नहीं कहा जा सकता । अतः उक्त संदीप युक्तिकं आधारपर आकस्मिक कार्योत्पत्तिके दोषसे नहीं बचा जा सकता ।' कृत-प्रणाशाऽकृत-कर्म-भोगौ स्यातामसञ्च तित-कर्म च स्यात् । आकस्मिकेऽर्थे प्रलय-स्वभावे मार्गो न युक्तो वधकश्च न स्यात् || १४ ||
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किरण ८-९]
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
२९९
'यदि पदाथको प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक माना जाय---यह कहा जाय कि जिस प्रकार बौद्ध-मान्यतानुमार बिना किमी दूसरे कारणके ही प्रलय (विनाश) आकस्मिक होता है, पदार्थ प्रलयम्वभावरूप है, उसी प्रकार कार्यका उत्पाद भी बिना कारणके ही आकस्मिक होता है तो इससे कृत-कर्मके भोगका प्रणाश ठहरेगा--पूर्व चित्तने जो शुभ अथवा अशुभ कम किया उसके फलका भागी वह न रहेगा और इसमे किये हुए कर्मको करने वाले के लिये निष्फल कहना होगा--और अकृन-कमके फलको भोगनेका प्रमंग आएगा-जिम उत्तरभावी चित्तने कम किया ही नहीं उसे अपने पूर्वाचत्त-द्वारा किये हुए कर्मका फल भोगना पड़ेगा-; क्योंकि क्षणिकात्मवाद में कोई भी कर्मका कर्ता चित्त उत्तर-धारणमें अवस्थित नहीं रहता किन्तु फल की परम्परा चलती है । साथ ही, कम भी अमंचेनित-अविचारित ठहरेगा--क्योंकि जिम चिलन कम करनेका विचार किया उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जानम
और विचार न करने वाले उत्तरवर्ती चित्तके द्वारा उमक सम्पन्न होनेसे उसे उत्तरवर्ती चित्तका विचारित काय ही कहना होगा।'
___(इसी तरह) पदार्थक प्रलय-स्वभावरूप क्षणिक होने पर कोई मार्ग भी युक्त नहीं रहेगासकल आम्रव-निरोधप मोक्षका अथवा चित्त-सन्ततिक नाशरूप शान्त-निर्वाणका मार्ग (हेतु) जो नैगम्य-भावनाझप बतलाया जाता है वह भी नहीं बन सकेगा; क्योंकि नाशके निर्हेतुक होनसे साम्रवचित्त-मन्ततिका नाश करने के लिये किमी नाशकका होना विरुद्ध पड़ता है--स्वभावमे ही नाश मानने पर कोई नाशक नहीं बनता । और वधक भी कोई नहीं रहता---; क्योंकि वह भी प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक है, जिम चित्तने वधका----हिमाका----विचार किया वह उसी क्षण नष्ट हो जाता है और जिसका वध हुअा वह उसके प्रलयम्वभावसे आकस्मिक हुआ, उसके लिये वधका विचार न रखने वाले किसी भी दृमर चित्तको अपराधी नहीं ठहराया जा सकता।'
न बन्ध-मोक्षी क्षणिकैक-संस्थो न मंतिः साऽपि मृपा-स्वभावा ।
मुख्याते गोण-विधिन दृष्टो विभ्रान्त-दृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥१५।।
(पदाथक प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक होने पर) क्षणिक-एक-चित्तमें मंस्थित बन्ध और मोक्ष भी नहीं बनत-क्योंकि जिस चित्तका बन्ध है उसका निरन्वविनाश हो जानेस उत्तर-चित्त जो अबद्ध है उसीके मोक्षका प्रसङ्ग आएगा, और एकचित्त-संस्थित बन्ध-मोक्ष उसे कहते हैं कि जिम चित्तका बन्ध हो उमीका मोक्ष होवे।'
(यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्तर-चित्ताम एकत्वक श्रागेपका विकल्प करने वाली 'संवृति' से क्षारणक-एकचित्त-मंस्थित बन्ध और मोक्ष बनते हैं, तो प्रश्न पैदा होता है कि वह मंवृति मृपाम्बभावा है या गौग्ग-विधिरूपा है ?) मृपाम्रभावा मंति क्षणिक, एक चित्तस बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था करनमें ममर्थ नहीं हे.- उममे बन्ध और मोक्ष भं मिथ्या ठहरते हैं। और गौणविधि मुख्यक विना देखी नहीं जानी (पुरुपमिहकी तरह)--जिस प्रकार किमी ,रुपको मुख्य मिहके अभाव में 'पुरुपमिह' कहना नहीं बनता उमी प्रकार किमी चित्तम मुख्यरूपमे बन्ध-मोक्षको मन्तिष्टमान बतलाये बिना बाध-मोक्षका गोगविधि नहीं बनती,
और इमसे गुम्यविधिक अभावम गौरविधिरूप संवृति भी किमा एक क्षणिक चित्तम बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था करनेमें श्रममथ है । (अत: है वीर जिन !) आपकी (स्याद्वादपिणी अनकान्त) दृष्टिम भिन्न जो दूमरी (क्षणिकात्मवादियोंकी सर्वथा एकान्त) दृष्टि है वह विभ्रान्तहांष्ट है..-मब ओरसे दोपहप होने के कारण वस्तुतत्त्वको यथार्थम्पस प्रतिपादन करनेम समर्थ नहीं है।'
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वान्न मातृ-घाती स्व-पतिः स्व-जाया । दत्त-ग्रहो नाऽधिगत-स्मृतिने न क्त्वार्थ-सत्यं न कुलं न जातिः ॥१६॥
'क्षण-क्षणमें पदार्थोको भगवान-निरन्वय विनाशवान-माननेपर उनके पृथकपनकी वजहसेमर्वथा भिन्न होनेके कारण-काई मातृ-घाती नहीं बनता–क्योंकि तब पुत्रोत्पत्तिके क्षणमें ही माताका स्वयं नाश होजाता है, उत्तरक्षगामें पुत्रका भी प्रलय होजाता है और अपुत्रका ही उत्पाद होता है; न काई किमी (कुलस्त्री) का स्वपति बनता है. क्योंकि उसके विवाहित पतिका उसी क्षण विनाश होजाता है, अन्य अविवाहितका उत्पाद होता है; और न कोई विसीकी स्वपत्नी (विवाहिता स्त्री) ठहरती है क्योंकि उसकी विवाहिता स्त्रीका उसी क्षण विनाश होजाता है, अन्य अविवाहिताका ही उत्पाद होता है, और इससे परस्त्रीसेवनका भी प्रमङ्ग पाता है।'
___(इसी तरह) दियं हुए धनादिकका (ऋणी आदिके पासस) पुन: ग्रहण (वापिस लेना) नहीं बनता-क्योंकि बौद्ध-मान्यतानुसार जो ऋण देता है उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश होजाता है, उत्तरक्षणमें लेनेवालेका भी विनाश होजाता है तथा अन्यका ही उत्पाद हाता है और साक्षी-लेखादि भी कोई स्थिर नहीं रहता, सब उसी क्षण ध्वस्त होजाते है । अधिगत किये हुए (शास्त्रक) अर्थकी स्मृति भी तब नहीं वनती-और इससे शास्त्राभ्यास निष्फल ठहरता है। 'क्त्वा' प्रत्ययका जा अथ-मत्य है-प्रमाणरूपसे स्वीकृत है-वह भी नहीं बनता-क्योंकि पूर्व और उत्तर-क्रियाका एक ही कर्ता होनेपर पृयकालकी क्रियाका 'क्त्वा' (करके.) प्रत्ययके द्वारा व्यक्त किया जाता है; जैसे 'रामो भुक्त्वा गत:'- राम ग्वाकरकं गया । यहाँ खाना और जाना इन दोनों क्रियाओका कर्ता एक ही राम है तभी उसकी पहली खानकी क्रियाको करक' शब्दकं द्वारा व्यक्त किया गया है, रामके क्षणभंगुरहानपर वह दोनों क्रियाओंका कर्ता नहीं बनता और दानों क्रियाओंक का भिन्न-भिन्न व्यक्ति होनेपर एमा वाक्य-प्रयोग नहीं बनता।'
(इसी प्रकार) न कोई कुल बनता है और न कोई जाति ही बनती है---क्योंकि मृयवंशादिक जिम कलमें किसी क्षत्रियका जन्म हुआ उस कुलका निरन्वय विनाश होजानसे उस जन्ममं उसका कोई कुल न रहा, तब उसके लिय कुलका व्यवहार कैसे बन सकता है ? त्रियादि कोई जाति भी उम जातिकं व्यक्तियोंक बिना असम्भव है । और अनेक व्यक्तियोंमेंसे अतव्यावृत्तिक ग्राहक एक चित्तका असम्भव होनस अन्यापोह-लक्षणा (अन्यसं अभावरूप, अक्षत्रिय व्यावृतिरूप) जाति भी घटित नहीं हो सकती।'
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गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
[सम्पादकीय ]
ग्रन्थका सामान्य परिचय और महत्व की वस्तु है; क्योंकि इससे अनेक विशेष बातें मालूम
हो सकता है।" 'गोम्मटसार' जैसमाजका एक बहुत ही सुप्रसिद्ध सिद्धान्त अन्थ है, जो जीवकाण्ड और इस ग्रन्थका प्रधानतः मूलाधार आचार्य पुष्पदन्तकर्मकाण्ड नामक दो बड़े विभागांम विभक्त है और भूतलिका पट्खण्डागम, वीरसेनकी धवला टीका व विभाग एक प्रकारसं अलग-अलग ग्रन्थ भी समझ और दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चमंग्रह नामक ग्रन्थ जान है, अलग-अलग मुद्रित भा हुए हैं और इसीस है। पश्चसंग्रहकी सैकड़ों गाथाएँ इसमें ज्यों-की-त्यों वावयमचीम उनक नामकी (गाजाक, गांक-रूपस) तथा कुछ परिवतनके साथ उद्धृत है और उनमें स्पष्ट सूचना साथम कर दी गई है। जीवकाण्डकी
से बहतमी गाथाएँ ऐसी भी हैं जो धवलामें ज्यों-कीअधिकार-संख्या २० तथा गाथा-संग्ख्या ७३३ है और त्यां अथवा कुछ परिवर्तनके साथ 'उक्तञ्च' आदि कमाण्ड की अधिकार-संग्ख्या ५ तथा गाथा-संख्या रूपसे पाई जाती है । साथ ही पटखण्डागमके बहतसे ९७. पाई जाती है। इस समृचं ग्रन्थका दसरा नाम सूत्रोंका मार खींचा गया है । शायद पट्खण्डगमके 'पासंग्रह है, जिसे टीकाकारोने अपनी टीकाश्रम जीवस्थानादि पाँच खण्डोंके विपयका प्रधानतासे व्यक्त किया है । यद्यपि यह ग्रन्थ प्रायः संग्रह ग्रन्थ
मार संग्रह करनेके कारण ही इसे 'पञ्चमंग्रह' नाम ६, जिमम शब्द और अर्थ दोनोष्ट्रियांसे सैद्धान्तिक दिया गया हो। विपयोका मग्रह किया गया है, परन्तु विषयक
ग्रन्थके निर्माणमें निमित्त चामुण्डराय सकलनादिक यह अपनी खास विशंपता रखता है और इसमें जीव तथा म-विषयः करणानुयागवे
'गोम्मट' प्राचन अन्थीका अच्छ। मदिर सार खींचा गया ।
यह ग्रन्थ प्राचाय नामचन्द्र-द्वारा चामुण्डरायके इसासे यह विद्वानोंको बडा ही विय तथा मांचकार
अनुरोध अथवा प्रश्न पर रचा गया है, जो गङ्गवंशी मालम होता है; चुनाचे प्रसिद्ध विद्वान पंडित
राजा राचमल्ल के प्रधानमन्त्री एवं सेनापति थे, सुखलाल जीन अपने द्वारा सम्पादित और अनुवादित
अजितसनाचायक शिष्य थे और जिन्होंने श्रवणचतुर्थ कमनन्थको प्रस्तावना, श्वेताम्बरीय कम
बल्गोलम बाहुबलि-स्वामीकी वह मुन्दर विशाल माहित्यकी गाम्मटमार के साथ तुलना करते हुए और
एवं अनुपम भूति निमाण कराई जो संसारक चतुर्थकमान्य सम्पमा विपयका प्राय: जीव
अद्धत पदाथों में परिगणित है और लोक गोम्मटेश्वरकोरडा पलित बतलाना , गाम्मट मारकी उसके
जेसनामा म प्रसिद्ध है। विषय बगान, विपय-विभाग और प्रत्येक विषय
मर जगी प्रशंसा की है और साथ ही चामुण्डरायका दमग नाम गाम्मट' था और निःम दाम पर यह बतलाया है कि-"चौथ काम- यह उनका खाम घरज नाम था, जा मराठा तथा प्र या पाटियोंक लिया जीवाण्ड ५५. खास दखन पनडी भाषामें प्रायः उत्तम. मुन्दर, अफ्षिक एवं
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अनेकान्त
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[ वर्ष ८
प्रसन्न करनेवाला जैसे अर्थोम व्यवहृत होता है,' गोम्मट-संगहमुत्तं गोम्मटसिहरुघरि गोम्मटजिणो य ।
और 'राय' (राजा) की उन्हें उपाधि प्राप्त थी । ग्रंथमें गोम्मटराय-विणिम्मिय-दक्खिगाकुक्कुडजिणो जयउ ।। इम नामका उपाधि-महित तथा उपाधि-विहीन दोनों रूपसे स्पष्ट उल्लेग्ब किया गया है और प्रायः इसी
-गो० क० ६६८॥ प्रिय नामसे उन्हें आशीर्वाद दिया गया है: जैमा कि
इम गाथामें उन तीन कार्यों का उल्लेख है और निम्न दो गाथाओंमे प्रकट है:
उन्हींका जयघोष किया गया है जिनके लिये गोम्मट अज्जज्जसेण-गुगागरणसमूह - संधारि - अजियसेगगुरू । उर्फ चामुण्डगयकी खास ख्याति है और वे हैं---
१ गोम्मटमंग्रहसत्र, २ गोम्म जन और दक्षिणभुवणगुरू जम्स गुरु सो राओ गोम्मटो जयउ ॥७३३
कुक्कुजिन । 'गोम्मटमंग्रहसूत्र' गोम्मटके लिये जेग विणिम्मिय-पडिमा-वयणं सवठ्ठसिद्धि-देवेहि । मंग्रह किया हा गोम्मटमार' नामका शास्त्र सव्व-परमोहि-जोगिहिं दिटुं सो गोम्मटो जयउ॥६६६ है; 'गोम्मटजिन' पदका अभिप्राय श्रीनमिनाथकी इनमें पहली गाथा जीवकाण्डकी और दूसरी
उस एक हाथ-प्रमाण इन्द्रनीलमणिकी प्रतिमासं है
. जिसे गोम्मटरायने बनवाकर गोम्मट-शिखर अर्थात् कर्मकाण्डकी है। पहलीमें लिखा है कि 'वह राय गोम्मट जयवन्त हो जिसके गरु वे अजितसेनगुरु
चन्द्रगिरि पर्वत पर स्थित अपने मन्दिर (वस्ति) में
स्थापित किया था और जिमकी बाबत यह कहा हैं जो कि भुवनगुरु हैं और प्राचार्य आर्यसेनके ।
जाता है कि वह पहले चामुण्डराय-वस्तिमें मौजूद गुण-गण-समृहको सम्यक प्रकार धारण करने वालेउनके वास्तविक शिष्य-हैं।' और दूसरी गाथामें
थी परन्तु बादको मालूम नहीं कहाँ चली गई, उसके
स्थान पर नमिनाथकी एक दूसरी पाँच फुट ऊँची बतलाया है कि 'वह 'गोम्मट' जयवन्त हो जिसकी निर्माण कराई हुई प्रतिमा (बाहुबलीकी मृति) का
प्रतिमा अन्यत्रसं लाकर विराजमान की गई है और
जो अपने लेख परम एचनक बनवाए हुए मन्दिरकी मुख सवार्थसिद्धिके देवों और मर्वावधि तथा
मालूम होती है । और दक्षिण-कुक्कुट-जिन' परमावधि ज्ञानके धारक योगियों द्वारा भी (दूरमे ह।) देखा गया है।'
वाहबलीकी उक्त सुप्रसिद्ध विशालमतिका ही नामान्तर
है, जिस नामक पाछ कुछ अनुश्रुति अथवा कथानक चामुण्डरायके इस 'गोम्मट' नामके कारण ही है और उसका मार इतना ही है कि उत्तर-देश उनकी बनवाई हुई बाहुबलीका मृति 'गोम्मटेश्वर' पौदनपुरमें भरतचक्रवनि बाहुबलीकी उन्हींकी तथा 'गोम्मट देव' जैसे नामांस मिद्धिको प्राप्त हुई शरीराकृति-जैमी मृनि बनवाई थी, जो कुक्कुट-मपोंसे है, जिनका अर्थ है गोम्मट का ईश्वर, गोम्मटका देव । व्याप्त हो जाने के कारण दुलभ-दशन हो गई थी।
और इमी नामकी प्रधानताको लेकर ग्रन्थका नाम उमीक अनप यह मति दक्षिणमं विन्ध्यांगार पर 'गाम्मटसार' दिया गया है, जिसका अर्थ है 'गोम्मटकं स्थापित की गई है और उत्तरकी मूनिम भिन्नता लिये खींचा गया पूर्वक (पटग्वण्डागम तथा धवलादि) बतलानक लियं ही इसको 'दक्षिण' विशेषण दिया ग्रन्थोंका मार ।' ग्रन्थको 'गोम्मटमंग्रह सूत्र' नाम गया है। अतः इम गाथा परमं यह और भी स्पष्ट भी इसी श्राशयको लेकर दिया गया है, जिसका हो जाता है कि 'गोम्मट' चामुण्डरायका खास नाम उल्लेव निम्न गाथामें पाया जाता है :
था और वह संभवतः उनका प्राथमिक अथवा घरू
बोलचालका नाम था। कुछ अर्म पहले आम तौर १ देखा, अनेकान्त वर्ष ४ किरण ३, ४ में डा० ए० एन० पर यह समझा जाता था कि 'गाम्मट' बाहुबलीका उपाध्येका 'गोम्मट' नामक लेख ।
ही नामान्तर है और उनकी उक्त असाधारण मूतिका
मांग कराई हुइ
ज
र
मावधि मा मालूम
मिद्ध विशाल
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किरण -९
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
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निर्माण करानेके कारण ही चामुण्डराय 'गोम्मट' जिमका उल्लेख आपने इस प्रन्थमें ही नहीं किन्तु तथा 'गोम्मटराय नामसे प्रसिद्धको प्राप्त हुए है। अपने दूसरे ग्रन्थों-त्रिलोकसार और लब्धिसारमें भी चुनांचे पं० गोविन्द पै जैसे कुछ विद्वानोंने इमी किया है। साथ ही, वीरनन्दी तथा इन्द्रनन्दीको भी बातको प्रकारान्तरसे पुष्ट करनेका यत्न भी किया है; आपने अपना गुरु लिखा है' । ये वीरनन्दी वे ही परन्तु डॉक्टर ए. एन. उपाध्येने अपने 'गोम्मट' जान पड़ते हैं जो 'चन्द्रप्रभ-चरित्र' के कर्ता हैं; नामक लेखमें' उनकी सब युक्तियांका निगकरण क्योंकि उन्होंने अपनेको अभयनन्दीका ही शिष्य करते हुए, इस बातको बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि लिखा है । परन्तु ये इन्द्रनन्दी कौनसे हैं ? इसके 'गोम्मट' बाहुबलीका नाम न होकर चामुण्डरायका विपयमें निश्चय-पूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा ही दृमरा नाम था और उनके इस नामके कारण ही मकता; क्योंकि इन्द्रनन्दी नामके अनेक प्राचार्य हुए बाहुबलीकी मृति 'गोम्मटेश्वर' जैसे नामोंसे प्रसिद्धि- हैं-जैसे १ छेदपिंड नामक प्रायश्चित्त-शास्त्रके कर्ता, को प्रान हुई है। इस मति के निर्माणसे पहले बाहबलीके २ श्रृतावतारके कर्ता, ३ ज्वालामालिनीकल्पके कता. लिय गोम्मट' नामकी कहीं से भी उपलब्धि नहीं ४ नीतिमार अथवा समयभूषणके कर्ता, ५ संहिताहोता । बादको कारकल आदि में बनी हुई मूर्तियोंको के कर्ता। इनमेंसे पिछले दो तो हो नहीं सकते; जो गोम्मटेश्वर' जैमा नाम दिया गया है उसका क्योंकि नीतिमारके कर्ताने उन आचार्यों की सूची में
रण इतना ही जान पड़ना है कि वे श्रवणबेलगोल- जिनके रचे हुए शास्त्र प्रमाण है नमिचन्द्रका भी नाम की इम मृतिकी नकल-मात्र हैं और इसलिये दिया है, इमलिये वे नेमिचन्द्रकं बाद हुए हैं और श्रवणबल्गोलकी मृतिक लिये जा नाम प्रसिद्ध हो इन्द्रनन्दि संहितामें वसुनन्दीका भी नामोल्लेख है, गया था वही उनको भी दिया जाने लगा। अस्तु । जिनका समय विक्रमकी प्रायः १२वीं शताब्दी है
चामुण्डायन अपना मठ शलाकापुरुषोंका और इसलिये वे भी नेमिचन्द्र के बाद हुए हैं। शेष मेंपुराण-ग्रन्थ, जिसे 'चामुण्डरायपुराण' भी कहते हैं से प्रथम दो ग्रन्थोंके कर्ताओंने न तो अपने गुरुका शक संवत् १०८ (वि. मं० १.३५) में बनाफर ममाप्त ५ जम्म य पायपसाएगातसंमार जल हिमुत्तिगणो। किया है, और इमलिय उनके लिय निमित ग.म्मटमार वरिंदरणदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुर ॥४३६।। का मुनिश्चित समय विक्रमको ११वीं शताब्दी है। गामिकण अभयणंदि मुदसागरपारगिंदणंदिगुरु । ग्रन्थकार और उनके गुरु वरवीरणदिणाहं पयडीण पच्चयं वोच्छ।कर्मकाण्ड ७८५||
इदि ण मिचद मुणिणा अप्पमुदेणभयणदिवच्छेण । गोम्मटमार का प्राचार्य नमिच, 'मिद्धान
हो तिलोयसारो खमनु त बहमुदाइग्यिात्रि०१०१८|| चक्रवर्ती कहलात थे। चक्रवर्ती जिम प्रकार चक्रस
पारदरणदिवच्छेगप्पमुदेणमयणदि-मिम्मेण । छह खगड पृथ्वी की निविघ्न साधना करके उसे
दसण चरित नी सुसूयिया णमिचं देण लब्धि० ४४८ स्वाधीन बनाकर --चक्रवर्तिपदको प्राप्त होता है उसी
२ मुनिजननुतपादः प्रास्तमिश्याप्रवादः, सकलगुणसमृद्धस्तप्रकार मति-चक्रसे पटवण्डागमकी माधना करके
न्य शिष्यः प्रमिद्धः । अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी श्राप सिद्धान्त-चक्रवतीक पदको प्राप्त हुए थे, और
स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलाकैकबन्धुः ।।३।। इमका उल्लम्ब उन्होंने स्वय कमकाण्डकी गाथा ३९७
भव्याम्भोजवियोधनाद्यतमतभाम्वत्ममानत्विषः म किया है। श्राप अभयनन्दी श्राचायक शिष्य थे.
शिप्यस्तस्य गुणाकरस्य मुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभत् । १ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ कि० ३, ४ पृ० २२६, २६३ । म्वाधीनाग्विल वाङमयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तेः मतां २जह चक्कण य चक्की छविंडं माहियं अविग्धण । समत्सु व्यजयन्त यस्य जायनी वाचः कुतकाङ कुशाः॥४॥ तह मइ चक्कण मथा छक्वडं माहिथं सम्मं ॥३६७||
--चन्द्र प्रभचरित-प्रशस्ति ।
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३०४
अनेकान्त
[वर्ष ८
नाम दिया है और न ग्रन्थका रचनाकाल ही, इससे गुणनन्दी' का भी है, जो सम्भवतः वे ही जान उनके विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता। हाँ, ज्वाला- पड़ते हैं जो चन्द्रप्रभचरितके अनुसार अभयनन्दीके मालिनी कल्पके का इन्द्रनन्दिने ग्रन्थका रचनाकाल गुरु थे; और इस तरह इन्द्रनन्दीके दीक्षा-गुरु शक संवत ८६१ (वि० सं० ९९६) दिया है और यह बप्पनन्दी मन्त्रशास्त्र-गुरु गुणनन्दी और सिद्धांतसमय नेमिचन्द्र के गुरु इन्द्रनन्दीके साथ बिल्कुल शास्त्र-गुरु अभयनन्दी हो जाते हैं। यदि यह सब सङ्गत बैठता है, परन्तु इस कल्पके कर्ता इन्द्रनन्दीने कल्पना ठीक है तो इससे नमिचन्द्रके गुरु इन्द्रनन्दीअपनेको उन बप्पनन्दीका शिष्य बतलाया है जो का ठीक पता चल जाता है, जिन्हें गोम्मट सार वामवनन्दीके शिष्य और इन्द्रनन्दी (प्रथम) के (क० ७८५) में श्रुतसागरका पारगामी लिखा है। प्रशिष्य थे। बहुत संभव है ये इन्द्रनन्दी वप्पनन्दीक नेमिचन्द्रने अपने एक गुरु कनकनन्दि भी लिखे दीक्षित हों और अभयनन्दीसे उन्होंने सिद्धांतशास्त्र- हैं और बतलाया है कि उन्होंने इन्द्रनन्दिके पाससे की शिक्षा प्राप्त की हो, जो उस समय सिद्धान्त-विषय- सकल सिद्धान्तको सुनकर 'सत्वस्थान' की रचना की के प्रसिद्ध विद्वान थे; क्योंकि प्रशस्ति' में बप्पनन्दी है । यह सत्वस्थान ग्रन्थ 'विम्तरसत्वत्रिभंगी' के की पुराण-विषयमें अधिक ख्याति लिखी है- नामसे श्राराके जैन-सिद्धान्त-भवनमें मौजूद है, सिद्धांत विषयमें नहीं-और शिष्य इन्द्रनन्दी जिसका मैंने कई वर्ष हुए अपने निरीक्षणकं ममय (द्वितीय) को 'जैने सिद्धांत वाधौं विमलितहृदयः' नोट ले लिया था। ५ः नाथूरामजी प्रमीन इन प्रकट किया है । जिससे सिद्धांत विषयमें उनके कोई कनकनन्दीको भी अभयन्दीका शिष्य बतलाया, खास गुरु होने भी चाहिये । इसके सिवाय, ज्वालिनी- परन्तु यह ठोक मालूम नहीं होता; क्योंकि कनककल्पके कर्ता इन्द्रनन्दीने जिन दो आचार्योंके पाससे नन्दिके उक्त ग्रंथपरसं इसकी कोई उपलब्धि नहीं इस मन्त्रशास्त्रका अध्ययन किया है उनमें एक नाम होती--उसमें साफ़ तौरपर इन्द्रनन्दिको ही गुरुरूप
से उल्लेखित किया है । इस सत्वस्थान ग्रन्थको १ आमीदिन्द्रादिदेवस्तुतपदकमलश्रीन्द्रनन्दिमुनीन्दो नमिचन्द्रने अपने गोम्मटमारके तीसरे सत्वस्थान नित्योत्सर्पञ्चरित्रो जिनमत जलधिधतिपापापलेपः । अधिकार में प्रायः ज्यों-का-त्यों अपनाया है--आराकी प्रज्ञानावाम लोद्यत्यगुणगणभृतोत्कीर्णविस्तीर्णमिद्धा--
उक्त प्रतिक अनुमार प्रायः ८ गाथाएँ छोडी गई हैं। न्ताम्भोराशिस्त्रिलोकवाम्बुज वनविच सद्यशोराजहंसः।।१
शेप सब गाथाांका, जिनमें मंगलाचरण और यद्वृत्त दुरितारिसन्यहनने चण्डामिधाराथितम्
जैने सिद्धान्तबाधा निमलतहृदयस्तेन सद्धतोऽयम् चित्तं यस्य शरत्सात्मलिलबत्वच्छ सदा शीतलम् ।
हलाचायोदिता व्यरचि निरूपमो वालिनामंत्रवादः ॥५ कीर्तिः शारदकामुदी शशिनृतो ज्योत्स्नेव यत्याऽमला
अशतस्यै से कतिप्रमाणशकवत्मरेवतीतसु । स श्री वामपनन्दिमन्द्रनिपतिः शिप्यस्तदीयो भवेत् ॥२॥
श्रीमायग्वेटकट के पर्वशयनयतृतीयायाम ॥ शिष्यस्तस्य महात्मा चारनुयोगेष चरमनिविभवः । श्रीव पण दिगुरुमित बधानपत्रितपदा जः ॥शा
१ क दर्पण ज्ञात तनाऽपि स्वमुतानविशेषाय । लोक यस्य प्रसादादांन मुनिजनम्मत्पुरागार्थवेदी
गुणनंदिश्रीमनये व्याख्यात मोपदेश तत ॥२॥ यस्वाशानभमुर्धन्यतिविनयश: श्रीवितानो निबद्धः ।
पाश्चतयोदयोराप तच्छास्त्र ग्रन्थतोऽयंतचाप । कालास्तायेन पाराणिक विमा घोतितास्तपुराण ---
मुनिनेन्द्रनन्दिनाम्ना मावागादतं विशेषगा ||२५|| व्याख्यानाद कागद प्रथिन गुणगान्ताय कि यी २ परइदण दिगुरूगा पाम साऊण सयामद्धत । शिष्यसम्येन्द्रनंदिम नगणगोदामनमानिशमः सिरक गयणदिगमगा भत्ताग समुछिटटक.०३६६॥ प्रज्ञातीक्ष्ण स्त्र धाग-विदलित बहलाऽजानपनीवितानः । ३ देखो, जनसाहित्य र इतिहास पृ० २६६ ।
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किरण ८-९ ]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
अन्तकी गाथाएँ' भी शामिल है, प्रन्थका अंग (३७५) बंधदेवाउगुवसमसद्दिट्ठी बंधिऊण आहारं । बनाया गया है और कहीं-कहीं उनमें कुछ क्रमभेद सो चेव सासणे जादो तरिसं पुण बंध एक्को दु॥२२ भी किया गया है । यहाँ मैं इस विषयका कुछ विशेष परिचय अपने पाठकोंको देदेना चाहता हूँ, जिससे
तस्से वा बंधाउगठाणे भंगा दु भुज्जमाणम्मि । उन्हें इस ग्रन्थकी संग्रह-प्रकृतिका कुछ विशेष बोध मणुवाउगम्मि एकको देवेसु ववणगे विदियो ॥२३ हो सके:
(३७६) मणुवणिरयाउगे गरसुराये गिरागबंधम्मि। रायचन्द्र-जैनशास्त्रमालाके संवत् १९६९ के तिरयाऊगा तिगिदरे मिच्छन्वणम्मि भुज्जमणुसाऊ॥२८ संस्करणमें इस अधिकारकी गाथा-संख्या ३५८ से ३९७ तक ४०दी है; जबकि आराकी उक्त ग्रन्थ-प्रतिमें
4 (३८०) पुव्वुत्तपणपणाउगभंगा बंधस्स भुज्जमणुसाऊ । वह ४८ या ४९ पाई जाती है। आठ गाथाएँ जो अगगतियाऊसहिया तिगतिगचउगिरयतिरियाऊण३० उसमें अधिक हैं अथवा गोम्मटसारमें जिन्हें छोड़ा (३६०)विदियं तेरसबारसठाणं पुगारुत्तमिदि विहायपुणो गया है वे निम्न प्रकार हैं। गोम्मटसारकी जिस
दसु सादेदरपयडी परियगादो दुगद्गा भंगा ।।४१ गाथाके बाद वे उक्त ग्रन्थ प्रतिमें उपलब्ध हैं उसका नम्बर शुरूमें कोष्टकके भीतर देदिया गया है:कोएकके भीतर देदिया गया है। उक्त ग्रन्थतिकी गाथाएँ नं० १५, १६, १७
गोम्मटसारमें क्रमशः नं.३६८, ३६९, ३७० पर पाई (३६०) घाई तियउज्जोवं थावरवियलं च ताव एइंदी।
__ जाती हैं; परन्तु गाथा नं. १४ को ३७६ नम्बरपर गिरय-तिरिक्ख दु सुहुमं साहरगो होइ तेसट्ठी॥४ दिया है, और इस तरह गोम्मटसारमं क्रमभेद किया (३६४)गिरयादिसु भुज्जेगं बंधुदगं बारि बारि दोगणेत्थ गया है । इसी तरह २५, २६ नं० की गाथाओंको भी
पुणरुत्तसमविहीणा आउगभंगा हु पज्जेव ॥ क्रमभेद करके नं० ३७८, ३७७ पर दिया है। गिरयतिरयाणु गोरइ यणहाउ तिरियमणुयाऊ य ।
आराके उक्त भवनमें एक दूसरी प्रति भी है,
जिसमें तीन गाथाएँ और अधिक हैं और वे इस तेरिच्छियदेवाऊ माणुसदेवाउ एगेगे ॥१०॥
प्रकार हैं:१ अन्तकी दो गाथाएं वे ही हैं जिनमेंसे एकमें इन्द्रनन्दीसे लथम गिधिमिले बदाउसि मागासीगदी एग । मकल सिद्धांतको सुनकर कनकनन्दिके द्वारा सत्वस्थानके रचे
मणुवगिरयाऊ भंगु पज्जत्ते भुज्जमागणिरयाऊ ॥१५॥ जानेका उल्लेख है और दूसरी 'जह चक्केण य चक्की' नामकी वह गाथा है जिसमें चक्री की तरह पटग्वण्ड गिरयदुगं तिरियदुगं विगतिगचउरवख जादि थीणतियं । साधने की बात है और जिससे कनकनन्दीका भी 'सिद्धांत- उज्जोवं प्राताविगि साहारगा सुहम थावरयं ॥३॥ चक्रवर्ति' होना पाया जाता है-श्राराकी उक्त प्रतिमें मझड कसाय संदं थीवेदं हस्सपमुह छक्कसाया । अन्यको 'श्रीकनकनन्दि-मैद्वान्तचक्रवर्तिकृत' लिखा भी
पुरिसो कोहो मागो अणियट्टी भागहीण पयडीओ ॥४० है । ये दोनों गाथाए कर्मकाण्डकी गाथा नं० ३६६ तथा ३६७ के रूम पीछे उद्धत की जा चुकी हैं।
हालमें उक्त मत्वस्थानकी एक प्रति मंवत् १८८७ २ संख्याङ्क ४६ दिये हैं परन्तु गाथाएँ, ४८ हैं, इससे या तो की लिखी हुई मुझे पं० परमानन्दजीके पाससे देखने
एक गाथा यहां छूट गई है और या संख्याङ्क गलत पड़े को मिली जो दूसरे त्रिभंगी आदि ग्रन्थोंके साथ है । हो सकता है कि 'गिरयाऊ-तिरियाऊ' नामकी वह सवाई जयपुर में लिखी गई एक पत्राकार प्रति है और गाथा ही यहां छुट गई हो जो अागे उल्लेखित एक जिसके अन्तमें ग्रन्थका नाम 'विशेषसत्तात्रिभंगी' दूसरी प्रतिमें पाई जाती है।
दिया है । इस ग्रन्थप्रतिमें गाथा-संख्या कुल ४१ है,
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३०६
अनेकान्त
[ वर्ष ८
अतः इस प्रतिके अनुसार गोम्मटसारके उक्त लेखकोंके द्वारा लिखते समय कुछ गाथाएँ छूट गई अधिकारमें केवल एक गाथा ही छूटी है और वह हो, जैसा कि बहुधा देखनेमें आता है। 'णारकछक्कल्वेल्ले' नामकी गाथा (क० ३७०) के प्रकृतिसमुत्कीतेन और कमेप्रकृति अनन्तर इस प्रकार है:णिरियाऊ तिरयाऊ णिरिय-गराऊ तिरय-मणुवायु ।
इस ग्रंथके कर्मकाण्डका पहिला अधिकार तेरंचिय-देवाऊ माणुस-देवाउ एगेगं ॥१५॥
: 'पयडिसमुक्कित्तण' (प्रकृतिसमुत्कीर्तन) नामका है,
जिसमें मुद्रित प्रतिके अनुमार ८६ गाथाएँ पाई जाती शेष गाथाओंका क्रम पाराकी प्रतिके अनुरूप ही।
हैं। इस अधिकारको जब पढ़ते हैं तो अनेक स्थानों है, और इससे गोम्मटसारमें किये गये क्रमभेदकी बातको और भी पुष्टि मिलती है।
पर ऐसा महसूस होता है कि वहाँ मूलग्रंथका कुछ यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता
अंश त्रुटित है-छूट गया अथवा लिखनेसे रह हूँ कि सत्वस्थान अथवा सत्व(सत्ता)त्रिभङ्गीकी
गया है, इसीसे पूर्वाऽपर कथनोंकी सङ्गति जैसी उक्त प्रतियोंमें जो गाथाओंकी न्यूनाधिकता पाई
चाहिये वैसी ठीक नहीं बैठती और उससे यह जाना
जाता है कि यह अधिकार अपने वर्तमान रूपमें पूर्ण जाती है उसके तीन कारण हो सकते हैं-(१) एक तो यह कि, मूलमें प्राचार्य कनकनन्दीने ग्रन्थको
अथवा सुव्यवस्थित नहीं है। अनेक शास्त्र-भंडारोंमें
कर्मप्रकृति (कम्मपयडी), प्रकृतिममत्कीर्तन, कर्म४० या ४१ गाथा-जितना ही निर्मित किया हो, जिसकी कापियाँ अन्यत्र पहुँच गई हों और बादको
काण्ड अथवा कर्मकाण्डका प्रथम अंश-जैसे नामोंके
साथ एक दूसरा अधिकार (प्रकरण) भी पाया जाता उन्होंने उममें कुछ गाथाएं और बढ़ाकर उसे
है, जिसकी सैकड़ों प्रतियाँ उपलब्ध हैं और जो उस 'विस्तरसत्वत्रिभङ्गी' का रूप उसी प्रकार दिया।
__ अधिकार के अधिक प्रचारका द्योतन करती हैं। साथ हो जिस प्रकार द्रव्यसंग्रहके कर्ता नेमिचन्द्रने, टीकाकार ब्रह्मदेवकं कथनानुसार, अपनी पूर्व-चत
ही, उसपर टीका-टिप्पण भी उपलब्ध है' और उन २६ गाथाओंमें ३२ गाथाश्रांकी वृद्धि करके उस १ (क) संस्कृत टीका भट्टारक ज्ञानभषणने, जो कि मूलसघी वर्तमान द्रव्यसंग्रहका रूप दिया है। और यह
भ० लक्ष्मीचन्द्रके पट्टशिष्य वीरचन्द्रके वंशमें हुए कोई अनोखी अथवा असंभव बात नहीं है, आज
हैं, मुमतिकीर्तिके सहयोगसे बनाई है आर टीकामें भी ग्रन्थकार अपने ग्रंथोंके संशोधित और परिवर्धित
मूल ग्रन्थका नाम 'कर्मकाण्ड' दिया है :संस्करण निकालते हुए देखे जाते हैं । (२) दूसरा
तदन्वये दयाम्भोधिर्ज्ञानभूपो गुणाकरः । यह कि बादको अन्य विद्वानोंने अपनी-अपनी प्रतियोंम
टीकां हि कर्मकाण्डस्य चक्र सुमतिकीर्तियुक । प्रशस्ति कुछ गाथाओंको किमी तरह बढ़ाया अथवा प्रक्षिप्त
(ख) दूसरी भाषा टीका पं० हेमराजकी बनाई हुई है, किया हो । परन्तु इस वाक्यसूचीके दूसरे किसी भी
जिसकी एक प्रति सं० १८२६ की लिखी हुई मूल ग्रंथमें उक्त बारह गाथाओं से कोई गाथा
तिगोड़ा जि. सागरके जैन मन्दिरमें है। उपलब्ध नहीं हानी, यह बात खास तौरसे नोट करने
(अनेकान्त वर्ष ३, किरण १२ पृष्ठ ७६४)
(ग) सटिप्पण-प्रति शाहगढ़ जि. सागरके सिंघीजीके योग्य है । और (३) तीसरा कारण यह कि प्रति
मन्दिर में संवत् १५२७ की लिखी हुई है, जिसकी १ देखो, ब्रह्मदेव कृत टीकाकी पीठिका ।
अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार है :२ सूची के समय पृथकरूपम इस सत्वत्रिभंगी प्रथकी कोई
इति श्रीनेमिचन्द्र - सिद्धान्त - चक्रवर्ति - विरचित कर्म प्रति अपने सामने नहीं थी और इसीसे इसके वाक्योंको
काण्डस्य प्रथमोशः समाप्तः । शुभं भवतु लेग्बक-पाठकयोः सूची में शामिल नहीं किया जा सका । उन्हें अब यथा अथ संवत् १५२७ वर्षे माघवदि १४ रविवासरे।" स्थान बढ़ाया जा सकता है।
(अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२ पृ० ७६२-६४)
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किरण ८-९]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
परसे उसकी गाथा-संख्या १६० जानी जाती है तथा कुछ अंशोंको उद्धृत करके यह स्पष्ट करनेका यत्न ग्रन्थ-कर्ताका नाम 'नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती' भी किया गया कि उनमें ग्रन्थका कर्ता 'नेमिचन्द्रउपलब्ध होता है। उसमें ७५ गाथाएँ ऐसी हैं जो इस सिद्धान्ती' 'नेमिचन्द्र-सिद्धान्तदेव' ही नहीं, किन्तु अधिकारमें नहीं पाई जातीं। उन बढ़ी हुई गाथाओंमें- 'नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती' भी लिखा है और ग्रन्थसे कुछ परसे उन अंशोंकी पूर्ति हो जाती है जो को टीकामें 'कर्मकाण्ड' तथा टिप्पणमें 'कर्मकाण्डका त्रुटित समझे जाते हैं और शेष परसे विशेष कथनों प्रथम अंश' सूचित किया है। साथही, शाहगढ़ की उपलब्धि होती है । और इसलिये पं० परमानन्द- जि० सागरके सिंघईजीके मन्दिरकी एक ऐसी जीर्णजी शास्त्रीने ‘गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति' शीर्ण प्रतिका भी उल्लेख किया है जिसमें कर्मकाण्डके नामका एक लेख लिखा, जो अनेकान्त वर्ष ३ किरण शुरूके दो अधिकार तो पूरे हैं और तीसरे अधिकार८-९ में प्रकाशित हुआ है और उसके द्वारा त्रुटियोंको की ४० मेंसे २५ गाथाएँ हैं, शेष ग्रन्थ संभवतः तथा कर्मप्रकृतिकी गाथाओं परसे उनकी पूर्तिको दिख- अपनी अतिजीणताके कारण टूट-टाट कर नष्ट लाते हुए यह प्रेरणा की कि कर्मप्रकृतिकी उन बढ़ी हुई हुआ जान पड़ता है । इसके प्रथम अधिकारमें वे ही
