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________________ स्त्री धर्म और नारी (लेखक:-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम० ए०, एल-एल० बी) -+90+ और पुरुष दोनों मिलकर ही मानवसमाजकी सुष्ट करते हैं, दोनों ही उसके प्राकृतिक, अनिवार्य, अभिन्न अङ्ग है। एकसे दूसरे की पूर्णता और अस्तित्व है । दोनों ही समानरूपसे मनस्वी होनेके कारण प्राणि वर्ग में सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं। किन्तु जब मनुष्यजातिके सामाजिकजीवन, और विशेतया स्त्रीपुरुष संबंधपर दृष्टिपत किया जाता है तो यह बात सहज ही स्पष्ट होजाती है कि जीवन के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक श्रादि विविध क्षेत्रों में प्रायः सर्वत्र और सर्व समयों में अधिकांशतः पुरुषवर्गका ही प्राधान्य एवं नेतृत्व रहा है । इस बातका सर्वमान्य कारण भी सामूहिक रूपमें पुरुषजातिके शारीरिक एवं मानसिक शक्ति संगठनका स्त्री जाति की अपेक्षा श्रेष्ठतर होना है। इस स्वाभाविक विषमता के फलस्वरूप जहाँ एक ओर पुरुष के श्रात्मविश्वास में महती वृद्धि हुई, उसकी उद्यमशीलता और कार्यक्षमताको प्रोत्साहन मिला तथा उसका उत्तरदायित्व बढ़ा, वहाँ दूसरी ओर उसने अपनी सामूहिक, और जब श्रवसर मिला तब व्यक्तिगत शक्तिविशेषका भरसक अनुचित लाभ उठाया तथा स्वोजातिपर मनमाने अन्याय एवं श्रत्याचार किये। उसके मस्तिष्क में यह टू सनेका अथक प्रयत्न किया कि वह पुरुषकी अपेक्षा हीन है, उसका स्थान गौण है, वह पुरुष के श्राधीन है- श्राश्रित है, उसकी विषयतृति की – ऐहिक सुख भोगकी- एक सामग्री है, उसकी भोगेषणा की पूर्तिका साधनमात्र है अथवा उसका अपना निजी स्वतंत्र व्यक्तित्व और तिल है ही नहीं, जो कुछ याद है तो वह पुरुष के ही व्यक्तित्व और अस्तित्वमें लीन हो जाना चाहिये । पुरुषकी नारी-विषयक इस जघन्य स्वार्थपरता में उसका सबसे बड़ा सहायक रहा है धर्म ! मनुष्य के जीवन में धार्मिक विश्वासका प्रमुख स्थान रहता आया है। और जब जब, जाति विशेष के दुर्भाग्य से, संयोगवश अथवा किन्हीं राजने तिक, सामाजिक, धार्थिक कारणोंसे उक्त जाति में बुद्धिमानों का प्रभाव, ज्ञान और विवेककी शिथिलता, तज्जम्य अज्ञान, अविषेक, रूढ़िवादिता एवं वहमोंका प्रस्तार प्रभाष बढ़ जाता है तो उस आतिके नैतिक पतनके साथ साथ धर्मके गौण बाह्य क्रियाकाण्डों और दोगोका प्रारूप भी हो जाता है । विवेकहीन, विषयलोलुपी स्वार्थी धर्मगुरु और धर्मात्मा कहलाने वाले समाज-मान्य मुखिया समाजका नियन्त्रण और शासन करने लगते हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे अपनी टाँग अड़ाते हैं और मदाखलत बेजा करते हैं । उनके श्रादेश ही धर्माशा होते हैं, वे जो छवस्था दे देते हैं उसका कोई अपील नहीं । धर्मके वास्तविक कल्याणकारी तत्वों एवं मूलसिद्धान्तोंकी वे तनिक भी पर्वाह नहीं करते, जानबूझकर अक्सर उनकी अवहेलना ही करते हैं और दुर्बल समाज मानसिक पराधीनता की बेड़ियों में भी जकड़ घाता है । स्वजाति पुरुषों की अपेक्षा अधिक भावप्रवण होने और स्वयं में हीन का हढ़ विश्वास ( Inferiority complex) होनेके कारण, अपने ही लिये अधिक अपमानजनक, कष्टकर एवं कल्याणकार ऐसी उन धर्मगुरुश्रोंकी श्राशाश्रोको श्रद्धापूर्वक बिना चूँ चरा किये शिरोधार्य करने में सबसे अधिक उत्साह दिखाती है । और इसीलिये एक पाश्चात्य विद्वान् ने ठीक ही कहा है कि-'clergy have been the worst enemies of women, whmen are their best friends.” अर्थात् धर्मगुरु स्त्रियोंके सबसे बड़े शत्रु रहे हैं और स्त्रियाँ उनकी सबसे बड़ी मित्र रही है'। फलस्वरूप किसी भी सभ्य, अर्धमभ्य, असभ्य, पाश्चात्य पौर्वात्य, प्राचीन, अर्वाचीन मनुष्य समाजका इतिहास उठाकर देखिये, किसी न किसी समाजकी थोड़े वा अधिक काल तक, उसके पुरुषवर्ग तथा वैसे धर्मगुरुनोने, चाहे किसी भी धर्मविशेष से उनका संबंध क्यों न रहा हो. स्त्रीजाति के प्रति अपनी तीव्र श्रमहिष्णुताका परिचय दिया ही है। उन सबने ही अपने अपने धर्मामुरूश्रोकी आड़ लेकर
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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