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________________ किरण ६-७] धर्म और नारी पति के लिये सहमरण करनेको तो जैनधर्म में महापातक में मन् ईस्त्री पूर्वक प्रथम शताब्दीमें होने वाले प्राचार्य माना है। यहाँ स्त्री पतिकी सम्पत्ति नहीं है और न उसके शिवार्यने स्पष्ट कथन किया है किभोगकी सामग्री मात्र ही. उसका स्वयंका दायित्व भी है कर कहे हुए दोष स्त्रियोंमें है, उनका यदि पुरुष और उमका उत्तराधिकार भी स्वतन्त्र है। वह अपने विचार करेगा तो वे उसे भयानक दीखेंगी और उसका घरकी स्वामिनी है, और अपना नैतिक उत्कर्ष एवं श्रात्म-चित्त उनसे लौटेगा ही। किन नीच स्त्रि में ओ दोष हैं कल्याण करने में किसीकी अपेक्षा नहीं रखती। जैनधर्ममें वे ही दोष नीच परुषोंमें भी रहते हैं, इतना ही नहीं, कन्या हिन्दु धर्म की भाँति दान देनेकी वस्तु भी नहीं है। स्त्रियों की अपेक्षा उनकी अनादिकोंसे उत्पन्न हुई शक्ति जैन विवादपद्धतिके अनुमार कन्यादान नहीं किया जाता, अधिक रहनेसे उनमें स्त्रियांसे भी अधिक दोष रहते है। उममें कन्या द्वारा पतिका वरण ही होता है, और उमके शीलका रक्षण करनेवाले पुरुषोंको स्त्री जैम निदनीय अर्थात् माथ सप्तपदीके रूपमें कुछ शर्ते भी होती हैं जिनके पालन त्याग करने योग्य है वैसे ही शीलका रक्षण करने वाली करने की वरको प्रतिज्ञा करनी पड़ती है। इसप्रकार जैन स्त्रियोंको भी पुरुष निदनीय अर्थात् त्याज्य हैं । संमार संस्कृति में नारीका स्थान सुनिश्चित् एवं सम्मानपूर्ण है। शरीर भोगोंसे विरक्त मुनियों के द्वारा स्त्रियाँ निन्दन य मानी गई है, तथापि जगतमें कितनी ही स्त्रियौं गुणातिशयसे श्रात्मसाधनके हित संसार शरीर और भीगोंसे विरक्त शोभायुक्त होने के कारण मुनियोके द्वार। भी स्तुति योग्य हुई होनेका उपदेश सभी धोके श्राचार्योने दिया है, और है. उनका यश जगतमें फैला है, ऐसी स्त्रियाँ मनुष्य स्त्री जाति के भी पुरुषके इन्द्रिय भागोंका एक प्रधान साधन लोकमें देवताके समान पूज्य हुई है, देव उनको नमस्कार होने तथा नारीके प्रति उसकी विषयासक्तिके उसकी श्रात्म करते हैं। तीर्थकर चक्रवर्ती नारायण बलभद्र और गणधराकल्याण में रुचि होने के मार्गमें एक भारी रुकावट होने के दिकोंको जन्म देने वाली स्त्रियाँ देव और मनुष्योंमें जो कारण आत्मार्थी पुरुषके लिये उसे घणित. निन्दनीय एवं प्रधान व्यक्ति हैं उनके द्वारा बन्दनीय होगई हैं। कितनी त्याज्य प्रदर्शित किया है। ठीक इसी वृत्तिसे प्रेरित होकर, ही स्त्रियाँ एक पतिव्रत धारण करती है, कितनी ही श्राजन्म निवृति प्रधान जैनधर्मके ब्रह्मचर्यव्रतधाग. निस्पृह. अपरि अविवाहित रहकर निर्मल ब्रह्मचर्यव्रत धारण करती हैं, ग्रही, शानध्यानतप लीन निग्रंथ साधुओने प्रात्मकल्याण 'कोई कोई स्त्रियाँ वैधव्यका तीव्र दुःख भी आजन्म धारण साधनमें स्त्रीप्रसंग द्वारा होने वाले दोषों और बाधाओंपर करती हैं। शीलवत धारण करनसे कितनी स्त्रियोंमें शाप प्रकाश डाला है, और प्रसंगवश स्त्री जातिकी बहुत देने अोर अनुगृह करने की भी शक्ति प्राप्त होगई थी, ऐसा कुछ निन्दा भी की है। किन्तु इमपर भी. इन जैनाचार्योकी शास्त्रोंमें वर्णन है देवताओंके द्वारा ऐमी स्त्रियो । अनेक एक भारी विशेषता यह रही है कि कथन करनेकी भाषा प्रकारसे महात्म्य भी दिखाया गया है। ऐसी महाशीलवती संबंधी सुविधा के लिये ही ऐसे कथन प्रायः पुरुषपक्षसे स्त्रियोंको जलप्रवाह भी बहाने में असमर्थ हैं. अग्नि भी किये गये हैं और इसीलिये उनमें विपक्षी स्त्रीजाति के उनको जला नहीं सकती, शीतल हो जाती है, ऐसी स्त्रियोंक संसर्गकी निन्दा की गई है, किन्तु उक्त कथन समान रूपसे सर्प व्याघ्रादि प्राणी भी नहीं खा सकते और न अन्य स्त्रोपक्षमें पुरुष जाति के लिये भी उपयुक्त समझने चाहिये। स्थानमें उठाकर फेंक सकते हैं। सम्पूर्ण गुणांसे परिपूर्ण उदाहरणार्थ, दिगम्बर जैनाचारके प्रसिद्ध प्राचीन ग्रंथ श्रेष्ठ पुरुषों में भी श्रेष्ठ तद्भवमोक्षगामी पुरुषोंको कितनी ही 'भगवती पाराधना' (अाश्वास ६, गाथा ६६१-१००२) शीलवती स्त्रियांने जन्म दिया है । मोहके उदयसे जीव • Also see Prof. Satkori Mukerji's कुशील बनते हैं, मलिन स्वभावके धारक बनते हैं, और article-The status of women in यह मोहका उदय सब स्त्रीपुरुषों में समान रीतिसे है। जो पीछे Jain religion" और जैनधर्मेर नारी'स्थान, रूपनन्दा स्त्रियों के दोषोंका वर्णन किया है वह श्रेष्ठ शीलवती स्त्रियोंपौष १३४४ के साथ सम्बंध नहीं रखता अर्थात् वह सब वर्णन कुर्शल
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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