आको कर्मकाण्डम शामिल करके उसकी जाट- १६० गाथाएँ पाई जाती है जो कमप्रकृतिम उपलब्ध पति कर लेनी चाहिये । यह लेख जहाँ पण्डित हैं और इस परसे यह घोषित किया गया कि कमकैलाशचन्द्रजी आदि अनेक विद्वानोंको पसन्द आया प्रकृतिकी जिन गाथाओंको कर्मकाण्डमें शामिल वहाँ प्रो० हीरालालजी एम० ए० आदि कुछ विद्वानों करनेका प्रस्ताव रकम्वा गया है वे पहलेसे कर्मकाण्डको पसन्द नहीं आया, और इसलिये प्रोफेसर की कुछ प्रतियोंमें शामिल हैं अथवा शामिल कर ली साहबने इसके विरोधमें पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री तथा गई हैं। इस लेखके प्रत्युत्तरमें प्रो० हीरालालजीने पं० हीरालालजी शास्त्रीक सहयोगमे एक लेख लिखा, एक दूसरा लेख और लिखा, जो 'गोम्मटसार-कर्मजो 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति पर विचार' नामसे काण्डकी त्रुटिपूर्ति-सम्बन्धी प्रकाश पर पुनः विचार' अनेकान्तके उसी वर्षकी किरण ११ में प्रकट हुआ नामसे जैनसन्देश भाग ४ के अङ्क ३२ श्रादिमें है और जिसमें यह बतलाया गया है कि 'उन्हें कर्म- प्रकाशित हुआ है और जिसमें अपनी उन्हीं बातोंको काण्ड अधूरा मालूम नहीं होता, न उससे उतनी पुष्ट करनेका यत्न किया गया है और गोम्मटसार गाथाओंक छूट जाने व दूर पड़ जाने की संभावना तथा कमप्रकृतिके एक-कतृत्व पर अपना सन्देह जंचती है और न गोम्मटसारके कर्ता-द्वारा ही कर्म- कायम रक्खा गया है; परन्तु कल्पना अथवा प्रतिके रचित होनेके कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर संभावनाके सिवाय सन्देहका कोई खास कारण होते हैं, ऐसी अवस्थामें उन गाथाओंको कर्मकाण्डमें व्यक्त नहीं किया गया। शामिल कर देनेका प्रस्ताव बड़ा साहसिक प्रतीत टिपूर्ति-सम्बन्धी यह चचा जब चल रही थी होता है।' इमके उत्तरमें पं० परमानन्दजीने दूसरा तब उससे प्रभावित होकर पं० लोकनाथजी शास्त्रीने लेख लिखा, जो अनेकान्तकी अगली १२वी किरणमें मडबिद्री सिद्धान्त-मन्दिरके शास्त्र-भण्डारमें, जहाँ 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटि-पूर्ति के विचार पर प्रकाश' धवलादिक सिद्धान्तग्रन्थोंकी मूल-प्रतियाँ मौजूद हैं, नामसे प्रकाशित हुआ है और जिसमें अधिकारके गोम्मटसारकी खोज की थी और उस खोजके नतीजेअधूरेपनको कुछ और स्पष्ट किया मया, से मुझे ३० दिसम्बर सन १९४० को सूचित करनेकी गाथाओंके छूटनेकी संभावनाके विरोध- कृपा की थी, जिसके लिये मैं उनका बहुत आभारी हूँ। का परिहार करते हुए प्रकारान्तरसे उनके छूटनेकी उनकी उस सूचना परसे मालूम होता है कि उक्त मंभावनाको व्यक्त किया गया और टीका-टिप्पणके शास्त्रभंडारमें गोम्मटसारकं जीवकाण्ड और कर्म
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३०८
अनेकान्त
काडकी मूल प्रति त्रिलोकसार और लब्धिसारक्षपणासार - सहित ताडपत्रों पर मौजूद है । पत्रसंख्या जीवकाण्डकी ३८, कर्मकाण्डकी ५३, त्रिलोकसारकी ५१ और लब्धिसार- क्षपणासारकी ४१ है । ये सब ग्रन्थ पूर्ण हैं और इनकी पद्य संख्या क्रमशः ७३०, ८७२, १०१८, ८२० है' । ताडपत्रोंकी लम्बाई दो फुट दो इञ्च और चौड़ाई दो इन है । लिपि 'प्राचीन कन्नड' है, और उसके विषयमें शास्त्रीजीने लिखा था
"ये चारों ही ग्रन्थोंमें लिपि बहुत सुन्दर एवं धवलादि सिद्धान्तोंकी लिपिके समान है । अतएव बहुत प्राचीन हैं । ये भी सिद्धान्त-लिपि-कालीन होना चाहियें । " साथ ही, यह भी लिखा था कि "कर्मकाण्ड में इस समय विवादस्थ गाथाएँ ( इस प्रतिमें) सूत्र रूप में हैं" और वे सूत्र कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारकी जिस-जिस गाथा के बाद मूल रूप में पाये जाते हैं उसकी सूचना साथमें देते हुए उनकी एक नकल भी उतार कर उन्होंने भेजी थी । इस सूचनादिको लेकर मैंने उस समय ' त्रुटिपूर्ति-विषयक नई खोज' नामका एक लेख लिखना प्रारम्भ भी किया था परन्तु समयाभावादि कुछ कारणों के वश वह पूरा नहीं हो सका और फिर दोनों विद्वानोंकी ओरसे चर्चा समाप्त हो गई, इससे उसका लिखना रह ही गया । आज मैं उन सूत्रामस आदिके पाँच स्थलांके सूत्रोंको, स्थल- विपयक सूचनादिके साथ नमृनक तौर पर यहाँ पर दे देना चाहता हूँ, जिससे पाठकोंको उक्त अधिकारकी त्रुटि पूर्ति के विषयमें विशेष विचार करनेका अवसर मिल सके :--
१ रामचन्द्र जैनशास्त्रमाला प्रकाशित जीवकाण्ड ७३३. कर्मकाण्ड ६०२ र लब्धिसार नृपणासारमे ६४६ गाथा संख्या पाई जाती है। मुद्रित पतियोंमें कान कान गाथाएँ बढ़ी हुई तथा घटी हुई है उनका लेखा यदि उक्त शास्त्रीजी प्रकट करें तो बहुत अच्छा हो ।
[ वर्ष
८
आठ
कर्मकाण्डकी २२वीं गाथामें ज्ञानावरणादि मूल कर्मप्रकृतियोंकी उत्तर कर्मप्रकृतिसंख्याका ही क्रमशः निर्देश है— उत्तरप्रकृतियोंके नामादिक नहीं दिये और न आगे ही संख्यानुसार अथवा संख्या की सूचनाके साथ उनके नाम दिये हैं । २३वीं गाथा में क्रमप्राप्त ज्ञानावरणकी ५ प्रकृतियों का कोई नामोल्लेख न करके और न उस विषय की कोई सूचना करके दर्शनावरणकी ९ प्रकृतियोंमेंसे स्त्यानगृद्धि आदि पाँच प्रकृतियोंके कार्यका निर्देश करना प्रारम्भ किया गया है, जो २५वीं गाथा तक चलता रहा है। इन दोनों गाथाओंके मध्य में निम्न गद्यसूत्र पाये जाते हैं, जिनमें ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोंका संख्या के निर्देशसहित स्पष्ट उल्लेख है और जिनसे दोनों गाथाओं का सम्बन्ध ठीक जुड़ जाता है। इनमें से प्रत्येक सूत्र 'चेइ' अथवा 'चेदि ' पर समाप्त होता है
:
“णाणावरणीयं दंसणावरणीयं वेदणीयं [मोहणीयं] आउगं ग्रामं गोदं अंत्तरायं चेइ । तत्थ णाणावरणीयं पंचविहं अभिबोहिय-सुद-ओहि -मण्पज्जव-गाणावरणीयं केवलणारणावरणीयं चेइ । इंसगावरणीयं गावविहं श्रीगागिद्धि गिद्दा गिद्दा पयलापयला गिद्दा य पयला य चक्खु अचत्रखु - हिदंसणा वरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेइ ।”
में
इन सूत्रोंकी उपस्थिति में ही अगली तीन गाथाओंजो स्त्यानगृद्धिश्रादिका क्रमशः निर्देश हैं वह सङ्गत बैठता है, अन्यथा तत्त्वार्थसूत्र तथा पट्खण्डागमकी पर्याडसमुत्तिरण - चूलियामें जब उनका भिन्नक्रम पाया जाता है तब उनके उस क्रमका कोई व्यवस्थापक नहीं रहता । अतः २३, २४, २५ नम्बरकी गाथाओं के पूर्व इन सूत्रोंकी स्थिति आवश्यक जान पड़ती है ।
२५वीं गाथा में दर्शनावरणीय कर्मकी ९ प्रकृतियों में 'प्रचला' प्रकृतिके उदयजन्य कार्यका निर्देश है । इसके बाद क्रम प्राप्त वेदनीय तथा
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किरण ८-९]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
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पm लोह
मोहनीय की उत्तर प्रकृतियोंका कोई नामोल्लेख तक हुए शरीर-बन्धन नामकर्मकी पाँच प्रकृतियों तक न करके एकदम २६वीं गाथामें यह प्रतिपादन ही कथन किया गया है :किया गया है कि मिथ्यात्वद्रव्य (जो कि मोहनीय "चारित्तमोहणीयं दुविहं कसायवेदणीयं कमेका दर्शनमाहरूप एक प्रधान भेद है) तीन भेदांन गोकसायवेदीयं चेड़ । कसायवेदीयं सोलसविहं कैस बँटकर तीन प्रकृतिरूप हो जाता है। परन्तु जब पहलेसे मोहनीयके दो भेदों और दर्शनमोहनीयक तीन खवणं पडुच्च अणंताणुबंधि-कोह-माण-माया लोहं उपभेदोंका कोई निर्देश नहीं तब वे तीन उपभेद अपच्चरखागा - पञ्चरखागावरण-कोह-मागा-माया-लोहं कैसे हो जाते हैं यह बतलाना कुछ खटकता हा कोह.संजलगां मागा-संजलगां माया-सं जरूर जान पड़ता है, और इमीसे दोनों गाथाांक संजनगां चेड़ । पक्रमदवं पहच्च अगताणबंधि-लोहमध्यमें किसी अंशके त्रुटित होनेकी कल्पना की जाती है। मृडबिद्रीको उक्त प्राचीन प्रतिमें दानोंके मध्यमें।
" माया कोह - नाणं संजलगा - लोह -माया-कोह - माणं निम्न गद्यसूत्र उपलब्ध होते हैं:
पञ्चक्रवागा-लोह-माया-कोह-मागां अपञ्चक्खाण-लोह__ "वेदनीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदगीयं माया-कोह-मागं चेइ । गाकसायवेदगीयं णवविहं चेइ । मोहणीयं दुविहं दसगमोहणीयं चारित्तमोहनीयं पुरिसित्थिगाउंसयवेदं रदि-अरदि-हस्स-सोग-भय-दुगुंचेइ । दसणमोहणीयं बंबादो एयविहं मिच्छत्तं, छा चेदि । आउगं चउविहं गिरयायुगं तिरिक्खउदयं संतं पडुच्च तिहिं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं माणुस्स-देवाउगं चंदि । गामं बादालीसं पिंडापिंडसम्मत्तं चेइ ।"
पयडिभयेगा गयि-जायि-सरीर-बंधगा-संघाद-संठागण____ उक्त दशनमोहनीयकं भेदोंकी प्रतिपादक :६वीं अंगोरंग - संघडगा वगगा - गंध -रस-फास-आणुपुथ्वीगाथाके बाद चारित्रमोहनीयकी मूलीत्तर प्रकृतियों, अनुरुगलहगुवघाद - परघाद-उस्सास-आदाव-उज्जोदआयुकर्मकी प्रकृतियों और नामकमको प्रकृतियोंका कोई नाम निर्देश न करके २७वीं गाथामें एकदम
विहायगयि-तस -थावर बादर - सुहुम - पज्जत्तापज्जत्तकिसी कर्मके १५ मयोगी भेदोंका गिनाया गया है, पत्तय-साहारगासरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-दुब्भगजो नामकर्मकी शरोर-बन्धनप्रकृतियोंसे सम्बन्ध सुम्सर-दुम्मर-याद जागादज्जजसाजसकितिणिमिणरखते हैं; परन्तु वह कर्म कोनसा है और उसकी तित्ययम्गणामं चेदि । तत्थ गयिणामं चउविहं गिरयकिन प्रकृतियोंके ये मंयोगी भेद होते हैं, यह मब उस परसे ठीक तौर पर जाना नहीं जाता। और तिरिक्वगविगाम मगाव-देवगयिगणामं चेदि । जायिइसलिये वह अपने कथनकी मङ्गनिके लिये पूवमें गाम पंचविहं एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउइंदियकिसी ऐसे कथनके अस्तित्वकी कल्पनाको जन्म जायिगाामं पंचिंदियनायिगगामं चेदि । सरीरणाम पंचदेती है जो किसी तरह छूट गया अथवा त्रुटित हो विहं ओरालिय गुलियय-आहार तेज-कम्मइयसरीरगया है। वह कथन मूडबिद्रीका उक्त प्रतिमें निम्न गद्य सूत्रों में पाया जाता है, जिससे उतर-कथनकी गणाम चई। सराबधगागणाम पचावह आरालि संगति ठीक बैठ जाती है; क्योंकि इनमें चारित्र- वेगुब्धिय-आहार-तेज-कम्मइय-सरीरबंधणगामं चेइ ।" मोहनीयकी २८, आयुकी ४ और नामकर्मकी मूल ४२ २७वीं गाथाके बाद जो २८वीं गाथा है उसमें प्रकृतियोंका नामोल्लेख करनेके अनन्तर नामकर्मके शरीरमें होने वाले आठ अङ्गोंके नाम देकर शेषको जाति आदि भेदोंकी उत्तरप्रकृतियोंका उल्लेख करते उपाङ्ग बतलाया है; परन्तु उस परसे यह मालूम
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३१०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
नहीं होता कि ये अङ्ग कौनसे शरीर अथवा शरीरोंमें दृष्टिसे ही शरीरबन्धनादिके बाद २८वीं गाथामें होते हैं। पूर्वकी गाथा नं० २७ में शरीरबन्धन- अङ्गोपाङ्गका कथन किया गया है, अन्यथा तत्त्वार्थसम्बन्धी १५ संयोगी भेदोंकी सूचना करते हुए तैजस सूत्रकी दृष्टिसे वह कथन शरीरबन्धनादिकी और कार्माण नामके शरीरोंका तो स्पष्ट उल्लेख है प्रकृतियोंके पूर्वमें ही होना चाहिये था; क्योंकि शेष तीनका 'तिए' पदके द्वारा संकेत मात्र है; परन्तु तत्त्वाथसूत्रमें "शरीराङ्गोपाङ्ग निर्माण-बन्धन-संघातउनका नामोल्लेख पहलेकी भी किसी गाथामें नहीं संस्थान-संहनन" इस क्रमसे कथन है। और इससे है, तब उन अङ्गों-उपाङ्गोंको तैजस और कार्माणके नामकर्म-विषयक उक्त सूत्रोंकी स्थिति और भी अङ्ग-उपाङ्ग समझा जाय अथवा पाँचामसे प्रत्यक सबढ़ होती है। शरीरके अङ्ग-उपाङ्ग ? तैजस और कार्माण शरीरके अङ्गोपाङ्ग मानने पर सिद्धान्तका विरोध आता है;
२८वीं गाथाके अनन्तर चार गाथाओं (नं० २९, क्योंकि सिद्धांतमें इन दोनों शरीरोंके अङ्गोपाङ नहीं ३०, ३१, ३२) में संहननोंका, जिनकी संख्या छह माने गये हैं और इसलिये प्रत्येक शरीरके अको सूचित की है, वणन है अथात प्रथम तीन गाथाओंम पाङ्ग भी उन्हें नहीं कहा जा सकता है। शेष तीन यह बतलाया है कि किस किम संहननवाला जीव शरीरोंमसे कौनसे शरीरके अङ्गोपाङ यहाँ स्वगादि तथा नरकाम कहाँ तक जाता अथवा मरकर विक्षित हैं यह संदिग्ध है। अतः गाथा नं. २८ का
- उत्पन्न होता है और चौथी (नं० ३२) में यह प्रनिकथन अपने विपयमें अस्पष्ट तथा अधराई और पादित किया है कि 'कर्मभूमिकी स्त्रियों के अन्तके तीन उसकी स्पष्टता तथा पूर्ति के लिये अपने पूर्व में किसी सहननाका ही उदय रहता है, आदिके तीन संहनन दुसरे कथनकी अपेक्षा रखता है । वह कथन मूड
- तो उनके होते ही नहीं, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है।' बिद्रीकी उक्त प्रतिमें दोनों गाथाओंके मध्यमें उपलब्ध
परन्तु ठीक क्रम-आदिको लिये हुए छहों संहननोंके होने वाले निम्न गद्यसूत्रों से अन्तके सूत्रमें पाया
नामोंका उल्लेख नहीं किया-मात्र चार संहननोंके जाता है, जो उक्त २८वीं गाथाके ठीक पूर्ववर्ती है
नाम ही इन गाथाओंपरसे उपलब्ध होते हैं, जिससे और जिसमें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन
'आदिमतिगमहडणं', 'अंतिमतिय मंहडणम्स', 'तिद्तीन शरीरोंकी दृष्टिसे अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके तीन गंगे महडणे,' और 'पणचदुरंगमहडणो' जैसे पदोंका भंद किये हैं और इस तरह इन तीन शरीरोंमें ही ठीक अर्थ घटित हो सकता। और न यही बतलाया अङ्गोपाङ्ग होते हैं ऐसा निर्दिष्ट किया है :- है कि ये छहों संहनन कौनसे कर्मकी प्रकृतियाँ हैं"सरीरसंघादणामं पंचविहं ओरालिय - वेगुठियय
पूर्वकी किसी गाथापरसं भी छहों के नाम नामकर्मके नाम
__ सहित उपलब्ध नहीं होते। और इसलिये इन चारों आहार-तेज-कम्मइय-सरीरसंघादगामं चेदि । सरीर- गाथाओंका कथन अपने पूर्वमें ऐसे कथनकी मांग संठाणणामकम्मं छविहं समचउरसंठाणणामं णग्गोद- करता है जो ठीक क्रमादिकं साथ छह संहननोंके परिमंडल-सादिय-कुज्ज-वामणहड.सरीरसंठाण णामं नामोल्लेखको लिये हुए हो। ऐसा कथन मूडबिद्रीकी
उक्त प्रतिमें २८वीं गाथाके अनन्तर दिये हुए निम्न चेदि । सरीर-अंगोवंगणाम तिविहं ओरालिय-वेगुधिय.
व्यय. सूत्रपरसे उपलब्ध होता है:आहारसरीर - अंगोवंगणामं चेदि ।"
___संहडण-णामं छव्विहं वज्जरिसहणारायसंहडण___ यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि २७वीं गाथाके पूर्ववर्ती गद्यसूत्रोंमें नामकर्मकी णामं वज्जणाराय.णाराय-अद्धणाराय-खीलिय.असंपत्त. प्रकृतियोंका जो क्रम स्थापित किया गया है उसकी सेवट्टि-सरीरसंहडणणामं चेइ ।"
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किरण ८-९]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
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यहाँ संहननोंके प्रथम भेदको अलग विभक्तिसे देखनेमें नहीं आते और ग्रन्थके पूर्वाऽपर सम्बन्धको रखना अपनी खास विशेषता रखता है और वह दृष्टिमें रखते हुए उसके आवश्यक अङ्ग जान पड़ते हैं, ३८वीं गाथामें प्रयुक्त हुए 'इग' 'एग' शब्दोंके अर्थको इसलिये इन्हें प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता आचार्य नेमिचन्द्रठीक व्यवस्थित करनेमें समर्थ है।
की ही कृति अथवा योजना समझना चाहिये । पद्य___ इसी तरह मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमें, नामकर्मकी प्रधान ग्रन्थोंमें गद्यसूत्रों अथवा कुछ गद्य भागका अन्य प्रकृतियोंक भेदाभेदको लिये हुए तथा गोत्रकर्म होना कोई अस्वाभाविक अथवा दोषकी बात भी और अन्तरायकर्मकी प्रकृतियोंको प्रदर्शित करने वाले नहीं है, दूसरे अनेक पद्य-प्रधान ग्रन्थोंमें भी पयोंके और भी गद्यसूत्र यथास्थान पाये जाते हैं, जिन्हें साथ कहीं-कहीं कुछ गद्य भाग उपलब्ध होता है; स्थल-विशेषकी सूचनादिके बिना ही मैं यहाँ, पाठकों
जैसे कि तिलोयपण्णत्ती और प्राकृतपञ्चसंग्रहमें । की जानकारीके लिये, उद्धृत कर देना चाहता हूँ:
ऐसा मालूम होता है कि ये गद्यसूत्र टीका-टिप्पणका
अंश समझे जाकर लेखकोंकी कृपासे प्रतियोंमें छट "वएणणामं पंचविहं किएण-णील-रुहिर-पीद
_ गये हैं और इसलिये इनका प्रचार नहीं हो पाया। सुक्किल-वण्णणामं चेदि । गंधणामं दुविहं सुगंध
परन्तु टीकाकारोंकी आँखोंसे ये सर्वथा श्रोझल नहीं दुग्गंध-णामं चेदि । रसणामं पंचविहे तिट्ट-कडु- रहे हैं उन्होंने अपनी टीकाओंमें इन्हें ज्यों-के-त्यों न कसायंबिल-महुर-रमणामं चेइ । फासणाम अविहं ।
रखकर अनुवादितरूपमें रक्खा है, और यही उनकी कक्कड-मउगगुरुलहुग-रुक्ख-सणिद्ध-सीदुसुण-फास
सबसे बड़ी भूल हुई है, जिससे मूलसूत्रोंका प्रचार णाम चेदि । आगुपुवीणामं चउविहं णिरय-तिर
रुक गया और उनकं अभावमें ग्रन्थका यह अधिकार क्खगयि-पाओग्गाणुपुव्वीणामं माणुस-देवाय
त्रुटिपूर्ण जैचने लगा । चुनाँचे कलकत्तासे जैनपाओग्गागुपुव्वीणामं चेइ । अगुरुलघुग-उवघाद
सिद्धान्त-प्रकाशिनी संस्था द्वारा दो टीकाओंके साथ परघाद-उस्सास-श्रादव-उज्जोद-णामं चेदि । विहाय
य- प्रकाशित इस ग्रन्थकी संस्कृत टीकामें दिणामकम्मं दुविहं पसथविहायगदिणामं अप्पसत्थविहायगदिणामं चेदि । तम-बादर- पज्जत्त-पत्तेय
(क) “वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीयो।” “सादावेदणीयं सरीर-सुभ-सुभग-सुम्सर-आदेज-जसकित्ति-णिमिण
चव असादावेदणीयं चेव ।” तित्थयरणामं चेदि । थावर-सुहम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-अथिर-अमुह- दुब्भग-दुस्सर-श्रणादेज-अज
-पट खं० १, ६ चू०८ मकित्तिणामं चेदि । गोदकम्मं दुविहं उच्च-णीचगोदं "वेदणीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदणीय चेइ" चंइ । अंतरायं पंचविहं दाण-लाभ-भोगोपभोग
-गो० क० मूडचिद्री-प्रति वीरिय-अंतरायं चेइ।"
(ख) जं तं शरीरबंधणणामकम्मं तं पंचविहं मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमें पाये जाने वाले ये सब
अोरालिय-मरीरबंधणणाम, वेउब्बिय सरीरबंधणसूत्र षट्खण्डागमके सूत्रोंपरसे थोड़ा बहुत सक्षेप
णामं आहार-सरीरबंधणणामं तेजासरीरबंधणकरके बनाये गये मालूम होते हैं', अन्यत्र कहीं
णाम कम्मइयसरीरबंधणणामं चेदि ।” * इस चिन्हसे पूर्ववर्ती सूत्रोंको गाथा नं०३२ के और उत्तर
-षट खं०१,६ चू०१ वर्ती सूत्रोंको गाथा नं० ३३ के बादके समझना चाहिये।
मरीरबंधणणामं पंचविहं ओरालिय वेगुब्विय१ तुलनाके लिये दोनोंके कुछ मूत्र उदाहरणके तौरपर श्राहार-तेज-कम्मइय-सरीरबंधणणामं चेइ ।” नीचे दिये जाते हैं:
---गो० क० मूडबिद्री-प्रति
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३१२
अनेकान्त
[ वर्ष ८
सार भाषा टीकामें भी) ये सब सूत्र प्रायः' ज्यों-के- ठीक घटित किया जा सकता है-इनके अथवा इन त्यों अनुवादके रूपमें पाये जाते हैं, जिसका एक जैसे दूसरे पद-वाक्योंके अभावमें नहीं । इस विषयके नमूना २५वीं गाथाके साथ पाये जाने वाले सूत्रोंका विशेष प्रदर्शन एवं स्पष्टीकरणको में लेखक बढ़ जाने इस प्रकार है:
के भयसे ही नहीं, किन्तु वर्तमानमें अनावश्यक ____ "वेदनीयं द्विविधं सातावेदनीयमसातावेदनीयं समझकर भी, यहां छोड़े देता हूँ-विज्ञपाठक उसका चेति । मोहनीयं द्विविधं दर्शनमोहनीयं चारित्र- अनुभव स्वतः कर सकते हैं; क्योंकि मैं समझता हूँ इस मोहनीयं चेति । तत्र दर्शनमोहनीयं बंध-विवक्षया विषयमें ऊपर जो कुछ लिखा गया और विवेचन मिथ्यात्वमेकविधं उदयं सत्व प्रतीत्य मिथ्यात्वं किया गया है वह सब इस बातके लिये पर्याप्त है सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वप्रकृतिश्चेति त्रिविधं ।" कि ये सब सूत्र मूलग्रन्थ के अंगभूत हैं। और इसलिए और इससे इन सूत्रोंके मूल ग्रन्थका अङ्ग होनेकी इन्हें ग्रन्थमें यथास्थान गाथाओंवाले टाइपमें ही पुनः
की सुदृढ़ हो जाती है। वस्तुतः इन सूत्रोंकी स्थापित करके ग्रन्थकं प्रकृत अधिकारकी त्रुटिको दूर मौजूदगीमें ही अगली गाथाओंके भी कितने ही करना चाहिये। शब्दों, पद-वाक्यों अथवा सांकेतिक प्रयोगोंका अर्थ अब रही उन ७५ गाथाओंकी बात, जो 'कर्म
- प्रकृति' प्रकरणम तो पाई जाती हैं किन्तु गोम्मटसार१ 'प्रायः' शब्दके प्रयोगका यहाँ प्राशय इतना ही है कि
जिमका प्रारम्भ 'ज्ञानावरणादीनां यथासंख्यमुत्तरभेदाः दो एक जगह थोड़ासा भेद भी पाया जाता है, वह या
पचनव' इत्यादि रूपसे किया गया है और इसलिये तो अनुवादादिकी ग़लती अथवा अनुवाद पद्धतिसे
मूलकों के नाम-विषयक प्रथम सूत्रके ('तत्थ' शब्दसम्बन्ध रखता है अथवा उसे सम्पादनकी ग़लती
सहित) अनुवादको छोड़ दिया है। जब कि पं० टोडरमल्लसमझना चाहिये । सम्पादनकी ग़लतीका एक स्पष्ट
जीकी टीकामें उसका अनुवाद किया गया है और उसमें उदाहरण २२वीं गाथा-टीकाके साथ पाये जाने वाले
ज्ञानावरणीय ग्रादि कोंके नाम देकर उन्हें "पाठ निम्न सूत्रमें उपलब्ध होता है--
मूल प्रकृति" प्रकट किया है, जो कि मंगत है और इस "दर्शनावरणीयं नवविधं स्त्यानगृद्धि निद्रा निद्रानिद्रा
बातको सूचित करता है कि उक्त प्रथम सूत्रम या तो प्रचला - प्रचलाप्रचला - चनुरक्षरवधिदर्शनावरणीयं
उक प्राशयका कोई पद त्रुटित है अथवा 'मोहणीयं' केवलदर्शनावरणीयं चेति ।”
पटकी तरह उद्धृत होनेसे रहगया है। इसके सिवाय, इसमें स्त्यानगृद्धिके बाद दो हाइफनों (-) के माध्यमें 'शरीरबन्धन' नामकमके पांच भेदोका जो सूत्र २७वीं जो 'निद्रा' को रक्खा है उसे उस प्रकार वहां न रखकर गाथाके पूर्व पापा जाता है उसे टीकामें २७ वी गाथा 'प्रचलाप्रचला' के मध्यमें रखना चाहिये था पार इम के अनन्तर पाये जाने वाले मूत्रों में प्रथम रक्खा है। 'प्रचलाप्रचला' के पूर्व में जो हाइफन है उसे निकाल देना और इमस 'शरीरबन्धन' नामककर्मके जो १५ भेद होते चाहिये था, तभी मूलसूत्रके साथ और ग्रन्थकी अगली थ व 'शरीर' नामकर्मके १५ भेद होजाते हैं, जो कि एक तीन गाथाअोंके साथ इसकी संगति ठीक बैट सकती सैद्धान्तिक ग़लती है और टीकाकार-द्वारा उक्त सूत्रको थी। पं० टोडरमल्लजीकी भाषा टीकामें मूलसूत्रके नियत स्थानपर न रखने के कारण २७वीं गाथाके अर्थ अनुरूप ही अनुवाद किया गया है। अनुवाद-पद्धतिका में घटित हुई है; क्योंकि पटवण्डागममें भी एक नमूना ऊपर उद्धृत मोहनीय-कर्म-विषयक सूत्रमें 'अोरालिय श्रोगलिय-शरीरबंधो' इत्यादि रूपसे पाया जाता है, जिसमें 'एकविध' र 'त्रिविध' पदों- १५ भेद शरीरबन्धके ही दिये हैं और उन्हें देकर को थोड़ा-सा स्थानान्तरित करके रक्खा गया है। और श्रीवीरसेनस्वामीने धवला-टीकामें साफ लिखा हैदूसरा नमूना २२वीं गाथाकी टीकामें उपलब्ध होता है, "एमो पगणारसविहो बंधो सो सरोरबंधी त्ति घेत्तब्वो।"
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किरण ८-९]
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के इस 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकरमें नहीं पाई अर्थात यह प्रस्ताव किया जाय कि 'ये ३४ गाथाएँ जातीं, और जिनके विषयमें पं० परमानन्दजी शास्त्री- चूँकि कर्मप्रकृतिमें पाई जाती हैं, जो कि वास्तवमें का यह कहना है कि वे सब कर्मकाण्डकी अंगभूत कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार है और 'प्रथम अंश' आवश्यक और सङ्गत गाथाएँ हैं, जो किसी समय आदिरूपसे उल्लेखित भी मिलता है, इसलिये इन्हें भी लेखकोंकी कृपासे कर्मकाण्डसे छूट गई अथवा उससे वर्तमान कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारमें जुदी पड़ गई हैं, और इसलिये उन्हें फिरसे कर्म- त्रुटित समझा जाकर शामिल किया जाय' तो यह काण्डमें यथास्थान शामिल करके उसकी उस त्रुटि- प्रस्ताव बिल्कुल ही असङ्गत होगा; क्योंकि ये गाथाएँ को पूरा करना चाहिये जिसके कारण वह अधूरा कमकाण्डके प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकारके साथ किसी और लडूंरा जान पड़ता है।
तरह भी सङ्गत नहीं हैं और साथ ही उसमें अनावश्यक ___ जहाँ तक मैंने उन विवादस्थ गाथाओं पर, उनके भी हैं । वास्तवमें ये गाथाएँ प्रकृतिसमुत्कीर्तनसे नहीं कमकाण्डका आवश्यक तथा सङ्गत अङ्ग होने, किन्तु स्थिति-बन्धादिकसे सम्बन्ध रखती हैं, जिनके कर्मकाण्डसे किसी समय छुटकर कर्म-प्रकृतिके रूपमें लिये ग्रन्थकारने ग्रन्थमें द्वितीयादि अलग अधिकारोंअलग पड़जाने और कर्मकाण्डमें उनके पुनः प्रवेश की सृष्टि की है । और इसलिये एक योग्य ग्रन्थकारके कराने आदिके प्रश्नोंको लेकर, विचार किया है लिये यह संभव नहीं कि जिन गाथाओंको वह मुझे प्रथम तो यह मालूम नहीं हो सका कि 'कर्म- अधिकृत अधिकारमें रक्खे उन्हें व्यर्थ ही अनधिकृत प्रकृति' प्रकरण और 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार अधिकारमें भी डाल देवे । इसके सिवाय, कर्मप्रकृतिदोनोंको एक कैसे समझ लिया गया है, जिसके में, जिसे गोम्मटसारके कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार आधारपर एकमें जो गाथाएँ अधिक हैं उन्हें दूसरेमें समझा और बतलाया जाता है, उक्त गाथाओंका भी शामिल करानका प्रस्ताव रक्खा गया है: जब कि देना प्रारम्भ करनेसे पहले ही 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' के कर्मप्रकृतिमें प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारसे ७५ गाथाएँ कथनका समाप्त कर दिया है-लिख दिया है अधिक ही नहीं बल्कि उसकी ३५ गाथाएँ (नं.५ "इति पर्याडसमुक्त्तिणं समत्तं ॥" और उसके से ८६ तक) कम भी हैं, जिन्हें कर्मप्रकृतिम शामिल अनन्तर तथा 'तीमं कोडाकोडी' इत्यादि गाथाको करनेके लिये नहीं कहा गया, और इसी तरह देनेसे पूर्व टीकाकार ज्ञानभूषणने साफ लिखा है :२३ गाथाएँ कर्मकाण्डके द्वितीय अधिकारकी “इति प्रकृतीनां समुत्कर्तिनं समाप्तं ।। अथ प्रकृति(नं० १२७ से १४५, १६३, १८०, १८१, १८४) तथा स्वरूपं व्याख्याय स्थितिबन्धमनुपक्रमन्नादौ मूल११ गाथाएँ छठे अधिकारकी (नं० ८०० से ८१० तक) भी उसमें और अधिक पाई जाती हैं, जिन्हें पण्डित प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धमाह ।" परमानन्दजीने अधिकार-भेदस गाथा-संख्याके कुछ इससे 'कर्मप्रकृति' की स्थिति बहुत स्पष्ट हो गलत उल्लेखके माथ स्वयं स्वीकार किया है, परन्तु जाती है और वह गोम्मटसारकं कर्मकाण्डका प्रथम प्रकृतिसमुत्कीतन अधिकारमें उन्हें शामिल करनका अधिकार न होकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही ठहरता है, सुझाव नहीं रक्खा गया। दोनों एक होनेकी दृष्टिसे जिसमें प्रकृतिसमुत्कीर्तन' को ही नहीं किन्तु प्रदेशयदि एककी कमीको दुमरेसे पूरा किया जाय और बन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कथनोंको भी इस तरह 'प्रकृतिसमुत्कातन' अधिकारकी उक्त ३५ अपनी रुचिके अनुसार संकलित किया गया है और गाथाओंको कमप्रतिमें शामिल कराने के साथ-साथ जिसका संकलन गोम्मटसारक निमाणसे किसी कमप्रकृतिकी उक्त ३४ (२३+११) गाथाओंको भी समय बादको हुआ जान पड़ता है। उसे लोटा प्रकृतिसमुत्कीतनमें शामिल कगनके लिये कहा जाय कर्मकाण्ड समझना चाहिये । इसीसे उक्त टीकाकारने
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अनेकान्त
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उसे 'कर्मकाण्ड' ही नाम दिया है-कर्मकाण्डका करना कि “कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमें उक्त 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' अधिकार नाम नहीं, और अपनी ७५ गाथाएँ पहलेसे ही संकलित और प्रचलित है"" टीकाको 'कर्मकाण्डस्य टीका' लिखा है; जैसाकि ऊपर कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। एक फुटनोटमें उद्धृत किये हुए उसके प्रशस्ति- अब उन त्रुटित कही जाने वाली ७५ गाथाओंवाक्यसे प्रकट है। पं० हेमराजने भी, अपनी भाषा- पर, उनके प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारका आवश्यक टीकामें, ग्रन्थका नाम 'कर्मकाण्ड' और टीकाको तथा सङ्गत अङ्ग होने न होने आदिकी दृष्टिसे, 'कमकाण्ड-टीका' प्रकट किया है । और इसलिये विचार किया जाता है:शाहगढ़की जिस सटिप्पण प्रतिमें इसे 'कर्मकाण्डका (१) गो० कर्मकाण्डकी १५वीं गाथाके अनन्तर प्रथम अंश' लिखा है वह किसी गलतीका परिणाम जो 'सियअत्थिरणत्थि उभयं' नामकी गाथा त्रुटित जान पड़ता है। संभव है कर्मकाण्डके आदि-भाग बतलाई जाती है वह ग्रन्थ-संदर्भकी दृष्टिसे उसका 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' से इसका प्रारम्भ देखकर और संगत तथा आवश्यक अङ्ग मालूम नहीं होती; क्योंकि कर्मकाण्डसे इसको बहुत छोटा पाकर प्रतिलेखकने १५वीं गाथामें जीवके दर्शन, ज्ञान और सम्यक्त्वइसे पुष्पिकामें 'कर्मकाण्डका प्रथम अंश' सूचित गुणोंका निर्देश करके १६वीं गाथामें उनके क्रमका किया हो । और शाहगढ़की जिम प्रतिमें ढाई निर्देश किया गया है, बीचमें म्यान् अस्ति-नास्ति अधिकारके करीब कर्मकाण्ड उपलब्ध है उसमें कर्म- आदि सप्तनयोंका स्वरूपनिर्देशके बिना ही नामोल्लेखप्रकृतिकी १६० गाथाओंको जो प्रथम अधिकारके मात्र करके यह कहना कि 'द्रव्य आदेशवशसे इन रूपमें शामिल किया गया है वह संभवतः किसी ऐसे सप्तभङ्गरूप होता है। कोई सङ्गत अर्थ नहीं रखता। व्यक्तिका कार्य है जिसने कर्मकाण्डके 'प्रकृतिसम- जान पड़ता है १५वीं गाथा सप्तभङ्गों द्वारा श्रद्धानकीर्तन' अधिकारको त्रुटित एवं अधुरा समझकर. की जो बात कही गई है उसे लेकर किसीने 'सत्तपं० परमानन्दजीकी तरह, 'कर्मप्रकृति' ग्रन्थसे भंगीहिं' पदके टिप्पणरूपमें इस गाथाको अपनी उसकी पूर्ति करनी चाही है और इसलिये कर्मकाण्डके प्रतिम पंचास्तिकार
प्रतिमें पंचास्तिकायग्रन्थसे, जहाँ वह नं०१५ पर प्रथम अधिकारके स्थानपर उसे ही अपनी प्रतिमें पाई जाती है उद्धृत किया होगा, जो बादको संग्रह लिखा लिया अथवा लिख लिया है और अन्य बातों. करते समय कर्मप्रकृतिकं मूलमें प्रविष्ट हो गई । के सिवाय, जिन्हें आगे प्रदर्शित किया जायगा, शाहगढ़वाले टिप्पणमें इस प्रक्षिप्त सूचित भी इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया कि स्थितिबंधादि- किया है'। से संबन्ध रखनेवाली उक्त २३ गाथाएँ, जो एक (२) २०वीं गाथाके अनन्तर जीवपएसेक्केक्के, कदम आगे दूसरे ही अधिकारमें यथास्थान पाई अत्थिअणाईभूजा, भावण तेण पुनराव, एकसमयजाती हैं उनकी इस अधिकारमें व्यर्थ ही पुनरावृत्ति णिबद्धं, सो बंधोचउभेओ' इन पांच गाथाओंको जो हो रही है। अथवा यह भी हो सकता है कि वह त्रुटित बतलाया है.२ वे भी गाम्मटसारके इस कर्मकाण्ड कोई दूसरा ही बादको संकलित किया १ अनेकान्त वर्ष ३ किरण १२ पृ० ७६३ । हुआ कर्मकाण्ड हो और कर्मप्रकृति उसीका प्रथम २ अनेकान्त वर्ष ३ कि०८-६ पृ० ५४० । अधिकार हो । अस्तु; वह प्रति अपने सामने नहीं है मेरे पास कर्म-प्रकृतिकी एक वृत्तिसहित प्रति और और उतनी मात्र अधूरी भी बतलाई जाती है, अत: है, जिममें यहाँ पाँचके स्थानपर छह गाथाएँ हैं। छठी उसके विषयमें उक्त सङ्गत कल्पनाके सिवाय और गाथा 'सो बंधो चउभेश्रो' से पूर्व इस प्रकार है:अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी हालत _ 'याउगभागो थोवो णामागोदे समो ततो अहियो । में पं० परमानन्दजीका उक्त प्रतियों परसे यह फलित घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदी(दि)ये ॥
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किरण ८-९]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
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प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारका कोई आवश्यक अङ्ग होती। उनकी उपस्थितिमें २१वीं और २२वीं दोनों मालूम नहीं होती और न संगत ही जान पड़ती हैं; गाथाएँ व्यर्थ पड़ती हैं। क्योंकि २१वीं गाथामें जब क्योंकि २०वीं गाथामें आठ कर्मोंका जो पाठ-क्रम है दृष्टान्तों-द्वारा आठों कर्मोके स्वरूपका और २२वीं उसे सिद्ध सूचित करके २१वीं गाथामें दृष्टान्तों द्वारा गाथामें उन कर्मोंकी उत्तर प्रकृति-संख्याका निर्देश है उनके स्वरूपका निर्देश किया है, जो संगत है। इन तब इन आठों गाथाओंमें दोनों बातोंका एक साथ पांच गाथाओंमें जीवप्रदेशों और कर्मप्रदेशोंके निर्देश है। इन गाथाओंमें जब प्रत्येक कर्मकी अलग बन्धादिका उल्लेख है और अन्तकी गाथामें बन्धके अलग उत्तरप्रकृतियोंकी संख्याका निर्देश किया प्रकृति, स्थिति आदि चार भेदोंका उल्लेख करके यह जाचुका तब फिर २२वीं गाथामें यह कहना कि सूचित किया है कि प्रदेशबन्धका कथन ऊपर हो 'कर्मोंकी क्रमशः ५, ९, २, २८, ४, ९३ या १०३, चुका;' चुनाँचे आगे प्रदेशबन्धका कथन किया भी २, ५ उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं' क्या अर्थ रखता है ? नहीं। और इसलिये पूर्वापर कथनके साथ इनकी व्यर्थताके सिवाय उससे और कुछ भी फलित नहीं सङ्गति ठीक नहीं बैठती । कर्मप्रकृति ग्रन्थमें चंकि होता। एक सावधान ग्रन्थकारके द्वारा ऐसी व्यर्थ चारों बंधोंका कथन है, इसलिये उसमें खींचतान रचनाकी कल्पना नहीं की जासकती। ये गाथाएँ करके किसी तरह इनका सम्बन्ध बिठलाया जासकता यदि २२वीं गाथाके बाद रक्खी जाती तो उसकी है परन्तु गोम्मटसारके इस प्रथम अधिकारमें तो भाष्य-गाथाएँ होसकती थीं, और फिर २१वीं गाथाइनकी स्थिति समुचित प्रतीत नहीं होती, जबकि को देनेकी जरूरत नहीं थी, क्योंकि उसका विषय उसके दूसरे ही अधिकारमें बन्ध-विषयका स्पष्ट भी इनमें आगया है। ये गाथाएँ भी उक्त भावसंग्रहउल्लेख है। ये गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें देवसेनके भाव- की हैं और वहींसे उठाकर कर्मप्रकृतिमें रक्खी गई संग्रहसे उठाकर रक्खी गई मालूम होती हैं, जिसमें मालूम होती हैं । भावसंग्रहमें ये ३३१ से ३३८ ये नं० ३२५से ३२९ तक पाई जाती हैं।
