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________________ २६४ भनेकान्त [ष ८ ले बैठे हैं कि थोडे ही दिनों में उन्हें अनुभव हो जाता इस सब विवेचनका सार यह निकला कि "व्यक्रिगत है कि ऐसी स्वतन्त्रतामें किसी किस्मकी सिद्धि नहीं है और विकासके लिये, कौटुम्बिक समाधानके लिये, सामाजिक न सच्ची तृप्ति । ऐसे लोगोंने अगर उच्च प्रादर्श ही छोर कल्याणके लिये और आध्यात्मिक प्रगतिके लिये संयम और दिया तो फिर उनमें तारक असन्तोष भी नहीं बच पाता। निष्टा अत्यन्त आवश्यक हैं", और इसीलिये सामाजिक विवाह-सम्बन्धमें केवल भोग-संबंधका विचार करने वाले जीवनमें लैंगिक सदाचारका इतना महत्व है। सोोंने भी अपना अनुभव जाहिर किया है एतत्कामफल लोके यव्योः एक चेत्तता। कौनसा स्वरूप ताविक है और कौनसा सॉकेतिक, यह अन्यचित्तकृते कामे शवयोरिव संगमः॥ विचार समय-समयपर करना पड़ता है। उसमें चन्द बातोंमें - यह एकचित्तता पानी हायकी एकता प्रथवा स्नेह परिवर्तन भी आवश्यक हो. लेकिन इतना तो समझ ही प्रन्थी अन्योन्यनिया और अपत्य निष्टाके बिना किसी लेना चाहिये कि लैंगिक सदाचारके बिना समाज-सेवा नहीं सकती। बढ़नेकी बात दूर ही रही। निष्ठाके साथ हो नहीं सकती। - संयम और निष्ठा ही सामाजिक जीवनकी सच्ची जिनका विकास एकांगी हा अथवा जिनके जीवन में बुनियाद है। संयमसे जो शति पैदा होती है. वही चारित्र्य- विकृति श्री गई है, उनसे भी कुछ-न-कुछ. सेवा ली जा का आधार है। जो आदमी कहता है-Jcan resist सकती है। लेकिन वे समाजके विश्वासपात्र सदस्य नहीं onything but temptatiun-वह चास्थिकी बन सकते । समाज निर्भयतासे उनकी सेवा नहीं ले सकता छोटी-मोटी एक भी परीक्षा उत्तीयं न हो सकेगा। और ऐसे आदमीका विकास अशक्यप्राय होता है। इसीलिए संयम ही चारिस्यका मुख्य प्राधार है। उसकी प्रतिष्ठा नाममात्रकी रहती है। चारित्र्यका दूसरा आधार है निष्ठा । व्यक्ति के जीवनकी विषय गम्भीर है। उसके पहलू भी असंख्य है और कृतार्थता तभी हो सकती है जब वह स्वतन्त्रतापूर्वक इनका शुद्ध विचार करनेकी पात्रता प्राजके अपूर्ण समाजमें समष्टिके साथ श्रोत-प्रोत हो जाता है। व्यक्रि-स्वातन्यको पूरी-पूरी है भी नहीं, तो भी इस विषयको हम छोर भी सम्हालते हुये अगर समाज-परायणता सिद्ध करनी हो तो नहीं सकते । लीपा-पोतीसे काम नहीं चलता । केवल वह अन्योन्यनिष्ठाके बिना ही नहीं सकती और अखिल रूढिको सम्हालकर हम समाजको सुरक्षित नहीं रख सकते समाजके प्रति एकसी अनन्यनिष्ठा तभी सिद्ध होती है और अनेक रूढियोंका तुलनात्मक अध्ययन किये बिना और अब आदमी ब्रह्मचर्यका पालन करता है, अथवा कम-से-कम उमका सार्वभौम समन्वय किये बिना हम सामाजिक प्रगति वैवाहिक जीवन परस्पर दनिष्ठासे प्रारम्भ करता । भी नहीं कर सकते । इसीलिये समय-समयपर मनुष्य-जातिअन्योन्यनिष्ठा जब प्रादर्श कोटिको पहंचती है तब वहीसे को इस सवालकी चर्चा करनी ही पाती। संधी समाज-सेवा शुरू होती है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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