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________________ ३३६ अनेकान्त [ वर्ष ८ होता, बल्कि उससे और भी सुस्पष्ट होजाता है कि बन्ध नहीं है । जैसा कि पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिसे आप्तमीमांसाकी ९३वीं कारिकामें छठे गुणस्थानवर्ती भी प्रकट है :मुनिका नहीं, किन्तु अबन्धक गुणस्थानवर्ती संयमी- 'ते एते पञ्च बन्धहेतवः समस्ता व्यस्ताश्च भवन्ति । का ग्रहण किया गया है और यदि विद्वान विशेषण तद्यथा-मिथ्यादृष्टेः पञ्चायि समुदिता बन्धहेतवो वहाँ कोई सार्थकता रखता है तो उससे केवलीका ही बोध होता है।' भवन्ति । सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यमिथ्यादृष्ट्यसंयत सम्यग्दृष्टीनामविरत्यादयश्चत्वारः । संयतासंयतस्यावि___पाठकगण, अब देखें कि प्रो. सा.का यह बौद्धिक व्यायाम सैद्धान्तिक स्थितिके अनुकूल भी है क्या? रतिविरतिमिश्रा प्रमादकषाययोगाश्च । प्रमत्तसंयतस्य यह प्रकट है कि उल्लिखित कारिकामें 'वीतरागो प्रमादकषाययोगाः । अप्रमत्तादीनां चतुणों योगमुनिविद्वान' शब्दोंसे प्रो. मा.को छठे आदि गुण- कषायौ । उपशान्तकषाय-क्षीणकषाय-सयोगकेवलिस्थानवर्ती मुनिका ग्रहण इसलिये इष्ट नहीं है कि उनके नामेक एक एव योगः । अयोगकेवलिनो न प्रमाद और कषाय इन दो बन्धके कारणोंका सद्भाव होनसे वे कर्मबन्धक ही हैं और चंकि कारिकामें बन्धहेतुः ।"-सो. पृ. २५१ । प्रबन्धक व्यक्तिको दिवाना है, जो सम्ख-दखकी तात्पर्य यह हुआ कि सयोगकेवलीके योगका वंदनासे युक्त भी हो, इसलिये वहाँ विद्वान विशेषणकं मद्भाव होनेसे वे भी उसी प्रकार बन्धक है जिस सामर्थ्यसे अबन्धक-केवलीका वे बोध करते हैं। यह प्रकार छठे आदि गुणस्थानवर्ती मुनिके प्रमाद और ध्यान रहे कि केवलीसे सयोगकेवली जिनका ग्रहण ही कषायके मद्भावसे वे बन्धक हैं और इसलिये प्रो. उन्हें इष्ट है, अयोगकवली जिनका नहीं, क्योंकि भख सा.ने जो बड़े बौद्धिक व्यायामसे उक्त कारिकामं प्यास आदिकी वेदना और कवलाहार उन्हींके 'वीतरागो मुनिविद्वान' शब्दांसे केवली अर्थ फलिन बतलाना उन्हें अभीष्ट है। अब पाठक सैद्धान्तिक करनेके लिय मयोगी जिन केवलीको प्रबन्धक स्थितिपर गौर करें । सिद्धान्तमें कर्मबन्धके पाँच बतलाया है वह एकदम सैद्धान्तिक स्थितिके प्रतिकृत कारण बतलाये गये हैं-१ मिध्यादर्शन, २ अविरति, है । कार्मिक ग्रन्थीम स्पयतया बतलाया गया है कि ३ प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग । जैसा कि 'तत्त्वार्थ- सयांग केवलीके भी योगके मद्भावसे सातावेदनीयका सूत्र'के निम्न सूत्रसे स्पष्ट है : बन्ध होता है और इसलिये उन्हें अबन्धक कैसे कहा जासकता है ? वास्तवमें बात यह है कि पूर्वपक्षीकी "मिध्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहंतवः" उल्लिखित एकान्त-मान्यता अपनमें केवल दुख उत्पन्न मिध्याष्टिक पाँचोंसे बन्ध होता है । मासादनसे करनेसे पुण्य-बन्ध और केवल सुख उत्पन्न करनेसे लेकर चौथे गुणस्थान तकके जीवोंके मिथ्यादर्शनको पापबन्धका कथन संगत है या असंगत, यह दिखाना छोड़कर शेष चारसे बन्ध होता है । पाँचवें मंयता- ही आप्रमीमांसाकारको अभिप्रेत है । अतः उममें संयत गुणस्थानवालेके मिली हुई अविरति तथा उन्होंने दूषणोद्भावन करके अनेकान्त मान्यताको विरति और प्रमाद, कषाय एवं योग इनसंबन्ध होता प्रश्रय दिया है, अब उसे एकान्ती माने या न माने है। प्रमत्तसंयतके प्रमाद, कषाय और योग इन तीन- उसके अधीन है। प्रकाशका काम अन्धकारमें वस्तुसे बन्ध होता है। अप्रमत्त आदि सूक्ष्मसाम्प्राय को दिखा देना है। देखने वाला उसे ग्रहण करे या तकके जीवोंके कषाय और योगसे बन्ध होता है। १ "उवसंत-खीणमोहे जोगिम्हि य समयहिदी सादं ।। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय ओर सयोगकेवलीके णायब्वो पयडीणं बंधस्संतो श्रणतो य॥" केवल एक योगसे बन्ध होता है। प्रयोगकेवलीके -गो. क. गाथा १०२
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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