नम्बरकी गाथाएं हैं। (३) २१वीं और २२वीं गाथाओंके मध्यमें (४) गो० कर्मकाण्डकी २३वी गाथाके अनन्तर 'णाणावरणं कम्म, दंसणावरणं पुण, महलित्त. कर्मप्रकृतिमें 'अहिमुहणियमियबोहण, अत्थादो खग्गसरिसं, मोहेइ मोहणीयं, आउं चउप्पयारं, चित्तं अत्यंतर, अवहीदि त्ति ओही, चितियमचितियं वा, पड व विचित्तं,गोदं कुलालसरिमं,जह भंडयारिपुरिसो' संपुरणं तु समग्गं, मदिसुदोहीमणपज्जव, जं इन आठ गाथााकी स्थिति भी सङ्गत मालूम नहीं सामरण गहण, चक्खूण ज पयासइ, परमाणुश्रादिया१ “पयडिट्ठदिअणुभागं पएमबंधो परा कहियो कर्म इ, बहुविहबहुप्पयारा, चक्खू य चक्खाही, अह प्रकृतिकी अनेक प्रतियोंमें यही पाठ पाया जाता है. जो थीणगिद्धिणिद्दा' य १२ गाथाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें टीक जान पड़ता है; क्योंकि 'जीवपएसक्के इत्यादि कर्मकाण्डकं प्रथम अधिकारमें त्रुटित बतलाया जाता पूर्वकी तीन गाथानोंमें प्रदेशबन्धका ही कथन है है । इनमसे मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानों और चक्षज्ञानभूषणने टीकामें इसका अर्थ देते हुए लिखा है:- दशनादि चार दशनांके लक्षणोंकी जो ९ गाथाएँ "त चत्वारो भेदाः के ? प्रकृतिस्थित्यनुभागाः प्रदेशबन्धश्च है वे उक्त अधिकारकी कथनशैली और विषयप्रतिअयभेदः पुरा कथितः ।" अतः अनेकान्तकी उक्त किरण पादनकी दृष्टिस उसका कोई आवश्यक अङ्ग मालूम ८-६ में जो ‘पयडिहिदिअणुभागप्पएसबंधो ह चरविडो नहीं होतीं-खासकर उस हालतमें जब कि वे ग्रन्थके कहियो' पाठ दिया है वह ठीक मालम नहीं होता-उसके पूर्वाध जीवकाण्डमें पहलेसे आचुकी है और उसमें पूर्वाधमें 'चउभेयो' पदके होते हुए उत्तरार्धम 'चउविहो' १ देखो, माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित भावपदके द्वारा उमकी पुनरावृत्ति खटकती भी है ।
संग्रहादि' ग्रन्थ ।
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अनेकान्त
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क्रमशः न० ३०५, ३१४,३६९, ४३७, ४५९, ४८१,४८३, एक और अन्तकी तीन), जो चारित्रमोहनीय कर्मकी ४८४, ४८५ पर दर्ज हैं। शेष तीन गाथाएँ ('मदिसुद- २५, आयु कर्मकी ४ और नामकर्मकी ४२ पिण्डा
ओहीमणपज्जव', 'चक्खूअचक्खुश्रोही' 'अह थीण- ऽपिण्ड प्रकृतियोंमेंसे गतिकी ४ जातिकी ५ और गिद्धिणिद्दा') जिनमें ज्ञानावरणकी ५ और दर्शना- शरीरकी ५ उत्तर प्रकृतियोंके नामोल्लेखको लिये हुए वरणकी ९ उत्तरप्रकृतियोंके नाम हैं, प्रकरणके साथ हैं, प्रकरणके साथ मङ्गत कही जा सकती हैं। क्योंकि मङ्गत हैं अथवा यों कहिये कि २२वीं गाथाके बाद इस हद तक वे भी मूल सूत्रोंके अनुरूप हैं। परन्तु उनकी स्थिति ठीक कही जा सकती है। क्योंकि मलसत्रोंके अनुसार २७वीं गाथाके मूलसूत्रोंकी तरह उनसे भी अगली तीन गाथाओं होनेके लिये शरीर बन्धनकी उत्तर-प्रकृतियोंसे (नं० २३, २४, २५) की सङ्गति ठीक बैट जाती है। सम्बन्ध रखने वाली 'पंचय सरीरबधण' नामकी वह
(५) कर्मकाण्डमें २५वीं गाथाकं बाद 'विहं गाथा उनके अनन्तर और होनी चाहिये जो २७वीं खु वेयणीयं' और 'बंधादेगं मिच्छं' नामकी जिन दो गाथाके अनन्तर पाई जाने वाली ४ गाथाओंमें गाथाश्रीको कर्मप्रतिके अनुसार त्रुटित बतलाया प्रथम है, अन्यथा २७वीं गाथामें जिन १५ संयोगी जाता है वे भी प्रकरणके साथ मङ्गत हैं अथवा भेदोंका उल्लेख वे शरीरबन्धनके नाम न होकर उनकी स्थितिको २५वीं गाथाके बाद ठीक कहा जा शरीरके हो जाते हैं, जो कि एक सैद्धान्तिक भूल है मकता है; क्योंकि मूलसूत्रोंकी तरह उनमें भी क्रम- और जिसका ऊपर स्पष्टीकरण किया जा चुका है। प्राप्त वेदनीयकर्मकी दो उत्तर प्रकृतियों और मोहनीय एक सूत्र अथवा गाथाके आगे-पीछे हो जानेसे, इस कमेके दो भेद करके प्रथम भेद दर्शनमोहके तीन विषयमें, कर्मकाण्ड और कर्मप्रकृतिके प्रायः सभी भेदोंका उल्लेख है, और इसलिये उनसे भी अगली टीकाकारोंने गलती खाई है, जो उक्त २७वीं गाथाकी २६वीं गाथाकी सङ्गति ठीक बैठ जाती है।
टीकामें यह लिख दिया है कि 'ये १५ संयोगी भेद शरीर(६) कर्मकाण्डकी २६वीं गाथाके अनन्तर कर्म
के हैं, जबकि वे वास्तवमें 'शरीरबन्धन' नाम कमके प्रकृतिमें 'दुविहं चरित्तमीहं, अणं अपञ्चक्खाणं,
भेद हैं। सिलपुढविभेदधूली, सिलटिकट्टवेत्ते, वेणुवमूलोरभय- (७) कर्मकाण्डकी २७वीं गाथाके पश्चात् कर्मकिमिरायचक्कतणुमल, सम्मत्तं देससयल, हस्सरदि, प्रकृतिमें पच यसरीरबधण, पच संघादणाम, समचउरं अरदि-सोयं, छादयदि सयं दोसे, पुरुगुणभोगे सेदे, णग्गोहं, ओरालियवेगुम्विय' ये चार गाथाएँ पाई णेवित्थी व पुमं, णारयतिरियणरामर,णेरइयतिरिय- जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमें त्रुटित बतलाया जाता माणुस. ओरालियवेगुम्विय' यं १४ गाथाएँ पाई है। इनमेंसे पहली गाथा तो २७वीं गाथाके ठीक जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डके इस प्रथम अधिकारमें पूर्वमें संगत बैठती है, जैसा कि ऊपर बतलाया जा त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेंसे 5 गाथाएं जो चुका है। शेष तीन गाथाएँ यहाँ संगत कही जा अनंतानुबन्धि आदि सोलहकषायों और स्त्रीवेदादि सकती हैं। क्योंकि इनमें मल-सूत्रांके अनुरूप मंघाततीन वेदोंके स्वरूपसे सम्बन्ध रखती हैं वे भी इस की ५, संस्थानकी ६ और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मकी ३ अधिकारकी कथन-शैली आदिकी दृष्टिसे उसका उत्तर प्रकृतियांका क्रमशः नामाल्लेख है। पिछली कोई आवश्यक अङ्ग मालूम नहीं होती-खासकर (चौथी) गाथाकी अनुपस्थिति में तो अगली कर्मउस हालतमें जब कि वे जीवकाण्डमें पहले आचुकी काण्ड वाली ८वीं गाथाका अर्थ भी ठीक घटित हैं और उसमें क्रमशः नं० २८३, २८४, २८५, २८६, नहीं हो सकता, जिसमें आठ अङ्गोंके नामदेकर शेष२८२, २७३, २७२, २७४ पर दर्ज हैं। शेष ६ गाथाएँ को उपाङ्ग बतलाया है और यह नहीं बतलाया कि वे (पहली दो, मध्यकी 'हस्सदिअरदिसोयं' नामकी अङ्गोपाङ्ग कौनसे शरीरसे सम्बन्ध रखते हैं।
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गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
(5) कर्मकाण्डकी २८वीं गाथाके अनन्तर कर्म- गाथाएँ, जो संहनन-सम्बन्धी विशेष कथनको लिये प्रकृतिमें 'दुविहं विहायणाम, तह श्रद्धं णारायं, जस्स हुए हैं, यद्यपि प्रकरणके साथ सङ्गत हो सकती हैं कम्मम्स उदये वजमय, जस्सुदये वज्जमय, जस्सुदये परन्तु वे उसका कोई ऐसा आवश्यक अङ्ग नहीं कही वजमया, वज्जविसेसणरहिदा, जस्स कम्मस्स उदये जा सकतीं, जिसके प्रभावमें उसे त्रुटित अथवा अवज्जहडडा, जस्स कम्मस्स उदये अपणोएण' ये ८ असम्बद्ध कहा जा सके। मूल-सूत्रोंमें इन चारों ही गाथाएँ उपलब्ध हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमें त्रुटिन गाथाओंमेंसे किसीके भी विषयसे मिलता जुलता बतलाया जाता है। इनमेंसे पहली दो गाथाएँ तो कोई सूत्र नहीं है, और इसलिये इनकी अनुपस्थितिसे आवश्यक और सङ्गत हैं, क्योंकि वे मूल-सूत्रोंके कर्मकाण्डमें कोई असङ्गति पैदा नहीं होती। अनुरूप हैं और उनकी उपस्थितिसे कर्मकाण्डकी (१०) कर्मकाण्डकी ३२वीं गाथाके अनन्तर कर्मअगली तीन गाथाओं (२९, ३०, ३१) का अर्थ ठीक प्रकृतिमें 'पंच य वएणस्सेदं, तित्त कडुव कसायं, बैठ जाता है। शेष ६ गाथाए, जो छहा संहननाक फासं अट्टवियप्प, एदा चोइसपिंडप्पयडीओ, अगुरुस्वरूपकी निर्देशक हैं, इस अधिकारका कोई
लघुगउवघाद' नामकी ५ गाथाएँ उपलब्ध हैं और आवश्यक तथा अनिवार्य अङ्ग नहीं कही जा सकती
३३वीं गाथाकं अनन्तर "तस थावरं च बादर, क्योंकि सब प्रकृतियांक स्वरूप अथवा लक्षण-निर्देश- सहअसहसहगभग, तसबादरपज्जत्तं, थावरकी पद्धतिको इस अधिकारमें अपनाया नहीं गया है।
सुहमपज्जत्तं, इदिणामप्पयडीओ, तह दाणलाहभोगे" इन्हें भाष्य अथवा व्याख्यान गाथाएं कहा जा सकता यगाथाएँ उपलब्ध हैं, जिन सबको भी कमेकाण्डमें है। इनकी अनुपस्थितिसे मूल ग्रन्थ के सिलसिले अथवा त्रुटित बतलाया जाता है। इनमेंसे ९ गाथाओंमें उसकी सम्बद्ध रचनामें कोई अन्तर नहीं पड़ता। नामकर्मकी शेष वर्णादि-विषयक उत्तरप्रकृतियोंका
(९) कर्मकाण्डकी ३१वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति- और पिछली दो गाथाओंमें गोत्रकर्मकी २ तथा में 'घम्मा वंसा मेघा, मिच्छापुव्वदुगादिस, विमल- अन्तरायकर्मकी ५ उत्तरप्रकृतियोंका नामोल्लेख है। चउक्के छद्र, सव्वविदेहेसु तहा' नामकी ४ गाथाएँ यपि मल-सत्रोंके साथ इनका कथनक्रम कुछ भिन्न उपलब्ध हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्डमें त्रुटित बतलाया है परन्तु प्रतिपाद्य विषय प्रायः एक ही है, और जाता है। इनमेंसे पहली गाथा, जो नरकभूमियोंके इसलिये इन्हें सङ्गत तथा आवश्यक कहा जा सकता नामांकी है प्रकृत अधिकारका कोई आवश्यक अङ्ग है। ग्रन्थमें इन उत्तरप्रकृतियोंकी पहलेसे प्रतिष्ठाक मालूम नहीं होती। जान पड़ता है ३१वीं गाथाम बिना ३३वीं तथा अगली-अगली गाथाओम इनसे 'मेघा' पृथ्वीका जो नामोल्लेख है और शेप नरक- सम्बन्ध रखने वाले विशेप कथनोंकी सङ्गति ठीक भूमियोंकी बिना नामके ही सूचना पाई जाती है, उसे नहीं बैठती । अतः प्रतिपाद्य विषयकी ठीक व्यवस्था लकर किसीने यह गाथा उक्त गाथाकी टिप्पणी रूपमें के लिय इन सब उत्तरप्रकृतियांका मूलतः अथवा त्रिलाकमार अथवा जबूद्वीप प्रज्ञाप्त परसे अपनी प्रतिम उद्देश्यरूपमें उल्लेख बहुत जरूरी है-च चाहे वह उदधृत की होगी, जहाँ यह क्रमशः नं० १४५ पर सत्रों में हो या गाथाओंमें।। तथा ११वें अ० के न० ११२ पर पाई जाती हे, ओर (११) कर्मकाण्डकी ३४वी गाथाके बाद कमवहाँसे मंग्रह करते हुए यह कर्मप्रकृतिके मूल में प्रविष्ट प्रकतिमें 'वएणरसगंधफासा' नामकी जो एक गाथा हो गई है । शाहगढ़के उक्त टिप्पणमें इसे भी पाई जाती है उसमें प्रायः उन बन्धरहित प्रकृतियोंका 'सियअस्थिणत्थि' गाथाकी तरह प्रक्षिप्त बतलाया है ही स्पष्टीकरण है जिनकी सूचना पूर्वकी गाथा (३४)
और सिद्धान्त-गाथा प्रकट किया है' । शेष तीन में की गई है और उत्तरको गाथा (३५) से भी जिनकी १ अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२, पृष्ठ ७६३
मंख्या-विषयक सूचना मिलती है, और इसलिये वह
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अनेकान्त
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कर्मकाण्डका कोई आवश्यक अङ्ग नहीं है-उसे इस प्रकार त्रुटित कही जाने वाली ये ७५ गाथाएँ व्याख्यान-गाथा कह सकते हैं । मूल-सूत्रोंमें भी हैं, जिनमेंसे ऊपरके विवेचनानुसार मूल सूत्रोंसे उसके विषयका कोई सूत्र नहीं है। यह पञ्चसंग्रहके सम्बन्ध रखने वाली मात्र २८ गाथाएँ ही ऐसी हैं द्वितीय अधिकारकी गाथा है और संभवतः वहींसे जिनका विषय प्रस्तुत कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमें मंग्रह की गई है।
त्रुटित है और उस त्रुटित विपयकी दृष्टिसे जिन्हें
त्रुटित कहा जा सकता है, शेष ४७ गाथाओं से (१२) कर्मकाण्डकी 'मणवयणकायवक्को' नामकी कुछ असङ्गत हैं, कुछ अनावश्यक हैं और कुछ ८०८वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति में 'दंसण- लक्षण-निर्देशादिरूप विशेष कयनको लिये हए हैं, विसुद्धिविणयं, सत्तीदो चागतवा, पवयणपरमाभत्ती, जिसके कारण वे त्रुटित नहीं कही जा सकतीं । अब एदेहिं पसत्थेहिं, तित्थयरसत्तकम्म' ये पाँच गाथाएँ प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या उक्त २८ गाथाओंको, पाई जाती हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्डमें त्रुटित बतलाया जिनका विषय त्रुटित है, उक्त अधिकारमें यथास्थान जाता है । इनमेंसे प्रथम चार गाथाओं में दर्शनविशुद्धि प्रविष्ट एवं स्थापित करके उसको त्रुटि-पूर्ति और आदि षोडश भावनाओंको तीर्थट्टर नामकर्मके गाथा-संख्यामें वृद्धि की जाय ? इसके उत्तरमें मैं बन्धकी कारण बतलाया है और पांचवीमें यह इतना ही कहना चाहता है कि, जब गोम्मटसारकी सूचित किया है कि तीर्थकर नामकर्मकी प्रकृतिका प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतिमें मृल-सूत्र उपलब्ध हैं जिसके बन्ध होता है वह तीन भवमें सिद्धि और उनकी उपस्थितिमें उन स्थानों पर टित अंश(मुक्ति) को प्राप्त होता है और जो क्षायिक सम्यक्त्व की कोई कल्पना उत्पन्न नहीं होती-सब कुछ सङ्गत से युक्त होता है वह अधिक-से-अधिक चौथे भवमें हो जाता है-तब उन्हें ही ग्रंथकी दूसरी प्रतियोंमें जरूर मक्त हो जाता है। यह सब विशेष कथन है और भी स्थापित करना चाहिये। उन सूत्रोंके स्थान पर विशेष कथनके करने-न-करनेका हरएक ग्रन्थकारको इन गाथाओंको तभी स्थापित किया जा सकता है अधिकार है । ग्रंथकार महोदयने यहाँ छठे अधिकारमें जब यह निश्चित और निर्णीत हो कि स्वयं ग्रन्थकार सामान्य-रूपसे शुभ और अशुभ नामकर्मके बन्धके नेमिचन्द्राचार्यने ही उन सूत्रोंके स्थान पर बादको कारणोंको बतला दिया है नामकर्मकी प्रत्येक प्रकृति इन गाथाओंकी रचना एवं स्थापना की है; परन्तु अथवा कुछ खास प्रकृतियोंके बन्ध-कारणोंको बतलाना इस विषयके निणयका अभी तक कोई समुचित उन्हें उसी तरह इष्ट नहीं था जिस तरह कि ज्ञाना- साधन नहीं है। वरण, दर्शनावरण और अन्तराय जैसे कोंकी कर्मप्रकृतिको उन्हीं सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य अलग-अलग प्रकृतियोंके बंध-कारणोंको बतलाना नेमिचन्द्रकी कृति कहा जाता है; परन्तु उसके उन्हींउन्हें इष्ट नहीं था, क्योंकि वेदनीय, आयु और की कृति होनेमें अभी सन्देह है। जहाँ तक मैंने इस गोत्र नामके जिन कोंकी अलग-अलग प्रकृतियोंके विषय पर विचार किया है मुझे वह उन्हीं प्राचार्य बन्ध-कारणोंको बतलाना उन्हें इष्ट था उनको उन्होंने नेमिचन्द्रकी कृति मालूम नहीं होती; क्योंकि उन्होंने बतलाया है। ऐसी हालतमें उक्त विशेष-कथन-वाली यदि गोम्मटसार-कर्मकाण्डके बाद उसके प्रथम गाथाओंको त्रुटित नहीं कहा जा सकता और न अधिकारको विस्तार देनेकी दृष्टिसे उसकी रचना की उनकी अनुपस्थितिसे ग्रंथको अधूरा या लडूं रा ही होती तो वह कृति और भी अधिक सुव्यवस्थित घोषित किया जा सकता है। उनके अभावमें ग्रंथकी होती, उसमें असङ्गत तथा अनावश्यक गाथाओंको कथन-सङ्गतिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता और न किसी -खासकर ऐसी गाथाओंको जिनसे पूर्वापरकी प्रकारकी बाधा ही उपस्थित होती है।
गाथाएँ व्यर्थ पड़ती हैं अथवा अगले अधिकारों में
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गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
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जिनकी उपस्थितिसे व्यर्थकी पुनरावृत्ति होती है- उपकार-स्मरणको स्थिर रखनेकी । क्योंकि इस ग्रन्थका स्थान न दिया जाता, जो कि सिद्धान्तचक्रवर्ती-जैसे अधिकांश शरीर आद्यन्तभागों सहित, उन्हींके योग्य ग्रन्थकारकी कृतिमें बहुत खटकती हैं, और न गोम्मटसार परसे बना है-इसमें गोम्मटसारकी उन ३५ (नं०५२ से ८६ तककी) सङ्गत गाथाओंको १०२ गाथाएँ तो ज्यों-की-त्यों उद्धृत हैं और २८ निकाला ही जाता जो उक्त अधिकारमें पहलेसे गाथाएँ उसीके गद्यसूत्रों परसे निर्मित हुई जान पड़ती मौजूद थीं और अबतक चली आती हैं और जिन्हें हैं। शेष ३० गाथाओंमेंसे १६ दूसरे कई ग्रन्थोंकी कर्मप्रकृतिमें नहीं रक्खा गया । साथ ही, अपनी ऊपर सूचित की जाचुकी हैं और १४ ऐसी हैं जिनके १२१वीं अथवा कर्मकाण्डकी 'गदिजादीउस्सासं' ठीक स्थानका अभी तक पता नहीं चला-वे धवलादि नामक ५१वीं गाथाके अनन्तर ही 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' ग्रन्थोंके षटमंहननोंके लक्षण-जैसे वाक्योंपरसे अधिकारकी समाप्तिको घोषित न किया जाता । खुदकी निर्मित भी हो सकती हैं। और यदि कर्मकाण्डसे पहले उन्हीं आचार्य महोदयने हाँ, ऐसी सन्दिग्ध अवस्थामें यह हो सकता है कि कर्मप्रकृतिकी रचना की होती तो उन्हें अपनी उन प्राकृत मूल-सूत्रोंके नीचे उनके अनुरूप इन सूत्रापूर्व-निर्मित २८ गाथाओंके स्थानपर सूत्रोंको नव- नुसारिणी २८ गाथाओंको भी यथास्थान ब्रैकट [] निर्माण करके रखनेकी जरूरत न होती-खासकर के भीतर रख दिया जावे, जिससे पद्य-प्रेमियोंको उस हालतमें जबकि उनका कर्मकाण्ड भी पद्यात्मक पद्य-क्रमसे ही उनके विषयके अध्ययन तथा कण्ठस्थादि था। और इसलिये मेरी रायमें यह 'कर्मप्रकृति' या करने में सहायता मिल सके । और यह गाथाओंके तो नेमिचन्द्र नामके किसी दूसरे आचार्य, भट्टारक संस्कृत छायात्मक रूपकी तरह गद्य-सूत्रोंका पद्यात्मक अथवा विद्वानकी कृति है जिनके साथ नाम-साम्यादि- रूप कहलाएगा, जिसके साथ रहनेमें कोई बाधा के कारण सिद्धान्तचक्रवर्ती का पद बादको कहीं-कहीं प्रतीत नहीं होती-मूल ज्यों-का-त्यों अक्षुण्ण बना जुड़ गया है-सब प्रतियों में वह नहीं पाया जाता'। रहता है । आशा है विद्वज्जन इसपर विचार कर
और या किसी दूसरे विद्वानने उसका सङ्कलन कर समुचित मार्गको अङ्गीकार करेंगे। उसे नेमिचन्द्र आचार्यके नामाड़ित किया है, और ऐसा करनेमें उसकी दो दृष्टि हो सकती हैं-एक तो
ग्रन्थकी टीकाएँ प्रन्थ-प्रचारकी और दूसरी नेमिचन्द्रकं श्रेयकी तथा इस गोम्मटसार ग्रन्थपर मुख्यतः चार टीकाएँ १ भट्टारक ज्ञानभपणने अपनी टीकामें कर्मकाण्ड अपर उपलब्ध हैं-एक, अभयचन्द्राचार्यकी संस्कृत टीका नाम कर्मप्रकृतिको 'सिद्धान्तज्ञानचक्रवर्ति-श्रीनेमिचन्द्र- 'मन्दप्रबोधिका', जो जीवकाण्डकी गाथा नं० ३८३ विरचित' लिखा है । इसमें 'सिद्धान्त' और 'चक्रवर्ति के तक ही पाई जाती है, ग्रन्थके शेष भागपर वह बनी मध्यमें 'ज्ञान' शब्दका प्रयोग अपनी कुछ खास विशेषता या कि नहीं, इसका कोई ठीक निश्चय नहीं। दूसरी, रखता हुअा मालूम होता है और उसके संयोगसे इस केशववर्णीकी संस्कृत-मिश्रित कनडी टीका 'जीवतत्त्वविशेषण-पदकी वह स्पिरिट नहीं रहती जो मतिचक्रसे प्रदीपिका', जो ग्रन्थके दोनों काण्डोंपर अच्छे पटखण्डम्प अागम-सिद्धान्तकी साधना कर सिद्धान्त- विस्तारको लिये हुए है और जिसमें मन्दप्रबोधिका चक्रवर्ती बननेकी बतलाई गई है (क० ३६७); बल्कि का पूरा अनुसरण किया है। तीसरी, नेमिचन्द्राचार्यसिद्धान्त-ज्ञान के प्रचारकी स्पिरिट सामने आती है । और को संस्कृत टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका', जो पिछली इसलिये इसका संग्रहकर्ता प्रचारकी स्पिरिटको लिये हुए दोनों टीकाओंका गाढ अनुसरण करती हुई ग्रन्थके कोई दूसरा ही होना चाहिये, ऐसा इस प्रयोग परसे दोनों काण्डोंपर यथेष्ट विस्तारके साथ लिखी गई है। ख़याल उत्पन्न होता है।
और चौथी, पं० टोडरमल्लजीकी हिन्दी टीका
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३२०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका', जो संस्कृत टीकाके विषयको डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. ने तीनों टीकाओं और खूब स्पष्ट करके बतलाने वाली है और जिसके गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तियोंकी तुलना आदिके द्वारा, आधारपर हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठीके अनुवादों' अपने एक लेखमें बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है और का निर्माण हुआ है । इनमेंसे दूसरी केशववर्णीकी यह साफ घोषित कर दिया है कि 'संस्कृत टीका टीकाको छोड़कर, जो अभीतक अप्रकाशित है, शेष नेमिचन्द्राचार्य कृत है और उसमें जिस कनडी टीकाका तीनों टीकाएँ कलकत्तासे 'गांधी हरिभाई देवकरण गाढ अनुसरण है वह अभयसूरिके शिष्य केशववर्णीजैनग्रन्थमाला' में एक साथ प्रकाशित हो चुकी हैं। की कृति है और उसकी रचना धर्मभषण भटारकके कनडी और संस्कृत दोनों टीकाओंका एक ही नाम आदेशानुसार शक सं० १२८१ (ई० सन् १३५९) में (जीवतत्त्वप्रदीपिका) होने, मूल ग्रन्थकर्ता और हुई है; जबकि संस्कृत टीका मल्लिभूपालके समयमें मंस्कृत टीकाकारका भी एक ही नाम लिखी गई है, जो कि सालुव मल्लिराय थे और (नेमिचन्द्र) होने, कर्मकाण्डकी गाथा नं० ९७२ जिनका समय शिलालेखों आदि परसे ईसाकी १६वीं के एक श्रम्पष्ट उल्लेखपरसे चामुण्डरायको शताब्दीका प्रथम चरण पाया जाता है, और इसलिये कनडी टीकाका कर्त्ताममझा जाने और संस्कृत टीकाके इस टीकाको १६वीं शताब्दीके प्रथम चरणकी 'श्रित्वा कर्णाटकी वृत्ति' पद्यके द्वितीय चरणमें 'वणि- ठहराया जा सकता है। साथ ही यह भी बतलाया श्रीकेशवैः कृतां' की जगह कुछ प्रतियोंमें 'वणि- है कि दोनों प्रशस्तियोंपरसे इस संस्कृत टीकाके श्रीकेशवैः कृतिः' पाठ उपलब्ध होने आदि कारणोंसे कर्ता वे आचार्य नेमिचन्द्र उपलब्ध होते हैं जो पिछले अनेक विद्वानोंको, जिनमें पं० टोडरमल्लजी मूलसङ्घ, शारदागच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्द भी शामिल हैं, संस्कृत टीकाके कतृत्व विपयमें भ्रम अन्वय और नन्दि आम्नायके आचार्य थे; ज्ञानभूषण रहा है और उसके फलस्वरूप उन्होंने उमका कर्ता भटारकके शिष्य थे जिन्हें प्रभाचन्द्र भटार 'केशववणीं' लिख दिया है। चुनाँचे कलकत्तासे सफलवादी तार्किक थे, सूरि बनाया अथवा प्राचार्यगोम्मटसारका जो संस्करण दो टीकाओं-सहित पद प्रदान किया था; कर्नाटककं जैन राजा मल्लिप्रकाशित हुआ है उसमें भी संस्कृत टीकाको "केशव- भूपालके प्रयत्नोंके फलस्वरूप जिन्होंने मुनिचन्द्रसे, वर्णीकृत" लिख दिया है। इस फैले हुए भ्रमको जोकि 'विविद्यापरमेश्वर के पदसे विभूषित थे,
सिद्धान्तका अध्ययन किया था; जो लालावीक १ हिन्दी अनुवाद जीवकाण्डपर पं० खूबचन्दका, कर्म
आग्रहसे गौरदेशसे आकर चिकट में जिनदाम काण्डपर पं० मनोहरलालका; अंग्रेजी अनुवाद जीव- शाह-द्वारा निर्मापित पार्श्वनाथ मन्दिरमें ठहरे थे काण्डपर मिस्टर जे. एल. जेनीका; कमकाण्डपर और जिन्होंने धर्मचन्द अभयचन्द्र तथा अन्य ब्र० शीतलप्रसाद तथा बाबू अजितप्रसादका; और सजनोंके हितके लिये खण्डेलवालवंशके साहस
मराठी अनुवाद गांधी नेमचन्द बालचन्दका है। और साह सहेसकी प्रार्थनापर यह संस्कत टीका. २ यह पाठ ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन कर्णाटकवृत्तिका अनुसरण करते हुए, त्रैविद्यविद्याबम्बईकी जीवतत्वप्रदीपिका सहित गोम्मटमारकी एक विशालकीर्तिकी सहायतासे लिखी थी। और इस हस्तलिखित प्रतिपरसे उपलब्ध होता है (रिपोर्ट १ वीर टीकाकी प्रथम प्रति अभयचन्द्रन, जोकि निर्ग्रन्थाचार्य सं० २४४६, पृ० १०४.६)
और विद्यचक्रवर्ती कहलाते थे, संशोधन करके ३५० टोडरमल्लजीने लिखा है
तय्यार की थी। दोनों प्रशस्तियोंकी मौलिक बातोंमें केशववी भव्य विचार कगाटक टोका-अनुमार ।
कोई खाम भेद नहीं है, उल्लेखनीय भेद इतना ही है संस्कृत टीका कीनी बहु जो अशुद्ध मो शुद्ध करेहु । १ अनेकान्त वर्ष ४ कि० १ पृ० ११३.१२० ।
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किरण ८-९]
गोम्मटसार और नेमिचन्द्र
३२१
-
कि पद्यप्रशस्तिमें ग्रन्थकारने अपना नाम नेमिचन्द्र 'वीरमार्तण्ड' नामकी उपाधिकी दृष्टिसे उनका एक नहीं दिया, जबकि गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तिमें वह उपनाम है, न कि टीकाका नाम; जैसा कि स्पष्टरूपसे पाया जाता है, और उसका कारण इतना प्रो० शरश्चन्द्र घोशालने समझ लिया है, और ही है कि पद्यप्रशस्ति उत्तमपुरुषमें लिखी गई है। जो नाम गोम्मटसारकी टीकाके लिये उपयुक्त भी प्रन्थकी संधियों- "इत्याचार्य-नेमिचन्द्र-विरचितायां मालूम नहीं होता। मेरी रायमें 'जा' के स्थानपर गोम्मटसारापरनाम - पंचसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्व- 'ज' पाठ होना चाहिये, जो कि प्राकृतमें एक प्रदीपिकायां" इत्यादिमें-जीवतत्त्वप्रदीपिका टीकाके अव्यय पद है और उससे 'जेण' (येन) का अर्थ कतृ त्वरूपमें नेमिचन्द्रका नाम स्पष्ट उल्लिखित है और (जिसके द्वारा) लिया जा सकता है और उसका उससे गोम्मटसारके कर्ताका आशय किसी तरह भी
सम्बन्ध 'सो' (वह) पदके साथ ठीक बैठ जाता है। नहीं लिया जा सकता । इसी तरह संस्कृत-टीकामें
इसी तरह 'राओ' के स्थान पर 'जय' क्रियापद जिस कर्नाटकवृत्तिका अनुसरण है उसे स्पष्टरूपमें
होना चाहिये, जिसकी वहाँ आशीर्वादात्मक अर्थकी केशववर्णीकी घोषित किया गया है. चामुण्डरायकी
दृष्टिसे आवश्यकता है-अनुवादकों आदिने वृत्तिका उसमें कोई उल्लेख नहीं है और न उसका ।
'जयवंतप्रवर्तो' अर्थ दिया भी है, जो कि 'जयउ' अनुसरण सिद्ध करनेके लिये कोई प्रमाण ही
. पदका सङ्गत अर्थ है । दूसरा कोई क्रियापद गाथामें
है भी नहीं, जिससे वाक्यके अर्थकी ठीक सङ्गति उपलब्ध है। चामुण्डरायवृत्तिका कहीं कोई अस्तित्व मालूम नहीं होता और इसलिये यह सिद्ध करनेकी
घटित की जा सके। इसके सिवाय 'गोम्मटरायेण' कोई संभावना नहीं कि संस्कृत-जीवतत्त्वप्रदीपिका
पदमें 'राय' शब्दकी मौजूदगीसे 'राओ' पदकी
ऐसी कोई खाम जरूरत भी नहीं रहती, उससे चामुण्डरायकी टीकाका अनुसरण करती है। गो० कर्मकाण्डकी ९७२वीं गाथामें चामुण्डराय ।
गाथाके तृतीय चरणमें एक मात्राकी वृद्धि होकर (गोम्मटराय) के द्वारा जिस 'देशी'के लिखे जानेका
छंदोभङ्ग भी हो रहा है। 'जयउ' पदके प्रयोगसे उल्लेख है उसे 'कर्नाटकवृत्ति' समझा जाता है
यह दोष भी दूर हो जाता है। और यदि 'राओ'
पदको स्पष्टताकी दृष्टिसे रखना ही हो तो, 'जयउ' पर्थात् वह वस्तुतः गोम्मटमारपर कर्णाटकवृत्ति
पदको स्थिर रखते हुए, उसे 'कालं' पदके स्थानपर लिखी गई है, इसका कोई निश्चय नहीं है।'
रखना चाहिये; क्योंकि तब 'कालं' पदके बिना ही सचमचमें चामुण्डरायकी कर्णाटकवृत्ति अभी चि पदसे उमका काम चल जाता है। इस तरह तक एक पहली ही बनी हुई है, कर्मकाण्डकी उक्त ।
उक्त गाथाका शुद्धरूप निम्नप्रकार ठहरता है :गाथा' में प्रयुक्त हुए 'देसी' पद परसे की जानेवाली
गोम्मटसुत्तलिहणे गोम्मटरायेण जं कया देसी । कल्पनाके सिवाय उसका अन्यत्र कहीं कोई पता मो जयउ चिरंकालं (राओ) णामण य वीरमत्तंडी ॥ नहीं चलता । और उक्त गाथाकी शब्द-रचना बहुत कुछ अस्पष्ट है-उसमें प्रयुक्त हुए 'जा' पदका संबंध
___ गाथाके इस संशोधित रूपपर उसका अर्थ किसी दूसरे पदके साथ व्यक्त नहीं होता, उत्तरार्धमें।
Maa निम्न प्रकार होता है :'राम्रो' पद भी खटकता हश्रा है. उसकी जगह कोई १ प्रो० शरच्चन्द्र घोशाल एम. ए. कलकत्ताने, 'द्रव्यसंग्रह के क्रियापद होना चाहिये। और जिस 'वीरमांडी' ।
अँग्रेजी संस्करणकी अपनी प्रस्तावनामें, गोम्मटसारकी पदका उसमें उल्लेख है वह चामुण्डरायकी
उक्त गाथापरसे कनडी टीकाका नाम 'वीरमार्तण्डी'
प्रकट किया है और जिसपर मैंने जनवरी सन् १९१८ में, १ गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी । अपनी समालोचना (जैनहितैषी भाग १३ अङ्क १२)
सो राम्रो चिरं कालं णामेण य वीरमत्तंडी ॥६७२॥ के द्वारा, आपत्ति की थी।
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३२२
अनेकान्त
'गोम्मट - सूत्रके लिखे जानेके अवसर पर - गोम्मटसार शास्त्र की पहली प्रति तय्यार किये जानेके समय - जिस गोम्मटरायके द्वारा देशीकी रचना की गई है—देशकी भाषा कनडीमें उसकी छायाका निर्माण किया गया है - वह 'वीरमार्तण्डी' नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त राजा चिरकाल तक जयवन्त हो ।'
यहाँ 'देशी'का अर्थ 'देशकी कनडी भाषा में छायानुवादरूपसे प्रस्तुत की गई कृति' का ही सङ्गत बैठता है न कि किसी वृत्ति अथवा टीकाका; क्योंकि ग्रन्थकी तय्यारीके बाद उसकी पहली साफ़ कापीके अवसर पर, जिसका ग्रन्थकार स्वयं अपने ग्रन्थके अन्तमें उल्लेख कर सके, छायानुवाद-जैसी कृतिकी ही कल्पना की जा सकती है, समय-साध्य तथा अधिक परिश्रमकी अपेक्षा रखनेवाली टीका-जैसी वस्तुकी नहीं। यही वजह है कि वृत्तिरूपमें उस देशीका अन्यत्र कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता - वह संस्कृतछायाकी तरह कन्नड - छायारूप में ही उस वक्तकी कर्नाटक- देशीय कुछ प्रतियों में रही जान पड़ती है ।
[ वर्ष :
तुलना उन 'बालेन्दु' पंडितसे की है जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके ई० सन् १३१३ के शिलालेख नं० ६५ में हुआ है' और जिनकी प्रशंसा अभयचन्दकी प्रशंसा के साथ बेलूर के शिलालेखों नं० १३१-१३३ में की गई है और जिन परसे बालचन्द्र के स्वगवासका समय ई० सन् १२७४ तथा अभयचन्द्रके स्वर्गवासका समय ई० सन् १२७९ उपलब्ध होता है । और इस तरह 'मन्दप्रबोधिका ' का समय ई० सन्की १३वीं शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर किया जा सकता है। शेष रही पंडित टोडरमल्लजीकी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' टीका, उसका समय सुनिश्चित है ही - वह माघ सुदी पञ्चमी सं० १८१८ को लब्धिसार-क्षपणासारकी टीकाकी समाप्तिसे कुछ पहले ही बनकर पूर्ण हुई है । इसी हिन्दी टीकाको, जो खूब परिश्रमके साथ लिखी गई है, गोम्मटसार ग्रन्थकं प्रचारका सबसे अधिक श्रेय प्राप्त है।
मैं दूसरी दो टीकाओंके सम्बन्ध में इतना और बतला देना चाहता हूँ कि अभयचन्द्रकी 'मन्दप्रबोधिका' टीकाका उल्लेख चूँकि केशव वर्णी कन्नड-टीका में पाया जाता है इससे वह ई० सन् १३५९ से पहलेकी बनी हुई है इतना तो सुनिश्चित है; परन्तु कितने पहले की ? इसके जाननेका इस समय एक ही साधन उपलब्ध है और वह है मंदप्रबोधिका में एक 'बालचन्द्र पण्डितदेव' का उल्लेख ' । डा० उपाध्येने, अपने उक्त लेखमें इनकी
१ जीवकाराड, कलकत्ता संस्करण, पृ० १५० |
इन चारों टीकाओं के अतिरिक्त और भी अनेक टीका-टिप्पणादिक इस ग्रन्थराजपर पिछली शताब्दियों में रचे गये होंगे; परन्तु वे इस समय अपनेको उपलब्ध नहीं हैं और इसलिये उनके विषयमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता * ।
१ एपिफिया कर्णाटका जिल्द नं० २ । २ एपिफिया कर्णाटिका जिल्द नं० ५ ।
यह लेख 'पुरातन जैनवाक्य सूची' की अपनी अप्रकाशित प्रस्तावना के 'ग्रन्थ र ग्रन्थकार' प्रकरणका एक अंश है। - जुगलकिशोर मुख्तार
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[ लेखक-बाबू राजकुमार जैन 'कुमार' ]
बुढ़िया हताश हो बैठी, अब कोई भी आशा शीजी ५० के ऊपर थे, परन्तु अपनेको
" शेष न रही थी। जितना परिश्रम हो सकता था किसी नौजवानसे कम न समझते थे।
किया, किन्तु बिना दहेजके कुछ न बनता था । चार-चार पुत्र होते हुए भी आपको
बुढिया सोच रही थी-"क्या मेरी गोमती जीवनभर शादीका खब्त सवार था । सोचते थे
अविवाहित ही रहेगी? दहेजके बिना क्या उसको किसी खिलती-सी कलीपर हाथ मारूँगा । क्या है,
या है, कोई न अपनायेगा ? क्या संसारमें रुपयेके बलपर हजार-पाँचसौ खर्च हो जायेंगे, उतनी ही कसर
ही शादियाँ होती हैं ?" यही सब कुछ सोचते-सोचते हीराके व्याहमें दहेजमें निकाल लूंगा। अपने ब्याहके
बुढियाके नेत्र सजल हो गये। आँसू पोंछे और फिर लिये ही उन्होंने हीराके विवाहको एक वर्षके लिये
सोचनेमें तन्मय हो गई । न जाने कबतक वह स्थगित कर दिया था । बेचारा हीरा इससे
सोचती रही, रोती रही और आँसू पोंछती रही।। अपरिचित था । उसे क्या पता था कि मुंशीजीने विवाह करनेकी ठानी है और इसी वर्ष !
गोमती घड़ा उठाकर पानी भरने चल दी। उसे एक दिन मुंशीजीने सोचा कि अपने विवाहके पता नहीं था कि उसकी माँ उसके विवाहके लिये बारेमें अपने बेटेकी भी सलाह लेलूँ तो क्या हर्ज है। इतनी चिन्तित है और न उसने ही कभी अपनी अवसर अच्छा समझ कर बोले-"बेटा हीरात ही चिन्ता उसपर प्रकट होने दी थी। गोमती यह तो देख कि खाने-पीनेकी कितनी तकलीफ़ है जबसे भलीभांति समझती थी कि उसके विवाहके दिन श्रा तेरी माँ मरी है, घरका सब काम-काज चौपट हो
र गये हैं, किन्तु वह उसके लिये अपनी माँकी भाँति गया है। हप्ते भरमें एक समय भी भोजन ठीकसे
चिन्तित न थी। उसके मन-मन्दिरमें तो हीरा कभीसे नहीं मिलता।" मुंशीजी एकाएक कहते-कहते सक बैठा हुआ था । प्रतिदिन उसके दर्शन कुएँपर हो गये, फिर बिना उत्तर पाये ही बोले-"कुछ इलाज
M जाते थे और वहींपर दो-चार बातें भी। भी तो नहीं सूझता इसका ?" इतना कह कर वह रोजकी भाँति आज भी हीरा वहीं मिला। हीराके मुँहकी ओर ताकने लगे । हीराके मुँहसे गोमती उसे देखते ही खिल उठी । उस विश्वास था अचानक निकल पड़ा-"पिताजी, अप शादी क्यों कि उसका विवाह हीरासे होगा, लेकिन इतना दृढ़ नहीं कर लेते ? आपको भी आराम रहेगा और नहीं जितना कि हीराका । हीरा बोला--"गोमती, हमको भी। बिन माँके क्या जीवन ?" "हाँ बेटा, आज देर क्यों करदी ?" "नहीं तो, तुम तो रोज ही यही करूँगा". मुंशीजी अपने मनकी सुन कर यही कहते हो ।" सुनकर हीराने कुछ लज्जाका सहानुभूति-सी प्रकट करते हुए बोले । काफी समय अनुभव किया। उसने उसके हाथसं घड़ा लेकर रख तक पुत्र और पितामें इसी विषयपर बातें होती रहीं। दिया। पास ही एक वृक्ष था, उसीके नीचे दोनों बैठ हीरा यह भी समझ गया कि उसका विवाह एक कर बातें किया करते थे । आज भी वही पहुँचे। सालके लिये स्थगित कर दिया गया है।
हीरा पुनः बोला-"तुम्हें एक बातका पता है गोमती ?"
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३२४
अनेकान्त
[ वर्ष ८
"क्या ?"
शायद हो कुछ मेरी गोमतीके बारे में ..............।" हीरा कुछ हिचकिचाया । फिर साहस कर यही सोचती २ वह मुंशीजीके घरको चलदी। उधर बोला-"तुम्हारी और मेरी शादी हो तो इसी वर्ष मुंशीजी पहलेसे ही जान बूझकर खिसक गये थे। जाती पर ... ", कहता कहता हीरा रुक गया। जाते समय वह अपने एक पुराने मित्र चौधरीको, गोमतीके अरुण कपोलोंपर लालिमाकी एक जिसको उन्होंने पहलेसे ही मन्त्रदान दे रखा था,
च गई और साथ-ही-साथ उसे सन्देह भी बिठा गए थे। जब वह पहँची तो चौधरीजीने हुआ। उसने पूछा- “पर क्या ?"
उसको बड़े आदरसे बिठाया और फिर सहानुभूति ___ "कुछ नहीं, पिताजीका विचार है कि बहूके सो प्रगट करते हुए बोले-"क्या बात है गोमतीकी घरमें श्रानेसे पहले उसकी सास घरमें आ जानी माँ, इतनी पतली क्यों हो गई हो।" चाहिए । इसलिये उन्होंने मेरा विवाह एक सालके "क्या बताऊँ चौधरीजी, भला आपसे क्या छिपा लिए स्थगित कर दिया है।" गोमती पहिले तो है ? आप मेरे घरकी सब हालत जानते हैं। बस समझ न सकी कि इसमें क्या रहस्य है, किन्तु काफी मुझे तो गोमतीको चिन्ता खाए डालती है।" देर पश्चात् उसकी समझमें आया कि मुंशीजी "गोमती की क्या चिन्ता ?" विवाह करना चाहते हैं। बोली-“इममें मुझे क्या "बस यही कि, दहेज कहाँसे लाऊँ ?" आपत्ति हो सकती है । अच्छा ही है, मुझे सासकी "ओह ! यह भी कोई चिन्ताकी बात है, तूने मेरेसेवा करनेका अवसर प्राप्त होगा।"
से पहले क्यों नहीं कहा ? आज-कल तो उलटा "मुझे तुमसे यही आशा थी, मेरी रानी!" दहेज मिलता है, उलटा ! कहे तो रिश्ता आज ही
"अगर सालभरमें तुम्हारी शादी अापके पिताजी पक्का करा दूं।" बुढ़िया समझी, चौधरी जी मजाक ने कहीं और निश्चित कर दी तो ....... "" कर रहे हैं। वह अँझलाती हुई-सी बोली-"अजी ___ "नहीं-नहीं गोमती, ऐसा मैं न होने दूंगा। हाँ, मुझे तो यह भी नहीं कि वर अच्छा ही हो। चाहे एक बात अवश्य है, मेरे पिताजी मेरे विवाहमें दहेज पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ हो, चाहे खूबसूरत हो या लेगें और थोडा-बहत नहीं, काफी।" हीरा इतना बदसूरत हो, मुझे तो इस लडकीके हाथ पीले कहकर मोचनेमें लग गया और फिर तुरन्त ही करने हैं।" बोला-"नहीं २ गोमती, तुम इसकी चिन्ता न करो। "तब तो तू मेरी बात मान", वह उसे समझाते मैं स्वयं अपने विवाह के लिये दहेजका इन्तजाम कर हुए बोले । बुढ़ियाने कोई उत्तर न दिया, वह केवल लूंगा। मैं पिताजीसे छिपाकर रुपये तुम्हारी माँको उनके मुँहकी ओर ताकने लगी। फिर उन्होंने कहना दे दूंगा", उसके स्वरमें दृढ़ता थी । इतना कह उसने प्रारम्भ किया-"कल मेरी मुंशीजीसे बात हो रही अपनी प्यारी गोमतीको अपने बाहुपाशमें ले लिया। थी, उन्होंने इसी जाड़ेमें अभी २ शादी करनेकी सोची
गोमतीकी माँको इसकी झलक भी न थी कि है, और अगर तू कहे तो में उन्हें मना लूँ ।" उसकी बेटी और हीरा आपसमें प्रेम करते हैं। आखिर वह उनकी बातोंमें आ गई और तभी उसे तो किसीसे यह ही पता चला था कि मुंशीजीने पण्डितजीको बुलाकर विवाहकी तिथी निश्चित हीराके ब्याहम दस हजारका दहेज लेनेकी सोच कर दी गई । बुढ़ियाको आज ऐसा लग रहा था जैसे रक्खी है, उस ओर तो आस उठाना ही व्यर्थ है। उसके सिर परसे कई मनका बोझ उत
आज जब मुंशीजीने उसे बुलाया तो उसके परन्तु फिर भी उसकी आत्मा कह रही थी कि उसने आश्चर्यकी सीमा न रही। वह सोचने लगी-"मुझ अपनी गोमतीके प्रति अन्याय किया है। वह बाध्य बुढ़ियासे मुंशीजीको कौनसा काम निकल पाया। थी, विवश थी, वैसा करने के लिये ।
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किरण ८ ९]
फल
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मुंशीजी यह न चाहते थे कि हीरा उनके विवाह प्रभात होते ही वह चल दिया ! के अवसर पर वहीं रहे ! उन्होंने उसको उसके मामा एक ओर हीरा अपने गाँवको जा रहा था तो के यहाँ भेज दिया और अपने विवाहकी बात दूसरी ओर मुंशीजी बारात लिये गोमतीके घर छिपा ली!
जा रहे थे। विवाह हो गया ! गोमती लुट गई ! हीरा अपने मामाके यहाँ था । उसे यहीं पर यह उसकी आशाएँ लुट गई !! और साथ-ही-साथ हीरा बात भी ज्ञात हुई । उसे यह तो पता चल गया कि भी लुट गया !!! उसको उस दिन वृक्षके नीचेकी उसके पिताका विवाह है, लेकिन यह न पता चला बातें याद आने लगीं। कैसा स्वप्न था-मुशीजीका कि 'किससे?
विवाह होगा.""एक वर्ष बीतेगा".." हीरा और संध्याका समय था, दिनकर अपनी अन्तिम गोमती" गोमती सासकी सेवा करेगी। ओह ! किरणें अंधेरेके हाथ सौंप रहा था। हीरा ऊपर वह स्वयं ही अपनी सास बन गई ! वह अपने छतपर पड़ा नीले नभकी ओर देख रहा था। प्रियतमको अपने पुत्रके रूपमें पानेकी कल्पना भी न शायद कुछ सोचनेमें तन्मय था। उसने देखा कि, कर सकती थी ! केवल एक इच्छाने, श्राशाने. नभके विशाल वक्षपर एक तारा उग आया है। अरमानने उसे आत्महत्या करनेसे रोक लिया। वह देखते-ही-देखते एक और तारा उसीके पास निकल
चाहती थी-एक बार और हीरासे उसी वृक्षके नीचे आया । वह पड़ा २ कल्पना कर रहा था-अहा! बात करना। कितना अच्छा संसार होगा जिसमें मैं और गोमती हीरा अगले राज़ सन्ध्या समय अपने गाँव इन दोनों तारोंकी भाँति होंगे, एकाकी होंगे, दूर पहुँचा । गाँव वालोंसे पता चला कि गोमतीका होंगे इस बन्धनमय संसार से। फिर उसने देखा विवाह ....." । उसे विश्वास न हुआ, वह अपने घर कि, दोनों तारे एक दूसरेके पास आते जा रहे हैं। प्राया । बाहर चौधरीजीसे पूछा और फिर लौट वह गद्गद् हो उठा। एकाएक एक तारा नभके पड़ा ! उसका कोमल उर अपनी प्रयसीको अपनी वक्षपर एक उज्ज्वल रेखा खींचता हा विलीन हो माँके रूपमें पाकर चीत्कार कर उठा ! उसने कुछ गया। "ओह, मेरी रानी, गोमती, गोमती"ई" तरन्त और अधिक नहीं सोचा, बिना गोमतीस मिले ही हीरा चिल्ला उठा । उसका मन शकाओंसे भर उठा। आत्महत्या करली !! वह सदाके लिये उससे रुष्ट उसने सुना था जब कभी तारा टूटता हुआ दिखाई होकर चला गया !!! गोमतीने सुना-हीरा आया, दे, तो थूकना चाहिए। उसने सन्देह दूर करनेके चला गया और सदाकं लिये चला गया ! उसकी लिये वैसा ही किया। देखते-ही-देखते दूसरा तारा अन्तिम श्राशा भी निराशामें परिवर्तित हो चुकी थी। भी टूट गया। अब उससे न रहा गया, उसने अब उसे इस जगतमें रहकर करना ही क्या था ? मोचा-अवश्य ही कोई अनहोनी बात है। उसने उसने भी हीराका अनुसरण किया !! और वृद्धने घर जानेका निश्चय कर लिया।
देखा, वृद्ध-विवाहका “फल" !!!
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वैज्ञानिक युग और अहिंसा
[ लेखक-श्रीरतन जैन पहाड़ी ]
आधुनिक वैज्ञानिक युग किस प्रकार प्रगति- व्याप्त है, प्रारम्भ तो हुआ पिछले प्रयोगोंसे लेकिन पथपर अग्रसर होरहा है, इसपर सब हम दृष्टिपात खत्म हुआ “परमाणुबम"से । इसमें सन्देह नहीं कि करते हैं तो इन वायुयानोंकी गड़गड़ाहटके साथ-साथ अगला युद्ध प्रारम्भ तो होगा इस नवाविष्कृत हमें मानवकी करुण पुकारका भी प्रत्यक्ष बोध होता "अणुबम"मे और खत्म होगा महाप्रलय द्वारा ही। है। प्राचीन युगकी तलना प्राजके वैज्ञानिक युगसे इस प्रगतिमें कोई रोक-थाम नहीं कर सकता । की जाय तो भले ही किसी रूपमें आजका युग कुछ पश्चिम वाले जिस विभीषिकाको शान्तिका दूत मानते अग्रसर कहा जा सके, लेकिन अधिकांश रूपमें और हैं वही विभीषिका आने वाले चन्द दिनोंमें उनके जहाँतक “शान्ति"के अस्तित्वका सम्बन्ध है, नाशका कारण बनेगी। जिन शस्त्रास्त्रोंका प्रयोग वे प्रायः निराश ही होना पड़ेगा।
आज शत्रके निर्दलन-स्वरूप करते हैं और उसे
अपनी रक्षाका सम्बल मान शान्ति-प्रसारक मानते है अणुबमके इस युगमें जहाँ पाँच ही मिनटमें वे ही उन्हें जगतसे नेस्तनाबूद करनेमें सहायक होंगे, सैकड़ों मील तकके मकान, रहने वाले मनुष्य एवं इसमें सन्देहकी बात नहीं। पशु-पक्षियोंका सफाया हो जाता है तथा उस बम-प्रभावित क्षेत्रमें आने वाला व्यक्ति भी घुट-घुटकर
अगर इससे रक्षाका कोई उपाय है तो वह मृत्युका ग्रास हो जाता है। ऐसे समयमें हम मानवसे
अहिंसा ही । मानवकी मानवता, सुख-शान्तिका मानवताके संरक्षणकी कल्पना कहाँतक कर सकते साम्राज्य स्थापित रखनेके लिये अहिंसा ही एक ऐसा हैं ? प्राचीन समयमें दो सेनाएँ आपसमें शाल मूलमन्त्र है जिसके बलपर प्रत्येक प्राणी अपना बाँधकर लड़ती थीं—प्रजा अपना कार्य करती थी,
अस्तित्व कायम रखते हुए सुख-शान्तिका जीवनलेकिन आज तो बड़े गौरवके साथ यह कहा जाता ।
यापन कर सकता है । वृद्ध भारत अहिंसाकी शिक्षाका है कि "समूचा देश-का-देश युद्ध मोर्चेपर है"। सदासे शिक्षक रहा है। समय-समयपर इस भारतमें पहले आजकी तरह युद्ध न होते थे. लेकिन आज तो ऋषि व महात्माअनि अवतरित हो अहिंसाका पावन "सभ्यता" और उसका यदसे सम्बन्ध दो भिन्न-भिन्न उपदेश जगतको दिया और भारतको आध्यात्मिकतावस्तुएँ दृष्टि-गोचर होती हैं । युद्धका सभ्यतासे की चरम सीमापर पहुँचनेका गौरव प्रदान किया। कोई सम्बन्ध ही नहीं रह गया है किन्तु किसी भी मशीन आदि उत्पादक साधनोंके विषयमें हम तरह शत्रुको पराजित करना ही युद्धका एकमात्र यह पूर्ण रूपसे माननेको प्रस्तुत हैं कि देशकी ध्येय होता है । चाहे वह अन्यायसे हो या और व्यापारिक उन्नतिके लिये मशीनोंका प्रयोग आवश्यक किसी उचित-अनुचित तौर-तरीकेस । इसी कारण- है, लेकिन भारतवर्षको किसी रूपमें यह प्रयोग देखिये ! प्रत्येक युद्ध में नये-नये शस्त्रास्त्रोंका प्रयोग हानि-प्रद ही सिद्ध हुआ है-विघातक ही सिद्ध हुआ होता चला रहा है। पिछला युद्ध टैक और हवाई है न कि वरदान-स्वरूप । चर्खे एवं करघेका उपयोग जहाजोंके प्रयोगोंसे खत्म हुआ, लेकिन यह युद्ध, “गान्धीवाद"का प्रमुख अङ्ग है । ऐसे देशमें जहाँ जिसकी छाया पूर्णरूपमें अभी भी हमारे ऊपर हजारों-लाखों मनुष्य बिना अन्न-वस्त्रके इस धरतीसे
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किरण ८-९]
वैज्ञानिक युग और अहिंसा
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विदा हो अपनी जीवन-यात्रा समाप्त कर जाते हैं बच्चा ! आज तेरे बाबूजीको काम नहीं मिला इस
और उन्हें कोई जान भी नहीं पाता । ऐसे देशमें लिये आज पैसे नहीं मिले और इसी कारण घरमें जहाँके लाखों मजदूर काम न मिलनेके कारण दर-दर कोयला न सका। भटकते फिरते हैं और किसी प्रकारके औद्योगिक क्यों माँ ! बाबूजीको काम क्यों नहीं मिला, धन्धोंके समुचित प्रचारसे वह मिलों एवं खानोंमें जिससे कोयला न आ सका। अपना जीवन पशुसे भी बदतर (निम्नस्तरपर) माँ उत्तर देती है-बच्चा ! मालिकने खानसे यापन करनेको बाध्य होते हैं । मशीन एवं अन्य कोयला बहुत ज्यादा निकलवा लिया है इसलिये वैज्ञानिक उत्पादक यन्त्रोंसे ही यह भीषण समस्या शहरमें अब कोयलेकी कमी नहीं है। हल होने वाली नहीं है, उस समस्याको सुलझानेके शहरमें कोयला अधिक गया है, इसलिये लिये तो कृषि-प्रधान-देश भारतमें उद्योग-धन्धोंका आज तेरे घरमें कोयला नहीं है।। प्रसार ही श्रेयस्कर होगा; वर्ना यह असम्भव है कि यह पंजीवादी मनोवृत्तिका परिणाम । चूंकि एक हम अपने ग़रीब भारतीय मानवको दोनों समय और कोयलेका अम्बार लगा हुआ है इसी कारण दूसरी भोजन एवं समुचित वस्त्रकी व्यवस्था कर सकें। ओर मजदुर श्रेणीका मानव ठण्डसे ठिठुर रहा है। __ हाँ, मशीनोंका प्रसार उच्चस्तर वालोंका माप- उपर्युक्त बातें विज्ञानसे सम्बन्धित हैं, लेकिन दण्ड किसी सीमा तक विस्तृत कर सकता है; लेकिन अहिंसाकी उपादेयताका प्रश्न जटिलरूप धारण करता निम्नस्तर वाला सर्वहारा वर्ग उसी प्रकार अपना जारहा है । एक ओर तो गान्धी अपने आत्मबल दीनतामें मरणाश्रु बहाता रहेगा जिस प्रकार सदियों एवं अहिंसाके प्रयोगोंसे विश्वको चुनौती देरहा है कि से बहाता रहा है । हाँ, किसी प्रकारके सुधारके यदि विश्वमें शान्ति स्थापित होगी तो वह 'अहिंसा' सद्भावसे उसके यह आँसू हम पोंछनेमें समर्थ हो से ही; वर्ना यह असम्भव है कि अन्य साधन विश्वमकते हैं । महात्मा गान्धीकी अहिंसा एवं उनके शान्तिमें कारगर हो सकें। लेकिन दूसरी ओर रचनात्मक कार्य-क्रमपर आज हम ग्रामीण भारतीय अपनी मैत्री बनाये रखनेका स्वप्न देखते हुए 'मित्रराष्ट्र तथा जैन्टिलमैन मिस्टर भारतीयका भी विकास परमाया-बमको मित्रताका आधार मान मैत्री-संबन्ध कर मकते हैं ?
स्थापित करते है और तरह-तरहकी Peace पूंजीवादका सम्बन्ध
___Confrences और शान्ति-प्रसारक सम्मेलन करते _ विज्ञानकी रोक-थाम अधिकांश रूपमें पूंजीवादी हैं। भगवान जाने कहाँ तक “परमाणु-बम"की सत्तापर निर्भर करती है । जिस देशमें धनिकवर्ग मित्रता मित्रताके रूपमें टिक सकती है ! हाँ, यह अपनी सत्ता स्थापित करनेकी राह सोचेगा उस होसकता है कि जब रोगी ही न रहेगा तो रोग तो देशमें यह निश्चय है कि सर्वहारा (मजदूर) वर्ग भी स्वयं चला जायगा । जब ये दोनों आपसमें लड़-पिट अपनी पीडाओंकी घड़ियाँ काट रहा होगा । एक कर मर जायेंगे तो शान्तिका साम्राज्य तो सम्भव है कहानी इस समय याद आती है।
ही ? वह समय भी तो दूर नहीं है। . ___ रूसमें किसी जगह एक चित्र टॅगा था, जिसका बापूका यह सिद्धान्त ठीक है कि 'कटुता कटुतासे श्राशय इस प्रकार है
नहीं मिट सकती। रक्तरञ्जित पट स्वच्छ जलसे ही ___ एक बच्चा अपनी माँसे कह रहा है। माँ ठण्ड साफ किया जा सकता है । विज्ञान द्वारा मिटती लग रही है कोयला जला दो।
मानवता यदि सुरक्षित रक्खी जा सकती है तो वह माँ उत्तर देती है-बच्चा घरमें कोयला नहीं है। अहिंसाके पालनसे ही, अन्यथा परिणामकी माँ, घरमें कोयला क्यों नहीं है ? बछने पूछा। भयंकरताका ठौर-ठिकाना नहीं'।
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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
(लेग्यक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया)
[गन किरणसे आगे] क्या रत्नकरण्डमें दो विचारधाराओंका आप्तमीमांसाका विभिन्न कर्तृत्व, ओ प्रो. सा. को
अभीष्ट है, सिद्ध नहीं होता। एक ग्रन्थकार अपने समावेश है ?
एक ग्रन्थकी मान्यताको अपने दूसरे ग्रन्थमें भी रख मैंने आगे चलकर यह कहा था कि रत्नकरण्डके सकता है कोई बाधा नहीं है । अतएव आप्तपाँचवें पद्यमें कथित आप्त-लक्षणमें दिये गये मीमांसाकार अपनी प्राप्तमीमांसोक्त प्राप्तलक्षण 'उत्सन्नदोष' या 'उच्छिन्नदोष' विशेषणका स्पष्टीकरण सम्बन्धी मान्यताको रत्नकरण्डमें दे सकते हैं। और अथवा स्वरूप प्रतिपादन करनेके लिये ग्रन्थकारने कुन्दकुन्दाचार्य तो आप्तमीमांसाकारके पूर्ववर्ती हैं ही अगला 'क्षुत्पिपासा' आदि छठा पद्य रचा है और जो अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध हैं। और इसलिये श्राप्तउसमें उन्होंने लक्षण तथा उपलक्षण रूपसे 'उत्सन्न- मीमांसाकार उनके द्वारा प्रतिपादित प्राप्तलक्षणको दोष का स्वरूप प्रदर्शन किया है।
भी इसमें उपस्थित कर सकते हैं क्योंकि रत्नकरण्ड __इसपर प्रो. सा. ने अब यह कल्पना की है कि आज्ञाप्रधान आगमिक रचना है और कुन्दकुन्दाचार्यवहाँ दो विचारधाराओंका समावेश है-पाँचवें का श्राप्तलक्षण आगमिक स्वयं सर्व प्रसिद्ध है। पद्यमें तो समन्तभद्रस्वामीका आप्तमीमांसा सम्मत अतः रत्नकरण्डमें दो विचारधाराओंका समावेश लक्षण है और छठे पद्यम कुन्दकुन्दाचाये प्रतिपादित मान लेनपर भी उससे रत्नकरण्ड और आप्तलक्षण । अपनी दम कल्पनाका आधार आप यह मीमांसाके एक कतृ त्वमें कोई बाधा नहीं पड़ती है। बतलाते हैं कि एक पद्यके अन्त में 'नान्यथा ह्याप्तता (ग्व) दमर, जिन दो विचारधाराओंकी कल्पना भवेत्' और दूसरे के अन्त में 'यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते' की जारही है वे दो हैं ही नहीं, क्योंकि समग्र जैनवाक्य दिये गये है। अतएव वहाँ किमी मेल-जोल साहित्यम एक ही आपलक्षण किया गया है और वह या लक्षण-उपलक्षणकी बात नहीं है।
अठारह दोषोंका अभावरूप है। इमीको किमीने पूरे नि:मन्देह उल्लिखित पद्यांक अन्तिम वाक्योंके रूपसे, किसीने शिकरूपसे. या किसीने परिवर्तितयथास्थित प्रयोगसे वैमी कल्पनाका उद्भव होना रूपसे अपनाया है । वास्तवमें प्राप्त विश्वसनीयम्वाभाविक है, क्योंकि जब हम यह समझते हों कि प्रामाणिक-व्यक्तिको कहा जाता है और उसके दोनों पद्य अपने आपमें परिपूर्ण हैं और वे किसी प्रामाण्यका कारण दोषाभाव माना जाता है। जहाँ एक दूसरेकी श्राकाँक्षा नहीं रखते । पर ऐसा समझना यह दोषाभाव पूर्णतः अन्तिमरूपमें है वहीं पूर्णत: बड़ा भ्रम है। इम सम्बन्धमें मैं यहाँ कुछ विस्तारसे प्रामाणिकता-आमता है । सर्वज्ञता और हितोपविचार प्रस्तुत करता हूं।
देशकता तो दोषाभावके ही फलित हैं। इस बातको (क) यदि हम यह मान भी लें कि रत्नकरण्डमें स्वयं स्वामी समन्तभद्रने 'सत्यमेवास्ति निर्दोषो प्राप्त-लक्षण सम्बन्धी दो विचारधाराओं अथवा १ देखिये, डा. ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित 'प्रवचनमान्यताओंका समावेश है तो उससे रत्नकरण्ड और सार'की प्रस्तावना ।
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किरण ८-९]
रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमामाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस प्राप्तमीमांसाकी छठी और सविवाद है । अतः ग्रन्थकारको उसका स्वरूप कारिकामें स्वीकार किया है। उन्होंने यहाँ सर्वज्ञता उद्घाटन अथवा स्पष्टीकरण करना आवश्यक था
और युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्व (हितोपदेशकता) को और इसलिये उसका खुलासा उन्होंने एक स्वतन्त्र 'निर्दोषत्व' प्रयुक्त ही बतलाया है । सर्वज्ञताका (छठे) पद्य द्वारा यहाँ उसके उपयुक्त स्थानपर किया 'निर्दोषत्व' साधन (कारण हेतु) है और युक्तिशास्त्रा- है। यह नहीं कि वहाँ दूसरा आप्तलक्षण उपस्थित विरोधिवाक्त्वका साध्य (कारणात्मक) है, पर कारण किया गया है। हमारे इस कथनकी पुष्टि इसी ग्रन्थ दोनोंके लिये ही है । तात्पर्य यह कि जहाँ प्राप्तके (रत्नकरण्ड)पर लिखी गई प्रभाचन्द्राचार्य कृत लक्षणमें तीनों विशेषण दिये गये हैं वहाँ फलितको टीकाके विचारस्थ पद्योंके उत्थानिका वाक्योंसे भी भी ग्रहण कर लिया गया है और जहाँ केवल आप्तके होजाती है और जो इस प्रकार हैं:लक्षणमें एक 'उत्सन्नदोष' ही विशेषण कहा गया है "तत्र सद्दर्शनविषयतयोक्तस्याप्तस्य स्वरूपं वहाँ फलितको छोड़ दिया गया है और यह केवल व्याचिख्यासुराहप्रन्थकारोंका विवक्षा-भेद है-मान्यता-भेद नहीं' । प्राप्तेनोत्सन्नदाषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । जैसे प्रतिज्ञा और हेतु इन दोको अथवा धर्म, धर्मी
__ भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥५॥ और हेतु इन तीनको अनुमानाङ्ग प्रतिपादन करना मात्र विवक्षा-भेद है--मान्यता-भेद नहीं।
श्रथ के पुनस्ते दाषा ये तत्रोत्सन्ना इत्याशंक्याह___ (ग) तीसरे, पाँचवें पद्यमें कहे गये प्राप्तलक्षणमें
क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः ।
कुत्पिपा जो उत्सन्नदोष, सर्वज्ञ और आगमेशी तीन न रागद्वेषमाहाश्च यस्याप्तः स प्रकीयते ॥६॥" विशेषण दिये गये हैं उनमें अन्तिम दो विशेषण
यहाँ टीकाकारके 'के पुनस्ते दोषा ये तत्रोत्सनाः' अपेक्षाकृत सरल और स्पष्ट हैं-सर्वज्ञ विशेषणपर इस छठ पद्यक उत्थानकावाक्यस स्पष्टतया प्रकट ह तो ग्रन्थकार प्राप्तमीमांसा लिख चुके थे और वहाँ
कि पाँचवें पद्यगत 'उत्मन्नदोष' का स्वरूप बतलाने उसपर तथा आगमेशीपर पर्याप्त प्रकाश डाल चके थे अथवा उसका स्पष्टीकरण करनेके लिये ही छठा पद्य उत्मन्नदोषपर प्रकाश डालना शेष था और उसपर
रचा गया है और इसलिये वह स्वतन्त्र पामलक्षणका यहाँ संक्षेपम प्रकाश डाला गया है । वस्तुतः 'उत्सन्न
प्रतिपादक नहीं है, किन्तु पाँचवें पद्यके एक विशेषणदोष' अन्य शेष दो विशेषणोंकी अपेक्षा कुछ अस्पष्ट का उद्घाटक होनेसे उसीका पूरक अथवा अङ्ग है।
यदि ऐसा न होता-स्वतन्त्र ही अन्य प्राप्तलक्षण वहाँ १ जान पड़ता है कि जैमिनि आदि पूर्वमीमांसकोंने जब प्रतिपादित होता तो टीकाकार निश्चय ही उक्त प्रकारसे पुरुषमें दोषाभावकी असम्भवता बतलाकर सर्वज्ञता टीकामें उत्थानिकावाक्य न बनाकर 'आप्तस्यै
उपदेशकताका अभाव प्रतिपादन किया तथा न्तरमाह-आप्नका ही दसरा लक्षण कहते हैं जैसे वेदोंको ही सर्वज्ञ एवं धर्मज्ञ और धर्माद्यपदेशक 'धर्मे उत्थानिकावाक्य बनाते। पर उन्होंने वैसा उत्थानिकाचोदनैव प्रमाणं (प्राप्त)' बतलाना घोषित किया तब वाक्य न बनाकर और 'के पुनस्ते दोषा ये तत्रोत्सना' विशिष्ट पुरुपकी मुक्ति सम्भव प्रतिपादन करने वाले इत्यादि पसे ही उसे बनाकर पूर्व (पाँचवें) पद्यके स्याहादियों-जैनोंके लिये 'पुरुषविशेष'को उत्सन्नदोष, साथ ही इस छठे पद्यका सम्बन्ध जोड़ा है । ऐसी सर्वज्ञ और धर्माद्य पदेशक सिद्ध करना आवश्यक हालतमें रत्नकरण्ड में दो विचारधाराओंकी कल्पनाके होगया। उसीका यह अनिवार्य परिणाम हा कि उक्त लिये कोई स्थान नहीं रहता। अतः इससे निर्विवाद तीनों विशेषण-विशिष्ट प्राप्तका स्वरूप बतलानेके लिये है कि रत्नकरण्डमें प्राप्तलक्षण सम्बन्धी दो परिभाषाएँ श्राप्तमीमांसा जैसे ग्रन्थोंका निर्माण हश्रा ।
या मान्यताएँ नहीं हैं।
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
(घ) चौथे, यद्यपि छठे पद्यके अन्तमें 'यस्याप्तः उसके लिये प्रसिद्ध उक्त न्यायको प्रमाणरूपमें प्रस्तुत स प्रकीयते' पुनः कहा गया है और वहाँ प्राप्त किया है। इसी तरह अपसहर शब्दकी स्थिति सामान्य है तथापि वहाँ वह 'उत्सन्न- आचार्य विद्यानन्दने भी इस न्यायका उल्लेख किया दोष'के अर्थमें प्रयुक्त किया गया है, जिसका अर्थ यह है । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. ४६३) में तो बिना है कि 'जिसके क्षुधा आदि अठारह दोष नहीं हैं वह विकल्प किये 'मूर्छा' शब्द बाह्य और आभ्यन्तर प्राप्त अर्थात् उत्सन्नदोष (वीतराग) कहा जाता है।' परिग्रहके अर्थमें स्पष्टतः प्रयुक्त किया गया है। इससे यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि सामान्यतः यह प्रकट है कि सामान्य शब्दका प्रयोग ग्रन्थकार प्रयक्त 'श्राप्त' शब्दसे 'उत्मन्नदोष रूप विशेष अर्थका विशेष अर्थमें भी प्रयक्त करते हुए पाये जाते हैं और बोध कैसे हो सकता है ? सामान्य शब्दसे तो इमलिये रत्नकरण्डके छठे पद्यमें जो सामान्यत: सामान्य अर्थका ही बोध होता है—विशेषका नहीं ? 'प्राप्त' शब्दका प्रयोग है वह 'उत्मन्नदोष' (वीतराग) विशेषका बोध तो विशेप ही शब्दसे होता है और के अर्थ में आया है । ईमाकी पाँचवी शतीमें पूर्वके इसलिये यदि वहाँ 'प्राप्त' शब्दसे उत्सन्नदोष विवक्षित रचित 'अामस्वरूप' ग्रन्थमें 'आप्तं दोषक्षयं विदुः' कह हो तो उसी शब्दका प्रयोग होना चाहिए-आप्त कर उसके रचयिताने दोषक्षय (वीतराग) के लिये शब्दका नहीं ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि आप्त शब्दका प्रयोग किया है और जिसमें भी हमारे सामान्य शब्दका प्रयोग भी विशेष अर्थके बोध उक्त कथनकी पुष्टि होजाती है। करनेमें प्रयुक्त होता है। यह न्याय सर्व प्रसिद्ध है कि अतः इस मब विवेचनसे स्पष्ट होजाता है कि "सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते” अर्थात रनकरण्डमें आप्पलक्षणविषयमें दो विचारधाराथोंसामान्यतः पद प्रयोग विशेषोंमें अवस्थित होते हैं। का समावेश नहीं है और इसलिये उसकी कल्पना अतः इम न्यायसे छठे पद्यमें प्रयुक्त 'श्राप्त' सामान्य मर्वथा भ्रमपूर्ण है। किन्तु यह संगत प्रतीत होता है शब्द 'उत्मन्नदोप'के अर्थमें ग्रहण करना चाहिए। कि श्राप्नमें जिन अठारह दोषोंका अभाव होना इसके लिये मैं निम्न दो नमूने उपस्थित करता हूँ, आवश्यक है उनमें क्षुधादि कुछ दोषांका अभाव तो जहाँ सामान्य शब्दको विशेपार्थका बाधक माना उपलक्षणात्मक है और राग, द्वेष, मोह आदि कुछ गया है
दोपोंका अभाव लक्षणात्मक है । लक्षण तथा ___ "मूर्च्छतिरियं मोहसामान्ये वर्त्तते । 'सामान्य- उपलक्षण का अन्तर में पहले बतला आया हूँ कि चोदनाश्च विशेषेप्ववतिष्ठन्त' इत्युक्तविशेषे व्यवस्थितः लक्षण ता तन्मात्रवृत्ति ही होता है और उपलक्षण परिगृह्यत । परिग्रहप्रकरणात् ।'- सर्वार्थ. पृ. २३३
तत्मदृशमें भी रहता है । स्मरण रहे कि यदि क्षुधादि
दोपांका अभाव घातिकर्मक्षयजन्यरूपसे ही कथित "मूर्छि रियं माहसामान्ये वर्तमानः बाह्याभ्यन्तरोपधि
हो तो वह भी लक्षण ही है-उस हालतमें वह संरक्षणादिविषयः परिगृहीत इति विशेपितत्वात् उपलक्षण नहीं है। जैसाकि प्रा० विद्यानन्दने इष्टार्थसम्प्रत्ययो भवति । सामान्यचोदनाश्च विषेप्व- 'घातिकर्मक्षयजः' पदद्वारा स्पष्ट संकेत किया है। वनिष्टन्ते इति ।-तत्त्वार्थराजवा. पृ. २७६, ७-१७ केवल में जन्मादि ६ दोपोंके अभावका निर्णय
यहां आचार्य पृज्यपाद और भट्टाकलङ्कदेव दोनों- कंवलीमें १८ दोपोंमेंसे १२ दोषोंके अभावका ने 'मृच्छा परिग्रह:' इस तत्त्वार्थसूत्रीय सूत्र में आचार्य निर्णय होचुका है और जिसे प्रो० सा ने भी स्वीकार उमाम्वामिद्वारा मामान्यतः प्रयुक्त 'भूमी' शब्दको कर लिया ह । अब संक्षेपमें शेष ६ दोषांके अभावका 'परिग्रह' म.प विशेष अर्थका बोधक बतलाया है और निणय और किया जाता है।
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किरण ८-९ ]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
इजराऽजरः' ।१२३। नहीं है और इसी
पाठकोंको ज्ञात है कि मैंने केवलीमें इन दोषोंका लिखा है:-"किन्तु पण्डितजी अपनी विवक्षा मिल अभाव प्रमाणित करनेके लिये स्वयम्भूस्तोत्रके जानेके हर्षके आवेगमें 'अजः' पर ही रुक गये, प्रमाणोल्लेखोंको उपस्थित किया था, जो निम्न उन्होंने आगे दृष्टि डालकर नहीं देखा जहाँ 'निवृतः' प्रकार हैं
विशेषण लगा हुआ है और अर्थको उनकी विवक्षासे (क) 'अन्तकः क्रन्दको नृणां जन्म-ज्वरसखा सदा। परे ले जाता है, क्योंकि उससे स्पष्ट है कि यह वर्णन
वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः।।१३॥' भगवानकी सिद्ध अवस्थाका है।" (ख) 'तस्माद् भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः' ।।
पाठकगण, प्रो० सा० से पूछिए कि यहाँ तो
'निवृतः' विशेषण लगा हश्रा है और इसलिये इस (ग) 'त्वमुन्तमज्योतिरजः व निर्वतः ॥५०॥
वणनको वे भगवानकी सिद्ध अवस्थाका वर्णन (घ) 'त्वया धीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्मनिगलं, बतलाते हैं पर अन्य चार उल्लेखोंमें क्या कहेंगे;
समूलं निभिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवीः।'११७/ क्योंकि उनमें 'निवृतः' अथवा उस जैसा कोई (ङ) 'शीलजलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमि विशेषण नहीं है ? इसका उत्तर प्रो० सा० के पास
नहीं है और इसीलिये उन उल्लेखोंकी उन्होंने उपेक्षा इनमें पहले उल्लेखमकेवली में जन्म ,ज्वर,अन्तक
की है, यह स्पष्ट होजाता है। आपने मुझे मेरी इन तीन दोषोंकी स्पष्ट व्यावृत्ति सूचित कीगई है। दूसरे, व
विवक्षा मिल जानेके हर्षका आवेग बतलाते हुए तीसरे और चौथे इन तीन उल्लेखों में जन्मका अभाव निवृतः' विशेषणपर दृष्टि डालकर न देखनका दोषा
और पाँचवें उल्लेख जगका अभाव उनमें प्रतिपादित रोपण करके पाठकोंकी दृष्टिमें अज्ञ बतलाना चाहा है। किया है और इस तरह इन प्रमाणोल्लेखोंसे केवलीमें पर व यह भूल जाते है कि यह स्वयम्भूस्तोत्र जन्म, ज्वर, अन्तक और जरा इन चार दोपोंके अरहन्त अवस्थाका स्तवन है, सिद्ध अवस्थाका नहीं अभावकी श्राप्तमीमांसाकारकी मान्यता सिद्ध हो और इसीलिये उसे अरहन्तस्तवन, चतुविशाजनजाती है। प्रो० सा० ने इन उल्लेखोंमेंसे तीसरे उल्लेख- स्तुति, चतुर्विंशतितीर्थकरस्तवन आदि नामोंसे कहा के बारेमें तो कुछ लिखनेका कष्ट किया है पर अन्य
जाता है, सिद्धस्तवन आदि नामोंसे नहीं । स्वयम्भूचार उल्लेखोंको उपेक्षाके साथ लोड दिया है। यह शब्द भी जिनका ही वाची है--सिद्धका नहीं । यदि उन्होंने क्यों किया ? यह पाठकोंपर प्रकट होजाता
हम दोनोंका भी उसमें स्तवन मान लें तो 'निवृतः' है; क्योंकि वास्तव में वे उल्लेख दिनकर प्रकाशकी तरह
का केवल सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करना ही अर्थ नहीं स्पष्ट हैं और उनमें जन्म, ज्वर, अन्तक, जरा इन
है। जैनसिद्धान्तका साधारण अभिज्ञ भी यह जानता चार दोषोंका केवलीमें अभाव बिना किसी सन्देहके
है कि निवृति जैनसिद्धान्तमें दो प्रकारकी कही गई वणित है और इसलिये वे उल्लेख उनकं अभीप्रके ह–१ 'पर निवृति' और २ 'अपर निवृति"। परबाधक होनेसे उपेक्षित हुए हैं । मुझे इस सम्बन्धमें
निवृति मिद्ध अवस्थाका और अपरनिवृति अरहन्त इतना ही कहना है कि विद्वानको तभी तक अपना अवस्थाका नाम है। कोंके नाश और आत्मस्वरूपपक्षाग्रह रखना उचित है जब तक उसे समझम न
की प्राप्तिको निवृति (मोक्ष) कहा गया है। अरहन्त आये । समझनेके बाद भी यदि वह अपना पक्षाग्रह १ 'निःश्रेयसं परमपरं च । तत्र परं सकलकर्मविप्रमोक्षबनाये रखता है तो मेरे खयालसे उसे वीतरागचर्चा- लक्षणम्, बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो का ढोंग छोड़ देना चाहिये । तीसरे उल्लेखके बारेमें मोक्ष इति वचनात् । ततोऽपरमाईन्त्यलक्षणम्, घातिप्रो० सा० ने क्या लिखा, उसे भी पाठकोंको देख कर्मक्षयादनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभस्यापरनिःश्रेयसत्वात् ।' लेना चाहिये । मेरे शब्दोंका हवाला देते हुए आपने
-श्राप्तपरीक्षा पृष्ठ १ ।
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अनेकान्त
[ वर्ष ८
चूंकि चार घातियाकोको नाश करते हैं और कहो शीतल जिन हैं उसीकी विज्ञजनों-समझदारोंको अनन्तचतुष्टयरूप आत्मस्वरूपको प्राप्त होते हैं, इस पूजादि करना चाहिए और मैं भी उन्हींकी पूजा लिये उन्हें परमात्मा, मुक्त, निवृत, अरहन्त आदि करता हूँ।' पाठक, उस पूरे पद्यको नीचे देखिये और विशेषणों द्वारा स्मरण किया जाता है और इसलिये उसके प्रत्येक पदके अर्थपर गौर करिये । यहाँ ('त्वमुत्तमज्योतिरज:क निवृत:'-५०) 'निवृतः' _ 'त्वमुत्तमज्योतिरजः क्व निर्वृतःविशेषणसे अरहन्त अवस्थाका ही वर्णन किया गया
व ते परे बुद्धिलवोद्धवक्षताः । है, न कि सिद्ध अवस्थाका । दूसरे, इस अन्तिम पद्यमें 'जिन' को सम्बोधन बनाया गया है,
ततः स्वनिःश्रेयसभावनापरैसिद्धको नहीं और इसलिये उससे भी स्पष्ट है कि र्बुधवेकैर्जिन ! शीतलेड्यसे ।' यहाँ जिनावस्थाका-केवली अवस्थाका प्रतिपादन इस पद्यपरसे एक ऐतिहासिक रहस्यका भी है और यह प्रकट है कि जिन और सिद्ध एक नहीं उद्घाटन होता है। वह यह कि जो आज शीतला हैं-दोनों भिन्न हैं । तीसरे, इस पद्यमें शीतल जिनकी (चेचक) आदिकी निवृत्तिके लिये शीतला माताकी उन हरि, हर, हिरण्यगर्भादि संसार प्रसिद्ध अन्य या अन्य हरिहरादिकी पूजा लोकमें प्रचलित चली आप्तों-देवोंसे तुलना करते हुए उत्कृष्टता बतलाई गई आरही है वह समन्तभद्रक समयमें भी प्रचलित है जिन्हें ही अधिकांश दुनिया प्राप्त (यथार्थ देव) थी और जोरोंपर थी । इसीलिये उन्होंने इस समझती है। और इसलिये भी इस पद्यमें सिद्ध देवमूढता व लोक-मूढताको शीतलजिनकी पूजाके अवस्थाका वर्णन नहीं माना जासकता है । वास्तवमें विधान द्वारा हटानेका उसी प्रकार जोरदार प्रयत्न बात यह है कि जब बच्चों आदिको शीतला आदिकी किया है जिस प्रकारका रत्नकरण्डश्रावकाचारमें बीमारी होजाती है तो लोग उसकी निवृत्तिके लिये देवमूढतादिको हटानेका किया है । इन सब बातोंसे शीतलामाता आदि खोटे देवोंकी, जो न पूर्ण ज्ञानी स्पष्ट है कि इस पद्यमें कंवली अवस्थाका ही वर्णन हैं और न पूर्ण नियंत (सखी) हैं किन्त थोडेसे ज्ञान- है, जब उन्हें जिन कहा जाता है श्री में ही मदान्ध हैं-उस रांग निवृतिका अपने में पूरा उपदेश करते हैं । यहाँ सिद्ध अवस्थाका वर्णन ज्ञान मान बैठे हैं तथा स्वयं रागद्वेषादिसे पीडित हैं, बिल्कुल भी नहीं है। यदि सिद्धोंको भी कहीं जिन पूजादि करते हैं और इस प्रकार समस्त संसारमें कहा गया हो तो कृपा कर प्रो. सा. बतलायें ? अज्ञजनोंमें जो एक बड़ी भारी मूढता-लोकमूढता अतएव वहाँ सिद्ध अवस्थाका वर्णन बतलाना अथवा देवमूढता फैली हुई चली आरही है उसको प्रसङ्गत है ।। दर करनेका इस पद्यमें प्रयत्न किया गया है और प्रो. सा. अपने कथनको सङ्गत-असङ्गत न सहेतु यह सिद्ध किया गया है कि 'शीतल जिनकी समझते हुए केवल पक्षाग्रहवश आगे और भा ही पूजादि करना श्रेष्ठ है क्योंकि वे उत्तमज्योति हैं- लिखते हैं-"४८वें पद्यमें भगवानके अप्रमत्त संयमपरिपूर्ण ज्ञानी हैं और स्वयं श्रज एवं पूर्ण सुखी हैं- का उल्लेख है । उसके पश्चात ४९वें पद्यम उनके मंयोग रागद्वेषादि किसी भी बीमारीसे स्वयं पीडित नहीं हैं अवस्थासे अयोगि बननेका प्रयत्न वर्णित है। और और इसलिये सच्चे रोग निवर्तक कहो, सच्चा वैद्य' ५०वें पद्यमें अयोगिसे ऊपर निवृत अवस्थामें १ अरहन्तको वैद्य भी स्वयं ग्रन्थकारने इसी स्वयम्भस्तोत्रके 'उत्तमज्योति' और 'अज' गुणोंका निरूपण पाया निम्न ११वें पद्यमें स्वीकार किया है:-
जाता है। इसी ज्योतिके प्रकाशमें यदि पंडितजी उन त्वं शम्भवः सम्भवतर्षरोगेः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके। सब उल्लेखोंको देखेंगे जिन्हें वे प्राप्तमें जन्म, जरादि श्रासीरिहाकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथाऽनाथरुजां प्रशान्त्यै ।। १देखो, २२ और २३वाँ पद्य ।
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रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसाका एक कतृत्व प्रमाणसिद्ध है
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दोषोंके अभावके पक्षमें पेश करते हैं तो उनका ध्यान देने योग्य है कि जराका सम्बन्ध वीर्यान्तराय समस्त अन्धकार और धुन्धलापन दूर होजायगा।" कर्मके साथ है । उसका जिसके जैसा क्षयोपशम इस सम्बन्धमें मैं क्या कहूँ ? मुझे सिर्फ हरिभद्रका होता है उसको वैसी देर या जल्दी जरा आती हैनिम्न पद्य याद आ जाता है
तब तक उसका सामयिकाभाव रहता है। केवलीने आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा। वीयोन्तराय कमका सर्वथा क्षय कर दिया है और
इसलिये उनके जगका सर्वथा अभाव कहा जाता है। पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र, तत्र मतिरेति निवेशम् || यही वजह है कि शीलजलधि, जिनकुञ्जर-जैसे
अर्थात् आग्रही पुरुषकी युक्ति वहीं जाती है विशेषण भी साथम और लगाये हैं। जहाँ उसकी बुद्धि स्थिर होचुकी है । जबकि निष्पक्ष केवलीम सुधा और तृषा इन दो दोषोंका पुरुषकी बुद्धि उसकी युक्तिके पीछे-पीछे दौड़ती है।
अभाव बतलानेके लिये स्वयम्भूस्तोत्र, पूज्यपादीय प्रो. मा. ठीक हरिभद्रकी इस उक्तिका अनुसरण नन्दीश्वरभक्ति, पात्रकेसरीस्तोत्र, तत्वार्थश्लोकबार्तिक कर रहे हैं। जो हो, मैं तो युक्ति और आगमके और योगदर्शनके प्रमाणोल्लेबांसे यह कहा था किप्रकाशमें यही जान सका हूँ कि स्वयम्भूस्तोत्रमें केवलीमें। जन्मादि दोषोंका अभाव स्पष्टतः अभिहित है जैसा (१) 'क्षुधादिदुःखप्रतिकारत: स्थितिन इत्यादि कि उपरोक्त विवेचनसे प्रकट है. यह मैं उन्हें नहीं स्वयम्भूस्तात्रके पद्यसे सिद्ध है कि केवलीमें भख-प्याससमझा पारहा, इसे मैं अपनी योग्यता समझे की वेदना नहीं होती और न उसके दर करने के लिये लेता हूँ ।
वे भोजन-पानादिको ग्रहण करते हैं । अन्यथा यहाँ मैं दो बातोंका उल्लेख और कर देना चाहता
सामान्य जनोंके लिय दिया गया उनका यह उपदेश
" कि क्षुधादि वेदनाओंके प्रतिकारसं न शरीरकी स्थिति हूँ । प्रो. मा.का उन्हें मानना न मानना उनके आधीन
है और न आत्माकी-दोनोंके लिये वह प्रतिकार है। पहली बात तो यह कि पूर्वोक्त चौथे उल्लेखमें
अनुपयोगी है, 'परोपदेशे पाण्डित्य' कहलायेगा। कहा गया है कि 'हे जिन ! तुमने जन्मके निगलको । समल निर्भेदन (नाश) कर दिया है और इसलिय अत: इस पद्यसे फोलत है कि केवलीके मधा और
आप विद्वानोंके मोक्षपदवी हैं अर्थान विद्वान तम्हें पाका बाधा नहीं होता। मुक्त कहते हैं।' यहाँ जन्मनिगलको ममूल निर्भदन (२) जब आतमीमामाकार 'शम शाश्वतमवाप करनेका उल्लेख एवं प्रतिपादन किया गया है। शङ्करः' कहकर केवलीम शाश्वत सुख स्वीकार करते अतः प्रो. मा. बतलाय, जन्मका मृल क्या है ? हैं तो क्षुधा और तृषाकी वेदना उनमें कदापि सम्भव श्रायुको तो उसका मूल कहा नहीं जासकता, क्योंकि नहीं है, न भोजनादिजन्य तृप्तिमुख भी सम्भव है; वह केवली अवस्थामें विद्यमान रहती है। मोहको क्योंकि सुख व्याप्यवृत्ति गुण है और इसलिय ही उसका मूल मानना होगा जिसस जन्म-निगल शाश्वन मुखको स्वीकार करने की हालतमें इन्द्रिय होता है और जिसके नाशसे वह नष्ट होजाता है सब नहीं बन सकता है-मजातीय दो गुण एक
और चूंकि केवलीन मोहका निःशेषेण भंदन कर माथ एक जगह नहीं रह सकते हैं । अत: जब प्राप्त. दिया है, इसलिये यहाँ उनके जन्मनिगलका नाश मीमामाकार स्वयं केवलीमे शाश्वत सुख मानते हैं तो हो जानेका कथन किया गया है। दूसरी बात यह है उनमें वेदनीय जन्य एन्द्रिय सुग्व-दुख व सुधा-तृषाकी कि पाँचवें उल्लेखमें अरिष्टनेमिको जिनकुञ्जर और वेदना नहीं है, यह स्पष्ट है। अन्यथा उनके ही कथन
और अजर कहा गया है। साथमें शीलजलधि और में परम्पर विगंध आवेगा जो समन्तभद्र जैसे विभव ये दो विशेषण और दिय हैं। अतएव यहाँ आचार्य नहीं कर सकते हैं।
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अनेकान्त
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म और क्षयका बड़ा
जैन सिद्धान्तम
(३) आप्तमीमांसाकारके अलावा अन्य श्राचार्यो- दोनों हैं । अतः यहाँ परीषहोंका संकेत न होकर ने भी केवलीमें क्षुधा और तृषाकी निवृत्ति मानी है, क्षुधा और पिपासा इन दो दोषोंका अभाव केवल - जैसे पूज्यपाद, भद्रबाहु, पात्रकेमरी, अकलङ्क, विद्या- में प्रतिपादित समझना चाहिये । तीसरी बातके नन्द । इससे प्रकट है कि यह मान्यता प्राचीनतम सम्बन्धमें आप अप्रासंगिक भी कह गये हैं। वहाँ
और मौलिक है। योगदशनके प्रवर्तक पातञ्जलि भी हमें यही बतलाना इष्ट है कि केवलीकी बात तो दूर विशिष्ट अात्मामें (योगी) क्षुधा और तृषाकी निवृत्ति है एक विशिष्ट संयमका अभ्यास करने वाले योगीमें स्वीकार करते हैं-यथा 'कण्ठकूपे क्षुत्पिपासा- भी क्षुधा और पिपासाकी निवृत्ति होजाती है जैसे निवृत्तिः ।' (योगद. ३-३०)।
कायबलऋद्धिधारी योगी मुनिक महीनों, वर्षों तक ___इनमें प्रो. सा.ने पहली और तीसरी बातपर भूग्व-प्यासका प्रभाव हो जाता है । वास्तवमें भूखतो कुछ लिखा है; किन्तु दूसरी बातपर कुछ नहीं प्यासकं अभावमें मोहनीय और वीर्यान्तरायकर्मके लिखा, जो खास थी। क्यों नहीं लिखा, इसे भी क्षयोपशम और क्षयका बड़ा असर पड़ता है और पाठक समझ सकते हैं। वस्तुतः उसका उनके पास जिससे वेदनीय हतप्रभ हो जाता है । जैन सिद्धान्तमें कोई समाधान हो ही नहीं सकता न उसमें कुतोंका ये दोनों दोष मोहनीय या घातिकर्म सहकृत वेदनीयप्रवेश ही सम्भव है । क्योंकि आप्तमीमांसाकारने से उत्पन्न होते माने गये हैं जैसा कि पहले कहा जा केवलीमें स्पष्ट शब्दों द्वारा शाश्वत-सदा कालीन चुका है। अतएव केवलीमें निःसहाय वेदनीय उन सुख स्वीकार किया है तब ऐन्द्रिय सुख-दुग्य, भूख- दोषोंको उत्पन्न करने में असमर्थ है, यह हम बारप्यासकी बाधा उन्हें केवलीमें स्वीकार्य कैसे हो सकती बार कह चुके है। थी ? पहली बातक सम्बन्धमें आपने लिखा है कि यहाँ हम यह भी कह देना चाहते हैं कि मूलाचार "वहाँ ('क्षुधादिदःखप्रतिकारत:' पद्यमें) यथार्थतः और भगवती आराधनाम जो केवलीमें पंडित पंडित क्षुधादि वाइस परीषहोंका संकेत है जिनको सहन और पंडित मरण कहा गया है वह गृहीत शरीरको करना प्रत्येक साधुका धर्म है । और यही भगवानका बिना किसी माह या पीडाके छोड़नकी अपक्षासे है
।" क्यों साहब, यदि इस पद्यम वाइस और इसीलिये उसके साथ पंडित पंडित अथवा परीषहोंके सहनेका संकेत है तो 'इन्द्रियार्थप्रभवाल्प- पंडित विशेषण लगा हुआ है। सामान्य मनुष्य जैमा सौख्यतः' इत्यादि फिर किस लिये कहा गया ? और उसका मोह या दुःख जनक मरण नहीं हैं और न शरीर तथा शरीरी (आत्मा) के लिये उनकी अनुप- पुनर्जन्म वाला मरण है । इस मरणका ही अभाव योगिता क्यों बतलाई गई ? साधु तो भोजन भी केवलीम प्रतिपादित किया गया है । यही मरण माहकरते हैं और पानी भी पीते हैं ? बात यह है कि निमित्तक है और मनुष्योंका रुलाने वाला है । भूख-प्यासकी बाधा होनपर लोग जो उसके प्रतिकार वास्तवमें केवलीके शरीर-त्यागको मरण ही नहीं के लिये भोजनादि ग्रहण करते हैं और इन्द्रिय कहना चाहिये उस तो परिनिवृति कहना चाहिये, विषयोंसे सुख मानते हैं उनकी यहाँ शरीर और क्योंकि अयोगावस्थामें केवलीके नाम और श्रायु शरीरीके लिये अनुपयोगिता बतलाई है जिससे लोग अपनी स्थितिक पूर्ण हो जानेसे स्वयं हट जाते है, उन्हीमें आसक्त न रहें । यदि केवली इन्हें ग्रहण करते उन्हें उमस मोह नहीं रहता, इमीसे शास्त्रकारोंने उनके रहें तो वे उनकी बुराई, निन्दा और हयता कदापि शरीर-त्यागको परिनिवृतिक नामसं उल्लेखित किया है नहीं बतला सकते । हमारे और उनके उपदेशमं यही जो अनेकान्तवादियोंके लिये कोई दोषावह नहीं है। तो अन्तर है कि हमारा तो केवल शुष्क उपदेश है- अब मैं यह प्रकट कर देना चाहता हूँ कि यदि आचरण नहीं और केवलीका ज्ञान और आचरण प्रो. सा. को स्वयम्भूस्तोत्र आदिके उल्लेख मान्य
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रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
नहीं हो और उनपरसे केवलीमें उपर्युक्त दोषोंका हैं वही सिद्ध होती है. क्योंकि छठे गुणस्थानमें सुखअभाव भी अस्वीकार हो तो वे नियुक्तिकार भद्रबाहु- दुग्वकी वेदनाके साथ प्रमाद और कषाय इन दो के प्रतिपादनको तो अवश्य प्रमाण मानेंगे, क्योंकि वे बन्धके कारणोंसे कर्मबन्ध अवश्य होगा।' इसका उन्हें तथा स्वामी ममन्तभद्रको एक म्वीकार करते हमने उत्तर दिया था कि 'पूर्वपक्षी प्रमाद और हैं। और मैं यह द्वितीय लेखमें नियुक्तियोंके विविध कषायको बन्धका कारण नहीं मानना चाहता, वह प्रमाणोल्लेखोंसे बतला आया हूँ कि नियुक्तिकार तो केवल एकान्तत: दुःखोत्पत्ति और सुखोत्पत्तिको भद्रबाहुन केवलीमें जन्म, जरा, मरण, सुधा, पिपासा ही बन्धकारण कहना चाहता है, और उसके इस इन दोषोंका अभाव प्रतिपादित किया है और कथनमें ही उपयुक्त (कारिकागत) दोष दिये गये हैं। असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियांको केवलीमें जब उसने अपने एकान्त पक्षको छोडकर यह कहा अपना अशुभ फल न देनेका कथन किया है। इस कि अभिमन्धि' (प्रमाद और कषाय) भी उसमें सम्बन्धमें प्रो. सा. सर्वथा मौन होगये और इस कारण हैं तब उससे कहा गया कि यह तो (हमारी) लिये 'मौनं सम्मतिलक्षणम' समझना चाहिये । अनेकान्त सिद्धि आगई-श्रापका 'परत्र सुखदुःखोअन्यथा या तो उन्हें समन्तभद्रस्वामी और भद्रबाहु त्पादनं पुण्यपापबन्धहेतुः' इत्यादि एकान्त नहीं रहा। नियक्तिकारको दो व्यक्ति स्वीकार कर लेना इससे यह साफ है कि यहाँ (कारिकाम) छठे आदि चाहिय और वैमी घोपणा कर देनी चाहिये अथवा गुणस्थानवी मुनिकी-(साधु और उपाध्याय दोनोंको एक सिद्ध करना चाहिये और उस हालतमें परमेष्ठीकी) ही विवक्षा है।' अपने इस कथनका उन्हें कंवलीमें उपर्युक्त भद्रबाहु प्रतिपादित जन्मादि हमने आचार्य विद्यानन्दकं अष्टसहस्रीगत विशद दोपोंके अभावको स्वीकार करना अनिवार्य है। व्याख्यानसे सप्रमाण समर्थन भी किया था। श्रतः प्रो. मा.को दोनों तरफसे 'इतो व्याघ्र इतम्तटी' अब प्रस्तुत लेखमें प्रो. सा. लिखते हैं कि 'यहाँ है। अतः इस विवंचनसे केवली में जन्मादि ६ प्रश्न यह है कि आचार्यन पूर्वपक्षीका वह एकान्त पक्ष दापोंके अभावका भी सम्पष्ट निणय होजाता है। छडाया कैसे, और उसे यह कैमे विश्वास कराया कि ५३वीं कारिकामें प्राप्तमीमांसाकारको विवक्षा- बन्धका कारण कंवल सुख-दुख नहीं होता ?' अपन
प्रो. मा.न चंवलीग मुख-दुःखकी वेदना प्रमाणित इम प्रश्न आगे आप एक गीली और सूखा लकड़ीकरने के लिये श्राप्रमीमांमाकी ५२व कारिका प्रस्तुत का उदाहरण देते हुए और लिखते हैं कि 'ठीक इसी की थी और उसमें प्रयुक्त ए वीतराग' तथा 'विद्वान' प्रकार प्राप्तमीमांसाकी उम कारिकामं पूर्वपक्षीकी जो पदोंम प्राप्तमीमांसाकारका यह अभिप्राय प्रकट शङ्का है कि अपने दुखसे पुण्य और सुखस पापका किया था कि वे उसमें कंवलीम मुख-दुःखकी वंदना बन्ध होता है उसके निराकरणकं लिये श्राचाय उस म्वीकार करते है। इसपर हमने बतलाया था कि एक ऐमा व्यक्ति दिखलाते हैं जिसके सुख-दुख तो वहाँ उक्त पदोंक प्राप्रमीमांमाकारका कंवलीका हैं किन्तु फिर भी पुण्य-पापका बन्ध नहीं है। ऐसा अभिप्राय नहीं है, छठं आदि गुणस्थानवी मुनिका व्यक्ति वेदनीयोदयसं युक्त किन्तु अबन्धक जीव हा है, जो कायक्लोशादि दुखको और तत्वज्ञानजन्य हो सकता है। छठ आदि गुणस्थानवर्ती बन्धक मन्तोषलक्षण-यग्यको उत्पन्न करता है । इसपर जीवाक उदाहरण पेश करनेस पूर्वपक्षीकी बातका श्रापन बादको लिखा था कि यदि उक्त कारिाम वण्डन कदापि नहीं हो सकता, बल्कि उससे तो उसकी छठे आदि गुणस्थानवी भुनिका ग्रहण किया जाय शङ्काकी ही पुष्टि होगी, क्योंकि उन माधुओंके सुखतो फिर प्रतिपाद्य विपयकी युक्ति ही बिगड़ जाता है, दुख कषाययुक्त होनस कर्मबन्धक है ही। अतएव और विपरीत होनेसे जो बात प्रसिद्ध करना चाहते पण्डितजीके समाधानसे उनके पक्षका समर्थन नहीं
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अनेकान्त
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होता, बल्कि उससे और भी सुस्पष्ट होजाता है कि बन्ध नहीं है । जैसा कि पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिसे
आप्तमीमांसाकी ९३वीं कारिकामें छठे गुणस्थानवर्ती भी प्रकट है :मुनिका नहीं, किन्तु अबन्धक गुणस्थानवर्ती संयमी- 'ते एते पञ्च बन्धहेतवः समस्ता व्यस्ताश्च भवन्ति । का ग्रहण किया गया है और यदि विद्वान विशेषण तद्यथा-मिथ्यादृष्टेः पञ्चायि समुदिता बन्धहेतवो वहाँ कोई सार्थकता रखता है तो उससे केवलीका ही बोध होता है।'
भवन्ति । सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यमिथ्यादृष्ट्यसंयत
सम्यग्दृष्टीनामविरत्यादयश्चत्वारः । संयतासंयतस्यावि___पाठकगण, अब देखें कि प्रो. सा.का यह बौद्धिक व्यायाम सैद्धान्तिक स्थितिके अनुकूल भी है क्या? रतिविरतिमिश्रा प्रमादकषाययोगाश्च । प्रमत्तसंयतस्य यह प्रकट है कि उल्लिखित कारिकामें 'वीतरागो प्रमादकषाययोगाः । अप्रमत्तादीनां चतुणों योगमुनिविद्वान' शब्दोंसे प्रो. मा.को छठे आदि गुण- कषायौ । उपशान्तकषाय-क्षीणकषाय-सयोगकेवलिस्थानवर्ती मुनिका ग्रहण इसलिये इष्ट नहीं है कि उनके नामेक एक एव योगः । अयोगकेवलिनो न प्रमाद और कषाय इन दो बन्धके कारणोंका सद्भाव होनसे वे कर्मबन्धक ही हैं और चंकि कारिकामें बन्धहेतुः ।"-सो. पृ. २५१ । प्रबन्धक व्यक्तिको दिवाना है, जो सम्ख-दखकी तात्पर्य यह हुआ कि सयोगकेवलीके योगका वंदनासे युक्त भी हो, इसलिये वहाँ विद्वान विशेषणकं मद्भाव होनेसे वे भी उसी प्रकार बन्धक है जिस सामर्थ्यसे अबन्धक-केवलीका वे बोध करते हैं। यह प्रकार छठे आदि गुणस्थानवर्ती मुनिके प्रमाद और ध्यान रहे कि केवलीसे सयोगकेवली जिनका ग्रहण ही
कषायके मद्भावसे वे बन्धक हैं और इसलिये प्रो. उन्हें इष्ट है, अयोगकवली जिनका नहीं, क्योंकि भख सा.ने जो बड़े बौद्धिक व्यायामसे उक्त कारिकामं प्यास आदिकी वेदना और कवलाहार उन्हींके 'वीतरागो मुनिविद्वान' शब्दांसे केवली अर्थ फलिन बतलाना उन्हें अभीष्ट है। अब पाठक सैद्धान्तिक करनेके लिय मयोगी जिन केवलीको प्रबन्धक स्थितिपर गौर करें । सिद्धान्तमें कर्मबन्धके पाँच बतलाया है वह एकदम सैद्धान्तिक स्थितिके प्रतिकृत कारण बतलाये गये हैं-१ मिध्यादर्शन, २ अविरति, है । कार्मिक ग्रन्थीम स्पयतया बतलाया गया है कि ३ प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग । जैसा कि 'तत्त्वार्थ- सयांग केवलीके भी योगके मद्भावसे सातावेदनीयका सूत्र'के निम्न सूत्रसे स्पष्ट है :
बन्ध होता है और इसलिये उन्हें अबन्धक कैसे कहा
जासकता है ? वास्तवमें बात यह है कि पूर्वपक्षीकी "मिध्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहंतवः"
उल्लिखित एकान्त-मान्यता अपनमें केवल दुख उत्पन्न मिध्याष्टिक पाँचोंसे बन्ध होता है । मासादनसे करनेसे पुण्य-बन्ध और केवल सुख उत्पन्न करनेसे लेकर चौथे गुणस्थान तकके जीवोंके मिथ्यादर्शनको पापबन्धका कथन संगत है या असंगत, यह दिखाना छोड़कर शेष चारसे बन्ध होता है । पाँचवें मंयता- ही आप्रमीमांसाकारको अभिप्रेत है । अतः उममें संयत गुणस्थानवालेके मिली हुई अविरति तथा उन्होंने दूषणोद्भावन करके अनेकान्त मान्यताको विरति और प्रमाद, कषाय एवं योग इनसंबन्ध होता प्रश्रय दिया है, अब उसे एकान्ती माने या न माने है। प्रमत्तसंयतके प्रमाद, कषाय और योग इन तीन- उसके अधीन है। प्रकाशका काम अन्धकारमें वस्तुसे बन्ध होता है। अप्रमत्त आदि सूक्ष्मसाम्प्राय को दिखा देना है। देखने वाला उसे ग्रहण करे या तकके जीवोंके कषाय और योगसे बन्ध होता है। १ "उवसंत-खीणमोहे जोगिम्हि य समयहिदी सादं ।। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय ओर सयोगकेवलीके णायब्वो पयडीणं बंधस्संतो श्रणतो य॥" केवल एक योगसे बन्ध होता है। प्रयोगकेवलीके
-गो. क. गाथा १०२
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करे यह उसके अधीन है-उसका काम है । श्रतएव यदि वह ही नहीं है तो अपने एकान्त पक्षको छोड़कर अनेकान्त पक्षको मान लेगा और यदि यही है तो समझकर भी कुतर्क करता रहेगा । सिर्फ जानना यह है कि मात्र दुःखोत्पत्ति और सुखोत्पत्तिसे पुण्य पाप बन्ध होता है क्या ? एक निर्मम तपस्वी साधु घोर तपस्या द्वारा शरीरमें कष्ट और दुःख पहुँचाता हैं, पर यदि उसका यह कष्ट अथवा दुःख तद्विषयक संक्लेश (कपाय) युक्त नहीं है तो उससे उसके बन्ध कदापि नहीं होगा - अन्य कारणोंस भले ही होता रहे। और यदि वह संक्लेश युक्त है तो नियमसं कर्मबन्ध होगा । इसका मतलब यह हुआ कि बिना संक्लेश परिणामके केवल दुःखत्पत्ति कर्मबन्धका कारण नहीं है किन्तु संक्लेश रूप कपायमिश्रित दुःखोत्पत्ति कर्मबन्धका कारण है । वास्तव में यदि ऐसा न हो तो अन्तःकृत केवली हो ही नहीं सकते ।
रत्नकरण्ड और प्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है।
यथार्थतः यहाँ उस सांस्कृतिक समस्याको हल किया गया है जो बौद्ध साधुओं की ओरसे जैन साधुओं के ऊपर आक्षेपके रूपमें उपस्थित की जाती थी। जैन साधु केशोत्पाटन आदि कठोर तपों द्वारा शरीरको कष्ट पहुँचाते थे, इसपर बौद्ध साधु जैन साधुओंपर यह आक्षेप करते थे कि जैन लोग केात्पाटन आदिको पुण्यबन्धका कारण मानते हैं और अपने शरीरको आराम पहुँचानमें पापबन्ध मानते हैं । उनको कहा गया है कि केवल दुःखसे पुण्य और सुखसं पापका बन्ध नहीं होता, अन्यथा बीतराग एवं विद्वान मुनि भी पुण्य-पापसे युक्त मान जायेंगे, पर ऐसा नहीं है। जैनसिद्धान्तमें मक्लेशादि युक्त दुख-सुख को ही पुण्य-पापबन्धका कारण स्वीकार किया गया है और इसलिये कंशोत्पाटनादिमं वे क्लेशादिका अनुभव नहीं करते हैं। जैसा कि स्वयं आप्तमीमांसाकारकी निम्न ९५वीं कारिकासं स्पष्ट है ।
विशुद्धि-संक्लेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सुखासुखम् । पुण्य-पापास्त युक्तो न चेद्व्यर्थस्तवार्हतः ॥
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आप्तमीमांसाकारके अनुसर्ता आचार्य पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिगत महत्वपूर्ण प्रतिपादनसे भी हमारे उक्त कथनका समर्थन होजाता है, जो उन्होंने श्रसद्वेद्यकर्मास्रव वर्णनके प्रसङ्गमें किया है और जो निम्न प्रकार है:
" अत्र चोयते - यदि दुःखादीन्यात्म - परोभय-स्थान्यसद्वे द्यास्रवनिमित्तानि, किमर्थमाह्तैः केशलुश्चनानशनातपस्थानादीनि दुःखनिमित्तान्यास्थीयन्ते परेषु च प्रतिपाद्यन्ते इति; नैव दोषः : अन्तरङ्गक्रोधाद्यावेशपूर्वकारिण दुःखादीन्यमद्वेद्यास्रवनिमित्तानि इति विशिष्यांक्तत्वात् । यथा कस्यचिद्भिषजः परमकरुणाशयस्य निःशल्यस्य संयतस्योपरि गराडं पाटयतो दुःख हेतुत्वे सत्यपि न पापबन्धी बाह्यनिमित्तमात्रादेव भवति । एवं संसारविषयमहादुःखादुद्विग्नस्य भिक्षस्तन्निवृत्युपायं प्रति समाहितमनस्कस्य शास्त्रविहिते कर्मणि प्रवर्त्तमानस्य संक्लेशपरिणामाभावान दुख:निमित्तत्वं सत्यपि न पापबन्धः । उक्तञ्च न दुःखं न सुखं यद्वद्धं तु पृश्चिकित्सितं ।
चिकित्सायां तु युक्तस्य स्यात् दुःखमथवा सुखम् ॥ न दुःखं न सुखं तद्वद्ध तुमक्षस्य साधने । मोक्षोपाये तु युक्तम्य स्यात् दुःखमथवा सुखम् ||२||” अतः आप्तमीमांसाकारको आप्तमीमांसा की उक्त कारिकामं केवल दुख-सुखसं पुण्य-पापका बन्ध नहीं होता, यह दिखाना है और उसे दिखाकर पूर्वपक्षीक एकान्त पक्षको छुड़ाना है तथा छुड़ाया भी गया है। जिस आपत्ति ( बन्धकत्व ) के कारण प्रा. सा. 'वीतरागां मुनिविद्वान' से हटे श्रादि गुणस्थानवत मुनिका ग्रहण नहीं कर रहे उसके ग्रहण करने में हिचकिचा रहे है वही आपत्ति (बन्धकत्व) उसका केवली अर्थ करने में भी मौजूद है। इसलिये पहले जो हम कह आये हैं कि पूर्वपक्षी प्रमाद और कषाय ( अथवा योग ) को बन्धका कारण मानकर केवल एकान्ततः दुःखात्पत्ति और सुखोत्पत्तिको ही कर्मबन्धका कारण कहना चाहता है और उसके इस कथनमें ही उक्त दोष दिये गये हैं, वही युक्त हैउसमें कोई भी बाधा नहीं है। अतः कारिकागत 'वीतरागां मुनिविद्वान' पदोंसे छठे गुणस्थानवर्ती
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अनेकान्त
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मुनि (साधु और उपाध्याय परमेष्ठी) का ही ग्रहण तीसरी यह कि यदि सैद्धान्तिक भूल है तो उसके करना प्राप्तमीमांसाकारको इष्ट है । जैसा कि बतलानेपर वह क्या हीन प्रवृत्ति है ? विद्यानन्दके अष्टसहस्रीगत व्याख्यानसे स्पष्ट है। (१) प्रथम बातके सम्बन्धमें मेरा कहना है कि अज्ञान स्वयं मल है. मलजनक नहीं- जब आप यह कहते हैं कि 'मैंने तो उससे मलोत्पत्ति
हमने प्रो. सा. की एक सैद्धान्तिक भूल उन्हींके की बात कही है ।' तब स्पष्ट है कि आप अज्ञानको वाक्योंको उद्धृत करके बतलाई थी। उनके वे वाक्य मलोत्पत्तिका जनक या बन्धका कारण कह रहे हैं। निम्न प्रकार हैं
कोई यह कहे कि अनिसे धूमोत्पत्ति होती है और 'ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानोंमें भी वीत- फिर वह कहने लगे कि हमने श्रमिको धूमका कारण रागता होते हुए भी अज्ञानकं सद्भावसे कुछ कहाँ कहा ? तो क्या उसे विक्षिप्त नहीं कहा जायगा? मलोत्पत्तिकी आशङ्का होसकती है।' इसपर हमने स्पष्ट है कि उसका वह कथन अयुक्त और विरुद्ध लिखा था कि 'परन्तु सिद्धान्तमें बिना मोहके अज्ञान- समझा जायगा । यही हमारे प्रो. सा. यहाँ को बन्धका कारण या मलोत्पत्तिका जनक नहीं कर रहे हैं । अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी बात कहना और माना है। इसके साथ ही स्वयं प्राप्तमीमांसाकार तथा प्रज्ञानको मलोत्पत्ति जनक बतलाना एक ही बात अष्टसहस्रीकारके कथनोंसे उसका सप्रमाण समर्थन है। न्यायका साधारण अभिज्ञ भी यह जानता और किया था । अब प्रो. सा. लिखते हैं कि 'इस मानता है कि पंचम्यन्त प्रयोग हेतुपरक होता है। सिलसिलेमें पण्डितजीन मेरे सिर एक सैद्धान्तिक प्रकृतमें जब अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी बात कही जाती भूल जबदस्ती मढ़ दी है कि मैंने अज्ञानको भी है तो स्पष्टतः पंचम्यन्त प्रयोग है। और यह बन्धका कारण बतलाया है और फिर आपने उसपर है कि मलोत्पत्ति जनक और बन्धका कारण दोनों एक लम्बा व्याख्यान भी झाड़ा है ।' आगे अपने एक हैं उनमें जरा भी भेद नहीं है। प्रो. सा. जब लेखका पूरा उद्धरण उपस्थित करके पाठकोंम इसे अज्ञानसे अपनी मलोत्पत्तिकी बातको ठीक बतलानेके देखनेकी प्रेरणा करते हुए लिग्ना है कि 'कृपया लिये यह कहते हैं कि क्योंकि स्वयं प्राप्तमीमांसाकारपाठक देखें कि मैंने यहाँ कहाँ अज्ञानको बन्धका ने उसे दोप कहा है और उस मलकी उपमा दी है कारण कहा है ? मैंने तो उससे मलोत्पत्तिकी बात आदि' तो हमें उस व्यक्तिको याद आजाती है जो कही है और वह ठीक भी है क्योंकि आप्तमीमांसा- कहता है कि पानीस पय होता है क्योंकि सभीने कारने उसे दोष कहा है और उसे मलकी उपमा दी पानीको पेय कहा है। विवाद पानीको पंय होनमें है और अकलङ्क तथा विद्यानन्द जैसे टीकाकारोंने नहीं है विवाद है पानीस पय होनेमें । अतएव उसके भी उसे आत्माका मल ही कहा है।' इसके आगे वैसे कथनको सुनकर किसे हंसी नहीं आवेगी। ठीक आपने इन आचार्यों तथा धवलाकारके कुछ अज्ञान- उस व्यक्ति जैसा कथन हमारे प्रो. सा. का है, क्यों को मल कहनेवाले वाक्योंको दिया है। साथ ही कि प्रश्न तो यह है, क्या आपने अज्ञानसे मलोत्पत्ति मुझसे अपनी भूल जाननेकी इच्छा प्रकट करते हुए कही है ? यह प्रश्न नहीं है कि अज्ञान स्वयं मल है लिखा है कि 'ऐसी हीन प्रवृत्ति एक न्यायाचार्यके क्या ? क्योंकि उसे मल होनेमें विवाद ही नहीं है योग्य नहीं ।
और इसलिये उसे मल सिद्ध करनेके लिये जो ___ यहाँ निम्न तीन बातें विचारणीय हैं। प्रथम तो आप्तमीमांसाकार आदिके वाक्योंको उपस्थित किया यह कि प्रो. सा. ने रक्त वक्तव्यमें क्या अज्ञानसे गया है वह सर्वथा निरर्थक है । आपको तो अज्ञानसे मलोत्पत्ति नहीं कही ? दूसरी यह कि यदि अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी अपनी बातको साबित करने वाले मलोत्पत्ति कही है तो सैद्धान्तिक भूल क्यों नहीं हुई ? प्रमाण उपस्थित करना चाहिये था पर उन्हें उपस्थित
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किरण ८-९]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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न कर इधर-उधर दौड़ना बुद्धिमानी नहीं है। कहना है कि 'वीतराग और विद्वान् गुण परस्पर बुद्धिमानी तो इसमें है कि जो अज्ञानसे मलोत्पत्तिकी विरोधी भी नहीं हैं जो एक ही व्यक्तिमें न पाये बात कही गई है वह भूल से कही गई है, इस प्रकार जाते हों। इस कारिकामें क्रिया भी एक वचन है। से अपनी भूलको स्वीकार कर ली जाय न कि एक तब फिर यहाँ वीतराग और विद्वान दोनोंके विशेष्य भूलकी पुष्टिके लिये नई और अनेकों भूलें की जायें। दो अलग-अलग मुनि माननेकी क्या सार्थकता है इससे यह पाठकोंपर बिल्कुल स्पष्ट होजाता है कि और उसके लिये कारिकामें क्या आधार है ?' प्रो. मा. ने अज्ञानसे मलोत्पत्ति स्पष्टतः कही है। इसपर हमारा निवेदन है कि यद्यपि वीतरागता
(२) जब अज्ञानसे मलोत्पत्ति कही है तो उससे और विद्वत्ता ये दो गुण परस्पर विरोधी नहीं हैं, पर प्रकट है कि उन्होंने सैद्धान्तिक भूल की है क्योंकि यदि वक्ताकी उन दो गुणोंसे दो व्यक्तियोंका बोध सिद्धान्तमें बिना मोहके अज्ञानको मलोत्पत्तिका करानेकी विवक्षा हो तो उसे कौन रोक सकता है ? जनक नहीं माना है और इमलिये यह भूल मैंने आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन परमेष्ठियोंमें उनके सिर जबर्दस्ती नहीं मढ़ी-उन्होंने उसे की भी तो कोई मौलिक भेद नहीं है। साधुके अट्राईस इसलिये वह उनके सिर मढी गई।
मलगण क्या उपाध्याय और प्राचार्य नहीं पालते ? (३) और जब उनकी यह सैद्धान्तिक भूल है; तो अथवा उपाध्यायके स्वाध्यायका काम आचाय और उसके बतलाने में मेरी हीन प्रवृति कैसे हुई ? यह साधु नहीं करते ? या प्राचार्यकं पंचाचारादिका ममझमें नहीं आया । लोकमें जो अपराध करता है पालन उपाध्याय और साध नहीं करते ? याद करते उसे ही लोग हीन प्रवृत्तिका कहते हैं पर जो सदा- हैं तो ये जुद-जुद तीन परमेष्ठी फिर क्यों कह गये ? शयतासे उसके अपराधको उसे इसलिये बतलाता है अरहन्त और सिद्ध इन दोक सिवाय एक साधु कि वह अपनी भूलको कबूल करके आगे अप्रमत्त परमेष्ठाका ही सिद्धान्तमें बतलाना उचित था और रहे तो मेरे खयालमें कोई भी उसे हीन प्रवृत्तिका इस तरह पांच परमेष्ठी न कह जाकर तीन ही नहीं कहता। महापुरुषांका लक्षण ही यह है कि वे परमेष्ठो कह जाना उपयुक्त था, लेकिन ऐसा नहीं है। प्रायः भूल नहीं करते और यदि कदाचित् होजाये तो वास्तवमें बात यह है कि ये तीन परमेष्ठा अपनी मालूम पड़ने पर उसे तुरन्त स्वीकार करके प्रायश्चित्त अपनी मुख्य विशेषताओंसे प्रतिपादिन हैं। प्राचार्यले लेते हैं। हम भी अपने अग्रज रनवृत्ति महापुरुषांस का काम अपने सङ्घको उचित मार्गपर चलाना, यही आशा करते हैं और उन्हें अपना आदर्श नवाका दीक्षा देना आदि है । उपाध्यायका कार्य मानते हैं।
स्वयं पढ़ना और सङ्घके साधुओंको पढ़ाना है और कारिकाके वीतराग ओर विद्वान पद
माधुका काय आचाय द्वारा विहिन मागपर चलना हमने यह कहा था कि 'कारिकामें जो वीतरागी- और उपाध्याय द्वारा दी गई शिक्षाको प्राप्त करना मनिविद्वान' शब्द का प्रयोग है वह एक पद नहीं है है। अर्थात 'साधा: कार्य तप:श्रत:'.-साधका कार्य
और न एक व्यक्ति उसका वाच्य है किन्तु ५२वीं तप और श्रुत है और इन्ही विशेषतास ये तीन कारिकामें आये हुए 'अचंतनाकषायों की तरह इसका परमेष्ठियोंक पद रक्खे गये है। इसी तरह प्रकृतम प्रयोग है और उसके द्वारा 'वीतरागमुनि' तथा विद्वान- प्राप्तमीमांसाकारको उन दो मुनियोंका ग्रहण बतलाना मुनि' इन दोका बोध कराया गया है। प्राचार्य हे जिनमें एक नो तपकी मुख्यतासे तपस्वी एवं विद्यानन्दने तो वीतरागी विद्वांश्च मुनिः' कहकर वीतरागी है--अनशनादि और कायक्लंशादि तपोंको
और 'च' शब्दका साथमें प्रयोग करके इस बातको करते हुए भी उस राग-द्वेप या महंश नहीं होता बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है।' इसपर प्रो. सा. का और दूसग तत्त्वज्ञानकी मुख्यतासे विद्वान है--
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अनकान्त
[ वर्ष
तत्त्वज्ञानजन्य संतोष सुखको प्राप्त करता हुआ भी यह कौन नहीं जानता कि टीकाकार मूलके व्याख्यान उत्सेकादिभाव रहित है । इन्हीं दो पृथक् में ऊपरसे अपनी तरफसे कितने ही 'भवति, वर्तते, विशेषताओंसे यहाँ वीतरागमुनि और विद्वान्मुनि अपि, च, एव' आदि शब्दोंको जोड़ते हैं और जो अर्थात साधु परमेष्ठी और उपाध्याय परमेष्ठी ये दो मूलकी विवक्षाको खोलते हैं ? मुनिविशेष विवक्षित हुए हैं।
____ अब आपका एक तर्क और रह जाता है वह यह ___ अब प्रश्न सिर्फ यह रह जाता है कि कारिकामें कि कारिकामे एक वचनकी क्रिया है, इसलिये 'वीतरागो मुनिर्विद्वान' यह सविभक्तिक असमस्त उसका एक मुनि व्यक्ति ही कर्ता है, दो नहीं ? प्रयोग हुआ है। यदि एक ही मुनि व्यक्तिकी यहाँ क्यों साहब, एक वचनका क्रिया सविभक्तिक अनेक विवक्षा होती तो 'वीतरागविद्वान्मुनि' जैसा अवि- कर्ताओंके लिये नहीं आसकती ? और उसका भक्तिक समस्त प्रयोग किया जाता । साथम टीकाकार प्रत्यक कर्ताक साथ सम्बन्ध नहीं होसकता ? यदि श्राचार्य विद्यानन्द 'वीतरागो विद्वांश्च मुनिः' ऐसा आसकती और होसकता है तो प्रकृतने क्या अपराध प्रयोग कदापि न करते और न साथमें 'च' शब्द किया ? 'देवदत्तः, जिनदत्तः, गुरुदत्तः भोज्यताम्' देते । विद्यानन्दने भी कारिकामें जब सविभक्तिक अथवा 'चैत्रः मैत्रश्च स्वकार्य कुर्यात्' इत्यादि वाक्योंअसमम्त प्रयोग देखा और ग्रन्थकारकी उसपर यह को किसने पढ़ा और सुना नहीं है ? विवक्षा मालूम की कि वहाँ दो मुनि व्यक्ति ही उन्हें
इमसे साफ है कि एकवचनकी क्रिया सविविवक्षित हैं-एक वीतरागमनि और दसरा विद्वान
भक्तिक अनेक कर्ताओंके लिये भी पाती है। दूसरे, मुनि-तो उन्होंने वैसा व्याख्यान किया तथा
यदि उक्त पदस कवल एक केवलो व्यक्ति ही भ्रान्ति-वारणकं लिये 'च' शब्द भी लगा दिया।
ग्रन्थकारको विवक्षित हाता तो उसी केवली पदके __अतएव मैंने लिखा था कि 'जान पड़ता है
रखनेमें उन्हें क्या बाधा थी? केवली अर्थक बोधक प्रो. सा. का कुछ भ्रान्ति हुई है और उनकी दृष्टि गीत वीतरागा निविद्वान' पदकी अपेक्षा 'च' शब्दपर नहीं गई है। इसीसे उन्हान बहुत बड़ा कवली' पद तो लघु ही था। अतः इन सब बातों गलता खाई है और वे 'वीतरागविद्वान् मुनि' जैसा तथा उपरोक्त विवेचनस यह स्पष्ट है कि कारिकाम एक ही पद मानकर उसका केवली अर्थ करनेमें
म 'वीतरागा मुनिविद्वान्' शब्दोंमे अलग अलग प्रवृत्त हुए है ?' इसपर प्रा. सा. मुझस पूछत हुए माध और उपाध्याय मुनिरूप दा व्यक्ति ही कहते हैं कि मैं पण्डितजीस पछता हूँ कि 'च' शब्द
__ विक्षित हैं। पर मेरी ही दृष्टि नहीं गई या स्वयं प्राप्तमीमांसाकारकी भी नहीं गई, क्योंकि उनकी कारिकामें भी 'च' कहीं दिखाई नहीं देता।' प्रा. सा. के इस हतुरूप कथन- मम्मत नहीं हैं:को पढ़कर विद्वानोंको हैमी आये बिना न रहेगी। क्योंकि आप्तमीमांसाकी इस कारिकाको जिसने पढ़ा केवलीमं सुख-दुखकी वेदनाएं माननेपर मैंने अथवा पढ़ाया है वह जानता है कि आप्तमीमांसा निम्न आपत्ति दी थी और लिखा था कि 'केवलीक पद्यात्मक और सूत्रात्मक रचना है उसमें जितने सख-दुखकी वेदना माननेपर उनके अनन्त सुख शब्दोंको देनेकी गुञ्जाइश थी उतने शब्द द दिये हैं। नहीं बन सकता, जिस स्वयं प्राप्तमीमांसाकारने भी दूसरे, उन्होंने 'वीतरागो मुनिः विद्वान्' ऐसा 'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' शब्दों द्वारा स्वीकार किया विभक्ति प्रयोग ही कर दिया है और इस लिये है; क्योंकि सजातीय-व्याप्यवृत्ति दो गुण एक जगह मूलकारको 'च' शब्द देनेकी आवश्यकता नहीं थी। नहीं रह सकते।'
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रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है.
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प्रो. सा. ने मेरी इस आपत्तिको 'आशङ्का'' अतएव यह कहा भी गया है कि 'नावश्य कारणानि कहकर उसमेंसे पहली पंक्तिको ही उद्धृत किया है कार्यवन्ति भवन्ति ।' यही बात वेदनीयोदयमें है कि और उसका कुछ उत्तर दिया है। पर मेरे उक्त वह मोहसंयुक्त होकर सुख दुख पैदा करता है बिना
किया है और न उसका मोहके सुख-दुख पैदा नहीं करता, यह सभी जैनउत्तर ही दिया है। क्यों उत्तर नहीं दिया है, इसे शास्त्र और जैन विद्वान कहते चले आरहे हैं। पर विज्ञ पाठक समझ जावेंगे, क्योंकि उक्त हेतुका उनके प्रो. मा. उसपर गम्भीरतासे विचार नहीं कर रहे, पास कोई खण्डन ही नहीं है और इसीलिये वे मेरे यही आश्चर्य है । वेदनीय कर्म अघातिया क्यों है ? द्वारा उसका समाधान करनेकी बार-बार प्रेरणा इस बातको शास्त्रकारांने स्पष्टतया कहा है कि वह करन पर भी उस छोड़ते आ रह है। वास्तवम सुख जीवके गुणांका घातक नहीं है सुख-दुखकी वेदना व्याप्यवृत्ति है-प्रादशिक नहीं है, इसलिये केवली वह मोहनीयकी सहायता करता है इसलिये वह में जब.शाश्वत 'अकर्मज अतीन्द्रिय' सुख हो चुका अघातिया तथा घातियांके मध्यमें उक्त है। है तो फिर उसके साथ साना-साताजन्य सुख-दुःख आगे चलकर प्रो. सा. ने अरहन्तों और कदापि नहीं हो सकते, यह एक निीत तथ्य है सिद्धाम मंद दिखलाने और अरहन्त कवलीमें सुख जिसे प्रो. मा. नहीं मान रहे और उसकी उपेक्षा और दखकी वंदना सिद्ध करने के लिय धवलाकारके करते जा रहे हैं।
एक अधुरं उद्धरणको अपने अर्थकं साथ उपस्थित ___अब पाठक, उनके उत्तरका भी देख, जो किया है और अन्तमें लिखा है कि 'वीरसेन म्वामीक उन्होंने मेरी पहली साध्यरूप पंक्तिका दिया है। इन प्रश्नानगंम सूर्यप्रकाशवन सुम्पष्ट हो जाता है। श्राप लिखते हैं कि 'यदि ऐसा होता तो फिर क- कि असन्तावस्था में भी वंदनीय कर्म अपने सिद्धान्तमें केवलीक साता और असाता वेदनीय उदयानुसार सबमें बाधा करता ही है जिससे कर्मका उदय माना ही क्यों जाता ? और यदि सुख- अरहन्त कंवली भगवानका मुख सिद्धांक समान दुखकी वेदनामात्रस किसी जीवके गुणका घात अव्याबाध नहीं है।' होता तो वेदनीय कर्म अघातिया क्यों माना जाता?'
वीरसन स्वामीन क्या प्रश्नोत्तर दिय है उन्हें क्यों सा., यदि अग्निसे कभी धूम उत्पन्न नहीं होता
पाठक, उनके पूरे उद्धरण द्वारा नाच देख :--- और कोई अग्निसे मदेव धूम माननेपर यह आपत्ति कहे कि यदि अग्निस मदेव धमात्पत्ति मानी "सिद्धानामहतां च का भेद इति चन्न, नष्टाष्टजायगी तो अग्निसे कादाचित्क धूमोत्पत्ति नहीं हो कर्मागण: सिद्धाः नष्टघातिकर्मागोऽहन्तः इति तयोसकंगी तो क्या उसका परिहार यह किया जायगा मैदः । नष्टपु घातिकस्याविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न कि यदि ऐसा न होता तो अग्निको धूमका कारण माना ही क्यों जाता ? नहीं, क्योंकि यद्यपि अग्नि गुगणकृतस्तयाभेद इति चन्न, अघातिकर्मोदय-सत्त्वोपलधूमका कारण है पर आधिनसंयुक्त होकर ही वह म्भात् । तानि शुक्लध्यानामिनार्धदग्धत्वात्सन्त्यपि न धूमको उत्पन्न करती है । दूसर, कारणके लिये यह स्वकार्यकर्तृगीति चन्न, पिराडनिपातान्यथानुपपत्तितः श्रावश्यक ही नहीं है कि वह कायोत्पत्ति नियमसे कर आयप्यादिशेषकर्मादय . सत्त्वास्तित्वसिद्धेः । ही-कर, न करें । हाँ कार्य कारणपूर्वक ही होता है।
तत्कार्यम्य चतुरगीतिलक्षयान्यान्मकम्य जाति-जरा१ अापत्ति पार पाशङ्काको एक कहना ठीक नहीं है क्योंकि
मरगो - पलक्षितस्य संसारम्यास यातषामात्मगुगणधातनश्रान्ति दोषापादनको और आशङ्का प्रश्नको कहते हैं, जा दोनों अलग अलग है ।
सामर्थ्याभावाच्च न तयागाकृतमंद इति चेन्न,
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अनेकान्त
[वर्ष ८
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पायुप्य -वेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमन - सुखप्रतिबन्ध- कार्य है वह नहीं होता तथा उनमें आत्माके गुणोंको कयोः सत्वात् ।
घातनेका सामर्थ्य नहीं है । अतः अरहन्तों और नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाश
सिद्धोंमें गुणकृत भेद नहीं है ?
___उत्तर-नहीं, क्योंकि आयु और वेदनीयका प्रसङ्गात् । सुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयो- उदय, जो क्रमशः जीवके उद्धर्वगमन और सुखका दयो दुःखजनकः केवालनि केवलित्वान्यथानुपत्ते- प्रतिबन्धक है, अरहन्तोंके विद्यमान है। रिति चेदस्त्येवमेव, न्यायप्राप्तत्वात । किन्त सलेप- प्रश्न-उद्ध्वगमन आत्माका गुण नहीं है;
क्योंकि उसके अभावसे आत्माके विनाशका प्रसङ्ग निलेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् ।" आवेगा। इसी प्रकार सुख भी आत्माका गुण नहीं
___-धवला, पहली पु० पृ० ४६-४७। है: क्योंकि कारण वही है अर्थात् सुखके अभावमें इस उद्धरणमेस प्रो. सा. ने अपने लेखमें ' ..... आत्माके विनाशका प्रसङ्ग श्रावेगा। तथा वेदनीयका सुखप्रतिबन्धकयोः सत्वात' तकका ही अधूरा हिस्सा उदय केवलीमें दुःखकी वेदना नहीं करता, अन्यथा दिया है-उससे आगेका 'नार्वगमन' आदि शेष वे केवली नहीं बन सकेंगे-उनमें केवलीपना नहीं भाग नहीं दिया, जो ही वीरमनस्वामीके हादको हो सकेगा ? प्रकट करता है और सैद्धान्तिक स्थितिको प्रस्तुत उत्तर-ऐसा ही हो, क्योंकि वह न्यायप्राप्त हैकरता है; क्योंकि वास्तवमं सिद्धान्त पक्ष पूरे प्रश्नो- युक्ति-सङ्गत है । अर्थात न ऊर्ध्वगमन तथा सुख त्तरोंके अन्तमें ही स्थित होता है । इस पूरे उद्धरणका आन्मगुण है और न वेदनीयका उदय केवलीमें दुखकी हिन्दी अर्थ नीचं दिया जाता है:
वेदना करता है क्योंकि वह न्यायसङ्गत है और इस प्रश्न-अरहन्तों और सिद्धांमें क्या भेद है ? लिय अरहन्तों तथा सिद्धोंमें गुणकृत भेद नहीं है
उत्तर--जिनके आठों कर्म नष्ट होचुके है व ती गुणोंकी अपेक्षास दोनोंमें समानता है । किन्तु सिद्ध हैं और जिनकं चार घातियाकर्म ही नाश हुए मलेपता और निर्लेपना तथा देशभंदसे उनमें भेद हैहै-शेष अघातिया चार कम मौजूद है वे अरहन्त अरहन्त सलेप हैं और सिद्ध निर्लेप तथा अरहन्त है, यही उनमें भंद है।
भवस्थ हैं और सिद्ध मुक्तिस्थ, इस प्रकार उनमें ___ प्रश्न-घातियाकर्मोंके नाश होजानसं अरहन्तोंक भेद सिद्ध है । समस्त गुण प्रकट होचुके हैं और इसलिये उनमें
अब विद्वान पाठक, यहाँ देखें, वीरसेनस्वामीने गुणकृत भेद नहीं है ?
कहाँ 'सूर्यप्रकाशवत सुस्पष्ट' अरहन्तावस्थामें सुखउत्तर--नहीं, अरहन्ताक अघातिया कर्मोंका उदय दुखकी वेदना बतलाई है ? प्रत्युत उन्होंने तो उसका और मत्व मौजूद है।
निराकरण ही किया है । हमें आश्चर्य है कि वीरसेनप्रश्न- अघातियाकर्म शुक्लध्यानरूपी अनिस स्वामीकी धवला और जयधवला टीका और यहाँ अधजले होजानसे मौजूद रहनपर भी अपने कार्यको तक कि समम्त दिगम्बर जैन शास्त्र भी उनके पक्षके नहीं करते हैं ?
जरा भी समर्थक नहीं हैं फिर भी प्रो. सा. उनके ___उत्तर-नहीं, क्योंकि शरीरका निपात नहीं वाक्योंको उद्धृत करनेका मोह त्याग नहीं कर रहे हैं। होता, इसलिये श्रायु आदि शंष कोका उदय और हम प्रो. सा. से नम्र प्रार्थना करेंगे कि वे कमसे कम सत्व दोनोंका अस्तित्व सिद्ध है।।
विद्वान् पाठकोंको तो चकमा न दें और उनकी प्रश्न-आयु आदि कर्मोंका, जो चौरासी लाख आँखाम धूल झोंकनेका हाम्यास्पद असफल प्रयत्न योनिरूप और जन्म, जरा, मरण विशिष्ट संसार न करें। वीरसेनस्वामी जब यह स्पष्टतया स्वीकार कर
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किरण ८-९]
जैन स्थापत्यकी कुछ अद्वितीय विशेषताएँ
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रहे हैं कि 'यह प्रमाणयुक्त है कि ऊर्ध्वगमन तथा होकर सलेप-निर्लेप और देशभेदकृतभेद हैं ।' तब सुख आत्माके गुण नहीं है क्योकि उनके प्रभावमै उनका पाठकों के सामने विपरीत श्राशय रखना क्या (जिस समय आत्मामें ऊर्ध्वगमन नहीं है अथवा न्याययुक्त है ? इससे यह प्रकट है कि सिद्धान्तमें सुख नहीं है उस समयमें) आत्माके अभावका प्रसङ्ग केवलीमें सुख-दुखकी वेदना कहीं भी नहीं मानी गई
आवेगा । तथा वेदनीय केवलीमें दुखकी वेदना और न वीरसेनस्वामीने ही बतलाई है। नहीं करता है; क्योंकि दुःखकी वेदना माननेपर उनमें केवलीपना नहीं बन सकेगा। और वीरसेवामन्दिर, सरसावा इसलिये अरहन्तों तथा सिद्धोंमें गणकृत भेद न
-(अगले अङ्कम समाप्त) २२-२-१९४७
जैन स्थापत्यकी कुछ अद्वितीय विशेषताएँ
नई दिल्ली का जैन मन्दिर
बहधा उपयोग किया है। शताब्दियों तक बिना ___ इस मन्दिरमें स्थापत्यकला सम्बन्धी कतिपय विशष परिवतनके यह प्रयुक्त होता रहा, किन्तु अप्रतिम विशेषताएँ लक्षित होती हैं। फर्गसन साहब कम से कम, बून्दीकी विशाल बावड़ी जैसे उदाहरण ने इसका निम्न प्रकार वर्णन किया है :
में हम इस मात्र एक सौन्दर्योपकरण रूपमें ही "एक और उदाहरण एसा है जो कि विक्षित
अवनत हुआ देखते हैं। और इस बातका श्रेय तो विषयकी इस शाखाका विवेचन समाप्त करने के पूर्व
गत शताब्दीके अन्त में अथवा वर्तमान शताब्दी निश्चय ही ध्यान देने योग्य है, न केवल अपनी
( १९वीं) के प्रारम्भमें होने वाले उस मुस्लिम नगरी
देहलीकं एक जैन शिल्पीको ही है जिसने ऐसा ढङ्ग सुन्दरताके ही लिये वरन अपनी अद्वितीयताके लिये
प्रस्तुत किया कि जिसके द्वारा वह वस्तु जो मात्र भी । गत पृष्ठोंमें लकड़ीके उस अद्भत 'महार' (या कैंची, Strut ) के विषय में बहुधा कथन किया गया
एक प्रथानुसारी सुन्दर वस्तु समझी जाती थी, है जिसके द्वारा जैन शिल्पियोन अपने गुम्बदों
प्रस्तर-स्थापत्यका एक वस्तुतः उपयुक्त निमातृ अङ्ग (शिखरां) के नीचकी लम्बी शहतीरोंकी प्रत्यक्ष
हा सकी। कमजोरीको दूर करनका प्रयास किया है। यह आबू, इस शिल्पीकी विलक्षण सूझने उक्त सहार गिरनार, उदयपुर तथा अन्य अनेक स्थानोम, (कैंची) के समग्र पिछले भागको अत्यन्त कलापूर्ण जिनका कि हम प्रकरणानुमार विवेचन करेंगे, और योजना वाले गुदे हुए फूलपत्तीदार चित्राङ्कनासे वस्तुतः प्रायः सर्वत्र ही जहाँ कहीं कि अष्टकोण भर दिया, और इस प्रकार उम वस्तुको जो यद्यपि गुम्बद का उपयोग हुआ है, उपलब्ध होता है । मुन्दर होते हुए भी जैन स्थापत्य योजनाका एक भारतीयोंने अपन तोरणद्वारों (तोरणों) में भी इसका दुबलतम अङ्ग थी, एक पूर्णत: प्रकल्पक प्रस्तर उपयोग किया था और यह एक ऐसा प्रिय सौन्दर्यो- कोष्टक (दीवालगिरी) के रूपमें परिवर्तीत कर दिया, पकरण होगया था कि सम्राट अकबरने आगरा और और उसे भारतीय म्थापत्यकी सर्वाधिक दर्शनीय फतहपुरसीकरी दोनों ही स्थानोंकी इमारनाम इसका वस्तु बना दिया, माथ ही, ऐसा करने उसने उसके
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अनेकान्त
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समस्त परम्परागत संमगों-संस्कारोंको भी सुरक्षित है; गुम्बदका यह रूप उसके लिये अपरिचित होनेसे रक्खा । वे स्तम्भ भी जो इन कोष्ठकोंको संभाले वह उसकी निन्दा और खण्डन करने लगता है। हुए, हैं अतीव सुन्दर हैं और रचनात्मक उपयुक्तताको बिल्कुल ठीक यही बात भारतीय स्थापत्यकलाके दसलिये हुए है । इस प्रकार यह सम्पूर्ण रचना स्थापत्य- मेंसे नौ सौन्दर्यापकरणों के साथ लागू होती है। हमयोजनाका इतना कमनीय उदाहरण है जितना कि मेंसे थोड़े ही इस बातको जानते हैं कि प्राचीन निश्चय ही इस युगका कोई अन्य। इस योजनाका (प्रथमवर्गीय) अथवा मध्यकालीन कलाकी प्रशंसा दुर्बल अङ्ग शिखर (गुम्बद) है, जो सुन्दर तो है करनेके लिये शिक्षाका कितना कुछ हाथ रहा है और किन्तु अत्यन्त प्रथानुसारी है। इसमें कोई निर्माणात्मक इसीलिये यह नहीं समझ पाते कि भारतीय शिल्पाउपयुक्तता शेष नहीं रह गई है, और यह मात्र एक कृतियों-सम्बन्धी उनका खण्डन आनुक्रमिक एवं सौन्दर्यापकरण ही होगया है । तथापि यह समझना उपयुक्त शिक्षा के अभावसं ही कितना उद्भूत है। कठिन नहीं है कि इस देश के निवासी क्यों इसके इतने नोट:-यह लेख, बाबू पन्नालालजी जैन अग्रवाल देहली प्रशंसक हैं और क्यों वे इसका उपयोग करते हैं। द्वारा प्रेषित 'All about Delhi' (सब कुछ जब किसी जातिकी दृष्टि अपने किसी ऐसे स्थापत्य में देहली सम्बन्धी) नामक पुस्तकके पृ०२७-४० परसे जोकि ५ या ६ शताब्दियों तक सुरक्षित रहता चला लिये गये अंगरेज़ी उद्धरणोंका अनुबाद है।
आया हो, शनैःशनैः होनेवाले क्रमिक परिवर्तनोंसे शिक्षित हई होती है तो उसकी रुचि भी गत अन्तिम
--ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए. शैलीके सर्वोत्तम हानका विश्वास करनेकी वैसी आदी
इमी प्रसगमें, कलामर्मज्ञ श्रीयुत वैलहाऊसकी जैन होजाती है क्योंकि परिवर्तन इतना आनुक्रमिक
स्तम्भ विषयक सम्मति भी अवलोकनीय है, अापका कहना और अनपूर्व हना है कि लोग इस बातका भूल जाते है कि 'जैन स्तम्भोंक सम्पूर्ण मूलभाग तथा शिखर मुकर हैं कि वे वास्तविक मार्गसे कितने दूर भटकते जारहे
ललित एवं अत्यधिक ममलंकृत प्रस्तरशिल्पके आश्चर्यजनक हैं। एक यूरोपवासी, जो इस प्रकार शिक्षित नहीं
उदाहरण हैं। इन सुन्दर स्तम्भोंकी राजसी शोभा अनुपम हुआ है, केवल परिणामको देखता है, सो भी बिना
है, इनके आकार प्रकार चहुँोरकी प्राकृतिक दृश्यावलीके उन पदोंका अनुसरण किये हुए ही जिनके द्वारा वह
वह अनुरूप सदैव सर्वथा निर्दोप होते हैं, और उनकी धनी परिणाम प्राप्त हुआ है; इसलिये वह यह देखकर
सजावट कभी भी अरुचिकर प्रतीत नहीं होती। दुब्ध रह जाता है कि इसका रूप भवन निर्माण कलाके वास्तविक गुम्बदके रूपसे कितना दर जापडा
-(Ind. Art.-Vol. Vp. 39).
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PAN
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HERE.
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अतिशय क्षेत्र चन्द्रकाड
(ले० --पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
'न्द्रवाढ अथवा चन्द्रपाट नामका एक करवाया था, जो अब फिरोजाबादके जैन मन्दिरमें प्रसिद्ध नगर जमुना तट पर आगरा- विद्यमान है। और १४वीं शताब्दीमें भी जैन मंदिरों के समीप फिरोजाबादके दक्षिणमें के निर्माण तथा प्रतिष्ठा करानेके उल्लेख प्राप्त चार मीलकी दूरीपर स्थित है जो होते है ।
आज प्राचीन ध्वंसों-खण्डहरोंके कविवर धनपालने अपने बाहुबलीचरितमें, रूपमें दृष्टिगोचर हो रहा है। कहा जाता है कि जिसका रचनाकाल वि० सं० १४५४ हैं उस समय वि० १८५२ में चन्द्रपाल नामके एक दिगम्बर जैन चन्द्रवाडकी स्थितिका दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है राजाकी स्मृतिमें इस नगरको बमाया गया था, कि, उस समय वहाँ चौहानवंशी राजाओंका राज्य जिसका दीवान रामसिंह हारुल था। चन्द्रवाडमें था और तब उक्त वंशके सारङ्गनरेन्द्र राज्य कर रहे विक्रमकी १४वीं १५वीं शताब्दीमें चौहानवंशी थे, जो संभरीरायके पुत्र थे। उस समय चन्द्रवाड राजाओंका राज्य रहा है। मेरे इस कथनकी पुष्टि या चन्द्रपाट जन धनसे परिपूर्ण था और सुन्दर कविवर लक्ष्मणके 'अणुवइरयणपईव' से भी होती तथा ऊंची-ऊँची अट्टालिकाओंसे सुशोभित था और है जिसका रचनाकाल वि० १३५३ है। उस समय संघाधिप साह वासाधर मन्त्री पदपर प्रतिष्ठित थे, चौहानवंशी राजाओंका राज्य था और इस वंशके जो जायस अथवा जैसवाल वंशी सोमदेवश्रेष्ठीके सात अनक शासक वहाँ हा चुके थे, जैसे भरतपाल, पुत्रोंमसे प्रथम थे। जिनकी प्रेरणा एवं आग्रहसे कांवअभयपाल, जाहड, श्रीवल्लाल और पाहवमल्ल । वर धनपालने 'बाहुबलिचरित' नामके ग्रन्थकी रचना इन राजाओं और इसी वंशके अन्य राजाओंके की थी । कवि धनपालन साहु वासाधरको सम्यक्त्वी, समयमें लंबकंचुक, जायसवाल आदि कुलोंक जिनचरणोंका भक्त, जिनधर्मके पालनमें तत्पर, दयालु, विविध जैन श्रावक गजश्रेष्ठी और प्रधानमन्त्री जैसे बहुलोकमित्र, मिथ्यात्व रहित और विशुद्ध चित्तवाला राजकीय उच्च पदों पर आमीन रहे हैं जिन्होंने बतलाया है। साथ ही आवश्यक दैनिक देवपूजादि समय-समय पर अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण षट्कोंमें प्रवीण, राजनीतिमें चतुर और अष्ट मूलकिया और उनके प्रतिष्टादि कार्य भी सम्पन्न किये गुणों के पालनमें तत्पर प्रकट किया है । इनकी पत्नीका हैं । इन उल्लेखों परसे चन्द्रवाडकी महत्ताका बहुत कुछ दिग्दर्शन हो जाता है और इससे प्रकट है कि • तही अमयवालु तणुमहवह उ, वणिपट्टकिय भा विक्रमकी १५वीं शताब्दीसे १५वीं शताब्दी तक गग्वइ समज सरगयहंसु, महमंत धवियच-उहाणवंसु । जौनयोंका वहाँ विशेष सम्बन्ध रहा है। वि. मं० सो अभयपालु गारगाह रज्जे, मुपहाणुरायवावारकज्जे । १०५३ में राजा चन्द्रपालने एक प्रतिष्ठा कराई थी, जिणभवण कगयउ तें मसउ, केया रलिझंपियतरणिसेउ ।
और चन्द्रप्रभभगवानकी स्फटिकर्माणकी फुट कुडापी इग्गाइण्ण वोमु, कलहोय कलसकलवित्तिसोमु । भरकी अवगाहना वाली एक मूर्तिका निर्माण भी च उसाल उतोग्णुसिरिजणंतु, पडमंडकिकिणिरणझणंत।। १ देखा जैन सिद्धान्त भास्कर भा०६ कि० ४ ।
-अणुवइरयणपईव प्रशस्ति ।
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३४६
अनेकान्त
[ वर्ष ८
नाम उदयश्री था जो पतित्रता और शीलव्रतका मुनि श्री सौभाग्य विजयजीने अपनी तीर्थमालामें पालन करने वाली तथा चतुर्विधसंघके लिये कल्प- चन्द्रवाडमें अपार अथवा अगणित प्रतिमाओंके निधि थी। इनके पाठ पुत्र थे, जसपाल, जयपाल, होनेका उल्लेख किया है, जैसा कि उनके निम्न रतपाल, चंद्रपाल, विद्दराज, पुण्यपाल, वाहड और वाक्यसे प्रकट है:रूपदव । ये श्राठों पत्र अपने पिताके समान ही योग्य 'जी हो सोरीपुर उत्तरदिशें जी हो यमना तटनी पार । चतुर और धर्मात्मा थे । इम सब परिकर महित जी हो चंदनवाड़ी नामें कहें जी हो तिहां प्रतिमा छै साहू वासाधर राज्यकार्य करते हुए धर्मका साधन अपार ।।
-१४-२ पृ० ९८ करते थे। इनके पिता सोमदेवश्रेष्ठी भी संभगंगयके इम उल्लेखसे और कविहर धनपालके बाहबलि समय मंत्री पदपर आसीन हो चुके थे। चरितसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि सौरीपुरके
कविवर धनपालन अपने ग्रंथमें सारङ्ग नरेन्द्रके. भगवान नेमिनाथकी वन्दना करके लोग चन्दवाड़बाद, अभयपाल, जयचन्द और रामचन्द्र नामके की अपार मतियोंकी बन्दना भी किया करते थे। राजाओंका समुल्लेख किया है। इनमेंसे संवत १४६८ इसके सिवाय, कविवर रइधून अपने 'पुण्यामें महाराजाधिराज रामचन्द्रदेव राज्य कर रहे थे। सवकथाकोस' नामक ग्रन्थकी प्रशस्तिमें चन्द्रवाडके क्योंकि सं० १४६८के ज्येष्ठ कृष्णा पंद्रस शुक्रवारके राजा प्रतापरुद्रका उल्लेख करते हुए उसकी मङ्गल दिन उसी चन्द्रपाट नगरमें अमरकीतिके 'पट्कर्मों- कामना भी व्यक्तकी है और उस युद्धरूपी समुद्रका पदेश' (छक्कम्मोवएस) नामक ग्रंथकी प्रतिलिपि अवगाहन करने वाला सूचित किया है :
हक प्रथम पुत्र उदयसिहक ज्यष्ट पुत्र णंद उचिमराउ पयावरुद्द, अवगाहिउजिाहवसमुह । दल्हाके द्वितीय पुत्र अर्जुनने ज्ञानावरणीय कर्मके तव्वयणविणिदह सव्वभासि, सिरिचंदवाडपट्टणक्षयार्थ लिखवाई थी। यह प्रति आजकल नागौर णिवासि ।। (जोधपुर स्टेट)के भट्रारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित चकि कविवर रइधका समय विक्रमकी १५वीं है । इस ग्रंथकी यह प्रतिलिपि मूलसंघी गोला- शताब्दीका अन्तिम चरण और १६वीं शताब्दीका राडान्वयी पण्डित असपालके पुत्र विद्याधरने प्रथम चरण है, अतः उस समय तक भी चन्द्रवाडमें की थी ।
जैनियोंका निवास था, परन्तु यह प्रयत्न करने पर १ देखो, अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७.८, पृ० ४८४-८५
भी मालूम नहीं हो सका कि प्रतापरुद्र किस वंशका २ अथ संवत्सरे १४६८ वर्ष व्यत्र कृष्णा पञ्चदश्यां शुक्रवामरे श्रीमचन्द्र पाटनगरे महाराजाधिराज श्रीरामचन्द्रदेव
इनके अतिरिक्त वि० सं० १५३० में कविवर रान्ये । तत्र श्रीकन्द कन्दाचार्यान्वये श्रीमलमंघे गजर श्रीधरन भविष्यदत्तचरित्रकी रचना चन्दवाड (गुर्जर) गोष्ठि तिहथगा गेरिया साधुश्रीजगमीहा भार्या सोमा नगरके माथुर कुलके नारायणके पुत्र और वासुदेवके तयोः पुत्राः [चत्वारः] प्रथम पुत्र उदेसीह [द्वितीय] ज्यष्ठ भ्राता मनिवर सुपट्टसाहू की प्रेरणासे की है। अजैसीह तृतीय पदगज, चतुर्थ ग्वाम्हदेव । ज्येष्ठ पुत्र सैलाद्रक्षे जलाद्रक्षे रक्षं शिथिल बंधनात् । उदैसीह भायारतो त्रयों पुत्राः, ज्येष्ठ पुत्र देल्हा द्वितीय परहस्तगतं रक्षेद् एवं वदति पुस्तिका ||२|| राम, तृतीय भीग्बम । ज्येष्ट पुत्र देल्दा भार्या हिरो तयोः गोलागडान्वये इक्ष्वाकुवंशे श्रीमूलसंधे पण्डित पुत्राः द्वयोः । ज्येष्ट पुत्र हाल, द्वितीय अर्जुन ज्ञाना- असपालमुतविद्याधरनामा लिलेखि छ।। वरणीकर्म क्षयार्थ इदं पटकमा पदेशशास्त्रं लिखापितं ।।
-नागार भण्डार प्रति भग्नपृष्टि कटि ग्रीवा मच्च दृष्टिरधोमुखं । ३ मिरि चंदवारण्यरहिएण, जिण धम्मकरण उक्कहिएण कण्टेन लिखित शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ।।१।। माहुरकुल गयण तमीहरेण, विवुयण सुयण मण घण हरेण
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किरण ८-९]
अतिशय क्षेत्र चन्द्रवाड
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ऊपरके इस समस्त विवेचन परसे यह स्पष्ट हो प्रन्थ पूर्ण किया है। इस प्रन्थकी प्रशस्तिमें रपडी जाता है कि वि० सं० १३१३ के पूर्वसे १४६८ तक और चन्द्रवाडके समुल्लेखके साथ लिखा है कि तो चन्द्रवाडमें चौहान वंशी राजाओंका राज्य रहा इटावा भी उसके समीप है। और वहाँ कीरतसिंधु है और उस समय वहां लंबकंचुक (लमेचू) और नामका राजा राज्य करता है जैसा कि उमकं निम्न जैसवाल आदि विविध उपजातियोंके जैन निवास वाक्योंसे प्रकट है:करते थे और उन्होंने अनेक जैन मन्दिर भी मध्यदेश रपडी चंदवार, ता समीप इटावा सुखसार । बनवाए और उनके प्रतिष्ठा महोत्सव भी किये थे । कीरतिसिंधु धरणीधर रहे, तेग त्यागको समसरि करै।। साथ ही समय समय पर अनेक ग्रन्थोंकी प्रति- विक्रमकी १७वीं शताब्दीके इस समुल्लेखसे स्पष्ट लिपियाँभी कराई गई हैं। इतना ही नहीं; किन्तु मालूम होता है कि उस समय उक्त स्थानमें कीर्तिसिंधु सं० १४५४ में बाहुबली चरित तथा सं० १५३० में नामके राजाका राज्य था। परन्तु इस राजा आदिक भी वहां के जैनियों द्वारा 'भवियसयत्त कहा' सम्बन्धमें विशेष कुछ ज्ञात नहीं होसका, अस्तु । नामके ग्रन्थोंका निर्माण अपभ्रशभाषामें कराया प्रो० हीरालालजीने अपने लेखमें रायवदियको गया है।
आगरा फोर्टसे बांदीकुई जानेवाली रेलवेका रायभा' ___कविवर लक्ष्मणके 'अगुवयरयणपईव' नामके Ruilbhau ) नामका स्टेशन बतलाया है, जो जमुना प्रन्थमें 'रायवदिय' नामकी एक नगरीका उल्लेख दिया नदीके उत्तर तटपर बसा हुआ है। परन्तु रपरी, हुआ है' जो उस समय जन धनसे समृद्ध थी। चन्द्रवाड और इटावाके ऐतिहासिक आख्यानोंपर
और वहाँ चन्द्रवाडके चौहान वंशकी एक शाखाका दृष्टि डालन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि इनका राज्य रहा है, और इस नगरको भी कविने जमना पारम्परिक कुछ सम्बन्ध अवश्य रहा है और उसका नदीके उत्तर तटपर बतलाया है। जिससे यह कारण एक ही व्यक्ति अथवा एक ही वंशके दो चन्द्रवाडके समीपका ही कोई प्रसिद्ध नगर होगा व्यक्तियों द्वारा शासित होना है। खासकर, रपरी, ऐसा जान पड़ता है । 'रायद्दिय'के सिवाय चन्द्रवाडः चन्द्रवाड और इटावा पर हिन्दू और मुसलमान के साथ रपरी नामके नगरका भी उल्लेख मिलता है, शासकोंने राज्य किया है यद्यपि उन स्थानों में जिससे यह भी सन्देह होने लगता है कि रपरीका मुसलमानोंका शासन अल्प समयक लिय ही रहा हे क्या कोई सम्बन्ध रावद्दियके साथ तो नहीं है, या किन्तु उनके शासनकालमें वे नगर अपनी पूर्व गौरव राहिय कोई स्वतन्त्र नगरी है। कविवर लक्ष्मणके युक्त सम्पन्नावस्थाको नहीं प्राप्त हो सके समुल्लेखसे तो यह स्पष्ट मालूम होता है कि विक्रमकी १६वीं शताब्दीक बादशाह अकबरके गयद्दिय भी चन्द्रवाडके समीपवर्ती कोई नगर था। समयमें चन्द्रवाड रपरी और इटावाका प्रदेश आगरे
वि० सं० १६७१की जेठ वदी नवमीको कवि के सूबेमें मिला दिया गया था, और उस समयसे ब्रह्मगुलालन अपना 'कृपण जगावन रत' नामका उनकी वह स्वतन्त्र मत्ना भी विनष्ट हो चुकी थी। गागयण देहममुम्भवंगा. मण-वयण काय णि दिय भवण प्रस्तुत रपरी एक ऐतिहासिक स्थान है और पहले मिर वासुण्यगुरुभायरेण, भव जलणिहि णिवडण कायरण जन धनस समृद्ध भी रहा है, किन्तु श्राज वह णीसेमव लक्वगुणालएण, मइवर मुपट्ट गामालाएगा
अपनी पूर्व अवस्थामें नहीं है, मुमलमान राजाओंक विणएणभणिउजाडविपाणि, भत्तिएकइमिरिहरुभव्यपाणि ।
अक्रमणादि के कारण अपने गौरवको खो चुका है -भविसयत्त कहा प्रशस्ति । और आज वह खण्डहगंक रूपमें परिणत हो रहा १ इह ज उणाणइ उत्तरतइत्थ । महायरि रायवद्विय है । सन् १४८७ (वि० सं० १५४४) में बहलोल पसत्थ ॥ -देखो जनसिद्धांत भा० भा०६. कि०३ १ जैन सिन्द्धात भास्कर भाग ६ कि. ३ ।
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अनेकान्त
[वर्ष ८
लोदीने जौनपुरके बादशाह हुसैनको हराया था और प्रसिद्धिमें आरहा है । वहाँ आज भी जैनियोंके तब कुल्वखा रपरीका जागीरदार बनाया गया था, प्राचीन वैभवकी झाँकीका एक स्मृति-पट चित्तपर जिसके अधिकार में इटावा और चन्द्रवाड भी शामिल अंकित होजाता है। मीलों तक ध्वंसावशेष दृष्टिगोचर थे। अनन्तर सिकन्दर लोदीने भी अपने भाईके होते हैं। यदि उन्हें खुदवाया जाय तो वहाँ जैनियोंके विरुद्ध बग़ावत कर बाबरको बुलाया। इस तरह कितने ही प्राचीन स्मारक प्राप्त हो सकते हैं। एक चन्द्रवाड और रपरीपर मुसलमानोंके आक्रमण वर्षमें वहाँ मेला लगता है, उस वार्षिक मेले में जो कुछ होते रहे । मुगलोंकी इस परिणतिसे असंतुष्ट होकर यात्री आजाते हैं, वे अपने पूर्वजोंकी गौरवगाथाका सांगाने मुसलमानों पर आक्रमण किया, किन्तु वह स्मरणकर चले जाते हैं, किन्तु वे यह प्रयत्न कभी नहीं चन्द्रवाडके ही युद्ध में हुमायूँ से पराजित हो गया, करते कि अपनी संस्कृति के बहुमूल्य जो ध्वंसावशेष अतएव कुछ समय तक उसे मुगलोंके कब्जे में और अथवा खण्डहर मौजूद हैं उनके इतिहासको संकलित रहना पड़ा'। इस तरह जब हम इन प्रदेशोंके करानेके लिये समाजका ध्यान आकर्षित किया जाय । ऐतिहासिक श्राख्यानों पर दृष्टि डालते हैं; जो समय इस तरहक और अनेक महत्वपूर्ण स्थान पड़े हुए हैं, समय पर वहाँ गुजरे हैं। तो उनकी समृद्धिका जिनका उद्धार करना महान् पुण्यबन्धका कारण है। केवल अनुमान ही किया जा सकता है। परन्तु आज वे सब स्थान ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वके है। जब हम कई मील तक उनके ध्वंसावशेषों (खंडहरों) आशा है समाजके विद्वान और श्रीमान इस ओर को देखते हैं तब उनकी उस दुर्दशा पर भारी ग्वेद ध्यान देंगे, और चन्द्रवाड आदिकं पुरातत्वका उद्घाटन होता है।
और संरक्षणकर पुण्य तथा यशके भागी बनेंगे। प्रस्तुत चन्द्रवाड वर्तमानमें अतिशयक्षेत्रके नामस वीरसेवा मन्दिर, सरमावा १ देखो, जैनसिद्धांत भास्कर भा० १३ कि० २ ।
'अनेकान्त' नामके मामिक पत्रसे जैन-समाज भलीभाँति परिचित है, उसका प्रत्येक अङ्क संग्रहकी वस्तु है । उसके प्रत्येक अङ्कमें ऐतिहासिक महत्वकी पठनीय सामग्रीका मंकलन रहता है। ऐसे उपयोगी पत्रकी वप ४, ५, ६, ७ की कुछ फाइलें अवशिष्ट हैं। जिन विद्वानों और संस्थाओं आदिको चाहिए, वे अपनी अपनी फाइलें रिजर्व करालें, रिजव करानसे ये फाइलें भाद्रमास तक मुद्रित मूल्यपर ही मिल सकेंगी अन्यथा, बादको दूसरे, तीसरे वर्पके समान अप्राप्य हो जावेगी।
और मनीआर्डरसे मूल्य भेजनेपर उन्हें पोस्टेज खर्च भी नहीं देना पड़ेगा। किन्तु वी० पी० से मँगाने वालोंके लिये यह रियायत नहीं है । फाइलोंका मूल्य इस प्रकार है :वर्ष ४ ३) - वर्ष ५ ३) - वर्ष ६ ४) -- वर्ष ७ ४)
मैनेजर 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, सरसावा [सहारनपुर]
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प्राचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर अभिनक प्रकाश
(लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
प्राचार्य माणिक्यनन्दि नन्दिसङ्घके प्रमुख बतलाया है । वस्तुतः इसमें अकलङ्कदेवकेद्वारा आचार्योंमें हैं। विन्ध्यगिरि पर्वतके शिलालेखोंमेंसे प्रस्थापित जैनन्यायको, जो उनके विभिन्न न्यायग्रंथोंसिद्धरवस्तीमें उत्तरकी ओर एक स्तम्भपर जो विस्तृत में विप्रकीर्ण था, बहुत ही सुन्दर ढङ्गसे प्रथित किया
अभिलेख' उत्कीर्ण है और जो शक सं० १३२० गया है । उत्तरवर्ती आचार्य वादिदेवसुरिके प्रमाण(ई० सन् १३९८) का खुदा हुआ है उसमें नन्दिसङ्घके नयतत्त्वालोकालङ्कार और प्राचार्य हेमचन्द्रकी जिन प्रमुख आठ आचार्योंका उल्लेख है उनमें प्रमाणमीमांसापर इसका पूरा प्रभाव है । वादिदेव
आचार्य माणिक्यनन्दिका भी नाम है । ये अकलङ्क- सृरिने तो उसका शब्दशः और अर्थशः पर्याप्त देवकी कृतियोंके मर्मस्पृष्टा और अध्येता थे । इनकी अनुसरण किया है। इस प्रन्थपर आचार्य प्रभाचन्द्रने उपलब्ध कृति एकमात्र परीक्षामुख' है । यह परीक्षा- बारह हजार प्रमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामकी मुख' अकलङ्कदेवके न्यायग्रन्थोंका दोहन है और जैन- विशालकाय टीका लिखी है। इनके कुछ ही बाद न्यायका अपूर्व तथा प्रथम गद्यसूत्र ग्रन्थ है। यद्यपि लघु अनन्तवीर्यने प्रसन्नरचनाशैलीवाली 'प्रमेय अकलङ्कदेव जैनन्यायकी प्रस्थापना कर चुके थे और रत्नमाला' टीका लिखी है । इस प्रमेयरत्नमालापर कारिकात्मक अनेक महत्वपूर्ण न्याय-विषयक दुरूह भी अजितसेनाचार्यकी 'न्यायमणिदीपिका तथा
(रण भी लिख चुके थे। परन्तु गौतमक न्यायसूत्र, पण्डिताचाय चारुकीत्ति नामक एक अथवादा विद्वानों दिङ्नागके न्यायमुख, न्यायप्रवेश आदिकी तरह जैन- की 'अर्थप्रकाशिका' और 'प्रमेयरत्नमालाङ्कार'५ ये न्यायको गद्यसूत्रबद्ध करनेवाला 'जैनन्यायसूत्र' ग्रन्थ टीकाएँ उपलब्ध होती हैं दो-तीन और जो अभी जैनपरम्परामें अबतक नहीं बन पाया था। इस कमी- अमुद्रित हैं । परीक्षामुखसूत्रके प्रथम सूत्रपर शान्तिकी पूर्ति सर्वप्रथम आचार्य माणिक्यनन्दिने अपना वीकी भी एक 'प्रमेयकण्ठिका'६ नामक अनिलघु 'परीक्षामुखसूत्र' लिखकर की जान पड़ती है। उनकी टीका पाई जाती है यह भी अभी प्रकाशित यह अमर रचना भारतीय न्यायसूत्र ग्रन्थोंमें अपना नहीं हुई है। विशिष्ट स्थान रखती है। यह संस्कृत भाषामें निवद्ध
और छह परिच्छेदोंमें विभक्त है। आदि और अन्त में १ "अकलङ्कवचोम्भाधेरुद्धं येन धीमता। एक-एक पद्य है, शेष समस्त ग्रन्थ गद्यसूत्रोंम है। सत्र न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥"-प्र.र.पृ.२। बड़े ही सुन्दर, विशद और नपे-तुले हैं । प्रमेयरत्न- अकलङ्कदेवके वचनांसे 'परीक्षामुख' कैसे उद्धृत मालाकार लघु अनन्तवीय (वि० सं० ११वी, १२वीं हुआ, इसकेलिये देखें, 'परीक्षामुखसूत्र और उसका शती)न इस अकलङ्कदेवके वचनरूप समुद्रको मथकर उद्गम' शीर्षक मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ५, कि. ३-४ निकाला गया 'न्यायविद्यामृत' न्यायविद्यारूप अमृत पृ. ११६ से १२८ ।
१ शिलालेख नं० १०५ (२२४), शि० सं० प्र० २००। २इन ग्रन्थाकी तुलना करें।
२ 'विद्या-दामेन्द्र-पद्मामर-वसु-गुण-माणिक्यनन्द्यावयाश्च ।' ३, ४, ५, ६ प्रशस्तिसंग्रह पृ. १, ६६, ६८, ७२ ।
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३५०
अनेकान्त
[ वर्ष ८
श्राचार्य माणिक्यनन्दिका समय
'प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः ।'-पृ० १ । मुझे यहाँ आचार्य माणिक्यनन्दिके समय- (ख) विद्यानन्द प्रमाणपरीक्षामें ही प्रामाण्यकी सम्बंधमें कुछ विशेष विचार करना इष्ट है। श्रा० ज्ञप्तिको लेकर निम्न प्रतिपादन करते हैं :माणिक्यनन्दि लघु अनन्तवीयके उल्लेखानुसार 'प्रमाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात्परतोऽन्यथा।'पृ०६३। अकलङ्कदेव (७वीं शती के वाङ्मयके मन्थनकतो है। माणिक्यनन्दि भी परीक्षामुखमें यही कथन अतः ये उनके उत्तरवर्ती और परीक्षामुख टीका करते हैं :(प्रमेयकमलमार्तण्ड ) कार आचार्य प्रभाचन्द्र (११वीं शती) के पूर्ववर्ती विद्वान सनिश्चित हैं।
'तत्प्रामागयं स्वतः परतश्च ।'-१-१३ । अब प्रश्न यह है कि इन तीनसौ वर्षकी लम्बी (ग) विद्यानन्द 'योग्यता' की परिभाषा निम्न अवधिका क्या कुछ सोच होसकता है ? इस प्रश्न- प्रकार करते हैं :पर विचार करते हुए माननीय पं० महेन्द्रकुमारजी 'योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षस्येव स्वविषयज्ञानान्यायाचार्यने लिखा है' कि 'इस लम्बी अवधिको वरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेष एव ।' -पृ० ६७ । सङ्कचित करनेका कोई निश्चित प्रमाण अभी दृष्टिमें
_ 'स चात्मविशुद्धिविशेषो ज्ञानावरणवीर्यान्तराय नहीं आया। अधिक सम्भव यही है कि ये विद्यानन्दके समकालीन हों, और इसलिये इनका समय ई. ९वीं
क्षयोपशमभेदः स्वार्थप्रमितौ शक्तिर्योग्यतेति च शताब्दी होना चाहिये । लगभग यही विचार अन्य स्याद्वादिभिरभिधीयते ।' -प्रमाणप० पृ० ५२ । विद्वानोंका भी है।
'योग्यता पुनर्वेदनस्य स्वावरणविच्छेदविशेष एव।' मेरी विचारणा
तत्त्वार्थश्लो. पृ. २४६ । १-अकलङ्क, विद्यानन्द और माणिक्यनन्दिके माणिक्यनन्दि भी योग्यताकी उक्त परिभाषाको प्रन्थोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेसे प्रतीत होता है कि अपनाते हुए लिखते हैं :माणिक्यनन्दिने केवल अकलङ्कदेवके न्यायग्रन्थोंका स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतही दोहन कर अपना परीक्षामुख नहीं बनाया, किन्तु मर्थ व्यवस्थापयति । –परीक्षामु० २-३ । विद्यानन्दके प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, तत्वार्थश्लोकवार्तिक आदि तर्क-ग्रन्थोंका भी दोहन करके
(घ) ऊहाज्ञानकं मम्बन्ध में विद्यानन्दि कहते हैं:उसकी रचना की है । नीचे मैं दोनों आचार्योंके
_ 'तथोहम्यापि समुद्भूतौ भूयः प्रत्यक्षानुपलम्भग्रन्थोंके कुछ तुलनात्मक वाक्य उपस्थित करता हूँ.... सामग्री बहिरङ्गनिमित्तभृताऽनुमन्यते, तदन्वयव्यति
(क) श्रा० विद्यानन्दि प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणसे रेकानुविधायित्वादहस्य ।' -प्रमागणप० पृ० ६७ । इष्टसंसिद्धि और प्रमाणाभासमे इष्टमंमिद्धिका
माणिक्यनन्दि भी यही कथन करते हैं :प्रभाव बतलाते हुए लिखते हैं :
'उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः । 'प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथाऽतिप्रसङ्गतः।'-पृ० ६३ । श्रा० माणिक्यनन्दि भी अपने परीक्षामुख में
इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च । यही कहते हैं :
यथाऽमावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ।' १ देखो, प्रमेयकमलमार्तण्ड (द्वितीय संस्करण) गत
-परीक्षामु० ३-११, १२, १३ । उनकी प्रस्तावना पृ. ५।
___(ङ) विद्यानन्दने अकलङ्क आदिके द्वारा प्रमाण२ न्याय कुम. प्र. भा. प्र. (पृ. १७३) आदि
मंग्रहादिमें प्रतिपादित हेतभेदोंके संक्षिप्त और गम्भीर
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किरण ८-९]
आचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर अभिनव प्रकाश
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कथनका प्रमाणपरीक्षामें जो विशद भाष्य किया है उन्होंने अपनी गुर्वावली भी दी है और उसमें उसका परीक्षामुखमें प्रायः अधिकांश शब्दशः और अपना विद्यागुरु माणिक्यनन्दिको बतलाया है तथा अर्थशः अनुसरण है।
उन्हें महापण्डित और अपनेको उनका प्रथम विद्याइससे यह स्पष्ट है कि माणिक्यनन्दि विद्यानन्द- शिष्य प्रकट किया है । प्रशस्तिमें उन्होंने यह भी के उत्तरकालीन हैं और उन्होंने विद्यानन्दके ग्रन्थोंका बतलाया है कि धारा नगरी उस समय विद्वानों के खूब उपयोग किया है।
लिय प्रिय हो रही थी अर्थात विद्याभ्यासकेलिये २--श्रा० वादिराजसूरि (ई० १८०५) ने न्यायके विद्वान दूर दूरसे आकर वहां रहते थे और इसलिये
विद्वानोंकी केन्द्र बनी हई थी। प्रशस्तिगत न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय ये दो ग्रन्थ बनाये हैं और यह भी सनिश्चित है कि न्याय- गुवावली इस प्रकार है :विनिश्चयविवरणके समाप्त होनेके तुरन्त बाद ही प्रशस्ति-"जिणंदस्स वीरस्स तित्थ महंते । उन्होंने प्रमाणनिर्णय बनाया है' । परन्तु जहाँ महाकुदकुंदंनए एत संत । श्रा० विद्यानन्दके ग्रन्थवाक्योंके उद्धरण इनमें पाये सुगरकाहिहागो तहा पोमणंदी। हैं वहाँ माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखक किसी भी
खमाजुत्त सिद्ध त उ विसहणंदी। सूत्रका उद्धरण नहीं है । इससे यह कहा जा सकता जिणिदागमाहासणो एयचित्तो । है कि माणिक्यनन्दि आ० वादिराजके कमसे कम
तवारणहीए लद्धीयजुत्तो । बहुत पूर्ववर्ती नहीं हैं-सम्भवतः वे उनके आसपास परिंदाग्देिहि सोणंदवंती । समसमयवर्ती ही हैं और इसलिये उनके ग्रन्थों में हुऊ तस्म मीसो गणी रामणंदी। परीक्षामुम्बका कोई प्रभाव नहीं है।
महापंडऊ तस्स माणिकणंदी । ३-मुनि नयनन्दिने अपभ्रशमें एक 'सुदंसण
भुजंगप्पहाऊ इमो णाम छंटी । चरिउ' लिखा है, जिसे उन्होंने धारामें रहते हुए
पत्ताभोजदेवके राज्यमें वि० सं० ११००, ई० सन २०४३
पदमसीसुतहो जायउजगविक्खायउणिणयणंदि अणिंदउ। में बनाकर समाप्त किया है। इसकी प्रशस्तिमें
चरिउ सुदंसणणाहहो तेण अवाहहो विरइउ बुहअहिणंदउ ।।
आरामगामपुरवरणिवेसे । सुपमिद्ध अबंतीणामदेसे ।। १ 'तन्निर्णयानुपयोगिनः स्मरणादेः पश्चादपि किमर्थं निरूप- सम्बइपरि व्व विबयणाइट्ट । तहिं अस्थि धारणयरी गरिठ।
णमिति चेदनुमानमेवेति ब्रमः । 'निवेदयिष्यते चैतत् रमाउद्धवर अरिवरसेलवज । रिद्धि देवासुर जसिा चोज(ज)॥ पश्चादेव शास्त्रान्तरं (प्रमाण निर्णये)।-न्यायविनि० तिवणणारायणमिरिणकेउ । वि० लि० ५० ३०६ । इस उल्लेखसे यह निणीत है
तहिं गारवइ पुगमु भोयदर । कि न्यायविनिश्चयविवरण में प्रमाण निर्णय पीछे बनाया मणिगणयहइसियरविगभत्थि । है क्योंकि वहां स्मरणादिको अनुमानप्रमाण सिद्ध किया
ताह जिगहरु पडपि विहारु अस्थि ।। गया है। देखो, प्रमाण निर्णय पृ० २३ ।
गिवविक्कमकालहो ववगएसु । एयारह संवच्छरसएसु ॥" २ प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथाऽतिप्रसंगतः इति वचनात् ।' --न्या०वि०लि. पत्र ३१।
'एत्थ सुदमणचरिए पंचणमोक्कारफलपयासयरे ३ इस प्रशस्तिकी अोर मेरा ध्यान मित्रवर पं० परमानन्दजी माणिक्कणंदितइविजसीसु णयणं दिणा रइए। संधि १२ ।
शास्त्रीने दिलाया है और वह मुझे अपने पाससे दी है। यह ध्यान रहे कि यह प्रशस्ति ज्योंकी त्यों दी गई हैमैं उसे साभार यहाँ दे रहा हूं
उसका अपनी अोरसे कोई संशोधन नहीं किया गया। ले०
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अनेकान्त
[वर्ष ८
आ० कुन्दकुन्दकी आम्नायमें
और प्रतिष्ठा एवं यश प्राप्त कर चुके थे और इस
लिये उस समय ये लगभग ४० वर्षके अवश्य पद्मनन्दी
होंगे। यदि शेष रचनाओंके लिये उन्हें ३० वर्ष भी
लगे हों तो उनका अस्तित्व वि० सं० ११३७: वृषभनन्दि (संभव
ई० सन् १०८० तक पाया जा सकता है। अतः
प्रभाचन्द्रका समय वि० सं० १०६७ से ११३७ रामनन्दि
ई० सन् १०१० से १०८० अनुमानित होता है । माणिक्यनन्दि (महापण्डित)
विभिन्न शिलालेखोंमें प्रभाचन्द्रके पद्मनन्दि
सैद्धान्त' और चतुर्मुखदेव (वृषभनन्दि) ये दो नयनन्दि (सुदर्शनचरितकार)
गुरु बतलाये गये हैं और प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा श्रा० प्रभाचन्द्र नयनन्दि (ई० सन् १०४३) के न्यायकुमुदचन्द्रकी अन्तिम प्रशस्तियोंमें पद्मनन्दि समकालीन हैं; क्योंकि उन्होंने भी धारामें रहते हुए .
। सैद्धान्तका ही गुरुरूपसे उल्लेख है। हाँ, प्रमेयभोजदेवके राज्यमें आ० माणिक्यनन्दिके परीक्षा
कमलमार्तण्डकी प्रशस्तिमें परीक्षामुखसूत्रकार मुखपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक विस्तृत टीका
माणिक्यनन्दिका भी उन्होंने गुरुरूपसे उल्लेख लिखी है' और प्रायः शेष कृतियाँ भोजदेव' (वि०
किया है । कोई आश्चर्य नहीं, नयनन्दिकेद्वारा सं० १०७५ से १११०) (ई० सन् १०१८ से १०५३)
उल्लिखित और अपने विद्यागुरुरूपसे स्मृत के उत्तराधिकारी धारानरेश जयसिंहदेवके राज्य
माणिक्यनन्दि ही परीक्षामुखके कर्ता और प्रभाचन्द्र के में बनाई हैं । इसका मतलब यह हुआ कि
न्यायविद्यागुरु हों । नयनन्दिने अपनेको उनका प्रमेयकमलमार्तण्ड भोजदेवके राज्यकालके अन्तिम
प्रथम विद्याशिष्य और उन्हें महापण्डित घोषित
किया है जिससे प्रतीत होता है कि वे न्यायशास्त्र वर्षों-अनुमानतः विक्रम संवत् ११०० से ११०७, ३० सन् १८४३ से १०५०-की रचना १ इनका वि. सं. १११२का दानपत्र मिलनेसे ये वि. सं होना चाहिए। और यह प्रकट है कि प्रभाचन्द्र १११०के करीब राजगद्दीपर बैठे होंगे। इस समय तक राजा भोजदेवद्वारा अच्छा सम्मान २ देखी, शिलालेख नं०५५ (६६)।
३ इस समयके माननेमे वि. सं. १०७३में रचे गये अमित१ प्रमेयकमलमातडका अन्तिम समाप्ति-पुष्पिकावाक्य ।
गतिके पंचसंग्रह के पद्यका तत्वार्थवृत्तिपद विवरणमें २ श्रीचन्द्रने महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणका टिप्पण
उल्लेख होना भी संगत है। भोजदेवके राज्यमं वि० सं० १०८०में रचा है। तथा भोजदेवके वि० सं० १०७६ और वि० सं० १०७६ के
४ शिलालेख नं० (६४)। २ शिलालेख नं० ५५ (६६)। दो दानपत्र भी मिले हैं । अतः भोजदेवकी पूर्वावधि ५ 'श्रीपद्मनन्दिसैद्धान्तशिष्योऽनेक गुणालयः । वि० सं० १०७५ बतलाई जाती है और उनकी मृत्यु प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयाद्रत्ननन्दिपदे रतः ॥४॥ विक्रम संवत् १११० के लगभग सम्भावना की जाती है: ६ 'भव्याम्भोज दिवाकरो गुणनिधिः योऽभजगद्भ पणः । क्योंकि भोजदेवके उत्तराधिकारी जयसिंहदेवका विक्रम सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रजलधिः श्रीपद्मनन्दिप्रभुः । संवत् १११२का एक दानपत्र मिला है। देखो, विश्वे- तच्छियादकलङ्कमार्गनिरतात् सन्यायमार्गोऽखिलः श्वरनाथ रेउकृत 'राजाभोज' पृ. १०२-१०३ । अतः सुव्यक्तोऽनुपमप्रमेयरचितो जातः प्रभचन्द्रतः ।।४ पृ.८८० इनकी उत्तरावधि वि. सं. १११० (ई. सन् १०५३) ७ 'गुरुः श्रीनन्दमाणिक्यो नन्दिताशेषसजनः । समझना चाहिए।
नन्दिताद्दुरितैकान्तरजाजैनमतार्णवः ॥३॥' पृ० ६६४ ।
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किरण ८-९]
आचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर अभिनव प्रकाश
३५३
आदिके महाविद्वान् होंगे और उनके कई शिष्य रहे और उपहास भी करते होंगे और जिसकी प्रतिध्वनि होंगे। अतः सम्भव है कि प्रभाचन्द्र महाविद्वान प्रारम्भके ३रे, ४थे, और वें पद्योंसे भी स्पष्टतः प्रकट माणिक्यनन्दिकी ख्याति सुनकर दक्षिणसे धारा होती है। नगरीमें, जो उस समय आजकी फाशीकी तरह दूसरा आधार यह है कि उन्होंने टीकाके अन्तमें समस्त विद्याओं और विविध शास्त्रज्ञ विद्वानोंकी जो प्रशस्ति दी है उसमें माणिक्यनन्दिका गुरु रूपसे केन्द्र बनी हुई थी और राजा भोजदेवका विद्याप्रेम स्पष्टतः उल्लेख किया है। और उनके आनन्द एवं सर्वत्र प्रसिद्धि पा रहा था, उनसे न्यायशास्त्र पढ़नेके प्रसन्नताकी वृद्धि कामना की है । साथ ही 'नन्दतात्' लिये आये हों और पीछे वहाँके विद्याव्यासङ्गमय पद उनकी वर्तमान कालताको भी प्रकट करता है। वातावरणसे प्रभावित होकर वहीं रहने लगे हों तीसरा आधार यह है कि नयनन्दि, उनके गुरु अथवा वहींके बाशिंदा हों तथा बादमें गुरु महापण्डित माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र इन तीनों माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखकी टीका लिखनेके लिये विद्वानोंका एक काल और एक स्थान है।। प्रोत्साहित तथा प्रवृत्त हुए हों। जब हम अपनी इस चौथा आधार यह है कि प्रभाचन्द्र के पद्मनन्दि सम्भावनाको लेकर आगे बढ़ते हैं तो उसके सब सैद्धान्त और चतुर्मुखदेव(वृषभनन्दि) ये दो गुरु आधार भी मिल जाते हैं। सबसे बड़ा आधार यह बतलाये जाते हैं और ये दोनों ही नयनन्दि है कि प्रभाचन्द्रने टीका(प्रमेयकमलमार्तण्ड)को (ई० १०४३) के सुदर्शनचरितमें भी माणिक्यनन्दिके प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि 'मैं अल्पज्ञ पूर्व उल्लिखित हैं । अतः नयनन्दिके विद्यागुरु माणिक्यनन्दिके चरणकमलोंके२ प्रसादसे इस माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र के भी न्यायविद्यागुरु रहे शास्त्रको बनाता हूँ , क्या छोटा-सा गवाक्ष (झरोखा) हों और वे ही परीक्षामुखके कर्ता हों तो कोई सूयकी किरणोद्वारा प्रकाशित हो जानेसे लोगोंके असम्भव नहीं है। एक व्यक्तिके अनेक गुरु होना लिये इष्ट अर्थका प्रकाशन नहीं करता अर्थात् कोई असङ्गत नहीं है। आचार्य वादिराजके भी अवश्य करता है।' इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने मतिसागर, हेमसेन और दयापाल ये तीन गुरु थे। गुरु माणिक्यनन्दिके चरणों में बैठकर परीक्षामुखको पाँचवाँ आधार यह है कि परीक्षामुखकार
और समस्त इतर दर्शनोंको, जिनके कि वे स्वयं माणिक्यनन्दि, वादिराजसूरि (ई० १०२५) से पूर्वप्रभाचन्द्रके शब्दोंमें 'अर्णव' थे, पढ़ा होगा और वर्ती प्रतीत नहीं होते, जैसा कि पहले कहा जा उससे उनके हृदयमें तद्गत अर्थका प्रकाशन हो चुका है। गया होगा और इसलिए उनके चरणप्रसादसे अतः इस विवेचनसे यह ज्ञात होता है कि उसकी दीका करनेका उन्होंने साहस किया होगा। माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र परस्पर साक्षात् गुरुकी कृतिपर शिष्यद्वारा टीका लिखना वस्तुतः गुरु-शिष्य थे और प्रभाचन्द्रने अपने साक्षात् गुरु माहसका कार्य है और प्रभाचन्द्र के इस साहसको माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखपर उसी प्रकार टीका देखकर सम्भवत: उनके कितने ही साथी स्पर्धा लिखी है जिस प्रकार बौद्ध विद्वान कमलशीलने १ 'शास्त्रं करोमि वरमल्यतरावबोधो,
अपने माक्षात् गुरु शान्तक्षितके तत्त्वसंग्रह पर माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्यसादात् ।
'पञ्जिका' व्याख्या रची है। अतः इन सब आधारों अर्थ न कि स्फुटयति प्रकृतं लघीया
१ उल्लेख पहले दिया जाचुका है। ल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिताद्गवाक्षः ॥२॥
२ त श्रीमन्मतिसागरो मुनिपतिः श्रीहेमसेनो दया२ यहाँ 'पद' शब्द का परीक्षामुख अर्थन करके 'चरण' पालश्चेति दिवि स्पृशोऽपि गुरवः स्मृत्याभिरक्षन्तु माम् ॥२' अर्थ ही करना ज्यादा संगत है।
-न्याय वि. वि. लि.द्वि. प्र.।
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३५४
अनेकान्त
[ वर्ष ८
और सङ्गतियोंसे परीक्षामुखकार आ० माणिक्य- मुनि नयनन्दि (ई. १०४३) और श्रा० प्रभाचन्द्र नन्दिका समय वि० सं० १०५० से वि० सं० १११० (ई० १०१० से ई० १०८०) के गुरु-शिष्यादि उल्लेखों ( ई० सन् ९९३ से ई० १०५३ ) अनुमानित होता है आदिकी सम्बद्धता भी बन जाती है ।
और उनके परीक्षामुखका रचनाकाल वि० सं० १०८५, वीरसेवा मन्दिर, सरसावा । ई० स० १०२८ के करीब जान पड़ता है। इस १५-५-१९४७ समयके स्वीकारसे श्रा० विद्यानन्द (९वीं शताब्दी) यह लेख वीरसेवा-मन्दिरसे शीघ्र प्रकाशित होने वाली के प्रन्थवाक्योंका परीक्षामुखमें अनुसरण, श्रा० 'प्राप्त-परीक्षा' केलिये लेखक द्वारा लिखी गई प्रस्तावनाके वादिराज (ई० स. १०२५) द्वारा अपने ग्रन्थोंमें 'विद्यानन्दका उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोंपर प्रभाव' प्रकरणका परीक्षामुख और श्रा० माणिक्यनन्दिका अनुल्लेख, एक अंश है ।
TITLE-PR atutthitirthat
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EALTHHTHER
REL -
1-44
जैनादर्श [जैन-गुण-दर्पण] कर्मेन्द्रिय-जयी जैनो जैनो लोक-हिते रतः ।। जिनस्योपासका जैनो हेयाऽऽदेय विवेक-युक् ॥ १॥ अनेकान्ती भवेज्जैनः स्याद्वाद-कलाऽन्वितः । विरोधाऽनिष्ट-विध्वंसे समर्थ: समता-युतः ॥२॥ दया-दान-परो जैनो जैनः सत्य परायणः । सुशीलोऽवश्वको जैनः शान्ति-सन्तोष-धारकः ।।३।। परिग्रहेष्वनासक्तो नेर्षालु व द्रोह-वान् । न्याय-मार्गाऽच्युतो जैनः समश्च सुख-दुःखयोः ॥४॥ जिल्लोभो निर्भयो जैनो जैनोऽहकार-दूरगः ।। सेवा-भावी गुण-ग्राही निःशल्यो विषयोज्झितः ॥५॥ राग-द्वेषाऽवशी जैनो जैनो मोह-पराक्मुखः । स्वात्म-ध्यानोन्मुग्यो जैनो जैनो रोष-विवर्जितः ।।६।। सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तात्मा जैनो नीति-विधायकः । मनोवाकाय-व्यापारे चैको जैनो मुमुक्षुकः ।।७।।
आत्म-ज्ञानी प्रसन्नात्मा सद्ध्यानी गुण-पूजकः । अनाग्रही शुचिजैन: संलश-रहिताऽऽशय: ।।८।। नाऽऽत्मन: प्रतिकूलानि परेपु विदधाति यः ।। स जैनः सर्वलोकानां सेवकाग्र्यः प्रियो मतः ।।९।। परोपकृति-संलग्नो न स्वात्मानमुपेक्षते । युगधर्म-धरो वीरो धार्मिको जैन उच्यते ॥१०॥ वीरसेवामन्दिर, सरसावा ।
-'युगवीर'
बEHLA
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वीतराग-स्तोत्र
(द्वितीय) पिछली किरणमें एक 'वीतरागस्तोत्र' कल्याणकीर्ति आचार्यका प्रकट किया गया था, जो पाठकोंको अच्छा रुचिकर मालूम हुआ । आज उसी नामका एक दूसरा स्तोत्र प्रकाशित किया जाता है, जो हालमें मुझे कानपुरके बड़े मन्दिरसे प्राप्त हुआ है। यह श्रीपद्मनन्दि आचार्यकी सुन्दर कृति है, जिनके और भी कई अप्रकाशित स्तोत्र अपने पास हैं । इसमें वीतरागदेवके स्वरूपका निर्देश करते हुए बार बार यह घोषित किया गया है कि 'जो पुण्यवान हैं वे ही इस धरातलपर ऐसे वीतरागदेवका दर्शन कर पाते हैं ।' दोनों स्तोत्रोंका छंद, पद्यसंख्या और लिखनेका ढंग समान हैं, और इससे ऐसा मालम होता है कि एकके सामने दूसरा रहा है और दोनोंके रचयिता समकालीन भी हो सकते हैं। -सम्पादका
(वसन्ततिलका) स्वात्मावबोध - विशदं परमं पवित्रं, ज्ञानैकमूर्तमनवद्य-गुणैक-पात्रम् । आस्वादिताऽक्षय-सुखोज्वल-सत्परागं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥१॥ उद्यत्तपस्नपन - शोषित - पाप - पहूं, चैतन्याचह्नमचलं विमल विशंकम । देवेन्द्र-वृन्द-महितं करुणालला(या)ङ्ग, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम् ॥॥ जाग्रद्विशुद्ध-महिमाऽवधिमस्त-शोकं, धर्मोपदेश-विधि-बोधित-भव्यलोकम । आचार - बन्धुर - मति जनतासुरागं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥शा कन्दर्प - सर्प - विष - नाशन - वैनतेयं, पापोपहारि जगदुत्तमनामधेयम । संसार-सिन्धु-परिमन्थन-मन्दराऽगं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥क्षा निर्वाण-कम्र-कमला-रसिकं विदम्भ, द्धिप्रणु-मदत-नयाऽमृत-पूर्ण - कुम्भम् । वल्गद्विमोह-तरु-खण्डन-चण्डरागं, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भूवि वीतरागम ||५|
आनन्द - कन्दमुररीकृत - धर्मपक्षं, ध्यानाऽग्नि-दग्ध-निखिलोद्धत-कम-कक्षम । ध्वम्ताऽपवादिगण ध्वान्त-विधोपरागं', पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ॥६।। स्वेच्छोच्छलध्वनि - विनिजित - मेघनाद, म्याद्वादवादिनमपाकृदसद्विवादम । . नि:सीम - संयम - सुधारस - मत्तडागं, पश्यन्ति पुण्य - सहिता भुवि वीतरागम ।।।। सम्यक् -प्रमाण - कुमुदाकर - पूर्णचन्द्रं, मांगल्य - कारणमनन्तगुणं वितन्द्रम । इष्ट-प्रधान-विधि-पोषित-भूमिभाग, पश्यन्ति पुण्य-सहिता भुवि वीतरागम ।।८।। श्रीपद्मनन्दि - रचितं किल वीतराग, स्तोत्रं पवित्रमनवद्यमनाद्यमाद्यम । यः कोमलेन - वचसा विनयादधीते, स्वर्गाऽपवर्ग - कमलाममला वृणीते ॥९॥
इति श्रीवीतरागस्तोत्रं समाप्तम् ।
MMMMMMMMMMMMMMM
__*कानपरकी प्रतिमें यह पाठ 'ध्वस्तायवाजिगणध्वान्तविधायजागं रूपसे उपलब्ध है, जो अर्थसंगतिके sो ठीक न बैठनेसे अशुद्ध जान पड़ता है ।
-सम्पादक
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दक्षिणा भारतके राजवंशोंमें जैनधर्मका प्रभाक
(ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, बी० ए० एल एल० बी० )
क्या उन जैनोंने जो अहिंसाके सच्चे और संस्कृतिकी दृष्टिसे आरविदुवंशके समय तक विशुद्ध
" कट्टर अनुयायी एवं प्रचारक रहे हैं कर्णाटकी ही रहा, अन्तर्गत जैनधर्मके इतिहासका भारतवर्षकी मांस्कृतिक एवं राजनैतिक उन्नतिकी भी अध्ययन करते हुए उक्त धर्मके अनुयायियों द्वारा किये अभिवृद्धि की है ? प्रस्तुत लेखमें इस प्रश्नका आंशिक गये उस योगदानपर भी समुचित ध्यान देना उत्तर तथा उन तथ्योंका संक्षिप्त वर्णन है जो आवश्यक है जो उसने विजयनगर राज्यकी स्थापना कर्णाटक, तेलेगु और तामिल देशोंके अनगिनत के पूर्व दक्षिणी और पश्चिमी भारत के भाग्य निर्माणमें शिलालेखों तथा साहित्यमें उपलब्ध हैं और जिनसे किया । वास्तवमें, प्राचीनकालमें, दक्षिण तथा पश्चिम हमें जैनधर्म द्वारा प्रदत्त उस अपूर्व योगदानका स्पष्ट भारतमें हुए जैनधर्मके अभ्युत्थान और प्रचारको ज्ञान होजाता है जोकि उसने अनेक विभिन्न राज्यों- पूर्वपीठिका बनाते हुए जैनधर्मने विजयनगरकी की और विशेषकर मध्यकालीन हिन्दू राजनीतिकी संस्कृतिके निर्माण और स्थितिमें जो ठोस भाग सर्वश्रेष्ठ महाकृति विजयनगर साम्राज्यकी सफलता लिया उसके उपयुक्त विस्तृत विवेचनसं पाठकोंको और स्थायित्वके हित किया। विवक्षित इतिवृत्त एक यह भली प्रकार अनुभव होजाता है कि जैनोंने भी उस सम्प्रदायका रोचक एवं उत्साह-वर्द्धक इतिहास अन्ततः देशके इतिहास में अपना सुनिश्चित गौरवपूर्ण है जिसने अपनी जन्मभूमि, उत्तरापथसे एक महान स्थान रक्खा है। जैनधर्मकी कतिपय विशेषताओंको दैवी विपत्ति (बारह वर्षका भीषण दुष्काल)के कारण, यदि लौकिक दृष्टिकोणसे देखा जाय तो यह स्पष्ट स्वेच्छा-पूर्वक निष्कासित होकर, कर्णाटक देशमें होजाता है कि यह धर्म गूढ़ तात्त्विक विश्वासोंका श्राश्रय लिया और जो अपने इस अपनाये हुए समूहमात्र नहीं है वरन यह एक ऐसा धार्मिक विश्वास प्रदेश मात्र साहित्य, कला और धमेम ही नहीं, रहा है जिसने एक बड़े अंशम देशकी भौतिक राजनैतिक क्षेत्र में भी अपर्व तेज एवं उत्कर्षको प्राप्त समृद्धिकी अभिवृद्धि की। हुआ। यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि दक्षिण-भारतके दक्षिण भारतमें जैन-धर्म-प्रचारकी सर्वप्रथम कुछ भागोंमें जैनधर्मके कुछ चिन्ह अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक घटना, तीसरी चौथी शताब्दी ईम्वी कालसे दृष्टिगोचर होते हैं और वहाँ पर्याप्त काल तक पूर्वमें, अपने राजर्षि शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य सहित इसने प्रत्यक्ष उन्नति भी की है, किन्तु कर्णाटकको अन्तिम श्रुतकेाल भद्रबाहुका आगमन था। इस इसने सदेव अपना घर समझा है । उक्त प्रान्तीम यह घटनाके पश्चात् उक्त प्रदेशम इस धमेन जीवन धर्म अपने सर्वोच्च उत्कर्ष एवं समृद्धिके दिनोंमें भी संबन्धी प्रायः सर्व ही उपयोगी क्षेत्रोंमें सर्वतोमुखी और अपेक्षाकृत गौणताके युगों में भी जनतासे उन्नति की है। और यदि इसने राजकीय उदारता अत्यन्त प्रेमपूर्ण आदर-सत्कार तथा परम विशुद्ध एवं सम्मानका भी अतिशय उपभोग किया तो निष्ठा प्राप्त करने में कभी भी असफल नहीं रहा है। इसका कारण यह था कि तत्कालीन जैन नेतागण अतः दक्षिण भारतीय जैनधर्मका इतिहास मुख्यतया अपने समयकी गम्भीर राजनैतिक समस्याओं एवं कर्णाटकस्थ जैनधर्मका ही इतिहास है । इसी कारण, आवश्यकताओंके प्रति लेशमात्र भी उदासीन नहीं विजयनगर राज्यके, जोकि अपनी उत्पत्ति और थे । प्रसिद्ध गंगवंशकी स्थापना जैनधर्मके ही
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किरण ८-९]
दक्षिण भारतके राजवंशोंमें जैनधर्मका प्रभाव
३५७
संरक्षकत्वमें, विशेषकर आचार्य सिंहनन्दिके प्रयत्नोंके जैनबुद्धिकी परम कुशल एवं महान सृष्टि होयसल फलस्वरूप, ईस्वी सन्की २री शताब्दीमें हुई थी। राज्य थी (१०वीं शत० ई०)। यहाँ यह स्पष्ट कर अनेक विभिन्न शिलालेखों परसे इस चिरस्मरणीय देना भी असङ्गत न होगा कि जैन गुरुओंने घटनाका विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। गंगनरेश राजनीतिज्ञोंकी राज्य-संस्थापनादिमें जो सहायताअविनीत कोंगणीवर्म (५वीं शत० ई०) जैन भक्त था की वह इस उद्देश्यसे नहीं की कि उनके और उसका उत्तराधिकारी दुर्विनीत तो उच्चकोटिका धर्मको अथवा उन्हें राज्याश्रय या राज्यकी सहायता जिनधर्मी था, उसके साथ महत्वपूर्ण साहित्यिक प्राप्त हो जायगी । दक्षिण देशके विभिन्न जैनधार्मिक कृतियोंका भी सम्बन्ध है । आचार्य देवनन्दि केन्द्रोंसे, विशेषतः कर्णाटक प्रान्तमें, उनमेंसे पूज्यपाद उसके गुरु थे। उत्तरकालीन गंगनरेशीम कितने ही ऐसे अत्यन्त आश्चयजनक प्रतिभाशाली, भी महाराज मारसिंह जैसे कितने ही जैनधर्मके असाधारण-बद्धि-सम्पन्न महाप्राण विद्वानोंका संबंध परमभक्त राजा हुए हैं। उनकी पुण्य-स्मृति अनेकों था जिन्हें जन्म देनेका सौभाग्य भारतवर्षको कभी मन्दिरों, वसतिकाओं आदिके रूपमें आज भी भी हुआ है। जैनधर्मने होयसल वंशके आश्रयमें अवस्थित है।
भी भारतकी स्थापत्य एवं कला-सबंधी श्री शोभाकी गंग राज्यशक्तिके पतनारंभसे बहुत पूर्व ही विशेष रूपसे अत्यधिक वृद्धि की है । होयसल वंशजैनधर्मको कदम्ब तथा राष्ट्रकूट, इन दो अन्य की स्थापना-सम्बन्धी घटनावलीका उपलब्ध विस्तृत महान राज्यवशीसे संरक्षण प्राप्त हो चुका था; और विवेचन कर्णाटकी इतिहासके विद्यार्थियोंके लिये
कि उनके दानपत्रादिकोंसे पता चलता है, इन बहुत ही उपयोगी है। वंशोंके अनेक राजागण जैनधर्मके पूर्ण पक्षपाती उपयुक्त राज्यवंशोंके अतिरिक्त, गंग एवं राट्रकूट अथात् हिमायती थे । राष्ट्रकूटकालमें सामान्यतः नरेशांक कितने ही सामन्त सरदार तथा सान्तर, सर्वत्र और विशेषकर अमोघवर्ष प्रथमके समयमें कांग्लव, चंगल्वा, सेन्द्रक आदि अभिजात वंशोंमें जैनधर्मने जिनसेन स्वामी, महावीराचार्य आदि उत्पन्न उनके प्रान्ताधिकारी जैनधर्मके अनन्य भक्त अनेकों लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों एवं साहित्य- थ । इस बातका ज
थे । इस बातका जनमाधारणपर भी अत्यन्त काराको जन्म दिया। सम्राट इन्द्र चतुर्थ जैसे राण- श्रेयस्कर प्रभाव पड़ा, और जैनधर्मको जो सब कूट नरेश सुश्रद्धालु जनोंकी भांति मल्ल
देखना-पूर्वक
ओरसे ऐसी व्यापक विशद समथना तथा सहायता मरणको प्राप्त हुए (सन् ९८२ ई० में) । चालुक्य मिली उसका भी आंशिक श्रेय इसी बातको है। जब वंशसे भी जैनधर्मको प्राचीनकालसे ही अत्यधिक कभी केन्द्रीय शक्ति निबल भी हो जाती थी तो प्रश्रय मिला । प्रसिद्ध आइहोले शिलालेख (सन् प्रान्तीय अध्यक्षोंकी सहायता और भक्तिके कारण ६५४ ई०) से स्पष्ट है कि सम्राट पुलकेशी द्वितीय उसका जैनधर्मकी वस्तुस्थितिपर कोई विशेष उक्त लेखके जैन रचयिता रवीकीतिका तथा जैन चिन्तनीय प्रभाव नहीं पड़ पाता था। इसमें भी धर्मका हृदयसे आदर करते थे। उनके वंशजोंमें भी सन्देह नहीं कि इस सदाश्रय-प्राप्तिका बहुत कुछ श्रेय जैनधर्मकी प्रवृत्ति थी। सन् ९९३ ई० में पश्चिमी उन प्रख्यात विश्रुत जैन गुरुओंको है जिनका अब चालुक्य सम्राट तैलपदेव आहवमल्लने जैनधर्मा- पर्याप्त विस्तृत इतिवृत ज्ञात होता जारहा है। नुयायी कन्नड महाकवि रनको 'कविचक्रवर्ती' उस युगक कार्यचेता विशिष्ट जैन पुरुषोंके कार्यों की उपाधि प्रदान करके समादृत किया था। से जैनधर्मकी वह प्रेरक जीवनी शक्ति, जो कि उसके इस युगमें अनेक विद्वान जैनगुरु ख्यातिको अन्दर निहित रही है और जिसका उसने प्राप्त हुए हैं। गंगवंशकी स्थापनाके पश्चात्- कर्णाटककी मूमिमें तथा उसके च₹ओर प्रकाश किया
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अनेकान्त
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था, स्पष्टतया प्रकट हो जाती है । जैनधर्मको अमूल्य वितरण किया ! माललदेवी, पम्पादेवी, पश्चाद्वर्ती सन्ततिद्वारा प्रदत्त श्रेय विशेषतः इस जक्कनब्बे, सान्तलदेवी आदि कितनी ही उक्त युगीन बातका है कि इसने देशको ऐसे व्यक्ति प्रदान किये अन्य जैन देवियोंके कार्यकलाप भी अत्यधिक कि जिन्होंने इस धर्मको एक कार्यकर दर्शनके रूपमें प्रभावपूर्ण एवं रोचक हैं। परिणत कर दिया और उनकी वह अहिंसा जो उनके उस कालमें जैनधर्म केवल केन्द्रीय तथा सामन्ती महान धर्मका मूलमंत्र थी उनके देशकी स्वतन्त्रता राजवंशोंमें सीमित अभिजातमान्य धर्मके रूपमें ही एवं उद्धारमें बाये बाधक होनेके एक ऐसा सहायक नहीं फला फूला, किन्तु जनसाधारण भी जिनधर्मकी कारण सिद्ध हुई किजिसके बिना धार्मिक अथवाराज- परिधिमें बहुलताके साथ आये और रहे । जैन नैतिक किसी भी क्षेत्रमें किसी प्रकारकी भी स्वाधीनता नेताओंने मध्य श्रेणीके सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग सम्भव नहीं हो सकती थी। वीरमार्तण्ड चामुंडराय वीर बणजिग तथा अन्य व्यापार प्रधान जातियोंकी तथा महासेनापति गंगगजके युद्धक्षेत्र सम्बन्धी भी निष्ठा प्राप्त करके अपने दार्शनिक उपदेशोंका वीरतापूर्ण कार्योंके सूक्ष्म विवेचनके साथ ही साथ व्यवहारिक पहलू भी भले प्रकार चरितार्थ कर दिया, उनके परमनिष्ठासम्पन्न धार्मिक कृत्योंका विस्तृत कारण कि इन लोगोंकी आर्थिक सहायता अनेकान्तविवरण अतिशय रोमाञ्चकारी है, और विशेषतः मतके हितसाधनमें अनुमानातीत महत्वकी थी । इस कारणसे भी कि उक्त दोनों ही धर्म-कर्म-शूगेका इसके अतिरिक्त, उन्होंने सर्वसाधारणकी निष्ठा एवं सम्बन्ध श्रवण बेलगोलम्थ विध्यगिरिकी प्रात:- भक्ति प्राप्त करनेके लिये जो सर्वाधिक व्यावहारिक स्मरणीय उस अद्भुत विशाल मृति तथा उसके साधन अपनाया वह उनकी आहार, औषध, अभय चारों ओर निर्मित विविध भव्य भवनादिकांस रहा और विद्यारूप चतुर्विध दानप्रणालीसे सम्बन्धित है। आदर्श वीर शान्तिनाथ, बप्प, एच, विटिमय्य, है, क्योंकि अखिल मानव समाजकी प्राथमिक मूल हल्ल, बूचिराज आदि अन्य सुभट सेनानी भी असभ्य आवश्यकताएँ इन चारोंमें ही निहित हैं। धनिकवगरूक्ष योद्धा-मात्र नहीं थे वरन वे सब परम सुसंस्कृत पर इन चार प्रकारके दान में प्रवृत्त होते रहने के व्यक्ति थे और अवश्य ही उनका समकालीन समाज लिये जोर देते रहनेके परिणामस्वरूप जनसाधारणउनकी ओर सभिमान दृष्टि से देखता रहा होगा, का जैन धर्मके प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक एवं उनपर गर्व करता होगा।
___अनिवार्य था । वस्तुतः ९वीं से १४वीं शताब्दी तक कितनी ही प्रख्यात जैन देवियांने धर्म रक्षा एवं जैनधर्म उनमें दूतगतिसे प्रचारको प्राप्त हुआ । प्रभावनाके कार्यों में नेतृत्व किया। उन्होंन मन्दिर अनगिनत उपलब्ध अभिलेखीय प्रमाण इस बातके बनवाय, देव-प्रतिमायें निर्माण कराई, धामिक पर्वो साक्षी हैं कि जैनधर्म, उसकी धार्मिक क्रियायें,
और उत्सवोंका आयोजन किया, साहित्य और विधिविधान, नियमाचार इत्यादि समाजके विभिन्न कलाको प्रोत्साहन दिया, दानशालाएं स्थापित की, वर्गों द्वारा बहु आदरको प्राप्त थे। तपश्चर्या की और समाधिमरण भी किये । भारतीय कर्णाटकके भीतर और बाहिर कितने ही जैन साहित्यके इतिहासमें यह एक अद्वितीय, चिरस्मरणीय सांस्कृतिक केन्द्र थे, जिनसे कि जैनधर्मका तेजः एवं विशेष ध्यान देने योग्य घटना है कि सेनापति प्रकाश चहुँ ओर फैल रहा था। इनमेंसे कुछ अब मल्लपकी पुत्री और वीर नागदेवकी भाया विदपी तक भी अवस्थित है, किन्तु जो जैन केन्द्र कालान्तरअत्तिमम्बन महाकवि पोन्नकृत शान्तिपुराणकी एक में अजैनोंके हाथों पड़ गये उनमें केवल खण्डित सहन हस्तलिखित प्रतियाँ स्वयं अपने व्ययस तैयार जैन मूर्तियाँ तथा इधर उधर बिखरे पड़े भग्न करवाई और उन्हें उस १८वीं शताब्दी ईस्वी में स्थापत्यादिके प्रस्तर खण्ड ही दशमें एक समय जैन
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धर्मकी अति सुसमृद्ध दशा थी इस बातकी मूक देशीपन ही था। उनके द्वारा तामिल, तेलगु तथा साक्षी देते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र, श्रवण- कन्नडी भाषाकी कितने ही सर्वाधिक प्रख्यात प्रथमबेलगोल, कोप्पण, हुम्मच, बनवासी, वन्दिनिके, वर्गीय रचनाओंकी उत्पत्ति हुई । इनमेंसे विशेष द्वारसमुद्र आदि थे। जिन व्यक्तियोंने इन स्थानोंकी विश्रुत कई साहित्यकारों और उनकी अपूर्व रचनाओंयात्रा और दर्शन किये हैं उन्हें उपर्यक्त कथनकी के विवरण जानने योग्य हैं। केवल नैतिक एवं सत्यताका भले प्रकार अनुभव हुए बिना नहीं चारित्र-सम्बन्धी उपदेशों तथा साहित्यके रूपमें ही रहा है।
नहीं किन्तु कला, स्थापत्य और लोकोपकारी सङ्गमकालके प्राचीन तामिल साहित्य पर भी संस्थाओंके क्षेत्रोंमें भी दाक्षिणात्य संस्कृतिके लिये जैनधर्मका प्रभाव लक्षित होता है और उसमें जैनधर्म- जैनधर्मका दान सर्वोच्च महत्वका है और उत्तरकालमें संबंधी अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं । तामिल देशमें अन्य सम्प्रदायवालोंने उन्हींका अनुकरण-अनुसरण जैनधर्मके विशेष प्रचारका श्रेय कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, किया है। पूज्यपाद, अकलङ्क, कनकसेन, गुणनन्दि आदि हिन्दू संस्कृतिको जैनियोंकी जो सबसे बड़ी देन जैनाचार्योंको है । इन प्रातः स्मरणीय गुरुओंके द्वारा रही है वह है धार्मिक सहिष्णुता, और एक बड़े धार्मिक एवं दार्शनिक क्षेत्रमें किये गये महान कार्योंने अंशमें उसका श्रेय उनके अहिंसा तथा अनेकान्त तामिल देश और कर्णाटक प्रान्तके बीच घनिष्ट सिद्धान्तको है। जैनियोंकी उस निष्ठा और कट्टरताके सम्पर्क स्थापित कर दिया था । द्रविड़ या मिलसंघ लिये जिसके साथ वे अपने धार्मिक सिद्धान्तोंपर नामका एक पृथक् जैन संघ ही स्थापित होगया आरूढ़ रहे, और उस आग्रह, दृढ़ता एवं पटुताके था । सुदूर दक्षिणमें आज भी कितने ही ऐसे जैन लिये जिसके साथ वे धार्मिक वादविवादोंमें अपने सांस्कृतिक अवशेष अवस्थित हैं जो अत्यन्त महत्व- विरोधियोंका मुक़ाबला करते थे और उन्हें पूर्ण एवं दर्शनीय हैं।
परास्त करते थे-चाहे कुछ भी कहा जाय, किन्तु ___ आंध्रदेशमें जैनधर्मका प्रचार मौर्यकालके पूर्वसे इस बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने ही लक्षित होने लगता है। सम्राट महामेघवाहन धार्मिक सहिष्णुताके असूल (सिद्धान्त)का भारतवर्ष के खारवेल जैनधर्मका परम भक्त था । आंध्रदेशमें किसी भी अन्य जाति या सम्प्रदायकी अपेक्षा कहीं सर्वत्र जैनधर्मके अनेकों अवशेष आज भी अवस्थित अधिक सत्यता. यथार्थता एवं सफलताके साथ हैं । उस युगमें, आंध्र, कर्णाटक तथा उसके इर्दगिर्द पालन किया है। परन्तु जैसे जैसे समय बीतता गया कितने ही छोटे बड़े जैन सांस्कृतिक केन्द्र थे। उत्कृष्ट कोटि के जैन नेताओंका अभाव होता गया।
पीछे आने वाली पीढ़ियोंके लिये जैनधर्मकी शैवों और वैष्णवोंने, विशेषकर तामिलदेशमें, जैनों एक सबसे बड़ी देन यह रही है कि इसने कर्णाटक, का ही पदानुसरण करते हुए अपने २ सम्प्रदायको तामिल और आंध्र इन तीनों ही प्रदेशोंके भाषा- सुदृढ़रूपस सङ्गठित कर लिया । अन्तर इतना ही था साहित्यकी अत्यधिक अभिवृद्धि की है। जैन गरुओंने कि उनके इस सङ्गठनका एक भारी उद्देश्य जैनियोंका जोकि इन तीनों ही देशोंके बौद्धिक संरक्षक रहे हैं, ही विरोध करना रहा, फलनः जैनोंके साथ उन्होंने उनकी देश भाषाओंको अत्यधिक तत्परताके साथ बड़ेबड़े दुर्व्यवहार किये, और तिरूज्ञानसम्बंदरके अभ्यास किया, और उनमें देशके लिये स्थायी महत्व- समयमें तो ये दुर्व्यवहार चरम सीमाको पहुँच गये। के अनेकों महान ग्रन्थोंकी रचना की। यद्यपि प्रायः इससे अधिक खेदजनक बात अन्य नहीं हो सकती सर्व ही प्राचीन जैन लेखक संस्कृतभाषाके उद्भट कि अपने प्रतिद्वन्द्वी मतों, विशेषकर जैनधर्मके प्रति विद्वान् थे तथापि उनकी रचनाओंका मूलमन्त्र सहिष्णुता प्रदर्शित करनेमें दक्षिण भारतके हिन्दू
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इतने अनुदार सिद्ध हुए कि उन्होंने वैरसाधन और आगामी कई शताब्दियों तक अपना सर्वोपयोगी बदला लेनेका ऐसा प्रतिहिंसात्मक ढङ्ग अपनाया जो अस्तित्व बनाये रखनका अवसर प्रदान किया । कि हिन्दू जातिके लोकप्रसिद्ध सत्कारशील स्वभावके पूर्वकालमें, जैनधर्मने अनेकबार राजनैतिक जीवनका नितान्त विरुद्ध था। परिणामस्वरूप, जैनधर्मके प्रति पुनरुत्थान किया था और इस प्रकार हिन्दुधर्मको राजनैतिक संरक्षण और आश्रयमें कमी होती गई, अपनी स्थिति सुसंमत बनाये रखने और सङ्गठित वैष्णवमतका बल बढ़ता गया, कितने ही जैनसामन्त करनेकी सुविधायें प्रदान की थीं। अब जैनधर्मकी
ने भी मतपरिवर्तन कर लिया और अन्तम वैसी स्थिति थी, अतः सामान्यतः हिन्दुधमानुयायी कितने ही प्रधान जैन व्यापारी भी वैष्णव होगये। विजयनगर नरेशोंने उसके उक्त व्यवहारका परिशोध इस प्रकार विजयनगर साम्राज्य स्थापनाकी संधि- किया । जैनधर्म और वैष्णव धर्मके अनुयायियोंके वेलामें दक्षिणदेशस्थ जैनधर्मको यह भारी धक्का बीच एक विकट धर्मार्थिक विवाद ा उपस्थित लग चुका था।
हुआ था। उस अन्तःसाम्प्रादायिक द्वन्दमें महाराज विजयनगर राज्यकी स्थापनाके समय (सन् १३४६ हरिहररायन जो निणय दिया वह निष्पक्ष एवं ई०) जैनधमकी अतिविषम स्थिति थी वह भग्नाशा न्याययुक्त होनेके साथ ही साथ आदर्श और
और भग्नोद्यम होगया था, किन्तु अभी भी पराभूत उदाहरणीय है। उक्त निर्णयने यह स्पष्ट कर दिया नहीं हुआ था। अपने प्रधान एवं सर्वोच्च आसनसे, कि नवीन साम्राज्य के इन नवीन नरेशोंके हाथों में जिनपर कि तामिल, तेलेगु और कर्णाटक प्रान्तोंमें जैनधर्मका भविष्य सुरक्षित रहेगा । हलबेयडु वह स्थित रहता आया था, दृढ़तापूर्वक शनैःशनैः उसे नामक स्थानमें एक दूसरा वैसा ही विवाद उत्पन्न च्युत कर दिया गया और बलात् द्वितीय अर्थात हो गया था, राज्य द्वारा उसका भी निर्णय दोनों ही गौणस्तरपर रहनेके लिये बाध्य कर दिया गया; पक्षोंके लिये सन्तोपकर सिद्ध हुआ। विजयनगरकी विशेषकर कर्णाटकमें जहाँसे निष्कासित होनेका एक साम्राज्ञी, महाराज देवरायकी पट्टरानी भीमादेवी उसके लिये कोई उपाय ही नहीं था। उस प्रदेशमें स्वयं जैन थीं, राज्यवंशकं अन्य कितने ही व्यक्ति उसकी जड़ें गहरी जमी हुई थीं, वह उसका घर ही भी जिनधर्म भक्त थे । उस युगका सर्वाधिक जो था । किन्तु यदि स्याद्वादमतकं अनुयायियोंके विख्यात योद्धा सेनापति इरुगप्प, जो जैन धर्मालिये यह काल पर्याप्त भयहेतुक था तो देशक इति- नुयायी था, अपने स्वामीका अनन्य भक्त एवं परम हासमें, राजनैतिक दृष्टिसे भी अत्यन्त विषम था। कत्तव्यशील व्यक्ति था । उसका कार्यकाल एक गणराज्य संस्थापक आचार्य सिनन्दि अथवा विश्वासी वीर सेनापति, कुशल इजीनियर, एवं होयसल राज्यस्थापक श्राचार्य सुगतवर्धमानदेव जैसे सफल राजप्रतिनिधि (वायसराय) के रूपमें ५९ वर्ष उपयुक्त कुशल नेताओंके अभावमें इस समय देशकी पर्यन्त चला । इरुगप्पके बड़े भाई सेनानी वीर अति जटिल समस्याओंको समझने और सुलझाने बैचप्प भी कट्टर जैन थे। इस युगमें जैनधर्म, स्वयं वाला कोई व्यक्ति न था। प्राचीन गङ्ग तथा अन्य विजयनगरकी अपेक्षा साम्राज्यके प्रान्तीय केन्द्रोंमें शासकोंके सन्मुख जो समस्याएँ थीं उनसे भी अधिक प्रधान रहा। और प्रान्तीय अधिकारियोंमें
अधिक दुस्साध्य कठिनाइयोंसे अभिभूत जनताके इस दृष्टि से, सर्वाधिक उल्लेखनीय व्यक्ति चंगल्व लिये इस समय जैनधर्मके लिये कोई उपयुक्त सन्देश नरेश वीर मंगरस था। उस युगके सर्वप्रधान न था ।
जैनगुरुवादी विद्यानन्द थे । जैनधर्मने अब यह ऐसी स्थितिमें, विजयनगर राज्य जैनधर्मके १ देखिये हमारा लेख-'एक ऐतिहासिक अन्तःसंरक्षकके रूपमें आ उपस्थित हश्रा और उसे साम्प्रदायिक निर्णय। -अने. वर्ष ८ कि. ४-५ पृ. १६६
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अनुभव कर लिया था कि उसका भविष्य आगे २ कलापूर्ण दर्शनीय मानस्तम्भोंके निर्माणद्वारा देशकी जनमाधारणके साथ ही सन्नद्ध है। इसके प्रधान महती सांस्कृतिक अभिवृद्धि की । दुर्दिनोंके बावजूद गढ़ उम समय श्रवणबेलगोलके इर्द गिर्द तथा भी, वादी विद्यानन्द, बाहुबलि, केशववर्णी भास्कर, तुलुवदेशमें थे। कनकगिरि, आवलिनादु, उद्धरे, कल्याणकीर्ति जैसे अनेक विद्वान् लेखकोंने ज्ञानकी हुलिगेरे, गेरुसोप्पे, मृडवद्री, बनवासी, कारकल विविध शाखाओं पर अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं आदि ऐसे तत्कालीन जैन केन्द्र थे जहाँ पर जैन- द्वारा तत्कालीन साहित्यका संवर्धन किया है। धर्मको स्थानीय सरदार सामन्तों तथा जनसाधरण यह लेख डा० भास्कर अानन्द सालतोर कृत का प्रश्रय, सहयोग एवं अत्यधिक निष्ठा प्राप्त थी।
Mediaeval Jainism नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थका इनमेंसे कितने ही स्थानोंमें विशाल, उत्तुङ्ग,
सारांश है । इस ग्रन्थमें विशेषकर शिलादि अभिलेखीय शोभनीक जिनालय आज भी अवस्थित हैं और वे
अाधारोंके बहुल प्रयोग द्वारा तिपाद्य विषय, अर्थात् जैनधर्मके उन यशस्वी कीर्तिकर प्रशस्य दिनोंको
मध्यकालीन दक्षिणमं, विशेषतः विजयनगर साम्राज्यमें यशोगाथा मुक्तकण्ठसे घापित करते हैं । किन्तु
जैनधर्मकी स्थिति, प्रभाव, प्रचार, कार्यकलापादिका जिन्होंने हिरयंगदि (कारकल ) आदिको देखा है
सहानुभूतिपूर्ण किन्तु निष्पक्ष वैज्ञानिक विस्तृत विवेचन वे उसके उन दुर्दिनोंकी याद किये बिना भी नहीं
है, और यद्यपि, जैसा कि उक्त ग्रन्थकी विद्वत्तापूर्ण रह सकते जिनका कि पिछले जमानेमें जैनधर्मको
समालोचना (Pub. New. Ind. Ant-Vol II, सामना करना पड़ा था। जैनधर्म अब एक राज
No.2 P. 128) में डा. ए. एन. उपाध्येने भी नैतिक शक्ति नहीं रह गया था । वह प्रच्छन्न
प्रकट किया है, उसमें वर्णित अनेक बाते वियादापन्न परावृत्त होकर पृष्ठभूमिमें रहता हुआ मात्र शान्ति
हैं, कितनी ही भ्रमपूर्ण भी हैं और कुछ एक पर अधिक एवं ज्ञानकी उपासना और साधनामें लीन
समुचित प्रकाश डाला जा सकता था, तथापि ग्रन्थके होगया था।
महत्वमें कोई कमी नहीं आती, प्रतिपाद्य विषयपर यह विजयनगर साम्राज्यमें भी जैनोंने अपने अब तककी एक मात्र प्रमाणिक रचना है। सुन्दर उत्तुङ्ग जिनालयां, भव्य विशाल मूतियों एवं
-लेखक
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युग-गीत लेखक -.पंडित काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित'] श्राज युगके गीत गा कवि, आज युगके गीत गा ! शान्तिके शीर्षक लिखे तो क्रान्तिके लिख छन्द नीचे । भावनाके मधुर स्वरसे भ्रान्तिको कर दूर--पीछे ! बदल दे जो निन्दगी इस हिन्दकी वो गीत गा ।
आज युगके गीत गा !! सफलता जिसके लिये स्थित विजयकी माला संजोये । शाक है, वह आज भी गृह-कलहक विप-बीज बाय ! छाछ - मन्थनसे भला हा प्राप्त भी नवनीत क्या ?
आज युगके गीत गा !! आज बन्धन - मुक्त होनेकी लगी है होड़ जगमें , आज मरमिटना सिखाता खोलता यह खून रगमें ! जल उंट ज्वालामुखी , हो भस्म सारा भय अहा !
आज युगके गीत गा !! चिर - पतित चिर - दलित प्राणी, स्वत्वकी ललकार करते ! 'जियेग या मरेंगे' कंवल यही हुंकार भरते ! मातृ - भूमीके लिये निज प्रागकी भी प्रीत क्या ?
आज युगक गीत गा !! है हमें निश्चय, निकट ही हिन्द यह आज़ाद होगा । किन्तु कुछ बरबादियोंके बाद ही आबाद होगा । ये गुलामीके बुरे दिन एक पलमें बीत जा !
आज युगके गीत गा !! भीम-बलिक आज कवि, वे राग भैरव फिर जगा दे ! धधकती चिनगारियोंसे वीरताकी आग जागे !! शक्ति - साहससे भरे विद्रोहके ही गीत गा !
. आज युगके गीत गा !! A BHEJOSHearate RUSHERSairatnagar
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प्रतिष्ठासारका रचनास्थल [ लेखक-क० भुजबली शास्त्री, विद्याभपण]
यहाँपर प्रतिष्ठासारसे जयसेन अथवा वसुबिन्दु' उस जमानेमें उत्तर कन्नड तौलव देशमें ही गभिंत के प्रतिष्ठासारका प्रयोजन है, जिसकी रचना, था और वहाँपर दीर्घकाल तक जैनोंका ही शासन रचयिताके कथनानुसार दक्षिण दिशामें स्थित कुंकुण रहा । बनवासि, भटकल एवं गेरूसोप्पे यहाँके (कोंकण) देशमें, सह्याद्रिके निकट रत्नगिरिके ऊपर प्रधान विश्वविख्यात प्राचीन जैन राजधानियाँ रहीं। भगवान् चन्द्रप्रभके उक्त चैत्यालयमें, जिसे लालाट्ट बल्कि जैनोंका आदिम पवित्र ग्रन्थ 'षटखण्डागम राजाने अर्जित कराया था, प्रतिष्ठा-कर्य-निमित्त प्रातःस्मरणीय आचार्य भूतबलिके द्वारा बनवासिमें गुरुदेवकी आज्ञासे प्रतिज्ञापूर्त्यर्थ सिर्फ दो ही दिनमें सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया था जिस पवित्र स्थानकी गई थी।
को वर्तमान जैन समाज सर्वथा भूल गया है। यह __ अब हमें देखना है कि दक्षिण दिशामें स्थित प्रान्त केवल राज्यशासनकी दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं उपर्यक्त कुंकण देश एवं सह्याद्रिके निकटवर्ती श्रीरत्न- है, किन्तु गुरुपीठकी दृष्टिस भी। सोदे (सधापर) गिरि कौनसा है । मेरे ख्यालसे बम्बई प्रान्तर्गत बिलांग (श्वेतपुर), हाडहल्लि (सङ्गीतपुर) आदि वर्तमान रगिरि जिलेमें अवस्थित, रत्नगिरि ही स्थानाम उस जमानेम बड़े-बड़े सुदृढ जैनमठ भी पूर्वोक्त रत्नगिरि होना चाहिये। यह सह्याद्रिके समीप
विद्यमान थे। है भी। वस्तुतः प्राचीनकालमें उक्त रत्नगिरि कुंकुण
यहाँपर एक उल्लेखनीय बात यह है कि इस या कोंकण देशमें ही शामिल था। यद्यपि इस समय
प्रान्तमें महारानी चेन्नभैरवदेवी, और भैरवदेवी जैसी वहाँपर भगवान श्रीचन्द्रप्रभका कोई चैत्यालय नज़र
वीरांगनाओंने भी शासनसूत्रको अपने ही हाथमें नहीं आता। बहुत कुछ सम्भव है कि अन्यान्य स्थानों लेकर दीयकाल तक सुचारुरूपसे राज्य किया था। के चैत्यालयोंकी तरह यह चैत्यालय भी जैनांके एक जनश्रुति है कि विजयनगरके राजाओं (ई० सन प्रमादसे अन्य धर्मावलम्बियोंके द्वारा ले लिया होगा। १३३३-१५६५) ने ही कणाटकम गेरुमोप्पेके जैन पूर्वमें वर्तमान बम्बई प्रांतान्तर्गन बीजापुर, बेलगाम,
राजवंशको उन्नत बनाया था। खैर, एक तो यह धारवाड़ तथा उत्तर कन्नड आदि जिलोंमें जैनोंका
विषयान्तर है, दूसरी बात यह है कि इस छोटेसे बहुत जोर था।
लेखमें इस प्रान्तकं महत्वको सुपाठकोंके समक्ष
उपस्थित करना सहज नहीं है। इसके लिये एक १ वसुबिंदुरिति प्राहुम्तदादि गुरवो यतः ।
स्वतन्त्र पुस्तक ही अपेक्षित है, जिसमें भटकल, जयसेना पराख्यां मां तन्नमोस्तु हितपिणाम् ।।६२४।। गेरुसोप्पे, श्वेतपुर, सुधापुर आदि कुल स्थानोंका २ श्रीदक्षिणे कुङ्कण (कोकण) नाम्निदेशे,
महत्वशाली अखण्ड इतिहास अन्तभुक्त हो। सत्वादिणा संगतसीम्नि पते ।
अब यहाँपर एक प्रश्न उठता है कि ग्नागरिके श्रीरत्नभद्रोपरि दीर्घचैत्यं
ऊपर भगवान चन्द्रप्रभ उपर्युक्त उन्नत चैत्यालयको
बनवाने वाला वा जीर्णोद्धार कराने वाला लाला लालाहराज्ञा विधिनोर्जितं मत् ॥६२४|| तत्कायमुद्दिश्य गुरोरनुज्ञामादाय कोलापरवासिहर्षात । राजा' तथा उसका वंश कौनसा है। पर्याप्त साधन दिनद्वये संलिखितः प्रतिज्ञापृर्थमवं तसंविधति(तं )||६२५ १'लालाराजा विधिनार्जितं मत'
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की अनुपलब्धिमें इस समय राजाका पता लगाना तो यहाँपर और एक बातका उल्लेख कर देना अशक्य है । हाँ, स्थूलत: वंशका पता लगाया आवश्यक है । वह यह है कि प्रशस्तिगत ९२५में जासकता है । यद्यपि 'लाला' शब्द । अगर यह शुद्ध पद्यान्तर्गत द्वितीय चरणके अन्त में 'कोलापुरवासिहो) के श्रवणमात्रमे विज्ञ पाठकोंका ध्यान सहसा हर्षात' यह एक शब्द है । यद्यपि इस समय इसका राष्ट्रकूट, रट्ट एवं लाट राजवंशकी ओर जाना मर्वथा सम्बन्ध ठीक-ठीक नहीं बैठता है। फिर भी हमें स्वाभाविक है। पर मेरा अपना मत है कि गट्रकूट इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उपर्युक्त चैत्यालय
वशका अपक्षा 'लाला वंशका सम्बन्ध प्रतिष्ठा या 'प्रतिष्ठासार' के रचयिता जयमेनसे इसका लाटवंशसे जोड़ना अधिक सुसङ्गत होगा। क्योंकि अवश्य मम्ब ध है। इसका निर्णय तो 'प्रतिष्ठासार' इतिहाससे यह पुष्टि होती है कि पूर्वम लाटमें कोंकण की शुद्ध प्रतिकी प्राप्तिसे ही होसकता है। देश भी शामिल था। प्रन्थ रयिताने ग्रन्थ-प्रशम्निमें अपनको आचार्य
अब रही साहित्यिक दृष्टिसे ग्रंथके महत्वकी कुंदकुंदका अपशिष्य लिखा है । परन्तु जयसेनको
बात । श्रीयुत् पं० परमानन्द जी शास्त्री, सरसावाके समयसारादि ग्रन्थोंक र यता आचार्यपुङ्गव कुंदकुंद
शब्दोंमें ही "इस प्रतिष्ठापाठको देखनेसे ग्रन्थ कोई
महत्वशाली मालूम नहीं होता, और न उसमें प्रतिष्ठाका समकालीन मानना युक्तिसङ्गत नहीं है । कुन्दकुन्द जयसेनके साक्षात् गुरू नहीं हो सकते । हाँ, परम्परा
सम्बन्धी कोई खास वैशिष्ट्य ही नज़र आता है।
भाषा भी घटिया दर्जेकी है जिससे ग्रन्थकी महत्ता गुरु स्वीकार करनेमें कोई आपत्ति नहीं है । परम्परा
एवं गौरवका चित्तपर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। शिष्य होनेपर भी इस प्रकार लिखना कोई अनोखी
इस कारण यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह प्रवचनबात नहीं है। इस तरह के उदाहरण जैन-साहित्यमें
सारादि प्राभृत ग्रन्थोंक कर्ताक शिष्य नहीं हैं, अनेक उपलब्ध होते हैं।
किन्हीं दूसरे ही कुन्दकुन्द नामके विद्वानके शिष्य १ 'कन्नड नाडिन चरित' (प्रथम भाग) पृष्ठ ६५ ।
होसकते हैं।" २ कुन्दकुन्दापशिष्येण जयसेनेन निर्मितः । पाठोऽयं सुधियां सम्यक कर्तव्यायास्तु योगतः ॥२३॥ १ अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३,४,५ ।
पह।
विलम्बका कारणा गत किरणमं दी हुई आवश्यक सूचनाके अनुसार अनकान्तका यह वर्ष इस प्राषाढ़में पूरा होजाना चाहिय था । परन्तु श्रीवास्तव प्रसके भारी गैरजिम्मेदाराना रवैयक कारण कितने ही अर्से तक ता मैटर उसके पास बिना छप ही पड़ा रहा और बादको उसने छापनेसे साफ इनकार कर दिया । तब दूसरे प्रेसके लिये देहली, लखनऊ आदि कोशिश की गई और इसमें कितना ही समय निकल गया । आखिर सहारनपुर के ही रॉयल प्रिंटिङ्ग प्रससं, जो कि सबसे अच्छा स्थानीय प्रेम समझा जाता है, मामला स्थिर हुआ और उसे १० मईको मैटर देदिया गया । १८ जून तक इस संयुक्त किरणकं प्रकाशित होजानेका निश्चय था, परन्तु दुर्भाग्यसे कुछ समय बाद ही प्रेमकी मशीन खराब होगई और उसकी दुरुस्तीमें काफी समय लग गया। इसीसे यह किरण इतने विलम्बके माथ जुलाईके शुरूमें प्रकाशित होरही है, इसका हमें भारी खेद है ! परन्तु मजबूरीको क्या किया जाय ! आशा है प्रेसकी योग्य व्यवस्थासे आगे विलम्बको अवसर नहीं मिलेगा। इस वर्षकी तीन किरणें अवशिष्ट हैं, उनके प्रकाशित होते ही नये वर्षकी योजना पाठकोंके सामने रक्खी जायगी।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता
अनेकान्तको सहायता गत किरण (६-७) में प्रकाशित सहायताके बाद गत किरण (६-७) में प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवान्दिरको सदस्य फीसके अलावा जो अनेकान्तको जो सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमशः निम्न प्रकार है, प्रकार है, और इसके लिये दातार-महानुभाव जिसके लिये दातारमहानुभाव धन्यवादके प्राप्त हैं:- धन्यवादके पात्र हैं :१००) ला० कपूरचन्दजी जैन रईस, कानपुर (सफर ५) ला० मिश्रीलाल पद्मकुमारजी जैन सौगानी,
खर्चकी सहायतार्थ श्राग्रहपूर्वक प्रदान )। हाथरस (विवाहके उपलक्षमें मार्फत ला० सुगनन्द ५) बाबू कबूलसिंह दुनीचन्द जैन साढौरा जिला गंगवाल लखनऊ)।
अम्बाला (पुत्र-विवाह की खुशीमें )। ५) ला० राजाराम महावीरप्रसादजी जैन मगरौनी . ४४||) बा० जयन्तीप्रसादजी जैन, न्यू देहली।
जि० ग्वालियर (चि० पुत्र नेमीचन्द्र के विवाहो५J लागिरीलालजी जैन, मुजफ्फरनगर (चि० पलक्ष में)। ___ पुत्र विमलप्रसादके विवाहकी खुशीमें। २) बाबू मनोहरनाथजी वकील बुलन्दशहर और ६) ला० धर्मदासजी जैन स्टेशनरी मर्चेन्ट देवबंद ला० महावीरप्रसादजी खजाश्ची सैन्ट्रल बैंक ब्रांच
जि० सहारनपुर (७ तालोंके मूल्य रूपमें । बुलन्दशहर (भ्राता वीरेश्रर और पुत्री उर्मिलादेवी १०) पं० दीपचन्दजी जैन पांड्या, केकड़ी (अजमेर) के विवाहोलज्ञमें)।
(चिरञ्जीव पुत्री भंवरीदेवीक विवाहोपलक्षमें)।
१७०11)
१२)
नोटिस यह यकीन करनेकी वजह मौजूद है कि बगैर लाइसेंस हासिल किये हुए अम्लाह खास तौरसे रायफल, रिवाल्वर, और पिस्तौलकी एक बड़ी संख्या फौजसे निकले हुए सिपाही जङ्गके इलाकोंसे । इस प्रान्तमें लाये हैं। गवर्नमेंटने यह फैसला किया है कि इन सिपाहियोंको एक मौका दिया जाय
कि वह इनके लिये लाइसेंस हासिल करलें इसलिय मुशतहर किया जाता है कि अगर फौजसे U निकला हुआ सिपाही इस नोटिसके एक माहके अन्दर हथियार पेश कर देता है और इसके लिये ।
लाइसेंसके लिये दरख्वास्त देता है तो उसके खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जायगा और लाइसेंस * की मंजूरीके मुताल्लिक सोच विचार किया जायेगा और फौजी सेवायें जो इसने अंजाम दी हैं । 0 इस पर ध्यान दिया जायगा । बगैर लाइसेंसके हथियारका रखना सख्त जुर्म है । तमाम फौजसे )
निकले हुए सिपाहियों के फायदे के लिये मशवरा दिया जाता है कि वह इस रियायतसे फायदा उठायें। " और हथियार मय कारतूस बारूद वगैरा दरख्वास्तके साथ सब डिविजनल मैजिस्ट्रेट के सामने नियत समयसे पहले पेश करदें।
दस्तखत जे० ओ० एन० शुक्ला
__ मेजर एम० बी० ई० मोहर अदालत
डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट (सहारनपुर)
३०-५-४७
Page #512
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Regd. No. A-736.
वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
१ अनित्यभावना-मुग्ख्तार श्री जुगलकिशोरके ६ न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण)हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ-महित । इष्टवियोगादिवे. न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्याय दीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण बार पढ़ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी ग्वाम विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित इसके पाटसे उदासीनता तथा ग्वेद दूर होकर चित्तमें सस्करणोंमें जो अशुद्धियाँ चली प्रारही थीं उनके प्राचीन प्रसन्नता और सरसता अाजाती है । मर्वत्र प्रचारके प्रतियांपरसे संशोधनको लिये हुए यह संस्करण मूलग्रन्थ योग्य है । मू०।)
और उसके हिंदी अनुवाद के माथ प्राक्कथन, सम्पादकीय २ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-नया
१०१ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची बार कोई ८ प्राप्त संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी मानवाद
परिशिष्टोंमे सङ्कलित है, माथ सम्पादक द्वाग नवनिर्मित व्याख्या सहित | मू०)
'काशाव्य' नामका एक मंस्कृतटिप्पण लगा हुआ है, .
जो ग्रन्थगत कटिन शब्दों तथा विषयांका खुलासा करता ३ मत्माधु-म्मरण-मङ्गलपाठ- मुख्तार श्री
हुअा विद्यार्थियां नथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज जुगलकिशोरकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना
है। लगभग ८०० पृष्टीक हम मजिल्द वृहत्संस्करणका मुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-महित । इममें श्रीवीर
लागत मूल्य ५) म० है । कागज की कमीके कारण घोड़ी बद्धमान और उनके बाद के जिनसेनाचार्य पर्यन्न, २१
ही प्रनियाँ छपी है । अतः इच्छुकां को शीघ्र ही मंगा महान श्राचायोंके अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा
लेना चाहिये । ! किये गये महत्वके १३६ पण्य स्मरणोंका संग्रह है और शुम्म १ लोकमंगल कामना, २ नित्यकी अात्म प्रार्थना,
७ विवाह-ममुद्देश्य-लेखक पं० जुगलकिशोर ३ साधुवेपनिदर्शक जिनस्तुति, ४ परमसाधुमखमुद्रा प्रार मुख्तार, हालम प्रकाशित चतुथ मस्करण । ५ सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण हैं। पुस्तक पढ़ते
__ यह पुस्तक हिन्दी साहित्यम अपने ढंगकी एक ही समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और
चीज है । इसमें विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही साथ ही श्राचार्योंका कितना ही इतिहास सामने श्राजाता
मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है, अनेक है, नित्य पाठ करने योग्य है । मू० ॥)
विरोधी विधि विधानों एवं विचार प्रवृत्तियोंसे उत्पन्न हुई
विवाहकी कठिन बार जटिल समस्याको बड़ी युक्तिक ४ अध्यात्म-कमल-मात्तण्ड--यह पंचाध्यायी
साथ दृष्टिक स्पष्टीकरण द्वारा मुलझाया गया है और इम तथा लाटीसंहिता श्रादि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमल्लकी अपूर्व रचना है । इसमें अध्यात्मममुद्रको कृजेमें बन्द
तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है । विवाह
क्या किया जाता है? उसकी अमली गरज और किया गया है। साथमें न्यायाचार्य पं. दरबारोलाल कोठिया
सैद्धान्तिक स्थिति क्या है ? धर्मस, समाजम पार गृहस्थाऔर पंडित परमानन्द शास्त्रीका सुन्दर अनुवाद,
श्रमसे उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी
चाहिये? उसके लिये वर्ण पार जातिका क्या नियम लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। बड़ा ही
हो मकता है ? विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ उपयोगी ग्रंथ है । मू० १॥)
होता है ? इत्यादि बातोंका इस पुस्तकम बड़ा ही युक्ति५ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा--- मुख्तार
पुरस्मर एवं हृदयग्राही वर्णन है। मू० ॥) श्रीजुगलकिशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षाओंका प्रथम अंश, ग्रन्थ-परीक्षाओंके इतिहासको लिये हाए १४ पेजकी नई प्रस्तावना सहित । मू०।)
वीरसंवामन्दिरममावा (महारनपुर)
मदक, पाशक पं. परमानन्द शास्त्री नगशमन्दिा मासावारे लिये. यामागम
भाग गयल प्रेम मापुर ममदार
Page #513
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